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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. लोक शिखर के वासी हैं प्रभु, तीर्थंकर सुपार्श्व जिननाथ । नयन द्वार को खोल खड़े हैं, आओ! विराजो! हे जगनाथ ।। सुन्दर नगरी वाराणसी स्थित, राज्य करें रजा सुप्रतिष्टित । पृथ्वीसेना उनकी रानी, देखे स्वप्ना सोलह अभिरामी ।। तीर्थंकर सूत गर्भ में आये, सुरगण आकर मोद मनाये । शुक्ल ज्येष्ठ द्वादशी शुभ दिन, जन्मे अहमिन्द्र योग में श्रीजिन ।। जन्मोत्सव की ख़ुशी असीमित, पूरी वाराणसी हुई सुशोभित । बढे सुपाश्वजिन चन्द्र समान, मुख पर बसे मंद मुस्कान ।। समय प्रवाह रहा गतिशील, कन्याएं परनाई सुशील । लोक प्रिय शासन कहलाता, पर दुष्टों का दिल दहलाता ।। नित प्रति सुन्दर भोग भोगते, फिर भी कर्म बंध नहीं होते। तन्मय नहीं होते भोगो में, दृष्टि रहे अंतर योगों में ।। एक दिन हुआ प्रबल वैराग्य, राज पाठ छोड़ा मोह त्याग । दृढ निश्चय किया तप करने का, करें देव अनुमोदन प्रभु का ।। राज पाठ निज सूत को देकर, गए सहेतुक वन में जिनवर । ध्यान में लीन हुए तपधारी, तप कल्याणक करे सुर भारी ।। हुए एकाग्र श्री भगवान्, तभी हुआ मनः पर्याय ज्ञान । शुद्धाहार लिया जिनवर ने, सोमखेट भूपति के घर में ।। वन में जाकर हुए ध्यानस्थ, नौ वर्षो तक रहे छद्मस्थ । दो दिन का उपवास धार कर, तरु शिरीष तल बैठे जाकर ।। स्थिर हुए पर रहे सक्रिय, कर्मशत्रु चतु: किये निष्क्रिय । क्षपक श्रेढ़ी हुए आरूढ़, ज्ञान केवली पाया गूढ़ ।। सुरपति ने ज्ञानोत्सव कीना, धनपति ने समोशरण रचिना । विराजे अधरे सुपार्श्वस्वामी, दिव्यध्वनि खिरती अभिरामी ।। यदि चाहो अक्षय सुख पाना, कर्माश्रव तज संवर करना । अविपाक निर्झरा को करके, शिवसुख पाओ उद्धम करके ।। चतु: दर्शन ज्ञान अष्ट बताये, तेरह विधि चारित्र सुनाये । ब्रह्माभ्यंतर तप की महिमा, तप से मिलती गुण गरिमा ।। सब देशो में हुआ विहार, भव्यो को किया भव से पार । एक महीना उम्र रही जब, शैल सम्मेद पे, किया उग्र तप।। फाल्गुन शुक्ल सप्तमी आई, मुक्ति महल पहुचे जिनराई । निर्वाणोत्सव को सुर आये, कूट प्रभास की महिमा गाये ।। स्वस्तिक चिन्ह सहित जिनराज, पार करे भव सिंधु जहाज । जो भी प्रभु का ध्यान लगाते, उनके सब संकट कट जाते।। चालीसा सुपार्श्व स्वामी का, मान हरे क्रोधी कामी का । जिनमन्दिर में आकर पढ़ना, प्रभु का मन से नाम सुमरना ।। अरुणा को हैं दृढ विश्वास, पूरण होवे सब की आस ।।
  2. शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करू प्रणाम । उपाध्याय आचार्य का, ले गुणकारी नाम ।। सर्व साधू और सरस्वती, जिनमन्दिर सुखकार । पदमपुरी के पद्म को, मन मंदिर में धार।। जय श्री पद्मप्रभु गुणकारी, भाविजनो को तुम हो हितकारी । देवों के तुम देव कहप, छट्टे तीर्थंकर कहलाओ ।। तिन काल तिहूँ जग की जानो, सब बातों को क्षण में पहिचानो । वेष दिगंबर धारण हारे, तुमसे कर्म शत्रु भी हारे ।। मूर्ति तुम्हारी कितनी सुन्दर, दृष्टी सुखद जमती नासा पर । क्रोध मान मद लोभ भगाया, राग द्वेष का लेश ना पाया ।। वीतराग तुम कहलाते हो, सब जग के मन को भाते हो । कौशाम्बी नगरी कहलाये, राजा धारण जी बतलाये ।। सुन्दर नाम सुसीमा उनके, जिनके उर से स्वामी जन्मे । कितनी लम्बी उमर कहाई, तीस लाख पूरब बतलाई ।। इक दिन हाथी बंधा निरख कर, झट आया वैराग्य उमड़ कर । कार्तिक सुदी त्रयोदशी भारी, तूमने मुनि पद दीक्षा धारी।। सारे राज पाट को तज कर, तभी मनोहर वन में पहुचे । तप कर केवल ज्ञान उपाया, चैत्र सुदी पूनम कहलाया ।। एक सौ दस गणधर बतलाये, मुख्य वज्र चामर कहलाये । लाखों मुनि आर्जिका लाखों, श्रावक और श्राविका लाखों ।। असंख्यात तिर्यंच बताये, देवी देव गिनत नहीं पाये। फिर सम्मेद शिखर पर जाकर, शिवरमणी को ली परणाकर ।। पंचम काल महादुखदायी, जब तुमने महिमा दिखलाई । जयपुर राज ग्राम बाड़ा हैं, स्टेशन शिवदासपुरा हैं ।। मुला नाम का जाट का लड़का, घर की नीव खोदने लगा । खोदत खोदत मूर्ति दिखाई, उसने जनता को दिखलाई ।। चिन्ह कमल लख लोग लुगाई, पदम प्रभु की मूर्ति बताई । मन में अति हर्षित होते हैं, अपने मन का मल धोते हैं ।। तुमने यह अतिशय दिखलाया, भुत प्रेत को दूर भगाया । जब गंधोदक छींटे मारें, भुत प्रेत तब आप बकारे ।। जपने से जप नाम तुम्हारा, भुत प्रेत वो करे किनारा । ऐसी महिमा बतलातें हैं, अंधे भी आँखे पाते हैं ।। प्रतिमा श्वेत वर्ण कहलाये, देखत ही ह्रदय को भाए । ध्यान तुम्हारा जो धरता हैं, इस भव से वो नर तरता हैं ।। अँधा देखे गूंगा गावे, लंगड़ा पर्वत पर चढ़ जावे । बहरा सुन सुन खुश होवे, जिस पर कृपा तुम्हारी होवे ।। मैं हूँ स्वामी दास तुम्हारा, मेरी नैया कर दो पारा । चालिसे को चन्द्र बनाये, पद्मप्रभु को शीश नवाये ।। सोरठा नित ही चालीस बार, पाठ करे चालीस । खेय सुगंध अपार, पदमपुरी में आय के ।। होय कुबेर समान, जन्म दरिद्र होय जो । जिसके नहीं संतान, नाम वंश जग में चले ।।
  3. श्री सुमति नाथ करुना निर्झर, भव्य जानो तक पहुचे झर झर । नयनो में प्रभु की छवि भर कर, नित चालीसा पढ़े सब घर घर ।। जय श्री सुमति नाथ भगवान्, सबको दो सदबुद्धि दान । अयोध्या नगरी कल्याणी, मेघरथ राजा मंगला रानी ।। दोनों के अति पुण्य प्रजारे, जो तीर्थंकर सूत अवतारे । शुक्ल चैत्र एकादशी आई, प्रभु जन्म की बेला आई ।। तीनो लोको में आनंद छाया, नाराकियो ने दुःख भुलाया । मेरु पर प्रभु को ले जाकर, देव न्वहन करते हर्षाकर ।। तप्त स्वर्ण सम सोहे प्रभु तन, प्रगटा अंग प्रत्यंग में यौवन । ब्याही सुन्दर वधुएँ योग, नाना सुखो का करते भोग ।। राज्य किया प्रभु ने सुव्यवस्थित, नहीं रहा कोई शत्रु उपस्थित । हुआ एकदिन वैराग्य सब, नीरस लगाने लगे भोग सब ।। जिनवर करते आत्म चिंतन, लौकंतिक करते अनुमोदन । गए सहेतुक नामक वन में, दीक्षा ली मध्याह्न समय में ।। बैसाख शुक्ल नवमी का शुभ दिन, प्रभु ने किया उपवास तीन दिन । हुआ सौमनस नगर विहार, ध्युमनध्युती ने दिया आहार ।। बीस वर्ष तक किया तब घोर, आलोकित हुए लोकालोक । एकादशी चैत्र की शुक्ल, धन्य हुई केवल रवि निकला ।। समोशरण में प्रभु विराजे, द्वादश कोठे सुन्दर साझे । दिव्या ध्वनि खीरी धरा पर, अनहद नाद हुआ नभ ऊपर ।। किया व्याख्यान सप्त तत्वों का, दिया द्रष्टान्त देह नौका का । जीव अजीव आश्रव बांध, संवर से निर्झरा निर्बन्ध ।। बंध रहीत होते हैं सिद्ध, हैं यह बात जगत प्रसिद्ध । नौका सम जानो निज देह, नाविक जिसमे आत्म विदेह ।। नौका तिरती ज्यो उदधि में, चेतन फिरता भावोदधि में। हो जाता यदि छिद्र नाव में, पानी आ जाता प्रवाह में ।। ऐसे ही आश्रव पुद्गल में, तीन योग से हो प्रतिपल में । भरती है नौका ज्यों जल से, बंधती आत्मा पुण्य पाप से ।। छिद्र बंद करना है संवर, छोड़ शुभा शुभ शुद्धभाव भर । जैसे जल को बाहर निकाले, संयम से निर्जरा को पालें ।। नौका सूखे ज्यो गर्मी से, जीव मुक्त हो ध्यानाग्नि से । ऐसा जानकर करो प्रयास, शाश्वत शुख पाओ सायास ।। जहाँ जीवों का पुण्य प्रबल था, होता वही विहार स्वयं था । उम्र रही जब एक ही मास, गिरी सम्मेद पर किया निवास ।। शुक्ल ध्यान से किया कर्मक्षय, संध्या समय पाया पद अक्षय । चैत्र सुदी एकादशी सुन्दर, पहुँच गए प्रभु मुक्ति मंदिर ।। चिन्ह प्रभु का चकवा जान, अविचल कूट पूजे शुभथान ।। इस असार संसार में, सार नहीं हैं शेष । अरुणा चालीसा पढो, रहे विषाद न लेश ।।
  4. ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन, दया करे सब पर दुखभंजन । जनम मरण के टूटें बंधन, मनमन्दिर तिष्ठे अभिनन्दन ।। अयोध्या नगरी अति सुन्दर, करते राज्य भूपति संवर । सिद्धार्था उनकी महारानी, सुन्दरता में थी लासानी ।। रानी ने देखे शुभ सपने, बरसे रतन महल के अंगने । मुख में देखा हस्ती समाता, कहलाई तीर्थंकर की माता ।। जननी उदर प्रभु अवतारे, स्वर्गों से आये सुर सारे । मात पिता की पूजा करते, गर्भ कल्याणक उत्सव करते ।। द्वादशी माघ शुक्ला की आई, जन्मे अभिनन्दन जिनराई । देवों के भी आसन कांपे, शिशु को लेके गए मेरु पे ।। नव्हन किया शत आठ कलशों से, अभिनन्दन कहा प्रेम भाव से । सूर्य समान प्रभु तेजस्वी, हुए जगत में महा यशस्वी ।। बोले हित मित वचन सुबोध, वाणी में कही नहीं विरोध । यौवन से जब हुए विभूषित, राज्यश्री को किया सुशोभित ।। साढ़े तीन सौ धनुष प्रमाण, उन्नत प्रभु तन शोभावान । परणाई कन्याएं अनेक, लेकिन छोड़ा नहीं विवेक ।। नित प्रति नूतन भोग भोगते, जल में भिन्न कमल सम रहते । एक दिन देखे मेध अम्बर में, मेघ महल बनते पल में ।। हुए विलीन पवन के चलने से, उदासीन हो गए जगत से । राज पाठ निज सूत को सौपा, मन में समता वृक्ष को रोपा ।। गए उग्र नामक उद्यान, दीक्षित हुए वहा गुणखान । शुक्ला द्वादशी थी माघ मास, दो दिन धारा उपवास ।। तीसरे दिन फिर किया विहार, इन्द्रदत्त नृप ने दिया आहार । वर्ष अठारह किया घोर तप, सहे शीत वर्षा और आतप ।। एक दिन असन वृक्ष के नीचे, ध्यान वृष्टि से आतम सींचे । उदय हुआ केवल दिनकर का, लोकालोक ज्ञान में झलका ।। हुई तब समोशरण की रचना, खीरी प्रभु की दिव्या देशना । जीवजीव और धर्माधर्म, आकाश काल षठ्द्रव्य मर्म ।। जीव द्रव्य ही सारभूत हैं, स्वयं सिद्धि ही परमभुत हैं । रूप तीन लोक समझाया, उर्ध्व मध्य अधोलोक बताया ।। नीचे नरक बताये सात, भुगतें पापी अपने पाप । ऊपर सौलह स्वर्ग सुजान, चतुर्निकाय देव विमान ।। मध्य लोक में द्वीप असंख्य, ढाई द्वीप में जाये भव्य । भटकों को सन्मार्ग दिखाया, भव्यो को भव पार लगाया ।। पहुचे गढ़ सम्मेद अंत में, प्रतिमा योग धरा एकांत में । शुक्लध्यान में लीन हुए तब, कर्म प्रकृति क्षीर्ण हुई सब ।। बैसाख शुक्ल षष्ठी पुन्यवान, प्रातः प्रभु का हुआ निर्वाण । मोक्ष कल्याणक करे सुर आकर, आनंद्कुट पूजे हर्षाकर ।। चालीसा श्री जिन अभिनन्दन,दूर करें सबके भवक्रन्दन । स्वामी तुम हो पापनिकन्दन,अरुणा करती शत शत वन्दन ।।
  5. श्री जिनदेव को कर कर वन्दन, जिनवाणी को मन में ध्याय । काम असंभव कर दे संभव, समदर्शी संभव जिनराय ।। जगतपुज्य श्री संभव स्वामी, तीसरे तीर्थंकर हैं नामी । धर्म तीर्थ प्रगटाने वाले, भव दुःख दूर भागने वाले ।। श्रावस्ती नगरी अति सोहे, देवो के भी मनको मोहे । मात सुषेणा पिता द्रढ़राज, धन्य हुए जन्मे जिनराज ।। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी आए, गर्भ कल्याणक देव मनाए । पूनम कार्तिक शुक्ल आई, हुई पुन्य प्रगटे जिनराई ।। तीन लोक में खुशिया छाई, शची प्रभु को लेने आई । मेरु पर अभिषेक रचाया, संभव प्रभु शुभ नाम धराया ।। बिता बचपन यौवन आया, पिता ने राज्याभिषेक कराया । मिली रानिया सब अनुरूप, सुख भोगे चवालिस लक्ष पूर्व ।। एक दिन महल की छत के ऊपर, देखे वन सुषमा मनहर । देखा मेघ महल हिमखण्ड, हुआ नष्ट चली वायु प्रचण्ड ।। तभी हुआ वैराग्य एकदम, गृह्बंधन लगा नागपाश सम । करते वस्तु स्वरूप चिंतवन, देव लोकान्तिक करे समर्थन ।। निज सूत को देकर राज, वन गमन करे जिनराज । हुए सवार सिद्धार्थ पालकी, गए राह सहेतुक वन की ।। मंगसिर शुक्ल पूर्णिमा प्यारी, सहस भूप संघ दीक्षा धारी । तजा परिग्रह केश लोंच कर, ध्यान धरा पूरब को मुख कर ।। धारण कर उस दिन उपवास, वन में ही किया निवास । आत्मशुद्धि का प्रबल प्रमाण, तत्क्षण हुआ मनः पर्याय ज्ञान ।। प्रथामाहार हुआ मुनिवर का हुआ, धन्य जीवन सुरेन्द्र का । पंचाश्चार्यो से देवों के हुए, प्रजा जन सुखी नगर के ।। चौदह वर्षो की आतम सिद्धि, स्वयं ही उपजी केवल ऋद्धि । कृष्ण चतुर्थी कार्तिक सार, समोशरण रचना हितकार ।। खिरती सुखकारी जिनवाणी, निज भाषा में समझे प्राणी । विषयभोग हैं विषसम विषमय, इनमे मत होना तुम तन्मय ।। तृष्णा बढती हैं भोगो से, काया घिरती हैं रोगों से । जिनलिंग से निज को पहचानो, अपना शुद्धातम सरधानो ।। दर्शन ज्ञान चरित्र बताये, मोक्ष मार्ग एकत्व दिखाये । जीवों का सन्मार्ग बताया, भव्यो का उद्धार कराया ।। गणधर एक सौ पांच प्रभू के, मुनिवर पंद्रह सहस संघ के । देवी देव मनुज बहुतेरे, सभा में थे तिर्यंच घनेरे ।। एक महिना उम्र रही जब, पहुँच गए सम्मेद शिखर तब । अचल हुए खडगासन प्रभु, कर्म नाश कर हुए स्वयंभू ।। चैत सुदी षष्ठी थी न्यारी, धवल कूट की महिमा भारी । साठ लाख पूर्व का जीवन, पग में अश्व था शुभ लक्षण।। चालीसा श्री संभव नाथ, पथ करो श्रद्धा के साथ । मनवांछित सब पूरण होवे, अरुणा जनम मरण दुःख खोवे ।।
  6. श्री आदिनाथ को शीश नवाकर, माता सरस्वती को ध्याय । शुरू करू श्री अजितनाथ का, चालीसा स्व पर सुखदाय ।। जय श्री अजितनाथ जिनराज, पावन चिन्ह धरे गजराज । नगर अयोध्या करते राज, जिनाशत्रू नामक महाराज।। विजयसेना उनकी महारानी, देखे सोलह स्वपना ललामी । दिव्य विमान विजय से चयकर, जननी उदार बसे प्रभु आकर ।। शुक्ल दशमी माघ मास की, जन्म जयंती अजितनाथ की । इन्द्र प्रभु की शीशधार कर, गए सुमेरु हर्षित होकर।। नीर क्षीर सागर से लाकर, नवहन करे भक्ति में भर कर । वस्त्राभूषण दिव्य पहनाये, वापस लौट अयोध्या आये ।। अजितनाथ की शोभा न्यारी, वर्ण स्वर्ण तम क्रांतिकारी । बीता बचपन जब हितकारी, ब्याह हुआ तब मंगलकारी ।। कर्मबंध नहीं हो भोगो में, अंतदृष्टी थी योगो में । चंचल चपला देखी नभ में, हुआ वैराग्य निरंतर मन में ।। राजपाठ निज सूत को देकर, हुए दिगंबर दीक्षा लेकर । छह दिन बाद हुआ आहार, करे श्रेष्ठी ब्रम्हा सत्कार ।। किये पंच अचरज देवों ने, पुन्योपार्जन किया सभी ने । बारह वर्ष तपस्या कीनी, दिव्य ज्ञान की सिद्धि नवीनी ।। धनपति ने इन्द्राज्ञा पाकर, रच दिया समोशरण हर्षाकर । सभा विशाल लगी जिनवर की, दिव्य ध्वनि खिरती प्रभुवर की ।। वाद विवाद मिटाने हेतु, अनेकांत का बाँधा सेतु । हैं सापेक्ष यहा सब तत्व, अन्योन्याक्ष्रित हैं उन सत्व ।। सब जीवों में हैं जो आतम, वे भी हो सकते शुद्धातम । ध्यान अग्नि का ताप मिले जब, केवल ज्ञान की ज्योति जले तब।। मोक्ष मार्ग तो बहुत सरल हैं, लेकिन राही हुए विरल हैं। हीरा तो सब ले नहीं पावे, सब्जी भाजी भीड़ धरावे ।। दिव्य ध्वनि सुनकर जिनवर की, खिली कली जन जन के मन की। प्राप्ति कर सम्यक दर्शन की, बगिया महकी भव्य जनों की ।। हिंसक पशु भी समता धारे, जन्म जन्म का बैर निवारे । पूर्ण प्रभावना हुई धर्म की, भावना शुद्ध हुई भविजन की ।। दूर दूर तक हुआ विहार, सदाचार का हुआ प्रचार । एक माह की उम्र रही जब, गए शिखर सम्मेद प्रभु तब ।। अखंड मौन की मुद्रा की धारण, कर्म अघाती हुए निवारण। शुक्ल ध्यान का हुआ प्रताप, लोक शिखर पर पहुचे आप ।। सिद्धवर कूट की भारी महिमा, गाते सब प्रभु की गुण गरिमा ।। विजित किये श्री अजित ने, अष्ट कर्म बलवान । निहित आत्म गम अमित हैं, अरुणा सुख की खान ।।
  7. चालीसा : भगवान् आदिनाथ (चाँदखेड़ी) (छंद: दोहा) शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम । उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ।। सर्व साधु और सरस्वती जिनमंदिर सुखकार । आदिनाथ भगवान् को मन-मंदिर में धार ।। (चौपार्इ छन्द) जै जै आदिनाथ जिन स्वामी, तीन-काल तिहुँ-जग में नामी । वेष-दिगम्बर धार रहे हो, कर्मों को तुम मार रहे हो ।।१।। हो सर्वज्ञ बात सब जानो; सारी दुनियाँ को पहचानो । नगर अयोध्या जो कहलाये, राजा नाभिराज बतलाये ।।२।। मरुदेवी माता के उदर से, चैत-वदी-नवमी को जन्मे । तुमने जग को ज्ञान सिखाया, कर्मभूमि का बीज उपाया ।।३।। कल्पवृक्ष जब लगे बिछरने, जनता आर्इ दु:खड़ा कहने । सब का संशय तभी भगाया, सूर्य-चंद्र का ज्ञान कराया ।।४।। खेती करना भी सिखलाया, न्याय-दंड आदिक समझाया । तुमने राज किया नीति का, सबक आपसे जग ने सीखा ।।५।। पुत्र आपका भरत बताया, चक्रवर्ती जग में कहलाया । बाहुबलि जो पुत्र तुम्हारे, भरत से पहले मोक्ष सिधारे ।।६।। सुता आपकी दो बतलार्इ, ‘ब्राह्मी’ और ‘सुन्दरी’ कहलार्इ । उनको भी विद्या सिखलार्इ, अक्षर और गिनती बतलार्इ ।।७।। एक दिन राजसभा के अंदर, एक अप्सरा नाच रही थी । आयु उसकी बची अल्प थी, इसीलिए आगे नहिं नाच सकी थी ।।८।। विलय हो गया उसका सत्वर, झट आया वैराग्य उमड़कर । बेटों को झट पास बुलाया, राजपाट सब में बँटवाया ।।९।। छोड़ सभी झंझट संसारी, वन जाने की करी तैयारी । राजा हजारों साथ सिधाए, राजपाट-तज वन को धाये ।।१०।। लेकिन जब तुमने तप कीना, सबने अपना रस्ता लीना । वेष-दिगम्बर तजकर सबने, छाल आदि के कपड़े पहने ।।११।। भूख-प्यास से जब घबराये, फल आदिक खा भूख मिटाये । तीन सौ त्रेसठ धर्म फैलाये, जो अब दुनियाँ में दिखलाये ।।१२।। छै: महीने तक ध्यान लगाये, फिर भोजन करने को धाये । भोजन-विधि जाने नहिं कोय, कैसे प्रभु का भोजन होय ।।१३।। इसी तरह बस चलते चलते, छै: महीने भोजन-बिन बीते । नगर हस्तिनापुर में आये, राजा सोम श्रेयांस बताए ।।१४।। याद तभी पिछला-भव आया, तुमको फौरन ही पड़घाया । रस-गन्ने का तुमने पाया, दुनिया को उपदेश सुनाया ।।१५।। तप कर केवलज्ञान उपाया, मोक्ष गए सब जग हर्षाया । अतिशययुक्त तुम्हारा मंदिर, चाँदखेड़ी भँवरे के अंदर ।।१६।। उसका यह अतिशय बतलाया, कष्ट-क्लेश का होय सफाया । मानतुंग पर दया दिखार्इ, जंजीरें सब काट गिरार्इ ।।१७।। राजसभा में मान बढ़ाया, जैनधर्म जग में फैलाया । मुझ पर भी महिमा दिखलाओ, कष्ट भक्त का दूर भगाओ ।।१८।। (सोरठा) पाठ करे चालीस दिन, नित चालीस ही बार । चाँदखेड़ी में आय के, खेवे धूप अपार ।। जन्म दरिद्री होय जो, होय कुबेर-समान । नाम-वंश जग में चले, जिनके नहीं संतान ।।
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