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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥ १॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ २॥ छत्रत्रयप्रचलचामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभारुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ ३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदलीदलवर्णगात्र, प्रालेयतारगिरिमौक्तिकवर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिकपाण्डुरपुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ ४॥ सन्तप्तकाञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! ोयान्! विनष्टदुरिताष्टकलङ्कपङ्क बन्धूकबन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ५॥ उद्दण्डदर्पक-रिपो विमलामलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्तसुखाम्बुराशे दुष्कर्मकल्मषविवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ६॥ देवामरी-कुसुमसन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुणविभूषणभूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थनाथ, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ७॥ यन्मोहमल्लमदभञ्जन-मल्लिनाथ! क्षेमङ्करावितथशासन -सुव्रताख्य! सत्सम्पदा प्रशमितो नमिनामधेय त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ ८॥ तापिच्छगुच्छरुचिरोज्ज्वल-नेमिनाथ! घोरोपसर्गविजयिन् जिन! पाश्र्वनाथ! स्याद्वादसूक्तिमणिदर्पण! वर्धमान! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ९॥ प्रालेयनील - हरितारुण-पीतभासम् यन्मूर्तिमव्ययसुखावसथं मुनीन्द्रा:। ध्यायन्ति सप्ततिशतं जिनवल्लभानां, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ १०॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं माङ्गल्यं परिकीर्तितम्। चतुर्विंशतितीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने॥ ११॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं ोय: प्रत्यभिनन्दितम्। देवता ऋषय: सिद्धा: सुप्रभातं दिने दिने ॥ १२॥ सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मन: येन प्रवर्तितं तीर्थं भव्यसत्त्वसुखावहम्॥ १३॥ सुप्रभातं जिनेन्द्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषाम्। अज्ञानतिमिरान्धानां नित्यमस्तमितो रवि:॥ १४॥ सुप्रभातं जिनेन्द्रस्य वीर: कमललोचन:। येन कर्माटवी दग्धा शुक्लध्यानोग्रवह्निना॥ १५॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याणं सुमङ्गलम्। त्रैलोक्यहितकर्र्तृणां जिनानामेव शासनम्॥ १६॥
  2. स्वयंभुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि। स्वात्मनैव तथोद्भूत - वृत्तयेऽचिन्त्य-वृत्तये॥ १॥ नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मी-भत्र्रे नमोऽस्तु ते। विदांवर! नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर!॥ २॥ काम - शत्रुहणं देवमामनन्ति मनीषिण:। त्वामानमत्सुरेण्मौलि-भामालाभ्यर्चित-क्रमम्॥ 3॥ ध्यान-द्रुर्घण-निर्भिन्न-घन- घाति - महातरु:। अनन्त-भव-सन्तान,जयादासीरनन्तजित्॥ ४॥ त्रैलोक्य - निर्जयावाप्त - दुर्दर्पमतिदुर्जयम्। मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन! मृत्युञ्जयो भवान्॥ ५॥ विधूताशेष-संसार-बन्धनो भव्य-बान्धव:। त्रिपुरारिस्त्वमीशाऽसि जन्ममृत्यु-जरान्तकृत्॥ ६॥ त्रिकाल-विषयाशेष - तत्त्व-भेदात् त्रिधोत्थितम्। केवलाख्यं दधच्चक्षु िनेत्रोऽसि त्वमीशित:॥ ७॥ त्वामन्धकान्तकं प्राहुर्मोहान्धासुर-मर्दनात्। अद्र्धं ते नारयो यस्मादर्ध - नारीश्वरोऽस्यत:॥ ८॥ शिव: शिव-पदाध्यासाद् दुरितारि-हरो हर:। शङ्कर: कृतशं लोके शम्भवस्त्वं भवन्सुखे॥ ९॥ वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरु -गुणोदयै:। नाभेयो नाभि-संभूतेरिक्ष्वाकु-कुल-नन्दन:॥ १0। त्वमेक: पुरुष-स्कन्धस्त्वं द्वे लोकस्य लोचने। त्वं त्रिधा बुद्ध-सन्मार्ग िज्ञ ि-ज्ञान-धारक :॥११॥ चतु:शरण-माङ्गल्य- मूर्तिस्त्वं चतुरस्रधी:। पञ्च-ब्रह्ममयो देव! पावनस्त्वं पुनीहि माम्॥१२॥ स्वर्गावतरणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम:। जन्माभिषेक-वामाय वामदेव! नमोऽस्तु ते॥१३॥ सनिष्क्रान्तावघोराय परं प्रशममीयुषे। केवल-ज्ञान-संसिद्धावीशानाय नमोऽस्तु ते॥ १४॥ पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्ति-पद-भाजिने। नमस्तत्पुरुषावस्थां भाविनीं तेऽद्य बिभ्रते॥ १५॥ ज्ञानावरण - निह्र्रासान्नमस्तेऽनन्त - चक्षुषे। दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वदृश्वने॥ १६॥ नमो दर्शन - मोहघ्ने क्षायिकामल-दृष्टये। नमश्चारित्र - मोहघ्ने विरागाय महौजसे॥ १७॥ नमस्तेऽनन्त - वीर्याय नमोऽनन्त - सुखात्मने। नमस्तेऽनन्त-लोकाय लोकालोकावलोकिने॥ १८॥ नमस्तेऽनन्त-दानाय नमस्तेऽनन्त-लब्धये। नमस्तेऽनन्त-भोगाय नमोऽनन्तोपभोगिने॥ १९॥ नम: परमयोगाय नमस्तुभ्यमयोनये। नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये॥ २0॥ नम: परमविद्याय नम: पर-मतच्छिदे। नम: परम-तत्त्वाय नमस्ते परमात्मने॥ २१॥ नम: परम-रूपाय नम: परम-तेजसे। नम: परम-मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने॥ २२॥ परमद्र्धिजुषे धाम्ने परमज्योतिषे नम:। नम: पारेतम: प्राप्त - धाम्ने परतरात्मने॥ २३॥ नम: क्षीण-कलङ्काय क्षीण-बन्ध! नमोऽस्तु ते। नमस्ते क्षीण-मोहाय क्षीण-दोषाय ते नम:॥ २४॥ नम: सुगतये तुभ्यं शोभनां गतिमीयुषे। नमस्तेऽतीन्द्रियज्ञानसुखायानिन्द्रियात्मने॥ २५॥ काय-बन्धन-निर्मोक्षादकायाय नमोऽस्तु ते। नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामधियोगिने॥ २६॥ अवेदाय नमस्तुभ्य मकषायाय ते नम:। नम: परम-योगीन्द्र-वन्दिताङ्घ्रि-द्वयाय ते ॥ २७॥ नम: परम-विज्ञान! नम: परम-संयम! नम: परम-दृग्दृष्ट, परमार्थाय तायिने॥ २८॥ नमस्तुभ्यमलेश्याय शुक्ललेश्यांशक-स्पृशे। नमो भव्येतरावस्था-, व्यतीताय विमोक्षिणे॥२९॥ संज्ञ्यसंज्ञिद्वयावस्था-, व्यतिरिक्तामलात्मने। नमस्ते वीतसंज्ञाय, नम: क्षायिक-दृष्टये॥ ३0॥ अनाहाराय तृप्ताय, नम: परम-भाजुषे। व्यतीताशेषदोषाय, भवाब्धे: पारमीयुषे॥ ३१॥ अजराय नमस्तुभ्यं, नमस्तेस्तादजन्मने। अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने॥ ३२॥ अलमास्तां गुणस्तोत्र, मनन्तास्तावका गुणा:। त्वां नामस्मृतिमात्रेण, पर्युपासिसिषामहे॥ ३३॥ एवं स्तुत्वा जिनं देवं, भक्त्या परमया सुधी:। पठेदष्टोत्तरं नाम्नां, सहस्रं पाप - शान्तये॥३४॥ इति प्रस्तावना प्रसिद्धाष्ट-सहस्रेद्ध-लक्षणं त्वां गिरां पतिम्। नाम्नामष्ट-सहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्ट-सिद्धये॥ १॥ श्रीमान् स्वयंभूर्वृषभ: शंभव: शंभुरात्मभू:। स्वयंप्रभ: प्रभुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भव:॥ २॥ विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षर:। विश्वविद् विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनश्वर:॥ ३॥ विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचन:। विश्वव्यापी विधिर्वेधा: शाश्वतो विश्वतोमुख:॥ ४॥ विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्तिर्जिनेश्वर:। विश्वदृग्विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वर:॥ ५॥ जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति:। अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्य-बन्धुरबन्धन:॥ ६॥ युगादि-पुरुषो ब्रह्मा पञ्च - ब्रह्ममय: शिव:। पर: परतर: सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातन:॥ ७॥ स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्म-योनिरयोनिज:। मोहारिविजयी जेता धर्म-चक्री दयाध्वज:॥ ८॥ प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चित:। ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वर:॥ ९॥ सिद्धो बुद्ध: प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थ: सिद्धशासन:। सिद्ध: सिद्धान्तविद्ध्येय: सिद्धसाध्यो जगद्धित:॥ १0॥ सहिष्णुरच्युतोऽनन्त: प्रभविष्णुर्भवोद्भव:। प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्यय:॥ ११॥ विभावसुरसम्भूष्णु: स्वयंभूष्णु: पुरातन:। परमात्मा परंज्योति िजगत्परमेश्वर:॥ १२॥ ॥ इति श्रीमदादिशतम् ॥ 1॥ दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन:। पूतात्मा परम-ज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर:॥ १॥ श्रीपतिर्भगवानर्हन्नरजा विरजा: शुचि:। तीर्थकृत्केवलीशान: पूजार्ह: स्नातकोऽमल:॥ २॥ अनन्त- दीप्ति-ज्र्ञानात्मा स्वयंबुद्ध: प्रजापति:। मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर:॥ ३॥ निरञ्जनो जगज्ज्योति-र्निरुक्तोक्ति-रनामय:। अचल-स्थितिरक्षोभ्य: कूटस्थ: स्थाणुरक्षय:॥ ४॥ अग्रणीग्र्रामणीर्नेता प्रणेता न्याय-शा कृत्। शास्ता धर्मपतिर्धम्र्यो धर्मात्मा धर्म-तीर्थकृत्॥ ५॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतु - र्वृषायुध:। वृषो वृषपतिर्भर्ता वृषभाङ्को वृषोद्भव:॥ ६॥ हिरण्य - नाभिर्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावन:। प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक:॥ ७॥ हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूतविभवोऽभव:। स्वयंप्रभु: प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभु:॥ ८॥ सर्वादि: सर्वदृक्सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन:। सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित् सर्वलोकजित्॥ ९॥ सुगति: सुश्रुत: सुश्रुत्, सुवाक् सूरिर्बहुश्रुत:। विश्रुतो विश्वत: पादो विश्वशीर्ष: शुचिश्रवा:॥ १0॥ सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। भूत-भव्य-भवद्भर्ता विश्व- विद्या-महेश्वर:॥ ११॥ ॥ इति दिव्यादिशतम् ॥ 2॥ स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: प्रष्ठ: पे्रष्ठो वरिष्ठ-धी:। स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: ोष्ठोऽणिष्ठो गरिष्ठगी:॥ विश्वभृद् विश्वसृड् विश्वेड्,विश्वभुग्विश्व-नायक:। विश्वासीर्विश्वरूपात्मा, विश्वजिद्विजितान्तक:॥ २॥ विभवो विभयो वीरो, विशोको विजरो जरन्। विरागो विरतोऽसङ्गो, विविक्तो वीत-मत्सर:॥ ३॥ विनेय - जनता - बन्धुर्विलीनाशेष-कल्मष:। वियोगो योगविद्विद्वान् विधाता सुविधि: सुधी:॥ ४॥ क्षान्तिभाक् पृथिवीमूर्ति: शान्तिभाक् सलिलात्मक:। वायु - मूर्तिरसङ्गात्मा वह्निमूर्तिरधर्मधृक्॥ ५॥ सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्राम-पूजित:। ऋत्विग्यज्ञ -पतिर्याज्यो यज्ञाङ्गममृतं हवि:॥ ६॥ व्योम - मूर्तिरमूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचल:। सोम-मूर्ति: सुसौम्यात्मा सूर्य-मूर्तिर्महाप्रभ:॥ ७॥ मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्र-मूर्तिरनन्तग:। स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वन्त: कृतान्तान्त: कृतान्तकृत्॥ ८॥ कृती कृतार्थ: सत्कृत्य: कृतकृत्य: कृत-क्रतु:। नित्यो मृत्युञ्जयोऽमृत्युरमृतात्मामृतोद्भव:॥ ९॥ ब्रह्मनिष्ठ: परंब्रह्मा ब्रह्मात्मा ब्रह्म-संभव:। महाब्रह्म- पतिब्र्रह्मेड् महाब्रह्म - पदेश्वर:॥१०॥ सुप्रसन्न: प्रसन्नात्मा ज्ञान- धर्म-दम-प्रभु:। प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराण-पुरुषोत्तम:॥ ११॥ ॥ इति स्थविष्ठादिशतम्॥ 3॥ महाशोक - ध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्म-विष्टर:। पद्मेश: पद्म-सम्भूति: पद्म - नाभिरनुत्तर:॥ १॥ पद्म - योनिर्जगद्योनिरित्य: स्तुत्य: स्तुतीश्वर:। स्तवनार्हो हृषीकेशो जित-जेय: कृत-क्रिय:॥ २॥ गणाधिपो गण-ज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी:। गुणाकरो गुणाम्भोधिर्गुणज्ञो गुणनायक:॥ ३॥ गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण: पुण्य-गीर्गुण:। शरण्य: पुण्य-वाक्पूतो वरेण्य: पुण्य-नायक:॥ ४॥ अगण्य: पुण्य-धीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्य-शासन:। धर्मारामो गुण-ग्राम: पुण्यापुण्य-निरोधक:॥ ५॥ पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीत-कल्मष:। निद्र्वन्द्वो निर्मद: शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव: ॥ ६॥ निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव: । निष्कलङ्को निरस्तैना निर्धूतागा निरास्रव: ॥ ७॥ विशालो विपुल-ज्योतिरतुलोऽचिन्त्य-वैभव:। सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभृत्सुनय-तत्त्ववित्॥ ८॥ एक-विद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति:। धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक:॥ ९॥ पिता पितामह: पाता पवित्र: पावनो गति:। त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान्॥ १0॥ कवि: पुराण- पुरुषो वर्षीयान् वृषभ: पुरु:। प्रतिष्ठा- प्रसवो हेतुर्भुवनैक - पितामह:॥ ११॥ ॥ इति महाशोकध्वजादिशतम् ॥ 4॥ श्रीवृक्ष-लक्षण: श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण:। निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण:॥ १॥ सिद्धिद: सिद्ध-संकल्प: सिद्धात्मा सिद्धसाधन:। बुद्ध-बोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महर्धिक:॥ २॥ वेदाङ्गो वेदविद्वेद्यो जात - रूपो विदांवर:। वेद-वेद्य: स्व- संवेद्यो विवेदो वदतांवर:॥ ३॥ अनादि-निधनो व्यक्तो व्यक्तवाग् व्यक्त-शासन:। युगादिकृत् युगाधारो युगादिर्जगदादिज:॥ ४॥ अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थदृक्। अनिन्द्रियोऽहमिन्द्राच्र्यो महेन्द्र-महितो महान्॥ ५॥ उद्भव: कारणं कर्ता पारगो भव-तारक:। अगाह्यो गहनं गुह्यं पराघ्र्य: परमेश्वर:॥ ६॥ अनन्तद्र्धिरमेयद्र्धिरचिन्त्यद्र्धि: समग्रधी:। प्राग्रय: प्राग्रहरोऽभ्यग्र: प्रत्यग्रोऽग्रयोऽग्रिमोऽग्रज:॥ ७॥ महातपा महातेजा महोदर्को महोदय:। महायशा महाधामा महासत्त्वो महाधृति:॥ ८॥ महाधैर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबल:। महाशक्तिर्महाज्योतिर्महाभूतिर्महाद्युति: ॥ ९॥ महामतिर्महानीतिर्महाक्षान्तिर्महादय: । महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकवि: ॥ १0॥ महामहा महाकीर्तिर्महाकान्तिर्महावपु:। महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुण:॥ ११॥ महामहपति: प्राप्त - महाकल्याण-पञ्चक:। महाप्रभुर्महाप्रातिहार्याधीशो महेश्वर:॥ १२॥ ॥ इति श्रीवृक्षादिशतम्॥ 5॥ महामुनिर्महामौनी महाध्यानो महादम:। महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामख:॥ १॥ महाव्रत - पतिर्मह्यो महाकान्ति - धरोऽधिप:। महामैत्री - मयोऽमेयो महोपायो महोमय:॥ २॥ महाकारुणिको मन्ता महामन्त्रो महायति:। महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपति:॥ ३॥ महाध्वरधरो धुय्र्यो महौदार्यो महिष्ठवाक्। महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदय:॥ ४॥ महाक्लेशाङ्कुश: शूरो महाभूतपतिर्गुरु:। महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधरिपुर्वशी ॥ ५॥ महाभवाब्धि-संतारी महामोहाद्रि-सूदन:। महागुणाकर: क्षान्तो महायोगीश्वर: शमी॥ ६॥ महाध्यानपतिध्र्यात - महाधर्मा महाव्रत:। महाकर्मारिहात्मज्ञो महादेवो महेशिता॥ ७॥ सर्वक्लेशापह: साधु: सर्वदोषहरो हर:। असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकर:॥ ८॥ सर्व-योगीश्वरोऽचिन्त्य: श्रुतात्मा विष्टरश्रवा:। दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वग:॥ ९॥ प्रधानमात्मा प्रकृति: परम: परमोदय:। प्रक्षीण-बन्ध:कामारि: क्षेमकृत् क्षेमशासन:॥ १0॥ प्रणव: प्रणत: प्राण: प्राणद: प्रणतेश्वर:। प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोऽध्वर्युरध्वर:॥ ११॥ आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽनिन्द्योऽभिनन्दन:। कामहा कामद: काम्य: काम-धेनुररिञ्जय:॥१२॥ ॥ इति महामुन्यादिशतम्॥ 6॥ असंस्कृत - सुसंस्कार: प्राकृतो वैकृतान्तकृत्। अन्तकृत्कान्तगु: कान्तश्चिन्तामणिरभीष्टद:॥ १॥ अजितो जित - कामारिरमितोऽमित -शासन:। जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक:॥ २॥ जिनेन्द्र: परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभि-स्वन:। महेन्द्र-वन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन:॥ ३॥ नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम:। अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरु : सुगी:॥ ४॥ सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक:। विशिष्ट: शिष्टभुक् शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ:॥ ५॥ क्षेमी क्षेमङ्करोऽक्षय्य: क्षेम-धर्म-पति: क्षमी। अग्राह्यो ज्ञान-निग्राह्यो ध्यान-गम्यो निरुत्तर:॥ ६॥ सुकृती धातुरिज्यार्ह: सुनयश्चतुरानन:। श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुख:॥ ७॥ सत्यात्मा सत्य-विज्ञान: सत्य-वाक्सत्य-शासन:। सत्याशी: सत्य-सन्धान: सत्य: सत्य-परायण:॥ ८॥ स्थेयान्स्थवीयान्नेदीयान्दवीयान्दूरदर्शन: । अणोरणीयाननणुर्गुरुराद्यो गरीयसाम् ॥ ९॥ सदायोग: सदाभोग: सदातृप्त: सदाशिव:। सदागति: सदासौख्य: सदाविद्य: सदोदय:॥ १0॥ सुघोष: सुमुख: सौम्य: सुखद: सुहित: सुहृत्। सुगुप्तो गुप्तिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमेश्वर:॥ ११॥ ॥ इति असंस्कृतादिशतम्॥ 7॥ बृहद्बृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदार - धी:। मनीषी धिषणो धीमाञ्छेमुषीशो गिरांपति:॥ १॥ नैक-रूपो नयोत्तुङ्गो नैकात्मानैक - धर्मकृत्। अविज्ञेयोऽप्रतक्र्यात्मा कृतज्ञ: कृत-लक्षण:॥ २॥ ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ: प्रभास्वर:। पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेम-गर्भ: सुदर्शन:॥ ३॥ लक्ष्मीवां िदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता। मनोहरो मनोज्ञाङ्गो धीरो गम्भीर-शासन:॥ ४॥ धर्म-यूपो दया - यागो धर्म - नेमिर्मुनीश्वर:। धर्म-चक्रायुधो देव: कर्महा धर्म-घोषण:॥ ५॥ अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघ-शासन:। सुरूप: सुभगस्त्यागी समयज्ञ: समाहित:॥ ६॥ सुस्थित: स्वास्थ्यभाक्स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धव:। अलेपो निष्कलङ्कात्मा वीतरागो गत-स्पृह:॥ ७॥ वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा नि:सपत्नो जितेन्द्रिय:। प्रशान्तोऽनन्त - धामर्षिर्मङ्गलं मलहानघ:॥ ८॥ अनीदृगुपमाभूतो दिष्टिर्दैवमगोचर:। अमूर्तो मूर्तिमानेको नैको नानैक-तत्त्वदृक्॥ ९॥ अध्यात्मगम्योऽगम्यात्मा योगविद्योगिवन्दित:। सर्वत्रग: सदाभावी त्रिकाल-विषयार्थदृक्॥ १0॥ शङ्कर: शंवदो दान्तो दमी क्षान्ति-परायण:। अधिप: परमानन्द: परात्मज्ञ: परात्पर:॥ ११॥ त्रिजगद्बल्लभोऽभ्यच्र्य ि - जगन्मङ्गलोदय:। त्रिजगत्पति-पूज्यांघ्रि िलोकाग्रशिखामणि:॥ १२॥ ॥ इति बृहदादिशतम्॥ 8॥ त्रिकालदर्शी लोकेशो लोक-धाता दृढ-व्रत:। सर्व-लोकातिग: पूज्य: सर्व-लोकैक-सारथि:॥ १॥ पुराण: पुरुष: पूर्व: कृत-पूर्वाङ्ग - विस्तर:। आदि-देव: पुराणाद्य: पुरु -देवोऽधिदेवता॥ २॥ युगमुख्यो युग-ज्येष्ठो युगादि-स्थिति-देशक:। कल्याणवर्ण: कल्याण: कल्य: कल्याणलक्षण:॥ ३॥ कल्याणप्रकृतिर्दीप्र-कल्याणात्मा विकल्मष:। विकलङ्क: कलातीत: कलिलघ्न: कलाधर:॥ ४॥ देव-देवो जगन्नाथो जगद्बन्धुर्जगद्विभु:। जगद्धितैषी लोकज्ञ: सर्वगो जगदग्रज:॥ ५॥ चराचर - गुरुर्गोप्यो गूढात्मा गूढ-गोचर:। सद्योजात: प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलन-सत्प्रभ:॥ ६॥ आदित्यवर्णो धर्माभ: सुप्रभ: कनकप्रभ:। सुवर्णवर्णो रुक्माभ: सूर्य-कोटि-सम-प्रभ:॥ ७॥ तपनीय-निभस्तुङ्गो बालार्काभोऽनल-प्रभ:। संध्याभ्र-बभ्रुर्हेमाभस्तप्त - चामीकरच्छवि:॥ ८॥ निष्टप्त - कनकच्छाय: कनत्काञ्चन-सन्निभ:। हिरण्य-वर्ण: स्वर्णाभ: शातकुम्भ-निभ-प्रभ:॥ ९॥ द्युम्नाभो जात-रूपाभस्तप्त-जाम्बूनद-द्युति:। सुधौत-कलधौत- श्री: प्रदीप्तो हाटक-द्युति:॥ १0॥ शिष्टेष्ट: पुष्टिद: पुष्ट: स्पष्ट: स्पष्टाक्षर: क्षम:। शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघ: प्रशास्ता शासिता स्वभू:॥ ११॥ शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रद:। शान्तिद: शान्तिकृच्छान्ति: कान्तिमान् कामितप्रद:।१२ ोयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठ: प्रतिष्ठित:। सुस्थिर: स्थावर: स्थास्नु: प्रथीयान्प्रथित: पृथु:॥ १३॥ ॥ इति त्रिकालदश्र्यादिशतम्॥ 9॥ दिग्वासा वातरसनो निग्र्रन्थेशो निरम्बर:। निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुह:॥ १॥ तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाब्धि: शील-सागर:। तेजोमयोऽमित-ज्योतिज्र्योतिर्मूर्तिस्तमोऽपह:॥ २॥ जगच्चूडा - मणिर्दीप्त: शंवान्विघ्न-विनायक:। कलिघ्न: कर्म-शत्रुघ्नो लोकालोक-प्रकाशक:॥ ३॥ अनिद्रालुरतन्द्रालुर्जागरुक: प्रमामय:। लक्ष्मी-पतिर्जगज्ज्योतिर्धर्मराज: प्रजा-हित:॥ ४॥ मुमुक्षुर्बन्धमोक्षज्ञो जिताक्षो जित-मन्मथ:। प्रशान्त-रस-शैलूषो भव्य-पेटक-नायक:॥ ५॥ मूल-कत्र्ताखिल - ज्योतिर्मलघ्नो मूल-कारणम्। आप्तो वागीश्वर: ोयाञ्छ्रायसोक्तिर्निरुक्तवाक्॥ ६॥ प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्व - भाववित्। सुतनुस्तनु - निर्मुक्त: सुगतो हत - दुर्नय:॥ ७॥ श्रीश: श्री-श्रित - पादाब्जो वीत-भीरभयङ्कर:। उत्सन्न-दोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोक-वत्सल:॥ ८॥ लोकोत्तरो लोक- पतिर्लोक-चक्षुरपार-धी:। धीर-धीर्बुद्ध- सन्मार्ग: शुद्ध: सूनृत-पूतवाक्॥ ९॥ प्रज्ञा-पारमित: प्राज्ञो यतिर्नियमितेन्द्रिय:। भदन्तो भद्रकृद् भद्र: कल्प-वृक्षो वर-प्रद:॥ १0॥ समुन्मूलित-कर्मारि: कर्म-काष्ठाशुशुक्षणि:। कर्मण्य: कर्मठ: प्रांशुर्हेयादेय-विचक्षण:॥ ११॥ अनन्त - शक्तिरच्छेद्य िपुरारि - िलोचन:। त्रिनेत्रस्त्र्यम्बकस्त्र्यक्ष: केवलज्ञान-वीक्षण:॥ १२॥ समन्तभद्र: शान्तारिर्धर्माचार्यो दया-निधि:। सूक्ष्मदर्शी जितानङ्ग: कृपालुर्धर्म-देशक:॥ १३॥ शुभंयु: सुखसाद्भूत: पुण्य - राशिरनामय:। धर्मपालो जगत्पालो धर्म-साम्राज्य-नायक:॥ १४॥ ॥ इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् ॥ 10॥ धाम्नांपते! तवामूनि नामान्यागम-कोविदै:। समुच्चितान्यनुध्यायन्पुमान्पूतस्मृतिर्भवेत् ॥ 1॥ गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरो मत:। स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्ट-फलं भजेत्॥ २॥ त्वमतोऽसि जगद्बन्धुस्त्वमतोऽसि जगद्भिषक्। त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धित:॥ ३॥ त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्वि-रूपोपयोगभाक्। त्वं त्रिरूपैक-मुक्त्यङ्ग: स्वोत्थानन्त-चतुष्टय:॥ ४॥ त्वं पञ्च-ब्रह्म-तत्त्वात्मा पञ्च-कल्याण-नायक:। षड्भेद-भाव-तत्त्वज्ञस्त्वं सप्त-नय-संग्रह:॥ ५॥ दिव्याष्ट-गुण-मूर्तिस्त्वं नव-केवल-लब्धिक:। दशावतार-निर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर!॥ ६॥ युष्मन्नामावली-दृब्ध - विलसत्स्तोत्र-मालया। भवन्तं परिवस्याम: प्रसीदानुगृहाण न:॥ ७॥ इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिक:। य: संपाठं पठत्येनं स स्यात्कल्याण-भाजनम्॥ ८॥ तत: सदेदं पुण्यार्थी पुमान् पठतु पुण्यधी:। पौरुहूतीं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुक:॥ ९॥ स्तुत्वेति मघवा देवं चराचर-जगद्गुरुम्। ततस्तीर्थविहारस्य व्यधात्प्रस्तावनामिमाम्॥ १0॥ स्तुति: पुण्यगुणोत्कीर्ति: स्तोता भव्य: प्रसन्नधी:। निष्ठितार्थो भवान् स्तुत्य: फलं नै:ोयसं सुखम्॥ ११॥ शार्दूलविक्रीडितम् य: स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुन: स्तोता स्वयं कस्यचित्, ध्येयो योगिजनस्य यश्च नतरां ध्याता स्वयं कस्यचित्। यो नन्र्तन् नयते नमस्कृतिमलं नन्तव्य-पक्षेक्षण:, स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देव: पुरु: पावन:॥ १२॥ तं देवं त्रिदशाधिपार्चित - पदं घाति - क्षयानन्तरं, प्रोत्थानन्त-चतुष्टयं जिनमिनं भव्याब्जिनीनामिनम्। मान-स्तम्भ-विलोकनानत-जगन्मान्यं त्रिलोकी-पतिं, प्राप्ताचिन्त्य-बहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवन्दामहे॥ १३॥
  3. ओं नम: सिद्धेभ्य: । ओं नम: सिद्धेभ्य: । ओं नम: सिद्धेभ्य: । चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नम: ।। अर्थ:- उन श्री जिनेन्द्र-परमात्मा सिद्धात्मा को नित्य-नमस्कार है, जो चिदानंदरूप हैं (अष्ट कर्मों को जीत चुके हैं), परमात्मा-स्वरूप हैं और परमात्मा-तत्त्व को प्रकाशित करनेवाले हैं । पाँच मिथ्यात्व, बारह अव्रत, पन्द्रह योग, पच्चीस कषाय- इन सत्तावन आस्रवों के पाप लगे हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें | नित्य-निगोद सात लाख, इतर-निगोद सात लाख, पृथ्वीकाय सात लाख, जलकाय सात लाख, अग्निकाय सात लाख, वायुकाय सात लाख, वनस्पतिकाय दस लाख, दो-इन्द्रिय दो लाख, तीन-इन्द्रिय दो लाख, चार-इन्द्रिय दो लाख, नरकगति चार लाख, तिर्यंच-गति चार लाख, देव-गति चार लाख, मनुष्य-गति चौदह लाख- ऐसी माता-पक्ष में चौरासी लाख योनियाँ, एवं पितापक्ष में एक सौ साढ़े निन्याणवे लाख कुल-कोटि, सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त भेदरूप अनेकों जीवों की विराधना की हो, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें | तीन दंड, तीन शल्य, तीन गारव, तीन मूढ़ता, चार आर्त्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार विकथा- इन सबके पाप लगे हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें | व्रत में, उपवास में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के पाप लगे हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। पाँच मिथ्यात्व, पाँच स्थावर-घात, छह त्रस-घात, सप्त-व्यसन, सप्त-भय, आठ मद, आठ मूलगुण, दस प्रकार के बहिरंग-परिग्रह, चौदह प्रकार के अन्तरंग-परिग्रह सम्बन्धी पाप किये हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। पन्द्रह प्रमाद, सम्यक्त्वहीन परिणाम के पाप किये हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। हास्य- विनोदादि के दुष्परिणामों के, दुराचार, कुचेष्टा के पाप किये हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। हिलते, डोलते, दौड़ते-चलते, सोते-बैठते, देखे, बिना देखे, जाने-अनजाने, सूक्ष्म व बादर जीवों को दबाया हो, डराया हो, छेदा हो, भेदा हो, दु:खी किया हो, मन-वचन-काय कृत मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका-रूप चतुर्विध-संघ की, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की निन्दा कर अविनय के पाप किये हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। निर्माल्य-द्रव्य का पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। मन के दस, वचन के दस, काया के बारह- ऐसे बत्तीस प्रकार के दोष सामयिक में दोष लगे हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। पाँच इन्द्रियों व छठे मन से जाने-अनजाने जो पाप लगे हों, मेरे वे सब पाप मिथ्या होवें। मेरा किसी के साथ वैर-विरोध, राग-द्वेष, मान, माया, लोभ, निन्दा नहीं; समस्त जीवों के प्रति मेरी उत्तम-क्षमा है | मेरे कर्मों का क्षय हो, मुझे समाधिमरण प्राप्त हो, मुझे चारों गतियों के दु:खों से मुक्ति मिले | ओं! शांति:! शांति:! शांति:!
  4. सरस्वत्या: प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्ति मानवा:। तस्मान्निश्चलभावेन, पूजनीया सरस्वती॥ 1॥ श्रीसर्वज्ञ-मुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी। अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या बहुविकासनी॥ 2॥ सरस्वती मया दृष्टा, दिव्या कमललोचना। हंसस्कन्धसमारूढ़ा,वीणा-पुस्तकधारिणी॥ 3॥ प्रथमं भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती। तृतीयं शारदा देवी, चतुर्थं हंसगामिनी॥ 4॥ पंचमं विदुषां माता, षष्ठं वागीश्वरि तथा। कुमारी सप्तमं प्रोक्तं,अष्टमं ब्रह्मचारिणी॥ 5॥ नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा। एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत्॥ 6॥ वाणी त्रयोदशं नाम, भाषाचैव चतुर्दशं। पंचदशं च श्रुतदेवी, षोडशं गौर्निगद्यते॥ 7॥ एतानि श्रुतनामानि, प्रातरुत्थाय य: पठेत्। तस्य संतुष्यति माता, शारदा वरदा भवेत्॥ 8॥ सरस्वती नमस्तुभ्यं, वरदे कामरूपिणी। विद्यारम्भं करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा॥ 9॥
  5. कविश्री वृन्दावनदास हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी || मालिक हो दो जहान के जिनराज आपही | एबो-हुनर हमारा कुछ तुमसे छिपा नहीं || बेजान में गुनाह मुझसे बन गया सही | ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१|| दु:ख-दर्द दिल का आपसे जिसने कहा सही | मुश्किल कहर से बहर किया है भुजा गही || जस वेद औ’ पुरान में प्रमान है यही | आनंदकंद श्री जिनेंद्र देव है तुही || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२|| हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सती | गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती ।। उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती | भय टार के उबार लिया हे कृपापती || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||३|| पावक-प्रचंड कुंड में उमंड जब रहा | सीता से शपथ लेने को तब राम ने कहा || तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहाँ | तत्काल ही सर-स्वच्छ हुआ कमल लहलहा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||४|| जब चीर द्रोपदी का दु:शासन ने था गहा | सब ही सभा के लोग थे कहते हहा-हहा || उस वक्त भीर-पीर में तुमने करी सहा | परदा ढँका सती का सुजस जगत् में रहा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||५|| श्रीपाल को सागर-विषे जब सेठ गिराया | उनकी रमा से रमने को वो बेहया आया || उस वक्त के संकट में सती तुम को जो ध्याया | दु:ख-दंद-फंद मेट के आंनद बढ़ाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||६|| हरिषेण की माता को जहाँ सौत सताया | रथ जैन का तेरा चले पीछे यों बताया || उस वक्त के अनशन में सती तुम को जो ध्याया | चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन का चलाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||7|| सम्यक्त्व-शुद्ध शीलवती चंदना सती | जिसके नगीच लगती थी जाहिर रती-रती || बेडी़ में पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हती | तब वीर धीर ने हरी दु:ख-दंद की गती || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||८|| जब अंजना-सती को हुआ गर्भ उजारा | तब सास ने कलंक लगा घर से निकारा || वन-वर्ग के उपसर्ग में तब तुमको चितारा | प्रभु-भक्त व्यक्त जानि के भय देव निवारा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||९|| सोमा से कहा जो तूँ सती शील विशाला | तो कुंभ तें निकाल भला नाग जु काला || उस वक्त तुम्हें ध्याय के सति हाथ जब डाला | तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१०|| जब कुष्ठ-रोग था हुआ श्रीपाल राज को | मैना सती तब आपकी पूजा इलाज को || तत्काल ही सुंदर किया श्रीपालराज को | वह राजरोग भाग गया मुक्त राज को || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||११|| जब सेठ सुदर्शन को मृषा-दोष लगाया | रानी के कहे भूप ने सूली पे चढ़ाया || उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज-ध्यान में ध्याया | सूली से उतार उसको सिंहासन पे बिठाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१२|| जब सेठ सु धन्ना जी को वापी में गिराया | ऊपर से दुष्ट फिर उसे वह मारने आया || उस वक्त तुम्हें सेठ ने दिल अपने में ध्याया | तत्काल ही जंजाल से तब उसको बचाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१३|| इक सेठ के घर में किया दारिद्र ने डेरा | भोजन का ठिकाना भी न था साँझ-सबेरा || उस वक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यान में घेरा | घर उस के में तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१४|| बलि वाद में मुनिराज सों जब पार न पाया | तब रात को तलवार ले शठ मारने आया || मुनिराज ने निज-ध्यान में मन लीन लगाया | उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहाँ देव बचाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१५|| जब राम ने हनुमंत को गढ़-लंक पठाया | सीता की खबर लेने को सह-सैन्य सिधाया || मग बीच दो मुनिराज की लख आग में काया | झट वारि-मूसलधार से उपसर्ग मिटाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१६|| जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा | घेरे में पड़ा था वह वज्रकर्ण विचारा || उस वक्त तुम्हें प्रेम से संकट में चितारा | प्रभु वीर ने सब दु:ख तहाँ तुरत निवारा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१७|| रणपाल कुँवर के पड़ी थी पाँव में बेड़ी | उस वक्त तुम्हें ध्यान में ध्याया था सबेरी || तत्काल ही सुकुमाल की सब झड़ पड़ी बेड़ी | तुम राजकुँवर की सभी दु:ख-दंद निवेरी || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१८|| जब सेठ के नंदन को डसा नाग जु कारा | उस वक्त तुम्हें पीर में धर धीर पुकारा। | तत्काल ही उस बाल का विष भूरि उतारा | वह जाग उठा सोके मानो सेज सकारा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१९|| मुनि मानतुंग को दर्इ जब भूप ने पीरा | ताले में किया बंद भरी लोह-जंजीरा || मुनि-र्इश ने आदीश की थुति की है गंभीरा | चक्रेश्वरी तब आनि के झट दूर की पीरा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२०|| शिवकोटि ने हठ था किया समंतभद्र-सों | शिव-पिंडि की वंदन करो शंको अभद्र-सों || उस वक्त ‘स्वयंभू’ रचा गुरु भाव-भद्र-सों | जिन-चंद्र की प्रतिमा तहाँ प्रगटी सुभद्र सों || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२१|| तोते ने तुम्हें आनि के फल आम चढ़ाया | मेंढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया || तुम दोनों को अभिराम-स्वर्गधाम बसाया | हम आप से दातार को लख आज ही पाया || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२२|| कपि-श्वान-सिंह-नेवला-अज-बैल बिचारे | तिर्यंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे || इत्यादि को सुर-धाम दे शिवधाम में धारे | हम आप से दातार को प्रभु आज निहारे || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२३|| तुम ही अनंत-जंतु का भय-भीर निवारा | वेदो-पुराण में गुरु-गणधर ने उचारा || हम आपकी शरनागती में आके पुकारा | तुम हो प्रत्यक्ष-कल्पवृक्ष इच्छिताकारा || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२४|| प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्ति के दानी | आनंदकंद-वृंद को हो मुक्त के दानी || मोहि दीन जान दीनबंधु पातक भानी | संसार विषम-खार तार अंतर-जामी || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२५|| करुणानिधान बान को अब क्यों न निहारो | दानी अनंतदान के दाता हो सँभारो || वृषचंद-नंद ‘वृंद’ का उपसर्ग निवारो | संसार विषम-खार से प्रभु पार उतारो || हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी | यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||२६||
  6. आद्यंताक्षरसंलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यत्स्थितम् | अग्निज्वालासमं नादं बिन्दुरेखासमन्वितम् ||१|| अग्निज्वाला-समाक्रान्तं मनोमल-विशोधनम् | दैदीप्यमानं हृत्पद्मे तत्पदं नौमि निर्मलम् ||२|| युग्मम् | ओं नमोऽर्हद्भ्य : र्इशेभ्य: ओं सिद्धेभ्यो नमो नम: | ओं नम: सर्वसूरिभ्य: उपाध्यायेभ्य: ओं नम: ||३|| ओं नम: सर्वसाधुभ्य: तत्त्वदृष्टिभ्य: ओं नम: | ओं नम: शुद्धबोधेभ्यश्चारित्रेभ्यो नमो नम: ||४|| युग्मम् | श्रेयसेऽस्तु श्रियेऽस्त्वेतदर्हदाद्यष्टकं शुभम् | स्थानेष्वष्टसु संन्यस्तं पृथग्बीजसमन्वितम् ||५|| आद्यं पदं शिरो रक्षेत् परं रक्षतु मस्तकम् | तृतीय रक्षेन्नेत्रे द्वे तुर्यं रक्षेच्च नासिकाम् ||६|| पंचमं तु मुखं रक्षेत् षष्ठं रक्षतु कण्ठिकाम् | सप्तमं रक्षेन्नाभ्यंतं पादांतं चाष्टमं पुन: ||७|| युग्मम् | पूर्व प्रणवत: सांत: सरेफो द्वित्रिपंचषान् | सप्ताष्टदशसूर्यांकान् श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् ||८|| पूज्यनामाक्षराद्यास्तु पंचदर्शनबोधकम् | चारित्रेभ्यो नमो मध्ये ह्रीं सांतसमलंकृतम ||9|| जाप्य मंत्र:- ओं ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रौं ह्र : अ सि आ उ सा सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रेभ्यो ह्रीं नम:। जंबूवृक्षधरो द्वीप: क्षारोदधि समावृत: | अर्हदाद्यष्टकैरष्ट – काष्ठाधिष्ठैरलंकृत: ||१|| तन्मध्ये संगतो मेरु: कूटलक्षैरलंकृत: | उच्चैरुच्चैस्तरस्तार: तारामंडलमंडित: ||२|| तस्योपरि सकारांतं बीजमध्यास्य सर्वंगम् | नमामि बिम्बमाहर्त्यं ललाटस्थं निरंजनम् |३| विशेषकम् | अक्षयं निर्मलं शांतं बहुलं जाड्यतोज्झितम् | निरीहं निरहंकारं सारं सारतरं घनम् ||४|| अनुश्रुतं शुभं स्फीतं सात्त्विकं राजसं मतम् | तामसं विरसं बुद्धं तैजसं शर्वरीसमम् ||५|| साकारं च निराकारं सरसं विरसं परम् | परापरं परातीतं परं परपरापरम् ||६|| सकलं निष्कलं तुष्टं निर्भतं भ्रान्तिवर्जितम् | निरंजनं निराकांक्षं निर्लेपं वीतसंशयम् ||७|| ब्रह्माणमीश्वरं बुद्धं शुद्धं सिद्धमभंगुरम् | ज्योतीरूपं महादेवं लोकालोकप्रकाशकम् ||८|| कुलकम् | अर्हदाख्य: सवर्णान्त: सरेफो बिंदुमंडित: | तुर्यस्वरसमायुक्तो बहुध्यानादिमालित: ||९|| एकवर्णं द्विवर्णं च त्रिवर्ण तुर्यवर्णकम् | पंचवर्णं महावर्णं सपरं च परापरम् ||१०|| युग्मम् | अस्मिन् बीजे स्थिता: सर्वे ऋषभाद्या जिनोत्तमा: | वर्णैर्निजैर्निजैर्युक्ता ध्यातव्यास्तत्र संगता: ||११|| नादश्चंद्रसमाकारो बिंदुर्नीलसमप्रभ: | कलारुणसमासांत: स्वर्णाभ: सर्वतोमुख: ||१२|| शिर: संलीन र्इकारो विनीलो वर्णत: स्मृत: | वर्णानुसारिसंलीनं तीर्थकृन्मंडलं नम: ||१३|| युग्मम् | चंद्रप्रभपुष्पदन्तौ नादस्थितिसमाश्रितौ | बिंदुमध्यगतौ नेमिसुव्रतौ जिनसत्तमौ ||१४|| पद्मप्रभवासुपूज्यौ कलापदमधिश्रितौ | शिर र्इ स्थितसंलीनौ सुपार्श्वपार्श्वौ जिनोत्तमौ ||१५|| शेषास्तीर्थंकरा: सर्वे हरस्थाने नियोजिता: | मायाबीजाक्षरं प्राप्ताश्चतुर्विंशतिरहंताम् ||१६|| गतरागद्वेषमोहा: सर्वपापविवर्जिताः | सर्वदा सर्वलोकेषु ते भवंतु जिनोत्तमा: ||१७|| कलापकम् | देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा | तयाच्छादितसर्वांगं मां मा हिंसन्तु पन्नगा: ||१८|| देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा | तयाच्छादितसर्वांगं मां मा हिंसतु नागिनी ||१९|| देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा | तयाच्छादितसर्वांगं मां मा हिंसन्तु गोनसा: ||२०|| देवदेव.———— हिंसन्तु वृश्चिका: ||२१|| देवदेव.———— हिंसतु काकिनी ||२२|| देवदेव.———— डाकिनी ||२३|| देवदेव.———— शाकिनी ||२४|| देवदेव.———— राकिनी ||२५|| देवदेव.———— लाकिनी ||२६|| देवदेव.———— शाकिनी ||२७|| देवदेव.———— हाकिनी ||२८|| देवदेव.———— हिंसन्तु राक्षसा: ||२९|| देवदेव.———— व्यंतरा: ||३०|| देवदेव.———— भेकसा: ||३१|| देवदेव.———— ते ग्रहा: ||३२|| देवदेव.———— तस्करा: ||३३|| देवदेव.———— वह्नय: ||34|| देवदेव.———— श्रृंगिण: ||३५|| देवदेव.———— दंष्ट्रिण: ||३६|| देवदेव.———— रेलपा: ||३७|| देवदेव.———— पक्षिण: ||३८|| देवदेव.———— मुद्गला: ||३९|| देवदेव.———— जृंभका: ||४०|| देवदेव.———— तोयदा: ||४१|| देवदेव.———— सिंहका: ||४२|| देवदेव.———— शूकरा: ||४३|| देवदेव.———— चित्रका: ||४४|| देवदेव.———— हस्तिन: ||४५|| देवदेव.———— भूमिपा: ||४६|| देवदेव.———— शत्रव: ||४७|| देवदेव.———— ग्रामिण: ||४८|| देवदेव.———— दुर्जना: ||४९|| देवदेव.———— व्याधय: ||५०|| श्रीगौतमस्य या मुद्रा तस्या या भुवि लब्धय: | ताभिरभ्यधिकं ज्योतिरर्ह: सर्वनिधीश्वर: ||५१|| पातालवासिनो देवा देवा भूपीठवासिन: | स्व:स्वर्गवासिनो देवा सर्वे रक्षंतु मामित: ||५२|| येऽवधिलब्धयो ये तु परमावधिलब्धय: | ते सर्वे मुनयो दिव्या मां संरक्षन्तु सर्वत: ||५३|| ओं श्री: ह्रीश्च धृतिर्लक्ष्मी गौरी चंडी सरस्वती | जयाम्बा विजया क्लिन्नाऽजिता नित्या मदद्रवा ||५४|| कामांगा कामवाणा च सानंदा नंदमालिनी | माया मायाविनी रौद्री कला काली कलिप्रिया ||५५|| एता: सर्वा महादेव्यो वर्तन्ते या जगत्त्रये | मम सर्वा: प्रयच्छंतु कान्तिंलक्ष्मीं धृतिं मतिम् ||५६|| दुर्जना: भूतवेताला: पिशाचा-मुद्गलास्तथा | ते सर्वे उपशाम्यंतु देवदेवप्रभावत: ||५७|| दिव्यो गोप्य: सुदुष्प्राप्य: श्रीऋषिमंडलस्तव: | भाषितस्तीर्थनाथेन जगत्त्राणकृतोऽनघ: ||५८|| रणे राजकुले वह्नौ जले दुर्गे गजे हरौ | श्मशाने विपिने घोरे स्मृतौ रक्षति मानवम् ||५९|| राज्यभ्रष्टा निजं राज्यं पदभ्रष्टा निजं पदं | लक्ष्मीभ्रष्टा: निजां लक्ष्मीं प्राप्नुवन्ति न संशय: ||६०|| भार्यार्थी लभते भार्या पुत्रार्थी लभते सुतम् | धनार्थी लभते वित्तं नर: स्मरणमात्रत: ||६१|| स्वर्णे रूप्येऽथवा कांस्ये लिखित्वा यस्तु पूजयेत् | तस्यैवेष्टमहासिद्धिर्गृहे वसति शाश्वती ||६२|| भूर्जपत्रे लिखित्वेदं गलके मूर्ध्नि वा भुजे | धारित: सर्वदा दिव्यं सर्वभीतिविनाशनम् ||६३|| भूतै: प्रेतैर्ग्रहैर्यक्षै: पिशाचैर्मुद्गलैस्तथा | वातपित्तकफोद्रेकैर्मुच्यते नात्र संशय: ||६४|| भूर्भुव: स्वस्त्रयोपीठवर्तिन: शाश्वता जिना: | तै: स्तुतैर्वन्दितैर्दृष्टैर्यत्फलं तत्फलं स्मृते: ||६५|| एतद्गोप्यं महास्तोत्रं न देयं यस्य कस्यचित् | मिथ्यात्ववासिनो देयम् बाल-हत्या पदे पदे ||६६|| आचाम्लादितप: कृत्वा पूजयित्वा जिनावलिम् | अष्टसाहस्रिको जाप्य: कार्यस्तत्सिद्धिहेतवे ||६७|| शतमष्टोत्तरं प्रातर्ये पठंति दिने दिने | तेषां न व्याधयो देहे प्रभवंति च सम्पद: ||६८|| अष्टामासावधिं यावत् प्रात: प्रातस्तु य: पठेत् | स्तोत्रमेतन्महातेजस्त्वर्हद्बिम्बं स पश्यति ||६९|| दृष्टे सत्यार्हते बिंबे भवे सप्तमके ध्रुवम् | पदं प्राप्नोति विश्रस्तं परमानंदसंपदां ||७०|| युग्मम् इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं स्तुतीनामुत्तमं परम् | पठनात्स्मरणाज्जाप्यात् सर्वदोषैर्विमुच्चते ||७१|| ।। इति ऋषिमंडल-स्तोत्रम् संपूर्णम् ।।
  7. परमानन्द-संयुक्तं, निर्विकारं निरामयम्। ध्यानहीना न पश्यन्ति, निजदेहे व्यवस्थितम् ॥ १॥ अनन्तसुखसम्पन्नं, ज्ञानामृतपयोधरम्। अनन्तवीर्यसम्पन्नं, दर्शनं परमात्मन: ॥ २॥ निर्विकारं निराबाधं, सर्वसङ्गविवर्जितम्। परमानन्दसम्पन्नं, शुद्धचैतन्यलक्षणम्॥ ३॥ उत्तमा स्वात्मचिन्ता स्यात् देहचिन्ता च मध्यमा। अधमा कामचिन्ता स्यात्,परचिन्ताऽधमाधमा॥ ४॥ निर्विकल्प समुत्पन्नं, ज्ञानमेव सुधारसम्। विवेकमञ्जलिं कृत्वा, तं पिबंति तपस्विन:॥ ५॥ सदानन्दमयं जीवं, यो जानाति स पण्डित:। स सेवते निजात्मानं, परमानन्दकारणम्॥ ६॥ नलिन्याच्च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा। सोऽयमात्मा स्वभावेन, देहे तिष्ठति निर्मल:॥ ७॥ द्रव्यकर्ममलैर्मुक्तं भावकर्मविवर्जितम्। नोकर्मरहितं सिद्धं निश्चयेन चिदात्मकम्॥ ८॥ आनन्दं ब्रह्मणो रूपं, निजदेहे व्यवस्थितम्। ध्यानहीना न पश्यन्ति,जात्यन्धा इव भास्करम्॥ ९॥ सद्ध्यानं क्रियते भव्यैर्मनो येन विलीयते। तत्क्षणं दृश्यते शुद्धं, चिच्चमत्कारलक्षणम्॥ १०॥ ये ध्यानशीला मुनय: प्रधानास्ते दु:खहीना नियमाद्भवन्ति। सम्प्राप्य शीघ्रं परमात्मतत्त्वं, व्रजन्ति मोक्षं क्षणमेकमेव॥ ११॥ आनन्दरूपं परमात्मतत्त्वं, समस्तसंकल्पविकल्पमुक्तम्। स्वभावलीना निवसन्ति नित्यं, जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम्॥१२॥ चिदानन्दमयं शुद्धं, निराकारं निरामयम्। अनन्तसुखसम्पन्नं सर्वसङ्गविवर्जितम्॥ १३॥ लोकमात्रप्रमाणोऽयं, निश्चये न हि संशय:। व्यवहारे तनुमात्र: कथित: परमेश्वरै:॥ १४॥ यत्क्षणं दृश्यते शुद्धं तत्क्षणं गतविभ्रम:। स्वस्थचित्त: स्थिरीभूत्वा, निर्विकल्पसमाधिना॥१५॥ स एव परमं ब्रह्म, स एव जिनपुङ्गव:। स एव परमं तत्त्वं, स एव परमो गुरु : ॥ १६॥ स एव परमं ज्योति:, स एव परमं तप:। स एव परमं ध्यानं, स एव परमात्मक:॥ १७॥ स एव सर्वकल्याणं, स एव सुखभाजनम्। स एव शुद्धचिद्रूपं, स एव परम: शिव:॥ १८॥ स एव परमानन्द:, स एव सुखदायक:। स एव परमज्ञानं, स एव गुणसागर: ॥ १९॥ परमाल्हादसम्पन्नं, रागद्वेषविवर्जितम्। सोऽहं तं देहमध्येषु यो जानाति स पण्डित:॥ २०॥ आकाररहितं शुद्धं, स्वस्वरूपे व्यवस्थितम्। सिद्धमष्टगुणोपेतं, निर्विकारं निरञ्जनम्॥ २१॥ तत्सद्दर्शनं निजात्मानं, प्रकाशाय महीयसे। सहजानन्दचैतन्यं, यो जानाति स पण्डित:॥ २२॥ पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा घृतम्। तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिव:॥ २३॥ काष्ठमध्ये यथा वह्नि:, शक्तिरूपेण तिष्ठति। अयमात्मा शरीरेषु, यो जानाति स पण्डित:॥२४॥
  8. श्रवणबेलगोला : 07.02.2018 भारत के राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्द का भगवान बाहुबली के महामस्तक-अभिषेक महोत 1.इस स्थान पर आप सब के बीच आकर तथा शांति, अहिंसा और करुणा के प्रतीक भगवान बाहुबली की इस भव्य प्रतिमा को देखकर मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है। यह क्षेत्र धर्म,अध्यात्म और भारतीय संस्कृति का केंद्र रहा है और सदियों से मानवता के कल्याण का संदेश देता रहा है। 2.इस महोत्सव में आने के लिए मुख्यमंत्री जी ने आग्रह किया और निमंत्रण भेजा। केंद्रीय मंत्री श्री अनंतकुमार जी ने भी यहां आने का अनुरोध किया। इस महोत्सव के आयोजकों ने भी राष्ट्रपति भवन आकर आमंत्रण दिया। कर्नाटक के लोगों की सदाशयता में कुछ ऐसा विशेष आकर्षण है जो मुझे यहां बार-बार आने के लिए प्रेरित करता है। राष्ट्रपति बनने के बाद, पिछले लगभग छ: महीनों के दौरान, कर्नाटक की यह मेरी तीसरी यात्रा है। 3.हमसभी जानते हैं, आदिनाथ ऋषभदेव के पुत्र भगवान बाहुबली चाहते तो अपने भाई भरत के स्थान पर राजसुख भोग सकते थे। लेकिन उन्होने अपना सब कुछ त्याग कर तपस्या का मार्ग अपनाया और पूरी मानवता के कल्याण के लिए अनेक आदर्श प्रस्तुत किये। लगभग एक हजार वर्ष पहले बनाई गई यह प्रतिमा उनकी महानता का प्रतीक है। इस प्रतिमा के कारण यह स्थान आज देश-विदेश में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। 4.यह स्थान हमारे देश की सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता का एक बहुत ही प्राचीन केंद्र रहा है। कहा जाता है कि आज से लगभग तेइस सौ वर्ष पूर्व, मध्य प्रदेश के उज्जैन क्षेत्र से जैन आचार्य भद्रबाहु यहां पधारे थे। बिहार के पटना क्षेत्र से उनके शिष्य, विशाल मौर्य साम्राज्य केसंस्थापक, सम्राट चन्द्रगुप्त यहां आए थे। वहअपनी शक्ति के शिखर पर रहते हुए भी, सारा राज-पाट अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंपकर यहां आ गए थे। यहां आकर उन्होने एक मुनि का जीवन अपनाया और तपस्या की। यहीं चंद्रगिरि की एक गुफा में, अपने गुरु का अनुसरण करते हुए, सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी सल्लेखना का मार्ग अपनाया और अपना शरीर त्याग किया। उन राष्ट्र निर्माताओं ने शांति, अहिंसा, करुणा और त्याग पर आधारित परंपरा की यहां नींव डाली। धीरे-धीरे पूरे देश के अनेक क्षेत्रों से लोग यहां आने लगे। इस प्रकार इस क्षेत्र का आकर्षण बढ़ता गया। 5.जैन परंपरा की धाराएं पूरे देश को जोड़ती हैं। मैं जब बिहार का राज्यपाल था, तो वैशाली क्षेत्र में भगवान महावीर की जन्मस्थली, और नालंदा क्षेत्र में उनकी निर्वाण-स्थली, पावापुरी में कई बार जाने का मुझे अवसर मिला। आज यहां आकर, मुझे उसी महान परंपरा से जुड़ने का एक और अवसर प्राप्त हो रहा है। 6.मुझे बताया गया है कि लगभग एक हजार वर्ष पहले इस विशाल और भव्य प्रतिमा का निर्माण हुआ था। इस प्रतिमा का निर्माण कराने वाले गंग वंश के प्रधानमंत्री चामुंडराय और उनके गुरु ने सन 981 में यहां पहला अभिषेक किया था। उसके बाद हर बारह वर्ष परअभिषेक की परंपरा शुरू हुई,जो आज भी जारी है। 7.भगवान बाहुबली की यह विशाल प्रतिमा जो हम सब देख रहे हैं, यह भारत की विकसित संस्कृति,स्थापत्य कला,वास्तुशिल्प और मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है। शिल्पकारों ने अपनी श्रद्धा और भक्ति से एक विशाल, निर्जीव ग्रेनाइट के पत्थर की शिला में,जान डाल दी है।‘अहिंसा परमो धर्म:’ का भाव इस प्रतिमा के मुख-मण्डल पर अपने पूर्ण रूप में दिखाई देता है। 8.भगवान बाहुबली की यह दिगंबर प्रतिमा और इस पर माधवी लताओं की आकृतियां,उनकी गहन तपस्या के बारे में बताने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करती हैं कि,वे किसी भी प्रकार के बनावटीपन से मुक्त थे, और प्रकृति के साथ पूरी तरह एकाकार थे। जैन मुनियों नें यह परंपरा आज भी कायम रखी है। जैन धर्म के आदर्शों में हमें प्रकृति का संरक्षण करने की सीख मिलती है। 9.सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र को जैन दर्शन के तीन रत्नों के रूप में जाना जाता है। लेकिन यह तीनों बातें पूरे विश्व के लिए कल्याणकारी हैं। शांति, अहिंसा, भाईचारा,नैतिक चरित्र और त्याग के द्वारा ही विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। 10.मुझे बताया गया है कि विश्व-शांति हेतु प्रार्थना करने के लिए कई देशों से तथा हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों से, भारी संख्या में श्रद्धालु आज यहां आए हैं। हमारे सामने विद्यमान गोम्मटेश्वर की प्रतिमा के चेहरे पर भी पीड़ित मानवता के कल्याण के लिए सहानुभूति का भाव दिखाई देता है।आप सब की प्रार्थना में निहित विश्व कल्याण की भावना, आतंकवाद और तनाव से भरे इस दौर में,सभी के लिए शिक्षाप्रद है। मैं सभी देशवासियों की ओर से, विश्व-शांति के लिए प्रतिबद्ध आप सभी श्रद्धालुओं को, इस कल्याणकारी प्रयास में सफलता की शुभकामनाएं देता हूं। 11.मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि यहां के ट्रस्ट के प्रयासों से इस क्षेत्र में मोबाइल अस्पताल,बच्चों के अस्पताल,इंजीनियरिंग कॉलेज,पॉलीटेक्निक और नर्सिंग कॉलेज की स्थापना कराई गई है और एक‘प्राकृत विश्वविद्यालय’ के निर्माण पर भी काम चल रहा है। 12.मैं सभी आयोजकों और श्रद्धालुओं को पंच कल्याणक तथा महामस्तक-अभिषेक से जुड़े सभी समारोहों के अत्यंत सफल आयोजन की शुभकामनाएं देता हूं। धन्यवाद जय हिन्द!
  9. नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधीशं, शतेन्द्रं सु पुजै भजै नाय शीशं । मुनीन्द्रं गणीन्द्रं नमे जोड़ि हाथं, नमो देव देवं सदा पार्श्वनाथं ॥१॥ गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुडावे, महा आगतै नागतै तू बचावे । महावीरतै युद्ध में तू जितावे, महा रोगतै बंधतै तू छुडावे ॥२॥ दुखी दुखहर्ता सुखी सुखकर्ता, सदा सेवको को महा नन्द भर्ता । हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं, विषम डाकिनी विघ्न के भय अवाचं ॥३॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने । महासंकटों से निकारे विधाता, सबे सम्पदा सर्व को देहि दाता ॥४॥ महाचोर को वज्र को भय निवारे, महपौन को पुंजतै तू उबारे । महाक्रोध की अग्नि को मेघधारा, महालोभ शैलेश को वज्र मारा ॥५॥ महामोह अंधेर को ज्ञान भानं, महा कर्म कांतार को धौ प्रधानं । किये नाग नागिन अधो लोक स्वामी, हरयो मान दैत्य को हो अकामी ॥६॥ तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनं, तुही दिव्य चिंतामणि नाग एनं । पशु नर्क के दुःखतै तू छुडावे, महास्वर्ग में मुक्ति में तू बसावे ॥७॥ करे लोह को हेम पाषण नामी, रटे नाम सो क्यों ना हो मोक्षगामी । करै सेव ताकी करै देव सेवा, सुने बैन सोही लहे ज्ञान मेवा ॥८॥ जपै जाप ताको नहीं पाप लागे, धरे ध्यान ताके सबै दोष भागे । बिना तोहि जाने धरे भव घनेरे, तुम्हारी कृपातै सरै काज मेरे ॥९॥ दोहा गणधर इंद्र न कर सके, तुम विनती भगवान । द्यानत प्रीति निहार के, कीजे आप सामान ॥१०॥
  10. आचार्य भद्रबाहु स्वामी जगद्गुरुं नमस्कृत्यं, श्रुत्वा सद्गुरुभाषितम् | ग्रहशांतिं प्रवचयामि, लोकानां सुखहेतवे || जिनेन्द्रा: खेचरा ज्ञेया, पूजनीया विधिक्रमात् | पुष्पै- र्विलेपनै – र्धूपै – र्नैवेद्यैस्तुष्टि – हेतवे || पद्मप्रभस्य मार्तण्डश्चंद्रश्चंद्रप्रभस्य च | वासुपूज्यस्य भूपुत्रो, बुधश्चाष्टजिनेशिनाम् || विमलानंत धर्मेश, शांति-कुंथु-अरह-नमि | वर्द्धमानजिनेन्द्राणां, पादपद्मं बुधो नमेत् || ऋषभाजितसुपाश्र्वा: साभिनंदनशीतलौ | सुमति: संभवस्वामी, श्रेयांसेषु बृहस्पति: || सुविधि: कथित: शुक्रे, सुव्रतश्च शनैश्चरे | नेमिनाथो भवेद्राहो: केतु: श्रीमल्लिपार्श्वयो: || जन्मलग्नं च राशिं च, यदि पीडयंति खेचरा: | तदा संपूजयेद् धीमान्-खेचरान् सह तान् जिनान् || आदित्य सोम मंगल, बुध गुरु शुक्रे शनि:। राहुकेतु मेरवाग्रे या, जिनपूजाविधायक:।। जिनान् नमोग्नतयो हि, ग्रहाणां तुष्टिहेतवे | नमस्कारशतं भक्त्या, जपेदष्टोतरं शतं || भद्रबाहुगुरुर्वाग्मी, पंचम: श्रुतकेवली | विद्याप्रसादत: पूर्ण ग्रहशांतिविधि: कृता || य: पठेत् प्रातरुत्थाय, शुचिर्भूत्वा समाहित: | विपत्तितो भवेच्छांति: क्षेमं तस्य पदे पदे ||
  11. हिन्दी भावानुवाद : आर्यिका चंदनामती त्रैलोक्यगुरु तीर्थंकर-प्रभु को, श्रद्धायुत मैं नमन करूँ | सत्गुरु के द्वारा प्रतिभासित जिनवर वाणी को श्रवण करूँ || भवदु:ख से दु:खी प्राणियों को सुख प्राप्त कराने हेतु कहूँ | कर्मोदयवश संग लगे हुए ग्रह-शांति हेतु जिनवचन कहूँ ||१|| नभ में सूरज-चंदा ग्रह के मंदिर में जो जिनबिम्ब अधर | निज तुष्टि हेतु उनकी पूजा मैं करूँ पूर्णविधि से रुचिधर || चंदन लेपन पुष्पांजलि कर सुन्दर नैवेद्य बना करके | अर्चना करूँ श्री जिनवर की मलयगिरि धूप जला करके ||२|| ग्रह सूर्य-अरिष्ट-निवारक श्री पद्मप्रभ स्वामी को वंदूँ | श्री चंद्र भौम ग्रह शांति हेतु चंद्रप्रभ वासुपूज्य वंदूँ || बुध ग्रह से होने वाले कष्ट निवारक विमल-अनंत जिनम् | श्री धर्म शांति कुंथु अर नमि, सन्मति प्रभु को भी करूँ नमन ||३|| प्रभु ऋषभ अजित जिनवरसुपार्श्व अभिनंदन शीतल सुमतिनाथ | गुरु-ग्रह की शांति करें संभव-श्रेयांस जिनेश्वर सभी आठ || श्री शुक्र-अरिष्ट-निवारक भगवन् पुष्पदंत जाने जाते | शनिग्रह की शांति में हेतु मुनिसुव्रत जिन माने जाते ||4|| श्री नेमिनाथ तीर्थंकर प्रभु राहु ग्रह की शांति करते | प्रभु मल्लि पार्श्व जिनवर दोनों केतू ग्रह की बाधा हरते || ये वर्तमान कालिक चौबिस तीर्थंकर सब सुख देते हैं | आधि-व्याधि का क्षय करके ग्रह की शांति कर देते हैं ||5|| आकाश-गमनवाले ये ग्रह यदि पीड़ित किसी को करते हैं | प्राणी की जन्मलग्न एवं राशि संग यह ग्रह रहते हैं || तब बुद्धिमान जन तत्सम्बंधित ग्रह स्वामी को भजते हैं | जिस ग्रह के नाशक जो जिनवर उन मंत्रों को जपते हैं ||६|| इस युग के पंचम श्रुतकेवलि श्रीभद्रबाहु मुनिराज हुए | वे गुरु इस नवग्रह-शांति की विधि बतलाने में प्रमुख हुए || जो प्रात: उठकर हो पवित्र तन मन से यह स्तुति पढ़ते | वे पद-पद पर आनेवाली आपत्ति हरें शांति लभते ||७|| (दोहा) नवग्रह शांति के लिए, नमूँ जिनेश्वर पाद | तभी ‘चंदना’ क्षेम सुख, का मिलता साम्राज्य ||८|| (प्रात:काल इस स्तोत्र का पाठ करने से क्रूरग्रह अपना असर नहीं करते। किसी ग्रह के असर होने पर 27 दिन तक प्रति दिन 21 बार पाठ करने से अवश्य शांति होगी।)
  12. अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - इन्द्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई, ऐसे अरिहन्त भगवान, सिद्ध पद के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, जैन सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु, ये पाँचों मरमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करें और हमें सुखी करे! श्रीमन्नम्र सुरासुरेन्द्र मुकुट प्रद्योत रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द्रमा हैं एवं योगीजन जिनकी स्तुति करते रहते हैं, ऐसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी हमारे पापों को क्षय करें और हमें सुखी करें! सम्यग्दर्शन-बोध-व्रत्तममलं, रत्नत्रयं पावनं, मुक्ति श्रीनगराधिनाथ जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः धर्म सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं, चैत्यालयं श्रयालयं, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी, कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये पवित्र रत्नत्रय हैं श्रीसम्पन्न मुक्तिनगर के स्वामी भगवान् जिनदेव ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) को देने वाला कहा है इस त्रयी के साथ धर्म सूक्तिसुधा (जिनागम), समस्त जिन-प्रतिमा और लक्ष्मी का आकारभूत जिनालय मिलकर चार प्रकार का धर्म कहा गया है वह हमारे पापों का क्षय करें और हमें सुखी करे! नाभेयादिजिनाः प्रशस्त-वदनाः ख्याताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमन्तो भरतेश्वर-प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लांगलधराः सप्तोत्तराविंशतिः, त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टि-पुरुषाः कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - तीनों लोकों में विख्यात और बाह्य तथा अभ्यन्तर लक्ष्मी सम्पन्न ऋषभनाथ भगवान आदि 24 तीर्थंकर, श्रीमान् भरतेश्वर आदि 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण और 9 बलभद्र, ये 63 शलाका महापुरुष हमारे पापों का क्षय करें और हमें सुखी करे! ये सर्वौषध-ऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पञ्च ये, ये चाष्टाँग-महानिमित्तकुशलाः येऽष्टाविधाश्चारणाः पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धिऋद्धिश्वराः, सप्तैते सकलार्चिता मुनिवराः कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - सभी औषधि ऋद्धिधारी, उत्तम तप से वृद्धिगत पांच, अष्टांग महानिमित्तज्ञानी, आठ प्रकार की चारण ऋद्धि के धारी, पांच प्रकार की ज्ञान ऋद्धियों के धारी, तीन प्रकार की बल ऋद्धियों के धारी, बुद्धि ऋद्धिधारी ऐसे सातों प्रकारों के जगत पूज्य गणनायक मुनिवर हमारा मंगल करे! ज्योतिर्व्यन्तर-भावनामरग्रहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः, जम्बूशाल्मलि-चैत्य-शखिषु तथा वक्षार-रुप्याद्रिषु इक्ष्वाकार-गिरौ च कुण्डलादि द्वीपे च नन्दीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिन-ग्रहाः कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी और वैमानिकों केआवासों के, मेरुओं, कुलाचकों, जम्बू वृक्षों औरशाल्मलि वृक्षों, वक्षारों विजयार्धपर्वतों,इक्ष्वाकार पर्वतों, कुण्डलवर (तथा रुचिक वर), नन्दीश्वर द्वीप, और मानुषोत्तर पर्वत के सभी अकृत्रिम जिन चैत्यालय हमारे पापों काक्षयकरेंऔरहमें सुखी बनावें! कैलाशे वृषभस्य निर्व्रतिमही वीरस्य पावापुरे चम्पायां वसुपूज्यसुज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम् शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतः, निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि कैलाश पर्वत, महावीर स्वामी कीपावापुर, वासुपूज्य स्वामी (राजा वसुपूज्य के पुत्र) की चम्पापुरी, नेमिनाथ स्वामी की ऊर्जयन्त पर्वत शिखर, और शेष बीस तीर्थंकरों की श्री सम्मेदशिखर पर्वत, जिनका अतिशय और वैभव विख्यात है ऐसी ये सभी निर्वाण भूमियाँ हमें निष्पाप बनावें और हमें सुखी करें! यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो, यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक् यः कैवल्यपुर-प्रवेश-महिमा सम्पदितः स्वर्गिभिः कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक, जन्माभिषेक कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और कैवल्यपुर प्रवेश (निर्वाण) कल्याणक के देवों द्वारा सम्पादित महोत्सव हमें सर्वदा मांगलिक रहें! सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते, सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः देवाः यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे, धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगैः कुर्वन्तु नः मंगलम् अर्थ - धर्म के प्रभाव से सर्प माला बन जाता है, तलवार फूलों के समान कोमल बन जाती है, विष अमृत बन जाता है, शत्रु प्रेम करने वाला मित्र बन जाता है और देवता प्रसन्न मन से धर्मात्मा के वश में हो जाते हैं अधिक क्या कहें, धर्म से ही आकाश से रत्नों की वर्षा होने लगती है वही धर्म हम सबका कल्याणकरे! इत्थं श्रीजिन-मंगलाष्टकमिदं सौभाग्य-सम्पत्करम्, कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुषः ये श्र्रण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैः धर्मार्थ-कामाविन्ताः, लक्ष्मीराश्रयते व्यपाय-रहिता निर्वाण-लक्ष्मीरपि अर्थ - सोभाग्यसम्पत्ति को प्रदान करने वाले इस श्री जिनेन्द्र मंगलाष्टक को जो सुधी तीर्थंकरों के पंच कल्याणक के महोत्सवों के अवसर पर तथा प्रभातकाल में भावपूर्वक सुनते और पढ़ते हैं, वे सज्जन धर्म, अर्थ और काम से समन्वित लक्ष्मी के आश्रय बनते हैं और पश्चात् अविनश्वर मुक्तिलक्ष्मी को भी प्राप्त करते हैं!
  13. यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचित:, समं भान्ति ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसन्तोऽन्तरहिता:। जगत्साक्षी मार्ग-प्रकटन-परो भानुरिव यो, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ 1॥ अताम्रं यच्चक्षु: कमलयुगलं स्पन्द-रहितं, जनान् कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि। स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 2॥ नमन्नाकेन्द्राली-मुकुटमणि-भा-जाल-जटिलं, लसत्पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनुभृताम्। भवज्ज्वाला-शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 3॥ यदर्चा - भावेन प्रमुदित - मना दर्दुर इह, क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगण-समृद्ध: सुख-निधि:। लभन्ते सद्भक्ता: शिवसुखसमाजं किमु तदा, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 4॥ कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगत-तनुज्र्ञान-निवहो , विचित्रात्माप्येको नृपतिवरसिद्धार्थतनय:। अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोऽद्भुतगतिर्- महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 5॥ यदीया वाग्गङ्गा विविधनयकल्लोलविमला, बृहज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति। इदानीमप्येषा बुधजनमरालै: परिचिता, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 6॥ अनिर्वारोद्रेकस् - त्रिभुवनजयी काम-सुभट:, कुमारावस्थायामपि निजबलाद्येन विजित:। स्फुरन् नित्यानन्द-प्रशम-पद-राज्याय स जिन:, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 7॥ महामोहातङ्क- प्रशमन- पराकस्मिकभिषग्, निरापेक्षो बन्धुर्विदित - महिमा मङ्गलकर:। शरण्य: साधूनां भव - भयभृतामुत्तमगुणो, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥ 8॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या भागेन्दुना कृतम्। य: पठेच्छृणुयाच्चापि, स याति परमां गतिम्॥ 9॥
  14. कविश्री बनारसीदास (दोहा) परम-ज्योति परमात्मा, परम-ज्ञान परवीन | वंदूँ परमानंदमय घट-घट-अंतर-लीन ||१|| (चौपार्इ) निर्भयकरन परम-परधान, भव-समुद्र-जल-तारन-यान | शिव-मंदिर अघ-हरन अनिंद, वंदूं पार्श्व-चरण-अरविंद ||२|| कमठ-मान-भंजन वर-वीर, गरिमा-सागर गुण-गंभीर | सुर-गुरु पार लहें नहिं जास, मैं अजान जापूँ जस तास ||३|| प्रभु-स्वरूप अति-अगम अथाह, क्यों हम-सेती होय निवाह | ज्यों दिन अंध उल्लू को होत, कहि न सके रवि-किरण-उद्योत ||४|| मोह-हीन जाने मनमाँहिं, तो हु न तुम गुन वरने जाहिं | प्रलय-पयोधि करे जल गौन, प्रगटहिं रतन गिने तिहिं कौन ||५|| तुम असंख्य निर्मल गुणखान, मैं मतिहीन कहूँ निज बान| ज्यों बालक निज बाँह पसार, सागर परमित कहे विचार ||६|| जे जोगीन्द्र करहिं तप-खेद, तेऊ न जानहिं तुम गुनभेद | भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष, ज्यों पंछी बोले निज भाष ||७|| तुम जस-महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन-आधार | आवे पवन पदमसर होय, ग्रीषम-तपन निवारे सोय ||८|| तुम आवत भवि-जन मनमाँहिं, कर्मनि-बन्ध शिथिल ह्वे जाहिं | ज्यों चंदन-तरु बोलहिं मोर, डरहिं भुजंग भगें चहुँ ओर ||९|| तुम निरखत जन दीनदयाल, संकट तें छूटें तत्काल | ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, ते तज भागहिं देखत भोर ||१०|| तुम भविजन-तारक इमि होहि, जे चित धारें तिरहिं ले तोहि | यह ऐसे करि जान स्वभाव, तिरहिं मसक ज्यों गर्भित बाव ||११|| जिहँ सब देव किये वश वाम, तैं छिन में जीत्यो सो काम | ज्यों जल करे अगनि-कुल हान, बडवानल पीवे सो पान ||१२|| तुम अनंत गुरुवा गुन लिए, क्यों कर भक्ति धरूं निज हिये | ह्वै लघुरूप तिरहिं संसार, प्रभु तुम महिमा अगम अपार ||१३|| क्रोध-निवार कियो मन शांत, कर्म-सुभट जीते किहिं भाँत | यह पटुतर देखहु संसार, नील वृक्ष ज्यों दहै तुषार ||१४|| मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्धरूप सम ध्यावहिं तोहि | कमल-कर्णिका बिन-नहिं और, कमल बीज उपजन की ठौर ||१५|| जब तुव ध्यान धरे मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय | जैसे धातु शिला-तनु त्याग, कनक-स्वरूप धवे जब आग ||१६|| जाके मन तुम करहु निवास, विनशि जाय सब विग्रह तास | ज्यों महंत ढिंग आवे कोय, विग्रहमूल निवारे सोय ||१७|| करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभाव तें होय निदान | जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विष विकार की हान ||१८|| तुम भगवंत विमल गुणलीन, समल रूप मानहिं मतिहीन | ज्यों पीलिया रोग दृग गहे, वर्ण विवर्ण शंख सों कहे ||१९|| (दोहा) निकट रहत उपदेश सुन, तरुवर भयो 'अशोक' | ज्यों रवि ऊगत जीव सब, प्रगट होत भुविलोक ||२०|| 'सुमन वृष्टि' ज्यों सुर करहिं, हेठ बीठमुख सोहिं | त्यों तुम सेवत सुमन जन, बंध अधोमुख होहिं ||२१|| उपजी तुम हिय उदधि तें, 'वाणी' सुधा समान | जिहँ पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर-पदथान ||२२|| कहहिं सार तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-चामर' दोय | भावसहित जो जिन नमहिं, तिहँ गति ऊरध होय ||२३|| 'सिंहासन' गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर | श्याम सुतनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ||२४|| छवि-हत होत अशोक-दल, तुम 'भामंडल' देख | वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ||२५|| सीख कहे तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-दुंदुभि' नाद | शिवपथ-सारथ-वाह जिन, भजहु तजहु परमाद ||२६|| 'तीन छत्र' त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छवि देत | त्रिविध-रूप धर मनहु शशि, सेवत नखत-समेत ||२७|| (पद्धरि छन्द) प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,परताप पुंज जिम शुद्ध-हेम | अतिधवल सुजस रूपा समान, तिनके गुण तीन विराजमान ||२८|| सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, तिन सीस मुकुट तज देहिं माल | तुम चरण लगत लहलहे प्रीति, नहिं रमहिं और जन सुमन रीति ||२९|| प्रभु भोग-विमुख तन करम-दाह, जन पार करत भवजल निवाह | ज्यों माटी-कलश सुपक्व होय, ले भार अधोमुख तिरहिं तोय ||३०|| तुम महाराज निरधन निराश,तज तुम विभव सब जगप्रकाश | अक्षर स्वभाव-सु लिखे न कोय, महिमा भगवंत अनंत सोय ||३१|| कोपियो कमठ निज बैर देख, तिन करी धूलि वरषा विशेष | प्रभु तुम छाया नहिं भर्इ हीन, सो भयो पापी लंपट मलीन ||३२|| गरजंत घोर घन अंधकार, चमकंत-विज्जु जल मूसल-धार | वरषंत कमठ धर ध्यान रुद्र, दुस्तर करंत निज भव-समुद्र ||३३|| (वास्तु छन्द) मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि | भेजे तुरत पिशाच-गण, नाथ-पास उपसर्ग कारण | अग्नि-जाल झलकंत मुख, धुनिकरत जिमि मत्त वारण | कालरूप विकराल-तन, मुंडमाल-हित कंठ | ह्वे निशंक वह रंक निज, करे कर्म दृढ़-गंठ ||३४|| (चौपार्इ छन्द) जे तुम चरण-कमल तिहुँकाल, सेवहिं तजि माया जंजाल | भाव-भगति मन हरष-अपार, धन्य-धन्य जग तिन अवतार ||३५|| भवसागर में फिरत अजान, मैं तुव सुजस सुन्यो नहिं कान | जो प्रभु-नाम-मंत्र मन धरे, ता सों विपति भुजंगम डरे ||३६|| मनवाँछित-फल जिनपद माहिं, मैं पूरब-भव पूजे नाहिं | माया-मगन फिर्यो अज्ञान, करहिं रंक-जन मुझ अपमान ||३७|| मोहतिमिर छायो दृग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि | जो दुर्जन मुझ संगति गहें, मरम छेद के कुवचन कहें ||३८|| सुन्यो कान जस पूजे पायँ, नैनन देख्यो रूप अघाय | भक्ति हेतु न भयो चित चाव, दु:खदायक किरिया बिनभाव ||३९|| महाराज शरणागत पाल, पतित-उधारण दीनदयाल | सुमिरन करहूँ नाय निज-शीश, मुझ दु:ख दूर करहु जगदीश ||40|| कर्म-निकंदन-महिमा सार, अशरण-शरण सुजस विस्तार | नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ||४१|| सुर-गन-वंदित दया-निधान, जग-तारण जगपति अनजान | दु:ख-सागर तें मोहि निकासि, निर्भय-थान देहु सुख-रासि ||४२|| मैं तुम चरण कमल गुणगाय, बहु-विधि-भक्ति करी मनलाय | जनम-जनम प्रभु पाऊँ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोय ||४३|| (बेसरी छंद – षड्पद) इहविधि श्री भगवंत, सुजस जे भविजन भाषहिं | ते निज पुण्यभंडार, संचि चिर-पाप प्रणासहिं || रोम-रोम हुलसंति अंग प्रभु-गुण मन ध्यावहिं | स्वर्ग संपदा भुंज वेगि पंचमगति पावहिं || यह कल्याणमंदिर कियो, कुमुदचंद्र की बुद्धि | भाषा कहत 'बनारसी', कारण समकित-शुद्धि ||४४||
  15. कल्याण-मन्दिरमुदारमवद्यभेदि , भीता-भयप्रदमनिन्दितमङ्-धिपद्मम्। संसार-सागर-निमज्जदशेषजंतु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य॥ 1॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशे:, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम्। तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतोस् तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये॥ 2॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशा: कथमधीश भवन्त्यधीशा:। धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मे: ॥ 3॥ मोहक्षयादनु-भवन्नपि नाथ मत्र्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्तवान्तपयस: प्रकटोऽपि यस्मान् मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशि:॥ 4॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य। बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे:॥5॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाश:। जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि॥ 6॥ आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति। तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाघे प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि॥ 7॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति जन्तो: क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धा:। सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग- मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य॥ 8॥ मुच्यन्त एव मनुजा: सहसा जिनेन्द्र ! रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि। गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे चौरैरिवाशु पशव: प्रपलायमानै: ॥ 9॥ त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्त:। यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून- मन्तर्गतस्य मरुत: स किलानुभाव:॥ 10॥ यस्मिन् हर-प्रभृतयोऽपि हतप्रभावा: सोऽपि त्वया रतिपति: क्षपित: क्षणेन। विध्यापिता हुतभुज: पयसाथ येन पीतं न किं तदपि दुद्र्धरवाडवेन॥ 11॥ स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नास्- त्वां जन्तव: कथमहो हृदये दधाना:। जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभाव:॥ 12॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो- ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौरा:। प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी॥ 13॥ त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे। पूतस्य निर्मल-रुचे-र्यदि वा किमन्य दक्षस्य सम्भवपदं ननु कर्णिकाया:॥ 14॥ ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविन: क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति। तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा: ॥ 15॥ अन्त: सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं भव्यै: कथं तदपि नाशयसे शरीरम्। एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावा:॥ 16॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभाव:। पानीयमप्यमृत-मित्यनुचिन्त्यमानं किं नाम नो विषविकारमपाकरोति॥ 17॥ त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्ना:। किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शङ्खो नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥ 18॥ धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा- दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोक:। अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोक:॥ 19॥ चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टि:। त्वद्-गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश! गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि॥ 20॥ स्थाने गभीरहृदयोदधिसम्भवाया: पीयूषतां तव गिर: समुदीरयन्ति। पीत्वा यत: परमसम्मदसङ्गभाजो भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्॥ 21॥ स्वामिन्! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो मन्ये वदन्ति शुचय: सुरचामरौघा:। येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय ते नूनमूध्र्वगतय: खलु शुद्धभावा:॥ 22॥ श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न- सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम्। आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चैश्- चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम्॥ 23॥ उद्गच्छता तव शितिद्युतिमण्डलेन लुप्तच्छदच्छवि-रशोकतरुर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग! नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि॥ 24॥ भो ! भो ! प्रमादमवधूय भजध्वमेन- मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम्। एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय मन्ये नदन्नभिनभ: सुरदुन्दुभिस्ते॥ 25॥ उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ! तारान्वितो विधुरयं विहताधिकार:। मुक्ताकलाप-कलितोल्लसितातपत्र व्याजात्त्रिधा धृततनुध्र्रुवमभ्युपेत:॥ 26॥ स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन। माणिक्यहेमरजत-प्रविनिर्मितेन सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि॥ 27॥ दिव्यस्रजो जिन नमत्त्रिदशाधिपाना- मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान्। पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव॥ 28॥ त्वं नाथ ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान्। युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्य:॥ 29॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश! अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु:॥ 30॥ प्राग्भारसम्भृत-नभांसि रजांसि रोषा- दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि। छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो ग्रस्तस्त्वमी-भिरयमेव परं दुरात्मा॥ 31॥ यद्गर्जदूर्जित घनौघमदभ्रभीम भ्रश्यत्तडिन्-मुसल-मांसल-घोरधारम्। दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दध्रे तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम्॥ 32॥ ध्वस्तोध्र्वकेश-विकृताकृतिमत्र्यमुण्ड- प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र विनिर्यदग्रि:। प्रेतव्रज: प्रति भवन्तमपीरितो य: सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदु:खहेतु:॥ 33॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य- माराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्या:। भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशा: । पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाज:॥34॥ अस्मिन्नपार-भव- वारिनिधौ मुनीश! मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि। आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमन्त्रे किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति॥ 35॥ जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्। तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्॥ 36॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन पूर्वं विभो! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि। मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्था: प्रोद्यत्प्रबन्धगतय: कथमन्यथैते॥ 37॥ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दु:खपात्रम् यस्मात्िक्रया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या:॥ 38॥ त्वं नाथ ! दु:खिजनवत्सल! हे शरण्य! कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य! भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय दु:खाङ्कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥ 39॥ नि:संख्यसारशरणं शरणं शरण्य- मासाद्य सादितरिपु-प्रथितावदानम्। त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो वन्ध्योऽस्मि चेद्भुवनपावन! हा हतोऽस्मि॥४०॥ देवेन्द्रवन्द्य! विदिताखिलवस्तुसार! संसारतारक ! विभो! भुवनाधिनाथ! त्रायस्व देव! करुणाहृद ! मां पुनीहि सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशे:॥ 41॥ यद्यस्ति नाथ ! भवदङ्िघ्रसरोरुहाणां भक्ते: फलं किमपि सन्ततसञ्िचताया:। तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य! भूया: स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि॥ 42॥ इत्थंसमाहितधियो विधिवज्िजनेन्द्र! सान्द्रोल्लसत्पुलक-कञ्चुकिताङ्गभागा:। त्वद्बिम्बनिर्मल मुखाम्बुजबद्धलक्ष्या: ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्या:॥ 43॥ जननयन कुमुदचन्द्र! प्रभास्वरा: स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा। ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते॥ 44॥
  16. नील कमल के दल-सम जिन के युगल-सुलोचन विकसित हैं, शशि-सम मनहर सुखकर जिनका मुख-मण्डल मृदु प्रमुदित है। चम्पक की छवि शोभा जिनकी नम्र नासिका ने जीती, गोमटेश जिन-पाद-पद्म की पराग नित मम मति पीती॥ १॥ गोल-गोल दो कपोल जिन के उज्ज्वल सलिल सम छवि धारे, ऐरावत-गज की सूण्डा सम बाहुदण्ड उज्ज्वल-प्यारे। कन्धों पर आ, कर्ण-पाश वे नर्तन करते नन्दन है, निरालम्ब वे नभ-सम शुचि मम, गोमटेश को वन्दन है॥ २॥ दर्शनीय तव मध्य भाग है गिरि-सम निश्चल अचल रहा, दिव्य शंख भी आप कण्ठ से हार गया वह विफल रहा। उन्नत विस्तृत हिमगिरि-सम है, स्कन्ध आपका विलस रहा, गोमटेश प्रभु तभी सदा मम तुम पद में मन निवस रहा॥ ३॥ विन्ध्याचल पर चढ़ कर खरतर तप में तत्पर हो बसते, सकल विश्व के मुमुक्षु जन के, शिखामणी तुम हो लसते। त्रिभुवन के सब भव्य कुमुद ये खिलते तुम पूरण शशि हो, गोमटेश मम नमन तुम्हें हो सदा चाह बस मन वशि हो॥ ४॥ मृदुतम बेल लताएँ लिपटी पग से उर तक तुम तन में, कल्पवृक्ष हो अनल्प फल दो भवि-जन को तुम त्रिभुवन में। तुम पद-पंकज में अलि बन सुर-पति गण करता गुन-गुन है, गोमटेश प्रभु के प्रति प्रतिपल वन्दन अर्पित तन-मन है॥ ५॥ अम्बर तज अम्बर-तल थित हो दिग् अम्बर नहिं भीत रहे, अंबर आदि विषयन से अति विरत रहे भव भीत रहे। सर्पादिक से घिरे हुए पर अकम्प निश्चल शैल रहे, गोमटेश स्वीकार नमन हो धुलता मन का मैल रहे॥ ६॥ आशा तुम को छू नहिं सकती समदर्शन के शासक हो, जग के विषयन में वाञ्छा नहिं दोष मूल के नाशक हो। भरत-भ्रात में शल्य नहीं अब विगत-राग हो रोष जला, गोमटेश तुम में मम इस विध सतत राग हो होत चला॥ ७॥ काम-धाम से धन-कंचन से सकलसंग से दूर हुए, शूर हुए मद मोह - मार कर समता से भरपूर हुए। एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये, इसीलिए बस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किये॥ ८॥ (दोहा) नेमीचन्द्र गुरु ने किया प्राकृत में गुणगान। गोमटेश थुति अब किया भाषामय सुख खान॥ १॥ गोमटेश के चरण में नत हो बारम्बार। विद्यासागर कब बनूँ भवसागर कर पार॥ २॥
  17. जिनान् जिताराति-गणान् गरिष्ठान् देशावधीन् सर्वपरावधींश्च। सत्कोष्ठबीजादि-पदानुसारीन्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ १॥ संभिन्न-श्रोत्रान्वित-सन्मुनीन्द्रान् प्रत्येक-सम्बोधित-बुद्धधर्मान्। स्वयं प्रबुद्धांश्च विमुक्तिमार्गान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ २॥ द्विधा मन:पर्यय-चित्प्रयुक्तान् द्वि-पञ्च-सप्त-द्वय-पूर्वसक्तान्। अष्टाङ्ग-नैमित्तिक-शादक्षान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥३॥ विकुर्वाणाख्यद्र्धि-महाप्रभावान्, विद्याधरांश्चारण-ऋद्धिप्राप्तान्। प्रज्ञाश्रितान्नित्य-खगामिनश्च, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ ४॥ आशीर्विषान् दृष्टिविषान्मुनीन्द्रा- नुग्राति-दीप्तोत्तमतप्त-तप्तान्। महातिघोर-प्रतप:प्रसक्तान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ ५॥ वंद्यान् सुरैर्घोर-गुणांश्च लोके, पूज्यान् बुधै-र्घोरपरा-क्रमांश्च। घोरादि-संसद्गुण-ब्रह्म-युक्तान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ ६॥ आमद्र्धि-खेलद्र्धि-प्रजल्लविडृद्धि- सर्वद्र्धि-प्राप्तांश्च व्यथादिहन्तॄन्। मनोवच:काय-बलोपयुक्तान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ ७॥ सत्क्षीरसर्पिर्मधुरा-मृतद्र्धीन्, यतीन् वराक्षीण-महानसांश्च। प्रवर्धमानांि-जगत्पूज्यान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ ८॥ सिद्धालयान् श्रीमहतोऽतिवीरान्, श्रीवर्धमानद्र्धिविबुद्धि-दक्षान्। सर्वान् मुनीन् मुक्तिवरानृषीन्द्रान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै॥ ९॥ नृसुर-खचर-सेव्या, विश्व-ोष्ठद्र्धिभूषा, विविध-गुण-समुद्रा, मारमातङ्ग-सिंहा:। भवजल-निधि-पोता, वन्दिता मे दिशन्तु, मुनिगणसकला: श्रीसिद्धिदा: सदृषीन्द्रान्॥ १०॥
  18. एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्मबन्धो घोरं दु:खं भवभव-गतो दुर्निवार: करोति। तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेत् जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:॥ 1॥ ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वांतविध्वंसहेतुं त्वामेवाहुर्जिनवर ! चिरं तत्त्व - विद्याभियुक्ता:। चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानस्- तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे॥ 2॥ आनन्दाश्रु - स्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन् यश्चायेत त्वयि दृढमना: स्तोत्र - मन्त्रैर्भवन्तम्। तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यान् निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:॥ 3॥ प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात् पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव ! निन्ये त्वयेदम्। ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त - गेहं प्रविष्टस्- तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णी-करोषि॥ 4॥ लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन् ! निर्निमित्तेन बन्धुस्- त्वय्येवासौ सकल - विषया शक्ति-रप्रत्यनीका। भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा:॥ 5॥ जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा प्राप्तैवेयं तव नय - कथा स्फार - पीयूष - वापी। तस्या मध्ये हिमकर - हिम - व्यूह - शीते नितान्तं निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा:॥ 6॥ पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म:। सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ॥ 7॥ पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिबन्तं कर्मारण्यात् - पुरुष -मसमानन्द-धाम-प्रविष्टम्। त्वां दुर्वार - स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति॥ 8॥ पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न - मूर्ति- र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्ग:। दृष्टि-प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु:॥ 9॥ हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन् मूर्तिशैलोपवाही सद्य: पुंसां निरवधि - रुजा - धूलि - बन्धं धुनोति। ध्यानाहूतो हृदय - कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टस्- तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार:॥ 10॥ जानासि त्वं मम भव-भवे यच्च यादृक्च दु:खं जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि। त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम्॥ 11॥ प्रापद्दैवं तव नुति - पदैर्जीवकेनोपदिष्टै: पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम्। क: संदेहो यदुपलभते वासव - श्रीप्रभुत्वं जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम्॥ 12॥ शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम्। शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो- मुक्तिद्वारं परिदृढ़-महामोह-मुद्रा-कवाटम्॥ 13॥ प्रच्छन्न: खल्वय-मघ-मयै - रन्धकारै: समन्तात्- पन्था मुक्ते: स्थपुटित - पद: क्लेश-गर्तैरगाधै:। तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद् - भारतीरत्न-दीप:॥ 14॥ आत्म-ज्योति- र्निधि- रनवधि - द्र्रष्टुरानन्द-हेतु: कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम्। हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद् भक्तिभाज: स्तोत्रैर्बन्ध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै:॥ 15॥ प्रत्युत्पन्ना नय - हिमगिरेरायता चामृताब्धे: या देव त्वत्पद - कमलयो: सङ्गता भक्ति-गङ्गा। चेतस्तस्यां मम रुचि - वशादाप्लुतं क्षालितांह: कल्माषं यद् भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:॥ 16॥ प्रादुर्भूत - स्थिर - पद - सुखत्वामनुध्यायतो मे त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा। मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति - मभ्रेषरूपां दोषात्मानोऽप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति॥ 17॥ मिथ्यावादं मल - मपनुदन् - सप्तभङ्गीतरङ्गैर् वागम्भोधिर्भुवनमखिलं देव ! पर्येति यस्ते। तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृता-सेवया तृप्नुवन्ति॥ 18॥ आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य: शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य:। सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां तत्किं भूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै:॥ 19॥ इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते तस्यैवेयं भव-लय - करी श्लाघ्यतामातनोति। त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धिकान्तापतिस्त्वं त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्॥ 20॥ वृत्तिर्वाचा - मपर - सदृशी न त्वमन्येन तुल्य: स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते। मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टास्- ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति॥ 21॥ कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षम्। आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि - र्वैर-हारी क्वैवंभूतं भुवन-तिलक! प्राभवं त्वत्परेषु॥ 22॥ देव! स्तोतुं त्रिदिव गणिका-मण्डली-गीत-कीर्तिं तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान - मूर्तिं र्जनो य:। तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्थास्- तत्त्वग्रन्थ-स्मरण - विषये नैष मोमूर्ति मत्र्य:॥ 23॥ चित्ते कुर्वन् निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूप देव! त्वां य: समय - नियमादादरेण स्तवीति। श्रेयोमार्गं स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम्॥ 24॥ भक्ति-प्रह्वमहेन्द्र - पूजित - पद ! त्वत्कीर्तने न क्षमा: सूक्ष्म - ज्ञान - दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम्। अस्माभि: स्तवन - च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम:॥25॥ वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्किकसिंह:। वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय:॥ 26॥
  19. कविवर भूधरदास जी कृत भाषानुवाद दोहा :- वादिराज मुनिराज के, चरणकमल चित्त लाय| भाषा एकीभाव की, करुँ स्वपर सुखदाय | (रोला छन्दः "अहो जगत गुरुदेव" विनती की चाल में) यो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी| जो मुझ-कर्म प्रबंध करत भव भव दुःख भारी|| ताहि तिहांरी भक्ति जगतरवि जो निरवारै | तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै|1| तुम जिन जोतिस्वरुप दुरित अँधियारि निवारी| सो गणेश गुरु कहें तत्त्व-विद्याधन-धारी|| मेरे चित्त घर माहिं बसौ तेजोमय यावत| पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत|2| आनँद-आँसू वदन धोयं तुम जो चित्त आने| गदगद सरसौं सुयश मन्त्र पढ़ि पूजा ठानें|| ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी| भाजें थानक छोड़ देह बांबइ के वासी|3| दिवि तें आवन-हार भये भवि भाग-उदय बल| पहले ही सुर आय कनकमय कीन महीतल|| मन-गृह ध्यान-दुवार आय निवसो जगनामी| जो सुरवन तन करो कौन यह अचरज स्वामी|4| प्रभु सब जग के बिना-हेतु बांधव उपकारी| निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहांरी || भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे| मेरे दुःख-संताप देख किम धीर धरोगे|5| भव वन में चिरकाल भ्रम्यों कछु कहिय न जाई| तुम थुति-कथा-पियूष-वापिका भाग से पाई|| शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम| करत न्हौन ता माहिं क्यों न भवताप बझै मम|6| श्रीविहार परिवाह होत शुचिरुप सकल जग| कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग|| मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावे| अब सो कौन कल्यान जो न दिन-दिन ढिग आवे|7| भव तज सुख पद बसे काम मद सुभट संहारे| जो तुमको निरखंत सदा प्रिय दास तिहांरे|| तुम-वचनामृत-पान भक्ति अंजुलि सों पीवै| तिन्हैं भयानक क्रूर रोगरिपु कैसे छीवै|8| मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर| ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अंतर|| देखत दृष्टि प्रमान मानमद तुरत मिटावे| जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावे|9| प्रभुतन पर्वत परस पवन उर में निबहे है| ता सों तत छिन सकल रोग रज बाहिर ह्रै है|| जा के ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं| कौन जगत उपकार-करन समरथ सो नाहीं|10| जनम जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो| याद किये मुझ हिये लगें आयुध से मानों|| तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरन गही है| जो कुछ करनो होय करो परमान वही है|11| मरन-समय तुम नाम मंत्र जीवक तें पायो| पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो|| जो मणिमाला लेय जपे तुम नाम निरंतर| इन्द्र-सम्पदा लहे कौन संशय इस अंतर|12| जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै| अनवधि सुख की सार भक्ति कूंची नहिं लांघे|| सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उघारे| मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै|13| शिवपुर केरो पंथ पाप-तम सों अतिछायो| दुःख सरुप बहु कूप-खाई सों विकट बतायो|| स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें! प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगे|14| कर्म पटल भू माहिं दबी आतम निधि भारी| देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी|| तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै| थुति कुदाल सों खोद बंद भू कठिन विदारै|15| स्याद् वाद-गिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई| तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई|| मो चित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव तामें| अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय या में|16| तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो| मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो|| यदपि झूठ है तदपि त्रप्ति निश्चल उपजावे| तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावे|17| वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापे| भंग-तरंगिनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापे|| मन सुमेरु सों मथे ताहि जे सम्यज्ञानी| परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्रानी|18| जो कुदेव छविहीन वसन भूषन अभिलाखे| वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे|| तुम सुंदर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई| भूषन वसन गदादि ग्रहन काहे को होई|19| सुरपति सेवा करे कहा प्रभु प्रभुता तेरी| सो सलाघना लहै मिटे जग सों जग फेरी|| तुम भव जलधि जिहाज तोहि शिव कंत उचरिये| तुही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये|20| वचन जाल जड़ रुप आप चिन्मूरति झांई| तातैं थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम तांई|| तो भी निर्फल नाहिं भक्ति रस भीने वायक| संतन को सुर तरु समान वांछित वरदायक|21| कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहूं नहिं धारो| अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहांरो|| तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये| यह प्रभुता जगतिलका कहां तुम बिन सरदहिये|22|| सुरतिय गावें सुजश सर्व गति ज्ञान स्वरुपी| जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनंद रुपी|| ताहि छेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो हैं| श्रुत के सुमरन माहिं सो न कबहूं नर मोहै|23| अतुल चतुष्टय रूप तुम्हें जो चित में धारे| आदर सों तिहुं काल माहिं जग थुति विस्तारे|| सो सुकृत शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरे| पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुःख चूरे|24| अहो जगत पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे| तुम गुन कीर्तन माहिं कौन हम मंद विचारे|| थुति छल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे| शिव सुख-पूरनहार कलपतरु यही हमारे|25| वादिराज मुनि तें अनु, वैयाकरणी सारे| वादिराज मुनि तें अनु, तार्किक विद्यावारे|| वादिराज मुनि तें अनु, हैं काव्यन के ज्ञाता| वादिराज मुनि तें अनु, हैं भविजन के त्राता|26| दोहा मूल अर्थ बहु विधि कुसुम, भाषा सूत्र मँझार| भक्ति माल 'भूधर' करी, करो कंठ सुखकार||
  20. कविश्री वृन्दावन दास (शैर की लय में तथा और रागिनियों में भी बनती है।) श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दु:खहरन तुम्हारा बाना है | मत मेरी बार अबार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है || टेक || त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो, तुमसों कछु बात न छाना है | मेरे उर आरत जो वरते, निहचे सब सो तुम जाना है | अवलोक विथा तुम मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है | हो राजिव-लोचन सोच-विमोचन, मैं तुमसों हित ठाना है ||१|| सब ग्रंथन में निरग्रंथनि ने, निरधार यही गणधार कही | जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक-ज्ञान-मही || यह बात हमारे कान परी, तब आन तुम्हारी-शरन गही | क्यों मेरी बार विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही ||२|| काहू को भोग-मनोग करो, काहू को स्वर्ग-विमाना है | काहू को नाग-नरेशपती, काहू को ऋद्धि-निधाना है | अब मो पर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है | इन्साफ करो मत देर करो, सुखवृंद भरो भगवाना है ||३|| खल-कर्म मुझे हैरान किया, तब तुम को आन पुकारा है | तुम ही समरथ न न्याय करो, तब बंदे का क्या चारा है | खलघालक पालक-बालक का, नृप नीति यही जगसारा है | तुम नीति-निपुण त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है ||४|| जबसे तुमसे पहिचान भर्इ, तबसे तुमही को माना है | तुमरे ही शासन का स्वामी, हमको सच्चा सरधाना है | जिनको तुमरी शरनागत है, तिन सों जमराज डराना है | यह सुजस तुम्हारे साँचे का, सब गावत वेद-पुराना है ||५|| जिसने तुमसे दिल-दर्द कहा, तिसका तुमने दु:ख हाना है | अघ छोटा-मोटा नाशि तुरत, सुख दिया तिन्हें मनमाना है | पावक सों शीतल-नीर किया, औ’ चीर बढ़ा असमाना है | भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुबेर-समाना है ||६|| चिंतामणि-पारस-कल्पतरु, सुखदायक ये सरधाना है | तव दासन के सब दास यही, हमरे मन में ठहराना है | तुव भक्तन को सुर-इन्द्र-पदी, फिर चक्रपती पद पाना है | क्या बात कहूँ विस्तार बड़ी, वे पावें मुक्ति-ठिकाना है ||७|| गति-चार चुरासी-लाख-विषे, चिन्मूरत मेरा भटका है | हे दीनबंधु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है | जब जोग मिला शिवसाधन का, तब विघन कर्म ने हटका है | तुम विघन हमारे दूर करो, सुख देहु निराकुल घटका है ||८|| गज-ग्राह-ग्रसित उद्धार किया, ज्यों अंजन-तस्कर तारा है | ज्यों सागर गोपद-रूप किया, मैना का संकट टारा है | ज्यों सूली तें सिंहासन औ’, बेड़ी को काट बिडारा है | त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकूँ आस तुम्हारा है ||९|| ज्यों फाटक टेकत पाँय खुला, औ’ साँप सुमन कर डारा है | ज्यों खड्ग कुसुम का माल किया, बालक का जहर उतारा है | ज्यों सेठ-विपत चकचूरि पूर, घर लक्ष्मी-सुख विस्तारा है | त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकूँ आस तुम्हारा है ||१०|| यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य-सर्वथा जाना है | चिनमूरति आप अनंतगुनी, नित शुद्धदशा शिवथाना है | तद्यपि भक्तन की पीर हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है | यह शक्ति-अचिंत तुम्हारी का, क्या पावे पार सयाना है ||११|| दु:ख-खंडन श्री सुख-मंडन का, तुमरा प्रन परम-प्रमाना है | वरदान दया-जस-कीरत का, तिहुँलोक धुजा फहराना है | कमलाधरजी! कमलाकरजी! करिये कमला अमलाना है | अव मेरि विथा अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है ||१२|| हो दीनानाथ अनाथहितू, जन दीन-अनाथ पुकारी है | उदयागत-कर्मविपाक हलाहल, मोह-विथा विस्तारी है || ज्यों आप और भवि-जीवन की, तत्काल विथा निरवारी है | त्यों ‘वृंदावन’ यह अर्ज करे, प्रभु आज हमारी बारी है ||१३||
  21. द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि भव्यात्मनां विभव-संभव-भूरिहेतु| दुग्धाब्धि-फेन-धवलोज्जल-कूटकोटी- नद्ध-ध्वज-प्रकर-राजि-विराजमानम्|1| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनैकलक्ष्मी- धामर्द्धिवर्द्धित-महामुनि-सेव्यमानम्| विद्याधरामर-वधूजन-मुक्तदिव्य- पुष्पाज्जलि-प्रकर-शोभित-भूमिभागम्|2| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवास- विख्यात-नाक-गणिका-गण-गीयमानम्| नानामणि-प्रचय-भासुर-रश्मिजाल- व्यालीढ-निर्मल-विशाल-गवाक्षजालम्|3| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं सुर-सिद्ध-यज्ञ- गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा| संगीत-मिश्रित-नमस्कृत-धारनादै- रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालम्|4| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं विलसद्विलोल- मालाकुलालि-ललितालक-विभ्रमाणम्| माधुर्यवाद्य-लय-नृत्य-विलासिनीनां लीला-चलद्वलय-नूपुर-नाद-रम्यम्|5| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं मणि-रत्न-हेम- सारोज्ज्वलैः कलश-चामर-दर्पणाद्यैः| सन्मंगलैः सततमष्टशत-प्रभेदै- र्विभ्राजितं विमल-मौक्तिक-दामशोभम्|6| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं वरदेवदारु- कर्पूर-चन्दन-तरुष्क-सुगन्धिधूपैः| मेघायमानगगने पवनाभिवात- चञ्चच्चलद्विमल-केतन-तुंग-शालम्|7| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं धवलातपत्र- च्छाया-निमग्न-तनु-यक्षकुमार-वृन्दैः| दोधूयमान-सित-चामर-पंक्तिभासं भामण्डल-द्युतियुत-प्रतिमाभिरामम्|8| द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं विविधप्रकार- पुष्पोपहार-रमणीय-सुरत्नभूमिः| नित्यं वसन्ततिलकश्रियमादधानं सन्मंगलं सकल-चन्द्रमुनीन्द्र-वन्द्यम्|9| द्दष्टं मयाद्य मणि-काञ्चन-चित्र-तुंग- सिंहासनादि-जिनबिम्ब-विभूतियुक्तम्| चैत्यालयं यदतुलं परिकीर्तितं मे सन्मंगलं सकल-चन्द्रमुनीन्द्र-वन्द्यम्|10|
  22. दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम्। दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्॥ १॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च। न तिष्ठति चिरं पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्॥ २॥ वीतराग - मुखं दृष्ट्वा, पद्मरागसमप्रभम्। नैकजन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति॥ ३॥ दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसार-ध्वान्तनाशनम्। बोधनं चित्तपद्मस्य, समस्तार्थ-प्रकाशनम्॥ ४॥ दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृत-वर्षणम्। जन्म-दाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधे:॥ ५॥ जीवादितत्त्व प्रतिपादकाय, सम्यक्त्व मुख्याष्टगुणार्णवाय। प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय॥ ६॥ चिदानन्दैक - रूपाय, जिनाय परमात्मने। परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नम:॥ ७॥ अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम। तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर:॥ ८॥ न हि त्राता न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति॥ ९॥ जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्ति-र्दिनेदिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु,सदा मेऽस्तु भवे भवे॥ १०॥ जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भूवंचक्रवत्र्यपि। स्यां चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासित:॥ ११॥ जन्मजन्मकृतं पापं, जन्मकोटिमुपार्जितम्। जन्ममृत्युजरा-रोगो, हन्यते जिनदर्शनात्॥ १२॥ अद्याभवत् सफलता नयन-द्वयस्य, देव ! त्वदीय चरणाम्बुज वीक्षणेन। अद्य त्रिलोक-तिलक ! प्रतिभासते मे, संसार-वारिधिरयं चुलुक-प्रमाण:॥ १३॥
  23. श्री भक्तामर स्त्रोत भाषा भाषा अनुवाद रवीन्द्र कुमार जैन भक्तअमर नित करते स्तवन शीश झुका प्रभु चरणो मे पाप कर्म के क्षय करने को जैसे उदित सूर्य नभ मे स्तुति करता रिषव देव की हर्षित हेाकर के मन मे भव समुद्र से पार करन को अवलम्बन हे भववन मे।।1।। सकल ज्ञान मय तत्व बोध के ज्ञानी ज्ञाता योगी जन आदि जिनेश्वर प्रभु को करते सुर नर बारम्बार नमन प्रथम जिनेश्वर आदि प्रभु को मंद बुद्धि मे करू स्तवन कर्म काट भव वन से छूटे ब्रम्ह स्वरूपी हो भगवन ।।2।। पूज्यनीय हो देवो से प्र्रभु फिर भी भक्ति करन के काज अल्प बुद्धि मे करू स्तुति जगजन की तज कर के लाज देख चन्द्र प्रतिबिम्ब नीर मे चाहे उसको कोन पुमान किन्तु शिशु ही पाना चाहे देख उसी को चन्द्र समान।।3।। उज्जवल चन्द्र कान्ति सम दिखते वीतराग तुम आभावान सुर नर नित ही करते रहते भक्ति सहित प्रभु के गुणगान बुद्धि हीन होकर के फिर भी स्तुति करने को तैयार तीव्र वेग के वात वलय मे कोन करेगा सागर पार ।।4।। ज्ञान हीन मे शक्ति रहित हू स्तुति करने को तैयार जैसे सन्मुख सिंह उपस्थित मृगी हुई बालक बश प्यार तत्सम भक्ति करू आपकी शक्ति रहित भक्ति वाशात क्या हिरणी नही आती सन्मुख निज शिशु प्राणोके रक्षार्थ ।।5।। बुद्धि हीन हो करके प्रभु जी भक्ति करन का हे उत्साह ज्ञानी जन गर हंसी करे तो मुझे नही उनकी परवाह देख वसंत मे आम्र वौर को कोयल खूब चहकती है आम्र वौर के कारण जैसे मीठे शब्द कुहकती है ।।6।। जिनवर की भक्ति करने से पाप कर्म कट जाते है सच्चे मन से भक्ति करते जनम सफल कर जाते है मावस जैसा व्याप्त लोक मे गहन भयंकर तम का पाप नभ मे रवि उदित होने से भग जाता हे अपने आप ।।7। आदि प्रभु की भक्ति करन को मंद बुद्धि मे हूँ तैयार तुम प्रभाव से पुरी होगी विद्वजनो का पाकर प्यार कमलपत्र पर जल की बूंदे जैसी दिखती आभावान साथ हुये की महिमा है यह बूंद नही होती गुणवान ।।8।। जिनवर की स्तुति से कटते जनम जनम के संचित पाप भगवन की महिमा सुन करके भग जाते अपने ही आप अपनी किरणे फेक दिवाकर दूर रहा करता नभ मे तिमिर नष्ट हो जाता हे और कमल खिला करते जलमे ।।9।। तीन लोक के आभूषण प्रभु तुम ही हो जग के आधार तुम गूण की महिमा जो गाते हो जाते हे भव से पार नही अचरज हे भक्ति आपकी जो करता हे हे स्वामी निज सम आप बना लेते है आश्रित जन को हे नामी ।।10।। विना पलक के झपक लिये ही रूप आपका अति सुन्दर अन्य किसी मे नही होता हे ऐसा हे मन के अन्दर पूर्णमासी की किरणो जैसा पय जो मीठा पीते हे खारा पानी पीने के हित क्या वह जीवन जीते है ।।11।। तीन लोक मे अद्वितीय हो अपलक निरखे तुम्हे नयन लीन हुये जग के परमाणु वीतराग को करू नमन हे त्रिभुवन को जानन हारे आलोकिक हे तेरा ज्ञान मुकुट सरीखे उध्र्व हुये हो तुम जैसा नही और महान ।।12।। सुर नर अहिपति के मन हरता रूप आपका अति सुन्दर ऐसी उपमा नही किसी मे तीनो लोको के अन्दर पूनम का वह पुर्ण चन्द्रमा सूर्य सामने फीका जान इसकी उपमा करे आपसे ऐसा सोचे कौन पुमान ।।13।। कान्ति युक्त हो शशि कलामय विचरण करता है उन्मुक्त तेरे गुण भी फैले रहते निज स्वभाव से होकर युक्त जिनवर के आश्रित जन जग मे फैले रहते चारो ओर कौन रेाक सकता हे उनको भक्ति करते भाव विभोर ।।14।। देवलोक की कन्याये भी नही ला सकती तनिक विकार नही अचरज हे इसमे होता कर न सका काम अधिकार महा प्रलय की तेज पवन से पर्वत सब गिर जाते है तीव्र पवन से शिखर मेरू तो कभी नही हिल पाते है ।।15।। तीनो लोक झलकते जिसमे कान्ति स्वरूपी केवल ज्ञान प्रलय काल की तीव्रवायु भी बुझा नही सकती गतिमान दीप तुम्ही हो जग के उत्तम स्वपर प्रकाशक आतम ज्ञान पाकर के तुमकिरणज्योति को कर लेते निज का कल्याण ।।16।। हे कर्म जयी तुम अस्त न होते ढक सकता नही राहू कभी रवि को ढक लेता हे बादल तुमसे पीछे रहे सभी फीका होता रवि का वैभव होता जब प्रभु ज्ञान उजास सुरज नभ मे उदित हुये से थोडी भू पर होय प्रकाश ।।17।। प्रातः नभ मे रवि उदित से अन्धकार का करदे नाश राहु नही ढक सकते उसको बादल रोके नही प्रकाश तुम्हे प्रकट हो उत्तम सुन्दर शशिकान्ति सम केवलज्ञान झलकत तीन लोक हे जिसमे अद्वितीय अतयंत महान ।।18।। मुख अति सुन्दर लगे आपका मोह अन्ध का कर दे नाश दिन मे रवि और रात चन्द्र का तव क्या हो उपयोग प्रकाश पानी भर के पके धान्य पर नभ मे मेघ हुये घनघोर मोह तिमिर के क्षय होन पर वाहय प्रकाश न करे विभोर ।।19।। महा ज्ञान तेरा हे निर्मल सात तत्व नव द्रव्य उजेश तुम जैसे नही दिखते जग मे अन्य देवता हे ज्ञानेश महा मणि होती हे सुन्दर निज प्रकाश से आभावान कांच खण्ड मे नही होती हे उज्ज्वल शोभा मणि समान ।।20।। देख सरागी देव सभी को अब तक उत्तम माना था वीतराग के दर्शन करके सत्य स्वरूप पहिचाना था अपने अन्दर लखू आपको मन पंछी खिल जाता है भव भव मे हो शरण आपकी यही भावना भाता है ।।21।। शतक नारिया जनती रहती अपने पुत्रो को चहूँ और लाल आपसा जनने बाली नारी नही हे कोई और नभ मे उदित नक्षत्रतारो को धारण करती सभी दिशा महा कान्ति युक्त तेज रवि को धारण करती पुर्व दिशा।।22।। हे देवोत्तम तप के धारक ज्ञानी माने परम पुमान आप समान अन्य न कोई मोक्ष मार्ग का देता ज्ञान चलकर प्रभु के मुक्ति मार्ग पर निज स्वभाव मे आते हे अष्ट कर्म को नष्ट किये फिर सिद्व महापद पाते हे ।।23।। दिये बिशेषण ज्ञानी जन ने शिव शंकर आदि भगवंत ब्रम्हा ईश्वर हे परमेश्वर रूद्र स्वरूप अनंतानंत योगीश्वर भी कहे आपको एकानेक अनेको नाम अविनाशी हे भव्य विधाता चरण आपके करू प्रणाम ।।24।। पांचो ज्ञान झलकते जिनमे ऐसे बु़द्ध स्वरूपी हो तीनो लोको के पथ दर्शक ऐसे शेकर रूपी हो मोक्षमार्ग के तुम्ही प्रणेता कहे विधाता तुम्हे जिनेश पुरूषो मे तुम प्रथम पुरूष हो ज्ञानी माने तुम्हे गणेश ।।25।। पीडा हरते तीन लोक की प्रथम जिनेश्वर तुम्हे नमन पृथ्वी तल के निर्मल भूषण रिषव जिनेश्वर तुम्हे नमन तीन लोक के हे परमेश्वर करता बारम्बार नमन भव सागर को शोषित करते आदि जिनेश्वर तुम्हे नमन ।।26।। हे भक्तो के ईश्वर भगवन सद् गुण आश्रय पाते हे तुमसे उत्तम अन्य न कोई जग मे हम लख पाते हे दोषी जन मे दोष समाये तुम निर्मल हो निश्चय मान स्वपन मात्र मे दोष न दिखता आत्म स्वरूपी हे भगवान ।।27।। तरू अशोक हे उॅचा सुन्दर समवशरण मे शोभावान सिहाँसन पर आप विराजे उलसितरूप हे स्वर्ण समान नभ मे काले मेघ मध्य मे दिनकर दमकत आभावान शोभित होते सिंहासन पर समवशरण मे हे भगवान ।।28।। उदयाचल के उदित सूर्य से तृप्त हुये भविजन के मन मणि मुक्ताओ से सज्जित हे स्वर्ण स्वरूपी सिहांसन साने जैसे रंग से शोभित उस पर तुम कमनीय वदन उदित हुये सूरज सम लगता बीतराग का सिहांसन ।।29।। अमरो द्वारा प्रभु के उपर ढोरे जाते श्वेत चमर सोने जैसी तन की कान्ति पूजे प्रभु को नित्य अमर मेरूशिखर पर जैसे गिरती निर्मल स्वच्छ श्वेत जलधार ऐसे श्वेत चमर हे दिखते जिनकी शोभा अपरम्पार।।30।। तीन छत्र सिर शोभित सुन्दर मणि मुक्ताओ से परिपूर्ण शशिकान्ति सम लगते उज्जवल कर्म कालिमा कर दे चूर्ण तीन लोक के स्वामी पन को सबसे प्रगट करे अभिराम ऐसी शोभा सुन्दर जिनकी सुर नर जिनको करे प्रणाम ।।31।। चहूँ दिशाये गूंज रही हे जैन धर्म की जय जय कार सत्य धर्म को प्रगट करे जो जैन धर्म हे एकाकार जैन धर्म का यश फहराते तत्वो का होता गुणगान नभ मे सुर द्वंदभी बजाते ऐसे हे जिनदेव महान ।।32।। मन्द पवन से नभ के द्वारा वारि सुगंधित झरता हे पुष्प मनोहर कल्प बृक्ष के दृश्य मनो को हरता है पारिजात सुन्दर संजातक हे मंदार नमेय सुन्दर पंक्ति सम सुन्दर लगते हे जैसे पक्षी रहे विचर।।33।। रवि की सुषमा के सम सुन्दर उज्जवल दिखता आभावान चन्द्रकान्ति जिसमे अंकित हो अक्षय भामण्डल गुण खान जिसके सन्मुख स्मित होती तीन लोक की महिमा जान फीके पडते सकल पदारथ ऐसा भामण्डल हे महान ।।34।। पुण्य पाप और रत्नात्रय का भविजन को देती उपदेश सात तत्व अनेकांत सिखाती ओंकार मय ध्वनि विशेष दिव्य ध्वनि जिनवर की होती गुण पर्यय सब जाने ज्ञान भाषा अपनी मे सब समझे करते हे निज का कल्याण ।।35।। भव्य जनो के भाग्य उदय से जिनवर का जब होय गमन देव बिछाते हे कमलो को स्वर्ण कान्ति सम लगे सुमन कोष चार सीमा है जिसकी ऐसे कमल उगाते देव भक्तिबश होकरके भवि सुर अतिशय युक्त करे नित सेव।।36।। समवशरण सम और न सुन्दर धर्म देशना वैभव वान ऐसा वैभव कही न दिखता बतलाते हे सभी प्रमान दिनकर की आभा को देखो अन्धनाश कर करे प्रकाश वैसी क्या नक्षत्र प्रकीर्णक कर सकते है कभी उजास।।37।। लाल लाल आँखे हो जिसकी क्रोध अग्नि मे हो उन्मत्त ऐरावत सम भीम काय हो मद मे होकर के मद मस्त गज ऐसा उदण्ड भयंकर तव आश्रित सन मुख आवे देख सामने ऐसे गज को भक्त कभी न भय खावे ।।38।। क्रोध अग्नि मे तप्त हुआ हो छत विछत करदे गज भाल भीम समान करे गर्जना क्रोधित सिंह हुआ विकराल सन्मुख ऐसे सिंह के आते हो जाते हे होश विहीन ऐसे जन का कुछ न विगडे जो जिनेन्द्र भक्ति मे लीन ।।39।। प्रलय सरूपी महा अग्नि जो करदे पल मे सब कुछ नाश ज्वाला मुखि सी दिखे भयंकर मानो जग का करे विनाश जिन भक्ति के निर्मल जल को जो जन रखते अपने पास नही विगडता कुछ भी उनका निज मे होवे ज्ञान प्रकाश ।।40।। अहि जो काला दिखे भयंकर उन्नत फन करके विकराल लाल लाल आँखे हे जिसकी दिखने मे जो हो विकराल नित प्रति करते जो जन भक्ति मन मे डर नही लाते है विन शंका के वह सब प्राणी अहि सम कर्म खिपाते है ।।41।। महा समर की रण भुमि मे गूंजे शब्द महा भयवान महा पराक्रम धारि नृप भी रण वांकुर होवे वलवान जो जन भक्ति करे आपकी वह होते रण मे जयवंत जैसे नभ मे उदित सूर्य से अंधकार का होवे अंत ।।42।। खूनी नदिया वहे भयंकर गज के कटते उन्नत भाल शत्रु पक्ष के याद्धा जिसमे तैरे दिखे महा विकराल करे पराजित क्षण मे उनको चरण कमल रज पाते हे जिन भक्ति पर जो है आश्रित कर्मकाट शिव जाते हे।।43।। महा भयंकर सिंधु हे जिसमे मगर मच्छ होवे विकराल अग्नि जैसी चंचल लहरे उस पर होवे पोत विशाल चले भयंकर पवन वेग से भय पावे उसमे असवार तुम भक्ति को भविजन गाकर हेा जाते हे सागर पार।।44।। महा जलोदर पीडित प्राणी दुःखी दशा दर्शाती है ऐसे पीडित प्राणी जन को चिंता मृत्यु सताती है जो जन तेरे पद पंकज की रज को शीश लगाते है कामदेव सम सुन्दर तन को निश्चित ही पा जाते है।।45।। पुरे तन पर पडी वेडिया सांकल बांधी हे कस कर अग्र भाग की रगड जगे से धार लगी हे लहु वहकर मंत्र मुग्ध एकाग्र चित्त से जो जन नाम जपे तेरा बंधन सब खुल जाबे निश्चित इस जग मे न हो फेरा ।।46।। पवन युद्ध सिंह वन अग्नि से सांप सिंधु जलोदर आदि भयकारी अति तीव्र भयंकर उपजे नही कोई भी व्याधि पाठ करे नित जो जन इसका भव सागर तर जाता है तत्व अभ्यासी स्वाध्याय सह मुक्ति वधु वर जाता है।।47।। भक्तिमय अति भक्ति भाव से प्रभु गुण सुमन पिरोये है विविध वर्ण के पुष्प लगा कर भक्ति मयी संजोये है श्रद्धा पूर्वक जो जन पढता मन भक्ति मे लगाता है मान तुंग सम कर्म काट कर मोक्ष लक्ष्मी पाता है ।।48।।
  24. ४. भक्तामर स्तोत्र : पद्यानुवाद ( मुनि श्री विमर्शसागरजी महाराज) तर्ज- जीवन है पानी की बूँद... आदिनाथ स्तोत्र महान - जो नर गाये रे। घाति- अघाति-सब कर्म नशाये रे॥ आदिनाथ प्रभु गुण स्तवन - जो नर गाये रे। जीवन में उसके दु:ख ना रह पाये रे॥ भक्तामर नत मुकुट मणि, झिलमिल होती लड़ी-लड़ी। ज्ञान ज्योति प्रगटी टूटे, पाप कर्म की कड़ी-कड़ी॥ भवसागर में गिरते जन, कर्मभूमि का प्रथम चरण। आदिनाथ प्रभुवर जिनके, चरण युगल हैं आलम्बन॥ सम्यक् वन्दन कर मनवा हर्षाये रे॥ १॥ द्वादशांग का जो ज्ञाता, तत्त्वज्ञान पटु कहलाता। मन-मोहक स्तुतियों से, सुरपति प्रभु के गुण गाता॥ त्रिभुवन चित्त लुभाऊँगा, मैं भी प्रभु गुण गाऊँगा। आदिनाथ तीर्थेश प्रथम, निश्चय उनको ध्याऊँगा॥ प्रभु की भक्ति ही संकल्प जगाये रे॥ २॥ देव-सुरों से है पूजित, पादपीठ जो अतिशोभित। तज लज्जा स्तुति गाने, तत्पर हूँ मैं बुद्धि रहित॥ चन्द्रबिम्ब जल में जैसे, अभी पकड़ता हूँ वैसे। बालक ही सोचा करता, विज्ञ मनुज सोचे कैसे॥ बालक हूँ फिर भी मन तो उमगाये रे॥ ३॥ चंद्रकांति समगुण उज्ज्वल, कहने सुरपति में ना बल। हे गुणसागर! कौन पुरुष, कहने को हो सके सबल॥ प्रलयकाल की वायु प्रचण्ड, नक्र-चक्र हों अति उद्दण्ड। ऐसा सिंधु भुजाओं से, पार करेगा कौन घमण्ड॥ प्रभु तेरी भक्ति नौका बन जाये रे॥ ४॥ भक्ति भाव उर लाया हूँ, स्तुति करने आया हूँ। शक्ति नहीं मुझ में फिर भी, शक्ति दिखाने आया हूँ॥ हिरणी वन को जाती है, सिंह सामने पाती है। निज शिशु रक्षा हेतु मृगी, आगे लडऩे आती है॥ प्रीतिवश हिरणी कत्र्तव्य निभाये रे॥ ५॥ मैं अल्पज्ञ हूँ अकिंचन, हँसी करें प्रभु विद्वतजन। करती है वाचाल मुझे भक्ति आपकी हे स्वामिन्॥ जब बसन्त ऋतु आती है, कोयल कुहु-कुहु गाती है। सुन्दर आम्र मंजरी ही, तब कारण बन जाती है॥ प्रभु तेरी मूरत मेरे मन को भाये रे॥ ६॥ नाथ! आपके संस्तव से, भवि जीवों के भव-भव से। बँधे हुए जो पापकर्म, क्षण भर में क्षय हों सबके॥ भँवरे जैसा तम काला-जग को अंधा कर डाला। ऐसा तम रवि किरणों ने-आकर तुरंत मिटा डाला॥ प्रभु तेरी भक्ति अघकर्म मिटाये रे॥ ७॥ अल्पज्ञान की धारा है, स्तुति को स्वीकारा है। चित्त हरे सत्पुरुषों का, नाथ! प्रभाव तुम्हारा है॥ नलिनी दल पर बिन्दु जल, लगता जैसे मुक्ताफल। है प्रभाव नलिनीदल का, कांतिमान कब होता जल॥ नलिनीदल वा जल अपने में समाये रे॥ ८॥ दूर रहे प्रभु गुण स्तवन, दोष रहित जो अति पावन। नाथ आपकी नाम कथा, पापों का करती खण्डन॥ दिनकर दूर रहा आये, क्षितिज लालिमा छा जाये। सरोवरों में कमलों को, प्रभा प्रफुल्लित कर जाये॥ शुभनाम तेरा होंठो पे आये रे॥ ९॥ आदिनाथ स्तोत्र महान जो नर गाये रे। जगन्नाथ! हे जगभूषण! जो भी प्राणी गाता गुण॥ इसमें क्या आश्चर्य प्रभो! होता है तुम सम तत्क्षण। लाभ ही क्या उस स्वामी से, वैभवधारी नामी से। निज सेवक को जो निजसम, करे नहीं अभिमानी से॥ तुझसा स्वामी ही सेवक को भाये रे॥ १०॥ अपलक रूप निहार रहा, दर्शनीय संतोष महा। तुझसा देव न देवों में, रागद्वेष की खान कहा॥ क्षीरसिन्धु का मीठा जल, सुन्दर शशि सम कांति धवल। पीकर, क्यों पानी चाहे, लवण सिन्धु का खारा जल॥ तुझ बिन प्रभु मुझको कोई और न भाये रे॥ ११॥ देख लिए हमने त्रिभुवन, तुझसा सुन्दर न भगवन्। प्रशम कांतिमय अणुओं से, रचा गया प्रभु! तेरा तन॥ निश्चित वे अणु थे उतने, नाथ! देह में हैं जितने। अन्य देव का, प्रभु! तुमसा, रूप कहाँ देखा किसने॥ तेरी छबि मेरे नयनों में समाये रे॥ १२॥ विजित अखिल उपमाधारी, सुरनर उरग नेत्रहारी। कहाँ आपका मुखमण्डल, शोभा जिसकी अति प्यारी॥ कहाँ कलंकी वह राकेश, निष्प्रभ हो जब आये दिनेश। ढाक पुष्प सम पाता क्लेश, न खुशबू न कांति विशेष॥ मनहर मुख की छबि कभी दूर न जाये रे॥ १३॥ शुभ्र कलाओं से शोभित, पूनम का शशि मन मोहित। नाथ! आपके उज्ज्वल गुण, करें लोकत्रय उल्लंघित॥ नाथ! आप जिसके आधार, विचरें वे इच्छा अनुसार। तीन लोक में रोक सके, है किसको इतना अधिकार॥ प्रभु तेरी शरणा भवपार लगाये रे॥ १४॥ स्वर्ग अप्सरायें आईं - नृत्यगान कर शर्माईं। क्या आश्चर्य तनिक मन में, गर विकार न कर पाईं॥ प्रलयकाल की वायु चले, पर्वत, भू से आन मिले। किन्तु सुमेरु शिखर भी क्या, प्रलय वायु से कभी हिले॥ प्रभु तेरे मन का कोई पार न पाये रे॥ १५॥ जिसमें धूम न बाती हो, तेल न जिसका साथी हो। हे अखंड! हे अविनाशी! तीनों लोक प्रकाशी हो॥ प्रलय काल की वायु चले, मणिज्योति कब हिले-डुले। जगत्प्रकाशी दीप अपूर्व, ज्ञान ज्योति भी नित्य जले॥ प्रभु तेरी ज्योति मेरा दीप जलाये रे॥ १६॥ नाथ! आपकी वो महिमा, सूरज की न कुछ गरिमा। युगपत् लोक प्रकाशी हो, रवि रहता सहमा-सहमा॥ आप सूर्य सम अस्त नहीं राहू द्वार ग्रस्त नहीं। मेघ तेज को छिपा सकें, ऐसा बंदोबस्त नहीं॥ प्रभु तेरी भक्ति मिथ्यात्व नशाये रे॥ १७॥ राहू कभी नहीं ग्रसता, कृष्ण मेघ से न दबता। सदा उदित रहने वाला, मोह महातम को दलता॥ अहा! मुखकमल अतिअभिराम, अद्वितीय शशि बिम्ब लला। लोकालोक प्रकाशी है, ज्ञान आपका हे गुणधाम॥ स्तुति प्रभु तेरी सम्यक्त्व जगाये रे॥ १८॥ मुखशशि का जब दर्श किया, नाथ! तिमिर द्वय नाथ दिया। दिन में रवि से, रजनी में-शशि से नाथ! प्रयोजन क्या॥ धान्य पक चुका लगे ललाम, स्वर्णिम खेत हुए अभिराम। जल को लादे झुके हुए, नाथ! बादलों का क्या काम॥ प्रभु आप जैसी हम फसल उगाये रे॥ १९॥ पूर्ण रूप से है विकसित, ज्ञान आप में ही शोभित। हरि हरादि देवों में क्या, हो सकता जो नित्य क्षुभित॥ तेज महामणि में जैसा, नाथ! आप में भी वैसा॥ सूर्य किरण से जो दमके, काँच शकल में न वैसा। केवलज्ञानी ही अज्ञान नशाये रे॥ २०॥ हरि-हरादि का भी दर्शन, मान रहा अच्छा भगवन्। उन्हें देखकर अब तुझमें, हुआ पूर्ण संतोषित मन॥ प्रभु तेरे दर्शन से क्या? साथ चाहता मन तेरा। इस भूमण्डल पर कोई, देव कभी-भी फिर मेरा॥ जन्मों-जन्मों में न चित्त लुभाये रे॥ २१॥ आदिनाथ स्तोत्र महान, जो नर गाये रे। सौ-सौ नारी माँ बनतीं, सौ-सौ पुत्रों को जनतीं। नाथ! आप सम तेजस्वी, पुत्र न कोई जन्म सकीं॥ नभ में अगणित तारागण, सभी दिशा करती धारण। सूर्य उदित होता जिससे, पूर्व दिशा ही है कारण॥ माता मरूदेवी धन्य-धन्य कहाये रे॥ २२॥ सूरज सम तेजस्वी हो, परम पुमान यशस्वी हो। मुनिजन कहते तमनाशक, निर्मल आप मनस्वी हो॥ नाथ! आपको जो पाते, मृत्युञ्जयी वो कहलाते। किन्तु आप बिन शिवपथ का, मार्ग न कोई बतलाते॥ जो तुमको ध्याये तुम सम बन जाये रे॥ २३॥ आद्य! अचिन्त्य! असंख्य! अनंग ! अक्षय! कहें सन्त! विदित योग! विभु! योगीश्वर! ब्रह्मा! कहते हे भगवन्त॥ कोई कहता ज्ञान स्वरूप, नाथ! आपको अमल अनूप। कोई कहता एक! अनेक! अविनाशी! इत्यादिक रूप॥ नाना नामों से तेरी महिमा गाये रे॥ २४॥ अमर-पूज्य केवलज्ञानी, अत: बुद्ध हो हे ज्ञानी। त्रिभुवन में सुखशान्ति रहे, अत: तुम्हीं शंकर ध्यानी॥ मोक्षमार्ग विधि बतलाते, अत: विधाता कहलाते। व्यक्त किया पुरुषार्थ अत: पुरुषोत्तम जन-जन गाते॥ प्रभु तुमको ब्रह्मा, शंकर विष्णु बताये रे॥ २५॥ त्रिभुवन का दु:ख करें हरण, अत: आपको नमन-नमन। क्षितितल के निर्मल भूषण, नाथ! आपको नमन-नमन॥ हे परमेश्वर त्रिजगशरण, सदा आपको नमन-नमन। भववारिधि करते शोषण, अत: आपको नमन-नमन॥ प्रभु तेरा वन्दन, चन्दन बन जाए रे॥ २६॥ हे मुनीश! इन नाम सहित, गणधर सन्तों से अर्चित। इसमें क्या आश्चर्य प्रभो! हुए सर्वगुण तव आश्रित॥ दोष स्वप्न में दूर अरे, अहंकार में चूर अरे। आश्रय पा कामीजन में, इठलाते भरपूर अरे॥ इसमें क्या विस्मय, वो पास न आए रे॥ २७॥ शुभ अशोक तरू अति उन्नत, कंचन साभव तन शोभित। अंधकार को चीर रहीं, उध्र्वमुखी किरणें विकसित॥ जैसे दिनकर आया हो, मेघों बीच समाया हो। किरण जाल फैलाकर के, स्वर्णिम तेज दिखाया हो॥ सूरत के आगे सूरज शर्माये रे॥ २८॥ मणि किरणों से हुआ न्हवन, जगमग-जगमग सिंहासन। नाथ! आपका कंचन सा, उस पर परमौदारिक तन॥ उदयाचल का तुंग शिखर, रश्मि लिए आया दिनकर। ऐसा शोभित होता है, सिंहासन पर तन प्रभुवर॥ तन की यह आभा नजरों को बुलाये रे॥ २९॥ कुन्दपुष्प सम श्वेत चँवर, इन्द्र ढुराते हैं तन पर। स्वर्णमयी काया प्रभुजी, लगती मनहर अतिसुन्दर॥ कनकाचल का तुंग शिखर, शुभ्र ज्योत्सना सा निर्झर। झर-झर, झर-झर झरता हो, शोभित चौंसठ शुभ्र चँवर॥ प्रभु की सेवा में सुरलोक भी आये रे॥ ३०॥ है शशांक सम कांति प्रखर, तीन छत्र शोभित सिर पर। मणि मुक्ता की आभा से, झिलमिल-झिलमिल हो झालर॥ रवि का दुद्र्धर प्रखर प्रताप, रोक दिया है अपने आप। प्रगट कर रहे छत्रत्रय, त्रिभुवन के परमेश्वर आप॥ ईशान इन्द्र आकर महिमा दिखलाए रे॥ ३१॥ मधुर-गूढ़, उन्नत स्वर में, दुन्दुभि बजता नभपुर में। दशों दिशाएँ गूँज रहीं, धूम मची है सुरपुर में॥ तीन लोक के भविजन को, बुला रहा सम्मेलन को। धर्मराज की हो जय-जय, घोष करे रजनी-दिन को॥ तीनों लोकों में यश ध्वज फहराए रे॥ ३२॥ पारिजात सुन्दर मन्दार-सन्तानक, नमेरू सुखकार। कल्पवृक्ष के ऊध्र्वमुखी-पुष्प अहा! गंधोदक धार॥ वर्षा नित होती रहती, मन्द पवन संग-संग बहती। मानों दिव्य वचन माला, प्रभु की नभ से ही गिरती॥ प्रभु ऐसी शोभा कहीं नजर न आए रे॥ ३३॥ नाथ! आपका भामण्डल, शोभित जैसे सूर्य नवल। जीत रहा है रजनी को, चंद्रकांति सम हो शीतल॥ त्रिभुवन चित्त लुभाते जो, कांतिमान कहलाते जो। भामण्डल की आभा से, लज्जित हो शर्माते वो॥ भामण्डल भवि के, भव सात दिखाए रे॥ ३४॥ स्वर्ग-मोक्ष पथ बतलाती, सत्य धर्म के गुण गाती। त्रिभुवन के भवि जीवों को, विशद अर्थ कर दिखलाती॥ नाथ! दिव्यध्वनि खिरती है, सदा अमंगल हरती है। महा-लघु भाषाओं में, स्वयं परिणमन करती है॥ प्रभु की दिव्यध्वनि भवरोग मिटाए रे॥ ३५॥ नूतन विकसित स्वर्ण कमल, कांतिमान नख अतिनिर्मल। फैल रही आभा जिनकी, सर्वदिशाओं में उज्ज्वल॥ आप गमन जब करते हैं, सहज कदम जब धरते हैं। दो सौ पच्चिस स्वर्ण-कमल, विबुध चरणतल रचते हैं॥ नभ में प्रभु तेरा अतिशय दिखलाये रे॥ ३६॥ भूति न त्रिभुवन में ऐसी, धर्मदेशना में जैसी। प्रातिहार्य वसु समवसरण, अन्य देव में न वैसी॥ अंधकार के हनकर की, जैसी आभा दिनकर की। वैसी ही आभा कैसे, हो सकती तारागण की॥ तीर्थंकर जैसा ना पुण्य दिखाये रे॥ ३७॥ झर-झर झरता हो मदबल, जिसका चंचल गण्डस्थल। भ्रमरों के परिगुंजन से, क्रोध बढ़ रहा खूब प्रबल॥ ऐरावत गज आ जाए-भक्त जरा न भय खाए। नाथ! आपके आश्रय का, जन-जन यह अतिशय गाए॥ प्रभु की भक्ति से, भय भी टल जाए रे॥ ३८॥ चीर दिया गज गण्डस्थल, मस्तक से झरते उज्ज्वल। रक्त सने मुक्ताओं से, हुआ सुशोभित अवनीतल॥ ऐसा सिंह महा विकराल, बँधे पाँव सा हो तत्काल। नाथ! आपके चरणयुगल, आश्रय से हो भक्त निहाल॥ प्रभु तेरी भक्ति निर्भयता लाए रे॥ ३९॥ प्रलयकाल की चले बयार, मचा हुआ हो हाहाकार। उज्ज्वल, ज्वलित फुलिंगों से, दावानल करती संहार॥ जपे नाम की जो माला, नाम मंत्र का जल डाला। शीघ्र शमन हो दावानल, नाम बड़ा अचरज वाला॥ भक्ति ही ऐसा अचरज दिखलाए रे॥ ४०॥ लाल-लाल लोचनवाला, कंठ कोकिला सा काला। जिह्वा लप-लप कर चलता, नाग महाविष फण वाला॥ नाम नागदमनी जिसके, हृदय बसी हो फिर उसके। शंका की न बात कोई, साँप लाँघ जाता हँसके॥ भक्तों को विषधर न कभी डराए रे॥ ४१॥ उछल रहे हों जहाँ तुरंग, गजगर्जन हो सैन्य उमंग। बलशाली राजा रण में, दिखा रहे हों अपना रंग॥ सूर्य किरण सेना लाता, तिमिर कहाँ फिर रह पाता। नाम आपका जो जपता, रण में भी ध्वज फहराता॥ प्रभु के भक्तों को, कब कौन हराये रे॥ ४२॥ क्षत-विक्षत गज भालों से, हुआ सामना लालों से। जल सम रक्त नदी जिसमें, तरणातुर वह सालों से॥ नाथ! जीतना हो दुर्जय, रण में होती शीघ्र विजय। नाथ! पाद पंकज वन का, लिया जिन्होंने भी आश्रय॥ प्रभु के भक्तों को जय तिलक लगाए रे॥ ४३॥ मगरमच्छ एवं घडिय़ाल, भीमकाय मछली विकराल। महाभयानक बडवानल, उठती हों लहरें उत्ताल॥ डगमग-डगमग हों जलयान, चीत्कार कर रहे पुमान। नाम स्मरण से भगवन्, शीघ्र पहुँचते तट पर यान॥ प्रभु की भक्ति से संकट कट जाए रे॥ ४४॥ उपजा महा जलोधर भार, वक्र हुआ तन का आकार। जीने की आशा छोड़ी, शोचनीय है दशा अपार॥ नाथ! चरण रज मिल जाए, रोग दशा भी ढल जाए। सच कहता हूँ देह प्रभो! कामदेव सी खिल जाए॥ चरणों की रज भी औषधि बन जाए रे॥ ४५॥ सिर से पैरों तक बन्धन, जंजीरों से बाँधा तन। हाथ-पैर, जंघाओं से, रक्त बह रहा रात और दिन॥ बंदीजन करलें शुभकाम, नाम मंत्र जप लें अविराम। नाथ! आपकी भक्ति से, बन्धन भय पाता विश्राम॥ प्रभु की भक्ति से बन्धन खुल जाए रे॥ ४६॥ सर्प, दवानल, गज चिंघाड़, युद्ध, समुद्र व सिंह दहाड़। नाथ! जलोदर हो चाहे, बन्धन का भय रहे प्रगाढ़॥ नाथ! आपका स्तुतिगान, करता है जो भी मतिमान। भय भी भयाकुलित होकर, शीघ्र स्वयं होता गतिमान॥ प्रभु की भक्ति से भय भी भय खाये रे॥ ४७॥ गुण बगिया में आये हैं, अक्षर पुष्प खिलाए हैं। विविध पुष्प चुन भक्ति से, स्तुतिमाल बनाए हैं॥ करे कण्ठ में जो धारण, मनुज रहे न साधारण। मानतुंग सम मुक्ति श्री, आलिंगित हो बिन कारण॥ प्रभु गुण की महिमा निज गुण विकसाये रे॥ ४८॥ मानतुंग उपसर्गजयी, मानतुंग हैं कर्मजयी। मानतुंग की अमरकृति, भक्तामर है कालजयी॥ मानतुंग की छाया है, मानतुंग सम ध्याया है। भक्ति भाव से पद्य रचा, आदिनाथ गुण गाया है॥ भक्ति की शक्ति मानतुंग बताये रे॥ १॥ अशुभ छोड़ शुभ पाऊँगा, शुभ तज शुद्ध ही ध्याऊँगा। कर निश्चय-व्यवहार स्तुति, सिद्धों सा सुख पाऊँगा॥ रहा विमर्श यही मन में, भक्ति सदा हो जीवन में। गुरु विराग आशीष मिले, साँस रहे जब तक तन में॥ प्रभु तेरी भक्ति मुझे प्रभु बनाये रे॥ २॥
  25. (पं. फूलचन्दजी पुष्पेन्दु, खुरई) (१) मंगल-चरण-प्रभा आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ नत-मस्तक सुर भक्तों के, जिनवर-पद अनुरक्तों के। मुकुटों की झिलमिल मणियाँ, मणियों की हीरक लडिय़ाँ॥ जगमग-जगमग दमक उठीं, प्रतिबिम्बित हो चमक उठीं। जिनके पावन चरणों से, चरण युगल की किरणों से॥ युग-युग शरण प्रदाता हों, पतितों के भव त्राता हों। जो समुद्र में डूबे हैं, जन्म मरण से ऊबे हैं॥ उनके सारे कष्ट हरें, पाप तिमिर को नष्ट करें। उनको सम्यक् नमन करूँ, भक्तामर आभरण करूँ॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२) तत्वज्ञों द्वारा स्तुत्य आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ जिनकी मंगल-गीता को, द्वादशांग नवनीता को। इन्द्रों ने गा पाया है, तीनों लोक रिझाया है॥ तत्त्व बोध प्रतिभा द्वारा, बहा काव्य-रस की धारा। ललित, मनोहर छन्दों में, बड़े-बड़े अनुबंधों में॥ भाव भरी स्तुतियों में, भक्ति भरी अँजुलियों में। उन्हीं प्रथम परमेश्वर का, तीर्थंकर वृषभेश्वर का॥ अभिनन्दन मैं करता हूँ, पद वन्दन मैं करता हूँ। यही अचंभा भारी है, सचमुच विस्मयकारी है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३) मेरा साहस पूर्ण कदम आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ नाथ! आपका सिंहासन, सिंहासन के युगल-चरण। अर्चित हैं देवों द्वारा, चर्चित हैं इन्द्रों द्वारा॥ मेरा काव्य असम्मत है, फिर भी मेरी हिम्मत है। निर्मल-जल के अन्दर जो, चंदा दिखता सुन्दर जो॥ वह उसकी परछैया है, अथवा भूल-भुलैयाँ है। मु_ी मध्य जकडऩे की, हिम्मत उसे पकडऩे की॥ बालक ही कर सकता है, अँजुल में भर सकता है। बुद्धिहीन कहलाऊँगा, लाज छोडक़र गाऊँगा॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४) अन्तरात्मा की आवाज आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ जिनवर के गुण कैसे हैं? धुली चाँदनी जैसे हैं। उन्हें न कोई गा सकता, पार न कोई पा सकता॥ चाहे स्वयं वृहस्पति हों, प्रत्युत्पन्न महामति हों। वे भी आखिर हारे हैं, फिर तो हम बेचारे हैं॥ प्रलयंकर तूफानी हो, गहरा-गहरा पानी हो। मगरमच्छ भी उछल-उछल, मचा रहे हों उथल-पुथल॥ ऐसा सिन्धु भुजाओं से, हाथों की नौकाओं से। कौन भला तिर सकता है, दरिया में गिर सकता है? मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (५) गुणों का कीर्तन आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ शक्तिहीन होने पर भी, चतुराई खोने पर भी। भगवत् भक्ति उमड़ती है, स्तुति करनी पड़ती है॥ जैसे कोई हिरनिया हो, छौना चुन-चुन मुनिया हो। उस पर शेर झपटता हो, नहीं हटाये हटता हो॥ तो क्या हिरणी माँ मोरी? दिखलायेगी कमजोरी? नहीं सामना करती क्या? भला शेर से डरती क्या? अपना वत्स बचाती है, तनिक नहीं सकुचाती है। बछड़ा उसको प्यारा है, जिसने उसे दुलारा है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ 5॥ (६) उमड़ती हुई भक्ति प्रेरणा आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ हँसी उड़ाया जाऊँगा, मूर्ख बनाया जाऊँगा। यद्यपि मैं विद्वानों से, गानों की तुकतानों से॥ तो भी भक्ति ढकेल रही, नाकों डाल नकेल रही। वही प्रेरणा करती है, बोल कंठ में भरती है॥ ज्यों बसंत के आने पर, मादकता छा जाने पर। महक उठी है बगिया क्यों? चहक उठी कोयलिया क्यों? क्योंकि कैरियाँ महक उठीं, अत: कोयलें चहक उठीं। गुण से आप महकते हैं, इससे भक्त बहकते हैं॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (७) पाप-संतति का समापन आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ जन्म-जन्म से जोड़ रखे, अपने सिर पर ओढ़ रखे। जीवों ने जो पाप यहाँ, दु:ख और सन्ताप यहाँ॥ वे प्रभु के गुण गाने से, मंगल-गीत सुनाने से। छिन भर में उड़ जाते हैं, नहीं फटकने पाते हैं॥ भौंरे सा जो काला है, जगत ढाँकने वाला है। ऐसा घोर अँधेरा हो, मिथ्यातम का डेरा हो॥ सूरज-किरन निकलते ही, ज्ञान-दीप के जलते ही। सचमुच वह खो जाता है, छू मंतर हो जाता है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (८) स्तवन का मूल कारण आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ पानी की भी बूँद अगर, गिरे कमल के पत्तों पर। मोती तुल्य दमकती है, चमचम चारु चमकती है॥ यही सोच प्रारंभ किया, मंगल गीतारंभ किया। सज्जन खुश हो जायेंगे, फूले नहीं समायेंगे॥ वे तो इस पर रीझेंगे, श्रेय आपको ही देंगे। भले रहूँ अज्ञानी मैं, भोला-भाला प्राणी मैं॥ भाव-प्रभाव तुम्हारा है, केवल चाव हमारा है। तुमने उसे संवारा है, सत्पुरुषों को प्यारा है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (९) गुण-गाथा का पुण्य प्रभाव आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ चूर-चूर हो जाते हैं, दोष दूर हो जाते हैं। जिनकी मंगल गीता से, पावन परम पुनीता से॥ उसकी चर्चा नहीं यहाँ, उसकी अर्चा नहीं यहाँ। लेकिन पुण्य कथाएँ ही, धरती जगत व्यथाएँ ही॥ पाप सभी धुल जाते हैं, ओलों से घुल जाते हैं। कोसों दूर दिवाकर है, फिर भी वे कमलाकर हैं॥ जल में कमल खिलाते हैं, किरणों को पहुँचाते हैं। अर्चायें तो दूर रहें, चर्चायें भरपूर रहें॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१०) भक्तियोग से साम्ययोग आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ भूतनाथ जिन भगवन हे! त्रिभुवन के आभूषण हे! गुणगाथा-गाथा गाने वाले, स्तुति अपनाने वाले॥ तुम जैसे बन जाते हैं, सब विभूतियाँ पाते हैं। भौतिक और प्रभौतिक भी लौकिक और अलौकिक भी॥ इसमें कुछ आश्चर्य नहीं, पा जाते ऐश्वर्य यहीं। जो अपने आधीनों को, दास दरिद्री दीनों को॥ करे नहीं अपने जैसा, वह स्वामी स्वामी कैसा? कैसा उसका धन पैसा? अगर गरीब निराश्रयसा॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (११) हृदय की आँखों से आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ इकटक तुम्हें निहार रहीं, तुम पर सब कुछ वार रहीं। ये अँखियाँ अब जाएँ कहाँ? तुम जैसा अब पाएँ कहाँ? दर्शनीय हो नाथ! तुम्हीं, वर्णनीय हो नाथ! तुम्हीं। जिसने निर्मल-नीर पिया, क्षीर सिन्धु का क्षीर पिया॥ छिटकी धवल जुन्हैंया सा, मीठा मधुर मिठइया सा। वह क्या लवण समुद्रों का? खारा पानी क्षुद्रों का? पीकर प्यास बुझायेगा? सागर तट पर जायेगा? कभी नहीं पी सकता है, प्यासा ही जी सकता है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१२) परमौदारिक दिव्य देह आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ वीतराग हर कण-कण है, चुम्बकीय आकर्षण है। कण-कण में सुन्दरता है, कण-कण मोहित करता है॥ जिसने तुम्हें बनाया है, सुन्दर रूप सजाया है। वे सारे कण पृथ्वी पर, उतने ही थे धरती पर॥ सो सब तुम में व्याप्त हुए, परमाणु समाप्त हुए। इसीलिए तो कोई नहीं, तुम सा सुन्दर दिखे कहीं॥ तुम ही शान्त मनोहर हो, तीन लोक में सुन्दर हो। हे प्रशांत मुद्रा धारी! सुन्दरता की बलिहारी॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१३) वीतराग मुख मुद्रा आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ तीन लोक की उपमाएँ, जिसे देखकर शरमाएँ। देवों और नरेन्द्रों के, विद्याधर धरणेन्द्रों के॥ नयनों को हरने वाला, मन मोहित करने वाला। कहाँ आपका मुखड़ा है? कहाँ चाँद का टुकड़ा है? कहाँ मलीन मयंक अरे? जिसको लगा कलंक अरे? दिन में फीका पड़ जाता, लज्जा से गड़-गड़ जाता॥ कुम्हलाता अलवत्ता है, ज्यों पलाश का पत्ता है। उपमा नहीं चन्द्रमा की, आनन से दी जा सकती॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१४) आत्मीक गुणों की स्वच्छंदता आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ सकल कलाओं वाले हैं, चंदा से उजयाले हैं। गुण अनंत परमेश्वर के, उज्ज्वल ज्ञान कलाधर के॥ भरते खूब छलाँगे हैं, तीनों लोक उलाँगे हैं। फैल रहे मनमाने हैं, कोई नहीं ठिकाने हैं॥ जिसने पल्ला पकड़ लिया, दामन कसके जकड़ लिया। केवल एक जिनेश्वर का, तीन लोक ज्ञानेश्वर का॥ जिन पर छत्रछाया है, वीतराग की माया है। रोक-टोक कुछ उन्हें नहीं, घूमें वे तो जहाँ कहीं॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१५) निर्विकार निष्कंप प्रभो आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ देवलोक की परियाँ भी, सुन्दरियाँ किन्नरियाँ भी। कामुक हाव-भाव लाई, रंचक नहीं डिगा पाईं॥ इसमें अरे अचम्भा क्या? तिलोत्तमा या रंगा क्या? आँधी उठे कयामत की, शामत हो हर पर्वत की॥ उड़ते और उखड़ते हों, बनते और बिगड़ते हों। पर सुमेरु की चोटी क्या? छोटी से भी छोटी क्या? डाँवाडोल हुआ करती, आँधी उसे छुआ करती। मेरू नहीं टस से मस हों, जिनवर नहीं काम वश हों॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१६) चिन्मय रत्न-दीप आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ बिना धुआँ बत्ती वाला, तेल नहीं जिसमें डाला। फिर भी जो आलोक भरे, जग-मग तीनों लोक करे॥ ऐसे स्व-पर प्रकाशक हो, पाप-तिमिर के नाशक हो। ज्योतिर्मय हो जीवक हो, आप निराले दीपक हो॥ तेज आँधियाँ चले भले, पर्वत-पर्वत हिलें भले। फिर भी बुझा नहीं पाया, अमरदीप हमने पाया॥ जिसमें काम-कलंक नहीं, देह नेह का पंक नहीं। चिदानंद चिन्मयता है, निज में ही तन्मयता है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१७) कैवल्य ज्ञान मार्तण्ड आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ होते हैं जो अस्त नहीं, कभी राहु से ग्रस्त नहीं। एक साथ झलकाते हैं, तीनों लोक दिखाते हैं॥ सूरज से भी बढक़र हैं, महिमाएँ बढ़-चढ़ कर हैं। नहीं बादलों में गहरा, छिपा रहे अपना चेहरा॥ परम प्रतापी तेजस्वी, महा मनस्वी ओजस्वी। सचमुच आप मुनीश्वर हैं, सूरज से भी बढक़र हैं॥ एक साथ झलकाते हैं, जग प्रत्यक्ष दिखाते हैं। मोह-राहु का ग्रहण नहीं, कर्मों का आवरण नहीं॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१८) सम्यक् ज्ञान कलाधर आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ ज्ञानोदय सर्वोदय है, नित्य सत्य अरुणोदय है। मोह तिमिर हट जाता है, मिथ्या-तम फट जाता है॥ बादल नहीं छला करते, राहु नहीं निगला करते। ऐसा चाँद निराला है, मुखड़ा कमलों वाला है॥ नव प्रकाश भर देता है, जग ज्योतित कर देता है। घटती उसकी कान्ति नहीं, हटती समरस शान्ति नहीं॥ ऐसा चाँद निराला है, ज्ञान कलाओं वाला है। कमल स्वरूपी मुख मंडल, दीप्तिमान अत्यंत विमल॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (१९) निष्प्रयोज्य रवि-शशि-मंडल आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ दिन के लिए दिवाकर हैं, निशि के लिए निशाकर हैं। दोनों चमका करते हैं, अन्धकार भी हरते हैं॥ पर मुख चन्द्र तुम्हारा जो, जीवों को है प्यारा जो। वह अज्ञान अँधेरे को, मिथ्यातम के घेरे को॥ एक अकेला भगा रहा, सारा जग जगमगा रहा। सूर्य चन्द्र से मतलब क्या? रही जरूरत भी अब क्या॥ जगत प्रकाशित करने की, व्यर्थ रोशनी भरने की। ज्यों फसलों के पकने पर, व्यर्थ बरसते हैं जलधर॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२०) त्रिमूर्ति और रत्नत्रय मूर्ति आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ जैसी केवल ज्योति-प्रभा, सम्यक् ज्ञान कला प्रतिभा। शोभा पाती प्रभुवर में, वैसी ब्रह्म हरिहर में॥ स्वपर प्रकाशित दीप्ति नहीं, शुचि अखण्ड प्रज्ञप्ति नहीं। जगमग मणि मुक्ताओं में, हीरों की कणिकाओं में॥ जैसा तेजो पुँज भरा, चकाचौंध मय सहज खरा। वैसा तेज न काँचों में, किरणा कुलित किराचों में॥ कभी प्राप्त हो सकता है, नहीं व्याप्त हो सकता है। सूरज से किरणों भरते, परावत्र्त उनको करते॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२१) वीतरागता और सरागता आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ मानूँ अपना बहुत भला, जो मैं इनको देख चला। ये कैसे हैं? रागी हैं, महादेव बड़भागी है॥ क्योंकि इन्हें निरखने से, अच्छी तरह परखने से। बड़ा लाभ तो यही हुआ, मन संतोषित नहीं हुआ॥ किन्तु आपके दर्शन से, और सूक्ष्म अवलोकन से। मुझ को यह नुकसान हुआ, स्थिर मेरा ध्यान हुआ॥ तुम पर ऐसा टिका अरे! जन्म-जन्म को बिका अरे! यह चंचल मन अटक रहा, तव पद में सर पटक रहा॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२२) चन्द्रतम को नष्ट करता है आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ यहाँ सैकड़ों महिलाएँ, बनती रहती माताएँ। सौ-सौ बालक जनती हैं, पुन: प्रसूता बनती हैं॥ किन्तु आपकी माता सी, भगवन् जन्म प्रदाता सी। नहीं दूसरी होती है, मंगल प्रसव संजोती है॥ सभी दिशाएँ-विदिशाएँ, नभ का आँगन चमकाएँ। टिम-टिम नभ के तारों से, गोदी भरी हजारों से॥ किन्तु एक तेजस्वी को, सूरज से ओजस्वी को। पूर्व दिशा ही जनती है, सच्ची माता बनती है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२३) सार्थक नाम समुच्चय आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ हे मुनियों के नाथ मुनी, तुम हो भजते परम गुनी। सूर्यकान्त तुम को कहते, तेजवन्त रवि से रहते॥ अमल तुम्हीं कहलाते हो, तामस दूर भगाते हो। तुम्हीं परम पुरुषोत्तम हो, तुम्हीं मोक्ष के संगम हो॥ तुमको जिसने पाया है, भलीभाँति अपनाया है। वही मौत को जीत चुका, भव-भय उसका बीत चुका॥ वह मृत्युञ्जय कहलाता, जो तुमको सचमुच ध्याता। क्योंकि छोडक़र तुम्हें कहीं, मोक्ष-पंथ है और नहीं॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२४) निर्नाम नाम प्रसिद्धि आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ संतों ने इन नामों से, भजा विविध सिरनामों से। नाथ! आप ही अव्यय हो, शाश्वत् निर्मल अक्षय हो॥ परे विकल्पों से रहते, संख्यातीत तुम्हें कहते। तुम्हीं प्रथम तीर्थंकर हो, आदि ब्रह्म, शिवशंकर हो॥ ईश्वर तुम को संत कहें, नहीं तुम्हारा अंत कहे। कामदेव का नाश किया, सम्यक् ज्ञान प्रकाश किया॥ योगीश्वर कहलाते हो, योग मार्ग बतलाते हो। तुम्हीं अनेक स्वरूपी हो, एकमेव चिद्रूपी हो॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२५) वास्तविक आप्तपना आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ बोधि लाभ के पाने से, केवलज्ञान जगाने से। बुद्ध आप ही सिद्ध हुए, शंकर परम प्रसिद्ध हुए॥ क्योंकि तीन ही लोकों के, हरने वाले शोकों के। मंगल कत्र्ता शंकर हे! ऋषभदेव तीर्थंकर हे! देवों द्वारा अर्चित हो, धीर नाम से चर्चित हो। मुक्ति-मार्ग बतलातेे हो, विधि-विधान जतलाते हो॥ इससे तुम्हीं विधाता हो, सृष्टि नियम निर्माता हो। पुरुषोत्तम प्रत्यक्ष तुम्हीं, समवसरण अध्यक्ष तुम्हीं॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२६) द्रव्य-नमन और भाव-नमन आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ हे तीनों ही लोकों के, दु:खों-कष्टों-शोकों के। दूर करैया नमन-नमन, चूर करैया नमन-नमन॥ अलंकार भू-मंडल के, आभूषण अवनी-तल के। शिरोमणी हे नमन-नमन, अग्रगणी हे नमन-नमन। तीन लोक के स्वामी हे, परमेश्वर अभिरामी हे। मन-वच-तन से नमन-नमन, निज चेतन से नमन-नमन॥ सिन्धु सोखने वाले हे, भ्रमण रोकने वाले हे। भवदधि शोषक नमन-नमन, युग उद्घोषक नमन-नमन॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२७) दोषों की अभिव्यंजना आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ गुण सारे के सारे ही, आये शरण तुम्हारे ही। वहीं ठसाठस पिल बैठे, आप सहारे मिल बैठे॥ दोष गर्व से इतराये, इधर-उधर सब छितराये। फूले नहीं समाते थे, विविध ठिकाने पाते थे॥ खोटे - खोटे देवों के, छोटे-छोटे देवों के। इसीलिए मदहोशों ने, सपने में भी दोषों ने॥ नहीं आपको झाँका भी, मूल्य आपका आँका भी। इसमें अचरज कौन अरे? गुण ही गुण से आप भरे॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२८) अशोक-प्रातिहार्य-रूप आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ तरु अशोक की छाँव तले, लगते हो प्रभु बहुत भले। रूप रश्मियाँ निखर रहीं, ऊपर-ऊपर बिखर रहीं॥ परमौदारिक काया से, उच्च वृक्ष की छाया से। सूर्य बिम्ब हो निकल रहा, अँधियारे को निगल रहा॥ फूट रहीं हैं उसमें से, छूट रहीं हैं उसमें से। किरणें ऊपर-ऊपर को, भेद रहीं है अम्बर को॥ कजरारे बादल दल से, मानो गिरि नीलांचल से। सूर्य आरती करता है, भक्ति-भारती भरता है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (२९) सिंहासन-प्रातिहार्य-रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ सिंहासन के मणियों की, रत्नजटिल किंकणियों की। रंग-बिरंगी किरणों से, किरणों की भी नोकों से॥ चित्रित जो सिंहासन है, मणि-मंडित पीठासन है। उस पर कंचन काया है, महा पुण्य की माया है॥ उदयाचल का उच्च शिखर, उसी शिखर की चोटी पर। मानो सूरज उदित हुआ, अवनी अंबर मुदित हुआ॥ रवि की किरण लताओं का, कोटि-कोटि समुदायों का। मानो तना चँदोवा है, क्या ही बढिय़ा शोभा है? मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३०) चल चाँवर प्रातिहार्य रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ कुंद-कुंद मचकुंद धवल, सुरभित सुमनस वृन्द नवल। शुभ्र चँवर के ढुरने से, नीचे ऊपर फिरने से॥ स्वर्ण कान्त आभा वाली, दिव्य-देह शोभा शाली। इतनी मन भावन लगती, रम्य परम पावन लगती॥ मानो झरना झरता हो, जल प्रपात सा गिरता हो। स्वर्णाचल के आँगन पर, धवल धार से छल-छल कर॥ उगते हुए कलाधर की, शुभ्र ज्योत्स्ना शशिधर की। लगती जितनी निर्मल है, धारा उतनी उज्ज्वल है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३१) छत्रत्रय-रत्नत्रय-प्रातिहार्य रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ तीन छत्र अति सुन्दर हैं, विशद शीर्ष के ऊपर हैं। चन्द्रकान्त से उज्ज्वल हैं, सौम्य, अचंचल, शीतल हैं॥ झिलमिल मयि झल्लरियों ने, मणियों की वल्लरियों ने। शोभा अधिक बढ़ाई है, प्रभुता ही प्रकटाई है॥ मार्तण्ड का तेज प्रखर, रोक रहे अपने ऊपर। मानो वे दरशाते हैं, छत्रत्रय बतलाते हैं॥ तीन लोक के स्वामी हो, भक्त नयन पथगामी हो। प्रातिहार्य छत्रत्रय का, चमत्कार रत्नत्रय का॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३२) देव-दुन्दुभि प्रातिहार्य रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ बजा गगन में नक्कारा, दिग् दिगन्त गूँजा सारा। मधुर-मधुर ऊँचे स्वर से, हुई घोषणा अम्बर से॥ सत्य-धर्म की जय जय जय, आत्म-धर्म की जय जय जय। जय बोलो तीर्थंकर की, जय बोलो अभयंकर की॥ जन-जन का यह मेला है, तीन लोक तक फैला है। हुए इके जीव सभी, हर्षोत्फुल्ल अतीव सभी॥ बजा जीत का डंका है, इसमें भी क्या शंका है। जय के नारे लगा रही, विजय दुन्दुभि जगा रही॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३३) पुष्प-वृष्टि-प्रातिहार्य-रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ रिमझिम अमृत-वर्षण के, शीतल सुखद समीरण के। मंद-मंद झोंके बहते, सुरभित गन्ध युक्त रहते॥ उन झोकों से गिरे हुए, डंठल नीचे किए हुए। फूलों की लग रही झड़ी, उपमा ऐसी जान पड़ी॥ कल्पवृक्ष नन्दन वन के, अम्बर के चन्दन वन के। पारिजात मन्दार सुमन, सन्तानक सुन्दर कुसुमन॥ ऊध्र्वमुखी होकर गिरते, मानो दिव्य-वचन खिरते। पंक्तिबद्ध वृषभेश्वर के, तत्त्व निबद्ध जिनेश्वर के॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३४) आभा-मंडल प्रातिहार्य-रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ तेजो राशि महा-मंगल, चमक रहा आभा-मंडल। रश्मि पुँज बिखराता है, ऐसी कान्ति दिखाता है॥ जैसे अनगिनती सूरज, एक साथ ले तेज-ध्वज। पृष्ठ भूमि में उदय हुए, तमस्तोम सब विलय हुए॥ विद्यमान तीनों जग का, दीप्तिमान तीनों जग का। वस्तु समूह लजाया है, प्रभा देख शरमाया है॥ फिर भी सौम्य चाँदनी सा, भा-मंडल हत रजनी सा। शोभनीय है, शीतल है, आदर्शी दर्पण-तल है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३५) दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य-रूपक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ दिव्य-ध्वनि ओंकार मयी, घन-गर्जन झंकार मयी। स्वर्ग-मोक्ष मग दर्शाती, पथ प्रशस्त करती जाती॥ सम्यक् धर्म सुनाती हुई, त्रिभुवन पार लगाती हुई। द्रव्य-गुणों-पर्यायों का, विशद वस्तु समुदायों का॥ भाव-अर्थ प्रकटाती है, परिवर्तित हो जाती है। श्रोताओं की भाषा में, भावों भरी पिपासा में॥ सहज रूप परणित होती, दिव्यध्वनि नि:सृत होती। यही विलक्षण अतिशय है, अनेकान्त नि:संशय है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३६) चरण-कमल तल स्वर्ण-कमल आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ प्रभु के चरण युगल कैसे? नूतन स्वर्ण-कमल जैसे। प्रभा पुँज बिखराते हैं, रश्मि जाल फैलाते हैं॥ नख-शिख प्रसरित उजयाला, चतुर्मुखी आभा वाला। निकल रहा है चरणों से, दीप्ति नखों की किरणों से॥ के चरणाम्बुज जहाँ-जहाँ, पड़ते प्रभु के वहाँ-वहाँ। कदम-कदम पर बिछते हैं, सुरगण जिनको रचते हैं॥ कमल पाँवड़े सोने के, सुन्दर और सलोने के। कमल चरणों की चेरी है, विभूति प्रभुवर तेरी है॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३७) समवशरण का वैभव आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ जितना जैसा जो ऐश्वर्य, पाया जाता हे जिनवय्र्य। वैभव धर्म सभाओं का, सर्वोदयी विधाओं का॥ धर्म-देशना वेला में, समवसरण के मेला में। नहीं दूसरों का वैसा, पाया जाता तुम जैसा॥ जैसी दीप्ति दिवाकर में, दिपती घोर तिमिर-हर में। वैसा कहाँ सितारों में? टिम-टिम ज्योति हजारों में॥ परम ज्योति परमेश्वर हे! केवलज्ञान दिवाकर हे! समवसरण अधिनायक हे! आत्म तत्त्व के ज्ञायक हे! मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३८) क्रोध रूपी पशुता पर विजय आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ भीम-काय ऐरावत सा, महा भयंकर पर्वत सा। कोई गज उच्छृंखल हो, मतवाला हो, चंचल हो॥ गालों से मद झरने से, कलुषित उनके करने से। भौंरे भी मँडराते हों, क्रोध अधिक भडक़ाते हों॥ ऐसा हाथी सन्मुख हो, बेवश, बेरस, बेेरुख हो। किन्तु आपके शरणागत, याकि आपके कीत्र्तन रत॥ तनिक न उससे डरते हैं, वश में उसको करते हैं। क्योंकि आप अभयंकर हैं, वीतराग तीर्थंकर हैं॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (३९) हिंसक बर्बरता पर विजय आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ बर्बर सिंह हाथियों पर, झपटे अगर छलाँगें भर। खूनी पंजे गाड़े हों, गज गल मस्तक फाड़े हों॥ टपक रहे हों गज-मुक्ता, उज्ज्वल और रुधिर सिक्ता। वसुधा का शृंगार करे, मानो मुक्ता हार धरे॥ ऐसे सिंह के पंजों में, फँस कर क्रूर शिकंजों में। कभी शिकार न हो सकता, उस पर वार न हो सकता॥ यदि वह भक्त तुम्हारा है, युग पद-शैल सहारा है। चरणों की हो ओट जहाँ, उस पर कोई चोट कहाँ? मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४०) अशान्ति की ज्वाला का शमन आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ आँधी प्रलयंकारी हो, दावानल यदि भारी हो। धधका हो ज्वालाओं से, भभका तेज हवाओं से॥ चिनगारी चिनगारी हो, अँगारे भी जारी हों। चारों ओर मचे हा! हा! मानो विश्व हुआ स्वाहा॥ लपटें ऐसी निकल रहीं, मानों जग को निगल रहीं। किन्तु आपका जप-बल ही, नामों का मंत्रित जल ही॥ अग्नि प्रचण्ड बुझाता है, शान्ति-सुधा बरसाता है। वीतराग में राग कहाँ? अरे राग की आग कहाँ? मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४१) विषय भुजंगों के विष का उपचार आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ ऊपर को फण किए हुए, लाल-लाल दग लिए हुए। क्रोध भरा मतवाला हो, कोयल जैसा काला हो॥ सर्प भुजंग निराला हो, बढक़र डसने वाला हो। मगर आपके नामों की, स्तुति के आयामों की॥ नाग दमनियाँ जो रखता, मन ही मन अमृत चखता। ऐसा भक्त उलाँघेगा, पाँव नाग पर रख देगा॥ सर्प पटक फण रह जाये, भक्त मगर बढ़ता जाये। पथ उसका नि:शंक रहे, नहि अहि का आतंक रहे॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४२) कर्म शत्रुओं पर विजय आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ घोड़े हिन-हिन करते हों, गज चिंघाड़े भरते हों। रण का दृश्य भयंकर हो, शत्रु फौज बलवत्तर हो॥ वह भी पीठ दिखायेगी, अपने मुँह की खायेगी। उदित सूर्य की किरणों से, उनकी पैनी नोकों से॥ अन्धकार भिद जाता है, अंग-अंग छिद जाता है। त्यों ही तुमको भजने से, स्तुति विनय सिरजने से॥ भक्त विजय पा जाता है, दुश्मन घबरा जाता है। सेना छिन्न-भिन्न होती, डर से खेद खिन्न होती॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४३) चेतन-कर्म युद्ध में आत्म-विजय आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ पैने बरछी, भालों से, तलवारों, करवालों से। कट-कट हस्ती मरते हों, नदी खून की भरते हों॥ शूर वीर अतराते हों! आतुरता दिखलाते हों!! शीघ्र पार हो जाने की, दुश्मन पर जय पाने की॥ दुश्मन महा भयंकर हो, जिसे जीतना दुष्कर हो। सो भी जय पा जाता है, रण में नाम कमाता है॥ जिसके चरण सरोजों की, मुंजल पद अंभोजों की। शीतल छत्रच्छाया हो, जिसने तुमको ध्याया हो॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४४) भव-समुद्र की भक्ति नौका आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ मगर मच्छ घडिय़ाल जहाँ, जीव-जन्तु विकराल जहाँ। लहरें अति उत्ताल जहाँ, बडवानल की ज्वाल जहाँ॥ सुलगी महा समुन्दर में, जल के क्षुब्ध बवंडर में। डावाँडोल जहाज हुए, प्राणों के मुँहताज हुए॥ जल-यात्रा करने वाले, महा मृत्यु वरने वाले। किन्तु आपको रटने से, भक्ति मार्ग पर डटने से॥ सुखासीन बहते जाते, भय-विहीन बढ़ते जाते। अपने इष्ट ठिकानों पर, बैठ कुशल जल यानों पर॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४५) जन्म-जरा-मृत्यु रोग विनाशक आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ भीषण रोग जलोदर हो, बदसूरत लम्बोदर हो। टेढ़े मेढ़े अंग हुए, अवयव सारे भंग हुए॥ चिन्ता जनक अवस्था हो, हालत बिल्कुल खस्ता हो। चारों ओर निराशा हो, गिनती की ही श्वासा हो॥ अगर आपको वह भज ले, अमृतमयी चरण-रज ले। अपने अंग रमायेगा, तो सब रोग भगायेगा॥ नव-जीवन पा जायेगा, सुन्दर तन पा जायेगा। मनहर, मंजु मनोजों सा, सुन्दर, नेघड़ सरोजों सा॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४६) कर्म बन्धन से मुक्ति आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ बड़ी-बड़ी जंजीरों को, लेकर कसा शरीरों को। जकड़ दिया है जोरों से, नख-शिख चारों ओरों से॥ मोटी लौह शृंखलाएँ, छील रहीं हो जंघाएँ। इतना, दृढ़तम बंधन हो, पराधीन बंदीजन हो॥ महामन्त्र यदि जपता है, तो स्वतन्त्र हो सकता है। लगातार यदि जाप करे, मुक्ति स्वयं ही आप वरे॥ हो जाता स्वच्छंद अहो, तत्क्षण ही निर्बन्ध अहो। टूटे बन्धन कर्मों के, प्रकटे वैभव धर्मों के॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४७) सप्त भयों से मुक्ति आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ जो इस मंगल-गीता को, पावन-परम पुनीता को। भक्ति भाव से पढ़ते हैं, हृदय फ्रेम में जड़ते हैं॥ वही विवेकी कहलाते, उनके ये भय भग जाते। मद उन्मत्त गजेन्द्रों का, बर्बर सिंह मृगेन्द्रों का॥ धू धू करते ग्रामों का, सर्पों का, संग्रामों का। क्षोभित हुए समुद्रों का, रोग जलोदर रुद्रों का॥ बन्धन का भी भय भगता, भक्त मोक्ष मग में लगता। दैहिक, दैविक विपदाएँ, क्षण में सभी पला जाएँ॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥ (४८) शुभाशीष एवं वरदान प्राप्ति आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ। भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥ रंग-बिरंगे फूलों की, वर्ण वर्ण अनुकूलों की। यह भक्तामर माला है, गुण का धागा डाला है॥ जो भी इसको पहिनेंगे, आत्म कंठ गत कर लेंगे। झमी हुई भक्तियों से, श्रद्धा भरी शक्तियों से॥ वह लक्ष्मी को पायेंगे, निज सम्मान बढ़ायेंगे। मानतुङ्ग श्रीमान रहें, मुनिवर भक्त प्रधान रहें॥ उनके ही आशीषों का, मंगलमयी मुनीशों का। भाव चुरा अनुवाद किया, मधुर-मधुर आस्वाद लिया॥ मानतुङ्ग मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ। उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
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