(श्री युगल जी कृत)
बहु पुण्य-पुंज प्रसंग से शुभ देह मानव मिला |
तो भी अरे! भव चक्र का, फेरा न एक भी टला ||१||
सुख प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते, सुक्ख जाता दूर हैं |
तू क्यों भयंकर भाव-मरण, प्रवाह में चकचूर हैं ||२||
लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिये |
परिवार और कुटुंब हैं क्या? वृद्धिनय पट तोलिये ||३||
संसार का बढ़ना अरे! नर देह की यह हार हैं |
नहिं एक क्षण तुझको अरे! इसका विवेक विचार हैं ||४||
निर्दोष सुख निर्दोष आनंद, लो जहाँ भी प्राप्त हो |
यह दिव्य अन्ततत्व जिससे, बन्धनों से मुक्त हो ||५||
पर वस्तु में मुर्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया |
वह सुख सदा ही त्याज्य रे! पश्चात् जिसके दुःख भरा ||६||
मैं कौन हु? आया कहाँ से? और मेरा स्वरूप क्या?
सम्बन्ध दुखमय कौन हैं? स्वीकृत करूँ परिहार क्या ||७||
इसका विचार विवेकपूर्वक, शांत होकर कीजिये |
तो सर्व आत्मिक ज्ञान के, सिद्धांत का रस पीजिये ||८||
किसका वचन उस तत्व की, उपलब्धि में शिवभुत हैं |
निर्दोष नर का वचन रे! वह स्वानुभूति प्रसुत हैं ||९||
तारो अरे! तारो निजात्मा, शीघ्र अनुभव कीजिये |
सर्वात्म में समद्रष्टि दो, यह ह्रदय लाख लीजिये ||१०||
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