जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं उन जिन भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरुषों की अपने सभा में प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा- जिस पुरुष का जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वह दूसरों के बहुत से गुणों पर बिल्कुल ध्यान न देकर उसमें रहने वाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ गुणों के ग्रहण करने की ओर है वह पुरुष, वह महात्मा संसार
केवलज्ञान जिनका नेत्र है ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर हरिषेण चक्रवर्ती की कथा लिखी जाती है ॥१॥
अंगदेश के सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगर के राजा सिंहध्वज थे । इनकी रानी का नाम प्रिया था । कथानायक हरिषेण इन्हीं का पुत्र था । हरिषेण बुद्धिमान् था, शूरवीर था, सुन्दर था, दानी था और बड़ा तेजस्वी था। सब उसका बड़ा मान - आदर करते थे ॥२-३॥
हरिषेण की माता धर्मात्मा थी । भगवान् पर उसकी अचल भक्ति थी । यही कारण था कि वह अठाई के पर्व में सदा जिन भगवान् का रथ निकलवाया करती और उत्सव मनाती। सिंहध्वज की दूसरी र
देवों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर सुव्रत मुनिराज की कथा लिखी जाती है ॥१॥
सौराष्ट्र देश की सुन्दर नगरी द्वारका में अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की कई स्त्रियाँ थीं, पर उन सबमें सत्यभामा बड़ी भाग्यवती थी । श्रीकृष्ण का सबसे अधिक प्रेम उसी पर था। श्रीकृष्ण अर्धचक्री थे, तीन खण्ड के मालिक थे । हजारों राजा-महाराजा उनकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करते थे ॥२-३ ॥
एक दिन श्रीकृष्ण नमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ समवसरण में जा रहे थे। रास्ते में इन्हों
उन जिन भगवान् को नमस्कार कर, जिनका कि केवलज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, न्यूनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाली धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
गिरनार पर्वत की एक गुफा में श्रीधरसेनाचार्य, जो कि जैनधर्मरूप समुद्र के लिए चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे । उन्हें निमित्तज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्रज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें । आचार्य ने
निर्मल केवलज्ञान के धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर व्यंजनहीन अर्थ करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे। ये बड़े धर्मात्मा और जिन भगवान् के सच्चे भक्त थे । इनकी रानी का नाम पद्मश्री था। पद्मश्री सरल स्वभाववाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करने वाले जिनपूजा, दान, व्रत उपवास आदि पुण्यकर्म निरन्तर किया करती थी। मतलब यह कि जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी॥२-३॥
सुरम्य देश के पोदनपुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कई दिनों की शत्र
गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ऐसे पाँच कल्याणों में स्वर्ग के देवों ने आकर जिनकी बड़ी भक्ति से पूजा की, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर अर्थहीन अर्थात् उल्टा अर्थ करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
वसुपाल अयोध्या के राजा थे। उनकी रानी का नाम वसुमती था । इनके वसुमित्र नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था । वसुपाल ने अपने पुत्र के लिखने-पढ़ने का भार एक गर्ग नाम के विद्वान् पंडित को सौंपकर उज्जैन के राजा वीरदत्त पर चढ़ाई कर दी। कारण वीरदत्त हर समय वसुपाल का मानभंग किया करता था और उनकी प्रजा को भी
जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अक्षरहीन अर्थ की कथा लिखी जाती है। मगधदेश की राजधानी राजगृह के राजा जब वीरसेन थे, उसी समय की यह कथा है। वीरसेन की रानी का नाम वीरसेना था। इनके एक पुत्र हुआ, उसका नाम रखा गया सिंह । सिंह को पढ़ाने के लिए वीरसेन महाराज ने सोमशर्मा ब्राह्मण को रखा । सोमशर्मा सब विषयों का अच्छा विद्वान् था ॥१-३॥
पोदनपुर के राजा सिंहरथ के साथ वीरसेन की बहुत दिनों से शत्रुता चली आती थी । सो मौका पाकर वीरसेन ने उस पर चढ़ाई कर दी। वहाँ से वीरसेन ने अपने यहाँ एक राज्य-व्यवस्था की बा
जिनके सर्व-श्रेष्ठ ज्ञान में यह सारा संसार परमाणु के समान देख पड़ता है, उन सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर निह्नव - जिस प्रकार जो बात हो उसे उसी प्रकार न कहना, उसे छुपाना, इस सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
उज्जैन के राजा धृतिषेण की रानी मलयावती के चण्डप्रद्योत नाम का एक पुत्र था। वह जैसा सुन्दर था वैसा ही गुणवान् भी था। पुण्य के उदय से उसे सभी सुख सामग्री प्राप्त थी ॥३॥
एक बार दक्षिण देश के वेनातट नगर में रहने वाले सोमशर्मा ब्राह्मण का कालसंदीव नाम का विद्वान् पुत्र उज्जैन में आया । वह
निर्मल केवलज्ञान धारी जिन भगवान् को नमस्कार का मान करने से बुरा फल प्राप्त करने वाले की कथा लिखी जाती है। इस कथा को सुनकर जो लोग मान के छोड़ने का यत्न करेंगे वे सुख लाभ करेंगे ॥१॥
बनारस के राजा वृषध्वज प्रजा का हित चाहने वाले और बड़े बुद्धिमान् थे । इनकी रानी का नाम वसुमती था। वसुमती बड़ी सुन्दर थी। राजा का उस पर अत्यन्त प्रेम था ॥२-३॥
गंगा के किनारे पर पलास नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें अशोक नाम का एक ग्वाला रहता था । वह ग्वाला राजा को गाँव के लगान में कोई एक हजार घी के भरे घड़े दि
पुण्य के कारण जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर उपधान अवग्रह की अर्थात् वह काम जब तक न होगा तब तक मैं ऐसी प्रतिज्ञा करता हूँ, इस प्रकार का नियम कर जिसने फल प्राप्त किया, उसकी कथा लिखी जाती है, जो सुख को देने वाली है॥१॥
अहिच्छत्रपुर के राजा वसुपाल बड़े बुद्धिमान् थे। जैनधर्म पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। उनकी रानी का नाम वसुमती था । वसुमती भी अपने स्वामी के अनुरूप बुद्धिमती और धर्म पर प्रेम करने वाली थी। वसुपाल ने एक बड़ा ही विशाल और सुन्दर ' सहस्रकूट' नाम का जिनमन्दिर बनवाया।उसमें उन्होंने श्रीप
इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर विनयधर्म के पालने वाले मनुष्य की पवित्र कथा लिखी जाती है ॥१॥
वत्सदेश में सुप्रसिद्ध कौशाम्बी के राजा धनसेन वैष्णव धर्म के मानने वाले थे। उनकी रानी धनश्री, जो बहुत सुन्दरी और विदुषी थी, जिनधर्म पालती थी। उसने श्रावकों के व्रत ले रक्खे थे। यहाँ सुप्रतिष्ठ नाम का एक वैष्णव साधु रहता था। राजा इसका बड़ा आदर-सत्कार कराते थे और यही कारण था कि राजा इसे स्वयं ऊँचे आसन पर बैठाकर भोजन कराते थे । इसके पास एक जलस्
संसार द्वारा पूजे जाने वाले और केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र है, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर असमय में जो शास्त्राभ्यास के लिए योग्य नहीं है, शास्त्राभ्यास करने से जिन्हें उसका बुरा फल भोगना पड़ा, उनकी कथा लिखी जाती है । इसलिए कि विचारशीलों को इस बात का ज्ञान हो कि असमय में शास्त्राभ्यास करना अच्छा नहीं है, उसका बुरा फल होता है ॥१॥
शिवनन्दी मुनि ने अपने गुरु द्वारा यद्यपि यह ज्ञान रखा था कि स्वाध्याय का समय-काल श्रवण नक्षत्र का उदय होने के बाद माना गया है, तथापि कर्मों के तीव्र उदय से वे
जिनका ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है और संसारसमुद्र से पार करने वाला है, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर उचित काल में शास्त्राध्ययन कर जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ॥१॥
जैनतत्त्व के विद्वान् वीरभद्र मुनि एक दिन सारी रात शास्त्राभ्यास करते रहे। उन्हें इस हालत में देखकर श्रुतदेवी एक अहीरनी का वेष लेकर उनके पास आई इसलिए कि मुनि को इस बात का ज्ञान हो जाए कि यह समय शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने का नहीं है। देवी अपने सिर पर छाछ की मटकी रखकर और यह कहती हुई, कि लो, मेरे पास बहुत ही मीठी छाछ है,
सर्वोत्तम धर्म का उपदेश करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सोमशर्म मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
आलोचना, गर्हा, आत्मनिन्दा, व्रत उपवास, स्तुति और कथाएँ तथा इनके द्वारा प्रमाद को असावधानी को नाश करना चाहिए। जैसे मंत्र, औषधि आदि से विष का वेग नाश किया जाता है। इसी सम्बन्ध की यह कथा है ॥२॥
भारत के किसी हिस्से में बसे हुए पुण्ड्रक देश के प्रधान शहर देवी- कोटपुर में सोमशर्म नाम का ब्राह्मण हो चुका है। सोमशर्म वेद और वेदांग, व्याकरण, निरुरक्त, छन्द, ज्योतिष, शिक्षा और कला का अच्छा विद्व
सब दोषों के नाश करने वाले और सुख के देने वाले ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर अपने बुरे कर्मों की निन्दा-आलोचना करने वाली बीरा ब्राह्मणी की कथा लिखी जाती है ॥१॥
दुर्योधन जब अयोध्या का राजा था तब की यह कथा है। यह राजा बड़ा न्यायी और बुद्धिमान् हुआ है। इसकी रानी का नाम श्रीदेवी था । श्रीदेवी बड़ी सुन्दरी और सच्ची पतिव्रता थी । यहाँ एक सर्वोपाध्याय नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम वीरा था । उसका चाल-चलन अच्छा न था। जवानी के जोर में वह मस्त रहा करती थी । उपाध्याय के घर पर एक विद्यार्थी
चारों प्रकार के देवों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर उस स्त्री की कथा लिखी जाती है कि जिसने अपने किए पापकर्मों की आलोचना कर अच्छा फल प्राप्त किया है ॥१॥
बनारस के राजा विशाखदत्त थे । उनकी रानी का नाम कनकप्रभा था। इनके यहाँ एक चितेरा रहता था। इसका नाम विचित्र था । वह चित्रकला का बड़ा अच्छा जानकार था । चितेरे की स्त्री का नाम विचित्रपताका था। उसके बुद्धिमती नाम की एक लड़की थी । बुद्धिमती बड़ी सुन्दरी और चतुर थी ॥२-४॥
एक दिन विचित्र चितेरा राजा के खास महल में, जो कि बड़ा सु
निर्मल केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के पदार्थों को प्रकाशित करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर श्रद्धागुण के धारी विनयंधर राजा की कथा लिखी जाती है जो कथा सत्पुरुषों को प्रिय है ॥१॥
कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर का राजा विनयंधर था । उसकी रानी का नाम विनयवती था। यहाँ वृषभसेन नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम वृषभसेना था। उसके जिनदास नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था ॥२-३॥
विनयंधर बड़ा कामी था । सो एक बार इसके कोई महारोग हो गया। सच है, ज्यादा मर्यादा से बाहर विषय सेवन भी उल्टा द
सुख के देने वाले संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर शकाल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
पाटलिपुत्र (पटना) के राजा नन्द के दो मंत्री थे । एक शकटाल और दूसरा वररुचि । शकटाल जैनी था, इसलिए सुतरां उसकी जैनधर्म पर अचल श्रद्धा या प्रीति थी और वररुचि जैनी नहीं था, इसलिए सुतरां उसे जैनधर्म से, जैनधर्म के पालने वालों से द्वेष करती थी और इसलिए शकटाल और वररुचि की कभी न बनती थी, एक से एक अत्यन्त विरुद्ध थे ॥ २-३॥
एक दिन जैनधर्म के परम विद्वान् महापद्य मुनिराज अपने संघ को स
स्वर्गादि सुखों को देने वाले और मोक्षरूपी रमणी के स्वामी श्रीजिन भगवान् को नमस्कार कर जयसेन राजा की सुन्दर कथा लिखी जाती है ॥१॥
श्रावस्ती के राजा जयसेन की रानी वीरसेना के एक पुत्र था। इसका नाम वीरसेन था। वीरसेन बुद्धिमान् और सच्चे हृदय का था, मायाचार-कपट उसे छू तक न गया था ॥२॥
यहाँ एक शिवगुप्त नाम का बुद्ध भिक्षुक रहता था । यह मांसभक्षी और निर्दयी था। ईर्ष्या और द्वेष इसके रोम-रोम में ठसा था मानों वह इनका पुतला था। यह शिवगुप्त राजगुरु था। ऐसे मिथ्यात्व को धिक्कार है जिसके वश हो ऐसे माय
स्वर्ग और मोक्ष का सुख देने वाले तथा सारे संसार के द्वारा पूज्य-माने जाने वाले श्री भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन की कथा लिखी जाती है ॥१॥
पाटलिपुत्र (पटना) में वृषभदत्त नाम का एक सेठ रहता था। पूर्व पुण्य के प्रभाव से इसके पास धन सम्पत्ति खूब थी। उसकी स्त्री का नाम वृषभदत्ता था। उसके वृषभसेन नाम का सर्वगुण-सम्पन्न एक पुत्र था। वृषभसेन बड़ा धर्मात्मा और सदा दान-पूजादिक पुण्यकर्मों का करने वाला था ॥२-३॥
वृषभसेन के मामा सेठ धनपति की स्त्री श्रीकान्ता के एक लड़की थी। उसका नाम धनश्री था। धनश्
इस प्रकार के देवों द्वारा जो पूजा-स्तुति किए जाते हैं और ज्ञान के समुद्र हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धर्मसिंह मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
दक्षिण देश के कौशलगिर नगर के राजा वीरसेन की रानी वीरमती के दो सन्तान थीं। एक पुत्र और एक कन्या थी। पुत्र का नाम चन्द्रभूति और कन्या का चन्द्रश्री था । चन्द्र श्री बड़ी सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता देखते ही बनती थी । कौशल देश और कौशल ही शहर के राजा धर्मसिंह के साथ चन्द्रश्री का विवाह हुआ था। दोनों दम्पति सुख से रहते थे । नाना प्रकार की भोगोपभोग वस्
देवों, विद्याधरों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुदृष्टि नामक सुनार की, जो रत्नों के काम में बड़ा होशियार था, कथा लिखी जाती है ॥१॥
उज्जैन के राजा प्रजापाल बड़े प्रजाहितैषी, धर्मात्मा और भगवान् के सच्चे भक्त थे। उनकी रानी का नाम सुप्रभा था । सुप्रभा बड़ी सुन्दरी और सती थी । सच है - संसार में वही रूप और वही सौन्दर्य प्रशंसा के लायक होता है जो शील से भूषित हो ॥२-३॥
यहाँ एक सुदृष्टि नाम का सुनार रहता था । जवाहरात के काम में यह बड़ा चतुर था तथा सदाच
संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को प्रसन्नता पूर्वक नमस्कार कर शुभ नाम के राजा की कथा लिखी जाती है । मिथिला नगर के राजा शुभ की रानी मनोरमा के देवरति नाम का एक पुत्र था। देवरति गुणवान् और बुद्धिमान् था । किसी प्रकार का दोष या व्यसन उसे छू तक न गया था ॥१-२॥
एक दिन देवगुरु नाम के अवधिज्ञानी मुनिराज अपने संघ को साथ लिए मिथिला आए। शुभ राजा तब बहुत से भव्यजनों के साथ मुनि-पूजा के लिए गया । मुनिसंघ की सेवा-पूजा कर उसने धर्मोपदेश सुना। अन्त में उसने अपने भविष्य के सम्बन्ध का मुनिराज से प्रश
केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरुषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने मात्र से ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है ॥१॥
सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ी भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बाई में एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊँचाई में ढाई सौ योजन का है। (एक योजन चार या दो हजार कोस का होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बड़े मच्छ के कानों के पास रहता है। पर यह बहुत ह
जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी और ज्ञान के समुद्र साधुओं को नमस्कार कर वृषभसेन की उत्तम कथा लिखी जाती है ॥१॥
दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुण्डल नगर के राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे और रिष्टामात्य नाम का इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा - मिथ्यात्वी और जैनधर्म का बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं ॥२-३॥
एक दिन श्रीवृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुण्डल नगर की ओर आए। वैश्रवण उनके आने के समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिए उ