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भक्तामर स्तोत्र : हिन्दी पद्यानुवाद


admin

भक्तामर स्तोत्र : हिन्दी पद्यानुवाद

(अमृतलाल जैन चंचल)

भक्त-देवों की नत मणि-मौलि, कान्ति कारक जो करते हैं।

जगत के सकल पाप-तम-पुंज, प्रभाकर से जो हरते हैं॥

अगम संसार-सिन्धु में जो, डूबतों के हैं प्रभु आधार।

उन्हीं के युग पद-कमलों का, प्रथम कर वन्दन बारम्बार॥ १॥

 

अमरपुर-पति से ज्ञानी ने, स्तवन जिनका किया महान।

मनोहर, त्रिभुवन-मनमोहन, विशाल स्तोत्रों से कर गान॥

उन्हीं नाभीश्वर-नन्दन की, कहाते हैं जिनेश जो आद्य।

आज मैं स्तुति करता हूँ, बनाकर अपना प्रिय आराध्य॥ २॥

 

देवताओं से पूजित देव! कहाँ प्रभु आप, कहाँ मतिहीन!

किन्तु, फिर भी होकर निर्लज्ज, हुआ वन्दन को प्रस्तुत दीन॥

बतायें तो, बालक को छोड़, दूसरा और कौन साईं।

नीर में दिखती निशिकर की, प्रभो! पकड़ेगा परछाईं॥ ३॥

 

गिने यदि सुरगुरु सा भी विज्ञ, आपके, आ, गुण चन्द्र समान।

नहीं है यह सम्भव हे देव! कर सके वह पूरा गुणगान॥

मगर-मच्छों से परिपूरित, प्रलय-सी जिसमें चलें हिलोर।

कौन तर सकता ऐसा सिन्धु, भुजाओं से करुणे की कोर॥ ४॥

 

आपकी भक्ति मोहिनी में, मुनीश्वर! है वह आकर्षण।

शक्ति से रहित, किन्तु तो भी, स्तवन कर कहता है मन॥

जानती है मृगि यह सब भाँति, कहाँ मैं, कहाँ सिंह बलवान।

किन्तु हो शिशु के मोह अधीन, न वह क्या करती रण भगवान?॥ ५॥

 

जानता नहीं शास्त्र क्या वस्तु, हँसेंगे देख मुझे विद्वान्।

बुलाती है मुझको हे नाथ! आपकी, तो भी भक्ति महान॥

मधुर मधु ऋतु के आने पर, कूकतीं क्यों पिक-बालायें?

हेतु उसका केवल है एक, आम्र की कोमल कलिकायें॥ ६॥

 

भ्रमर के तन समान काला, लोक में फैला तम-आकाश।

सूर्य की प्रखर रश्मियों से, प्रभो! ज्यों हो जाता है नाश॥

आपकी स्तुति से त्यों ईश! जन्मों-जन्मों के संचित पाप।

बिखर कर हो जाते हैं भस्म, एक क्षण भर में अपने आप॥ ७॥

 

स्तवन करता हूँ यह सोच नाथ, यद्यपि हूँ मैं मतिमन्द।

आपके शुचि प्रभाव से ही, प्रफुल्लित होंगे सज्जन वृन्द॥

कमल-दल पर जल बूँदे ही, दयामय! यदि पड़ जाती हैं।

वही मोती समान दिखकर, जगत का चित्त लुभाती हैं॥ ८॥

 

आपकी निष्कलंक स्तुति? प्रभो! छोड़े, वह तो है दूर।

आपकी कथा मात्र की नाथ! विश्व के कर देती अघ चूर॥

सूर्य कहते हैं कोसों दूर, न जगती तल पर आते हैं।

किन्तु उनकी किरणों से ही, कमल सर में खिल जाते हैं॥ ९॥

 

आपके वन्दन से यदि नाथ! सभी हो जावें आप समान।

प्रभो! तो इसमें क्या वैचित्र्य, नहीं कुछ भी आश्चर्य महान्॥

बतायें तो त्रिभुवन भूषण! जगत में है उनका क्या काम?

नौकरों को जो अपने तुल्य, बना लें ना मालिक अभिराम॥ १०॥

 

आप जिसके नयनों में जा, समा जाते हैं रूपागार।

उसे फिर फीका ही लगता, विश्व सा यह विस्तृत संसार॥

भला जिसने पी रक्खा हो, क्षीर सागर का सुन्दर नीर।

विभो! वह क्यों कर जावेगा, कहें, खारे सागर के तीर?॥ ११॥

 

आपका जिन रागादिक हीन, रजों से हुआ प्रभो! निर्माण।

जगत में वे उतने ही थे, न रज अब उनके और समान॥

अगर होते वैसे परमाणु, जगत में हे जगदीश्वर! और।

आपके सम अवश्य होते, कहीं! दो-चार और चित चोर॥ १२॥

 

कहाँ वह वदन आपका रम्य, सुर नरोरग का मनहारी।

सकल उपमान-विजय अनुपम, त्रिजग-मनमोहन सुखकारी॥

कहाँ बतलायें! वह सकलंक, बापुरा, रंक निशा का दीन।

दिवाकर के पद धरते ही, प्रभो! जो हो जाता द्युति-हीन॥ १३॥

 

शशिकला से निर्मल, रमणीक, मनोहरता से पारावार।

आपके गुण निशि वासर नाथ! छानते हैं तीनों संसार॥

ठीक है नाथ! उसे क्या भय, त्रिजगपति का है जिन पर हाथ।

खुशी, वे चाहे जहाँ फिरें, कौन लड़ सकता उनके साथ?॥ १४॥

 

अमर बालाएँ यदि हे नाथ! आपको कर न सकीं वाचाल।

कौन तो प्रभु इसमें आश्चर्य, बतायें हे त्रिभुवन भूपाल?॥

प्रलय-मारुत कर सकता है, पर्वतों का अवश्य कन्दन।

किन्तु क्या गिरि मन्दर में भी, कभी ला सकता स्पन्दन?॥ १५॥

 

शिखा होवे जिसकी निर्धूम, न जिसमें जलता होवे स्नेह।

पवन से बुझ न सके जो दीप, न देखा ऐसा करुणा-गेह॥

किन्तु निर्धूम, तेल से शून्य, आप हैं वह दीपक आधार।

प्रकाशित होता जिससे विश्व, पराजित होता झंझा वार॥ १६॥

 

आप होते न कभी प्रभु अस्त, आपको ग्रसता कभी न राहु।

एक ही साथ आप से तीन, प्रकाशित होते जग-जग बाहु॥

मेघ-मण्डल से भी जगदीश! आपकी रुके न ज्योति अपार।

सूर्य से भी बढक़र मुनिनाथ! आप हैं महिमा के आगार॥ १७॥

 

मोह रूपी तम को हरते, जगतपति! नित्य निरन्तर त्रास।

आपका मुख-सरसीरुह, चन्द्र, सतत करता है शुभ्र प्रकाश॥

राहु दे सकता उसे न त्रास, छिपाता उसे न घन का पुञ्ज।

जगत-मनमोहन हे जगदीश!आपका मुख सौन्दर्य-निकुंज॥ १८॥

 

तिमिर का कर देता जब नाश, आपका मुख-शशि ही अभिराम।

रात्रि में विधु, दिन में रवि का, बतायें प्रभु फिर है क्या काम?

हो गया हो यदि जग माँहि, पूर्ण परिपक्क जिनेश्वर धान।

नीर से लदे बादलों का, काम फिर कहें कौन भगवान्?॥ १९॥

 

शुद्धतम, निर्मल, ज्ञान जिनेश! आप में जो छवि पाता है।

हरि-हरादिक देवों में वह, नरोत्तम! रंच न भाता है॥

एक सुन्दर, अनुपम मणि में, नाथ जो होता उजियाला।

उसे क्या पा सकता है, रंक, काँच झिलमिल करने वाला॥ २०॥

 

हरिहरादिक को देखे से, किन्तु है एक लाभ भारी।

अरुचि उनसे होती है, और, आप बन जाते मनहारी।

आपके दर्शन से पर देव, कहें, मैं लाभ कौन पाऊँ?

आप ही आप मिलें सुंदर, शतों भव चाहे फिर आऊँ॥ २१॥

 

जगत के बीच अनेकों मात, प्रसव करती हैं पुत्र जिनेश।

किसी माँ ने न किया उत्पन्न, आपके सम पर, सुत-राकेश॥

दिशायें सारी धरती हैं, सितारों का प्रभु उजियाला।

किन्तु प्राची ही प्रकटाती, दिवाकर सहस रश्मि वाला॥ २२॥

 

विमल, पुरुषोत्तम रविवत् शुभ्र, आदि ले लेकर सुन्दर नाम।

आपको योगीजन जगदीश, पुकारें नित्य सुबह और शाम॥

आपको पाकर वे जिनराज! मृत्यु पर जय पा जाते हैं।

जगत में अन्य आपको छोड़, मुक्ति का पन्थ न पाते हैं॥ २३॥

 

आपको कहता कोई आद्य, कोई अव्यय अचिन्त्य योगेश।

कोई कहता है एक अनेक, कोई विभु हरि योगी परमेश॥

कोई कहता अनंगध्वज नाथ! कोई कहता प्रभु निर्मल संत।

कोई कहता है ज्ञान स्वरूप, आपको कहता कोई अनंत॥ २४॥

 

आप ही बुद्ध विबुध पूजित, केवली शुद्ध बुद्धि धारी।

आप ही हैं सच्चे शंकर, जगत्पति! जग मंगलकारी॥

आप ही विधिकारक ब्रह्मा, मोक्ष के पथ के प्रतिपादक।

आप ही प्रभु पुरुषोत्तम व्यक्त, मदन मोहन वंशी वादक॥ २५॥

 

त्रिजग के दु:ख हरने वाले, आपको मेरे लाख प्रणाम।

भूमि के हे निर्मल भूषण, आपको मेरे लाख प्रणाम॥

भवोदधि के शोषण-कर्ता, आपको मेरे लाख प्रणाम।

जगत के पति हे परमेश्वर, आपको मेरे लाख प्रणाम॥ २६॥

 

निराश्रित गुण गण ने यदि देव! आपको बना लिया आगार।

कौन तो इसमें विभु! आश्चर्य, बतायें, मुझको गुण आधार॥

स्वप्न तक में भी दोषों ने, न देखा यदि प्रभु मुख-रजनीश।

कौन आश्चर्य? मिल गया ठौर, न आये प्रभु तक दुर्गुण ईश॥ २७॥

 

खड़ा है इक अशोक का वृक्ष, किए उन्नत मस्तक स्वामी।

उसी के नीचे बैठे हैं, आप ले शुचि तन अभिरामी॥

दृश्य ऐसा दिखता मानों, बादलों की माला के पास।

सुविस्तृत-करधारी, दिनकर, कर रहा होवे शुभ्र प्रकाश॥ २८॥

 

स्फटिक के सिंहासन पर, आपका कनक-वदन प्राणेश।

कल्पना पैदा करता एक, हृदय में सुन्दर, सौम्य, जिनेश॥

रत्न से जटित उदयगिरि पर, मुझे दिखता, जग के अवलंब॥

प्रकाशित होता हो मानों, दिवाकर का प्रचण्डतम बिम्ब॥ २९॥

 

आपके स्वर्ण-कलेवर पर, कुन्द से चमरों का ढुरना।

अहा! कितना आह्लादक दृश्य, भक्ति-रस का बहता झरना॥

आप मानें या न मानें, मुझे ऐसा दिखता भगवान।

मेरु पर बहता हो मानों, नीर निर्झर का चन्द्र समान॥ ३०॥

 

आपके उन्नत मस्तक पर, सुहाते तीन-छत्र सुखधाम।

लगे जिनमें अगणित मुक्ता, रवि-प्रभा-हर, शशि से अभिराम॥

तीन ही छत्र भला क्यों हों? क्योंकि हे जिनवर! जग हैं तीन।

आप हैं तीन लोक के नाथ! बताते हैं यह छत्र प्रवीण॥ ३१॥

 

गगन में बजता नक्कारा, जगतपति! दशों दिशायें चीर।

आपके यश का निशिवासर, भरा करता है स्वर गंभीर॥

त्रिजग को सत्संगति की नित्य, बताते महिमा अपरम्पार।

परम भट्टारक जिनवर का, प्रभो! वह करता जय जयकार॥ ३२॥

 

देव, नन्दन-निकुंज से चुन, मधुर मंदार आदि के फूल।

सुगन्धित जल-बूँदों के साथ, आप पर बरसाते सुख फूल॥

मन्द मारुत में आते हैं, फूल जब करते उजियाला।

मुझे दिखता, मानों आतीं, प्रभो के वचनों की माला॥ ३३॥

 

सहस्रों प्रखर सूर्य से भी, विभो! हैं यद्यपि आप प्रचण्ड।

आपका भा-मण्डल जननाथ! विजेता त्रिभुवन ज्योति अखण्ड॥

किन्तु फिर भी प्रभु! शीतलता, आप में वह दिखलाती है।

चन्द्र से फूली रजनी भी, जिनेश्वर से शरमाती है॥ ३४॥

 

आपकी दिव्यध्वनि जिनराज, स्वर्ग-शिव-पथ निर्देशक है।

त्रिलोकों के मंगलकारी, धर्म की पटु उपदेशक है॥

एक ही भाषा में यद्यपि, जिनेश्वर उसे खिराते हैं।

किन्तु सब अपनी बोली में, अर्थ उसका पा जाते हैं॥ ३५॥

 

आपके नख में हे जिनराज! भरी है ऐसी सुन्दर कान्ति।

स्वर्ण के नव पंकज या नख, हमें हो जाती प्रभु! यह भ्रान्ति॥

आप इन नाखूनों से युक्त, जहाँ मनहर पद धरते हैं।

वहीं पर आकर कमलों की, देवगण रचना करते हैं॥ ३६॥

 

आपकी जो विभूति जिनराज, हुई धर्मोपदेश के काल।

हरिहरादिक देवों की वह, कभी भी नहीं हुई जगपाल॥

प्रकाशित होती नाथ अवश्य, गगन में यद्यपि ग्रह-माला।

तिमिर-भंजक रवि का क्या किन्तु, कभी वह पाती उजियाला?॥ ३७॥

 

युगल गालों से जिसके नाथ, चू रही होवे मद की धार।

प्रतिक्षण करते हों जिस पर, सहस्रों भौंरे मिल गुंजार॥

इस तरह का यदि हाथी भी, कुपित हो दौड़े बनकर काल।

आपके भक्तों का तो भी, न कर सकता वह बाँका बाल॥ ३८॥

 

चीर कर जिसने हे जगबन्धु, अनेकों गज के गण्डस्थल।

पाटकर बना दिया है रम्य, मोतियों से वसुन्धरा तल॥

प्रभो! ऐसा पंचानन भी, न कर सकता है उस पर वार।

आपके पद रूपी गिरि का, जिसे है हे जिनेन्द्र! आधार॥ ३९॥

 

प्रलय कालीन अग्नि सम भी, आग लग जाये अगर जिनेश।

फुलिंगे उड़ें योजनों से, विश्व दिखता हो होता शेष॥

आपका नाम सुमर कर ही, छोड़ दें यदि प्रभु! उस पर नीर।

आप में है वह शक्ति अनूप, उसी क्षण मिट जावेगी पीर॥ ४०॥

 

कोकिला कण्ठ तुल्य नीला, उगलते युग नैनों से रक्त।

उठा कर फन डँसने दौड़े नाग भी यदि प्रभु क्रोधासक्त॥

आपका नाम-नागदमनी, दयामय! जिस नर के है पास।

अगर वह कुचल जाय तो भी, न दे सकता अहि उसको त्रास॥ ४१॥

 

हिनहिनाते हों जहाँ तुरंग, मत्त गज करते हों चिंघाड़।

भीम से भीम नृपतियों की प्रभोवर! ऐसी सैन्य प्रगाढ़॥

आपका नाम सुमनते ही, क्षेत्र से हो जाती त्यों नाश।

देव! ज्यों अंधकार का पुञ्ज देखते ही रवि-रश्मि प्रकाश॥ ४२॥

 

युद्ध में छिदे हाथियों के, रक्त से भरे सुविस्तृत ताल।

तैर लडऩे को आतुर हैं, दयामय! जो मानव विकराल॥

सुभट से सुभट हराने में जिन्हें रखते हैं प्रभु शंका।

आपके चरण-कमल आश्रित, बनाते उन पर जय-डंका॥ ४३॥

 

जहाँ फिरता हो मुँह बाये, भयंकर मगर-मच्छ का दल।

उठ रहा हो तूफाँ, धू-धू जहाँ करता हो बडवानल॥

इस तरह के समुद्र में भी, अगर पड़ जावे प्रभो! जहाज।

आपका नाम सुमरते ही, पार हो जाता वह सरताज॥ ४४॥

 

जलोदर से जो पीडि़त हैं, महा दुर्गति है जिनकी नाथ!

जिन्दगी की आशा से जो, धो चुके हैं बिल्कुल ही हाथ॥

आपको पद-रज अमृत को, लगा लें वे भी यदि भगवान्।

क्षणिक में ही कुरूपता छोड़ विभो! हो जावें मदन समान॥ ४५॥

 

लोह ही दृढ़ जंजीरों से, प्रभो! जकड़ी है जिसकी देह।

पड़ी है पाँवों में बेड़ी, छिल गई हैं जाँघें, गुण गेह॥

करें यदि ऐसे बन्दी भी, आपके नाम-मंत्र का जाप।

जाप करते ही करते नाथ, बन्ध कट जावें अपने आप॥ ४६॥

 

समर, दावानल, गज, हरि, रोग, सिन्धु, अहि, बंध आदि का भय।

आपकी पुण्य-स्तुति से नाथ, एक क्षण में हो जाते क्षय॥

जगत में भक्तामर का जो, पाठ करते हैं विज्ञ विनीत।

भाग जाते हैं कोसों दूर, सकल भय हो उनसे भयभीत॥ ४७॥

 

आपके गुण-निकुंज से चुन, अनेकों वर्णों के प्रभु फूल।

गुँथा है पुण्य-स्तवन का, हार चंचल सभक्ति सुख कूल॥

मानतुंग जो भक्तामर की, हृदय धरते यह सुंदर माल।

उन्हें दोनों ही लोकों के, प्राप्त होते ऐश्वर्य विशाल॥ ४८॥



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