श्री वीर सन्मति गाँव ‘चाँदन’, में प्रगट भये आयकर |
जिनको वचन-मन-काय से, मैं पूजहूँ सिर नायकर ||
ये दयामय नार-नर, लखि शांतिरूपी भेष को |
तुम ज्ञानरूपी भानु से, कीना सुशोभित देश को ||
सुर इन्द्र विद्याधर मुनी, नरपति नवावें शीस को |
हम नमत हैं नित चाव सों, महावीर प्रभु जगदीश को ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वानम्)
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन्! अत्रा तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन्! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सत्रिधिकरणम्)
अष्टक
क्षीरोदधि से भरि नीर, कंचन के कलशा |
तुम चरणनि देत चढ़ाय, आवागमन नशा ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।
मलयागिर चन्दन कर्पूर, केशर ले हरषौं |
प्रभु भव-आताप मिटाय, तुम चरननि परसौं ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।
तंदुल उज्ज्वल-अति धोय, थारी में लाऊँ |
तुम सन्मुख पुंज चढ़ाय, अक्षय-पद पाऊँ ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।
बेला केतकी गुलाब, चंपा कमल लऊँ |
जे कामबाण करि नाश, तुम्हरे चरण दऊँ ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
फैनी गुंजा अरु स्वाद, मोदक ले लीजे |
करि क्षुधा-रोग निरवार, तुम सन्मुख कीजे ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
घृत में कर्पूर मिलाय, दीपक में जारो |
करि मोहतिमिर को दूर, तुम सन्मुख बारो ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
दशविधि ले धूप बनाय, ता में गंध मिला |
तुम सन्मुख खेऊँ आय, आठों कर्म जला ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।
पिस्ता किसमिस बादाम, श्रीफल लौंग सजा |
श्री वर्द्धमान पद राख, पाऊँ मोक्ष पदा ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल गंध सु अक्षत पुष्प, चरुवर जोर करौं |
ले दीप धूप फल मेलि, आगे अर्घ करौं ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
(टोंक के चरणों का अर्घ्य)
जहाँ कामधेनु नित आय, दुग्ध जु बरसावे |
तुम चरननि दरशन होत, आकुलता जावे ||
जहाँ छतरी बनी विशाल, तहाँ अतिशय भारी |
हम पूजत मन-वच-काय, तजि संशय सारी ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं टोंकस्थित श्रीमहावीरचरणाभ्याम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(टीले के अंदर विराजमान अवस्था का अर्घ्य)
टीले के अंदर आप, सोहे पद्मासन |
जहाँ चतुरनिकार्इ देव, आवें जिनशासन ||
नित पूजन करत तुम्हार, कर में ले झारी |
हम हूँ वसु-द्रव्य बनाय, पूजें भरि थारी ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं श्रीमहावीरजिनेंद्राय टीले के अंदर विराजमान-अवस्थायाम् अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
(पंचकल्याणक अर्घ्यावली)
कुंडलपुर नगर मँझार, त्रिशला-उर आयो |
सुदि-छठि-आषाढ़, सुर रतन जु बरसायो ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं आषाढ़शुक्ल-षष्ठ्याम् गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जन्मत अनहद भर्इ घोर, आये चतुर्निकार्इ |
तेरस शुक्ला की चैत्र, गिरिवर ले जार्इ ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं चैत्रशुक्ल-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।
कृष्णा-मंगसिर-दश जान, लोकांतिक आये |
करि केशलौंच तत्काल, झट वन को धाये ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं मार्गशीर्षकृष्ण-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३।
बैसाख-सुदी-दश माँहि, घाती क्षय करना |
पायो तुम केवलज्ञान, इन्द्रनि की रचना ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं बैसाखशुक्ल-दशम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।
कार्तिक जु अमावस-कृष्ण, पावापुर ठाहीं |
भयो तीनलोक में हर्ष, पहुँचे शिवमाहीं ||
चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी |
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी ||
ओं ह्रीं कार्तिककृष्ण-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
जयमाला
(दोहा)
मंगलमय तुम हो सदा, श्रीसन्मति सुखदाय |
चाँदनपुर महावीर की, कहूँ आरती गाय ||
(पद्धरि छन्द)
जय जय चाँदनपुर महावीर, तुम भक्तजनों की हरत पीर |
जड़ चेतन जग को लखत आप, दर्इ द्वादशांग वानी अलाप ||१||
अब पंचमकाल मँझार आय, चाँदनपुर अतिशय दर्इ दिखाय |
टीले के अंदर बैठि वीर, नित झरा गाय का स्वयं क्षीर ||२||
ग्वाले को फिर आगाह कीन, जब दरसन अपना तुमने दीन |
मूरति देखी अति ही अनूप, है नग्न दिगंबर शांति रूप ||३||
तहाँ श्रावकजन बहु गये आय, किये दर्शन मन वचन काय |
है चिह्न शेर का ठीक जान, निश्चय है ये श्रीवर्द्धमान ||४||
सब देशन के श्रावक जु आय, जिनभवन अनूपम दियो बनाय |
फिर शुद्ध दर्इ वेदी कराय, तुरतहिं रथ फिर लियो सजाय ||५||
ये देख ग्वाल मन में अधीर, मम गृह को त्यागो नाहिं वीर |
तेरे दर्शन बिन तजूँ प्राण, सुन टेर मेरी किरपा निधान ||६||
कीने रथ में प्रभु विराजमान, रथ हुआ अचल गिरि के समान |
तब तरह तरह के किये जोर, बहुतक रथ गाड़ी दिये तोड़ ||७||
निशिमाँहि स्वप्न सचिवहिं दिखात, रथ चलै ग्वाल का लगत हाथ |
भोरहिं झट चरण दियो बनाय, संतोष दियो ग्वालहिं कराय ||८||
करि जय! जय! प्रभु से करी टेर, रथ चल्यो फेर लागी न देर |
बहु निरत करत बाजे बजार्इ, स्थापन कीने तहँ भवन जाइ ||९||
इक दिन मंत्री को लगा दोष, धरि तोप कही नृप खाय रोष |
तुमको जब ध्याया वहाँ वीर, गोला से झट बच गया वजीर ||१०||
मंत्री नृप चाँदनगाँव आय, दर्शन करि पूजा विधि बनाय |
करि तीन शिखर मंदिर रचाय,कंचन कलशा दीने धराय ||११||
यह हुक्म कियो जयपुर नरेश, सालाना मेला हो हमेश |
अब जुड़न लगे बहु नर उ नार, तिथि चैत सुदी पूनों मँझार ||१२||
मीना गूजर आवें विचित्र, सब वरण जुड़े करि मन पवित्र |
बहु निरत करत गावें सुहाय, कोर्इ घृत दीपक रह्यो चढ़ाय ||१३||
कोर्इ जय जय शब्द करें गंभीर, जय जय जय हे! श्री महावीर |
जैनी जन पूजा रचत आन, कोर्इ छत्र चँवर के करत दान ||१४||
जिसकी जो मन इच्छा करंत, मनवाँछित फल पावे तुरंत |
जो करे वंदना एक बार, सुख पुत्र संपदा हो अपार ||१५||
जो तुम चरणों में रखे प्रीत, ताको जग में को सके जीत |
है शुद्ध यहाँ का पवन नीर, जहाँ अतिविचित्र सरिता गंभीर ||१६||
‘पूरनमल’ पूजा रची सार, हो भूल लेउ सज्जन सुधार |
मेरा है शमशाबाद ग्राम, त्रयकाल करूँ प्रभु को प्रणाम ||१७||
(धत्ता)
श्री वर्द्धमान तुम गुणनिधान, उपमा न बनी तुम चरनन की |
है चाह यही नित बनी रहे, अभिलाषा तुम्हारे दर्शन की |
ओं ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
अष्टकर्म के दहन को, पूजा रची विशाल |
पढ़े सुनें जो भाव से, छूटें जग-जंजाल ||१||
संवत् जिन चौबीस सौ, है बांसठ को साल |
एकादश कार्तिक वदी, पूजा रची सम्हाल ||२||
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।