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कल्याण मंदिर स्तोत्र : हिन्दी - बनारसीदास


admin

कविश्री बनारसीदास

 

(दोहा)

परम-ज्योति परमात्मा, परम-ज्ञान परवीन |

वंदूँ परमानंदमय घट-घट-अंतर-लीन ||१||

 

(चौपार्इ)

निर्भयकरन परम-परधान, भव-समुद्र-जल-तारन-यान |

शिव-मंदिर अघ-हरन अनिंद, वंदूं पार्श्व-चरण-अरविंद ||२||

 

कमठ-मान-भंजन वर-वीर, गरिमा-सागर गुण-गंभीर |

सुर-गुरु पार लहें नहिं जास, मैं अजान जापूँ जस तास ||३||

 

प्रभु-स्वरूप अति-अगम अथाह, क्यों हम-सेती होय निवाह |

ज्यों दिन अंध उल्लू को होत, कहि न सके रवि-किरण-उद्योत ||४||

 

मोह-हीन जाने मनमाँहिं, तो हु न तुम गुन वरने जाहिं |

प्रलय-पयोधि करे जल गौन, प्रगटहिं रतन गिने तिहिं कौन ||५||

 

तुम असंख्य निर्मल गुणखान, मैं मतिहीन कहूँ निज बान|

ज्यों बालक निज बाँह पसार, सागर परमित कहे विचार ||६||

 

जे जोगीन्द्र करहिं तप-खेद, तेऊ न जानहिं तुम गुनभेद |

भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष, ज्यों पंछी बोले निज भाष ||७||

 

तुम जस-महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन-आधार |

आवे पवन पदमसर होय, ग्रीषम-तपन निवारे सोय ||८||

 

तुम आवत भवि-जन मनमाँहिं, कर्मनि-बन्ध शिथिल ह्वे जाहिं |

ज्यों चंदन-तरु बोलहिं मोर, डरहिं भुजंग भगें चहुँ ओर ||९||

 

तुम निरखत जन दीनदयाल, संकट तें छूटें तत्काल |

ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, ते तज भागहिं देखत भोर ||१०||

 

तुम भविजन-तारक इमि होहि, जे चित धारें तिरहिं ले तोहि |

यह ऐसे करि जान स्वभाव, तिरहिं मसक ज्यों गर्भित बाव ||११||

 

जिहँ सब देव किये वश वाम, तैं छिन में जीत्यो सो काम |

ज्यों जल करे अगनि-कुल हान, बडवानल पीवे सो पान ||१२||

 

तुम अनंत गुरुवा गुन लिए, क्यों कर भक्ति धरूं निज हिये |

ह्वै लघुरूप तिरहिं संसार, प्रभु तुम महिमा अगम अपार ||१३||

 

क्रोध-निवार कियो मन शांत, कर्म-सुभट जीते किहिं भाँत |

यह पटुतर देखहु संसार, नील वृक्ष ज्यों दहै तुषार ||१४||
 

मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्धरूप सम ध्यावहिं तोहि |

कमल-कर्णिका बिन-नहिं और, कमल बीज उपजन की ठौर ||१५||

 

जब तुव ध्यान धरे मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय |

जैसे धातु शिला-तनु त्याग, कनक-स्वरूप धवे जब आग ||१६||

 

जाके मन तुम करहु निवास, विनशि जाय सब विग्रह तास |

ज्यों महंत ढिंग आवे कोय, विग्रहमूल निवारे सोय ||१७||

 

करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभाव तें होय निदान |

जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विष विकार की हान ||१८||

 

तुम भगवंत विमल गुणलीन, समल रूप मानहिं मतिहीन |

ज्यों पीलिया रोग दृग गहे, वर्ण विवर्ण शंख सों कहे ||१९||

 

(दोहा)

निकट रहत उपदेश सुन, तरुवर भयो 'अशोक' |

ज्यों रवि ऊगत जीव सब, प्रगट होत भुविलोक ||२०||

 

'सुमन वृष्टि' ज्यों सुर करहिं, हेठ बीठमुख सोहिं |

त्यों तुम सेवत सुमन जन, बंध अधोमुख होहिं ||२१||

 

उपजी तुम हिय उदधि तें, 'वाणी' सुधा समान |

जिहँ पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर-पदथान ||२२||

 

कहहिं सार तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-चामर' दोय |

भावसहित जो जिन नमहिं, तिहँ गति ऊरध होय ||२३||

 

'सिंहासन' गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर |

श्याम सुतनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ||२४||

 

छवि-हत होत अशोक-दल, तुम 'भामंडल' देख |

वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ||२५||

 

सीख कहे तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-दुंदुभि' नाद |

शिवपथ-सारथ-वाह जिन, भजहु तजहु परमाद ||२६||

 

'तीन छत्र' त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छवि देत |

त्रिविध-रूप धर मनहु शशि, सेवत नखत-समेत ||२७||

 

(पद्धरि छन्द)

प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,परताप पुंज जिम शुद्ध-हेम |

अतिधवल सुजस रूपा समान, तिनके गुण तीन विराजमान ||२८||

 

सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, तिन सीस मुकुट तज देहिं माल |

तुम चरण लगत लहलहे प्रीति, नहिं रमहिं और जन सुमन रीति ||२९||

 

प्रभु भोग-विमुख तन करम-दाह, जन पार करत भवजल निवाह |

ज्यों माटी-कलश सुपक्व होय, ले भार अधोमुख तिरहिं तोय ||३०||

 

तुम महाराज निरधन निराश,तज तुम विभव सब जगप्रकाश |

अक्षर स्वभाव-सु लिखे न कोय, महिमा भगवंत अनंत सोय ||३१||
 

कोपियो कमठ निज बैर देख, तिन करी धूलि वरषा विशेष |

प्रभु तुम छाया नहिं भर्इ हीन, सो भयो पापी लंपट मलीन ||३२||

 

गरजंत घोर घन अंधकार, चमकंत-विज्जु जल मूसल-धार |

वरषंत कमठ धर ध्यान रुद्र, दुस्तर करंत निज भव-समुद्र ||३३||

 

(वास्तु छन्द)

मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि |

भेजे तुरत पिशाच-गण, नाथ-पास उपसर्ग कारण |

अग्नि-जाल झलकंत मुख, धुनिकरत जिमि मत्त वारण |

कालरूप विकराल-तन, मुंडमाल-हित कंठ |

ह्वे निशंक वह रंक निज, करे कर्म दृढ़-गंठ ||३४||

 

(चौपार्इ छन्द)

जे तुम चरण-कमल तिहुँकाल, सेवहिं तजि माया जंजाल |

भाव-भगति मन हरष-अपार, धन्य-धन्य जग तिन अवतार ||३५||

 

भवसागर में फिरत अजान, मैं तुव सुजस सुन्यो नहिं कान |

जो प्रभु-नाम-मंत्र मन धरे, ता सों विपति भुजंगम डरे ||३६||

 

मनवाँछित-फल जिनपद माहिं, मैं पूरब-भव पूजे नाहिं |

माया-मगन फिर्यो अज्ञान, करहिं रंक-जन मुझ अपमान ||३७||

 

मोहतिमिर छायो दृग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि |

जो दुर्जन मुझ संगति गहें, मरम छेद के कुवचन कहें ||३८||

 

सुन्यो कान जस पूजे पायँ, नैनन देख्यो रूप अघाय |

भक्ति हेतु न भयो चित चाव, दु:खदायक किरिया बिनभाव ||३९||

 

महाराज शरणागत पाल, पतित-उधारण दीनदयाल |

सुमिरन करहूँ नाय निज-शीश, मुझ दु:ख दूर करहु जगदीश ||40||

 

कर्म-निकंदन-महिमा सार, अशरण-शरण सुजस विस्तार |

नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ||४१||

 

सुर-गन-वंदित दया-निधान, जग-तारण जगपति अनजान |

दु:ख-सागर तें मोहि निकासि, निर्भय-थान देहु सुख-रासि ||४२||

 

मैं तुम चरण कमल गुणगाय, बहु-विधि-भक्ति करी मनलाय |

जनम-जनम प्रभु पाऊँ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोय ||४३||

 

(बेसरी छंद – षड्पद)

इहविधि श्री भगवंत, सुजस जे भविजन भाषहिं |

ते निज पुण्यभंडार, संचि चिर-पाप प्रणासहिं ||

रोम-रोम हुलसंति अंग प्रभु-गुण मन ध्यावहिं |

स्वर्ग संपदा भुंज वेगि पंचमगति पावहिं ||

यह कल्याणमंदिर कियो, कुमुदचंद्र की बुद्धि |

भाषा कहत 'बनारसी', कारण समकित-शुद्धि ||४४||



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