या भव कानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरी हमेरी |
आतम जानन मानन ठानन, बान न होन दई सठ मेरी ||
तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आनन टेरी |
आन गही शरनागत को, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी ||
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
हिमगिरि गतगंगा, धार अभंगा, प्रासुक संगा, भरि भृंगा |
जर-जनम-मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा मृदु हिंगा ||
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं |
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ||
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|
वर बावन चन्दन, कदली नन्दन, घन आनन्दन सहित घसौं |
भवताप निकन्दन, ऐरानन्दन, वंदि अमंदन, चरन बसौं ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|
हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत अच्छत जज्जत, भरि थारी |
दुखदारिद गज्जत, सदपद सज्जत, भवभय भज्जत, अतिभारी ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|
मंदार, सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं |
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|
पकवान नवीने, पावन कीने षटरस भीने, सुखदाई |
मनमोदन हारे, छुधा विदारे, आगे धारे गुनगाई ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|
तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रमतम नाशे, ज्ञेय विकासे सुखरासे |
दीपक उजियारा, यातें धारा, मोह निवारा, निज भासे ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|
चन्दन करपूरं करि वर चूरं, पावक भूरं माहि जुरं |
तसु धूम उड़ावे, नाचत जावे, अलि गुंजावे मधुर सुरं ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|
बादाम खजूरं, दाड़िम पूरं, निंबुक भूरं ले आयो |
ता सों पद जज्जौं,शिवफल सज्जौं, निजरस रज्जौं उमगायो ||
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं |
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ||
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|
वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी, आनन्दकारी, दृग-प्यारी |
तुम हो भव तारी, करुनाधारी, या तें थारी शरनारी ||श्री0
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
छन्दः- असित सातँय भादव जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये |
सचि कियो जननी पद चर्चनं, हम करें इत ये पद अर्चनं ||
ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णा सप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |1|
जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है |
गजपुरै गज-साजि सबै तबै, गिरि जजे इत मैं जजिहों अबै ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |2|
भव शरीर सुभोग असार हैं, इमि विचार तबै तप धार हैं |
भ्रमर चौदशि जेठ सुहावनी, धरम हेत जजौं गुन पावनी ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |3|
शुकलपौष दशैं सुखरास है, परम-केवल-ज्ञान प्रकाश है |
भवसमुद्र उधारन देव की, हम करें नित मंगल सेवकी ||
ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |4|
असित चौदशि जेठ हने अरी, गिरि समेदथकी शिव-तिय वरी |
सकल इन्द्र जजैं तित आय के, हम जजैं इत मस्तक नाय के ||
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |5|
जयमाला
शान्ति शान्तिगुन मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा |
मैं तिन्हें भगत मंडिते सदा, पूजिहौं कलषु हंडिते सदा ||
मोच्छ हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन रत्न माल हो |
मैं अबै सुगुन-दाम ही धरौं, ध्यावते तुरत मुक्ति-तिय वरौं ||
जय शान्तिनाथ चिद्रुपराज, भवसागर में अद्भुत जहाज |
तुम तजि सरवारथसिद्धि थान, सरवारथजुत गजपुर महान |1|
तित जनम लियो आनन्द धार, हरि ततछिन आयो राजद्वार |
इन्द्रानी जाय प्रसूति थान, तुम को कर में ले हरष मान |2|
हरि गोद देय सो मोदधार, सिर चमर अमर ढारत अपार |
गिरिराज जाय तित शिला पांडु, ता पे थाप्यो अभिषेक माँड |3|
तेत पंचम उदधि तनों सु वारि, सुर कर कर करि ल्याये उदार |
तब इन्द्र सहसकर करि अनन्द, तुम सिर धारा ढारयो समुन्द |4|
अघ घघ धुनि होत घोर, भभभभ भभ धध धध कलश शोर |
दृमदृम दृमदृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग |5|
तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान |
ताथेई थेई थेई थेई सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल |6|
चट चट चट अटपट नटत नाट, झट झट झट हट नट थट विराट |
इमि नाचत राचत भगति रंग, सुर लेत जहाँ आनन्द संग |7|
इत्यादि अतुल मंगल सु ठाठ, तित बन्यो जहाँ सुर गिरि विराट |
पुनि करि नियोग पितुसदन आय, हरि सौप्यो तुम तित वृद्ध थाय |8|
पुनि राजमाहिं लहि चक्ररत्न, भोग्यो छहखण्ड करि धरम जत्न |
पुनि तप धरि केवल रिद्धि पाय, भवि जीवनि को शिवमग बताय |9|
शिवपुर पहुंचे तुम हे जिनेश, गुण-मंडित अतुल अनन्त भेष |
मैं ध्यावतु हौं नित शीश नाय, हमरी भवबाधा हर जिनाय |10|
सेवक अपनो निज जान जान, करुणा करि भौभय भान भान |
यह विघन मूल तरु खंड खंड, चितचिन्तित आनन्द मंड मंड |11|
छन्दः- श्रीशान्ति महंता, शिवतियकंता, सुगुन अनंता, भगवंता |
भव भ्रमन हनन्ता, सौख्य अनन्ता, दातारं, तारनवन्ता ||
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
शान्तिनाथ जिन के पदपंकज, जो भवि पूजें मन वच काय |
जनम जनम के पातक ता के, ततछिन तजि के जायं पलाय ||
मनवांछित सुख पावे सो नर, बांचे भगतिभाव अति लाय |
ता तें वृन्दावन नित वंदे, जा तें शिवपुरराज कराय ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)