जलाभिषेक पाठ
कवि श्री हरजसराय
जय-जय भगवंते सदा, मंगल-मूल महान |
वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नमौं जोरि जुग-पान ||
(ढाल मंगल की, छन्द अडिल्ल और गीता)
श्री जिन! जग में ऐसो को बुधवंत जू |
जो तुम गुण-वरननि करि पावे अंत जू ||
इंद्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी |
कहि न सकें तुम गुणगण हे! त्रिभुवन-धनी ||
अनुपम अमित तुम गुणनि-वारिधि ज्यों अलोकाकाश है |
किमि धरें हम उर कोष में सो अकथ गुण-मणिराश है ||
पै निज-प्रयोजन सिद्धि की तुम नाम में ही शक्ति है |
यो चित्त में सरधान यातें नाम ही में भक्ति है ||१||
ज्ञानावरणी दर्शन-आवरणी भने |
कर्म मोहनी अंतराय चारों हने ||
लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञान में |
इंद्रादिक के मुकुट नये सुरथान में ||
तब इन्द्र जान्यो अवधितें उठि सुरन-युत वंदत भयो |
तुम पुन्य को प्रेर्यौ हरी ह्वै मुदित धनपतिसों कह्यो ||
अब वेगि जाय रचो समवसृति सफल सुरपद को करो |
साक्षात श्रीअरिहंत के दर्शन करो कल्मष हरो ||२||
ऐसे वचन सुने सुरपति के धनपति |
चलि आयो तत्काल मोद धारे अती ||
वीतराग-छवि देख शब्द जय जय चयो |
दे प्रदच्छिना बार-बार वंदत भयो ||
अति भक्ति-भीनो नम्रचित ह्वे समवसरण रच्यो सही |
ताकी अनूपम शुभ-गती को कहन समरथ कोउ नहीं ||
प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं |
नग-जड़ित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ||३||
सिंहासन ता-मध्य बन्यो अद्भुत दिपै |
ता पर वारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिपै ||
तीन छत्र सिर शोभित चौंसठ चमरजी |
महा भक्तियुत ढोरत हैं तहाँ अमरजी ||
प्रभु तरन-तारन कमल ऊपर अंतरीक्ष विराजिया |
यह वीतराग दशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया ||
मुनि आदि द्वादश सभा के भवि जीव मस्तक नाय के |
बहुभाँति बारंबार पूजें नमें गुण-गण गाय के ||४||
परमौदारिक दिव्य देह पावन सही |
क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं ||
जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे |
राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे ||
श्रम बिना श्रम-जल रहित पावन अमल ज्योति-स्वरूपजी |
शरणागतनि की अशुचिता हरि करत विमल अनूपजी ||
ऐसे प्रभु की शांति-मुद्रा को न्हवन जलतें करें |
‘जस’ भक्तिवश मन उक्ति तें, हम भानु ढिग दीपक धरें ||५||
तुम तो सहज पवित्र यही निश्चय भयो |
तुम पवित्रता-हेत नहीं मज्जन ठयो ||
मैं मलीन रागादिक मलतें ह्वे रह्यो |
महा मलिन तन में वसु-विधि-वश दु:ख सह्यो ||
बीत्यो अनंतो काल यह मेरी अशुचिता ना गर्इ |
तिस अशुचिता-हर एक तुम ही भरहु वाँछा चित ठर्इ ||
अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोष-रागादिक हरो |
तनरूप कारा-गेह तें उद्धार शिव-वासा करो ||६||
मैं जानत तुम अष्टकर्म हनि शिव गये |
आवागमन-विमुक्त राग-वर्जित भये ||
पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही |
नय-प्रमान तें जानि महा साता लही ||
पापाचरण-तजि न्हवन करता चित्त मैं ऐसे धरूँ |
साक्षात श्रीअरिहंत का मानो न्हवन परसन करूँ ||
ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तें |
विधि अशुभ-नसि शुभबंध तें ह्वे शर्म सब विधि तास तें ||७||
पावन मेरे नयन भये तुम दरस तें |
पावन पाणि भये तुम चरननि परस तें ||
पावन मन ह्वै गयो तिहारे ध्यान तें |
पावन रसना मानी तुम गुण-गान तें ||
पावन भर्इ परजाय मेरी भयो मैं पूरण धनी |
मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्ण-भक्ति नहीं बनी ||
धनि धन्य ते बड़भागि भवि तिन नींव शिव-घर की धरी |
वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभ भर भक्ती करी ||८||
विघन-सघन-वन-दाहन दहन प्रचंड हो |
मोह-महा-तम-दलन प्रबल मारतंड हो ||
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि संज्ञा धरो |
जग-विजयी जमराज नाश ताको करो ||
आनंद-कारण दु:ख-निवारण परम-मंगल-मय सही |
मोसो पतित नहिं और तुम-सो पतित-तार सुन्यो नहीं ||
चिंतामणी पारस कल्पतरु एकभव-सुखकार ही |
तुम भक्ति-नवका जे चढ़े ते भये भवदधि-पार ही ||९||
(दोहा)
तुम भवदधि तें तरि गये, भये निकल अविकार |
तारतम्य इस भक्ति को, हमें उतारो पार ||१०||
।।इति अभिषेक पाठ।।