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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. भक्तामर स्तोत्र : पद्यानुवाद (आशुकवि : शर्मनलाल सरस सकरार) जो भक्त सुरों के मुकुटों की, मणियों की कान्ति बढ़ाते हैं। जिनकी आभा से धरती के, कण-कण ज्योतित हो जाते हैं॥ जिनके पग पाप-तिमिर हरते, भव तरने जो आलम्बन हैं। उन आदि-काल के आदि प्रभु, आदिश्वर का शत वन्दन है॥ 1॥ जो सकल वाङ्मय के ज्ञाता, प्रज्ञा का पार न पाया है। ऐसे सुर इन्द्रों ने जिनका, स्तोत्रों से गुण गाया है॥ मैं भी त्रय जगत चित्त हारी, उन आदिनाथ को ध्याता हूँ। प्रस्तुत कर पुण्य स्तवन से, मैं अपना भाग्य जगाता हूँ॥ 2॥ हैं इन्द्र सुरेन्द्रों से पूजित, जब जिनकी पावन पाद-पीठ। फिर मेरी क्या औकात भला! मैं हूँ अबोध अल्पज्ञ ढ़ीठ॥ तो भी लज्जा को छोड़ नाथ! तैयार उसी विधि गाने को। जैसे पानी में प्रतिबिम्बित उद्धत हो, शिशु शशि पाने को॥ 3॥ यह सच जिनके जब गुण अनंत, वृहस्पति-सा गुरु गा सका नहीं। जो चाँद पूर्णिमा से पावन, वह कुछ भी दर्शा सका नहीं॥ तो फिर किसकी ऐसी हस्ती, जो पूर्ण आपके गुण गाये। प्रिय प्रलयकाल से उद्वेलित, सागर के कौन पार पाये॥ 4॥ तो भी मैं भक्ति प्रेरणा से, स्तवन करने ललचाता हूँ। होकर के शक्तिहीन भगवन्, मैं वैसे कदम बढ़ाता हूँ॥ जैसे हिरनी ममता के बस, कुछ सोच विचार न करती है। हो निर्बल शिशु छुड़ाने को, खुद सिंह सामना करती है॥ 5॥ माना उपहास पात्र अब मैं, विज्ञों में माना जाऊँगा। पर नाथ आपकी भक्ति ही, ऐसी जो छोड़ न पाऊँगा॥ जैसे वसंत ऋतु आम मौर लख, कोयल कूक मचाती है। बस उसी तरह से तुम्हें देख, मन में उमंग आ जाती है॥ 6॥ क्या करूँ आपकी विनय अहो, प्रभु कितनी अतिशयकारी है। जग के जीवों की भव-भव की, वह पाप रूप परिहारी है॥ हे नाथ! आपकी भक्ति से, संकट वैसे हट जाता है। ज्यों प्रात सूर्य की किरणों से, तत्काल तिमिर छट जाता है॥ 7॥ अतएव मंद मति होकर भी, कर रहा शुरु स्तवन विभु। कारण तेरे गुण का प्रभाव, वैसे सज्जन मन हरे प्रभु॥ ज्यों नाथ! कमल के पत्तों पर, जब ओस बूँद पड़ जाती है। तब वह मोती का रूप धार, जग मोहित कर हर्षाती है॥ 8॥ निर्दोष स्तवन बहुत दूर, पर एक मात्र जो नाम जपे। सच कहता हूँ तत्काल प्रभु, सारी जगती के पाप कटे॥ जिस तरह दूर से ही दिनेश, निज प्रभा इस तरह फैलाता। कितना ही दूर सरोवर हो, खिल कमल फूल तत्क्षण जाता॥ 9॥ हे भुवन विभूषण भूतनाथ! जो भव्य आपको ध्याते हैं। वे भक्त-भक्त से ध्यानी बन, भगवान् स्वयं बन जाते हैं॥ लेकिन इससे अचरज ही क्या, अचरज जिससे बढ़ सके नहीं। वह स्वामी क्या जो सेवक को, अपने समान कर सके नहीं॥ 10॥ जो एक बार टकटकी लगा, भगवान् तुम्हें लख लेता है। वह तुम्हें छोड़ अन्यत्र देव, लख कर भी नाम न लेता है॥ सच है जिसने क्षीरोदधि का, मीठा पावन जल चाखा हो। फिर उसको खारे सागर के, जल की कैसे अभिलाषा हो॥ 11॥ लगता त्रिभुवन के अलंकार, जिस क्षण तेरा अवतार हुआ। वे उतने ही परमाणु थे, जिनसे यह तन तैयार हुआ॥ इसलिए आप जैसा प्रशांत, जिसका विरागता से नाता। लाखों देवों को देख चुका, पर तुम सा देव नहीं पाता॥ १२॥ क्या कहें आपका यह आनन, कितना आनंद प्रदाता है। वह सुर-नर-असुर कोई भी हो, हर नयनों को हर्षाता है॥ कैसे कह दूँ शशि ढाकपात-सा दिन में तेज गमाता है। वह तुम जैसा कब हो सकता, जिस पर कालापन छाता है॥ १३॥ हे नाथ! आपने सचमुच में, ऐसे सुन्दर गुण पाये हैं। पूनम की चाँद कला जैसे, जो तीन लोक में छाये हैं॥ कारण उनको जब तुम जैसा, मिल गया महाबल वाला है। विचरण से उन्हें लोक भर में, फिर कौन रोकने वाला है॥ १४॥ इसमें क्या अचरज नाथ आप हो, अटल अचल संयम धारी। इसलिए स्वर्ग की हर देवी, हर तरह रिझा करके हारी॥ सच प्रबल पवन के झोकों से, कितने ही गिरी गिर जाते हैं। लेकिन सुमेरुगिरि शिखर कभी तूफान हिला भी पाते हैं?॥ १५॥ तुम ऐसे तीन भुवन दीपक, निर्धूम वर्तिका काम नहीं। तुम बिना तेल के जलते हो, बुझने का लेते नाम नहीं॥ चाहे जैसी हो प्रलय पवन, कर सके प्रभंजन मंद नहीं। हे परम ज्योति प्रख्यात शिखा, कोई तुमसा निद्र्वन्द नहीं॥ १६॥ हे नाथ! तुम्हें क्यों सूर्य कहें, तुम उससे काफी आगे हो। तुम अस्त न हो, राहू न ग्रसे, बादल लख कभी न भागे हो॥ तेरा प्रभाव त्रय लोकों में, इक साथ रोशनी लाता है। लेकिन सूरज सीमित थल तक, अपना प्रकाश फैलाता है॥ १७॥ हे नाथ! आपका मुख-शशि तो, मोहांधकार का हर्ता है। चाहे दिन हो या रात नाथ, उसमें कुछ फर्क न पड़ता है॥ फिर कैसे हो वह चन्द्र सदृश, जो सहसा लुप्त नजर आये। जिसको राहु अहि-सा डस ले, मेघों से क्षण में घिर जाये॥ १८॥ हे प्रभु! आपके मुख सन्मुख रवि शशि रखता कुछ अर्थ नहीं। वह बाहर का तम हरे भले, अन्तस तम हरे समर्थ नहीं॥ जिस तरह फसल पक जाने पर, पानी बरसे अस्तित्व नहीं। बस उसी तरह इन दोनों का, तेरे ढिग़ नाथ महत्त्व नहीं॥ १९॥ स्व-पर प्रकाश की ज्ञान ज्योति, जिस तरह आपने पाई है। वैसी ही हरिहरादि सुर में, प्रभु देती नहीं दिखाई है॥ इसलिए आपका आकर्षण, करता उन सबको थोता है। सच है जो तेज रत्न में हो, क्या कभी काँच में होता है?॥ २०॥ अच्छा ही हुआ नाथ मैंने, जो अन्य देवगण को देखा। उनके कारण से ही भगवन्, स्पष्ट हुई अन्तर रेखा॥ हे नाथ! अन्य अवलोकन की, अब मुझको क्या आवश्यकता। लूँ कितने ही मैं जन्म धार, मन अन्य न कोई हर सकता॥ २१॥ जग में जाने कितनी जननी, जन्मा करती हैं पुत्र अनेक। लेकिन तुमसा सुत जन्म सकी, जग में मरुदेवी मात्र एक॥ जैसे दिनेश की किरणों को, हर एक दिशाओं ने धारा। पर सूर्य उदय हो एक मात्र, बस पूर्व दिशा के ही द्वारा॥ २२॥ हे मुनीनाथ! मुनिगण तुमको, सूरज से तेज बताते हैं। वे बना तुम्हें अपना निमित्त, खुद कालजयी हो जाते हैं॥ तेरा अविलम्बन आलम्बन, शिवपुर का परम प्रदाता है। इससे बढक़र कल्याण मार्ग, कोई भी नजर न आता है॥ २३॥ हैं नाम आपके प्रभु अनेक, चिर अजर-अमर पद पाया है। हे स्वामी गणधर आदि ने, अव्यय असंख्य बतलाया है॥ हे देवोपम तुम आदि देव, या ब्रह्मा विष्णु विधाता हो। तुम योगीश्वर हो कामकेतु, नवयुग शिल्पी शिवदाता हो॥ २४॥ सुर-बुध पूजित हैं आप बुद्धि, इसलिए सर्व प्रथम आप बुद्ध। हो सच्चे सुख दाता शंकर, सर्वज्ञ शान्ति करता प्रसिद्ध॥ कहलाते तुम कैलाशपति, तप किया वहाँ से शिव पाया। सृष्टी कर्ता प्रिय पुरुषोत्तम, तुमने बन करके बतलाया॥ २५॥ हे हर जीवों के दु:ख हर्ता, करता हूँ नाथ प्रणाम तुम्हें। हे जग के अजर-अमर भूषण, मैं करूँ नमन अभिराम तुम्हें॥ हे निष्कामी निष्पृही नाथ! नमता गा-गाकर गान तुम्हें। भव-सिन्धु सुखाने वाले प्रभु! करुणानिधि कोटि प्रणाम तुम्हें॥ २६॥ इसमें कोई सन्देह नहीं, सम्पूर्ण गुणों की आप डोर। हे नाथ आपको छोड़ शुद्ध, मिल सका न कोई और ठौर॥ जो अन्य देवताओं को पा, रागादि भाव दर्शाते हैं। वे तुम तक आने का भगवन्, साहस ही कब कर पाते हैं॥ २७॥ जब ऊँचे तरु अशोक नीचे, हे नाथ आप दिखलाते हो। कैसे उतार दूँ शब्दों में, जो शोभा आप बढ़ाते हो॥ ज्यों श्यामल सघन बादलों में, रवि अपनी छटा दिखाता है। उस सूरज से सौ गुना आपकी, तन सुषमा दर्शाता है॥ २८॥ हीरा-पन्ना नीलम आदि, रत्नों से सज्जित सिंहासन। जब आप तिष्ठते हो उस पर, ऐसा लगने लगता आनन॥ माणिक मुक्ता की आभा ने, सचमुच में चक्कर खाया हो। या उदयाचल पर सहस्र किरण, वाला सूरज उग आया हो॥ २९॥ जब चौंसठ चमर इन्द्र ढ़ोरें, छवि समवसरण बढ़ जाती है। तव कुन्द पुष्प-सी धवल देह, लख सुषमा धरा लजाती है॥ लगता जैसे सुमेरुगिरि पर, गिर जल प्रपात की धारा हो। या चन्द्र ज्योत्स्ना ने अपना, साकार रूप विस्तारा हो॥ ३०॥ हे ईश! आपके शीर्ष तीन, जो लटके छत्र दिखाते हैं। उनकी शशि सम कान्ति जिन पर, रवि धूप न फैला पाते हैं॥ त्रय छत्रों की वह चमक-दमक, जिसको लख स्वर्ण लजाता है। उसका ऐश्वर्य त्रिलोकपति, होने की बात बताता है॥ ३१॥ दिग्मंडल में जब दिव्यध्वनि, भगवान् आपकी खिरती है। उसको सुनकर के पता नहीं, तब कितनों की ऋतु फिरती है॥ लगता ज्यों संत समागम का, नभ में बज रहा नगाड़ा हो। या गूँज गगन में जिनमत की, हो रही सुरों के द्वारा हो॥ ३२॥ जब जल गंधोदक बूँदों से, सुरभित हो बह उठती समीर। तब समवसरण में कल्पवृक्ष हों, स्वागत करने को अधीर॥ तब देव गगन में प्रमुदित हो, इतने प्रसून बरसाते हैं। लगता वे प्रसून नहीं दव्यिध्वनि-सी ध्वनि उनमें हम पाते हैं॥ ३३॥ क्या कहें आपकी दिव्य देह से, दीप्त जन्म जब लेती है। तब वह भामंडल बन जग को, दैदीप्यमान कर देती है॥ त्रय लोकों में जितने पदार्थ, चमकीले हमें दिखाते हैं। उस समय आपकी आभा से, वे सब फीके पड़ जाते हैं॥ ३४॥ हे नाथ! आपकी ध्वनि, स्वर्ग शिव मार्ग बताने वाली है। अपनी-अपनी भाषाओं में, परिणमन कराने वाली है॥ प्रिय दिव्यध्वनि में सप्त तत्त्व, हो नव पदार्थ परिभाषा है। जो इनको आत्मसात कर ले, हो उसकी पूर्ण पिपासा है॥ ३५॥ हे नाथ! आपके युगल-चरण, हैं स्वर्ण-सरोजों से सुन्दर। चरणों के नख यों कान्तिमान, जिस जगह पैर पड़ते भू पर॥ उस पल विहार की बेला में, पग जिनवर जहाँ बढ़ाते हैं। पहले से ही सुर वहाँ-वहाँ, सोने के कमल रचाते हैं॥ ३६॥ इस विधि धर्मोपदेश में प्रभु, जो आप विभूति बताई है। वैसी ही अन्य धर्म वालों के, संग में नहीं दिखाई है॥ सच है जो ज्योति भुवन भू पर, इक मार्तण्ड की पाते हैं। वैसी करोड़ नक्षत्र कभी, इक साथ नहीं कर पाते हैं॥ ३७॥ प्रभु जिसके युगल कपोलों पर, मधु मद के झरने-झरते हों। जिस पर मडऱाकर के मधुकर, गुनगुन कोलाहल करते हों॥ ऐसा ऐरावत-सा कुंजर, क्रोधित जब टकरा जाता है। तब नाथ! आपका परम भक्त, उससे न जरा भय खाता है॥ ३८॥ अपने नाखूनों से जिसने, गज के मस्तक को फाड़ा हो। गज मुक्ताओं से धरा सजा, बनकर विकराल दहाड़ा हो॥ ऐसे बर्बर के पंजे में, जिन भक्त कदाचित पड़ जाये। वह सिंह क्रूरता भूल तभी, अरि से स्नेही दिखलाये॥ ३९॥ हो कैसे भी पावक प्रचण्ड, वन प्रलय-पवन धधकाती हो। लगता हो जैसे अभी-अभी, वह आसमान छू जाती हो॥ ऐसे दावानल वेग समय, जो नाथ आपको ध्याता है। तत्काल आपका नाम-नीर, पावक को नीर बनाता है॥ ४०॥ कोयल के कण्ठ समान कुपित, कैसा भी नाग कराला हो। दिखला कर लाल-लाल लोचन, फण फैला डसने वाला हो॥ तब तेरी नाम नाग दमनी, औषधि समीप जो रखते हैं। उनका कैसे भी विषधर हों, कुछ अहित नहीं कर सकते हैं॥ ४१॥ अगणित तुरंग हिन-हिना रहे, गज भी चिंघाड़ मचाता हो। उस समय समर की धूली में, दिनकर भी नहीं दिखाता हो॥ तब नाथ! आपके ही बल पर, लड़ रिपु दल यों हट जाता है। ज्यों सूर्योदय के होते ही, तम-तोम स्वयं छट जाता है॥ ४२॥ घातक शस्त्रों से क्षत-विक्षत, गज शोणित दरिया बहता हो। उसमें तेजी से उतर तैरने को हर योद्धा कहता हो॥ तब उस भीषण रण बीच भक्त रिपुओं को वही हराता है। जो नाथ! आपके शान्त और शीतल पग पंकज ध्याता है॥ ४३॥ कैसा भी होवे मगर-मच्छ, पड़ घडिय़ालों से पाला हो। पावक ने सारा सागर जल, बड़वानल सा कर डाला हो॥ उस उथल-पुथल तूफां में वे, अपना जलयान बचाते हैं। जो नाथ! आपका दृढ़ होकर, क्षण भर भी ध्यान लगाते हैं॥ ४४॥ भव-रोग निवारक सर्वश्रेष्ठ, प्रभु तुमसा वैद्य नहीं कोई। हो महा जलोदर आदि रोग, बचने की आस नहीं होई॥ ऐसे रोगी तेरे पद की, जो तन पर धूल लगाते हैं। वे निश्चित ही होकर निरोग प्रभु कामदेव बन जाते हैं॥ ४५॥ जब नाथ! आपके वन्दन से, कर्मों की कडिय़ाँ कटती हैं। तब लोह शृंखलाएँ कब तक, भक्तों का तन कस सकती हैं? जिसका तन नख से चोटी तक, हो कसा छिली जंघायें हों। प्रभु नाम लिए अब वे टूटीं, फिर पूर्ण न क्यों आशायें हों॥ ४६॥ जो श्रद्धावान भक्त इसका, पारायण कर हर्षाता है। अनवरत अटल तन्मय होकर, जो सुनता और सुनाता है॥ उसको गज, सिंह, अहि, अग्नि, रण में रिपु हरा न पाते हैं। रहता है कोई रोग नहीं, वे मनवाँछित फल पाते हैं॥ ४७॥ भक्तामर की यह वर्ण-माल, जो मानतुंग ने गूँथी है। सचमुच सर्वोत्तम फलकारी, हे भव्यो इतनी ऊँची है॥ कह सरस जैन सकरार, इसे दृढ़ हो जो धारण करता है। वह मानतुंग आचारज सा चिर मुक्ति-लक्ष्मी वरता है॥ ४८॥
  2. भक्तामर स्तोत्र भाषा (हेमचन्द) आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार। धरम-धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार॥ सुरनतमुकुट रतन छवि करैं, अंतर पापतिमिर सब हरैं। जिनपद वंदों मन वच काय,भवजलपतित उरधरनसहाय॥ 1॥ श्रुत पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव। शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुनमाल॥ 2॥ विबुध वंद्य पद मैं मति हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन। जलप्रतिबिंब बुद्ध को गहै, शशि मंडल बालक ही चहै॥ 3॥ गुन समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर गुरु पावै पार। प्रलयपवनउद्धतजल जन्तु, जलधितिरै को भुज बलवन्तु॥ 4॥ सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति भाववश कुछ नहिं डरूँ। ज्योंमृगि निजसुत पालनहेतु, मृगपतिसन्मुखजाय अचेत॥ 5॥ मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम। ज्यों पिक अंब कली परभाव, मधुऋतु मधुर करै आराव॥ 6॥ तुम जस जंपत जन छिनमाँहि, जनम जनम के पाप नशाहिं। ज्यों रवि उगै फटै तत्काल, अलिवत नील निशातमजाल॥ 7॥ तब प्रभावतैं कहूँ विचार, होसी यह थुतिजन-मन-हार। ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफल की द्युति विस्तरै॥ 8॥ तुम गुन-महिमा हत-दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष। पापविनाशक है तुमनाम, कमलविकासी ज्यों रविधाम॥ 9॥ नहिं अचंभ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण वरणत सन्त। जो अधीन को आप समान, करैं न सो निंदित धनवान॥ 10॥ इक टक जन तुमको अविलोय, अवरविषैं रति करैं न सोय। को करि क्षीरजलधि जल पान, क्षार नीर पीवैं मतिमान॥ 11॥ प्रभु तुम वीतराग गुण-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन। हैं तितने ही ते परमाणु, यातैं तुम सम रूप न आनु॥ 12॥ कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुरनरनाग-नयन-मनहार। कहाँ चन्द्रमंडलसकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक॥ 13॥ पूरन चन्द्र-ज्योति छविवंत, तुम गुन तीन जगत लंघंत। एकनाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार॥ 14॥ जो सुरतिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ। अचलचलावै प्रलय समीर, मेरुशिखर डगमगै न धीर॥ 15॥ धूमरहित बाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन-घर एह। बात-गम्य नाहीं परचण्ड, अपर दीप तुम बलो अखंड॥ 16॥ छिपहु न लुपहु राहुही छाँहि, जग परकाशक हो छिनमाँहि। घन अनवर्त दाह विनिवार, रवितैं अधिक धरों गुणसार॥ 17॥ सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित मेघ राहु अविरोह। तुममुखकमलअपूरवचन्द, जगतविकाशीजोतिअमंद॥ 18॥ निशदिनशशिरविको नहिंकाम, तुम मुखचन्द हरै तमधाम। जो स्वभावतैं उपजै नाज, सजल मेघ तैं कौनहु काज॥ 19॥ जो सुबोध सोहै तुम माहिं, हरि हर आदिक में सो नाहिं। जो द्युति महा-रतन में होय, काँच-खंड पावे नहिं सोय॥ 20॥ सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया, स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया। कछू न तोहि देख के जहाँ तु ही विशेखिया, मनोग चित्त-चोर और भूल हूँ न पेखिया॥ 21॥ अनेक पुत्र वंतिनी नितंबिनी सपूत हैं, न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं। दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै। दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै॥ 22॥ पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो, कहें मुनीश अंधकार-नाश को सुभान हो। महंत तोहि जानके न होय वश काल के, न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके॥ 23॥ अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो, असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो। महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो, अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥ 24॥ तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं, तु ही जिनेश शंकरो जगत्-त्रये विधानतैं। तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतैं, नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतैं॥ 25॥ नमो करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो, नमो करूँ सुभूरि-भूमि-लोक के सिंगार हो। नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो, नमो करूँ महेश तोहि मोखपंथ देतु हो॥ 26॥ तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे। और देवगण आश्रय पाय, स्वप्न न देखें तुम फिर आय॥ 27॥ तरु अशोक-तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार। मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत॥ 28॥ सिंहासनमणि-किरण-विचित्र, तापर कंचन-वरन पवित्र। तुमतनशोभितकिरनविथार, ज्योंउदयाचलरवि तमहार॥ 29॥ कुंद-पुहुप-सित-चमर ढुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत। ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति॥ 30॥ ऊँचे रहौ सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप। तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झालरसों छवि लहैं॥ 31॥ दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर। त्रिभुवनजन शिव-संगम करै, मानूँ जय-जय रव उच्चरै॥ 32॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप-सुवृष्ट। देव करैं विकसित दल सार, मानों द्विजपंकति अवतार॥ 33॥ तुम तन भामंडल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द। कोटिशंखरवितेजछिपाय, शशिनिर्मलनिशिकरेअछाय॥ 34॥ स्वर्ग मोख मारग संकेत, परम धरम उपदेशन हेत। दिव्यवचनतुमखिरेंअगाध, सबभाषा गर्भित हित साध॥ 35॥ विकसित सुवरन कमल दुति, नख दुति मिलि चमकाहिं। तुम पद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहिं॥ 36॥ ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय। सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय॥ 37॥ मद-अवलिप्त-कपोलमूल अलिकुल झंकारे। तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं॥ काल-वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै। ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै॥ देखि गयंद न भय करै तुम पद-महिमा लीन। विपति रहित संपतिसहित वरतैं भक्त अदीन॥ 38॥ अति मद-मत्त-गयंद कुंभ-थल नखन विदारै। मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै॥ बांकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै। भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोलै॥ ऐसे मृग-पति पग-तलैं जो नर आयो होय। शरण गए तुम चरण की वाधा करै न सोय॥ 39॥ प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर। वमै फुलिंग शिखा उतंग पर जलैं निरंतर॥ जगत समस्त निगल्ल भस्म कर हैगी मानों। तडतडाट दव-अनल जोर चहूँ-दिशा उठानों॥ सो इक छिन में उपशमैं नाम-नीर तुम लेत। होयसरोवरपरिनमैं विकसितकमल समेत॥ 40॥ कोकिल-कंठ-समान श्यामतन क्रोध जलन्ता। रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता॥ फण को ऊँचा करे बेग ही सम्मुख धाया। तब जन होय नि:शंक देख फणपति को आया॥ जो चापै निज पगतलैं व्यापै विष न लगार। नाग-दमनि तुम नाम की है जिनके आधार॥ 41॥ जिस रन-माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम। घनसे गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम॥ अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै। राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै॥ नाथ तिहारे नामतैं सो छिनमाँहि पलाय। ज्योंदिनकरपरकाशतैं अन्धकार विनशाय॥ 42॥ मारै जहाँ गयंद कुंभ हथियार विदारै। उमगै रुधिर प्रवाह वेग जल सम विस्तारै॥ होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे। तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे॥ दुर्जय अरिकुल जीतके जय पावौ निकलंक। तुम पद पंकज मन वसैं ते नर सदा निशंक॥ 43॥ नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै। जामैं बड़वा अग्नि दाहते नीर जलावै॥ पार न पावैं जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर, लहरकी गिनति न ताकी॥ सुखसों तिरैं समुद्रको, जे तुम गुन सुमराहिं। लोल कलोलन के शिखर, पारयानले जाहिं॥ 44॥ महा जलोदर रोग, भार पीडि़त नर जे हैं। बात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहै हैं॥ सोचत रहें उदास, नाहिं जीवन की आशा। अति घिनावनी देह, धरैं दुर्गन्ध निवासा॥ तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज अंग। ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय अनंग॥ 45॥ पाँव कंठते जकर बांध, सांकल अति भारी। गाढ़ी बेड़ी पैर माँहि, जिन जाँघ बिदारी॥ भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने। सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने॥ तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं। छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं॥ 46॥ महामत्त गजराज और मृगराज दवानल। फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल॥ बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै। तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै॥ इस अपार संसार में शरन नाहिं प्रभु कोय। यातै तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय॥ 47॥ यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी। विविधवर्णमय पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी॥ जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें। मानतुंग ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पावैं॥ भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत। जे नर पढ़ै सुभावसो, ते पावैं शिवखेत॥ 48॥
  3. भक्तामर स्तोत्र (क्षु. श्री ध्यानसागरजी महाराज) (तर्ज- भक्तअमर नत-मुकुट सुमणियों की....) भक्त-सुरों के नत मुकुटों की, मणि-किरणों का किया विकास, अतिशय विस्तृत पाप-तिमिर का किया जिन्होंने पूर्ण विनाश। युगारंभ में भव-सागर में डूब रहे जन के आधार, श्री-जिन के उन श्री-चरणों में वंदन करके भली प्रकार॥ 1॥ सकल-शास्त्र का मर्म समझ कर सुरपति हुए निपुण मतिमान्, गुण-नायक के गुण-गायक हो, किया जिन्होंने प्रभु-गुण-गान। त्रि-जग-मनोहर थीं वे स्तुतियाँ, थीं वे उत्तम भक्ति-प्रधान, अब मैं भी करने वाला हूँ, उन्हीं प्रथम-जिन का गुण-गान॥ 2॥ ओ सुर-पूजित-चरण-पीठ-धर प्रभुवर! मैं हूँ बुद्धि-विहीन, स्तुति करने चल पड़ा आपकी हूँ निर्लज्ज न तनिक प्रवीण। जल में प्रतिबिम्बित चन्दा को बालक सचमुच चन्दा जान, सहसा हाथ बढ़ाता आगे, ना दूजा कोई मतिमान्॥ 3॥ हे गुणसागर!शशि-सम सुन्दर तव शुचि गुण-गण का गुण-गान, कोई कर न सके चाहे वह सुर-गुरु सा भी हो मतिमान्। प्रलय-पवन से जहाँ कुपित हो घडिय़ालों का झुंड महान्, उस सागर को कैसे कोई भुज-बल से तैरे बलवान्॥ 4॥ तो भी स्वामी! वह मैं हूँ जो तव स्तुति करने को तैयार, मुझ में कोई शक्ति नहीं पर भक्ति-भाव का है संचार। निज-बल को जाँचे बिन हिरणी निज शिशु की रक्षा के काज, प्रबल स्नेह-वश डट जाती है आगे चाहे हो मृगराज॥ 5॥ मन्द-बुद्धि हूँ, विद्वानों का हास्य-पात्र भी हूँ मैं नाथ! तो भी केवल भक्ति आपकी मुखर कर रही मुझे बलात्। ऋतु वसंत में कोकिल कूके मधुर-मधुर होती आवाज, आम्र वृक्ष पर बौरों के प्रिय गुच्छों में है उसका राज॥ 6॥ निशा-काल का अलि-सम काला जग में फैला तिमिर महान्, प्रात: ज्यों रवि किरणों द्वारा शीघ्रतया करता प्रस्थान। जनम-शृंखला से जीवों ने बाँधा है जो भीषण पाप, क्षण भर में तव उत्तम स्तुति से कट जाता वह अपने आप॥ 7॥ इसीलिए मैं मन्द-बुद्धि भी करूँ नाथ! तव स्तुति प्रारंभ, तव प्रभाव से चित्त हरेगी सत्पुरुषों का यह अविलंब। है इसमें संदेह न कोई पत्र कमलिनी पर जिस भाँति, संगति पाकर आ जाती है जल-कण में मोती-सी कान्ति॥ 8॥ दूर रहे स्तुति प्रभो! आपकी दोष-रहित गुण की भण्डार, तीनों जग के पापों का तव चर्चा से हो बँटाढार। दूर रहा दिनकर, पर उसकी अति बलशाली प्रभा विशाल, विकसित कर देती कमलों को सरोवरों में प्रात:काल॥ 9॥ तीनों भुवनों के हे भूषण! और सभी जीवों के नाथ!! है न अधिक अचरज इसमें जो सत्य-गुणों का लेकर साथ। तव स्तुति गाता जिनपद पाता इसी धरा पर अपने आप, जो न कर सके शरणागत को निज-समान उससे क्या लाभ?॥ 10॥ अपलक दर्शन-योग्य आपके, दर्शन पा दर्शक के नैन, हो जाते सन्तुष्ट पूर्णत:, अन्य कहीं पाते ना चैन। चन्द्र-किरण सा धवल मनोहर, क्षीर-सिन्धु का कर जल-पान, खारे सागर के पानी का स्वाद कौन चाहे मतिमान्?॥ 11॥ हे त्रिभुवन के अतुल शिरोमणि! अतुल-शान्ति की कान्ति-प्रधान, जिन अणुओं ने रचा आपको, सारे जग में शोभावान। वे अणु भी बस उतने ही थे, तनिक अधिक ना था परिमाण, क्योंकि धरा पर, रूप दूसरा, है न कहीं भी आप समान॥ 12॥ सुर-नर-नाग-कुमारों की भी आँखों को तव मुख से प्रीत, जिसने जग की सारी सुन्दर-सुन्दर उपमाएँ ली हैं जीत। और कहाँ चन्दा बेचारा जो नित धारण करे कलंक? दिन में ढाक-पत्र सा निष्प्रभ, होकर लगता पूरा रंक॥ 13॥ पूर्ण-चन्द्र के कला-वृन्द सम धवल आपके गुण सब ओर, व्याप्त हो रहे हैं इस जग में उनके यश का कहीं न छोर। ठीक बात है जो त्रि-भुवन के स्वामी के स्वामी के दास, मुक्त विचरते उन्हें रोकने कौन साहसी आता पास?॥ 14॥ यदि सुरांगनाएँ तव मन में नहीं ला सकीं तनिक विकार, तो इसमें अचरज कैसा? प्रभु! स्वयं उन्हीं ने मानी हार। गिरि को कंपित करने वाला प्रलयकाल का झंझावात, कभी डिगा पाया क्या अब तक मेरु-शिखर को जग-विख्यात?॥ 15॥ प्रभो! आपमें धुँआ न बत्ती और तेल का भी ना पूर, तो भी इस सारे त्रि-भुवन को आभा से करते भरपूर। बुझा न सकती विकट हवाएँ जिनसे गिरि भी जाते काँप, अत: जिनेश्वर! जगत-प्रकाशक अद्वितीय दीपक हैं आप॥ 16॥ अस्त आपका कभी न होता राहु बना सकता ना ग्रास, एक साथ सहसा त्रि-भुवन में बिखरा देते आप प्रकाश। छिपे न बादल के भीतर भी हे मुनीन्द्र! तव महाप्रताप, अत: जगत में रवि से बढ़ कर महिमा के धारी हैं आप॥ 17॥ रहता है जो उदित हमेशा मोह-तिमिर को करता नष्ट, जो न राहु के मुख में जाता बादल देते जिसे न कष्ट। तेजस्वी-मुख-कमल आपका एक अनोखे चन्द्र समान, करता हुआ प्रकाशित जग को शोभा पाता प्रभो! महान्॥ 18॥ विभो! आपके मुख-शशि से जब, अन्धकार का रहा न नाम, दिन में दिनकर, निशि में शशि का, फिर इस जग में है क्या काम? शालि-धान्य की पकी फसल से, शोभित धरती पर अभिराम, जल-पूरित भारी मेघों का, रह जाता फिर कितना काम?॥ 19॥ ज्यों तुममें प्रभु शोभा पाता! जगत-प्रकाशक केवलज्ञान, त्यों हरि-हर-आदिक प्रभुओं में, होता ज्ञान न आप समान। ज्यों झिलमिल मणियों में पाता तेज स्वयं ही सहज निखार, काँच-खंड में आ न सके वह हो रवि-किरणों का संचार॥ 20॥ हरि-हरादि को ही मैं सचमुच, उत्तम समझ रहा जिनराज! जिन्हें देख कर हृदय आपमें, आनन्दित होता है आज। नाथ! आपके दर्शन से क्या? जिसको पा लेने के बाद, अगले भव में भी ना कोई मन भाता ना आता याद॥ 21॥ जनती हैं शत-शत माताएँ शत-शत बार पुत्र गुणवान् पर तुम जैसे सुत की माता हुई न जग में अन्य महान्। सर्व दिशाएँ धरे सर्वदा ग्रह - तारा - नक्षत्र अनेक, पर प्रकाश के पुंज सूर्य को पूर्व दिशा ही जनती एक॥ 22॥ सभी मुनीश्वर यही मानते, परम - पुरुष हैं आप महान्, और तिमिर के सन्मुख स्वामी! हैं उज्ज्वल आदित्य-समान। एक आपको सम्यक् पाकर मृत्युंजय बनते वे संत, नहीं दूसरा है कोई भी मोक्षपुरी का मंगल पंथ॥ 23॥ अव्यय, विभु, अचिन्त्य, संख्या से परे, आद्य-अरंहत महान्, जग ब्रह्मा, ईश्वर, अनंत-गुण, मदन-विनाशक अग्नि-समान। योगीश्वर, विख्यात-ध्यानधर, जिन! अनेक हो कर भी एक, ज्ञान-स्वरूपी और अमल भी तुम्हें संत-जन कहते नेक॥ 24॥ तुम्हीं बुद्ध हो क्योंकि सुरों से, पूजित है तव केवलज्ञान, तुम्हीं महेश्वर शंकर जग को, करते हो आनन्द प्रदान। तुम्हीं धीर! हो ब्रह्मा आतम-हित की विधि का किया विधान, तुम्हीं प्रगट पुरुषोत्तम भी हो हे भगवान्! अतिशय गुणवान॥ 25॥ दुखहर्ता हे नाथ! त्रि-जग के, नमन आपको करूँ सदैव, वसुन्धरा के उज्ज्वल भूषण नमन आपको करूँ सदैव। तीनों भुवनों के परमेश्वर, नमन आपको करूँ सदैव, भव-सागर के शोषक हे जिन! नमन आपको करूँ सदैव॥ 26॥ इसमें क्या आश्चर्य मुनीश्वर! मिला न जब कोई आवास, तब पाकर तव शरण सभी गुण, बने आपके सच्चे दास। अपने-अपने विविध घरों में रहने का था जिन्हें घमंड, कभी स्वप्न में भी तव दर्शन कर न सके वे दोष प्रचंड॥ 27॥ ऊँचे तरु अशोक के नीचे नाथ विराजे आभावान, रूप आपका सबको भाता निर्विकार शोभा की खान। ज्यों बादल के निकट सुहाता बिम्ब सूर्य का तेजोधाम, प्रगट बिखरती किरणों वाला विस्तृत-तम-नाशक अभिराम॥ 28॥ मणि - किरणों से रंग - बिरंगे सिंहासन पर नि:संदेह, अपनी दिव्य छटा बिखराती तव कंचन-सम पीली देह। नभ में फैल रहा है जिसकी किरण-लताओं का विस्तार, ऐसा रवि ही मानो प्रात: उदयाचल पर हो अविकार॥ 29॥ कुन्द-सुमन-सम धवल सुचंचल चौंसठ चँवरों से अभिराम, कंचन जैसा तव सुन्दर तन बहुत सुहाता है गुणधाम। चन्दा-सम उज्ज्वल झरनों की बहती धाराओं से युक्त, मानों सुर-गिरि का कंचनमय ऊँचा तट हो दूषण-मुक्त॥ 30॥ दिव्य मोतियों के गुच्छों की रचना से अति शोभावान, रवि-किरणों का घाम रोकता लगता शशि जैसा मनभान। आप तीन जगत के प्रभुवर हैं, ऐसा जो करता विख्यात, छत्र-त्रय-तव ऊपर रहकर शोभित होता है दिन-रात॥ 31॥ गूँज उठा है दिशा-भाग पा जिसकी ऊँची ध्वनि गंभीर, जग में सबको हो सत्संगम इसमें जो पटु और अधीर। कालजयी का जय-घोषक बन नभ में बजता दुन्दुभि-वाद्य, यशोगान नित करे आपका जय-जय-जय तीर्थंकर आद्य॥ 32॥ पारिजात, मन्दार, नमेरू, सन्तानक हैं सुन्दर फूल, जिनकी वर्षा नभ से होती, उत्तम, दिव्य तथा अनुकूल। सुरभित जल-कण, पवन सहित शुभ, होता जिसका मंद प्रपात, मानों तव वचनाली बरसे, सुमनाली बन कर जिन-नाथ!॥ 33॥ विभो! आपके जगमग-जगमग भामंडल की प्रभा विशाल, त्रि-भुवन में सबकी आभा को लज्जित करती हुई त्रिकाल। उज्ज्वलता में अन्तराल बिन अगणित उगते सूर्य-समान, तो भी शशि-सम शीतल होती, हरे निशा का नाम-निशान॥ 34॥ स्वर्ग-लोक या मोक्ष-धाम के पथ के खोजी को जो इष्ट, सच्चा धर्म-स्वरूप जगत को बतलाने में परम विशिष्ट। प्रगट अर्थ-युत सब भाषामय परिवर्तन का लिए स्वभाव, दिव्य आपकी वाणी खिरती समवसरण में महाप्रभाव॥ 35॥ खिले हुए नव स्वर्ण-कमल-दल जैसी सुखद कान्ति के धाम, नख से चारों ओर बिखरतीं किरण-शिखाओं से अभिराम। ऐसे चरण जहाँ पड़ते तव, वहाँ कमल दो सौ पच्चीस, स्वयं देव रचते जाते हैं और झुकाते अपना शीश॥ 36॥ धर्म-देशना में तव वैभव इस प्रकार ज्यों हुआ अपार, अन्य किसी के वैभव ने त्यों नहीं कहीं पाया विस्तार। होती जैसी प्रखर प्रभा प्रभु! रवि की करती तम का नाश, जगमग-जगमग करने पर भी कहाँ ग्रहों में वही प्रकाश?॥ 37॥ मद झरने से मटमैले हैं हिलते-डुलते जिसके गाल, फिर मँडऱाते भौरों का स्वर सुन कर भडक़ा जो विकराल। ऐरावत-सम ऊँचा पूरा आगे को बढ़ता गजराज, नहीं डरा पाता उनको जो तव शरणागत हे जिनराज!॥ ३८॥ लहु से लथपथ गिरते उज्ज्वल गज-मुक्ता गज मस्तक फाड़, बिखरा दिए धरा पर जिसने अहो! लगा कर एक दहाड़। ऐसा सिंह न करता हमला होकर हमले को तैयार, उस चपेट में आये नर पर, जिसे आपके पग आधार॥ ३९॥ प्रलय-काल की अग्नि सरीखी, ज्वालाओं वाली विकराल, उचट रही जो चिनगारी बन, काल सरीखी जिसकी चाल। सबके भक्षण की इच्छुक सी आगे बढ़ती वन की आग, मात्र आपके नाम-नीर से वह पूरी बुझती नीराग!॥ ४०॥ कोकिल-कण्ठ सरीखा काला लाल-नेत्र वाला विकराल, फणा उठा कर गुस्से में जो चलता टेढ़ी-मेढ़ी चाल। आगे बढ़ते उस विषधर को वह करता पैरों से पार, अहो! बेधडक़ जिसके हिय, तव नाम-नाग-दमनी विषहार॥ ४१॥ जहाँ हिनहिनाहट घोड़ों की जहाँ रहे हाथी चिंघाड़, मची हुई है भीषण ध्वनि जो कानों को दे सकती फाड़। वह सशक्त रिपु-नृप की सेना तव गुण-कीर्तन से तत्काल, विघटित होती जैसे रवि से विघटित होता तम विकराल॥ ४२॥ भालों से हत गजराजों के लहु की सरिता में अविलंब, भीतर - बाहर होने वाले योद्धा ला देते हैं कंप। उस रण में तव पद-पंकज का होता है जिनको आधार, विजय-पताका फहराते वे, दुर्जय-रिपु का कर संहार॥ ४३॥ जहाँ भयानक घडिय़ालों का झुंड कुपित है, जहाँ विशाल, है पाठीन-मीन, भीतर फिर, भीषण बड़वानल विकराल। ऐसे तूफानी सागर में लहरों पर जिनके जल-यान, तव सुमिरन से भय तज कर वे, पाते अपना वांछित स्थान॥ ४४॥ हुआ जलोदर रोग भयंकर कमर झुकी दुख बढ़ा अपार, दशा बनी दयनीय न आशा जीने की भी दिन दो-चार। वे नर भी तव पद-पंकज की, धूलि-सुधा का पाकर योग, हो जाते हैं कामदेव से रूपवान पूरे नीरोग॥ ४५॥ जकड़े हैं पूरे के पूरे, भारी साँकल से जो लोग, बेड़ी से छिल गई पिण्डलियाँ, भीषण कष्ट रहे जो भोग। सतत आपके नाम-मन्त्र का, सुमिरन करके वे तत्काल, स्वयं छूट जाते बन्धन से, ना हो पाता बाँका बाल॥ ४६॥ पागल हाथी, सिंह, दवानल, नाग, युद्ध, सागर विकराल, रोग जलोदर या बन्धन से प्रकट हुआ भय भी तत्काल। स्वयं भाग जाता भय से उस भक्त-पुरुष का जो मतिमान्, करता है इस स्तोत्रपाठ से, हे प्रभुवर! तव शुचि-गुण-गान॥ ४७॥ सूत्र बना गुण-वृन्द आपका, अक्षर रंग-बिरंगे फूल, स्तुति-माला तैयार हुई यह भक्ति आपकी जिसका मूल। मानतुंग जो मनुज इसे नित कंठ धरे उसको हे देव! वरे नियम से जग में अतुलित मुक्ति रूप लक्ष्मी स्वयमेव॥ ४८॥
  4. (आशु अमन ललितपुर) झुके हुए सिर इंद्रों के मणियों की फैली तब आभा। मिथ्यातम का गहन तिमिर पल में ही वहाँ से फिर भागा॥ भवसागर में फँसे हुए भवि ध्याते तुमको मिटे भ्रमण। त्रिभुवन के तुम शिरोमणि हो जिनवर तुमको कोटि नमन॥ १॥ जिनवर वाणी द्वादशांग है, तत्त्व ज्ञान उपजाती है। वाणी आपकी जग कल्याणी मन को खूब लुभाती है॥ मंदबुद्धि है फिर भी जिनवर चरणों में करते गुण गान। आदिश्वर है आदि तीर्थंकर पदपंकज में करूँ प्रणाम॥ २॥ देव इन्द्र राजेन्द्र भी जिनवर कर न सके पूरा गुणगान। मैं तो हूँ अल्पज्ञ हे जिनवर! काव्य छंद का नहीं है ज्ञान॥ मेरी स्तुति ऐसी जिनवर चाँद को ज्यों बालक मचले। नीर भरा हो जब थाली में चाँद को उसमें वो पकड़े॥ ३॥ चन्द्रप्रभा सम गुणों के सागर जिनवर की अद्भुत महिमा। मैं तो क्या वाचस्पति भी गा पाये कहाँ इनकी गरिमा॥ जब मगरमच्छ से युत हो सिन्धु आता रहता हो तूफान। आश्चर्य महा होता है जिनवर पार उसे करले इंसान॥ ४॥ शक्ति नहीं है फिर भी जिनवर भक्ति करने आये हैं। भक्ति आपकी करती प्रेरित स्तुति करने आये हैं॥ हिरणी जैसे सिंह सामना करने से नहीं डरती है। शिशु रक्षा के लिए ही वह तो सिंह सामना करती है॥ ५॥ जिनवर आपकी भक्ति ने अब बना दिया मुझको लाचार। विद्वत जन भी हँसेंगे मुझ पर करता नहीं मगर परवाह॥ ऋतु बसंत जब आती है कोयल की वाणी लगे मधुर। आम्र मंजरी ही कोयल को बोलने पर करती है विवश॥ ६॥ सुना है हमने अब तक जिनवर! जिनभक्ति से पाप कटें। पापों का क्षय करने को हम स्तुति जिनवर तेरी करें॥ अन्धकार से भरी हो अवनी अमावश सी लगे निशा। भविजन जो जिन शरण में जाते अन्धकार में दिखे प्रभा॥ ७॥ जिनवर आप गुणों के सागर गुणों से आप महकते हो। मैं तो हूँ अल्पज्ञ जिनेश्वर विज्ञ भी सुमरन करते हैं॥ कमल पत्र पर जब भी जिनवर नीर की बूँद टपकती है। अस्तित्त्व आपका ऐसा जिनवर मोती तुल्य चमकती है॥ ८॥ सम्पूर्ण दोष उसके मिट जाते जो भवि करते जिनभक्ति। पुण्य कथा ही आपकी सुनकर चिर पापों से मिले मुक्ति॥ कोसों दूर रहे सूरज भी धरा से तम फिर भग जाता। पंकज विकसित सुरभित होता जब रवि किरणें बिखराता॥ ९॥ त्रिभुवन के परमेश्वर तुमको जो भी उर से ध्याते हैं। नहीं कोई आश्चर्य हे जिनवर! वो भी तुम सम बन जाते हैं॥ सेवक बन शरणा जो आये उसको मिलता है ऐश्वर्य। भक्तों को भी निज सम करते नहीं अधिक होता आश्चर्य॥ १०॥ रूप आपका देख के जिनवर नयन मेरे अब हार गए। देख आपको जी नहीं भरता इसीलिए हैं निहार रहे॥ क्षीरोदधि के मीठे जल का जिसने भी है पान किया। खारे जल का कभी नहीं फिर उसने तो सम्मान किया॥ ११॥ वीतरागता के अणुओं से मिलकर जिन की देह बनी। तीन लोक के शिरोमणि जिन, तुम जैसा नहीं और कहीं॥ जिनवर की छवि को जब देखा राग न कहीं झलकता है। उनके रूप की खुशबू से फिर सारा जग महकता है॥ १२॥ श्री मुख की आभा अनुपम है सबको मोहित करती है। सुर नर हो चाहे मुनिगण हो यह आकर्षित करती है॥ चाँद की उपमा देने वालों जिन मुख चाँद न कहलाता। जब दिन में रवि का प्रकाश हो चाँद कहा है नजर आता॥ १३॥ चन्द्र बिम्ब की धवल कांति मय तीनलोक हो गए धवल। त्रिभुवन के ये शिरोमणि हैं आपके गुण हैं सभी विमल॥ आदिश्वर के चरण कमल का जो भवि लेते हैं आश्रय। धरती पर वे करते विचरण ऐसे नर होकर निर्भय॥ १४॥ जब देवलोक से परियाँ आयीं नाना रूपों को धरकर। जिनवर की दृष्टि थी निज पर चली गयी थी वो थककर॥ हवा के झोंके चलते रहते मेरु फिर भी अडिग रहे। श्री जिन हैं मेरु सम निश्चल तन मन उनका अचल रहे॥ १५॥ तेल बिना बत्ती न हो फिर भी दीपक क्या जलता है। आँधी तूफाँ हर क्षण आते तो भी यह न बुझता है॥ जिनवर ही ऐसे दीपक हैं त्रिभुवन के जो तम को हरे। आलोक आपका हरपल रहता चाहे दिन हो रात रहे॥ १६॥ अस्त है जिसका कभी न होता राहु का बनते ना ग्रास। सूरज से बढक़र है जिनवर परम तेजयुत आप प्रकाश॥ तेज आपका ऐसा जिनवर तीनों लोक झलकते हैं। चाँद सितारे कहाँ हैं लगते रवि से अधिक चमकते हैं॥ १७॥ मोह तिमिर के नाशक श्री जिन सत्यधर्म का करे प्रकाश। काले बादल ढक नहीं पाते हर क्षण तम का करते नाश॥ जिन मुख की कांति है ऐसी चाँदनी फीकी लगती है। तीन लोक का तम भग जाता आभा ऐसी निकलती है॥ १८॥ दिन के लिए दिवाकर तुम हो शाम को तुम हो चाँद लगो। तिमिर वहाँ कैसे रह सकता जहाँ पर जिनवर आप रहो॥ फसलों के पक जाने पर ज्यों जलधर का ना काम रहे। आपकी दिव्य ज्योति के आगे रवि शशि भी बदनाम रहे॥ १९॥ महातेजस्वी आप हो जिनवर ज्ञान भी स्वपर प्रकाशक है। हरिहरादि देवों का ऋषिवर ज्ञान ना तिमिर नाशक है॥ जगमग वहाँ प्रकाश है अनुपम मणिमुक्तायें रहे जहाँ। वैसी रश्मियाँ नहीं फैलती रत्न कहाँ और काँच कहाँ?॥ २०॥ राग द्वेषमय देव ये देखे अब तक उनको था माना। आपका दर सच्चा है जिनवर उनको देख के ही जाना॥ आपको देखा जब से जिनवर मुझको भारी लाभ हुआ। अन्य किसी में मन नहीं भरता तुमसे ही अनुराग हुआ॥ २१॥ यहाँ धरा पर शतकों मातायें शिशुओं को जनती हैं। पर आदिश्वर की जननी मरुदेवी ही बस बनती है॥ गगन में लाखों तारे आते जब भी होती है निशा। सूरज एक अकेला जिनवर उसे जने बस पूर्व दिशा॥ २२॥ तुम ही जिनवर आदि मुनीश्वर सत्यज्ञान प्रकाशक हो। शरणा आपकी भविजन आते आप ही शिवपुर शासक हो॥ जनम मरण से रहित वो होता जो भी इनको ध्याता है। बिना आप कोई न जिनवर शिवपुर राह बताता है॥ २३॥ आदि तीर्थंकर आदि जिनेश्वर तुम्ही तो जिनवर कहलाते। ब्रह्मा ईश्वर और जगदीश्वर जिनवर के नाम हैं बतलाते॥ योगीश्वर हो तुम शिवशंकर और भक्त गण कहे मुनीश। नाम आपके अनंत जिनवर त्रिभुवन के तुम ही हो ईश॥ २४॥ गणधरादि इंद्रों से पूजित तुम्ही विधाता हो जिन बुद्ध। त्रिभुवन में शांति के दाता आप ही जिनवर लगते विशुद्ध॥ शिवपुर के अनुगामी तुम ही इसलिए हो तुमतो गणेश। उत्तम तुम सबसे अवनी पर आप विधाता आप हो ईश॥ २५॥ त्रिभुवन के दु:ख तुम हरते हो हे आदिश्वर! तुम्हें नमन। भूमण्डल के तुम आभूषण प्रथम तीर्थंकर! तुम्हें नमन॥ तीन लोक के पिता परम तुम नाभिराय के सुत को नमन। भव सागर से सबको तिराते हे परमेश्वर! तुम्हें नमन॥ २६॥ थे जितने विशुद्ध परमाणु तुममें ही जिनवर आये। आश्चर्य नहीं कोई मुनिवर सद्गुण ही तुममे आ पाये॥ दोष न किंचित आ पाये बने रहे उज्ज्वल अभिराम। सपने में भी दोष नहीं दिखते तुममे हे निर्मल धाम॥ २७॥ तरु अशोक की छाँव तले जिन काया की फैली कांति। रूप रश्मियाँ फैलती रहती होती है मन को भ्राँति॥ जिनवर का तन ऐसा लगता अवनी से मानो रवि निकला। फैली जिन कांति अवनी पर तिमिर वहाँ से फिर निकला॥ २८॥ मणिमुक्तायें चमक रहीं हैं अनुपम लगता सिंहासन। हेम समाँ उज्ज्वल लगता है तब जिनवर का उस पर तन॥ चोटी पर उदयाचल की मानो लगता है रवि निकला। सुंदर तुम सा लगता जिनवर जब वह किरणें बिखराता॥ २९॥ अनुपम श्वेत चँवर तन ढुरना मन को प्रमुदित है करता। स्वर्णचल के तुंग शिवर पर मानो गिरता हो झरना॥ दिव्य देह जिनवर की उस क्षण बहुत ही मन भावन लगती। श्वेत चँवर जब गिरते उठते चाँदनी सी आभा दिखती॥ ३०॥ अतुल कांति से सहित हुआ जो मणिमुक्तामय अति सुन्दर। तीन छत्र हर क्षण शोभित हैं तब जिनवर के सिर ऊपर॥ सम्पूर्ण विश्व में निर्मल है जिनवर का होता है शासन। त्रिभुवन के परमेश्वर के दर्शन से मन होता पावन॥ ३१॥ दसों दिशायें ऊँचे स्वर में करती रहती हैं गुंजन। स्तुति करता जो जिनवर की प्राप्त हो केवलज्ञान विमल॥ गँूजते रहते नभ में हर क्षण धर्मराज के मधुर वचन। दुंदुभि बजकर करती रहती जिनवर का यश ज्ञान विमल॥ ३२॥ कल्पवृक्ष के पुष्प है अनुपम मन को प्रमुदित करते हैं। शीतल-शीतल मंद पवन के झोंके बहते रहते हैं॥ मंद वृष्टि गंधोदक की तब धरा गगन पावन करती। जिनवर की तब दिव्य देशना पंक्ति बाँध मानो खिरती॥ ३३॥ त्रिभुवन की सुन्दरता जब जिनवर के सन्मुख है आती। उनकी छवि को देख देखकर यूँ ही वह शरमा जाती॥ कोटि रवि भी साथ में चमके जिनवर सा नहीं दिव्य प्रकाश। शीतलता ही मिलती रहती होता नहीं कभी संताप॥ ३४॥ प्रभवुर की है दिव्य देशना मोक्ष स्वर्ग पथ बतलाती। मिथ्या धर्म को तज कर यह तो सत्य धर्म को समझाती॥ जो भविजन भी सुनते इसको कर लेते अपना उद्धार। भाषा को परिवर्तित करते अपने-अपने ही अनुसार॥ ३५॥ नख की शोभा अद्भुत लगती जहाँ रखे मुनिनाथ चरण। वहाँ देवगण रचते रहते स्वर्ण छवि से सहित कमल॥ चरण आपके पूज्य हैं जिनवर उनकी शोभा लगे महान। गणधरादि इन्द्रों से वंदित तीन लोक के तुम भगवान॥ ३६॥ जिनवर की छवि अद्भुत है उनके जैसा कोई नहीं। अन्य कुदेवों ने प्रभुवर के जैसी ख्याति पायी नहीं॥ जग का कल्मष शमन करे उसको चाँद कहा जाता। ग्रह नक्षत्रों में जिनवर वह तेज कभी नहीं आता॥ ३७॥ लोल कपोलों से झर-झर कर बहती रहती मद की धार। मद के भरे हुए भौंरे भी करते हैं जिस पर गुंजार॥ क्रोधाशक्त हुआ हो गज भी ऐरावत-सा धर आकार। करता जो जिनवर का सुमरन हो जाता है भव से पार॥ ३८॥ क्रोधी सिंह छलागें भरकर अगर गजों पर वार करे। टपक रहे गजमुक्ता उज्ज्वल रक्त से वसुधा शृंगार करे॥ सिंह अगर ऐसा भक्तों पर वार करे तो चोट कहाँ। जिनवर के युगपद कमलों की हो भक्तों को ओट जहाँ॥ ३९॥ वायु अग्नि प्रलय काल की मचा रही हो हाहाकार। चिंगारी अंगारे निकले विश्व का बदला हो आकार॥ ऐसे दु:ख के क्षण में जो भवि जिनवर का यशगान करें। बाधायें सारी दूर हो उनकी वे नर सुख का पान करें॥ ४०॥ विषधर सर्प भयंकर भारी दिखते हैं मानो हो काल। लाल आँख अतिक्रुद्ध महा लगते हों वे अति ही विकराल॥ अवनी ऐसी नाग जहाँ और उनका ही आतंक रहे। नाथ तुम्हारी शरण जो आये वो तो फिर निशंक रहे॥ ४१॥ अश्व जहाँ हिन-हिन करते हों, गज चिंघाड़ते रहते हों। समर भूमि का दृश्य भयानक अति कोलाहल करते हों॥ जिनवर की स्तुति करता जो विजय वही पा जाता है। रवि रश्मि उजियारा करती तिमिर कहाँ रह पाता है?॥ ४२॥ अस्त्र तमाम गजों को भेदे तन से रक्त रहे बहता। वहाँ निरंतर रक्त से पूरित बहती रहती हो सरिता॥ आदिश्वर के नाम को लेकर जो भी उनको ध्याते हैं। चरण कमल का आश्रय लेकर भवदधि पार हो जाते हैं॥ ४३॥ सागर ऐसा जिसमें होवें मगरमच्छ एवं घडिय़ाल। लहरें वहाँ भयंकर उठती जीव जन्तु होवें विकराल॥ सिंधु भँवर के मध्य कोई फँस जाता है जब जलयान। पार हुए वे तो उस क्षण ही लिया जिन्होंने प्रभु का नाम॥ ४४॥ बेड़ी लोह की पड़ी हुई हो नख से शिख तक देह बंधी। साकल से तन छिलता रहता कंठ से लेकर जाँघ छिली॥ कारागृह में रहकर जो भी प्रभु का सुमरन करते हैं। बंधन टूटते क्षण में उनके दु:ख पलायन करते हैं॥ ४५॥ महाजलोधर रोग हुआ हो पीड़ा हर क्षण बढ़ती हो। साँसें बस आती-जाती हों जीने की आशा घटती हो॥ ऐसे पीडि़त जो भी नर जिनवर की शरण में आते हैं। पीड़ा उनकी झट भग जाती तन कामदेव सा पाते हैं॥ ४६॥ सिंह, अश्व और गजों से समर भूमि का दृश्य महा। सर्प जलोधर बंदीगृह और दृश्य हुआ हो आग लगा॥ जीवन में दु:ख भरे हुए हों, आती हो जब विपदाएँ। श्री जिन के नित चिंतन से पल में ही वहाँ से भग जाएँ॥ ४७॥ जिनवर के गुण सुमनों से युत हमने हार बनाया है। जिनवर के गुण हैं अनंत नहीं हमने गाने पाया है॥ आदिश्वर की स्तुति करने जो श्रद्धा सहित शरण आये। मानतुंग सम अमन भक्त बन आत्म विशुद्धि को पाये॥ ४८॥
  5. भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा- मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्। सम्यक्-प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा- वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल-वाङ् मय-तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोक-नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय-चित्त-हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ! स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल-पवनोद्धत- नक्र- चक्रं , को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥ सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्त:। प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम् नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥ अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:॥ 6॥ त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त-लोक-मलि -नील-मशेष-माशु, सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥ 7॥ मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, - मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु, मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥ 8॥ आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं, त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ 9॥ नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त-मभिष्टुवन्त:। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ 10॥ दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष-विलोकनीयं, नान्यत्र-तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:। पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 11॥ यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं, निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां, यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 12॥ वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि, नि:शेष- निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥13॥ सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क-कला-कलाप- शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति। ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥ चित्रं-किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्- नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15॥ निर्धूम-वर्ति-रपवर्जित-तैल-पूर:, कृत्स्नं जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोषि। गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥ 16॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति। नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा- प्रभाव:, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥ नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं, गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम्। विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति, विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम्॥ 18॥ किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ! निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके, कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु। तेजो स्फ़ुरन् मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि॥ 20॥ मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति। किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥ त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस- मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्। त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥ त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं, ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनङ्ग-केतुम्। योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं, ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् । धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥ तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ! तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय। तुभ्यं नमस्-त्रिजगत: परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्- त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वै:, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥ उच्चै-रशोक- तरु-संश्रितमुन्मयूख - माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥ सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्। बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥ कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं, विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्। उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर-वारि -धार- मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥ छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त- मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्। मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभं, प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥ गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभागस्- त्रैलोक्य-लोक -शुभ-सङ्गम -भूति-दक्ष:। सद्धर्म -राज-जय-घोषण-घोषक: सन्, खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32॥ मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात- सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्घा। गन्धोद-बिन्दु- शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता, दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33॥ शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते, लोक-त्रये-द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती। प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर-भूरि -संख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34॥ स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:, सद्धर्म- तत्त्व-कथनैक-पटुस्-त्रिलोक्या:। दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व- भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥ 35॥ उन्निद्र-हेम-नव-पङ्कज-पुञ्ज-कान्ती, पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:, पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36॥ इत्थं यथा तव विभूति- रभूज्-जिनेन्द्र ! धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य। यादृक्-प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा, तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥ श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल, मत्त- भ्रमद्- भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम्। ऐरावताभमिभ-मुद्धत-मापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38॥ भिन्नेभ-कुम्भ- गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त, मुक्ता-फल- प्रकरभूषित-भूमि-भाग:। बद्ध-क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥ 39॥ कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि -कल्पं, दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतन्तं, त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥ 40॥ रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्, क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतन्तम्। आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शङ्कस्- त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥ 41॥ वल्गत्-तुरङ्ग-गज-गर्जित-भीमनाद- माजौ बलं बलवता-मपि-भूपतीनाम्। उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42॥ कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह, वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे। युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्- त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43॥ अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र- पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ। रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान-पात्रास्- त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥ 44॥ उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार- भुग्ना:, शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:। त्वत्पाद-पङ्कज-रजो-मृत-दिग्ध-देहा:, मर्त्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥ 45॥ आपाद-कण्ठमुरु-शृङ्खल-वेष्टिताङ्गा, गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट-जङ्घा:। त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:, सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति॥ 46॥ मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज-दवानलाहि- संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्ध -नोत्थम्। तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते॥ 47॥ स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्, भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्। धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं, तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥ 48॥
  6. भक्तामर स्तोत्र : हिन्दी पद्यानुवाद (अमृतलाल जैन चंचल) भक्त-देवों की नत मणि-मौलि, कान्ति कारक जो करते हैं। जगत के सकल पाप-तम-पुंज, प्रभाकर से जो हरते हैं॥ अगम संसार-सिन्धु में जो, डूबतों के हैं प्रभु आधार। उन्हीं के युग पद-कमलों का, प्रथम कर वन्दन बारम्बार॥ १॥ अमरपुर-पति से ज्ञानी ने, स्तवन जिनका किया महान। मनोहर, त्रिभुवन-मनमोहन, विशाल स्तोत्रों से कर गान॥ उन्हीं नाभीश्वर-नन्दन की, कहाते हैं जिनेश जो आद्य। आज मैं स्तुति करता हूँ, बनाकर अपना प्रिय आराध्य॥ २॥ देवताओं से पूजित देव! कहाँ प्रभु आप, कहाँ मतिहीन! किन्तु, फिर भी होकर निर्लज्ज, हुआ वन्दन को प्रस्तुत दीन॥ बतायें तो, बालक को छोड़, दूसरा और कौन साईं। नीर में दिखती निशिकर की, प्रभो! पकड़ेगा परछाईं॥ ३॥ गिने यदि सुरगुरु सा भी विज्ञ, आपके, आ, गुण चन्द्र समान। नहीं है यह सम्भव हे देव! कर सके वह पूरा गुणगान॥ मगर-मच्छों से परिपूरित, प्रलय-सी जिसमें चलें हिलोर। कौन तर सकता ऐसा सिन्धु, भुजाओं से करुणे की कोर॥ ४॥ आपकी भक्ति मोहिनी में, मुनीश्वर! है वह आकर्षण। शक्ति से रहित, किन्तु तो भी, स्तवन कर कहता है मन॥ जानती है मृगि यह सब भाँति, कहाँ मैं, कहाँ सिंह बलवान। किन्तु हो शिशु के मोह अधीन, न वह क्या करती रण भगवान?॥ ५॥ जानता नहीं शास्त्र क्या वस्तु, हँसेंगे देख मुझे विद्वान्। बुलाती है मुझको हे नाथ! आपकी, तो भी भक्ति महान॥ मधुर मधु ऋतु के आने पर, कूकतीं क्यों पिक-बालायें? हेतु उसका केवल है एक, आम्र की कोमल कलिकायें॥ ६॥ भ्रमर के तन समान काला, लोक में फैला तम-आकाश। सूर्य की प्रखर रश्मियों से, प्रभो! ज्यों हो जाता है नाश॥ आपकी स्तुति से त्यों ईश! जन्मों-जन्मों के संचित पाप। बिखर कर हो जाते हैं भस्म, एक क्षण भर में अपने आप॥ ७॥ स्तवन करता हूँ यह सोच नाथ, यद्यपि हूँ मैं मतिमन्द। आपके शुचि प्रभाव से ही, प्रफुल्लित होंगे सज्जन वृन्द॥ कमल-दल पर जल बूँदे ही, दयामय! यदि पड़ जाती हैं। वही मोती समान दिखकर, जगत का चित्त लुभाती हैं॥ ८॥ आपकी निष्कलंक स्तुति? प्रभो! छोड़े, वह तो है दूर। आपकी कथा मात्र की नाथ! विश्व के कर देती अघ चूर॥ सूर्य कहते हैं कोसों दूर, न जगती तल पर आते हैं। किन्तु उनकी किरणों से ही, कमल सर में खिल जाते हैं॥ ९॥ आपके वन्दन से यदि नाथ! सभी हो जावें आप समान। प्रभो! तो इसमें क्या वैचित्र्य, नहीं कुछ भी आश्चर्य महान्॥ बतायें तो त्रिभुवन भूषण! जगत में है उनका क्या काम? नौकरों को जो अपने तुल्य, बना लें ना मालिक अभिराम॥ १०॥ आप जिसके नयनों में जा, समा जाते हैं रूपागार। उसे फिर फीका ही लगता, विश्व सा यह विस्तृत संसार॥ भला जिसने पी रक्खा हो, क्षीर सागर का सुन्दर नीर। विभो! वह क्यों कर जावेगा, कहें, खारे सागर के तीर?॥ ११॥ आपका जिन रागादिक हीन, रजों से हुआ प्रभो! निर्माण। जगत में वे उतने ही थे, न रज अब उनके और समान॥ अगर होते वैसे परमाणु, जगत में हे जगदीश्वर! और। आपके सम अवश्य होते, कहीं! दो-चार और चित चोर॥ १२॥ कहाँ वह वदन आपका रम्य, सुर नरोरग का मनहारी। सकल उपमान-विजय अनुपम, त्रिजग-मनमोहन सुखकारी॥ कहाँ बतलायें! वह सकलंक, बापुरा, रंक निशा का दीन। दिवाकर के पद धरते ही, प्रभो! जो हो जाता द्युति-हीन॥ १३॥ शशिकला से निर्मल, रमणीक, मनोहरता से पारावार। आपके गुण निशि वासर नाथ! छानते हैं तीनों संसार॥ ठीक है नाथ! उसे क्या भय, त्रिजगपति का है जिन पर हाथ। खुशी, वे चाहे जहाँ फिरें, कौन लड़ सकता उनके साथ?॥ १४॥ अमर बालाएँ यदि हे नाथ! आपको कर न सकीं वाचाल। कौन तो प्रभु इसमें आश्चर्य, बतायें हे त्रिभुवन भूपाल?॥ प्रलय-मारुत कर सकता है, पर्वतों का अवश्य कन्दन। किन्तु क्या गिरि मन्दर में भी, कभी ला सकता स्पन्दन?॥ १५॥ शिखा होवे जिसकी निर्धूम, न जिसमें जलता होवे स्नेह। पवन से बुझ न सके जो दीप, न देखा ऐसा करुणा-गेह॥ किन्तु निर्धूम, तेल से शून्य, आप हैं वह दीपक आधार। प्रकाशित होता जिससे विश्व, पराजित होता झंझा वार॥ १६॥ आप होते न कभी प्रभु अस्त, आपको ग्रसता कभी न राहु। एक ही साथ आप से तीन, प्रकाशित होते जग-जग बाहु॥ मेघ-मण्डल से भी जगदीश! आपकी रुके न ज्योति अपार। सूर्य से भी बढक़र मुनिनाथ! आप हैं महिमा के आगार॥ १७॥ मोह रूपी तम को हरते, जगतपति! नित्य निरन्तर त्रास। आपका मुख-सरसीरुह, चन्द्र, सतत करता है शुभ्र प्रकाश॥ राहु दे सकता उसे न त्रास, छिपाता उसे न घन का पुञ्ज। जगत-मनमोहन हे जगदीश!आपका मुख सौन्दर्य-निकुंज॥ १८॥ तिमिर का कर देता जब नाश, आपका मुख-शशि ही अभिराम। रात्रि में विधु, दिन में रवि का, बतायें प्रभु फिर है क्या काम? हो गया हो यदि जग माँहि, पूर्ण परिपक्क जिनेश्वर धान। नीर से लदे बादलों का, काम फिर कहें कौन भगवान्?॥ १९॥ शुद्धतम, निर्मल, ज्ञान जिनेश! आप में जो छवि पाता है। हरि-हरादिक देवों में वह, नरोत्तम! रंच न भाता है॥ एक सुन्दर, अनुपम मणि में, नाथ जो होता उजियाला। उसे क्या पा सकता है, रंक, काँच झिलमिल करने वाला॥ २०॥ हरिहरादिक को देखे से, किन्तु है एक लाभ भारी। अरुचि उनसे होती है, और, आप बन जाते मनहारी। आपके दर्शन से पर देव, कहें, मैं लाभ कौन पाऊँ? आप ही आप मिलें सुंदर, शतों भव चाहे फिर आऊँ॥ २१॥ जगत के बीच अनेकों मात, प्रसव करती हैं पुत्र जिनेश। किसी माँ ने न किया उत्पन्न, आपके सम पर, सुत-राकेश॥ दिशायें सारी धरती हैं, सितारों का प्रभु उजियाला। किन्तु प्राची ही प्रकटाती, दिवाकर सहस रश्मि वाला॥ २२॥ विमल, पुरुषोत्तम रविवत् शुभ्र, आदि ले लेकर सुन्दर नाम। आपको योगीजन जगदीश, पुकारें नित्य सुबह और शाम॥ आपको पाकर वे जिनराज! मृत्यु पर जय पा जाते हैं। जगत में अन्य आपको छोड़, मुक्ति का पन्थ न पाते हैं॥ २३॥ आपको कहता कोई आद्य, कोई अव्यय अचिन्त्य योगेश। कोई कहता है एक अनेक, कोई विभु हरि योगी परमेश॥ कोई कहता अनंगध्वज नाथ! कोई कहता प्रभु निर्मल संत। कोई कहता है ज्ञान स्वरूप, आपको कहता कोई अनंत॥ २४॥ आप ही बुद्ध विबुध पूजित, केवली शुद्ध बुद्धि धारी। आप ही हैं सच्चे शंकर, जगत्पति! जग मंगलकारी॥ आप ही विधिकारक ब्रह्मा, मोक्ष के पथ के प्रतिपादक। आप ही प्रभु पुरुषोत्तम व्यक्त, मदन मोहन वंशी वादक॥ २५॥ त्रिजग के दु:ख हरने वाले, आपको मेरे लाख प्रणाम। भूमि के हे निर्मल भूषण, आपको मेरे लाख प्रणाम॥ भवोदधि के शोषण-कर्ता, आपको मेरे लाख प्रणाम। जगत के पति हे परमेश्वर, आपको मेरे लाख प्रणाम॥ २६॥ निराश्रित गुण गण ने यदि देव! आपको बना लिया आगार। कौन तो इसमें विभु! आश्चर्य, बतायें, मुझको गुण आधार॥ स्वप्न तक में भी दोषों ने, न देखा यदि प्रभु मुख-रजनीश। कौन आश्चर्य? मिल गया ठौर, न आये प्रभु तक दुर्गुण ईश॥ २७॥ खड़ा है इक अशोक का वृक्ष, किए उन्नत मस्तक स्वामी। उसी के नीचे बैठे हैं, आप ले शुचि तन अभिरामी॥ दृश्य ऐसा दिखता मानों, बादलों की माला के पास। सुविस्तृत-करधारी, दिनकर, कर रहा होवे शुभ्र प्रकाश॥ २८॥ स्फटिक के सिंहासन पर, आपका कनक-वदन प्राणेश। कल्पना पैदा करता एक, हृदय में सुन्दर, सौम्य, जिनेश॥ रत्न से जटित उदयगिरि पर, मुझे दिखता, जग के अवलंब॥ प्रकाशित होता हो मानों, दिवाकर का प्रचण्डतम बिम्ब॥ २९॥ आपके स्वर्ण-कलेवर पर, कुन्द से चमरों का ढुरना। अहा! कितना आह्लादक दृश्य, भक्ति-रस का बहता झरना॥ आप मानें या न मानें, मुझे ऐसा दिखता भगवान। मेरु पर बहता हो मानों, नीर निर्झर का चन्द्र समान॥ ३०॥ आपके उन्नत मस्तक पर, सुहाते तीन-छत्र सुखधाम। लगे जिनमें अगणित मुक्ता, रवि-प्रभा-हर, शशि से अभिराम॥ तीन ही छत्र भला क्यों हों? क्योंकि हे जिनवर! जग हैं तीन। आप हैं तीन लोक के नाथ! बताते हैं यह छत्र प्रवीण॥ ३१॥ गगन में बजता नक्कारा, जगतपति! दशों दिशायें चीर। आपके यश का निशिवासर, भरा करता है स्वर गंभीर॥ त्रिजग को सत्संगति की नित्य, बताते महिमा अपरम्पार। परम भट्टारक जिनवर का, प्रभो! वह करता जय जयकार॥ ३२॥ देव, नन्दन-निकुंज से चुन, मधुर मंदार आदि के फूल। सुगन्धित जल-बूँदों के साथ, आप पर बरसाते सुख फूल॥ मन्द मारुत में आते हैं, फूल जब करते उजियाला। मुझे दिखता, मानों आतीं, प्रभो के वचनों की माला॥ ३३॥ सहस्रों प्रखर सूर्य से भी, विभो! हैं यद्यपि आप प्रचण्ड। आपका भा-मण्डल जननाथ! विजेता त्रिभुवन ज्योति अखण्ड॥ किन्तु फिर भी प्रभु! शीतलता, आप में वह दिखलाती है। चन्द्र से फूली रजनी भी, जिनेश्वर से शरमाती है॥ ३४॥ आपकी दिव्यध्वनि जिनराज, स्वर्ग-शिव-पथ निर्देशक है। त्रिलोकों के मंगलकारी, धर्म की पटु उपदेशक है॥ एक ही भाषा में यद्यपि, जिनेश्वर उसे खिराते हैं। किन्तु सब अपनी बोली में, अर्थ उसका पा जाते हैं॥ ३५॥ आपके नख में हे जिनराज! भरी है ऐसी सुन्दर कान्ति। स्वर्ण के नव पंकज या नख, हमें हो जाती प्रभु! यह भ्रान्ति॥ आप इन नाखूनों से युक्त, जहाँ मनहर पद धरते हैं। वहीं पर आकर कमलों की, देवगण रचना करते हैं॥ ३६॥ आपकी जो विभूति जिनराज, हुई धर्मोपदेश के काल। हरिहरादिक देवों की वह, कभी भी नहीं हुई जगपाल॥ प्रकाशित होती नाथ अवश्य, गगन में यद्यपि ग्रह-माला। तिमिर-भंजक रवि का क्या किन्तु, कभी वह पाती उजियाला?॥ ३७॥ युगल गालों से जिसके नाथ, चू रही होवे मद की धार। प्रतिक्षण करते हों जिस पर, सहस्रों भौंरे मिल गुंजार॥ इस तरह का यदि हाथी भी, कुपित हो दौड़े बनकर काल। आपके भक्तों का तो भी, न कर सकता वह बाँका बाल॥ ३८॥ चीर कर जिसने हे जगबन्धु, अनेकों गज के गण्डस्थल। पाटकर बना दिया है रम्य, मोतियों से वसुन्धरा तल॥ प्रभो! ऐसा पंचानन भी, न कर सकता है उस पर वार। आपके पद रूपी गिरि का, जिसे है हे जिनेन्द्र! आधार॥ ३९॥ प्रलय कालीन अग्नि सम भी, आग लग जाये अगर जिनेश। फुलिंगे उड़ें योजनों से, विश्व दिखता हो होता शेष॥ आपका नाम सुमर कर ही, छोड़ दें यदि प्रभु! उस पर नीर। आप में है वह शक्ति अनूप, उसी क्षण मिट जावेगी पीर॥ ४०॥ कोकिला कण्ठ तुल्य नीला, उगलते युग नैनों से रक्त। उठा कर फन डँसने दौड़े नाग भी यदि प्रभु क्रोधासक्त॥ आपका नाम-नागदमनी, दयामय! जिस नर के है पास। अगर वह कुचल जाय तो भी, न दे सकता अहि उसको त्रास॥ ४१॥ हिनहिनाते हों जहाँ तुरंग, मत्त गज करते हों चिंघाड़। भीम से भीम नृपतियों की प्रभोवर! ऐसी सैन्य प्रगाढ़॥ आपका नाम सुमनते ही, क्षेत्र से हो जाती त्यों नाश। देव! ज्यों अंधकार का पुञ्ज देखते ही रवि-रश्मि प्रकाश॥ ४२॥ युद्ध में छिदे हाथियों के, रक्त से भरे सुविस्तृत ताल। तैर लडऩे को आतुर हैं, दयामय! जो मानव विकराल॥ सुभट से सुभट हराने में जिन्हें रखते हैं प्रभु शंका। आपके चरण-कमल आश्रित, बनाते उन पर जय-डंका॥ ४३॥ जहाँ फिरता हो मुँह बाये, भयंकर मगर-मच्छ का दल। उठ रहा हो तूफाँ, धू-धू जहाँ करता हो बडवानल॥ इस तरह के समुद्र में भी, अगर पड़ जावे प्रभो! जहाज। आपका नाम सुमरते ही, पार हो जाता वह सरताज॥ ४४॥ जलोदर से जो पीडि़त हैं, महा दुर्गति है जिनकी नाथ! जिन्दगी की आशा से जो, धो चुके हैं बिल्कुल ही हाथ॥ आपको पद-रज अमृत को, लगा लें वे भी यदि भगवान्। क्षणिक में ही कुरूपता छोड़ विभो! हो जावें मदन समान॥ ४५॥ लोह ही दृढ़ जंजीरों से, प्रभो! जकड़ी है जिसकी देह। पड़ी है पाँवों में बेड़ी, छिल गई हैं जाँघें, गुण गेह॥ करें यदि ऐसे बन्दी भी, आपके नाम-मंत्र का जाप। जाप करते ही करते नाथ, बन्ध कट जावें अपने आप॥ ४६॥ समर, दावानल, गज, हरि, रोग, सिन्धु, अहि, बंध आदि का भय। आपकी पुण्य-स्तुति से नाथ, एक क्षण में हो जाते क्षय॥ जगत में भक्तामर का जो, पाठ करते हैं विज्ञ विनीत। भाग जाते हैं कोसों दूर, सकल भय हो उनसे भयभीत॥ ४७॥ आपके गुण-निकुंज से चुन, अनेकों वर्णों के प्रभु फूल। गुँथा है पुण्य-स्तवन का, हार चंचल सभक्ति सुख कूल॥ मानतुंग जो भक्तामर की, हृदय धरते यह सुंदर माल। उन्हें दोनों ही लोकों के, प्राप्त होते ऐश्वर्य विशाल॥ ४८॥
  7. भक्तामर स्तोत्र भाषा (कमलकुमार शास्त्री कुमुद) भक्त अमर नत-मुकुट सुमणियों, की सुप्रभा का जो भासक। पापरूप अतिसघन-तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥ भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन। उनके चरण-कमल को करते, सम्यक् बारम्बार नमन॥ १॥ सकल वाङ् मय तत्त्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी। उसी इन्द्र की स्तुति से है, वन्दित जग-जन मनहारी॥ अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिन स्वामी की। जगनामी-सुखधामी तद्भव-शिवगामी अभिरामी की॥ २॥ स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ के लाज। विज्ञजनों से अर्चित हैं प्रभु, मंदबुद्धि की रखना लाज॥ जल में पड़े चन्द्र-मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान ?। सहसा उसे पकडऩे वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान॥ ३॥ हे जिन ! चन्द्रकान्त से बढक़र, तव गुण विपुल अमल अतिश्वेत। कह न सकें नर हे गुण-सागर, सुर-गुरु के सम बुद्धिसमेत॥ मक्र-नक्र-चक्रादि जन्तु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार। कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार॥ ४॥ वह मैं हूँ, कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार। करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वा-पर्य विचार॥ निज शिशु की रक्षार्थ आत्म-बल, बिना विचारे क्या न मृगी। जाती है मृगपति के आगे, शिशु-सनेह में हुई रंगी॥ ५॥ अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों से, हास्य कराने का ही धाम। करती है वाचाल मुझे प्रभु! भक्ति आपकी आठों याम॥ करती मधुर गान पिक मधु में, जग-जन मनहर अति अभिराम। उसमें हेतु सरस फल-फूलों, से युत हरे-भरे तरु -आम॥ ६॥ जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप। पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥ सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त। प्रात: रवि की उग्र किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणान्त॥ ७॥ मैं मतिहीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान। प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान॥ जैसे कमल-पत्र पर जल-कण, मोती जैसे आभावान। दिपते हैं फिर छिपते हैं असली मोती में हे भगवान्॥ ८॥ दूर रहे स्तोत्र आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष। पुण्य-कथा ही किन्तु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष॥ प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर। फेंका करता सूर्य-किरण को, आप रहा करता है दूर॥ ९॥ त्रिभुवन-तिलक जगत-पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य। सद्भक्तों को निज सम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य॥ स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन धरनी से। नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या ? उन धनिकों की करनी से॥१0॥ हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु! तुम्हें देखकर परम-पवित्र। तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥ चन्द्रकिरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जल पान। कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान॥११॥ जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह। थे उतने वैसे अणु जग में, शान्ति-राग-मय नि:सन्देह॥ हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण-रूप। इसीलिये तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप॥१२॥ कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्रहारी। जिसने जीत लिये सब जग के, जितने थे उपमाधारी॥ कहाँ कलंकी बंक चन्द्रमा, रंक-समान कीट-सा दीन। जो पलाश-सा फीका पड़ता,दिन में हो करके छबि-छीन॥१३॥ तव गुण पूर्ण-शशांक कान्तिमय, कला-कलापों से बढक़े। तीन लोक में व्याप रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढक़े॥ विचरें चाहे जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार। कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार॥ १४॥ मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार। कर न सकी आश्चर्य कौन-सा, रह जाती हैं मन को मार। गिर गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु -शिखर। हिल सकता है रंच-मात्र भी, पाकर झंझावात प्रखर॥ १५॥ धूम न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक। गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥ तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात। ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर प्रकाशक जग विख्यात॥१६॥ अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल। एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल॥ रुकता कभी प्रभाव न जिसका, बादल की आकर के ओट। ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट॥१७॥ मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला। राहु न बादल से दबता पर, सदा स्वच्छ रहने वाला॥ विश्व प्रकाशकमुख-सरोज तब, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप। है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप॥१८॥ नाथ! आपका मुख जब करता, अन्धकार का सत्यानाश। तब दिन में रवि और रात्रि में, चन्द्रबिम्ब का विफल प्रयास॥ धान्य खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम। शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम ?॥१९॥ जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर प्रकाशक उत्तम ज्ञान। हरि-हरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥ अति ज्योर्तिमय महारतन का, जो महत्त्व देखा जाता। क्या वह किरणा-कुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता॥२0॥ हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन। क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥ है परन्तु क्या तुम्हें देखने, से हे स्वामिन्! मुझको लाभ। जन्म-जन्म में लुभा न पाते, कोई यह मेरा अमिताभ॥२१॥ सौ-सौ नारी, सौ-सौ सुत को, जनती रहती सौ-सौ ठौर। तुम से सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और॥ तारागण को सर्व दिशाएँ धरें नहीं कोई खाली। पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली॥२२॥ तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी। तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय के, बन जाते जन अधिकारी। तुम्हें छोडक़र अन्य न कोई, शिवपुर-पथ बतलाता है। किन्तु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है॥ २३॥ तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीश। ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर, विदितयोग मुनिनाथ मुनीश॥ विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश। इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर विभो निधीश॥ २४॥ ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिये कहलाते बुद्ध। भुवनत्रय के सुख संवद्र्धक, अत: तुम्हीं शंकर हो शुद्ध॥ मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अत: विधाता कहे गणेश। तुम सम अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश॥२५॥ तीन लोक के दु:ख हरण करने वाले हे तुम्हें नमन। भूमण्डल के निर्मल-भूषण आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन॥ हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर हो, तुमको बारम्बार नमन। भवसागर के शोषक पोषक, भव्यजनों के तुम्हें नमन॥२६॥ गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश। क्या आश्चर्य न मिल पाये हों, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश। देव कहे जाने वालों से, आश्रित होकर गर्वित दोष। तेरी ओर न झाँक सकें वे, स्वप्नमात्र में हे गुण-कोष॥ २७॥ उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोन्नत वाला। रूप आपका दिपता सुन्दर, तमहर मनहर-छवि-वाला॥ वितरण-किरण निकर तमहारक, दिनकर घनके अधिक समीप। नीलाचल पर्वत पर होकर, नीरांजन करता ले दीप॥ २८॥ मणि-मुक्ता-किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन। कान्तिमान कंचनसा दिखता, जिस पर तव कमनीय वदन॥ उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहस्र रश्मि वाला। किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला॥ २९॥ ढुरते सुन्दर चँवर विमल अति, नवल कुन्द के पुष्प-समान। शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान॥ कनकाचल के तुंग शृंग से, झर-झर झरता है निर्झर। चन्द्रप्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर॥ ३0॥ चन्द्रप्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय। दीप्तिमान शोभित होते हैं, सिर पर छत्र-त्रय भवदीय॥ ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर प्रताप। मानों वे घोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप॥ ३१॥ ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्व दिशाओं में गुञ्जन। करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन॥ पीट रही है डंका, हो सत् धर्म-राज की जय-जय-जय। इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय॥ ३२॥ कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार। गंधोदक की मंदवृष्टि करते हैं प्रमुदित देव उदार॥ तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मंद पवन। पंक्ति बाँधकर बिखर रहे हों, मानों तेरे दिव्य वचन॥ ३३॥ तीन लोक की सुन्दरता यदि, मूर्तिमान बनकर आये। तन-भा-मंडल की छवि लखकर, तव सन्मुख शरमा जावे॥ कोटि सूर्य के ही प्रताप सम, किन्तु नहीं कुछ भी आताप। जिसके द्वारा चन्द्र सु-शीतल, होता निष्प्रभ अपने आप॥ ३४॥ मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन। करा रहे है सत्य-धर्म के, अमर-तत्त्व का दिग्दर्शन॥ सुनकर जग के जीव वस्तुत:, कर लेते अपना उद्धार। इस प्रकार परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार॥३५॥ जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चन्द्रकिरण। विकसित नूतन सरसीरुह सम, हे प्रभु तेरे विमल चरण॥ रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ण-कमल, सुर दिव्य ललाम। अभिनन्दन के योग्य चरण तव,भक्ति रहे उनमें अभिराम॥ ३६॥ धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य। वैसा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौन्दर्य॥ जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती। वैसी ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती॥ ३७॥ लोल कपोलों से झरती हैं, जहाँ निरन्तर मद की धार। होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुँजार॥ क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत-सा काल। देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल॥ ३८॥ क्षत-विक्षत कर दिये गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल। कान्तिमान गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनी-तल॥ जिन भक्तों को तेरे चरणों के, गिरि की हो उन्नत ओट। ऐसा सिंह छलांगे भरकर, क्या उस पर कर सकता चोट?॥३९॥ प्रलयकाल की पवन उड़ाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर। फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर॥ भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार। प्रभु के नाम-मंत्र-जल से वह, बुझ जाती है उसही बार॥ ४0॥ कंठ-कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल। लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटै नाग महा विकराल॥ नाम-रूप तब अहि-दमनी का, लिया जिन्होंने हो आश्रय। पग रख कर निश्शंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय॥ ४१॥ जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर। शूरवीर नृप की सेनायें, रव करती हों चारों ओर॥ वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम। सूर्य तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम॥ ४२॥ रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार। वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार॥ भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जयरूप। तव पादारविन्द पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप॥ ४३॥ वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छ मगर एवं घडिय़ाल। तूफां लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल॥ भ्रमर-चक्र में फँसे हुये हों, बीचोंबीच अगर जलयान। छुटकारा पा जाते दु:ख से, करने वाले तेरा ध्यान॥ ४४॥ असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार। जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार॥ ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन। स्वास्थ्य लाभ कर बनता उसका, कामदेव सा सुंदर तन॥ ४५॥ लोह-शृंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त। घुटने-जंघे छिले बेडिय़ों से, जो अधीर जो है अतित्रस्त॥ भगवन ऐसे बंदीजन भी, तेरे नाम - मंत्र की जाप। जप कर गत-बंधन हो जाते, क्षणभर में अपने ही आप॥ ४६॥ वृषभेश्वर के गुण स्तवन का, करते निश-दिन जो चिंतन। भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन्॥ कुंजर-समर-सिंह-शोक - रुज, अहि दावानल कारागार। इनके अति भीषण दु:खों का, हो जाता क्षण में संहार॥ ४७॥ हे प्रभु ! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य ललाम। गूँथी विविध वर्ण सुमनों की, गुणमाला सुन्दर अभिराम॥ श्रद्धासहित भविकजन जो भी कण्ठाभरण बनाते हैं। मानतुंग-सम निश्चित सुन्दर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं॥ ४८॥
  8. भक्तामर-दोहावली (मुनि श्री समतासागरजी महाराज) भक्त अमर नत मुकुट द्युति, अघतम-तिमिर पलाय। भवदधि डूबत को शरण, जिनपद शीश नवाय॥ १॥ श्रुत पारग देवेन्द्र से, संस्तुत आदि जिनेश। की थुति अब मैं करहुँ, जो मनहर होय विशेष ॥ २॥ मैं अबोध तज लाज तव, थुति करने तैयार। जल झलकत शशि बाल ही, पकड़े बिना विचार॥ ३॥ क्षुब्ध मगरयुत उदधि ज्यों, कठिन तैरना जान। त्यों तव गुण धीमान भी, न कर सकें बखान॥ ४॥ फिर भी मैं असमर्थ तव, भक्तिवश थुति लीन। सिंह सम्मुख नहिं जाय क्या, मृगि शिशु पालन दीन॥ ५॥ हास्य पात्र अल्पज्ञ पर, थुति करने वाचाल। पिक कुहुके ज्यों आम को, बौर देख ऋतुकाल॥ ६॥ शीघ्र पाप भव-भव नशे, तव थुति श्रेष्ठ प्रकार। ज्यों रवि नाशे सघन तम, फैला जो संसार॥ ७॥ मनहर थुति मतिमंद मैं, करता देख प्रभाव। कमल पत्र जलकण पड़े, पाते मुक्ता भाव॥ ८॥ संस्तुति तो तव दूर ही, कथा हरे जग पाप। भले दूर, फिर भी खिलें, पंकज सूर्य प्रताप॥९॥ क्या अचरज थुतिकार हो, प्रभु यदि आप समान। दीनाश्रित को ना करे, क्या निज सम श्रीमान्॥१०॥ तुम्हें देख अन्यत्र न, होत नयन संतुष्ट। कौन नीर खारा चहे, क्षीरपान कर मिष्ट॥११॥ प्रभु तन जिन परमाणु से, निर्मित शांत अनूप। भू पर उतने ही रहे, अत: न दूजा रूप॥१२॥ नेत्र रम्य तव मुख कहाँ, उपमा जय जग तीन। कहाँ मलिन शशि बिम्ब जो, दिन में हो द्युतिहीन॥१३॥ चन्द्रकला सम शुभ्र गुण, प्रभु लांघे त्रयलोक। जिन्हें शरण जगदीश की, विचरें वे बेरोक॥१४॥ प्रभु का चित न हर सकीं, सुरतिय विस्मय कौन। गिरि गिरते पर मेरु ना, हिले प्रलय पा पौन॥१५॥ तैल न बाती धूम ना, हवा बुझा नहिं पाय। त्रय जग जगमग हों प्रभो, तुहि वर दीप रहाय॥१६॥ मेघ ढकें न तेज ना, ग्रसे राहु, नहि अस्त। तव रवि महिमा श्रेष्ठ है, द्योतित भुवन समस्त॥१७॥ नित्य उदित तम मोह हर, मेघ न राहु गम्य। सौम्य मुखाम्बुज चन्द्र वह, जिसकी आभ अदम्य॥१८॥ तमहर तव मुख काम क्या, निशा चन्द्र दिन भान। पकी धान पर अर्थ क्या, झुकें मेघ जलवान॥१९॥ शोभे ज्यों प्रभु आप में, ज्ञान न हरिहर पास। जो महमणि में तेज है, कहाँ काँच के पास॥२०॥ हरि हरादि लख आप में, अतिशय प्रीति होय। इसी हेतु भव-भव विभो, मन हर पाय न कोय॥२१॥ शत नारीं शत सुत जनें,पर तुम सा नहिं एक। तारागण सब दिशि धरें, रवि बस पूरव नेक॥ २२॥ अमल सूर्य तमहर कहत, योगी परम पुमान। मृत्युंजय हों पाय तुम, बिन शिव पथ न ज्ञान॥ २३॥ ब्रह्मा विभु अव्यय विमल,आदि असंख्य अनन्त। कामकेतु योगीश जिन, कह अनेक इक सन्त॥ २४॥ विवुधार्चित बुध बुद्ध तुम, तुम शंकर सुखकार। शिवपथ विधिकर ब्रह्म तुम, तुम पुरुषोत्तम सार॥२५॥ त्रिजग दु:ख हर प्रभु नमूँ, नमूँ रतन भू माँहि। नमूँ त्रिलोकीनाथ को, नमूँ भवसिंधु सुखाँहि॥ २६॥ शरण सर्व गुण आय, क्या विस्मय जग नहिं थान। स्वप्न न मुख दोषहि लखो, आश्रय पाय जहान॥२७॥ तरु अशोक तल शुभ्र तन, यूँ शोभे भगवान। मेघ निकट ज्यों सूर्य हो, तमहर किरण वितान॥२८॥ सिंहासन पर यूँ लगे, कनक-कान्त तन आप। ज्यों उदयाचल पर उगे, रवि कर-जाल प्रताप॥२९॥ ढुरते चामर शुक्ल से, स्वर्णिम देह सुहाय। चन्द्रकान्त मणि मेरु पर, मानो जल बरसाय॥३०॥ शशि सम शुभ मोती लगे, आतप हार दिनेश। प्रकट करें त्रय छत्र तुम, तीन लोक परमेश॥३१॥ गूँजे ध्वनि गम्भीर दश, दिशि त्रिलोक सुखदाय। मानो यश धर्मेश का, नभ में दुन्दुभि गाय॥३२॥ मन्द मरुत गन्धोद युत, सुरतरु सुमन अनेक। गिरत लगे वच पंक्ति ही, नभ से गिरती नेक॥ ३३॥ त्रिजग कान्ति फीकी करे, भामण्डल द्युतिमान। ज्योत नित्य शशि सौम्य पर,दीप्ति कोटिश: भान॥३४॥ तव वाणी पथ स्वर्ग शिव, भविजन को बतलाय। धर्म कथन समरथ सभी, भाषामय हो जाय॥३५॥ स्वर्ण कमल से नव खिले, द्युति नखशिख मन भाय। प्रभु पग जहँ जहँ धरत तहँ, पंकज देव रचाय॥३६॥ धर्म कथन में आप सम, वैभव अन्य न पाय । रहते ग्रहगण दीप्त पर, रवि सम तेज न आय॥३७॥ गण्डस्थल मद जल सने, अलिगण गुंजे गीत। मत्त कुपित यूँ आय गज, पर तव दास अभीत॥३८॥ भिदे कुम्भ गज मोतियों, से भूषित भू भाग। सिंह ऐसा क्या कर सके, जिसको तुमसे राग॥३९॥ प्रलय काल सी अग्नि दव, उड़ते तेज तिलंग। जगभक्षण आतुर शमे, आप नाम जलगंग॥४०॥ लाल नेत्र काला कुपित, भी यदि समद भुजंग। नाम नागदम पास जिस, वह निर्भीक उलंघ॥४१॥ हय हाथी भयकार रव, युत नृपदल बलवान। नाशे प्रभु यशगान तव, ज्यों सूरज तम हान॥४२॥ भाले लग गज रक्त के, सर तरने भट व्यग्र। रण में जीतें दास तव, दुर्जय शत्रु समग्र॥४३॥ क्षुब्ध जलधि बडवानली, मकरादिक भयकार। आप ध्यान से यान हो, निर्भयता से पार॥ ४४॥ तजी आश चिन्तित दशा, महा जलोदर रोग। अमृत प्रभु-पदरज लगा, मदन रूप हों लोग॥ ४५॥ सारा तन दृढ़ निगड़ से, कसा घिस रहे जंघ। नाम मंत्र तव जपत ही, होय शीघ्र निर्बन्ध॥ ४६॥ गज अहि दव रण सिंधु गद, बन्धन भय मृगजीत। सो भय ही भयभीत हो, जो थुति पढ़े विनीत॥ ४७॥ विविध सुमन जिनगुण रची, माला संस्तुति रूप। कंठ धरे सो श्री लहे मानतुङ्ग अनुरूप॥ ४८॥
  9. अद्य मे सफलं जन्म, नेत्रे च सफले मम। त्वामद्राक्षं यतो देव, हेतुमक्षयसंपद:॥ १॥ अद्य संसार-गम्भीर, पारावार: सुदुस्तर:। सुतरोऽयं क्षणेनैव, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ २॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं, नेत्रे च विमले कृते। स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ३॥ अद्य मे सफलं जन्म, प्रशस्तं सर्वमङ्गलम्। संसारार्णवतीर्णोऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ४॥ अद्य कर्माष्टक-ज्वालं, विधूतं सकषायकम्। दुर्गतेर्विनिवृत्तोऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ५॥ अद्य सौम्या ग्रहा: सर्वे, शुभाश्चैकादश-स्थिता:। नष्टानि विघ्नजालानि, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ६॥ अद्य नष्टो महाबन्ध:, कर्मणां दु:खदायक:। सुख-सङ्गं समापन्नो, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ७॥ अद्य कर्माष्टकं नष्टं, दु:खोत्पादन-कारकम्। सुखाम्भोधि-र्निमग्नोऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ८॥ अद्य मिथ्यान्धकारस्य, हन्ता ज्ञान-दिवाकर:। उदितो मच्छरीरेऽस्मिन्, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ९॥ अद्याहं सुकृतीभूतो, निर्धूताशेषकल्मष:। भुवन-त्रय-पूज्योऽहं, जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ १०॥ अद्याष्टकं पठेद्यस्तु, गुणानन्दित-मानस:। तस्य सर्वार्थसंसिद्धि-र्जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ११॥
  10. जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥ पिता तुम्हारे जितशत्रू और, माँ विजया रानी । स्वामी माँ ० माघ शुक्ल दशमी को जन्मे, त्रिभुवन के स्वामी स्वामी जय श्री अजित० उल्कापात देख कर प्रभु जी, धार वैराग्य लिया । स्वामी धार० गिरी सम्मेद शिखर पर, प्रभु ने पद निर्वाण लिया ॥ स्वामी जय श्री अजित० यमुना नदी के तीर बटेश्वर, अतिशय अति भारी । स्वामी अतिशय० दिव्य शक्ति से आई प्रतिमा, दर्शन सुखकारी ॥ स्वामी जय श्री अजित० प्रतिमा खंडित करने को जब, शत्रु प्रहार किया । स्वामी शत्रु० बही ढूध की धार प्रभु ने, अतिशय दिखलाया ॥ स्वामी जय श्री अजित० बड़ी ही मन भावन हैं प्रतिमा, अजित जिनेश्वर की । स्वामी अजित० मंवांचित फल पाया जाता, दर्शन करे जो भी ॥ स्वामी जय श्री अजित० जगमग दीप जलाओ सब मिल, प्रभु के चरनन में । स्वामी प्रभु० पाप कटेंगे जनम जनम के, मुक्ति मिले क्षण में ॥ स्वामी जय श्री अजित०
  11. जय आदिनाथ स्वामी, बाबा जय आदिनाथ स्वामी । जय आदिनाथ स्वामी, बाबा जय आदिनाथ स्वामी । दुखहारी सुखकारी तुम हो, दुखहारी सुखकारी तुम हो त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवन के स्वामी जय आदिनाथ स्वामी, बाबा जय आदिनाथ स्वामी । नाभिराय मरूदेवी के नंदन, नाभिराय मरूदेवी के नंदन संतन आधार, संतन आधार नाथ निरंजन सब दुख भंजन, नाथ निरंजन सब दुख भंजन सम्पति दातार, सम्पति दातार जय आदिनाथ स्वामी, बाबा जय आदिनाथ स्वामी । करुणा सिंधु दयाल दयानिधि, करुणा सिंधु दयाल दयानिधि जय जय गुणधारी, जय जय गुणधारी जय आदिनाथ स्वामी, बाबा जय आदिनाथ स्वामी । वांछित पूर्ण दुःख दर्द चुरन, वांछित पूर्ण दुःख दल चुरन सब जन सुखकारी, सब जन सुखकारी जय आदिनाथ स्वामी, बाबा जय आदिनाथ स्वामी ।
  12. जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥ पहेली आरती पूजा कीजे, नरभव पामीने लाहो लीजे, जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥१॥ दूसरी आरती दीनदयाळा, धूलेवा मंडपमां जग अजवाळ्‌या, जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥२॥ तीसरी आरती त्रिभुवन देवा, सुर नर इंद्र करे तोरी सेवा, जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥३॥ चौथी आरती चउ गति चूरे, मनवांछित फल शिवसुख पूरे, जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥४॥ पंचमी आरती पुण्य उपाया, मूळचंदे ऋषभ गुण गाया, जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥५॥
  13. जगमग जगमग आरती कीजै, आदिश्वर भगवान की । प्रथम देव अवतारी प्यारे, तीर्थंकर गुणवान की । जगमग० अवधपुरी में जन्मे स्वामी, राजकुंवर वो प्यारे थे, मरु माता बलिहार हुई, जगती के तुम उजियारे थे, द्वार द्वार बजी बधाई, जय हो दयानिधान की ।। जगमग० बड़े हुए तुम राजा बन गये, अवधपुरी हरषाई थी, २ भरत बाहुबली सुत मतवारे मंगल बेला आई ; थी, २ करें सभी मिल जय जयकारे, भारत पूत महान की । जगमग० नश्वरता को देख प्रभुजी, तुमने दीक्षा धारी थी, २ देख तपस्या नाथ तुम्हारी, यह धरती बलिहारी थी । प्रथम देव तीर्थंकर की जय, महाबली बलवान की ।। जगमग० बारापाटी में तुम प्रकटे, चादंखेड़ी मन भाई है, जगह जगह के आवे यात्री, चरणन शीश झुकाई है । फैल रही जगती में नमजी महिमा उसके ध्यान की ।। जगमग०
  14. यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे । पहली आरती श्री जिनराजा, भव दधि पार उतार जिहाजा । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे दूसरी आरती सिद्धन केरी, सुमरण करत मिटे भव फेरी । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे तीजी आरती सूर मुनिंदा, जनम मरन दुःख दूर करिंदा । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे चोथी आरती श्री उवझाया, दर्शन देखत पाप पलाया । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे पाचवी आरती साधू तिहारी, कुमति विनाशक शिव अधिकारी । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे छट्टी आरती श्री बाहुबली स्वामी, करी तपस्या हुए मोक्ष गामी । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे सातवी आरती श्री जिनवाणी, ज्ञानत सुरग मुक्ति सुखदानी । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे आरती करू सम्मेद शिखर की, कोटि मुनि हुए मोक्ष गामी जी । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे जो यह आरती करे करावे, सौ नर-नारी अमर पद पावें । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे सौने का दीप कपूर की बाती, जगमग ज्योति जले सारी राती । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे संध्या कर के आरती कीजे, अपनों जनम सफल कर लीजे । यह विधि मंगल आरती कीजे, पंच परम पद भज सुख लीजे
  15. ऋषभदेव भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई \
  16. श्रावणबेलगोला कर्नाटक राज्य में स्थित हसन जिले के 51 किमी (32 मील) दक्षिण-पूर्व में स्थित एक छोटा सा टाउनशिप है, जो समुद्र तल से 3,350 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। बैंगलोर और मैसूर दोनों से श्रावणबेलगोला की उत्कृष्ट सड़के हैं। निकटतम हवाई अड्डा 157 किमी (98 मील) की दूरी पर, बैंगलोर में है और निकटतम रेलवे स्टेशन श्रावणबेलगोला में है। हसन - 51 किलोमीटर / 32 मील मैसूर - 95 किमी / 60 मील दूर बैंगलोर - 157 किमी / 98 मील मैंगलोर - 227 किमी / 142 मील
  17. महामस्काभिशेक 17 फरवरी, से 25 फरवरी, 2018 की अवधि के दौरान किया जाएगा। 21 फरवरी, 2018 का दिन एक विशेष दिन के रूप में अलग रखा गया है ताकि एनआरआई भगवान बाहुबली के अभिषेक कर सकें। श्रावणबेलगोला, विंधीगिरि और चंद्रगिरी पहाड़ियों द्वारा बसा, मोनोलिथ भगवान बाहुबली द्वारा संरक्षित और जैन विरासत के 2,300 साल तक घर, हमारे इतिहास और सदियों से फैले हुए विरासत का एक वास्तविक तस्वीर है। महात्माक्षिर्षे, भगवान गोमेटेश्वर बाहुबली का अभिषेक समारोह, जो जैन धर्म चक्र में हर 12 साल में मनाया जाता है, प्राचीन और समग्र जैन परंपरा का एक अभिन्न अंग है। वर्ष 2018 में समारोह का 88 वां संस्करण होगा जो वर्ष 981 ए.डी. में शुरू होगा। सैकड़ों श्रद्धालु और दुनिया के विभिन्न हिस्सों से पर्यटकों ने भाग लिया होगा। श्रावणबेलगोला के शहर में, लॉर्ड गोमटेश्वर श्री बाहुबली के एक विशाल चट्टान की मूर्ति प्रतिमा है। यह 57 फीट ऊंची मूर्ति कला के सभी जैन कार्यों में सबसे शानदार है। यह लगभग 982 में बनाया गया था। बाहुबली प्रतिमा को मूर्तिकला कला के क्षेत्र में प्राचीन कर्नाटक की सबसे ताकतवर उपलब्धियों में से एक के रूप में वर्णित किया गया है। जबकि श्रावणबेलगोला में भी जैन पौराणिक कथाओं के बारे में श्री जैन माथा की दीवारों पर चित्रित कुछ बेहतरीन चित्रों के माध्यम से अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। रंगों में समृद्ध और रचना में सामंजस्यपूर्ण, 18 वीं शताब्दी के इन चित्रों में शाही जुलूस और उत्सव, भिक्षुओं, चमकीले रंग की साड़ियों में महिलाएं, जंगली जानवरों के वन दृश्यों और लोगों के घरेलू, धार्मिक और सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालने वाले अन्य विषयों को दर्शाया गया है ।
  18. 1. Jain Samaj Bharat https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Bharat/ 2. Jain Samaj Burma https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Burma 3. Jain Samaj Canada https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Canada 4. Jain Samaj Germany https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Germany 5. Jain Samaj Kenya https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Kenya/ 6. Jain Samaj Malaysia https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Malaysia 7. Jain Samaj Nepal https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Nepal 8. Jain Samaj Tanzania https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Tanzania 9. Jain Samaj Uganda https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Uganda 10. Jain Samaj Singapore https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Singapore 11. Jain Samaj United States of America https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.USA
  19. सभी को जय जिनेन्द्र, संयम स्वर्ण महोत्सव में हम सभी कर रहे हैं आचार्य श्री के व्यक्तित्व को विश्व में फ़ैलाने का प्रयास, हमने भी की हैं शुरुआत, केवल whatsapp पर पूरा नहीं होगा प्रयास सोशल मीडिया में दीजिये साथ, जुड़िये और करियें सम्पूर्ण समाज को जोड़ने का सफल प्रयास *आपके देश व राज्य के समाज के फेसबुक समूह से जुड़िये और समाज के सभी श्रावको को समूह से जोड़े * 1. Jain Samaj Andaman and Nicobar Islands https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Andaman.Nicobar.Islands 2. Jain Samaj Andhra Pradesh https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Andhra.Pradesh 3. Jain Samaj Arunachal Pradesh https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.Arunachal.Pradesh 4. Jain Samaj Assam https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Assam 5. Jain Samaj Bihar https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Bihar 6. Jain Samaj Chandigarh https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Chandigarh 7. Jain Samaj Chhattisgarh https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Chhattisgarh 8. Jain Samaj Dadar and Nagar Haveli Silvassa https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Dadar.Nagar.Haveli.Silvassa 9. Jain Samaj Daman https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Daman 10. Jain Samaj Delhi https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Delhi 11. Jain Samaj Goa https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Goa 12. Jain Samaj Gujarat https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Gujarat 13. Jain Samaj Haryana https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Haryana 14. Jain Samaj Himachal Pradesh https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Himachal.Pradesh 15. Jain Samaj Jammu and Kashmir https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Jammu.and.Kashmir 16. Jain Samaj Jharkhand https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Jharkhand 17. Jain Samaj Karnataka https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Karnataka 18. Jain Samaj Kerala https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Kerala 19. Jain Samaj Lakshadweep https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Lakshadweep 20. Jain Samaj Madhya Pradesh https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Madhya.Pradesh 21. Jain Samaj Maharashtra https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Maharashtra 22. Jain Samaj Manipur https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Manipur 23. Jain Samaj Meghalaya https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Meghalaya 24. Jain Samaj Mizoram https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Mizoram 25. Jain Samaj Nagaland https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Nagaland 26. Jain Samaj Odisha https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.Odisha 27. Jain Samaj Pondicherry https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Pondicherry 28. Jain Samaj Punjab https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.punjab 29. Jain Samaj Rajasthan https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.rajasthan 30. Jain Samaj Sikkim https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.sikkim 31. Jain Samaj Tamil Nadu https://www.facebook.com/groups/jain.samaj.tamil.nadu 32. Jain Samaj Telangana https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Telangana 33. Jain Samaj Tripura https://www.facebook.com/groups/Jain.samaj.Tripura 34. Jain Samaj Uttar Pradesh https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Uttar.Pradesh 35. Jain Samaj Uttarakhand https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.Uttarakhand 36. Jain Samaj West Bengal https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.West.Bengal---------
  20. An initiative for Jain Ekta जैन समाज के सशक्तिकरण का प्रयास www.jainsamaj.vidyasagar.guru Phase 1. Connecting Jain Industrialists, Businessmen & Professionals. Register http://jainsamaj.vidyasagar.guru/register/ Join Collaborate, communicate and help the Jain community grow together lets together, share the best practice and create the knowledge 1 Jain Accountants & Finance Professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/167-jain-accountants-finance-professionals/ 2 Jain Actuary professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/168-jain-actuary-professionals/ 3 Jain Agents & Brokers http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/169-jain-agents-brokers/ 4 Jain Bloggers Authors & Translators http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/170-jain-bloggers-authors-translators/ 5 Jain Bureaucrats http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/171-jain-bureaucrats/ 6 Jain Businessmen http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/172-jain-businessmen/ 7 Jain Charted Accountants http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/173-jain-charted-accountants/ 8 Jain Company Secretaries http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/174-jain-company-secretaries/ 9 Jain Data science & Analytics professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/175-jain-data-science-analytics-professionals/ 10 Jain Doctors http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/176-jain-doctors-medical-practitioner/ 11 Jain Engineers http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/177-jain-engineers/ 12 Jain Housewives http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/178-jain-housewives/ 13 Jain Industrialist http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/179-jain-industrialist/ 14 Jain IT professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/180-jain-it-professionals/ 15 Jain Journalists and Media professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/181-jain-journalists-and-media-professionals/ 16 Jain life Science professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/182-jain-life-science-professionals/ 17 Jain Management professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/183-jain-management-professionals/ 18 Jain Retailers and Shopkeepers http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/184-jain-retailers-and-shopkeepers/ 19 Jain Sales & Marketing professionals http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/185-jain-sales-marketing-professionals/ 20 Jain Scholar & Research professional http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/186-jain-scholar-research-professional/ 21 Jain Scientist http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/187-jain-scientist/ 22 Jain Self Employed Entrepreneur http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/188-jain-self-employed-entrepreneur/ 23 Jain Students http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/189-jain-students/ 24 Jain Teachers & Professors http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/190-jain-teachers-professors/ 25 Jain Traders & Suppliers http://jainsamaj.vidyasagar.guru/clubs/191-jain-traders-suppliers/ www.jainsamaj.vidyasagar.guru/register/
  21. until
    दसलक्षण पर्व (चैत्र)
  22. १००८ तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु जी भगवान तप कल्याणक महोत्सव
  23. १००८ तीर्थंकर श्री अभिनन्दननाथ जी भगवान जन्म कल्याणक महोत्सव
  24. ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी
  25. १००८ तीर्थंकर श्री कुन्थुनाथ जी भगवान जन्म कल्याणक महोत्सव
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