९१. अभिमान करने वाली की कथा
निर्मल केवलज्ञान धारी जिन भगवान् को नमस्कार का मान करने से बुरा फल प्राप्त करने वाले की कथा लिखी जाती है। इस कथा को सुनकर जो लोग मान के छोड़ने का यत्न करेंगे वे सुख लाभ करेंगे ॥१॥
बनारस के राजा वृषध्वज प्रजा का हित चाहने वाले और बड़े बुद्धिमान् थे । इनकी रानी का नाम वसुमती था। वसुमती बड़ी सुन्दर थी। राजा का उस पर अत्यन्त प्रेम था ॥२-३॥
गंगा के किनारे पर पलास नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें अशोक नाम का एक ग्वाला रहता था । वह ग्वाला राजा को गाँव के लगान में कोई एक हजार घी के भरे घड़े दिया करता था। उसकी स्त्री नन्दा पर इसका प्रेम न था । इसलिए कि वह बाँझ थी और यह सच है, सुन्दर या गुणवान् स्त्री भी बिना पुत्र के शोभा नहीं पाती है और न उस पर पति का पूरा प्रेम होता है । वह फल रहित लता की तरह निष्फल समझी जाती है। अपनी पहली स्त्री को निःसन्तान देखकर अशोक ग्वाले ने एक और ब्याह कर लिया। इस नई स्त्री का नाम सुनन्दा था। कुछ दिनों तक तो इन दोनों सौतों में लोक-लाज से पटती रही, पर जब बहुत ही लड़ाई-झगड़ा होने लगा तब अशोक ने इनसे तंग आकर अपनी जितनी धन-सम्पत्ति थी उसे दोनों के लिए आधी-आधी बाँट दिया । नन्दा को अलग घर में रहना पड़ा और सुनन्दा अशोक के पास ही रही । नन्दा में एक बात बड़ी अच्छी थीं वह एक तो समझदार थी। दूसरे वह अपने दूध दुहने के लिए बरतन वगैरह को बड़ा साफ रखती । उसे सफाई बड़ी पसन्द थी। इसके सिवा वह अपने नौकर ग्वाले पर बड़ा प्रेम करती। उन्हें अपना नौकर न समझ अपने कुटुम्ब की तरह मानती। वह उनका बड़ा आदर-सत्कार करती। उन्हें हर एक त्यौहारों के मौकों पर दान- मानादि से बड़ा खुश रखती। इसलिए वे ग्वाले लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उनके कामों को अपना ही समझ कर किया करते थे। जब वर्ष पूरा होता तो नन्दा राज लगान के हजार घी के घड़ों से अपना आधा हिस्सा पाँच सौ घड़े अपने स्वामी को प्रतिवर्ष दे दिया करती थी। पर सुनन्दा में ये सब बातें न थीं। उसे अपनी सुन्दरता का बड़ा अभिमान था । इसके सिवा यह बड़ी शौकीन थी । साज - सिंगार में ही उसका सब समय चला जाता था। वह अपने हाथों से कोई काम करना पसन्द न करती थी। सब नौकर-चाकरों द्वारा ही होता था। इस पर भी उसका अपने नौकरों के साथ अच्छा बरताव न था । सदा उनके साथ वह माथा- -फोड़ी किया करती थी। किसी का अपमान करती, किसी को गालियाँ देती और किसी को भला-बुरा कहकर झिटकारती । न वह उन्हें कभी त्यौहारों पर कुछ देकर प्रसन्न करती। गर्ज यह कि सब नौकर-चाकर उससे प्रसन्न न थे। जहाँ तक उनका बस चलता वे भी सुनन्दा को हानि पहुँचाने का यत्न करते थे। यहाँ तक कि वे जो गायों को चराने जंगल में ले जाते, वहाँ उनका दूध दुह कर पी लिया करते थे। इससे सुनन्दा के यहाँ पहले वर्ष में ही घी बहुत थोड़ा हुआ। वह राज लगान का अपना आधा हिस्सा भी न दे सकी। उसके इस आधे हिस्से को भी बेचारी नन्दा ने ही चुकाया । सुनन्दा की यह दशा देख कर अशोक ने घर से निकाल बाहर की । नन्दा को अपना गया अधिकार प्राप्त हुआ । पुण्य से वह अशोक की प्रेमपात्र हुई । घर बार, धन-दौलत की वह मालकिन हुई जिस प्रकार नन्दा अपने घर गृहस्थी के कामों को अच्छी तरह चलाने के लिए सदा दान - मानादि किया करती उसी प्रकार अपने पारमार्थिक कामों के लिए भव्यजनों को भी अभिमान रहित होकर जैनधर्मखुश रखती। इसलिए वे ग्वाले लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उनके कामों को अपना ही समझ कर किया करते थे। जब वर्ष पूरा होता तो की उन्नति के कार्यों में दान- मानादि करते रहना चाहिए। उससे वे सुखी होंगे और सम्यग्ज्ञान लाभ करेंगे। जो स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले जिन भगवान् को बड़ी भक्ति से पूजा-प्रभावना करते हैं, भगवान् के उपदेश किए शास्त्रों के अनुसार चल उनका सत्कार करते हैं, पवित्र जैनधर्म पर श्रद्धा - विश्वास करते हैं और सज्जन धर्मात्माओं का आदर सत्कार करते हैं वे संसार में सर्वोच्च यश लाभ करते हैं और अन्त में कर्मों का नाश कर परम पवित्र केवलज्ञान - कभी नाश न होने वाला सुख प्राप्त करते हैं ॥४-१७॥
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