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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र के श्वेतवर्णी मूलनायक 1008 श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान की जाप??????
  2. बे गौरा बे सावंला, बे हरिया बे लाल । सौलहकाय कंचन सम, ते वंदन हूँ त्रिकाल ॥ आदि प्रभु की भक्ति से, मनुज बने भगवान । आत्मिक सुख उसको मिले, वंदन बारम्बार ॥ अन्तरंग बहिरंग को त्यागकर, किये शुद्ध आचार । अजितनाथ भगवान् को, वंदन बारम्बार ॥ जिन संभव के भक्तजन, पावें मोक्ष का द्वार । शीघ्र हरो मम दुःख प्रभु, वंदन बारम्बार ॥ आनंदित प्रभु अभिनन्दन, चतुर्थ तीर्थ करतार । किया नाम सार्थक सदा, वंदन बारम्बार ॥ विश्वतत्व के अर्थ सहित, किया कर्म संहार । सुमति, सुमति के दायक हो, वंदन बारम्बार ॥ मोहकर्म को नाश कर, गुण अनंत के धार । तीर्थंकर श्री पद्मप्रभु, वंदन बारम्बार ॥ काम क्रोध का नाशकर, पायो केवल ज्ञान । श्री सुपार्श्व जिनराज को, वंदन बारम्बार ॥ इन्द्रो द्वारा सेवित हो, निर्मल कीर्ति धार । रक्षक अष्टम चंद्रप्रभु, वंदन बारम्बार ॥ पुष्पदंत जिनराज के, तन में दिव्य प्रकाश । तीर्थ नवम के श्रीपति, वंदन बारम्बार ॥ जो जन की पीड़ा हरे, करे कुपथ का नाश । शीतल शीतलता करे, वंदन बारम्बार ॥ श्री श्रेयांस जिनराजवरा, देवे मोक्ष विधान । भव्य जीव तव चरण रहे, वंदन बारम्बार ॥ जो कुमार्ग का नाशकर, उज्जवल तीर्थ महान । वासुपूज्य जिनराज को, वंदन बारम्बार ॥ विमल विमलमति दायक हो, निर्मल कर संसार । त्रयोदश तीर्थ के हो करता, वंदन बारम्बार ॥ मिथ्यातम का नाश किया, जीत लिया संसार । अनंत प्रभु सम सूर्य श्री, वंदन बारम्बार ॥ धर्ममार्ग को छोड़कर, जावें नर्क के द्वार । धर्मनाथ उद्धार करें, वंदन बारम्बार ॥ इतिभिति को नाश करे, शांतिनाथ भगवान् । तिन पदों के धारी श्री, वंदन बारम्बार ॥ कुन्थु-कुन्थु के पालक हो, ख्याति अति विशाल । चक्रवर्ती पद मिला तुम्हे, वंदन बारम्बार ॥ पापी शत्रु को नाश कर, कामदेव पद धार । अरनाथ (अरहनाथ) जिनेन्द्र को, वंदन बारम्बार ॥ मोह मल्ल को नाश कर, काटा भाव का पाश । हे प्रसिद्ध मल्लि प्रभु, वंदन बारम्बार ॥ भव सागर से पार करे, मुनिसुव्रत महाराज । सुव्रत व्रत के दायक हो, वंदन बारम्बार ॥ कर्म रूपी शत्रु सभी, नम्र हुए तव द्वार । नमिनाथ के चरण में, वंदन बारम्बार ॥ कोटि सूर्य तव तेज हैं, यादव कुल सरताज । चक्रोत्तम श्री नेमीप्रभु, वंदन बारम्बार ॥ कमठनाद को दूर किया, हैं धरणेन्द्र महान । श्री पारस उपसर्गपति, वंदन बारम्बार ॥ वर्तमान के अन्तिम शासक, वर्द्धमान जिनराज । नित अर्चन तेरी करू, वंदन बारम्बार ॥ "रयणसागर" विनवे प्रभु, चौबीसों जिनराज । भवसागर से पार करो, वंदन बारम्बार ॥
  3. श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रातः । भक्ति मन लाई, सब संकट जाये नशाई ॥ जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुंग से हारे थे । उन चतुराई से नृपति लिया, बहकाई ॥ सब ॥१॥ मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था । मुनि वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई ॥ सब ॥२॥ उपसर्ग घेर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगवाया था । हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई ॥ सब ॥३॥ मुनि काराग्रह भिजवाए थे, अड़तालीस ताले लगाये थे । क्रोधित नृप बहार पहरा दिया बिठाई ॥ सब ॥४॥ मुनि शान्तभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था । हो ध्यान मग्न भक्तामर दिया बनाई ॥ सब ॥५॥ सब बंधन टूट गए मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके । काराग्रह से आ बाहर दिए दिखाई ॥ सब ॥६॥ राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था । मुनि के चरणों में अनुपम भक्ति दिखाई ॥ सब ॥७॥ जो पाठ भक्ति से करता हैं, नित ऋषभ-चरण चित धरता हैं । जो ऋद्धि-मंत्र का, विधिवत जाप कराई ॥ सब ॥८॥ भय विघ्न उपद्रव टलते हैं, विपदा के दिवस बदलते हैं । सब मन वांछित हो पूर्ण, शान्ति छा जाई ॥ सब ॥९॥ जो वीतराग आराधन हैं, आत्म उन्नति का साधन हैं । उससे प्राणी का भव बन्धन कट जाई ॥ सब ॥१०॥ 'कौशल' सुभक्ति को पहिचानो, संसार-द्रष्टि बंधन जानो । लौ भक्तामर से आत्म-ज्योति प्रगटाई ॥ सब ॥११॥
  4. बंदूँ श्री अरहंत पद, वीतराग विज्ञान। वरणूँ बारह भावना, जग जीवन हित जान॥ 1॥ कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा। कहाँ गये वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा॥ कहाँ कृष्ण रुक्मणी सतभामा, अरु संपति सगरी। कहाँ गये वह रंगमहल अरु, सुवरन की नगरी॥ 2॥ नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रण में। गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में॥ मोह- नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश करैं, गुरु बारह भावन को॥ 3॥ अनित्य भावना सूरज चाँद छिपै निकलै ऋतु, फिर फिर कर आवै। प्यारी आयु ऐसी बीतै, पता नहीं पावै॥ पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल, बहकर नहिं हटता। स्वास चलत यों घटै काठ ज्यों, आरे सों कटता॥ 4॥ ओस-बूंद ज्यों गले धूप में, वा अंजुलि पानी। छिन-छिन यौवन छीन होत है, क्या समझै प्रानी॥ इंद्रजाल आकाश नगर सम, जग-संपत्ति सारी। अथिर रूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी॥ 5॥ अशरण भावना काल-सिंह ने मृग- चेतन को घेरा भव वन में। नहीं बचावन-हारा कोई, यों समझो मन में॥ मंत्र तंत्र सेना धन संपत्ति, राज पाट छूटे। वश नहिं चलता काल लुटेरा, काय नगरि लूटे॥ 6॥ चक्ररत्न हलधर सा भाई, काम नहीं आया। एक तीर के लगत कृष्ण की विनश गई काया॥ देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिरै भटकता चेतन, यूँ ही उमर खोई॥ 7॥ संसार भावना जनम-मरण अरु जरा- रोग से, सदा दु:खी रहता। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव-परिवर्तन सहता॥ छेदन भेदन नरक पशुगति, वध बंधन सहना। राग-उदय से दु:ख सुर गति में, कहाँ सुखी रहना॥ 8॥ भोगि पुण्य फल हो इक इंद्री, क्या इसमें लाली। कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली॥ मानुष-जन्म अनेक विपत्तिमय, कहीं न सुख देखा। पंचम गति सुख मिले शुभाशुभ को मेटो लेखा॥ 9॥ एकत्व भावना जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दु:ख का भोगी। और किसी का क्या इक दिन, यह देह जुदी होगी॥ कमला चलत न पैंड जाय, मरघट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवैं, पिता पुत्र दारा॥ 10॥ ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरैं धरते। ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते॥ कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक-थक हारै। जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारै॥ 11॥ अन्यत्व भावना मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमकै। मृग चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़े थक थककै॥ जल नहिं पावै प्राण गमावे, भटक भटक मरता। वस्तु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता॥ 12॥ तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी। मिले-अनादि यतन तैं बिछुडै, ज्यों पय अरु पानी॥ रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जौलों पौरुष थकै न तौलों उद्यम सों चरना॥ 13॥ अशुचि भावना तू नित पोखै यह सूखे ज्यों, धोवै त्यों मैली। निश दिन करे उपाय देह का, रोग-दशा फैली॥ मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी। मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी॥ 14॥ काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवै। फलै अनंत जु धर्म ध्यान की, भूमि-विषै बोवै॥ केसर चंदन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी। देह परसते होय, अपावन निशदिन मल जारी॥ 15॥ आस्रव भावना ज्यों सर-जल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को। दर्वित जीव प्रदेश गहै जब पुद्गल भरमन को॥ भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बन्धन को॥ 16॥ पन-मिथ्यात योग- पन्द्रह द्वादश- अविरत जानो। पंच रु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो॥ मोह- भाव की ममता टारै, पर परिणति खोते। करै मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानी जन होते॥ 17॥ संवर भावना ज्यों मोरी में डाट लगावै, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोकै संवर, क्यों नहिं मन लाता॥ पंच महाव्रत समिति गुप्तिकर वचन काय मन को। दशविध-धर्म परीषह-बाईस, बारह भावन को॥ 18॥ यह सब भाव सत्तावन मिलकर, आस्रव को खोते। सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते॥ भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध- भावन- संवर भावै। डाँट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावै॥ 19॥ निर्जरा भावना ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पड़ै भारी। संवर रोकै कर्म निर्जरा, ह्वै सोखनहारी॥ उदय-भोग सविपाक-समय, पक जाय आम डाली। दूजी है अविपाक पकावै, पालविषै माली॥ 20॥ पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काज तेरा। दूजी करै जू उद्यम करकै, मिटे जगत फेरा॥ संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकत रानी। इस दुलहिन की यही सहेली, जानै सब ज्ञानी॥ 21॥ लोक भावना लोक अलोक आकाश माहिं थिर, निराधार जानो। पुरुष रूप कर- कटी भये षट् द्रव्यन सों मानो॥ इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है। जीवरु पुद्गल नाचै यामैं, कर्म उपाधी है॥ 22॥ पाप पुण्य सों जीव जगत में, नित सुख दु:ख भरता। अपनी करनी आप भरै सिर, औरन के धरता॥ मोह कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आसा। निज पद में थिर होय लोक के, शीश करो वासा॥ 23॥ बोधि-दुर्लभ भावना दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु त्रस गति पानी। नर काया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्रानी॥ उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक कुल पाना। दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुणठाना॥ 24॥ दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना। दुर्लभ मुनिवर के व्रत पालन, शुद्ध भाव करना॥ दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावै। पाकर केवलज्ञान नहीं फिर, इस भव में आवे॥ 25॥ धर्म भावना धर्म अहिंसा परमो धर्म: ही सच्चा जानो। जो पर को दुख दे, सुख माने, उसे पतित मानो॥ राग द्वेष मद मोह घटा आतम रुचि प्रकटावे। धर्म-पोत पर चढ़ प्राणी भव-सिन्धु पार जावे॥ 26॥ वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्रीजिन की वानी। सप्त तत्त्व का वर्णन जामें, सबको सुखदानी॥ इनका चिंतवन बार-बार कर, श्रद्धा उर धरना। मंगत इसी जतनतैं इकदिन,भव-सागर-तरना॥ 27॥
  5. राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार। मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार॥ दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार। मरती बिरियाँ जीव को, कोऊ न राखन हार॥ दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान। कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान॥ आप अकेला अवतरे, मरै अकेला होय। यो कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय॥ जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय। घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय॥ दिपै चाम-चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह। भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह॥ मोह नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा। कर्म चोर चहुँ ओर, सरवस लूटैं सुध नहीं॥ सत्गुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमैं। तब कछु बनहिं उपाय, कर्म चोर आवत रुकैं॥ ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधै भ्रम छोर। या विधि बिन निकसैं नहीं, पैठे पूरब चोर॥ पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार। प्रबल पंच इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार॥ चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान। तामें जीव अनादितैं, भरमत हैं बिन ज्ञान॥ धन कन कंचन राजसुख,सबहि सुलभकर जान। दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान॥ जाँचे सुर-तरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन। बिन जाँचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन॥
  6. बाहुबली स्वामी, जगकेनी स्वामी। शान्तिय मुरुतिये, नमिपेवु अनुदिनवू।। २ आदिनाथ कुवरा, भरतना सोदरा। सोदरन गेद्देयल्ला, राजवन्ने कोट्टेयल्ला।। २ बाहुबली स्वामी०० नोडेनी किरियवा, आदे नी हिरियवा । विवेका निनदागि, तालमेय बालागी ॥ २ बाहुबली स्वामी०० शान्तिय वदना, कान्तिय निलबू। विश्वके आदर्शा, निन्नय दरुशनवु॥ २ बाहुबली स्वामी०० बेलगोला राजा, अगणित तेजा। अरलिदा बिली कमला, निन्नय पद युगला॥ २ बाहुबली स्वामी०० सुनन्दा देविय, गर्भदि (गर्भादोलू) जनिसी । कीर्तिय तन्दिहेया, इडि प्रपंचदोलु॥ २ बाहुबली स्वामी००
  7. (श्री युगल जी कृत) बहु पुण्य-पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव मिला | तो भी अरे! भव चक्र का, फेरा न एक भी टला ||१|| सुख प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुक्ख जाता दूर हैं | तू क्यों भयंकर भाव-मरण, प्रवाह में चकचूर हैं ||२|| लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये | परिवार और कुटुंब हैं क्या? वृद्धिनय पट तोलिये ||३|| संसार का बढ़ना अरे! नर देह की यह हार हैं | नहिं एक क्षण तुझको अरे! इसका विवेक विचार हैं ||४|| निर्दोष सुख निर्दोष आनंद, लो जहाँ भी प्राप्त हो | यह दिव्य अन्ततत्व जिससे, बन्धनों से मुक्त हो ||५|| पर वस्तु में मुर्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया | वह सुख सदा ही त्याज्य रे! पश्चात् जिसके दुःख भरा ||६|| मैं कौन हु? आया कहाँ से? और मेरा स्वरूप क्या? सम्बन्ध दुखमय कौन हैं? स्वीकृत करूँ परिहार क्या ||७|| इसका विचार विवेकपूर्वक, शांत होकर कीजिये | तो सर्व आत्मिक ज्ञान के, सिद्धांत का रस पीजिये ||८|| किसका वचन उस तत्व की, उपलब्धि में शिवभुत हैं | निर्दोष नर का वचन रे! वह स्वानुभूति प्रसुत हैं ||९|| तारो अरे! तारो निजात्मा, शीघ्र अनुभव कीजिये | सर्वात्म में समद्रष्टि दो, यह ह्रदय लाख लीजिये ||१०||
  8. वंदौं पाँचों परम गुरु, चौबीसों जिनराज। करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरण के काज॥ १॥ सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी। तिनकी अब निर्वृत्ति काजा, तुम सरन लही जिनराजा॥ २॥ इक वे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित-सहित जे जीवा। तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदय ह्वै घात विचारी॥ ३॥ समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ। कृत कारित मोदन करिकै , क्रोधादि चतुष्टय धरिकै ॥ ४॥ शत आठ जु इमि भेदन तैं, अघ कीने परिछेदन तैं। तिनकी कहुँ कोलों कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥ ५॥ विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनय के। वश होय घोर अघ कीने, वचतैं नहिं जाय कहीने॥ ६॥ कुगुरुन की सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी। या विधि मिथ्यात भ्ऱमायो, चहुंगति मधि दोष उपायो॥ ७॥ हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, परवनिता सों दृगजोरी। आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥ ८॥ सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको। बहु करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने॥ ९॥ फल पंच उदम्बर खाये, मधु मांस मद्य चित चाहे। नहिं अष्ट मूलगुण धारे, सेये कुविसन दुखकारे॥ १०॥ दुइबीस अभख जिन गाये, सो भी निशदिन भुंजाये। कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों-त्यों करि उदर भरायो॥ ११॥ अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो। संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश गुनिये॥ १२॥ परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि त्रिवेद संयोग। पनबीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥ १३॥ निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई। फिर जागि विषय-वन धायो, नानाविध विष-फल खायो॥१४|| आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा। बिन देखी धरी उठाई, बिन शोधी वस्तु जु खाई॥ १५॥ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो। कछु सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्यामति छाय गयी है॥ १६॥ मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहू में दोस जु कीनी। भिनभिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविषैं सब पइये॥ १७॥ हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रसजीवन राशि विराधी। थावर की जतन न कीनी, उर में करुना नहिं लीनी॥ १८॥ पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई। पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो,पंखातैं पवन बिलोल्यो॥ १९॥ हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी। तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥ २०॥ हा हा! परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई। तामधि जीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये॥ २१॥ बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन-सोधि जलायो। झाडू ले जागां बुहारी, चींटी आदिक जीव बिदारी॥ २२॥ जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि-डारि जु दीनी। नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया बिन पाप उपाई॥ २३॥ जलमल मोरिन गिरवायो, कृमिकुल बहुघात करायो। नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥ २४॥ अन्नादिक शोध कराई, तामें जु जीव निसराई। तिनका नहिं जतन कराया, गलियारैं धूप डराया॥ २५॥ पुनि द्रव्य कमावन काजे, बहु आरंभ हिंसा साजे। किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥ २६॥ इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने श्री भगवंता। संतति चिरकाल उपाई, वानी तैं कहिय न जाई॥ २७॥ ताको जु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो। फल भुँजत जिय दुख पावै, वचतैं कैसें करि गावै॥ २८॥ तुम जानत केवलज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी। हम तो तुम शरण लही है जिन तारन विरद सही है॥ २९॥ इक गांवपती जो होवे, सो भी दुखिया दुख खोवै। तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी॥ ३०॥ द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो। अंजन से किये अकामी, दुख मेटो अन्तरजामी॥ ३१॥ मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद सम्हारो। सब दोषरहित करि स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी॥ ३२॥ इंद्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ । रागादिक दोष हरीजे, परमातम निजपद दीजे॥ ३३॥ दोहा दोष रहित जिनदेवजी, निजपद दीज्यो मोय। सब जीवन के सुख बढ़ै, आनंद-मंगल होय॥ ३४॥ अनुभव माणिक पारखी, जौहरी आप जिनन्द। ये ही वर मोहि दीजिये, चरन-शरन आनन्द॥ ३५॥
  9. (सहजानन्द वर्णी) हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतमराम। टेक। मैं वह हूँ जो है भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान। अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग-वितान॥ १॥ मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति-सुख-ज्ञान-निधान। किन्तु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान॥2 ॥ सुख-दुख-दाता कोई न आन, मोह-राग-रुष दुख की खान। निज को निज, पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान॥3 ॥ जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि जिनके नाम। राग त्यागि पहुँचूँ शिव धाम, आकुलता का फिर क्या काम॥4 ॥ होता स्वयं जगत-परिणाम, मैं जग का करता क्या काम । दूर हटो पर-कृत परिणाम, सहजानन्द रहूँ अभिराम॥ ५॥
  10. मैं देव नित अरहंत चाहूँ, सिद्ध का सुमिरन करौं। मैं सुर गुरु मुनि तीन पद ये, साधु पद हिरदय धरौं॥ मैं धर्म करुणामय जु चाहूँ, जहाँ हिंसा रंच ना। मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूँ, जासु में परपंच ना॥ चौबीस श्री जिनदेव चाहूँ, और देव न मन बसैं। जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वंदिते पातक नसैं॥ गिरनार शिखर सम्मेद चाहूँ, चम्पापुरी पावापुरी। कैलाश श्री जिनधाम चाहूँ, भजत भाजैं भ्रम जुरी॥ नव तत्त्व का सरधान चाहूँ, और तत्त्व न मन धरौं। षट् द्रव्य गुण परजाय चाहूँ, ठीक तासौं भय हरौं॥ पूजा परम जिनराज चाहूँ, और देव न चाहूँ कदा। तिहुँकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नहिं लागे कदा॥ सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र, सदा चाहूँ भाव सों। दशलक्षणी मैं धर्म चाहूँ, महा हर्ष उछाव सों॥ सोलह जु कारण दुख निवारण, सदा चाहूँ प्रीति सों। मैं नित अठाई पर्व चाहूँ, महामंगल रीति सों॥ अनुयोग चारों सदा चाहूँ, आदि अन्त निवाह सों। पाये धरम के चार चाहूँ, अधिक चित्त उछाह सों॥ मैं दान चारों सदा चाहूँ, भुवनवशि लाहो लहूँ। आराधना मैं चार चाहूँ, अन्त में ये ही गहूँ॥ भावना बारह जु भाऊँ, भाव निरमल होत हैं। मैं व्रत जु बारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं॥ प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना। वसुकर्म तैं मैं छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहँ मोहना॥ मैं साधुजन को संग चाहूँ, प्रीति तिनही सों करौं। मैं पर्व के उपवास चाहूँ, आरम्भ मैं सब परिहरौं॥ इस दुखद पंचमकाल माहीं, सुकुल श्रावक मैं लह्यो। अरु महाव्रत धरि सकौं नाहीं, निबल तन मैंने गह्यो॥ आराधना उत्तम सदा चाहूँ, सुनो जिनराय जी। तुम कृपानाथ अनाथ द्यानत, दया करना न्याय जी॥ वसुकर्म नाश विकास, ज्ञान प्रकाश मुझको दीजिये। करि सुगति गमन समाधिमरन, सुभक्ति चरनन दीजिये॥
  11. श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक के पावन अवसर पर देश विदेश के अनेकों जैन बन्धु इस बार कर्नाटक की यात्रा करेगे। कर्नाटक में अन्य जैन तीर्थो के दर्शनों हेतु 5 दिनों का एक यात्रा चार्ट संलग्न है, जो बैंगलोर से शुरू हो कर बंगलोर में ही सम्पन्न हो रहा है। आप अपनी सुविधा अनुसार दिन कम या ज्यादा कर सकते है।
  12. स्वात्मस्थित: सर्वगत: समस्त-, व्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्ग:। प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्य:, पायादपायात्पुरुष: पुराण:॥ १॥ परैरचिन्त्यं युगभारमेक:, स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्य:। स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभो न भानो:, किमप्रवेशे विशति प्रदीप:॥२॥ तत्त्याज शक्र: शकनाभिमानं, नाहं त्यजामि स्तवनानुबन्धम्। स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं, वातायनेनेव निरूपयामि ॥३॥ त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो, विद्वानशेषं निखिलैरवेद्य:। वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्य:, स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु॥ ४॥ व्यापीडितं बालमिवात्मदोषै- रुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वम्। हिताहितान्वेषणमान्द्यभाज: , सर्वस्य जन्तोरसि बालवैद्य:॥५॥ दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा- नद्यश्व इत्यच्युतदर्शिताश:। सव्याजमेवं गमयत्यशक्त:, क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय॥ ६॥ उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि, त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दु:खं। सदावदातद्युतिरेकरूप - स्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि॥ ७॥ अगाधताब्धे: स यत: पयोधिर् मेरोश्च तुङ्गा प्रकृति: स यत्र। द्यावा पृथिव्यो: पृथुता तथैव, व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि॥ ८॥ तवानवस्था परमार्थतत्त्वं, त्वया न गीत: पुनरागमश्च। दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषीर् विरुद्धवृत्तोऽपि समञ्जसस्त्वम्॥ ९॥ स्मर: सुदग्धो भवतैव तस्मिन्, नुद्धूलितात्मा यदि नाम शम्भु:। अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णु:, किं गृह्यते येन भवानजाग:॥ १०॥ स नीरजा: स्यादपरोऽघवान्वा, तद्दोषकीत्र्यैव न ते गुणित्वं। स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव!, स्तोकापवादेन जलाशयस्य॥११॥ कर्मस्थितिं जन्तुरनेक भूमिं, नयत्यमुं सा च परस्परस्य। त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ, जिनेन्द्र! नौनाविकयोरिवाख्य:॥१२॥ सुखाय दु:खानि गुणाय दोषान्, धर्माय पापानि समाचरन्ति। तैलाय बाला: सिकतासमूहं, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीया:॥१३॥ विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च। भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पर्यायनामानि तवैव तानि॥१४॥ चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं देव: कृतश्चेतसि येन सर्वम्। हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं सुखेन जीवत्यपि चित्तबाह्य:॥१५॥ त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी, स्वामीतिसंख्यानियतेरमीषाम् । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यं-, स्तेऽन्येऽपि चेद्वयाप्स्यदमूनपीदम्॥१६॥ नाकस्य पत्यु: परिकर्म रम्यं, नागम्यरूपस्य तवोपकारि। तस्यैव हेतु: स्वसुखस्य भानो-, रुद्विभ्रतच्छत्रमिवादरेण॥१७॥ क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेश: स चेत्किमिच्छा प्रतिकूलवाद:। क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते ॥१८॥ तुङ्गात्फलं यत्तदकिंचनाच्च प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादे:। निरम्भ - सोऽप्युच्चतमादिवाद्रेर्, नैकापि निर्याति धुनी पयोधे:॥ १९॥ त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं दध्रे यदिन्द्रो विनयेन तस्य। तत्प्रातिहार्यं भवत: कुतस्त्यं तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु॥ २०॥ श्रिया परं पश्यति साधु नि:स्व:, श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्य:। यथा प्रकाशस्थितमन्धकार-, स्थायीक्षतेऽसौ न तथा तम:स्थम्॥ २१॥ स्ववृद्धि - नि:श्वासनिमेषभाजि प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूढ:। किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोध-, स्वरूपमध्यक्षमवैति लोक:॥२२॥ तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव!, त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य। तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं, पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति॥ २३॥ दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूता:, सुरासुरास्तस्य महान्स लाभ:। मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोद्धु- र्मूलस्य नाशो बलवद्विरोध:॥ २४॥ मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्तेश् , चतुर्गतीनां गहनं परेण। सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन त्वं मा कदाचिद्भुजमालुलोक:॥ २५॥ स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भ:, कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विघात: । संसारभोगस्य वियोगभावो विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये॥२६॥ अजानतस्त्वां नमत: फलं य- त्तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति। हरिन्मणिं काचधिया दधानस्, तं तस्य बुद्ध्या वहतो न रिक्त:॥२७॥ प्रशस्तवाचश्चतुरा: कषायैर्, दग्धस्य देवव्यवहारमाहु:। गतस्य दीपस्य हि नन्दितत्वं, दृष्टं कपालस्य च मङ्गलत्वम्॥ २८॥ नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं , हितं वचस्ते निशमय्य वक्तु:। निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण मुक्त: सुगम: स्वरेण॥ २९॥ न क्वापि वाञ्छा ववृते च वाक्ते, काले क्व चित्कोऽपि तथा नियोग:। न पूरयाम्यम्बुधिमित्युदंशु:, स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ॥३०॥ गुणा गभीरा: परमा: प्रसन्ना, बहुप्रकारा बहवस्तवेति। दृष्टोऽयमन्त: स्तवनेन तेषां, गुणो गुणानां किमत: परोऽस्ति॥ ३१॥ स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि। स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम्॥३२॥ ततस्त्रिलोकीनगराधिदेवं , नित्यं परं ज्योतिरनन्तशक्तिम्। अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं नमाम्यहं वन्द्यमवन्दितारम्॥३३॥ अशब्दमस्पर्शमरूपगन्धं त्वां नीरसं तद्विषयावबोधम्। सर्वस्य मातारममेयमन्यैर्, जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥३४॥ अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंघ्यं , निष्किञ्चनं प्रार्थितमर्थवद्भि:। विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं, पतिं जनानां शरणं व्रजामि॥ ३५॥ त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत्। प्राग्गण्डशैल: पुनरद्रिकल्प: पश्चान्न मेरु: कुलपर्वतोऽभूत्॥ ३६॥ स्वयं प्रकाशस्य दिवा निशा वा, न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम्। न लाघवं गौरवमेकरूपं, वन्दे विभुं कालकलामतीतम्॥ ३७॥ इति स्तुतिं देव विधाय दैन्या- द्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि। छाया तरुं संश्रयत: स्वत: स्यात्, कश्छायया याचितयात्मलाभ:॥३८॥ अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध- स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम्। करिष्यते देव तथा कृपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरि:॥ ३९॥ वितरति विहिता यथाकथञ्चि- ज्जिन विनताय मनीषितानि भक्ति:। त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषा- द्दिशति सुखानि यशो धनंजयं च॥४०॥
  13. शिवं शुद्धबुद्धं परं विश्वनाथं, न देवो न बंधुर्न कर्मा न कर्ता। न अङ्गं न सङ्गं न स्वेच्छा न कायं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ १॥ न बन्धो न मोक्षो न रागादिदोष:, न योगं न भोगं न व्याधिर्न शोक:। न कोपं न मानं न माया न लोभं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ २॥ न हस्तौ न पादौ न घ्राणं न जिह्वा, न चक्षुर्न कर्ण न वक्त्रं न निद्रा। न स्वामी न भृत्यो न देवो न मत्र्य:, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ३॥ न जन्म न मृत्यु: न मोहं न चिंता, न क्षुद्रो न भीतो न काश्र्यं न तन्द्रा। न स्वेदं न खेदं न वर्णं न मुद्रा, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ४॥ त्रिदण्डे त्रिखण्डे हरे विश्वनाथं, हृषी-केशविध्वस्त-कर्मादिजालम्। न पुण्यं न पापं न चाक्षादि-गात्रं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ५॥ न बालो न वृद्धो न तुच्छो न मूढो, न स्वेदं न भेदं न मूर्तिर्न स्नेह:। न कृष्णं न शुक्लं न मोहं न तंद्रा, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ६॥ न आद्यं न मध्यं न अन्तं न चान्यत्, न द्रव्यं न क्षेत्रं न कालो न भाव:। न शिष्यो गुरुर्नापि हीनं न दीनं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ७॥ इदं ज्ञानरूपं स्वयं तत्त्ववेदी, न पूर्णं न शून्यं न चैत्यस्वरूपम्। न चान्यो न भिन्नं न परमार्थमेकं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्॥ ८॥ आत्माराम - गुणाकरं गुणनिधिं, चैतन्यरत्नाकरं, सर्वे भूतगता-गते सुखदुखे, ज्ञाते त्वयि सर्वगे, त्रैलोक्याधिपते स्वयं स्वमनसा, ध्यायन्ति योगीश्वरा:, वंदे तं हरिवंशहर्ष-हृदयं, श्रीमान् हृदाभ्युद्यताम्॥ ९॥
  14. (सांसारिक विपत्तिओ दूर करी आध्यात्मिक संपत्ति प्रदान करनारी, सप्त भयोनुं निवारण करी अभय बनावनारी, महा अनुष्ठान स्वरुप आत्मरक्षा विविध मुद्राओथी करवा पूर्वक आपणी आजुबाजु वज्रमय किलो बनी रह्यो छे, एवी कल्पना करवी.) ॐ परमेष्ठि नमस्कारं, सारं नवपदात्मकं । आत्मरक्षाकरं वज्र-पञ्जराभं स्मराम्यहम् ।। ॐ नमो अरिहंताणं, शिरस्कं शिरसि स्थितम् । ॐ नमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपटं वरम् ।। ॐ नमो आयरियाणं, अङ्गरक्षाऽतिशायिनी । ॐ नमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तयोर्दृढम् ।। ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पादयोः शुभे । एसो पञ्च नमुक्कारो, शिला वज्रमयी तले ।। सव्वपावप्पासणो, वप्रो वज्रमयो बहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं, खादिराङ्गारखातिका ।। स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मङ्गलं । वप्रोपरि वज्रमयं, पिधानं देहरक्षणे ।। महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रवनाशिनी । परमेष्ठिपदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः ।। यश्चैवं कुरुते रक्षां, परमेष्ठिपदैः सदा । तस्य न स्याद् भयं व्याधि राधिश्चापि कदाचन ।।
  15. उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म-घण मुक्कं । विसहर विस णिण्णासं, मंगल कल्लाण आवासं ।।१।। अर्थ: प्रगाढ कर्म समूह से सर्वथा मुक्त, विषधरो के विष को नाश करने वाले, मंगल और कल्याण के आवास तथा उपसर्गों को हरने वाले भगवन पार्श्वनाथ के में वंदना करता हूँ । विसहर फुलिंगमंतं, कंठे धारेदि जो सया मणुवो । तस्स गह रोग मारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं ।।२।। अर्थ: विष को हरने वाले इस मन्त्ररुपी स्फुलिंग को जो मनुष्य सदेव अपने कंठ में धारण करता है, उस व्यक्ति के दुष्ट ग्रह, रोग बीमारी, दुष्ट, शत्रु एवं बुढापे के दुःख शांत हो जाते है । चिट्ठदु दुरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होदी । णर तिरियेसु वि जीवा, पावंति ण दुक्ख-दोगच्चं।।३।। अर्थ: हे भगवान्! आपके इस विषहर मन्त्र की बात तो दूर रहे, मात्र आपको प्रणाम करना भी बहुत फल देने वाला होता है । उससे मनुष्य और तिर्यंच गतियों में रहने वाले जीव भी दुःख और दुर्गति को प्राप्त नहीं करते है । तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि कप्पपायव सरिसे । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ।।४।। अर्थ: वे व्यक्ति आपको भलीभांति प्राप्त करने पर, मानो चिंतामणि और कल्पवृक्ष को पा लेते हैं, और वे जीव बिना किसी विघ्न के अजर, अमर पद मोक्ष को प्राप्त करते है । इअ संथुदो महायस!, भत्तिब्भरेण हिदयेण । ता देव! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ।।५।। अर्थ: हे महान यशस्वी! मैं इस लोक में भक्ति से भरे हुए हृदय से आपकी स्तुति करता हूँ! हे देव! जिन चन्द्र पार्श्वनाथ! आप मुझे प्रत्येक भाव में बोधि (रत्नत्रय) प्रदान करे । ओं अमरतरु कामधेणु चिन्तामणि कामकुम्भमादिया | सिरि पासणाह सेवाग्गहणे सव्वे वि दासततं ||६|| अर्थ: श्री पार्श्वनाथ भगवान् की सेवा ग्रहण कर लेने पर ओम, कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि रत्न, इच्छापूर्ति करने वाला कलश आदि सभी सुखप्रदाता कारण उस व्यक्ति के दासत्व को प्राप्त हो जाते हैं | उवसग्गहरं त्थोतं, कादुणं जेण संघकल्लाणं | करुणायरेण विहिदं, स भद्रबाहु गुरु जयदु ||७|| अर्थ: जिन करुणाकर आचार्य भद्रबाहु के संघ द्वारा संघ के कल्याणकारक यह उवसगर्हर स्तोत्र निर्मित किया गया हैं, वे गुरु भद्रबाहु सदा जयवन्त हों |
  16. तिजयपहुत्त पयासय, अट्ठमहापाडिहेर-जुत्ताणं । समयक्खित्तठिआणं, सरेमि चक्कं जिणिंदाणं ।।१।। पणवीसा य असिया, पनरस पन्नास जिणवर-समुहो । नासेउ सयल दुरिअं, भविआणं भत्ति-जुत्ताणं ।।२।। वीसा पणयाला विय, तीसा पन्नत्तरी जिणवरिंदा । गह-भूअ रक्ख-साइणि, घोरुवसग्गं पणासंतु ।।३।। सत्तरि पणतीसा विय, सट्ठी पंचेव जिणगणो एसो । वाहि-जल-जलण-हरि-करि, चोरारि-महाभयं हरउ ।।४।। पणपन्ना य दसेव य, पन्नट्ठी तहय चेव चालीसा । रक्खंतु मे सरीरं, देवासुर-पणमिआ सिद्धा ।।५।। ॐ हरहुंहः सरसुंस, हरहुंहः तहय चेव सरसुंसः । आलिहिय नाम-गब्भं, चक्कं किर सव्वओभद्दं ।।६।। ॐ रोहिणी पन्नति, वज्जसिंखला तह य वज्जअंकुसिया। चक्केसरी नरदत्ता, काली महाकाली तह गोरी ।।७।। गंधारी महज्जाला, माणवी वइरुट्ट तह य अच्छुत्ता । माणसि महमाणसिया, विज्जादेविओ रक्खंतु ।।८।। पंचदस-कम्मभूमिसु, उप्पनं सत्तरि जिणाण सयं । विविह-रयणाइ-वन्नो, वसोहिअं हरउ दुरिआइं ।।९।। चउतीस-अइसय-जुआ, अट्ठ-महापाडिहेर-कयसोहा । तित्थयरा गयमोहा, झाएअव्वा पयत्तेणं ।।१०।। ॐ वरकणय संखविद्दुम, मरगयघण-सन्निहं विगय मोहं । सत्तरिसयं जिणाणं, सव्वामर-पूइअं वंदे स्वाहा ।।११।। ॐ भवणवइ-वाणवंतर, जोइसवासि विमाणवासीअ । जे केवि दुट्ठ देवा, ते सव्वे उवसमंतु मम स्वाहा ।।१२।। चंदण-कप्पूरेणं, फलए लिहिऊण खालिअं पीअं । एगंतराइ-गह भूअ, साइणि-मुग्गं पणासेइ ।।१३।। इअ सत्तरिसयं जंतं, सम्मं मंतं दुवारि पडिलिहिअं । दुरिआरिविजयवंतं, निब्भंतं निच्च-मच्चेह ।।१४।।
  17. मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये॥ (आर्या गीतिका) त्रैकाल्यं द्रव्य-षट्कं, नवपदसहितं, जीव-षट्काय-लेश्या: पञ्चान्ये चास्तिकाया,व्रतसमिति-गति,-ज्ञान-चारित्र-भेदा:। इत्येतन्मोक्षमूलं, त्रिभुवन - महितै:, प्रोक्त - मर्हद्-भिरीशै: प्रत्येति श्रद्धधाति,स्पृशति च मतिमान् ,य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ 1॥ सिद्धे जयप्प-सिद्धे, चउव्विहारा-हणाफलं पत्ते। वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणा कमसो॥ 2॥ उज्जोवण-मुज्जवणं,णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं। दंसण-णाण चरित्तं,तवाण-माराहणा भणिया॥ 3॥ प्रथम अध्याय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:॥ 1॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्॥2॥ तन्निसर्गादधिगमाद् वा॥3॥ जीवाजीवा-स्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्॥4॥ नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यास:॥ 5॥ प्रमाण-नयै-रधिगम:॥ 6॥ निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानत:॥7॥ सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्प-बहुत्वैश्च॥ 8॥ मति-श्रुता-वधि-मन:पर्यय-केवलानि ज्ञानम्॥ 9॥ तत्प्रमाणे॥ 10॥ आद्ये परोक्षम्॥ 11॥ प्रत्यक्ष-मन्यत्॥ 12॥ मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ता-भिनि-बोध इत्य-नर्थान्तरम्॥ 13॥ तदिन्द्रिया-निन्द्रिय-निमित्तम्॥ 14॥ अव-ग्रहे-हावाय-धारणा:॥ 15॥ बहु-बहुविध-क्षिप्रानि:सृता-नुक्त-ध्रुवाणां सेतराणाम्॥ 16॥ अर्थस्य॥ 17॥ व्यञ्जनस्यावग्रह:॥ 18॥ न चक्षु-रनिन्द्रियाभ्याम्॥ 19॥ श्रुतं मति-पूर्वं द्व्यनेक-द्वादश-भेदम्॥20॥ भव-प्रत्ययोऽवधिर्देव-नारकाणाम्॥21॥ क्षयोपशम-निमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम्॥ 22॥ ऋजु-विपुलमती मन:पर्यय:॥ 23॥ विशुद्ध्य-प्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:॥ 24॥ विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधि-मन:पर्यययो: ॥ 25॥ मति-श्रुतयो-र्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व-पर्यायेषु॥26॥ रूपिष्ववधे:॥ 27॥ तदनन्त-भागे मन:पर्ययस्य॥28॥ सर्व-द्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य॥ 29॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना-चतुभ्र्य:॥ 30॥ मति-श्रुतावधयो विपर्ययश्च॥ 31॥ स-दसतो-रवि-शेषाद्यदृच्छोप-लब्धे-रुन्मत्तवत्॥ 32॥ नैगम-संग्रहव्यवहारर्जु-सूत्र-शब्द-समभि-रूढैवंभूता नया:॥ 33॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे प्रथमोऽध्याय:॥ १॥ द्वितीय अध्याय औप-शमिक-क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्व-मौदयिक-पारिणामिकौ च॥ 1॥ द्वि-नवाष्टा-दशैक-विंशति-त्रि-भेदा यथा-क्रमम्॥ 2॥ सम्यक्त्व-चारित्रे॥ 3॥ ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोप-भोग-वीर्याणि च॥ 4॥ ज्ञाना-ज्ञान-दर्शन-लब्धयश्-चतुस्त्रि-त्रि पञ्चभेदा: सम्यक्त्व-चारित्र-संयमासंयमाश्च॥ 5॥ गति-कषाय-लिङ्ग-मिथ्यादर्शना-ज्ञाना-संयता-सिद्ध-लेश्याश्-चतुश्-चतुस्त्र्ये-कैकैकैक-षड्भेदा:॥ 6॥ जीव-भव्या-भव्यत्वानि च॥ 7॥ उपयोगो लक्षणम्॥ 8॥ स द्विविधोऽष्ट-चतुर्भेद:॥ 9॥ संसारिणो मुक्ताश्च॥ 10॥ सम-नस्का-मनस्का:॥ 11॥ संसारिणस्त्रस-स्थावरा:॥12॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवन-स्पतय:स्थावरा:॥13॥द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:॥14॥ पञ्चेन्द्रियाणि॥ 15॥ द्विविधानि ॥16॥ निर्वृत्युप-करणे द्रव्येन्द्रियम्॥17॥ लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्॥18॥ स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षु: श्रोत्राणि॥19॥स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्दास्तदर्था:॥20॥ श्रुत-मनिन्द्रियस्य॥ 21॥ वनस्पत्यन्ताना-मेकम्॥ 22॥ कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादीना-मेकैक-वृद्धानि॥ 23॥ संज्ञिन: समनस्का:॥ 24॥ विग्रहगतौ कर्म-योग: ॥ 25॥ अनुश्रेणि गति:॥ 26॥ अविग्रहा जीवस्य॥ 27॥ विग्रहवती च संसारिण: प्राक् चतुभ्र्य:॥ 28॥ एक-समया-विग्रहा॥ 29॥ एकं द्वौ त्रीन्वानाहारक:॥ 30॥ सम्मूच्र्छन-गर्भोपपादा जन्म॥ 31॥ सचित्त-शीत-संवृता सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनय:॥ 32॥ जरायु-जाण्डज-पोतानां गर्भ:॥ 33॥ देव-नारकाणा-मुपपाद:॥ 34॥ शेषाणां सम्मूच्र्छनम्॥ 35॥ औदारिक-वैक्रियिका-हारक-तैजस-कार्मणानि शरीराणि॥36॥ परं परं सूक्ष्मम्॥37॥ प्रदेशतोऽसंख्येय-गुणं प्राक् तैजसात्॥ 38॥ अनन्त-गुणे परे॥ 39॥ अप्रतीघाते॥ 40॥ अनादि-सम्बन्धे च॥ 41॥ सर्वस्य॥ 42॥ तदादीनि भाज्यानि युगप-देकस्या-चतुभ्र्य:॥ 43॥ निरुप-भोग-मन्त्यम्॥ 44॥ गर्भ-सम्मूच्र्छनजमाद्यम्॥ 45॥ औपपादिकं वैक्रियिकम्॥ 46॥ लब्धि-प्रत्ययं च॥ 47॥ तैजस-मपि॥ 48॥ शुभं विशुद्ध-मव्याघाति चाहारकं प्रमत्त-संयतस्यैव॥ 49॥ नारक-सम्मू-च्र्छिनो नपुंसकानि॥ 50॥ न देवा:॥ 51॥ शेषास्त्रिवेदा:॥ 52॥ औपपादिक-चरमोत्तम-देहा-संख्येय-वर्षा-युषोऽनप-वत्र्यायुष:॥ 53॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे द्वितीयोऽध्याय:॥ २॥ तृतीय अध्याय रत्न-शर्करा-बालुका-पङ्क-धूम-तमो-महातम:-प्रभा-भूमयो घनाम्बु-वाता-काश-प्रतिष्ठा: सप्ता-धोऽध:॥ 1॥ तासु त्रिंशत्पञ्च-विंशति-पञ्चदश-दश-त्रि-पञ्चोनैक-नरक-शत-सहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम्॥ 2॥ नारका नित्या-शुभतर-लेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रिया:॥ 3॥ परस्परो-दीरित-दु:खा:॥ 4॥ संक्लिष्टासुरो-दीरित-दु:खाश्च प्राक्चतुथ्र्या:॥ 5॥ तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रय-स्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थिति:॥ 6॥ जम्बूद्वीप-लवणोदादय: शुभ-नामानो द्वीप-समुद्रा:॥7॥ द्वि-द्र्वि-र्विष्कम्भा: पूर्व-पूर्वपरिक्षेपिणो वलया-कृतय:॥ 8॥ तन्मध्ये मेरु-नाभि-र्वृत्तो योजन-शत-सहस्र-विष्कम्भो जम्बूद्वीप:॥9॥ भरत-हैमवत-हरि-विदेह-रम्यक-हैरण्य-वतैरा-वत-वर्षा: क्षेत्राणि॥ 10॥ तद्-विभाजिन: पूर्वा-परायता हिमवन्-महाहिमवन्-निषध-नील-रुक्मि-शिखरिणो वर्षधर-पर्वता:॥ 11॥ हेमार्जुन-तपनीय-वैडूर्य-रजत-हेममया:॥12॥ मणि-विचित्र-पाश्र्वा उपरि मूले च तुल्य-विस्तारा:॥ 13॥ पद्म-महापद्म-तिगिञ्छ-केशरि-महापुण्डरीक पुण्डरीका ह्रदास्तेषा - मुपरि ॥ 14॥ प्रथमो योजन-सहस्रायामस्तदर्ध विष्कम्भो ह्रद:॥15॥ दश-योजनावगाह:॥ 16॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करम्॥ 17॥ तद्-द्विगुण-द्विगुणा ह्रदा: पुष्कराणि च॥ 18॥ तन्-निवासिन्यो देव्य: श्री-ह्री-धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्म्य: पल्योपमस्थितय: ससामानिक-परिषत्का:॥19॥ गङ्गा-सिन्धु-रोहिद्रोहि-तास्या-हरिद्धरि-कान्ता-सीता-सीतोदा-नारी-नरकान्ता-सुवर्ण-रूप्यकूला-रक्तारक्तोदा: सरितस्तन्मध्यगा:॥ 20॥ द्वयोद्र्वयो: पूर्वा: पूर्वगा:॥ 21॥ शेषास्त्व-परगा:॥ 22॥ चतुर्दश-नदी-सहस्र-परिवृता गङ्गा-सिन्ध्वादयो नद्य:॥ 23॥ भरत: षड् विंशति-पञ्चयोजन-शत-विस्तार: षट्चैकोन-विंशति-भागा योजनस्य॥ 24॥ तद्द्विगुण-द्विगुण-विस्तारा वर्षधर-वर्षा विदेहान्ता:॥25॥ उत्तरा दक्षिणतुल्या:॥26॥ भरतैरावतयोर्वृद्धि-ह्रासौ षट्समयाभ्या -मुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्॥27॥ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:॥ 28॥एक-द्वि-त्रि-पल्योपम-स्थितयो हैमवतक-हारिवर्षक-दैव-कुरवका:॥ 29॥ तथोत्तरा: ॥ 30॥ विदेहेषु संख्येय-काला:॥ 31॥ भरतस्य विष्कम्भो जम्बू-द्वीपस्य नवति-शत-भाग:॥ 32॥ द्विर्धातकी-खण्डे॥33॥ पुष्कराद्र्धे च॥ 34॥ प्राङ् मानुषोत्तरान्मनुष्या:॥ 35॥ आर्या म्लेच्छाश्च॥ 36॥ भरतैरावत-विदेहा: कर्म-भूमयोऽन्यत्र देव-कुरूत्तर-कुरुभ्य:॥ 37॥ नृस्थिती परावरे त्रिपल्योप-मान्तर्मुहूर्ते॥ 38॥ तिर्यग्योनिजानां च॥ 39॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे तृतीयोऽध्याय:॥ ३॥ चतुर्थ अध्याय देवाश्चतुर्णिकाया:॥ 1॥ आदितस्-त्रिषु पीतान्त-लेश्या:॥ 2॥ दशाष्ट-पञ्च-द्वादश-विकल्पा: कल्पोपपन्न-पर्यन्ता:॥ 3॥इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिषदात्मरक्ष-लोक-पाला-नीक-प्रकीर्णका-भियोग्य-किल्विषिकाश्चैकश:॥ 4॥ त्रायस्त्रिंशलोक-पाल-वज्र्या व्यन्तर-ज्योतिष्का:॥ 5॥ पूर्वयोद्र्वीन्द्रा:॥6॥ काय-प्रवीचारा आ ऐशानात्॥ 7॥ शेषा: स्पर्श-रूप-शब्द-मन:प्रवीचारा:॥8॥ परेऽप्रवीचारा:॥ 9॥भवन-वासिनोऽसुरनाग-विद्युत्सुपर्णाग्नि-वातस्तनितोदधि-द्वीप- दिक्कुमारा:॥10॥ व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचा:॥11॥ ज्योतिष्का: सूर्या - चन्द्र-मसौ ग्रह-नक्षत्र-प्रकीर्णक-तारकाश्च॥ 12॥ मेरु-प्रदक्षिणा नित्य-गतयो नृलोके॥ 13॥ तत्कृत: काल-विभाग:॥ 14॥ बहिरवस्थिता:॥ 15॥ वैमानिका:॥ 16॥ कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च॥17॥ उपर्युपरि॥18॥ सौधर्मैशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरलान्तव-कापिष्ठ-शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रारेष्वानत-प्राणतयो-रारणा-च्युतयो र्नवसु ग्रैवेयकेषु विजय-वैजयन्त-जयन्ता-पराजितेषु सर्वार्थ-सिद्धौ च॥ 19॥ स्थिति-प्रभाव-सुख-द्युति-लेश्या-विशुद्धीन्द्रिया-वधि-विषयतोऽधिका:॥ 20॥ गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना:॥ 21॥ पीत-पद्म-शुक्ल-लेश्या द्वि-त्रिशेषेषु॥ 22॥ प्राग्ग्रैवेयकेभ्य: कल्पा:॥ 23॥ ब्रह्म-लोकालया लौकान्तिका:॥ 24॥ सारस्वता-दित्य-वह्न्यरुण-गर्दतोय-तुषिताव्याबाधा-रिष्टाश्च॥ 25॥ विजयादिषु द्विचरमा:॥26॥ औपपादिक-मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:॥ 27॥ स्थिति-रसुर-नाग-सुपर्ण-द्वीप-शेषाणां सागरोपम-त्रिपल्योपमाद्र्ध-हीन-मिता:॥ 28॥ सौधर्मैशानयो: सागरोपमे अधिके॥ 29॥ सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: सप्त॥ 30॥ त्रि-सप्त-नवैका-दश-त्रयोदश-पञ्चदशभि-रधिकानि तु॥ 31॥ आरणाच्युता-दूध्र्व-मेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च॥32॥ अपरा पल्योपममधिकम्॥ 33॥ परत: परत: पूर्वापूर्वानन्तरा॥ 34॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु॥ 35॥ दश-वर्ष-सहस्राणि प्रथमायाम्॥ 36॥ भवनेषु च॥ 37॥ व्यन्तराणां च॥ 3८॥ परा पल्योपम-मधिकम्॥ 39॥ ज्योतिष्काणां च॥ 40॥ तदष्ट-भागोऽपरा॥41॥ लौकान्तिकाना-मष्टौ सागरो-पमाणि सर्वेषाम्॥ 42॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे चतुर्थोऽध्याय:॥ ४॥ पञ्चम अध्याय अजीव-काया धर्मा-धर्मा-काश-पुद्गला:॥1॥ द्रव्याणि॥ 2॥ जीवाश्च॥3॥नित्या-वस्थितान्यरूपाणि॥4॥ रूपिण: पुद्गला:॥5॥ आ आकाशा-देक-द्रव्याणि॥6॥ निष्क्रियाणि च॥ 7॥ असंख्येया: प्रदेशा धर्मा-धर्मैक-जीवानाम्॥ 8॥ आकाशस्यानन्ता:॥9॥ संख्येया-संख्येयाश्च पुद्गलानाम्॥ 10॥ नाणो:॥11॥ लोकाकाशेऽवगाह:॥12॥ धर्मा-धर्मयो: कृत्स्ने॥ 13॥ एक-प्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम् ॥14॥ असंख्येय-भागादिषु जीवानाम्॥15॥ प्रदेश-संहार-विसर्पाभ्यां प्रदीपवत्॥16॥गति-स्थित्युपग्रहौ धर्मा-धर्मयो-रुपकार:॥17॥आकाशस्या-वगाह:॥ 18॥ शरीर-वाङ्मन: प्राणा-पाना: पुद्गलानाम्॥19॥ सुख-दु:ख-जीवित-मरणो-पग्रहाश्च॥ 20॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम्॥ 21॥ वर्तना-परिणाम-क्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य॥ 22॥ स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्त: पुद्गला:॥ 23॥ शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छाया-तपोद्योत-वन्तश्च॥ 24॥ अणव: स्कन्धाश्च॥ 25॥ भेद-संघातेभ्य: उत्पद्यन्ते॥26॥ भेदा-दणु:॥ 27॥ भेद-संघाताभ्यां चाक्षुष:॥ 28॥ सद्द्रव्य-लक्षणम्॥ 29॥ उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत्॥ 30॥ तद्भावाव्ययं नित्यम्॥ 31॥ अर्पिता-नर्पित-सिद्धे:॥ 32॥ स्निग्ध-रूक्षत्वाद् बन्ध:॥ 33॥ न जघन्य-गुणानाम्॥ 34॥ गुण-साम्ये सदृशानाम्॥ 35॥ द्व्यधिकादि-गुणानां तु॥36॥ बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च॥ 37॥ गुण-पर्ययवद् द्रव्यम्॥ 38॥ कालश्च॥ 39॥ सोऽनन्त-समय:॥ 40॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा: गुणा:॥ 41॥ तद्भाव: परिणाम:॥ 42॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे पञ्चमोऽध्याय:॥ ५॥ छठा अध्याय काय-वाङ् -मन: कर्म योग:॥ 1॥ स आस्रव:॥ 2॥ शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य॥ 3॥ सकषाया-कषाययो: साम्परायि -केर्या-पथयो:॥ 4॥ इन्द्रिय-कषाया-व्रतक्रिया: पञ्च चतु: पञ्च-पञ्चविंशति-संख्या: पूर्वस्य भेदा:॥ 5॥ तीव्र-मन्द-ज्ञाता-ज्ञात-भावाधि-करण-वीर्य-विशेषेभ्यस्तद्विशेष:॥ 6॥ अधिकरणं जीवा-जीवा:॥ 7॥ आद्यं संरम्भ-समा-रम्भा-रम्भ-योग-कृत-कारितानु-मत-कषाय-विशेषैस्-त्रिस्-त्रिस्-त्रिश्-चतुश्चैकश:॥8॥ निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्वि-चतुद्र्वि-त्रि-भेदा: परम्॥ 9॥ तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तराया-सादनोपघाता ज्ञान-दर्शनावरणयो: ॥ 10॥ दु:ख-शोक-तापा-क्रन्दन-वध-परिदेव-नान्यात्म - परोभय-स्थानान्य सद्वेद्यस्य॥11॥भूतव्रत्यनु-कम्पा-दान-सराग संयमादियोग: क्षान्ति: शौच-मिति सद्-वेद्यस्य॥ 12॥ केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवा-वर्णवादो दर्शन-मोहस्य ॥13॥कषायो-दयात्तीव्र-परिणामश्चारित्र-मोहस्य॥ 14॥ बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:॥15॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥ 16॥ अल्पारम्भ-परिग्रहत्वं मानुषस्य॥ 17॥ स्वभाव-मार्दवं च॥ 18॥ नि: शीलव्रतत्वं च सर्वेषाम्॥ 19॥ सराग-संयम-संयमासंयमा-कामनिर्जरा-बाल-तपांसि दैवस्य॥ 20॥ सम्यक्त्वं च॥ 21॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न:॥ 22॥ तद्विपरीतं शुभस्य॥ 23॥ दर्शन-विशुद्धि-र्विनय-सम्पन्नता शील-व्रतेष्वनती-चारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोप-योगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधु-समाधि-र्वैया-वृत्त्य-करण-मर्हदा-चार्य बहुश्रुत-प्रवचन भक्ति-रावश्यका-परि-हाणि-र्मार्ग-प्रभावना-प्रवचन-वत्सलत्व-मिति तीर्थकर-त्वस्य॥24॥ परात्म-निन्दा-प्रशंसे स-दसद्-गुणोच्छादनोद् -भावने च नीचै र्गोत्रस्य॥ 25॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य॥ 26॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य॥ 27॥ सप्तम अध्याय हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्र्रतम्॥ 1॥ देश-सर्वतोऽणु-महती॥ 2॥ तत्स्थैर्यार्थं भावना: पञ्च पञ्च॥ 3॥ वाङ् मनो-गुप्तीर्या-दान-निक्षेपण-समित्या-लोकित-पान-भोजनानि पञ्च॥ 4॥ क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्य-प्रत्या-ख्यानान्य-नुवीचि-भाषणं च पञ्च॥ 5॥ शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्यशुद्धि-सधर्मा-विसंवादा: पञ्च॥ 6॥ स्त्रीरागकथाश्रवण-तन्मनोहराङ्ग-निरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कार-त्यागा: पञ्च॥ 7॥ मनोज्ञा-मनोज्ञेन्द्रिय-विषय-राग-द्वेष-वर्जनानि पञ्च॥8॥ हिंसा-दिष्विहामुत्रापायावद्य-दर्शनम्॥ 9॥ दु:ख-मेव वा॥ 10॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्य-माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्य-माना-विनयेषु॥11॥ जगत्काय -स्वभावौ वा संवेग-वैराग्यार्थम्॥ 12॥ प्रमत्त-योगात्प्राण- व्यपरोपणं हिंसा॥13॥ असदभिधानमनृतम्॥ 14॥ अदत्ता-दानं स्तेयम्॥ 15॥ मैथुन-मब्रह्म॥ 16॥ मूच्र्छा परिग्रह:॥ 17॥ नि:शल्योव्रती॥18॥ अगार्यनगारश्च॥19॥ अणुव्रतोऽगारी ॥20॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक-प्रोषधोपवासो - पभोगपरिभोग-परिमाणा-तिथि-संविभाग-व्रत-सम्पन्नश्च ॥ 21॥ मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता॥ 22॥ शङ्का-कांक्षा-विचिकित्सान्यदृष्टि-प्रशंसासंस्तवा: सम्यग्दृष्टे-रतिचारा:॥ 23॥ व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्॥ 24॥ बन्ध-वध-च्छेदाति-भारारोपणान्न-पाननिरोधा:॥ 25॥ मिथ्योपदेश-रहोभ्याख्यान-कूट-लेख-क्रियान्यासाप-हार-साकारमन्त्र-भेदा:॥ 26॥ स्तेन-प्रयोग-तदा-हृता-दान-विरुद्ध-राज्यातिक्रमहीनाधिक-मानोन्मान-प्रतिरूपक-व्यवहारा:॥ 27॥ परविवाह-करणेत्वरिका-परिगृहीता-परिगृहीता-गमना-नङ्गक्रीडा-काम-तीव्राभिनिवेशा:॥ 28॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्य-दासी-दास-कुप्य-प्रमाणातिक्रमा:॥29॥ ऊध्र्वा-धस्तिर्यग्व्यति-क्रम-क्षेत्रवृद्धि -स्मृत्यन्तराधानानि॥30॥आनयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्द-रूपा-नुपात-पुद्गल-क्षेपा:॥ 31॥ कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्या-समी-क्ष्याधिकरणोपभोग-परिभोगा-नर्थक्यानि॥32॥ योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि॥33॥ अप्रत्यवेक्षिता -प्रमार्जितोत्सर्गादान-संस्तरोपक्रमणा-नादर-स्मृत्यनुप-स्थानानि॥34॥ सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषव-दु:पक्वाहारा:॥35॥ सचित्तनिक्षेपापिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमा:॥ 36॥ जीवित-मरणाशंसामित्रा-नुराग-सुखानुबन्धनिदानानि॥37॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्॥ 38॥ विधिद्रव्यदातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेष:॥ 39॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे सप्तमोऽध्याय:॥ ७॥ अष्टम अध्याय मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्ध-हेतव: ॥1॥ सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गला-नादत्ते स बन्ध:॥ 2॥ प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास् तद्विधय:॥ 3॥ आद्यो ज्ञान-दर्शना-वरण-वेदनीय-मोहनी-यायु-र्नाम-गोत्रान्तराया:॥ 4॥ पञ्च-नव-द्व्यष्टा-विंशति-चतुद्र्वि-चत्वारिंशद्-द्वि-पञ्च-भेदा यथाक्रमम्॥ 5॥ मति-श्रुता-वधि-मन:पर्यय-केवलानाम्॥ 6॥ चक्षु-रचक्षु-रवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यान-गृद्धयश्च॥ 7॥ स-दसद्-वेद्ये॥ 8॥ दर्शन-चारित्र-मोहनीया-कषाय-कषाय-वेदनीयाख्यास्-त्रि-द्वि-नव-षोडशभेदा: सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्य-कषाय-कषायौ-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक -वेदा अनन्तानु-बन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकश: क्रोध-मान-माया-लोभा:॥ 9॥ नारक-तैर्यग्योन-मानुष-दैवानि॥10॥ गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बंधन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गंध-वर्णानु-पूव्र्यगुरु-लघूपघात-परघाता-तपो-द्योतोच्छ्वास-विहायोगतय: प्रत्येक-शरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म -पर्याप्ति-स्थिरादेय-यश:कीर्ति-सेतराणि तीर्थकरत्वं च॥ 11॥ उच्चैर्नीचैश्च॥12॥ दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणाम्॥ 13॥ आदितस्-तिसृणा-मन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम-कोटी-कोट्य: परा स्थिति:॥ 14॥ सप्तति-र्मोहनीयस्य॥ 15॥विंशति-र्नाम-गोत्रयो:॥16॥ त्रयस्-त्रिंशत्सागरोप -माण्यायुष:॥ 17॥ अपरा द्वादश-मुहूर्ता वेदनीयस्य॥ 18॥ नाम-गोत्रयो-रष्टौ॥ 19॥ शेषाणा-मन्तर्मुहूर्ता:॥ 20॥ विपाकोऽनुभव:॥ 21॥ स यथानाम॥ 22॥ ततश्च निर्जरा॥ 23॥ नाम-प्रत्यया: सर्वतो योग-विशेषात् सूक्ष्मैक-क्षेत्रा-वगाहस्थिता: सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशा:॥24॥ सद्वेद्य-शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्॥ 25॥ अतोऽन्यत्पापम्॥ 26॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे अष्टमोऽध्याय:॥ ८॥ नवम अध्याय आस्रव-निरोध: संवर:॥1॥ स गुप्ति-समिति-धर्मा-नुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै:॥ 2॥ तपसा निर्जरा च॥ 3॥ सम्यग्योग-निग्रहो गुप्ति:॥4॥ ईर्याभाषैषणा-दान-निक्षेपोत्सर्गा: समितय:॥5॥उत्तम-क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागा-किञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म:॥6॥ अनित्या-शरण-संसारैकत्वान्यत्वा-शुच्यास्रव संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वा-ख्या-तत्वानु-चिन्तन-मनुप्रेक्षा:॥ 7॥ मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्या: परीषहा:॥8॥ क्षुत्पिपासा -शीतोष्ण-दंश-मशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या-क्रोश-वध-याचना-लाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कार-पुरस्कार-प्रज्ञाज्ञाना-दर्शनानि॥9॥ सूक्ष्म-साम्पराय -छद्मस्थ-वीत-रागयोश्चतुर्दश॥10॥ एकादश जिने॥ 11॥ बादरसाम्पराये सर्वे॥12॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥ 13॥ दर्शन-मोहान्तराययोरदर्शना-लाभौ॥14॥ चारित्र-मोहे नाग्न्या-रति-स्त्री-निषद्या-क्रोश-याचना-सत्कार-पुरस्कारा:॥15॥ वेदनीये शेषा:॥16॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशते:॥ 17॥सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धि-सूक्ष्म साम्पराय-यथाख्यात-मिति चारित्रम्॥ 18॥ अनशनाव-मौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रस-परित्याग-विविक्त-शय्यासन -कायक्लेशा बाह्यं तप:॥19॥ प्रायश्िचत्त-विनय-वैयावृत्त्य -स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरं॥ 20॥ नव-चतुर्दश-पञ्च-द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात्॥ 21॥ आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोप-स्थापना:॥22॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचारा:॥23॥ आचार्यो - पाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-सङ्घ-साधु-मनोज्ञानाम्॥24॥ वाचना-पृच्छनानु-प्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशा: ॥ 25॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्यो: ॥ 26॥ उत्तमसंहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यान-मान्तर्मुहूर्तात्॥ 27॥ आर्त-रौद्र-धम्र्य-शुक्लानि॥ 28॥ परे मोक्ष-हेतू॥ 29॥ आर्त-ममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार:॥ 30॥ विपरीतं मनोज्ञस्य॥ 31॥ वेदनायाश्च॥ 32॥ निदानं च॥ 33॥ तदविरत-देशविरत-प्रमत्त-संयतानाम्॥ 34॥ हिंसानृत-स्तेय-विषय-संरक्षणेभ्यो रौद्र-मविरत-देशविरतयो:॥ 35॥ आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धम्र्यम्॥ 36॥ शुक्ले चाद्ये पूर्वविद:॥ 37॥ परे केवलिन:॥ 38॥ पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्म-क्रिया-प्रति-पाति-व्यु-परत-क्रिया-निवर्तीनि॥ 39॥ त्र्येक-योग-काय-योगा-योगानाम्॥ 40॥ एकाश्रये सवितर्क-वीचारे पूर्वे॥ 41॥ अवीचारं द्वितीयम्॥ 42॥ वितर्क: श्रुतम् ॥ 43॥ वीचारोऽर्थ-व्यञ्जनयोग- संक्रान्ति:॥44॥ सम्यग्दृष्िट-श्रावक-विरतानन्त-वियोजक -दर्शनमोह-क्षपकोप-शमकोपशान्त-मोह क्षपक-क्षीण मोह-जिना: क्रमशोऽसंख्येयगुण-निर्जरा:॥ 45॥ पुलाक-बकुश-कुशील-निग्र्रन्थ-स्नातका: निग्र्रन्था:॥ 46॥ संयम-श्रुतप्रतिसेवना-तीर्थ-लिङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पत: साध्या:॥ 47॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे नवमोऽध्याय:॥ ९॥ दशम अध्याय मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्॥ 1॥ बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्ष:॥ 2॥ औपशमिकादि-भव्यत्वानां च॥ 3॥ अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य:॥ 4॥ तदनन्तर-मूध्र्वं गच्छत्या-लोकान्तात्॥5॥ पूर्व-प्रयोगा-दसङ्गत्वाद्-बन्धच् - छेदात्तथा-गति-परिणामाच्च॥6॥ आविद्ध कुलाल -चक्रवद्-व्यपगतलेपालाम्बु-वदेरण्डबीज-वदग्िन शिखावच्च॥ 7॥ धर्मा-स्तिकायाभावात्॥ 8॥ क्षेत्र-काल-गति-लिङ्ग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधित-ज्ञाना-वगाहनान्तर-संख्याल्प-बहुत्वत: साध्या:॥ 9॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे दशमोऽध्याय:॥ १॥ अक्षर-मात्र-पद-स्वर-हीनं, व्यञ्जन-संधि-विवर्जित-रेफम्। साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे॥ 1॥ दशाध्याये परिच्छिन्ने, तत्त्वार्थे पठिते सति। फलं स्या-दुपवासस्य, भाषितं मुनिपुङ्गवै:॥ 2॥ तत्त्वार्थ-सूत्र-कर्तारं, गृद्ध-पिच्छोप-लक्षितम्। वन्दे गणीन्द्र-संजात-मुमास्वामी-मुनीश्वरम्॥ 3॥
  18. श्री ऋषभजिनस्तवनम् वंशस्थ छन्द: स्वयम्भुवा भूत-हितेन भूतले, समञ्जस-ज्ञान-विभूति-चक्षुषा। विराजितं येन विधुन्वता तम:, क्षपाकरेणेव गुणोत्करै: करै:॥ १॥ प्रजापति र्य: प्रथमं जिजीविषू: शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा:। प्रबुद्धतत्त्व: पुनरद्भुतोदयो, ममत्वतो निर्विविदे विदांवर:॥ २॥ विहाय य: सागर-वारि-वाससं, वधू-मिवेमां वसुधा-वधू सतीम्। मुमुक्षु-रिक्ष्वाकु-कुलादि-रात्मवान्, प्रभु: प्रवव्राज सहिष्णु-रच्युत:॥ ३॥ स्व-दोष-मूलं स्व-समाधि-तेजसा, निनाय यो निर्दय-भस्म-सात्-क्रियाम्। जगाद तत्त्वं जगतेऽर्थिनेऽञ्जसा, बभूव च ब्रह्म-पदा-मृतेश्वर:॥ ४॥ स विश्व-चक्षुर्वृषभोऽर्चित: सतां, समग्र-विद्यात्म-वपु र्निरञ्जन:। पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो, जिनो जित-क्षुल्लक-वादि-शासन:॥ ५॥ श्रीअजितजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: यस्य प्रभावात् त्रिदिवच्युतस्य, क्रीडास्वपि क्षीव-मुखार-विन्द:। अजेय-शक्ति-र्भुवि बन्धुवर्गश्, चकार नामाऽजित इत्यबन्ध्यम् ॥ 6॥ अद्यापि यस्याऽजित-शासनस्य, सतां प्रणेतु: प्रतिमङ्गलार्थम्। प्रगृह्यते नाम परं पवित्रं, स्व-सिद्धि-कामेन जनेन लोके ॥ 7॥ य: प्रादुरासीत् प्रभु-शक्ति-भूम्ना, भव्या-शया-लीन-कलङ्क-शान्त्यै। महा-मुनि र्मुक्त -घनोप-देहो, यथारविन्दाभ्यु-दयाय भास्वान्॥ 8॥ येन प्रणीतं पृथु-धर्म-तीर्थं, ज्येष्ठं जना: प्राप्य जयन्ति दु:खम्। गाङ्गं ह्रदं चन्दन-पङ्क-शीतं, गज-प्रवेका इव घर्म-तप्ता:॥ 9॥ स ब्रह्म-निष्ठ: सम-मित्र-शत्रुर्, विद्या-विनिर्वान्त-कषाय-दोष:। लब्धात्म-लक्ष्मी-रजितो-जितात्मा, जिन-श्रियं मे भगवान् विधत्ताम्॥ 10॥ श्रीशम्भवजिनस्तवनम् इन्द्रवज्रा छन्द: त्वं शम्भव: संभव-तर्ष-रोगै:, संतप्य-मानस्य जनस्य लोके। आसी-रिहा-कस्मिक एव वैद्यो, वैद्यो यथाऽनाथ-रुजां प्रशान्त्यै॥ 11॥ अनित्य-मत्राण-महं क्रियाभि:, प्रसक्त-मिथ्याऽध्य-वसाय-दोषम्। इदं जगज्-जन्म-जरान्त-कार्तं, निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वम्॥ १२॥ शत-ह्रदोन्मेष-चलं हि सौख्यं, तृष्णा-मयाप्यायन-मात्र-हेतु:। तृष्णाभि-वृद्धिश्च तपत्यजस्रं, तापस्तदायासय-तीत्यवादी:॥ 13॥ बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्ते:। स्याद्वादिनो नाथ! तवैव युक्तं, नैकान्त-दृष्टेस्त्वमतोऽसि शास्ता॥ 14॥ शक्रोऽप्य-शक्तस्तव पुण्यकीर्ते: स्तुत्यां प्रवृत्त: किमु मादृशोऽज्ञ:। तथापि भक्त्या स्तुत-पाद-पद्मो, ममार्य! देया: शिव-ताति-मुच्चै:॥ 15॥ श्रीअभिनन्दनजिनस्तवनम् वंशस्थ छन्द: गुणाभिनन्दा-दभिनन्दनो भवान्, दयावधूं क्षान्ति-सखी-मशिश्रियत्। समाधि-तन्त्रस्तदु-पोपपत्तये, द्वयेन नैग्र्रन्थ्यगुणेन चायुजत्॥ 16॥ अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि च, ममेद-मित्याभिनिवेशिक-ग्रहात्। प्रभंगुरे स्थावर-निश्चयेन च, क्षतं जगत्-तत्त्वमजिग्रहद्-भवान्॥ 17॥ क्षुदादि-दु:ख-प्रतिकारत: स्थितिर्, न चेन्द्रियार्थ-प्रभवाल्प-सौख्यत:। ततो गुणो नास्ति च देह-देहिनो- रितीद-मित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत्॥ 18॥ जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्ध-दोषतो, भया-दकार्येष्विह न प्रवर्तते। इहाऽप्य-मुत्राप्यनुबन्ध-दोषवित्, कथं सुखे संसजतीति चाऽब्रवीत्॥19॥ स चानुबन्धोऽस्य जनस्य तापकृत्, तृषोऽभिवृद्धि:, सुखतो न च स्थिति:। इति प्रभो! लोकहितं यतो मतं, ततो भवानेव गति: सतां मत:॥२०॥ श्रीसुमतिजिनजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: अन्वर्थ-संज्ञ: सुमति-र्मुनिस्त्वं, स्वयं मतं येन सुयुक्ति-नीतम्। यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति, सर्व-क्रिया-कारक-तत्त्व-सिद्धि:॥ 21॥ अनेक-मेकं च तदेव तत्त्वं, भेदान्वय-ज्ञान-मिदं हि सत्यम्। मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे, तच्छेष-लोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम्॥ 22॥ सत: कथञ्चित् तदसत्त्व-शक्ति:, खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम्। सर्व-स्वभाव-च्युत-मप्रमाणं, स्व-वाग्-विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत्॥२३॥ न सर्वथा नित्यमुदेत्य-पैति, न च क्रिया-कारक-मत्र युक्तम्। नैवा-सतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तम:पुद्गल-भावतोऽस्ति॥24॥ विधि-र्निषेधश्च कथञ्चिदिष्टौ, विविक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था। इति प्रणीति: सुमतेस्तवेयं, मति-प्रवेक: स्तुवतोऽस्तु नाथ!॥ 25॥ श्रीपद्मप्रभजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: पद्मप्रभ: पद्म-पलाश-लेश्य:, पद्मा-लया-लिङ्गित-चारु-मूर्ति:। बभौ भवान् भव्य-पयो-रुहाणां, पद्माकराणा-मिव पद्म-बन्धु:॥ 26॥ बभार पद्मां च सरस्वतीं च, भवान् पुरस्तात् प्रति-मुक्ति-लक्ष्म्या:। सरस्वती-मेव समग्र-शोभां, सर्वज्ञ-लक्ष्मीं ज्वलितां विमुक्त:॥27॥ शरीर-रश्मि-प्रसर: प्रभोस्ते, बालार्क-रश्मिच्छवि-रालि-लेप। नरा-मरा-कीर्ण-सभां प्रभावच्, छैलस्य पद्माभ-मणे: स्व-सानुम्॥ 28॥ नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं, सहस्र-पत्राम्बुज-गर्भ-चारै:। पादाम्बुजै: पातित-मार-दर्पो, भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै॥29॥ गुणाम्बुधे र्विप्रुष- मप्यजस्रं, नाखण्डल: स्तोतु-मलं तवर्षे:। प्रागेव मादृक् किमु-ताति भक्तिर्, मां बाल-माला-पय-तीदमित्थम्॥30॥ श्रीसुपाश्र्वजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: स्वास्थ्यं यदाऽऽत्यन्तिक-मेष पुंसां, स्वार्थो न भोग: परिभङ् गु-रात्मा। तृषोऽनुषङ्गान् न च तापशान्ति-, रितीद-माख्याद् भगवान् सुपाश्र्व:॥31॥ अजङ्गमं जङ्गमनेय-यन्त्रं, यथा तथा जीव-धृतं शरीरम्। बीभत्सु पूति-क्षयि-तापकं च, स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्व-माख्य:॥32॥ अलंघ्य-शक्ति-र्भवितव्य-तेयं, हेतु-द्वया-विष्कृत-कार्य-लिङ्गा। अनीश्वरो जन्तु-रहं-क्रियात्र्त:, संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी:॥33॥ बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नाऽस्य लाभ:। तथापि बालो भय-काम-वश्यो, वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादी:॥34॥ सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता, मातेव बालस्य हिताऽनुशास्ता। गुणावलोकस्य जनस्य नेता, मयापि भक्त्या परिणूयसेऽद्य॥ ३५॥ श्री चन्द्रप्रभजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: चन्द्रप्रभं चन्द्र-मरीचि-गौरं, चन्द्रं द्वितीयं जगतीव कान्तम्। वन्देऽभिवन्द्यं महता-मृषीन्द्रं, जिनं जित-स्वान्त-कषाय-बन्धम्॥36॥ यस्याङ्ग-लक्ष्मी-परिवेष-भिन्नं, तमस्तमोऽरेरिव रश्मि-भिन्नम्, ननाश बाह्यं बहुमानसं च, ध्यान-प्रदीपातिशयेन भिन्नम्॥37॥ स्व-पक्ष-सौस्थित्य-मदाऽवलिप्ता, वाक्-सिंह-नादै-र्विमदा बभूवु:। प्रवादिनो यस्य मदाद्र्र-गण्डा, गजा यथा केसरिणो निनादै:॥38॥ य: सर्वलोके परमेष्ठिताया:, पदं बभूवाद्भुत- कर्म-तेजा:। अनन्त-धामाक्षर-विश्व- चक्षु:, समन्त- दु:ख- क्षय-शासनश्च॥३९॥ स चन्द्रमा भव्य-कुमुद्-वतीनां, विपन्न-दोषाभ्र-कलङ्क-लेप:। व्याकोश-वाङ् -न्याय-मयूख-माल:, पूयात् पवित्रो भगवान् मनो मे॥४०॥ श्रीसुविधिजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेधि तत्त्वं, प्रमाण-सिद्धं त-दतत्-स्वभावम्। त्वया प्रणीतं सुविधे! स्वधाम्ना, नैतत्समालीढ-पदं त्वदन्यै:॥41॥ तदेव च स्यान् न तदेव च स्यात्, तथाप्रतीतेस्तव तत्कथञ्चित्। नात्यन्त-मन्यत्व-मनन्यता च, विधेर्निषेधस्य च शून्य-दोषात्॥ 42॥ नित्यं तदे-वेद-मिति प्रतीतेर्, न नित्य-मन्यत्, प्रतिपत्ति-सिद्धे:। न तद्विरुद्धं बहि-रन्तरङ्ग- निमित्त-नैमित्तिक-योगतस्ते॥43॥ अनेक-मेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या। आकाङ्क्षिण: स्यादिति वै निपातो, गुणानपेक्षे नियमेऽपवाद:॥44॥ गुण-प्रधानार्थ-मिदं हि वाक्यं, जिनस्य ते तद् द्विषता-मपथ्यम्। ततोऽभिवन्द्यं जगदीश्वराणां, ममापि साधोस्तव पाद-पद्मम्॥45॥ श्रीशीतलजिनस्तवनम् वंशस्थ छन्द: न शीतलाश्-चन्दन- चन्द्र- रश्मयो, न गाङ्गमम्भो न च हार-यष्टय:। यथा मुनेस्तेऽनघ- वाक्य- रश्मय:, शमाम्बु-गर्भा: शिशिरा-विपश्चिताम्॥ 46॥ सुखाभि-लाषा-नल-दाह-मूच्र्छितं, मनो निजं ज्ञान-मया-मृताम्बुभि:। व्यदिध्य-पस्त्वं विष-दाह-मोहितं, यथा भिषग्मन्त्रगुणै: स्व-विग्रहम्॥ 47॥ स्व-जीविते काम-सुखे च तृष्णया, दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजा:। त्वमार्य नक्तंदिव-मप्रमत्तवा- नजागरे-वात्म-विशुद्ध-वत्र्मनि॥48॥ अपत्य-वित्तोत्तर-लोक-तृष्णया, तपस्विन: केचन कर्म कुर्वते। भवान् पुन र्जन्म-जरा-जिहासया, त्रयीं प्रवृत्तिं समधी-रवारुणत्॥49॥ त्व-मुत्तम- ज्योति-रज: क्व निर्वृत:, क्व ते परे बुद्धि-लवोद्धव-क्षता:। तत: स्व-नि:श्रेयस-भावना-परैर्, बुध-प्रवेकै र्जिन-शीत-लेड्यसे॥ 50॥ श्री श्रेयोजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: श्रेयान् जिन: श्रेयसि वत्र्मनीमा:, श्रेय: प्रजा: शास-दजेय-वाक्य:। भवांश्चकासे भुवन-त्रयेऽस्मिन्, नेको यथा वीत-घनो विवस्वान्॥51॥ विधि र्विषक्त-प्रतिषेध-रूप:, प्रमाण-मत्रान्यतरत्प्रधानम्। गुणोऽपरो मुख्यनियाम-हेतुर्, नय: स दृष्टान्त-समर्थनस्ते॥52॥ विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो, गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते। तथारि-मित्रानु-भयादि-शक्तिर्, द्वया-वधि: कार्य-करं हि वस्तु॥53॥ दृष्टान्त-सिद्धा-वुभयो-र्विवादे, साध्यं प्रसिद्ध्येन् न तु तादृगस्ति। यत्सर्वथैकान्त-नियामि-दृष्टं, त्वदीय दृष्टि-र्विभवत्यशेषे॥54॥ एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धिर्, न्यायेषुभि र्मोहरिपुं निरस्य। असि स्म कैवल्य-विभूति-सम्राट्, ततस्त्व-मर्हन्नसि मे स्तवार्ह:॥55॥ श्री वासुपूज्यजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: शिवासु पूज्योऽभ्युदय-क्रियासु, त्वं वासुपूज्यस् त्रिदशेन्द्र-पूज्य:। मयापि पूज्योऽल्पधिया मुनीन्द्र!, दीपार्चिषा किं तपनो न पूज्य:॥56॥ न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ! विवान्त-वैरे। तथापि ते पुण्य-गुणस्मृति र्न:, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्य:॥ 57॥ पूज्यं जिनं त्वाऽर्चयतो जनस्य, सावद्य-लेशो बहु-पुण्य-राशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीत-शिवाम्बु-राशौ॥ 58॥ यद्-वस्तु बाह्यं गुण-दोष-सूतेर्, निमित्त-मभ्यन्तर-मूल-हेतो:। अध्यात्म-वृत्तस्य तदङ्ग-भूत-. मभ्यन्तरं केवल-मप्यलं ते॥ 59॥ बाह्ये-तरो-पाधि-समग्र-तेयं, कार्येषु ते द्रव्य-गत: स्वभाव:। नैवाऽन्यथा मोक्ष-विधिश्च पुंसां, तेनाऽभि-वन्द्यस्त्व-मृषि-र्बुधानाम्॥ 60॥ श्रीविमलजिनस्तवनम् वंशस्थ छन्द: य एव नित्य-क्षणिकादयो नया, मिथोऽनपेक्षा: स्व-पर-प्रणाशिन:। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने:, परस्परेक्षा: स्व-परोपकारिण:॥ 61॥ यथैकश: कारक-मर्थ-सिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्व-सहाय-कारकम्। तथैव सामान्य-विशेष-मातृका, नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य-कल्पत:॥62॥ परस्परेक्षाऽन्वय-भेद-लिङ्गत:, प्रसिद्ध-सामान्य-विशेषयोस्तव। समग्रताऽस्ति स्व-परावभासकं, यथा प्रमाणं भुवि बुद्धि-लक्षणम्॥63॥ विशेष्य-वाच्यस्य विशेषणं वचो, यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत्। तयोश्च सामान्य-मति-प्रसज्यते, विवक्षितात्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम्॥ 64॥ नयास्तव स्यात्पद-सत्य-लाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोह-धातव:। भवन्त्य-भिप्रेत-गुणा यतस्ततो, भवन्तमार्या: प्रणता हितैषिण:॥65॥ श्रीअनन्तजिनस्तवनम् वंशस्थ छन्द: अनन्त-दोषा-शय-विग्रहो ग्रहो, विषङ्गवान् मोह-मयश्चिरं हृदि। यतो जितस्तत्त्व-रुचौ प्रसीदता, त्वया ततोऽभू र्भगवा-ननन्तजित्॥66॥ कषायनाम्नां द्विषतां प्रमाथिना-, मशेषयन्-नाम भवानशेषवित्। विशोषणं मन्मथ-दुर्मदामयं, समाधि-भैषज्य-गुणै व्र्यलीनयत्॥67॥ परिश्रमाऽम्बुर्भय-वीचि-मालिनी, त्वया स्व-तृष्णा-सरि-दार्य! शोषिता। असङ्ग-घर्मार्क-गभस्ति-तेजसा, परं ततो निर्वृति-धाम तावकम्॥ 68॥ सुहृत्त्वयि श्रीसुभगत्व-मश्नुते, द्विषंस्त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयते। भवानु-दासी-नतमस्तयोरपि, प्रभो परं चित्र-मिदं तवे-हितम्॥ 69॥ त्व-मीदृशस्तादृश इत्ययं मम, प्रलाप-लेशोऽल्प-मते र्महामुने!। अशेष-माहात्म्य-मनी-रयन्-नपि, शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधे:॥ 70॥ श्रीधर्मजिनस्तवनम् रथोद्धता छन्द: धर्म-तीर्थ-मनघं प्रवर्तयन्, धर्म इत्यनुमत: सतां भवान्। कर्म-कक्ष-मद-हत्तपोऽग्निभि: शर्म शाश्वत-मवाप शङ्कर:॥ 71॥ देव-मानव-निकाय-सत्तमै- रेजिषे परिवृतो वृतो बुधै:। तारका-परिवृतोऽति-पुष्कलो, व्योमनीव शश-लाञ्छनोऽमल:॥ 72॥ प्रातिहार्य-विभवै: परिष्कृतो, देहतोऽपि विरतो भवा-नभूत्। मोक्ष-मार्ग-मशिषन् नरामरान्, नापि शासन-फलैषणातुर:॥ 73॥ काय-वाक्य-मनसां प्रवृत्तयो, नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया। नासमीक्ष्य भवत: प्रवृत्तयो, धीर! तावक-मचिन्त्य-मीहितम्॥74॥ मानुषीं प्रकृति-मभ्य-तीतवान्, देवता-स्वपि च देवता यत:। तेन नाथ! पर-मासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:॥75॥ श्रीशान्तिजिनस्तवनम् उपजाति छन्द: विधाय रक्षां परत: प्रजानां, राजा चिरं योऽप्रतिम-प्रताप:। व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्तिर्, मुनि र्दयामूर्ति-रिवाऽघ-शान्तिम्॥76॥ चक्रेण य: शत्रु-भयंकरेण, जित्वा नृप: सर्वनरेन्द्र-चक्रम्। समाधि-चक्रेण पुनर्जिगाय, महोदयो दुर्जय-मोह-चक्रम्॥ 77॥ राज-श्रिया राजसु राज-सिंहो, रराज यो राजसुभोग-तन्त्र:। आर्हन्त्य-लक्ष्म्या पुन-रात्म-तन्त्रो, देवा-सुरो-दार-सभे रराज॥78॥ यस्मिन् नभूद्राजनि राज-चक्रं, मुनौ दया-दीधिति-धर्मचक्रम्। पूज्ये मुहु: प्राञ्जलि-देव-चक्रं, ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम्॥ 79॥ स्व-दोष-शान्त्या विहितात्म-शान्ति:, शान्ते र्विधाता शरणं गतानाम्। भूयाद् भव-क्लेश-भयोप-शान्त्यै, शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य:॥80॥ श्रीकुन्थुजिनस्तवनम् वसन्ततिलका छन्द: कुन्थु- प्रभृत्य- खिल-सत्त्व-दयैक- तान:, कुन्थुर्जिनो ज्वर-जरा-मरणोपशान्त्यै। त्वं धर्म-चक्र-मिह वर्तयसि स्म भूत्यै, भूत्वा पुरा क्षिति- पतीश्वर-चक्रपाणि:॥ 81॥ तृष्णार्चिष: परिदहन्ति न शान्ति-रासा- मिष्टेन्द्रियार्थ- विभवै: परिवृद्धि-रेव। स्थित्यैव काय-परिताप-हरं निमित्त- मित्यात्मवान् विषयसौख्य-पराङ् मुखोऽभूत्॥ 82॥ बाह्यं तप: परम- दुश्चरमा-चरंस्त्व- माध्यात्मिकस्य तपस: परिबृंहणार्थम्। ध्यानं निरस्य कलुष-द्वय मुत्तरस्मिन्, ध्यानद्वये ववृतिषेऽति-शयोपपन्ने॥ 83॥ हुत्वा स्व- कर्म-कटुक- प्रकृतीश्चतस्रो, रत्नत्रयातिशय-तेजसि जात-वीर्य:। बभ्राजिषे सकल-वेद-विधे र्विनेता, व्यभ्रे यथा वियति दीप्त-रुचि-र्विवस्वान्॥ 84॥ यस्मान् मुनीन्द्र! तव लोक- पिता- महाद्या, विद्या- विभूति- कणिका- मपि नाप्नुवन्ति। तस्माद् भवन्त-मज-मप्रतिमेय-मार्या:, स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधिय: स्व-हितैकताना:॥85॥ श्रीअरजिनस्तवनम् पथ्यावक्तं छन्द: गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य, तद्-बहुत्व-कथास्तुति:। आनन्त्यात्ते गुणा वक्तु-, मशक्यास्त्वयि सा कथम्॥86॥ तथापि ते मुनीन्द्रस्य, यतो नामापि कीर्तितम्। पुनाति पुण्य-कीर्तेर्नस्, ततो, ब्रूयाम किञ्चन॥ 87॥ लक्ष्मी- विभव- सर्वस्वं, मुमुक्षोश्चक्र- लाञ्छनम्। साम्राज्यं सार्व-भौमं ते, जरत् तृणमिवा-भवत्॥ 88॥ तव रूपस्य सौन्दर्यं, दृष्ट्वा तृप्ति-मनापिवान्। द्वयक्ष: शक्र: सहस्राक्षो, बभूव बहु-विस्मय:॥89॥ मोह-रूपो रिपु: पाप:, कषाय-भट-साधन:। दृष्टि-संपदुपेक्षास्त्रै-स्त्वया धीर! पराजित:॥ 90॥ कन्दर्पस्योद्धरो दर्पस्, त्रैलोक्य-विजयाऽर्जित:। ह्रेपयामास तं धीरे, त्वयि प्रतिहतोदय:॥ 91॥ आयत्यां च तदात्वे च, दु:ख-योनि-र्दुरुत्तरा। तृष्णा-नदी त्वयोत्तीर्णा, विद्या-नावा विविक्तया॥ 92॥ अन्तक: क्रन्दको नृणां, जन्म-ज्वर- सख: सदा। त्वा-मन्त-कान्तकं प्राप्य, व्यावृत्त: काम-कारत:॥ 93॥ भूषा- वेषा- युध- त्यागि, विद्या- दम- दया- परम्। रूप-मेव तवाचष्टे, धीर! दोष-विनिग्रहम्॥ 94॥ समन्ततोऽङ्ग-भासां ते, परिवेषेण भूयसा। तमो बाह्य-मपाकीर्ण-मध्यात्मं ध्यान-तेजसा॥ 95॥ सर्वज्ञ-ज्योतिषोद्भूतस्, तावको महिमोदय:। कं न कुर्यात् प्रणम्रं ते, सत्त्वं नाथ! सचेतनम्॥ 96॥ तव वागमृतं श्रीमत्, सर्व- भाषा- स्वभावकम्। प्रीणयत्यमृतं यद्-वत्, प्राणिनो व्यापि संसदि॥ 97॥ अनेकान्तात्म-दृष्टिस्ते, सती शून्यो विपर्यय:। तत: सर्वं मृषोक्तं स्यात्, तदयुक्तं स्वघातत:॥ 98॥ ये परस्खलितोन्-निद्रा:, स्वदोषेभ-निमीलिन:। तपस्विनस्ते किं कुर्यु-रपात्रं त्वन्मतश्रिय:॥ 99॥ ते तं स्व-घातिनं दोषं, शमी-कर्तु- मनीश्वरा:। त्वद्विष: स्वहनो बालास्, तत्त्वा-वक्तव्यतां श्रिता:॥ 100॥ सदेक-नित्य-वक्तव्यास्, तद्विपक्षाश्च ये नया:। सर्वथेति प्रदुष्यन्ति, पुष्यन्ति स्या-दितीह ते॥ 101॥ सर्वथा नियम-त्यागी, यथादृष्ट-मपेक्षक:। स्याच्छब्दस्तावके न्याये, नान्येषा-मात्म-विद्विषाम्॥ 102॥ अनेकान्तोऽप्यनेकान्त:, प्रमाण- नय- साधन:। अनेकान्त: प्रमाणात् ते, तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥ 103॥ इति निरुपम-युक्त-शासन:, प्रिय-हित-योग-गुणानुशासन:। अरजिन!दम-तीर्थ-नायकस्, त्वमिव सतां प्रतिबोधनाय क:॥ मति-गुण-विभवानुरूपतस्, त्वयि वरदागम-दृष्टि-रूपत:। गुणकृशमपि किञ्चनोदितं, मम भवताद् दुरितासनोदितम्॥ श्री मल्लिजिनस्तवनम् श्रीछन्द: अथवा सान्द्रपदं छन्द: यस्य महर्षे: सकल- पदार्थ- प्रत्यवबोध: समजनि साक्षात्। सामर-मत्र्यं जगदपि सर्वं, प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपतति स्म॥ 106॥ यस्य च मूर्ति: कनक-मयीव, स्वस्फुर-दाभा-कृत-परिवेषा। वागपि तत्त्वं कथयितु-कामा, स्यात्पद-पूर्वा रमयति साधून्॥ 107॥ यस्य पुरस्ताद् विगलित-माना, न प्रतितीथ्र्या भुवि विवदन्ते। भू-रपि रम्या प्रति-पद-मासीज्, जात-विकोशाम्बुज-मृदु-हासा॥ 108॥ यस्य समन्ताज् जिन-शिशि-रांशो:, शिष्यक-साधु-ग्रह-विभवोऽभूत्। तीर्थ-मपि स्वं जनन-समुद्र-, त्रासित-सत्त्वोत्तरण-पथोऽग्रम्॥ 109॥ यस्य च शुक्लं परम-तपोऽग्निर्, ध्यान-मनन्तं दुरित-मधाक्षीत्। तं जिन-सिंहं कृत-करणीयं, मल्लि-मशल्यं शरण-मितोऽस्मि॥ 110॥ श्री मुनिसुव्रतजिनस्तवनम् वैतालीयं छन्द: अधिगत-मुनिसुव्रत-स्थितिर्, मुनि-वृषभो मुनि-सुव्रतोऽनघ:। मुनि-परिषदि-निर्बभौ भवा-, नुडु-परिषत्परिवीत-सोमवत्॥ 111॥ परिणत-शिखि-कण्ठ-रागया, कृत-मद-निग्रह-विग्रहा-भया। तव जिन! तपस: प्रसूतया, ग्रह-परिवेष-रुचेव शोभितम्॥ 112॥ शशि-रुचि-शुचि-शुक्ल-लोहितं, सुरभि-तरं विरजो निजं वपु:। तव शिव-मति-विस्मयं यते! यदपि च वाङ्मनसीय-मीहितम्॥ 113॥ स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणं, चर-मचरं च जगत् प्रतिक्षणम्। इति जिन! सकलज्ञ-लाञ्छनं, वचन-मिदं वदतां-वरस्य ते॥114॥ दुरित-मल-कलङ्क-मष्टकं, निरुपम-योग-बलेन-निर्दहन्। अभव-दभव-सौख्यवान् भवान्, भवतु ममापि भवोपशान्तये॥115॥ श्री नमिजिनस्तवनम् शिखरिणी छन्द: स्तुति: स्तोतु: साधो:, कुशल-परिणामाय स तदा, भवेन् मा वा स्तुत्य:, फल-मपि ततस्तस्य च सत:। कि-मेवं स्वाधीन्याज्, जगति सुलभे श्रायस-पथे, स्तुयान् न त्वा विद्वान्, सतत-मभिपूज्यं नमि-जिनम्॥116॥ त्वया धीमन्! ब्रह्म, प्रणिधि- मनसा जन्म- निगलं, समूलं निर्भिन्नं, त्व-मसि विदुषां मोक्ष-पदवी। त्वयि ज्ञान- ज्योतिर्, विभव-किरणै र्भाति भगवन्, नभूवन् खद्योता, इव शुचि-रवा-वन्य-मतय:॥117॥ विधेयं वार्यं चा, -नुभय-मुभयं मिश्र-मपि तद्, विशेषै: प्रत्येकं, नियम-विषयैश्चा-परिमितै:। सदाऽन्योऽन्यापेक्षै:, सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरुणा, त्वया गीतं तत्त्वं, बहु-नय-विवक्षेतर-वशात्॥118॥ अहिंसा भूतानां, जगति विदितं ब्रह्म-परमं, न सा तत्रारम्भोऽस्, - त्यणुरपि च यत्राश्रम-विधौ। ततस्तत्- सिद्ध्यर्थं, परम- करुणो ग्रन्थ- मुभयं, भवानेवात्याक्षीन्, न च विकृत-वेषो-पधि-रत:॥119॥ वपुर्भूषावेष-व्यवधि-रहितं शान्तकरणं, यतस्ते संचष्टे, स्मरशरविषातंक-विजयम्, विना भीमै: शस्त्रै-रदय-हृदयामर्ष-विलयं, ततस्त्वं निर्मोह:, शरणमसि न: शान्तिनिलय:॥ १२०॥ श्री अरिष्टनेमिजिनस्तवनम् विषमजातावुद्गता छन्द: भगवा- नृषि: परम- योग- दहन- हुत- कल्मषेन्धन:। ज्ञान-विपुल-किरणै: सकलं, प्रतिबुद्ध्य-बुद्ध-कमलाय-तेक्षण: हरिवंश- केतु- रनवद्य-विनय- दम- तीर्थ- नायक:। शील-जलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिन-कुञ्जरोऽजर: त्रि- दशेन्द्र-मौलि-मणि-रत्न-किरण-विसरोप- चुम्बितम्। पाद-युगल-ममलंभवतो,विकसत्-कुशेशय-दलारुणोदरम्॥ नख-चन्द्र-रश्मि-कवचाति-रुचिर-शिखराङ्गुलि- स्थलम्। स्वार्थ-नियत-मनस:सुधिय:, प्रणमन्ति मन्त्र-मुखरा महर्षय: द्युति-मद्र-थाङ्ग-रवि- बिम्ब-किरण- जटिलांशु- मण्डल:। नील-जलद-जल-राशि-वपु:सहबन्धुभिर्गरुड-केतुरीश्वर:॥ हल-भृच्च ते स्वजन- भक्ति- मुदित- हृदयौ जनेश्वरौ। धर्म-विनय-रसिकौ सुतरां, चरणारविन्द-युगलं प्रणेमतु:॥ ककुदं भुव: खचर- योषि-दुषित- शिखरै-रलङ्कृत:। मेघ-पटल-परिवीत-तटस्तव,लक्षणानिलिखितानि वज्रिणा॥ वहतीति तीर्थ- मृषिभिश्च, सतत- मभि- गम्यतेऽद्य च। प्रीति-विततहृदयै: परितो, भृशमूर्जयन्त इति विश्रुतोऽचल:॥ बहि-रन्त-रप्यु-भयथा च, करण- मविघाति नार्थकृत्। नाथ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलामलकवद्-विवेदिथ॥ अत एव ते बुध- नुतस्य, चरित- गुण-मद्-भुतो-दयम्। न्यायविहितमवधार्य जिने, त्वयि सुप्रसन्नमनस: स्थिता वयम्॥ श्री पाश्र्वजिनस्तवनम् वंशस्थ छन्द: तमाल-नीलै: सधनुस्तडिद्-गुणै:, प्रकीर्ण-भीमा-शनि-वायु-वृष्टिभि:। बलाहकै र्वैरि-वशैरुपद्रुतो, महा-मना यो न चचाल योगत:॥131॥ बृहत्फणा-मण्डल-मण्डपेन यं, स्फुरत्तडित्पिङ्ग-रुचोपसर्गिणम्। जुगूह नागो धरणो धराधरं, विराग-संध्या-तडि-दम्बुदो यथा॥132॥ स्वयोगनि-स्त्रिंशनिशातधारया, निशात्य यो दुर्जयमोह-विद्विषम्। अवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं, त्रिलोक-पूजातिशयास्पदं पदम्॥ १३३॥ यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत-कल्मषं, तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषव:। वनौकस: स्व-श्रम-बन्ध्य-बुद्धय:, शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे॥134॥ स सत्य-विद्या-तपसां प्रणायक:, समग्रधी-रुग्र-कुलाम्बरांशुमान्। मया सदा पाश्र्व-जिन: प्रणम्यते, विलीन-मिथ्या-पथ-दृष्टि-विभ्रम:॥ 135॥ श्री वीरजिनस्तवनम् स्कन्धकछन्द: अथवा आर्यागीति छन्द: कीत्र्या भुवि भासि तया, वीर! त्वं गुण-समुच्छ्रया भासितया, भासोडु-सभाऽऽसितया, सोम इव व्योम्नि कुन्द-शोभासितया॥136॥ तव जिन! शासन-विभवो, जयति कला-वपि गुणानुशासन-विभव:। दोष-कशासन-विभव:, स्तुवन्ति चैनं प्रभा-कृशासन-विभव:॥137॥ अनवद्य: स्याद्वादस्, तव दृष्टेष्टाऽविरोधत: स्याद्वाद:। इतरो न स्याद्वाद:, स द्वितय-विरोधान् मुनीश्वराऽस्याद्वाद:॥138॥ त्व-मसि सुरासुर-महितो, ग्रन्थिक-सत्त्वाशय-प्रणामाऽ-महित:। लोक-त्रय-परमहितोऽ- नावरण-ज्योति-रुज्ज्वलद्-धाम-हित:॥139॥ सभ्याना-मभिरुचितं, दधासि गुण-भूषणं श्रिया चारु-चितम्। मग्नं स्वस्यां रुचितं, जयसि च मृगलाञ्छनं स्वकान्त्या रुचितम्॥140॥ त्वं जिन! गत-मद-मायस्, तव भावानां मुमुक्षु-कामद! माय:। श्रेयान् श्रीमद-मायस्, त्वया समादेशि स प्रयामदमाऽय:॥141॥ गिरि-भित्त्यवदान-वत:, श्रीमत इव दन्तिन: स्रवद्-दानवत:। तव शम-वादानवतो, गत-मूर्जित-मपगत-प्रमादान वत:॥142॥ बहु गुण-सम्प-दसकलं, परमत-मपि-मधुर-वचन-विन्यासकलम्। नय-भक्त्यवतंसकलं, तव देव! मतं समन्तभद्रं सकलम्॥143॥
  19. यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥ १॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ २॥ छत्रत्रयप्रचलचामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभारुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ ३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदलीदलवर्णगात्र, प्रालेयतारगिरिमौक्तिकवर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिकपाण्डुरपुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ ४॥ सन्तप्तकाञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! ोयान्! विनष्टदुरिताष्टकलङ्कपङ्क बन्धूकबन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ५॥ उद्दण्डदर्पक-रिपो विमलामलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्तसुखाम्बुराशे दुष्कर्मकल्मषविवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ६॥ देवामरी-कुसुमसन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुणविभूषणभूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थनाथ, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ७॥ यन्मोहमल्लमदभञ्जन-मल्लिनाथ! क्षेमङ्करावितथशासन -सुव्रताख्य! सत्सम्पदा प्रशमितो नमिनामधेय त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ ८॥ तापिच्छगुच्छरुचिरोज्ज्वल-नेमिनाथ! घोरोपसर्गविजयिन् जिन! पाश्र्वनाथ! स्याद्वादसूक्तिमणिदर्पण! वर्धमान! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ ९॥ प्रालेयनील - हरितारुण-पीतभासम् यन्मूर्तिमव्ययसुखावसथं मुनीन्द्रा:। ध्यायन्ति सप्ततिशतं जिनवल्लभानां, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥ १०॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं माङ्गल्यं परिकीर्तितम्। चतुर्विंशतितीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने॥ ११॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं ोय: प्रत्यभिनन्दितम्। देवता ऋषय: सिद्धा: सुप्रभातं दिने दिने ॥ १२॥ सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मन: येन प्रवर्तितं तीर्थं भव्यसत्त्वसुखावहम्॥ १३॥ सुप्रभातं जिनेन्द्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषाम्। अज्ञानतिमिरान्धानां नित्यमस्तमितो रवि:॥ १४॥ सुप्रभातं जिनेन्द्रस्य वीर: कमललोचन:। येन कर्माटवी दग्धा शुक्लध्यानोग्रवह्निना॥ १५॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याणं सुमङ्गलम्। त्रैलोक्यहितकर्र्तृणां जिनानामेव शासनम्॥ १६॥
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