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श्री आदिनाथ जी पूजा - चाँदखेडी - Shree aadinaath ji pooja chandkhedi


admin

(छंद जोगीरासा)
नाभिराय मरुदेवी के नंदन, हो अतिशय के धारी |
कैलास-शैल से मोक्ष पधारे, जन-जन मंगलकारी ||
संवत् पाँच सौ बारह में हुर्इ, प्रतिष्ठा शिवपद-धारी |
बारा-पाटी से आन विराजे, चाँदखेड़ी अविकारी ||
जाना था सांगोद गए नहीं, बैल जुड़े थे भारी |
किशनदास लाए कोटा के, थे दीवान सरकारी ||
आह्वानन करता हूँ प्रभु का, जय-जय अतिशयधारी |
अत्रो अत्रो तिष्ठो! तिष्ठो! सन्निधिकरण सुखकारी ||

ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)!
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)!
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)!

(शंभु छन्द)
भव-भव में जल पीते-पीते, अब तक तृषा ना शांत हुर्इ |
मुनि-मन-सम जल से पूजूँ प्रभु! मन में इच्छा आज हुर्इ ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

तन-धन-जन की चाह-दाह, भव-भव में भ्रमण कराती है |
चंदन से पूजन करके, मन शीतलता छा जाती है ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

कर्मों ने निज-आतम को तो, भव-वन में भटकाया है |
अक्षत से अक्षय-सुख पाने, पूजन आज रचाया है ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || 
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

नाथ आपकी निश-दिन पूजा, मन को निर्मल करती है |
श्रद्धा-सुमन चढ़ाने से, भव-काम-वासना टलती है ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

छह मास किया उपवास प्रभु ने, आतम-बल प्रगटाने को |
करता हूँ पकवान समर्पित, व्याधि-क्षुधा मिटाने को ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

यह दीपशिखा जगमग करती, होता बाहर में उजियारा |
अब अन्तर-लौ से ज्ञान जगे, मिट जाए मोह का अँधियारा ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

अष्टकर्म के नाशन को मैं, खेता धूप-दशांग प्रभो |
मन-वच-काय से तुम पद पूजूँ, गुण-समूह से युक्त विभो ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

निज रत्नत्रय-निधि पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ |
मुक्ति मिले भव-भ्रमण टले, इस हेतु विविध-फल लाया हूँ ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

बारह भावना भाता हूँ कि, मरण-समाधि मैं पाऊँ |
अर्पित करके ‘रूप’ अर्घ, मम आत्मज्ञान को प्रगटाऊँ ||
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ |
तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

(पंच-कल्याणक अर्घ्यावली)

(नरेंद्र छंद)
आषाढ़-वदी-दोयज को माता-मरुदेवी-उदर में आए |
रत्नों की वर्षा हुर्इ अनूपम, इन्द्रासन-कम्पाये ||

ओं ह्रीं आषाढ़कृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

चैत-वदी-नवमी को प्रभु ने, जन्म लिया भवतारी |
सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी दोनों, उत्सव करते अति भारी ||
ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।२।

नीलांजना-निधन को देख, वैराग्य-भावना भार्इ |
दुर्द्धर-तप धारा जब प्रभु ने, चैत्र-वदी-नवमी आर्इ ||
ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-नवम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।

फाल्गुन-कृष्ण-एकादशी को, जिनवर को केवलज्ञान हुआ |
धर्म-देशना की वाणी से, भव्यों का कल्याण हुआ ||
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्ण-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।

अष्टापद कैलाशगिरि से, प्रभु ने पाया था निर्वाण |
घर-घर-मंगलाचार हुए थे, माघ-वदी-चौदस को महान ||
ओं ह्रीं माघकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

जयमाला

(शंभु छन्द)
माघ-सुदी-छठ उत्तम संवत्, सत्रह सौ छियालीस |
पंच-कल्याणक में जगत्-कीर्तिजी, ने दी शुभ-आशीष ||

(दोहा)
तहसील ‘खानपुर’ से लगा, ‘चाँदखेड़ी’ एक ग्राम |
रूपेली-तट पर बना, आदि-जिनेश्वर-धाम ||

(शंभु छन्द)
गुफा के मध्य विराजे स्वामी, प्रभु-महिमा अतिशयकारी |
शिल्पकला मोहित करती, प्रभु-प्रतिमा है जन मनहारी ||

एक बार जो दर्शन पाता, बार-बार आने को कहता |
शांति-सुधा पीने को मिलती, बैठ सामने सुमिरन करता ||

वीतराग-छवि है प्रभुवर की, शांतमूर्ति अभिराम |
अर्चन-पूजन से होते हैं, सफल मनोरथ काम ||

नाथ आपके दर्शन से, अज्ञान-तिमिर हो दूर |
क्रोध-मान-माया-लालच भी, क्षणभर में हों चूर ||

आत्मशांति की इस बेला में, रत्नत्रय धारण कर |
छुटकारा हो भव-बंधन से, मन-वच-तन वश में कर ||

दशलक्षण-धर्मों को धारें, जन-जन में कोर्इ भेद नहीं |
विश्वधर्म यह तो सबका, जैनों का ही अधिकार नहीं ||

मुनिनायक योगीश्वर हैं प्रभु, विमल-वर्ण रवि तमहारी |
शरणागत जन जन्म-मरण से, मुक्त बनें निज-पदधारी ||

तुम्हीं आद्य-अक्षय-अनंत प्रभु, ब्रह्मा-विष्णु या शंकर |
सहसनाम से जानें जन-जन, हे प्रभु तुमको आदीश्वर ||

चैत-बदी-नवमी को मेला, लगता यहाँ मंगलकारी |
अभिनंदन के योग्य चरण, हम वंदन करते भवतारी ||

संवत् दो सहस पैंतीस की थी, चैत-बदी-अष्टम प्यारी |
अज्ञानियों की थी विफल हुर्इ, विध्वंस-योजना अविचारी ||

बुझी ज्योति जलधारा फूटी, रहा उपद्रव भी जब तक |
अतिशय कोर्इ समझ न पाया, संकट टला नहीं तब तक ||

धन्य-धन्य मुनि दर्शनसागर, धर्म-ध्वजा यहाँ फहरार्इ |
आत्मधर्म का बोध दिया, सद्ज्ञान की ज्योति जगार्इ ||

आचार्य देशभूषण जी को, जब हुर्इ अतिशय-जानकारी |
आए थे वे प्रभु-वंदन को, हुआ महोत्सव बहु भारी ||

संवत् दो हजार अड़तीस में, हुर्इ प्रतिष्ठा अतिप्यारी |
बिना प्रभु के समवसरण भी, कहाँ लगें मंगलकारी ||

छम-छम छम-छम घुंघरू बाजें, अक्षय-तृतीया हितकारी |
गंधोदक की वर्षा होती, प्रभु की महिमा न्यारी ||

लघु पंचकल्याणक-विधान, फिर हुआ क्षेत्र पर भारी |
यह भी आदीश्वर की महिमा, सुन लो अचरजकारी ||

धन्य-धन्य आचार्य विमलसागर, समता का दिग्दर्शन |
अमर हो गईं ये गाथाएँ, ‘कुसुम-रूप’ का तुम्हें नमन ||

जिन भक्तों को तेरे चरणों में, हो मिला हुआ आश्रय |
उनका बाल न बाँका होगा, यह तो है अब निश्चय ||

भारत-भर में गूँज रही है, तव यश-अक्षय भेरी |
देश-देश के यात्री करते, जय-जयकार प्रभु तेरी ||
ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(अडिल्ल छन्द)
आदीश्वर की जो भवि नित पूजा करें |
धन-धान्य संतान अतुल-निधि विस्तरें ||

होयं अमंगल दूर शरीर नीरोग धरें |
अनुक्रम से सुख पाय मुक्ति श्री को वरें ||
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपामि।।



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