ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन, दया करे सब पर दुखभंजन ।
जनम मरण के टूटें बंधन, मनमन्दिर तिष्ठे अभिनन्दन ।।
अयोध्या नगरी अति सुन्दर, करते राज्य भूपति संवर ।
सिद्धार्था उनकी महारानी, सुन्दरता में थी लासानी ।।
रानी ने देखे शुभ सपने, बरसे रतन महल के अंगने ।
मुख में देखा हस्ती समाता, कहलाई तीर्थंकर की माता ।।
जननी उदर प्रभु अवतारे, स्वर्गों से आये सुर सारे ।
मात पिता की पूजा करते, गर्भ कल्याणक उत्सव करते ।।
द्वादशी माघ शुक्ला की आई, जन्मे अभिनन्दन जिनराई ।
देवों के भी आसन कांपे, शिशु को लेके गए मेरु पे ।।
नव्हन किया शत आठ कलशों से, अभिनन्दन कहा प्रेम भाव से ।
सूर्य समान प्रभु तेजस्वी, हुए जगत में महा यशस्वी ।।
बोले हित मित वचन सुबोध, वाणी में कही नहीं विरोध ।
यौवन से जब हुए विभूषित, राज्यश्री को किया सुशोभित ।।
साढ़े तीन सौ धनुष प्रमाण, उन्नत प्रभु तन शोभावान ।
परणाई कन्याएं अनेक, लेकिन छोड़ा नहीं विवेक ।।
नित प्रति नूतन भोग भोगते, जल में भिन्न कमल सम रहते ।
एक दिन देखे मेध अम्बर में, मेघ महल बनते पल में ।।
हुए विलीन पवन के चलने से, उदासीन हो गए जगत से ।
राज पाठ निज सूत को सौपा, मन में समता वृक्ष को रोपा ।।
गए उग्र नामक उद्यान, दीक्षित हुए वहा गुणखान ।
शुक्ला द्वादशी थी माघ मास, दो दिन धारा उपवास ।।
तीसरे दिन फिर किया विहार, इन्द्रदत्त नृप ने दिया आहार ।
वर्ष अठारह किया घोर तप, सहे शीत वर्षा और आतप ।।
एक दिन असन वृक्ष के नीचे, ध्यान वृष्टि से आतम सींचे ।
उदय हुआ केवल दिनकर का, लोकालोक ज्ञान में झलका ।।
हुई तब समोशरण की रचना, खीरी प्रभु की दिव्या देशना ।
जीवजीव और धर्माधर्म, आकाश काल षठ्द्रव्य मर्म ।।
जीव द्रव्य ही सारभूत हैं, स्वयं सिद्धि ही परमभुत हैं ।
रूप तीन लोक समझाया, उर्ध्व मध्य अधोलोक बताया ।।
नीचे नरक बताये सात, भुगतें पापी अपने पाप ।
ऊपर सौलह स्वर्ग सुजान, चतुर्निकाय देव विमान ।।
मध्य लोक में द्वीप असंख्य, ढाई द्वीप में जाये भव्य ।
भटकों को सन्मार्ग दिखाया, भव्यो को भव पार लगाया ।।
पहुचे गढ़ सम्मेद अंत में, प्रतिमा योग धरा एकांत में ।
शुक्लध्यान में लीन हुए तब, कर्म प्रकृति क्षीर्ण हुई सब ।।
बैसाख शुक्ल षष्ठी पुन्यवान, प्रातः प्रभु का हुआ निर्वाण ।
मोक्ष कल्याणक करे सुर आकर, आनंद्कुट पूजे हर्षाकर ।।
चालीसा श्री जिन अभिनन्दन,दूर करें सबके भवक्रन्दन ।
स्वामी तुम हो पापनिकन्दन,अरुणा करती शत शत वन्दन ।।