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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

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  1. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सर्वोत्तम धर्म का उपदेश करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सोमशर्म मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    आलोचना, गर्हा, आत्मनिन्दा, व्रत उपवास, स्तुति और कथाएँ तथा इनके द्वारा प्रमाद को असावधानी को नाश करना चाहिए। जैसे मंत्र, औषधि आदि से विष का वेग नाश किया जाता है। इसी सम्बन्ध की यह कथा है ॥२॥
    भारत के किसी हिस्से में बसे हुए पुण्ड्रक देश के प्रधान शहर देवी- कोटपुर में सोमशर्म नाम का ब्राह्मण हो चुका है। सोमशर्म वेद और वेदांग, व्याकरण, निरुरक्त, छन्द, ज्योतिष, शिक्षा और कला का अच्छा विद्वान् था। इसकी स्त्री का नाम सोमिल्या था । इसके अग्निभूति और वायुभूति दो लड़के थे ॥३-४॥
    यहाँ विष्णुदत्त नाम का एक और ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम विष्णु श्री था । विष्णुदत्त अच्छा धनी था। पर स्वभाव का अच्छा आदमी न था । किसी दिन कोई खास जरूरत पड़ने पर सोमशर्म ने विष्णुदत्त से कुछ रुपया कर्ज लिया था। उसका कर्ज अदा न कर पाया था कि एक दिन सोमशर्म के किसी जैनमुनि के धर्मोपदेश से वैराग्य हो जाने से मुनि हो गया। वहाँ से विहार कर वह कहीं अन्यत्र चला गया और दूसरे नगरों और गाँवों में धर्म का उपदेश करता हुआ एक बार फिर वह कोटपुर में आया। विष्णुदत्त ने तब उसे देखकर पकड़ लिया और कहा - साधुजी, आपके दोनों लड़के तो इस समय महा दरिद्र दशा में हैं। उनके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं हैं वे मेरा रुपया नहीं दे सकते। इसलिए या तो आप मेरा रुपया दे दीजिये या अपना धर्म बेच दीजिये । सोमशर्म मुनि के सामने बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई, वे क्या करें, इसकी उन्हें कुछ सूझ न पड़ी। तब उनके गुरु वीरभद्राचार्य ने उनसे कहा-अच्छा तुम जाओ और धर्म बेचो ! उनकी आज्ञा पाकर सोमशर्म मुनि मसान में जाकर धर्म बेचने लगे। इस समय एक देवी ने आकर उनसे पूछा- मुनिराज, जिस धर्म को आप बेच रहे हैं, भला कहिए तो वह कैसा है ? उत्तर में मुनि ने कहा- मेरा धर्म अट्ठाईस मूलगुण और चौरासी लाख उत्तरगुणों से युक्त है तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन और ब्रह्मचर्य इन दस भेद रूप है। धर्म का यह स्वरूप श्री जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। मुनि द्वारा अपने बेचे जाने वाले धर्म की इस प्रकार व्याख्या सुनकर वह देवी बहुत प्रसन्न हुई उसने मुनि को नमस्कार कर धर्म की प्रशंसा में कहा - मुनिराज, आपने जो कहा वह बहुत ठीक है । यही धर्म संसार को वश करने के लिए एक वशीकरण मंत्र है, अमूल्य चिन्तामणि है, सुखरूप अमृत की धारा है और मनचाही वस्तुओं के दुहने-देने के लिए कामधेनु हैं। अधिक क्या किन्तु यह समझना चाहिए कि संसार में जो- जो मनोहरता देख पड़ती है वह सब एक धर्महीन का फल है। धर्म एक सर्वोत्तम अमोल वस्तु है। उसका मोल हो ही नहीं सकता। पर मुनिराज, आपको उस ब्राह्मण का कर्ज चुकाना है। आपका यह उपसर्ग दूर हो, इसलिए दीक्षा समय- केशलोंच किए आपके बालों को उस कर्ज के बदले दिये देती हूँ। यह कहकर देवी उन बालों को अपनी दैवी-माया से चमकते हुए बहुमूल्य रत्न बनाकर आप अपने स्थान पर चल दी। सच है, जैनधर्म का प्रभाव कौन वर्णन कर सकता है, जो कि सदा ही सुख देने वाला और देवों द्वारा पूजा किया जाता है ॥५-१७॥
    सबेरा होने पर विष्णुदत्त, सोमशर्म मुनि के तप का प्रभाव देखकर चकित रह गया। उसकी मुनि पर तब बड़ी श्रद्धा हो गई उसने नमस्कार कर उनकी प्रशंसा में कहा- योगिराज, सचमुच आप बड़े ही भाग्यशाली है। आपके सरीखा विद्वान् और धीर मैंने किसी को नहीं देखा। यह आपही से महात्माओं का काम है जो मोहपाश को तोड़ - तुड़ाकर इस प्रकार दु:सह तपस्या कर रहे हैं। महाराज, आपकी मैं किन शब्दों में तारीफ करूँ, यह मुझे नहीं जान पड़ता। आपने तो अपने जीवन को सफल बना लिया । पर हाय! मैं पापी पापकर्म के उदय से धनरूपी चोरों द्वारा ठगा गया। मैं अब इनके पैंचीले जाल से कैसे छूट सकूँगा? दयासागर ! मुझे बचाइये । नाथ, अब तो मैं आप ही के चरणों की सेवा करूँगा। आपकी सेवा को ही अपना ध्येय बनाऊँगा । तब ही कहीं मेरा भला होगा। इस प्रकार बड़ी देर तक विष्णुदत्त ने सोमशर्म मुनि की स्तुति की । अन्त में प्रार्थना कर उनसे दीक्षा ले वह मुनि हो गया। जो विष्णुदत्त एक ही दिन पहले मुनि की इज्जत, प्रतिष्ठा बिगाड़ने को हाथ धोकर उनके पीछा पड़ा था और मुनि को उपसर्ग कर जिसने पाप बाँधा था वही गुरुभक्ति से स्वर्ग और मोक्ष के सुख का पात्र हो गया। सच है, धर्म की शरण ग्रहण कर सभी सुखी होती हैं । विष्णुदत्त के सिवा और भी बहुतेरे भव्यजन जैनधर्म का ऐसा प्रभाव देखकर जैनधर्म के प्रेमी हो गए और उस धन से, जिसे देवी ने मुनि के बालों को रत्नों के रूप में बनाया था, कोटितीर्थ नाम का एक बड़ा ही सुन्दर जिनमन्दिर बनवा दिया, जिसमें धर्मसाधन कर भव्यजन सुख-शान्ति लाभ - करते थे ॥१८-२४॥
    जो बुद्धिरूपी धन के मालिक, बड़े विचारशील साधु-सन्त जिन भगवान् के द्वारा उपदेश किए, सारे संसार में पूजे-माने जाने वाले, स्वर्ग-मोक्ष के या और सब प्रकार सांसारिक सुख के कारण, संसार का भय मिटाने वाले ऐसे परम पवित्र तप को भक्ति से ग्रहण करते हैं वे कभी नाश न होने वाले मोक्ष सुख का लाभ करते हैं। ऐसे महात्मा योगीराज मुझे भी आत्मीक सच्चा सुख दें ॥२५॥
  2. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनका ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है और संसारसमुद्र से पार करने वाला है, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर उचित काल में शास्त्राध्ययन कर जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जैनतत्त्व के विद्वान् वीरभद्र मुनि एक दिन सारी रात शास्त्राभ्यास करते रहे। उन्हें इस हालत में देखकर श्रुतदेवी एक अहीरनी का वेष लेकर उनके पास आई इसलिए कि मुनि को इस बात का ज्ञान हो जाए कि यह समय शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने का नहीं है। देवी अपने सिर पर छाछ की मटकी रखकर और यह कहती हुई, कि लो, मेरे पास बहुत ही मीठी छाछ है, मुनि के चारों ओर घूमने लगी। मुनि ने तब उसकी और देखकर कहा - अरी, तू बड़ी बेसमझ जान पड़ती है, कहीं पगली तो नहीं हो गई है बतला तो ऐसे एकान्त स्थान में ओर रात में कौन तेरी छाछ खरीदेगा ? उत्तर में देवी ने कहा-महाराज क्षमा कीजिए । मैं तो पगली नहीं हूँ किन्तु मुझे आप ही पागल देख पड़ते हैं। नहीं तो ऐसे असमय में, जिसमें पठन-पाठन की मना है, आप क्यों शास्त्राभ्यास करते ? देवी का उत्तर सुनकर मुनिजी की आँखें खुलीं । उन्होंने आकाश की ओर नजर उठाकर देखा तो उन्हें तारे चमकते हुए देख पड़े उन्हें मालूम हुआ कि अभी बहुत रात है । तब वे पढ़ना छोड़कर सो गए ॥२-७॥
    सबेरा होने पर वे अपने गुरु महाराज के पास गए और अपनी इस क्रिया की आलोचना कर उनसे उन्होंने प्रायश्चित्त लिया। तब से वे शास्त्राभ्यास का जो काल है उसी में पठन-पाठन करने लगे। उन्हें अपनी गलती का सुधार किए देखकर देवी उनसे बहुत खुश हुई। बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा की। सच है, गुणवानों की सभी पूजा करते हैं ॥७-९॥
    इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र का यथार्थ पालन कर वीरभद्र मुनिराज अन्त समय में धर्म-ध्यान से मृत्यु लाभ कर स्वर्गधाम सिधारे ॥१०॥
    भव्यजनों को भी उचित है कि वे जिन भगवान् के उपदेश किए, संसार को अपनी महत्ता से मुग्ध करने वाले, स्वर्ग या मोक्ष की सर्वोच्च सम्पदा को देने वाले, दुःख, शोक, कलंक आदि आत्मा पर लगे हुए कीचड़ को धो- देने वाले, संसार के पदार्थों का ज्ञान कराने में दीये की तरह काम देने वाले और सब प्रकार के सांसारिक सुख के आनुषंगिक कारण ऐसे पवित्र ज्ञान को भक्ति से प्राप्त कर मोक्ष का अविनाशी सुख लाभ करें ॥११॥
  3. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार द्वारा पूजे जाने वाले और केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र है, ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर असमय में जो शास्त्राभ्यास के लिए योग्य नहीं है, शास्त्राभ्यास करने से जिन्हें उसका बुरा फल भोगना पड़ा, उनकी कथा लिखी जाती है । इसलिए कि विचारशीलों को इस बात का ज्ञान हो कि असमय में शास्त्राभ्यास करना अच्छा नहीं है, उसका बुरा फल होता है ॥१॥
    शिवनन्दी मुनि ने अपने गुरु द्वारा यद्यपि यह ज्ञान रखा था कि स्वाध्याय का समय-काल श्रवण नक्षत्र का उदय होने के बाद माना गया है, तथापि कर्मों के तीव्र उदय से वे अकाल में ही  शास्त्राभ्यास किया करते थे । फल इसका यह हुआ कि मिथ्या समाधिमरण द्वारा मरकर उन्होंने गंगा में एक बड़े भारी मच्छ की पर्याय धारण की । सो ठीक ही है जिन भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करने से इस जीव को दुर्गति के दुःख भोगने ही पड़ते हैं ॥२-४॥
    एक दिन नदी किनारे पर एक मुनि शास्त्राभ्यास कर रहे थे । इस मच्छ ने उनके पाठ को सुन लिया। उससे उसे जातिस्मरण हो गया । तब उसने इस बात का बहुत पछतावा किया कि हाय ! मैं पढ़कर भी मूर्ख बना रहा, जो जैनधर्म से विमुख होकर मैंने पापकर्म बाँधा । उसी का यह फल हैं, जो मुझे मच्छ-शरीर लेना पड़ा। इस प्रकार अपनी निन्दा और अपने पापकर्म की आलोचना कर उसने भक्ति से सम्यक्त्व ग्रहण किया, जो कि सब जीवों का हित करने वाला है । इसके बाद वह जिन भगवान् की आराधना कर पुण्य के उदय से स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ। सच है, मनुष्य धर्म की आराधना कर स्वर्ग जाता है और पापी धर्म से उल्टा चलकर दुर्गति में जाता है। पहला सुख भोगता है और दूसरा दुःख उठाता है। यह जानकर बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए धर्म की भक्ति से अपनी शक्ति के अनुसार आराधना करें, जो कि सब सुखों का देने वाला है ॥५-१०॥
    सम्यग्ज्ञान जिसने प्राप्त कर लिया उसकी सारे संसार में कीर्ति होती है, सब प्रकार की उत्तम- उत्तम सम्पदाएँ उसे प्राप्त होती है, शान्ति मिलती है और वह पवित्रता की साक्षात्प्रतिमा बन जाता है। इसलिए भव्यजनों को उचित है कि वे जिन भगवान् के पवित्र ज्ञान को, जो कि देवों और विद्याधरों द्वारा पूजा-माना जाता है, प्राप्त करने का यत्न करें ॥११॥
  4. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर विनयधर्म के पालने वाले मनुष्य की पवित्र कथा लिखी जाती है ॥१॥
    वत्सदेश में सुप्रसिद्ध कौशाम्बी के राजा धनसेन वैष्णव धर्म के मानने वाले थे। उनकी रानी धनश्री, जो बहुत सुन्दरी और विदुषी थी, जिनधर्म पालती थी। उसने श्रावकों के व्रत ले रक्खे थे। यहाँ सुप्रतिष्ठ नाम का एक वैष्णव साधु रहता था। राजा इसका बड़ा आदर-सत्कार कराते थे और यही कारण था कि राजा इसे स्वयं ऊँचे आसन पर बैठाकर भोजन कराते थे । इसके पास एक जलस्तंभिनी नाम की विद्या थी । उससे यह बीच यमुना में खड़ा रहकर ईश्वराराधना किया करता था, पर डूबता न था। इसके ऐसे प्रभाव को देखकर मूढ़ लोग बड़े चकित होते थे । सो ठीक ही है मूर्खों को ऐसी मूर्खता की क्रियाएँ पसन्द हुआ ही करती है ॥२-६॥
    विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर के राजा विद्युत्प्रभ जैनी थे, श्रावकों के व्रतों के पालने वाले थे और उनकी रानी विद्युद्वेगा वैष्णव धर्म की मानने वाली थी । सो एक दिन ये राजा-रानी प्रकृति की सुन्दरता देखते और अपने मन को बहलाते कौशाम्बी की ओर नदी- किनारे आ गए। वहाँ पहुँच कर देखा कि एक साधु यमुना में खड़ा रहकर तपस्या कर रहा है। विद्युत्प्रभ ने सुप्रतिष्ठ को जल में खड़ा देख उसने जान लिया कि यह मिथ्यादृष्टि है। पर उनकी रानी विद्युद्वेगा ने उस साधु की बहुत प्रशंसा की । विद्युत्प्रभ ने रानी से कहा यह कोई मिथ्यादृष्टि है जो लोगों को ठग रहा है। रानी ने कहा नहीं है एक बड़ा साधु है तब विद्युत्प्रभ ने रानी से कहा- अच्छी बात है, प्रिये, आओ तो मैं तुम्हें जरा इसकी मूर्खता बतलाता हूँ। इसके बाद ये दोनों चाण्डाल का वेष बना ऊपर किनारे की ओर गए और मरे ढोरों का चमड़ा नदी में धोने लगे। अपने इस निन्द्यकर्म द्वारा इन्होंने जल को अपवित्र कर दिया। उस साधु को यह बहुत बुरा लगा। सो वह इन्हें कुछ कह सुनकर ऊपर की ओर चला गया। वहाँ उसने फिर नहाया धोया । सच है - मूर्खता के वश लोग कौन काम नहीं करते। साधु की यह मूर्खता देखकर ये भी फिर आगे जाकर चमड़ा धोने लगे। इनकी बार-बार यह शैतानी देखकर साधु को बड़ा गुस्सा आया। तब वह और आगे चला गया। इसके पीछे हो ये दोनों भी जाकर फिर अपना काम करने लगे। गर्ज यह कि इन्होंने उस साधु को बहुत ही कष्ट दिया। तब हार खाकर बेचारे को अपना जप-तप, नाम - ध्यान ही छोड़ देना पड़ा। इसके बाद उस साधु को इन्होंने अपनी विद्या के बल से वन में एक बड़ा भारी महल खड़ा कर देना, झूला बनाकर उस पर झूलना आदि अनेक अचम्भे डालने वाली बातें बतलाई उन्हें देखकर सुप्रतिष्ठ साधु बड़ा चकित हुआ। वह मन में सोचने लगा कि जैसी विद्या इन चाण्डालों के पास है ऐसी तो अच्छे-अच्छे विद्याधरों या देवों के पास भी न होगी। यदि यही विद्या मेरे पास भी होती तो मैं भी इनकी तरह बड़ी मौज मारता। अस्तु, देखें, इनके पास जाकर मैं कहूँ कि ये अपनी विद्या मुझे भी दे दें। इसके बाद वह उनके पास आया और उनसे बोला- आप लोग कहाँ से आ रहे हैं? आपके पास तो लोगों को चकित करने वाली बड़ी-बड़ी करामातें हैं । आपका यह विनोद देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उत्तर में विद्युत्प्रभ विद्याधर ने कहा - योगी जी, आप मुझे नहीं जानते कि मैं चाण्डाल हूँ। मैं तो अपने गुरु महाराज के दर्शन के लिए यहाँ आया हुआ था। गुरुजी ने खुश होकर मुझे जो विद्या दी है, उसी के प्रभाव से यह सब कुछ मैं करता हूँ । अब तो साधुजी के मुँह में भी विद्यालाभ के लिए पानी आ गया। उन्होंने तब उस चाण्डाल रूपधारी विद्याधर से कहा- तो क्या कृपा करके आप मुझे भी यह विद्या दे सकते हैं, जिससे कि मैं भी फिर आपकी तरह खुशी मनाया करूँ । उत्तर में विद्याधर ने कहा- भाई, विद्या के देने में तो मुझे कोई हर्ज मालूम नहीं होता, पर बात यह है कि मैं ठहरा चाण्डाल और आप वेद-वेदांग के पढ़े हुए एक उत्तम कुल के मनुष्य, तब आपका मेरा गुरु-शिष्य भाव नहीं बना सकता और ऐसी हालत में आपसे मेरा विनय भी न हो सकेगा और बिना विनय के विद्या आ नहीं सकती । हाँ यदि आप यह स्वीकार करें कि जहाँ मुझे देख पावें वहाँ मेरे पाँवों में पड़कर बड़ी भक्ति के साथ यह कहें कि प्रभो, आप ही की चरणकृपा से मैं जीता हूँ तब तो मैं आपको विद्या दे सकता हूँ और तभी विद्या सिद्ध हो सकती है। बिना ऐसा किए सिद्ध हुई विद्या भी नष्ट हो जाती है। उसने यह सब बातें स्वीकार कर लीं। तब विद्युत्प्रभ विद्याधर इसे विद्या देकर अपने घर चला गया ॥७-२९॥
    इधर सुप्रतिष्ठ साधु को जैसे ही विद्या सिद्ध हुई, उसने उन सब लीलाओं को करना शुरू किया जिन्हें कि विद्याधर ने किया था । सब बातें वैसी ही हुई देखकर सुप्रतिष्ठ बड़ा खुश हुआ। उसे विश्वास हो गया कि अब मुझे विद्या सिद्ध हो गई। इसके बाद वह भोजन के लिए राजमहल आया । उसे देर से आया हुआ देखकर राजा ने पूछा-भगवन् आज आपको बड़ी देर लगी? मैं बड़ी देर से आपका रास्ता देख रहा हूँ। उत्तर में सुप्रतिष्ठ ने मायाचारी से झूठ-मूठ ही कह दिया कि राजन्, आज मेरी तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सब देव आए थे। ये बड़ी भक्ति से मेरी पूजा करके अभी गए हैं। यही कारण मुझे देरी लगी और राजन् एक बात नई यह हुई कि मैं अब आकाश में ही चलने-फिरने लग गया। सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही में यह सब कौतुक देखने की उसकी मंशा हुई। उसने तब सुप्रतिष्ठ से कहा- अच्छा तो महाराज, अब आप आइए और भोजन कीजिए क्योंकि बहुत देर हो चुकी है। आप वह सब कौतुक मुझे बतलाइएगा। सुप्रतिष्ठ ‘अच्छी बात है' कहकर भोजन के लिए चला आया ॥ ३०-३६॥
    दूसरे दिन सबेरा होते ही राजा और उसके अमीर-उमराव वगैरह सभी सुप्रतिष्ठ साधु के मठ में उपस्थित हुए। दर्शकों का भी ठाठ लग गया। सबकी आँखें और मन साधु की ओर जा लगे कि वह अपना नया चमत्कार बतलावें । सुप्रतिष्ठ साधु भी अपनी करामात बतलाने को आरंभ करने वाला ही था कि इतने में वह विद्युत्प्रभ विद्याधर और उसकी स्त्री उसी चाण्डाल वेष में वहीं आ धमके। सुप्रतिष्ठ के देवता उन्हें देखते ही कूँच कर गए। ऐसे समय उनके आ जाने से इसे उन पर बड़ी घृणा हुई उसने मन ही मन घृणा के साथ कहा-ये दुष्ट इस समय क्यों चले आये। उसका यह कहना था कि उसकी विद्या नष्ट हो गई। वह राजा वगैरह को अब कुछ भी चमत्कार न बतला सका और बड़ा शर्मिन्दा हुआ। तब राजा ने “ऐसा एक साथ क्यों हुआ”, इसका सब कारण सुप्रतिष्ठ से पूछा। झक मारकर फिर उसे सब बातें राजा से कह देनी पड़ीं ॥३७-३९॥
    सुनकर राजा ने उन चाण्डालों को बड़ी भक्ति से प्रणाम किया। राजा की यह भक्ति देखकर उन्होंने वह विद्या राजा को दे दी। राजा उसकी परीक्षा कर बड़ी प्रसन्नता से अपने महल लौट गया। सो ठीक ही है विद्या का लाभ सभी की सुख देने वाला होता है ॥४०-४१॥
    राजा की भी परीक्षा का समय आया । विद्या प्राप्ति के कुछ दिनों बाद एक दिन राजा राज- दरबार में सिंहासन पर बैठा हुआ था । राजसभा सब अमीरों-उमरावों से ठसा - ठस भरी हुई थी। इसी समय राजगुरु चाण्डाल वहाँ आया, जिसने कि राजा को विद्या दी थी । राजा उसे देखते ही बड़ी भक्ति से सिंहासन पर से उठा और उसके सत्कार के लिए कुछ आगे बढ़कर उसने उसे नमस्कार किया और कहा-प्रभो, आप ही के चरणों की कृपा से मैं जीता हूँ । राजा की ऐसी भक्ति और विनयशीलता देखकर विद्युत्प्रभ बड़ा खुश हुआ। उसने तब अपना खास रूप प्रकट किया और राजा को और भी कई विद्याएँ देकर वह अपने घर चला गया। सच है, गुरुओं के विनय से लोगों को सभी सुन्दर-सुन्दर वस्तुएँ प्राप्त होती है। इस आश्चर्य को देखकर धनसेन, विद्युद्वेगा तथा और भी बहुत से लोगों ने श्रावक-व्रत स्वीकार किए। विनय का इस प्रकार फल देखकर अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे गुरुओं का विनय, भक्ति निर्मल भावों से करें ॥४२-४७॥
    जो गुरुभक्ति क्षण मात्र कठिन से कठिन काम को पूरा कर देती है वही भक्ति मेरी सब क्रियाओं की भूषण बने । मैं उन गुरुओं को नमस्कार करता हूँ कि जो संसार - समुद्र से स्वयं तैरकर पार होते हैं और साथ ही और भव्यजनों को पार करते हैं ॥४८-४९॥
    जिनके चरणों की पूजा देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े महापुरुष करते है उन जिन भगवान् का, उनके रचे पवित्र शास्त्रों का और उनके बताये मार्ग पर चलने वाले मुनिराजों का जो हृदय से विनय करते हैं, उनकी भक्ति करते है उनके पास कीर्ति, सुन्दरता, उदारता, सुख-सम्पत्ति और ज्ञान - आदि पवित्र गुण अत्यन्त पड़ोसी होकर रहते हैं अर्थात् विनय के फल से उन्हें सब गुण होते हैं ॥५०॥
  5. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार का हित करने वाले जिनभगवान् को परम भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अमूढदृष्टि अंग का पालन करने वाली रेवती रानी की कथा लिखता हूँ । विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघकूट नाम का एक सुन्दर शहर है। उसके राजा हैं चन्द्रप्रभ। चन्द्रप्रभ ने बहुत दिनों तक सुख के साथ अपना राज्य किया। एक दिन वे बैठे हुए थे कि एकाएक उन्हें तीर्थयात्रा करने की इच्छा हुई। राज्य का कारोबार अपने चन्द्रशेखर नाम के पुत्र को सौंपकर वे तीर्थयात्रा के लिए चल दिये। वे यात्रा करते हुए दक्षिण मथुरा में आये। उन्हें पुण्य से वहाँ गुप्ताचार्य के दर्शन हुए। आचार्य से चन्द्रप्रभ ने धर्मोपदेश सुना। उनके उपदेश का उन पर बहुत असर पड़ा। वे आचार्य के द्वारा-
    प्रोक्तः परोपकारोऽत्र महापुण्याय भूतले । - ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् परोपकार करना महान् पुण्य का कारण है, यह जानकर और तीर्थयात्रा करने के लिए एक विद्या को अपने अधिकार में रखकर क्षुल्लक बन गये ॥१-६॥
    एक दिन उनकी इच्छा उत्तर मथुरा की यात्रा करने की हुई। जब वे जाने को तैयार हुए तब उन्होंने अपने गुरु महाराज से पूछा- हे दया के समुद्र ! मैं यात्रा के लिए जा रहा हूँ, क्या आपको कुछ समाचार तो किसी के लिए नहीं कहना है ? गुप्ताचार्य बोले- मथुरा में एक सूरत नाम के बड़े ज्ञानी और गुणी मुनिराज हैं, उन्हें मेरा नमस्कार कहना और सम्यग्दृष्टिनी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि
    कहना ॥७-९॥
    क्षुल्लक ने और पूछा कि इसके सिवा और भी आपको कुछ कहना है क्या ? आचार्य ने कहा नहीं। तब क्षुल्लक ने विचारा कि क्या कारण है जो आचार्य ने एकादशांग के ज्ञाता श्री भव्यसेन मुनि तथा और-और मुनियों की रहते उन्हें कुछ नहीं कहा और केवल सूरत मुनि और रेवती के लिए ही नमस्कार किया तथा धर्मवृद्धि दी ? इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। अस्तु । जो कुछ होगा वह आगे स्वयं मालूम हो जायेगा। यह सोचकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक वहाँ से चल दिये। उत्तर मथुरा पहुँचकर उन्होंने सूरत मुनि को गुप्ताचार्य की वन्दना कह सुनाई । उससे सूरत मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चन्द्रप्रभ के साथ खूब वात्सल्य का परिचय दिया । उससे चन्द्रप्रभ को बड़ी खुशी हुई। बहुत ठीक कहा है ॥१०-१२॥
    ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः ।
    साधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले ॥ - ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् संसार में उन्हीं का जन्म लेना सफल है जो धर्मात्माओं से वात्सल्य-प्रेम करते हैं।
    इसके बाद क्षुल्लक चन्द्रप्रभ एकादशांग के ज्ञाता, पर नाम मात्र के भव्यसेन मुनि के पास गये। उन्होंने भव्यसेन को नमस्कार किया । पर भव्यसेन मुनि ने अभिमान में आकर चन्द्रप्रभ को धर्मवृद्धि तक भी न दी। ऐसे अभिमान को धिक्कार है जिन अविचारी पुरुषों के वचनों में भी दरिद्रता है जो वचनों से भी प्रेमपूर्वक आये हुए अतिथि से नहीं बोलते वे उनका और क्या सत्कार करेंगे ? उनसे तो स्वप्न में भी अतिथिसत्कार नहीं बन सकेगा। जैन शास्त्रों का ज्ञान सब दोषों से रहित है, निर्दोष है। उसे प्राप्त कर हृदय पवित्र होना ही चाहिए। पर खेद है कि उसे पाकर भी मान होता है। पर यह शास्त्र का दोष नहीं किन्तु यों कहना चाहिए कि पापियों के लिए अमृत भी विष हो जाता है। जो हो, तब भी देखना चाहिए कि इनमें कुछ भी भव्यपना है भी या केवल नाम मात्र के ही भव्य हैं? यह विचार कर दूसरे दिन सबेरे जब भव्यसेन कमण्डलु लेकर शौच के लिए चले तब उनके पीछे-पीछे चन्द्रप्रभ क्षुल्लक भी हो लिए। आगे चलकर क्षुल्लक महाशय ने अपने विद्याबल से भव्यसेन के आगे की भूमि को कोमल और हरे-हरे तृणों से युक्त कर दिया । भव्यसेन उसकी कुछ परवाह न कर और यह विचार कर कि जैनशास्त्रों में तो इन्हें एकेन्द्री कहा है, इनकी हिंसा का विशेष पाप नहीं होता, उस पर से निकल गए। आगे चलकर जब वे शौच हो लिए और शुद्धि के लिए कमण्डलु की ओर देखा तो उसमें जल नहीं और वह औंधा पड़ा हुआ है, तब तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई । इतने में एकाएक क्षुल्लक महाशय भी उधर आ निकले। कमण्डलु का जल यद्यपि क्षुल्लकजी ने ही अपने विद्याबल से सुखा दिया था, तब भी वे बड़े आश्चर्य के साथ भव्यसेन से बोले- मुनिराज, पास ही एक निर्मल जल का सरोवर भरा हुआ है, वहीं जाकर शुद्धि कर लीजिए न? भव्यसेन ने अपने पदस्थ पर, अपने कर्तव्य पर कुछ भी ध्यान न देकर जैसा क्षुल्लक ने कहा, वैसा ही कर लिया। सच बात तो यह है - ॥१३-२३॥
    किं करोति न मूढात्मा कार्यं मिथ्यात्वदूषितः ।
    न स्यान्मुक्तिप्रदं ज्ञानं चरित्रं दुर्दशामपि ॥
     उद्गतो भास्करश्चापि किं घूकस्य सुखायते ।
     मिथ्यादृष्टेः श्रुतं शास्त्रं कुमार्गाय प्रवर्तते ।
    यथा मृष्टं भवेत्कष्टं सुदुग्धं तुम्बिकागतम् ॥ -ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् मूर्ख पुरुष मिथ्यात्व के वश होकर कौन बुरा काम नहीं करते ? मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान और चारित्र मोक्ष का कारण नहीं होता । जैसे सूर्य के उदय से उल्लू को कभी सुख नहीं होता। मिथ्यादृष्टियों का शास्त्र सुनना, शास्त्राभ्यास करना केवल कुमार्ग में प्रवृत होने का कारण है। जैसे मीठा दूध भी तूबड़ी के सम्बन्ध से कड़वा हो जाता है। इन सब बातों को विचार क्षुल्लक ने भव्यसेन के आचरण से समझ लिया कि ये नाम मात्र के जैनी हैं, पर वास्तव में इन्हें जैनधर्म पर श्रद्धान नहीं, ये मिथ्यात्वी हैं। उस दिन से चन्द्रप्रभ ने भव्यसेन का नाम अभव्यसेन रखा। सच बात है दुराचार से क्या नहीं होता ? ॥२४-२८॥
    क्षुल्लक ने भव्यसेन की परीक्षा कर अब रेवती रानी की परीक्षा करने का विचार किया। दूसरे दिन उसने अपने विद्याबल से कमल पर बैठे हुए और वेदों का उपदेश करते हुए चतुर्मुख ब्रह्मा का वेष बनाया और शहर से पूर्व दिशा की ओर कुछ दूरी पर जंगल में वह ठहरा। यह हाल सुनकर राजा, भव्यसेन आदि सभी वहाँ गए और ब्रह्माजी को उन्होंने नमस्कार किया। उनकी चरण वंदना कर वे बड़े खुश हुए। राजा ने चलते समय अपनी प्रिया रेवती से भी ब्रह्माजी की वन्दना के लिए चलने को कहा था, पर रेवती सम्यक्त्व रत्न से भूषित थी, जिनभगवान् की अनन्यभक्त थी इसलिए वह नहीं गई। उसने राजा से कहा-महाराज, मोक्ष और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र को प्राप्त कराने वाला सच्चा ब्रह्मा जिनशासन में आदि जिनेन्द्र कहा गया है, उसके सिवा अन्य ब्रह्मा हो ही नहीं सकता और जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए आप जा रहे हैं, वह ब्रह्मा नहीं है किन्तु कोई धूर्त ठगने के लिए ब्रह्मा का वेष लेकर आया है। मैं तो नहीं चलूँगी ॥ २९-३५॥
    दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए, चतुर्बाहु, शंख, चक्र, गदा आदि से युक्त और दैत्यों को कँपाने वाले वैष्णव भगवान् का वेष बनाकर दक्षिण दिशा में अपना डेरा जमाया ॥३६-३७॥
    तीसरे दिन उस बुद्धिमान् क्षुल्लक ने बैल पर बैठे हुए, पार्वती के मुख कमल को देखते हुए, सिर पर जटा रखाये हुए, गणपति युक्त और जिन्हें हजारों देव आ-आकर नमस्कार कर रहे हैं, ऐसा शिव का वेष धारण कर पश्चिम दिशा की शोभा बढ़ाई ॥३८-३९॥
    चौथे दिन उसने अपनी माया से सुन्दर समवसरण में विराजे हुए, आठ प्रातिहार्यों से विभूषित, मिथ्यादृष्टियों के मान को नष्ट करने वाले मानस्तंभादि से युक्त, निर्ग्रन्थ और जिन्हें हजारों देव,विद्याधर, चक्रवर्ती आ-आकर नमस्कार करते हैं, ऐसा संसार श्रेष्ठ तीर्थंकर का वेष बनाकर उत्तर दिशा को अलंकृत किया। तीर्थंकर भगवान् का आगमन सुनकर सबको बहुत आनन्द हुआ। सब प्रसन्न होते हुए भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करने को गए । राजा, भव्यसेन आदि भी उनमें शामिल थे । तीर्थंकर भगवान् के दर्शनों के लिए भी रेवती रानी को न जाती हुई देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ । बहुतों ने उससे चलने के लिए आग्रह भी किया, पर वह न गई कारण, वह सम्यक्त्वरूप मौलिक रत्न से भूषित थी, उसे जिनभगवान् के वचनों पर पूरा विश्वास था कि तीर्थंकर परम देव चौबीस ही होते हैं और वासुदेव नौ और रुद्र ग्यारह होते हैं। फिर उनकी संख्या को तोड़ने वाले ये दसवें वासुदेव, बारहवें रुद्र और पच्चीसवें तीर्थंकर आ कहाँ से सकते हैं? वे तो अपने-अपने कर्मों के अनुसार जहाँ उन्हें जाना था वहाँ चले गए। फिर यह नई सृष्टि कैसी ? इनमें न तो कोई सच्चा रुद्र है, न वासुदेव है और न तीर्थंकर है किन्तु कोई मायावी ऐन्द्रजालिक अपनी धूर्तता से लोगों को ठगने के लिए आया है। यह विचार कर रेवती रानी तीर्थंकर की वन्दना के लिए भी नहीं गई। सच है कहीं वायु से मेरु पर्वत भी चला है? ॥४०-४८॥
    इसके बाद चन्द्रप्रभ, क्षुल्लक वेष ही में, पर अनेक प्रकार की व्याधियों से युक्त तथा अत्यन्त मलिन शरीर होकर रेवती के घर भिक्षा के लिए पहुँचे। आँगन में पहुँचते ही वे मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़े। उन्हें देखते ही धर्मवत्सला रेवती रानी हाय-हाय कहती हुई उनके पास दौड़ी गई और बड़ी भक्ति और विनय से उसने उन्हें उठाकर सचेत किया। इसके बाद अपने महल में ले जाकर बड़े कोमल और पवित्र भावों से उसने उन्हें प्रासुक आहार कराया। सच है जो दयावान् होते हैं उनकी बुद्धि दान देने में स्वभाव ही से तत्पर रहती है ॥४९-५३॥
    क्षुल्लक को अब तक भी रेवती की परीक्षा से सन्तोष नहीं हुआ। सो उन्होंने भोजन करने के साथ ही वमन कर दिया, जिसमें अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही थी क्षुल्लक की यह हालत देखकर रेवती को बहुत दुःख हुआ। उसने बहुत पश्चाताप किया कि न जाने क्या अपथ्य मुझ पापिनी के द्वारा दे दिया गया, जिससे इनकी यह हालत हो गई मेरी इस असावधानता को धिक्कार है । इस प्रकार बहुत कुछ है पश्चाताप करके उसने क्षुल्लक का शरीर पोंछा और बाद में कुछ गरम जल से उसे धोकर साफ किया ॥५४-५६॥
    क्षुल्लक रेवती की भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वे अपनी माया समेट कर बड़ी खुशी के साथ रेवती से बोले-देवी, संसार श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्मवृद्धि तेरे मन को पवित्र करे, जो कि सब सिद्धियों की देने वाली है और तुम्हारे नाम से मैंने यात्रा में जहाँ-जहाँ जिनभगवान् की पूजा की है वह भी तुम्हें कल्याण की देने वाली हो ॥५७-६०॥
    देवी, तुमने जिन संसार श्रेष्ठ और संसार समुद्र से पार करने वाले अमूढदृष्टि अंग को ग्रहण किया है, उसकी मैंने नाना तरह से परीक्षा की, पर उसमें तुम्हें अचल पाया तुम्हारे इस त्रिलोक पूज्य सम्यक्त्व की कौन प्रशंसा करने को समर्थ हैं? कोई नहीं । इस प्रकार गुणवती रेवती रानी की प्रशंसा कर और उसे सब हाल कहकर क्षुल्लक अपने स्थान चले गए ॥६१-६३॥
    इसके बाद वरुण नृपति और रेवती रानी का बहुत समय सुख के साथ बीता। एक दिन राजा को किसी कारण से वैराग्य हो गया है। वे अपने शिवकीर्ति नामक पुत्र को राज्य सौंपकर और सब माया जाल तोड़कर तपस्वी बन गए। साधु बनकर उन्होंने खूब तपश्चर्या की और आयु के अन्त में समाधिमरण कर वे माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए ॥६४-६५॥
  6. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    पुण्य के कारण जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर उपधान अवग्रह की अर्थात् वह काम जब तक न होगा तब तक मैं ऐसी प्रतिज्ञा करता हूँ, इस प्रकार का नियम कर जिसने फल प्राप्त किया, उसकी कथा लिखी जाती है, जो सुख को देने वाली है॥१॥
    अहिच्छत्रपुर के राजा वसुपाल बड़े बुद्धिमान् थे। जैनधर्म पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। उनकी रानी का नाम वसुमती था । वसुमती भी अपने स्वामी के अनुरूप बुद्धिमती और धर्म पर प्रेम करने वाली थी। वसुपाल ने एक बड़ा ही विशाल और सुन्दर ' सहस्रकूट' नाम का जिनमन्दिर बनवाया।उसमें उन्होंने श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा विराजमान की । राजा ने प्रतिमा पर लेप चढ़ाने को एक अच्छे होशियार लेपकार को बुलाया और प्रतिमा पर लेप चढ़ाने को उससे कहा। राजाज्ञा पाकर लेपकार ने प्रतिमा पर बहुत सुन्दरता से लेप चढ़ाया । पर रात होने पर वह लेप प्रतिमा पर से गिर पड़ा। दूसरे दिन फिर ऐसा ही किया गया। रात में वह लेप भी गिर पड़ा। गर्ज यह कि वह दिन में लेप लगाता और रात में वह लेप गिर पड़ता । इस तरह उसे कई दिन बीत गए। ऐसा क्यों होता है, इसका उसे कुछ भी कारण न जान पड़ा। उससे वह तथा राजा वगैरह बड़े दुःखी हुए। बात असल में यह थी कि वह लेपकार मांस खाने वाला था । इसलिए उसकी अपवित्रता से प्रतिमा पर लेप न ठहरता था। तब उस लेपकार को एक मुनि द्वारा ज्ञान हुआ कि प्रतिमा अतिशय वाली है, कोई शासनदेवी या देव उसकी रक्षा में सदा नियुक्त रहते हैं । इसलिए जब तक यह कार्य पूरा हो तब तक मुझे मांस के न खाने का व्रत लेना चाहिए। लेपकार ने वैसा ही किया, मुनिराज के पास उसने मांस न खाने का नियम ले लिया। इसके बाद जब उसने दूसरे दिन लेप किया तो अब की बार वह ठहर गया। सच है, व्रती पुरुषों के कार्य की सिद्धि होती ही है। तब राजा ने अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण देकर लेपकार का बड़ा आदर-सत्कार किया । जिस तरह इस लेपकार ने अपने कार्य की सिद्धि के लिए नियम किया उसी प्रकार और लोगों को तथा मुनियों को भी ज्ञान प्रचार, शासन-प्रभावना आदि कामों में अवग्रह या प्रतिज्ञा करना चाहिए ॥२-११॥
    वह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया ज्ञानरूपी समुद्र मुझे भी केवलज्ञानी-सर्वज्ञ बनावें, जो अत्यन्त पवित्र साधुओं द्वारा आत्म-सुख की प्राप्ति के लिए सेवन किया जाता है और देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि बड़े - बड़े महापुरुष जिसे भक्ति से पूजते हैं ॥१२॥
  7. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान धारी जिन भगवान् को नमस्कार का मान करने से बुरा फल प्राप्त करने वाले की कथा लिखी जाती है। इस कथा को सुनकर जो लोग मान के छोड़ने का यत्न करेंगे वे सुख लाभ करेंगे ॥१॥
    बनारस के राजा वृषध्वज प्रजा का हित चाहने वाले और बड़े बुद्धिमान् थे । इनकी रानी का नाम वसुमती था। वसुमती बड़ी सुन्दर थी। राजा का उस पर अत्यन्त प्रेम था ॥२-३॥
    गंगा के किनारे पर पलास नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें अशोक नाम का एक ग्वाला रहता था । वह ग्वाला राजा को गाँव के लगान में कोई एक हजार घी के भरे घड़े दिया करता था। उसकी स्त्री नन्दा पर इसका प्रेम न था । इसलिए कि वह बाँझ थी और यह सच है, सुन्दर या गुणवान् स्त्री भी बिना पुत्र के शोभा नहीं पाती है और न उस पर पति का पूरा प्रेम होता है । वह फल रहित लता की तरह निष्फल समझी जाती है। अपनी पहली स्त्री को निःसन्तान देखकर अशोक ग्वाले ने एक और ब्याह कर लिया। इस नई स्त्री का नाम सुनन्दा था। कुछ दिनों तक तो इन दोनों सौतों में लोक-लाज से पटती रही, पर जब बहुत ही लड़ाई-झगड़ा होने लगा तब अशोक ने इनसे तंग आकर अपनी जितनी धन-सम्पत्ति थी उसे दोनों के लिए आधी-आधी बाँट दिया । नन्दा को अलग घर में रहना पड़ा और सुनन्दा अशोक के पास ही रही । नन्दा में एक बात बड़ी अच्छी थीं वह एक तो समझदार थी। दूसरे वह अपने दूध दुहने के लिए बरतन वगैरह को बड़ा साफ रखती । उसे सफाई बड़ी पसन्द थी। इसके सिवा वह अपने नौकर ग्वाले पर बड़ा प्रेम करती। उन्हें अपना नौकर न समझ अपने कुटुम्ब की तरह मानती। वह उनका बड़ा आदर-सत्कार करती। उन्हें हर एक त्यौहारों के मौकों पर दान- मानादि से बड़ा खुश रखती। इसलिए वे ग्वाले लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उनके कामों को अपना ही समझ कर किया करते थे। जब वर्ष पूरा होता तो नन्दा राज लगान के हजार घी के घड़ों से अपना आधा हिस्सा पाँच सौ घड़े अपने स्वामी को प्रतिवर्ष दे दिया करती थी। पर सुनन्दा में ये सब बातें न थीं। उसे अपनी सुन्दरता का बड़ा अभिमान था । इसके सिवा यह बड़ी शौकीन थी । साज - सिंगार में ही उसका सब समय चला जाता था। वह अपने हाथों से कोई काम करना पसन्द न करती थी। सब नौकर-चाकरों द्वारा ही होता था। इस पर भी उसका अपने नौकरों के साथ अच्छा बरताव न था । सदा उनके साथ वह माथा- -फोड़ी किया करती थी। किसी का अपमान करती, किसी को गालियाँ देती और किसी को भला-बुरा कहकर झिटकारती । न वह उन्हें कभी त्यौहारों पर कुछ देकर प्रसन्न करती। गर्ज यह कि सब नौकर-चाकर उससे प्रसन्न न थे। जहाँ तक उनका बस चलता वे भी सुनन्दा को हानि पहुँचाने का यत्न करते थे। यहाँ तक कि वे जो गायों को चराने जंगल में ले जाते, वहाँ उनका दूध दुह कर पी लिया करते थे। इससे सुनन्दा के यहाँ पहले वर्ष में ही घी बहुत थोड़ा हुआ। वह राज लगान का अपना आधा हिस्सा भी न दे सकी। उसके इस आधे हिस्से को भी बेचारी नन्दा ने ही चुकाया । सुनन्दा की यह दशा देख कर अशोक ने घर से निकाल बाहर की । नन्दा को अपना गया अधिकार प्राप्त हुआ । पुण्य से वह अशोक की प्रेमपात्र हुई । घर बार, धन-दौलत की वह मालकिन हुई जिस प्रकार नन्दा अपने घर गृहस्थी के कामों को अच्छी तरह चलाने के लिए सदा दान - मानादि किया करती उसी प्रकार अपने पारमार्थिक कामों के लिए भव्यजनों को भी अभिमान रहित होकर जैनधर्मखुश रखती। इसलिए वे ग्वाले लोग भी उसे बहुत चाहते थे और उनके कामों को अपना ही समझ कर किया करते थे। जब वर्ष पूरा होता तो  की उन्नति के कार्यों में दान- मानादि करते रहना चाहिए। उससे वे सुखी होंगे और सम्यग्ज्ञान लाभ करेंगे। जो स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले जिन भगवान् को बड़ी भक्ति से पूजा-प्रभावना करते हैं, भगवान् के उपदेश किए शास्त्रों के अनुसार चल उनका सत्कार करते हैं, पवित्र जैनधर्म पर श्रद्धा - विश्वास करते हैं और सज्जन धर्मात्माओं का आदर सत्कार करते हैं वे संसार में सर्वोच्च यश लाभ करते हैं और अन्त में कर्मों का नाश कर परम पवित्र केवलज्ञान - कभी नाश न होने वाला सुख प्राप्त करते हैं ॥४-१७॥
  8. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनके सर्व-श्रेष्ठ ज्ञान में यह सारा संसार परमाणु के समान देख पड़ता है, उन सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर निह्नव - जिस प्रकार जो बात हो उसे उसी प्रकार न कहना, उसे छुपाना, इस सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
    उज्जैन के राजा धृतिषेण की रानी मलयावती के चण्डप्रद्योत नाम का एक पुत्र था। वह जैसा सुन्दर था वैसा ही गुणवान् भी था। पुण्य के उदय से उसे सभी सुख सामग्री प्राप्त थी ॥३॥
    एक बार दक्षिण देश के वेनातट नगर में रहने वाले सोमशर्मा ब्राह्मण का कालसंदीव नाम का विद्वान् पुत्र उज्जैन में आया । वह कई भाषाओं का जानने वाला था । इसलिए धृतिषेण ने चण्डप्रद्योत को पढ़ाने के लिए उसे रख लिया। कालसंदीव ने चण्डप्रद्योत को कई भाषाओं का ज्ञान कराने के बाद एक म्लेच्छ-अनार्यभाषा को पढ़ाना शुरू किया । इस भाषा का उच्चारण बड़ा ही कठिन था। राजकुमार को उसके पढ़ने में बहुत दिक्कत पड़ा करती थी । एक दिन कोई ऐसा ही पाठ आया, जिसका उच्चारण बहुत क्लिष्ट था । राजकुमार से उसका ठीक-ठीक उच्चारण न बन सका । कालसन्दीव ने उसे शुद्ध उच्चारण कराने की बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता प्राप्त न हुई इससे कालसन्दीव को कुछ गुस्सा आ गया। गुस्से में आकर उसने राजकुमार के एक लात मार दी । चण्डप्रद्योत था तो राजकुमार ही सो उसका भी कुछ मिजाज बिगड़ गया। उसने अपने गुरु महाराज से तब कहा-अच्छा महाराज, आपने जो मुझे मारा हैं, मैं भी इसका बदला लिए बिना न छोडूंगा। मुझे आप राजा होने दीजिये, फिर देखिएगा कि मैं भी आपके इसी पाँव को काटकर ही रहूँगा। सच है, बालक कम-बुद्धि हुआ ही करते हैं । कालसन्दीव कुछ दिनों तक और यहाँ रहा, फिर वह यहाँ से दक्षिण की ओर चला गया। उधर कालसन्दीव को एक दिन किसी मुनि का उपदेश सुनने का मौका मिला। उपदेश सुनकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । वह मुनि हो गया ॥४-९॥
    इधर धृतिषेण राजा भी चण्डप्रद्योत को सब राज-काज सौंपकर साधु बन गया। राज्य की बागडोर चण्डप्रद्योत के हाथ में आयी । इसमें कोई सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योत ने भी राज्य शासन बड़ी नीति के साथ चलाया। प्रजा के हित के लिए उसने कोई बात उठा न रखी ॥१०॥
    एक दिन चण्डप्रद्योत पर एक यवनराज का पत्र आया । भाषा उसकी अनार्य थी । उस पत्र को कोई राजकर्मचारी न बाँच सका। तब राजा ने उसे देखा तो वह उससे बच गया। पत्र पढ़कर राजा की अपने गुरु कालसन्दीव पर बड़ी भक्ति हो गई। उसने बचपन की अपनी प्रतिज्ञा को उसी समय भुला दिया। इसके बाद राजा ने कालसन्दीव का पता लगाकर उन्हें अपने शहर बुलाया और बड़ी भक्ति से उनके चरणों की पूजा की। सच है, गुरुओं के वचन भव्यजनों को उसी तरह सुख देने वाले होते हैं जैसे रोगी को औषधि ॥११- १४॥
    कालसन्दीव मुनि यहाँ श्वेतसन्दीव नाम के किसी एक भव्य को दीक्षा देकर फिर बिहार कर गए। मार्ग में पड़ने वाले शहरों और गाँवों में उपदेश करते हुए वे विपुलाचल पर महावीर भगवान् के समवसरण में गए, जो कि बड़ी शान्ति देने वाला था। भगवान् के दर्शन कर उन्हें बहुत शान्ति मिली। वन्दना कर भगवान् का उपदेश सुनने के लिए वे वहीं बैठ गए ॥१५-१७॥
    श्वेतसन्दीव मुनि भी इन्हीं के साथ थे। वे आकर समवसरण के बाहर आतापन योग द्वारा तप करने लगे। भगवान् के दर्शन कर जब महामण्डलेश्वर श्रेणिक जाने लगे तब उन्होंने श्वेतसन्दीव मुनि को देखकर पूछा- आपके गुरु कौन है; किनसे आपने यह दीक्षा ग्रहण की? उत्तर में श्वेतसंदीव मुनि ने कहा- राजन्, मेरे गुरु श्रीवर्धमान भगवान् है । इतना कहना था कि उनका सारा शरीर काला पड़ गया। यह देख श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने जाकर गणधर भगवान् से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा-श्वेतसन्दीव के असल गुरु हैं कालसंदीव, जो कि यहीं बैठे हुए हैं। उनका इन्होंने निह्नव किया-सच्ची बात न बतलाई इसलिए उनका शरीर काला पड़ गया है। तब श्रेणिक ने श्वेतसंदीव को समझा कर उनकी गलती उन्हें सुझाई और कहा - महाराज, आपकी अवस्था के योग्य ऐसी बातें नहीं हैं ऐसी बातों से पाप बन्ध होता है इसलिए आगे से आप कभी ऐसा न करेंगे, यह मेरी आपसे प्रार्थना है। श्रेणिक की इस शिक्षा का श्वेतसंदीव मुनि के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा। वे अपनी भूल पर बहुत पछताये। इस आलोचना से उनके परिणाम बहुत उन्नत हुए। यहाँ तक कि उसी समय शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया। वे सारे संसार द्वारा अब पूजे जाने लगे । अन्त में अघातिया कर्मों को नष्ट कर उन्होंने मोक्ष का अनन्त सुख लाभ किया । श्वेतसंदीव मुनि के इस वृत्तान्त से भव्यजनों को शिक्षा लेनी चाहिए कि वे अपने गुरु आदि का निह्नव न करें क्योंकि गुरु स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले हैं, इसलिए सेवा करने योग्य हैं ॥१८-२६॥
    वे श्रीश्वेतसंदीव मुनि मेरे बढ़ते हुए संसार की - भव - भ्रमण की शान्ति कर-मेरा संसार का भटकना मिटाकर मुझे कभी नाश न होने वाला और अन्त मोक्ष - सुख दें, जो केवलज्ञानरूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, भव्यजनों को हित की ओर लगाने वाले हैं, देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूज्य है और अनन्तचतुष्टय - अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त हैं तथा और भी अनन्त गुणों के समुद्र हैं ॥२७॥
  9. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अक्षरहीन अर्थ की कथा लिखी जाती है। मगधदेश की राजधानी राजगृह के राजा जब वीरसेन थे, उसी समय की यह कथा है। वीरसेन की रानी का नाम वीरसेना था। इनके एक पुत्र हुआ, उसका नाम रखा गया सिंह । सिंह को पढ़ाने के लिए वीरसेन महाराज ने सोमशर्मा ब्राह्मण को रखा । सोमशर्मा सब विषयों का अच्छा विद्वान् था ॥१-३॥
    पोदनपुर के राजा सिंहरथ के साथ वीरसेन की बहुत दिनों से शत्रुता चली आती थी । सो मौका पाकर वीरसेन ने उस पर चढ़ाई कर दी। वहाँ से वीरसेन ने अपने यहाँ एक राज्य-व्यवस्था की बाबत पत्र लिखा और समाचारों के सिवा पत्र में वीरसेन ने एक यह भी समाचार लिख दिया था कि राजकुमार सिंह के पठन-पाठन की व्यवस्था अच्छी तरह करना। इसके लिए उन्होंने यह वाक्य लिखा था कि ‘सिंहो ध्यापयितव्यः”। जब यह पत्र पहुँचा तो इसे एक अर्धदग्ध ने बाँचकर सोचा-‘ध्यै' धातु का अर्थ है स्मृति या चिन्ता करना इसलिए अर्थ हुआ कि 'राजकुमार पर अब राज्य-चिन्ता का भार डाला जाये' उसे अब पढ़ाना उचित नहीं । बात यह थी कि उक्त वाक्य के पृथक् पद करने से - " सिंहः अध्यापयितव्यः” ऐसे पद होते हैं और इनका अर्थ होता है - सिंह को पढ़ाना, पर उस बाँचने वाले अर्धदग्ध ने इस वाक्य के - " सिंहः ध्यापयितव्य" ऐसे पद समझकर इसके सन्धिस्थ अकार पर ध्यान न दिया और केवल ‘ध्यै' धातु से बने हुए 'ध्यापयितव्यः' का चिन्ता अर्थ करके राजकुमार का लिखना-पढ़ना छुड़ा दिया । व्याकरण के अनुसार तो उक्त वाक्य के दोनों ही तरह पद होते है और दोनों ही शुद्ध हैं, पर यहाँ केवल व्याकरण की ही दरकार न थी । कुछ अनुभव भी होना चाहिए था । पत्र बाँचने वाले में इस अनुभव की कमी होने से उसने राजकुमार का पठन-पाठन छुड़ा दिया। इसका फल यह हुआ कि जब राजा आए और अपने कुमार का पठन-पाठन छूटा हुआ देखा तो उन्होंने उसके कारण की तलाश की। यथार्थ बात मालूम हो जाने पर उन्हें उस अर्धदग्ध-मूर्ख पत्र बाँचने वाले पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने इस मूर्खता की उसे बड़ी कड़ी सजा दी। इस कथा से भव्यजनों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वे कभी ऐसा प्रमाद न करें, जिससे कि अपने कार्य को किसी भी तरह की हानि पहुँचे। जिस प्रकार गुणहीन औषधि से कोई लाभ नहीं होता, वह शरीर के किसी रोग को नहीं मिटा सकती, उसी तरह अक्षर रहित शास्त्र या मन्त्र वगैरह भी लाभ नहीं पहुँचा सकते। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे सदा शुद्ध रीति से शास्त्राभ्यास करें - उसमें किसी तरह का प्रमाद न करें, जिससे कि हानि होने की संभावना है ॥४-११॥
  10. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ऐसे पाँच कल्याणों में स्वर्ग के देवों ने आकर जिनकी बड़ी भक्ति से पूजा की, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर अर्थहीन अर्थात् उल्टा अर्थ करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    वसुपाल अयोध्या के राजा थे। उनकी रानी का नाम वसुमती था । इनके वसुमित्र नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था । वसुपाल ने अपने पुत्र के लिखने-पढ़ने का भार एक गर्ग नाम के विद्वान् पंडित को सौंपकर उज्जैन के राजा वीरदत्त पर चढ़ाई कर दी। कारण वीरदत्त हर समय वसुपाल का मानभंग किया करता था और उनकी प्रजा को भी कष्ट दिया करता था। वसुपाल उज्जैन आकर कुछ दिनों तक शहर का घेरा डाले रहे। इस समय उन्होंने अपनी राज्य-व्यवस्था के सम्बन्ध का एक पत्र अयोध्या भेजा। उसी में अपने पुत्र के बाबत उन्होंने लिखा- ॥२-६॥
    “वसुमित्र के पढ़ाने - लिखाने का प्रबन्ध अच्छा करना, कोई त्रुटि न करना और उसके पढ़ाने वाले पंडित जी को खाने-पीने की कोई तकलीफ न हो - उन्हें घी, चावल, दूध-भात वगैरह खाने को दिया करना। पत्र पहुँचा। बाँचने वाले ने उसे ऐसा ही बाँचा । पर श्लोक में 'मसस्पृिक्तं एक शब्द है। इसका अर्थ करने में वह गलती कर गया। उसने इसे 'शालिभक्तं' का विशेषण समझ यह अर्थ किया कि घी, दूध और मसि' मिले चावल पंडित जी को खाने को देना ऐसा ही हुआ।”॥७-८॥
    स्याही काली होती है और कोयला भी काला, शायद इसी रंग की समानता से ग्रन्थकार ने कोयले की जगह मसि का प्रयोग कर दिया होगा? पर है आश्चर्य ! ग्रन्थकार ने इस श्लोक में मसि शब्द को अलग लिखा है, पर ऊपर के श्लोक में आए हुए 'मसिस्पृक्तं' शब्द का ऐसा जुदा अर्थ किसी तरह नहीं किया जा सकता । ग्रन्थकार की कमजोरी की हद है, जो उनकी रचना इतनी शिथिल दीख पड़ती है।
    जब बेचारे पंडित जी भोजन करने को बैठते तब चावलों में घी वगैरह के साथ थोड़ा कोयला भी पीसकर मिला दिया जाया करता था । जब राजा विजय प्राप्त कर लौटे तब उन्होंने पंडित जी से कुशल समाचार उत्तर में पूछा। उत्तर में पंडित जी ने कहा- राजाधिराज, आपके पुण्य प्रसाद से मैं हूँ तो अच्छी तरह, पर खेद है कि आपके कुल परम्परा की रीति के अनुसार मुझसे मसि-कोयला नहीं खाया जा सकता। इसलिए अब क्षमा कर आज्ञा दें तो बड़ी कृपा हो । राजा को पंडित जी की बात का बड़ा अचम्भा हुआ । उनकी समझ में न आया कि बात क्या है। उन्होंने फिर उसका खुलासा पूछा। जब सब बातें उन्हें ज्ञान पड़ी तब उन्होंने रानी से पूछा- मैंने तो अपने पत्र में ऐसी कोई बात न लिखी थी, फिर पंडित जी को ऐसा खाने को दिया जाकर क्यों तंग किया जाता था? रानी ने राजा के हाथ में उनका लिखा हुआ पत्र देकर कहा- आपके बाँचने वाले ने हमें यही मतलब समझाया था। इसलिए यह समझकर, कि ऐसा करने से राजा साहब का कोई विशेष मतलब होगा मैंने ऐसी व्यवस्था की थी । सुनकर को बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने पत्र बाँचने वाले को उसी समय देश निकाले की सजा देकर उसे अपने शहर बाहर करवा दिया । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे लिखने- बाँचने में ऐसा प्रमाद का अर्थ कर अनर्थ न करें ॥९-१६ ॥
    यह विचार कर जो पवित्र आचरण के धारी और ज्ञान जिनका धन है ऐसे सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किए हुए, पुण्य के कारण और यश तथा आनन्द को देने वाले ज्ञान - सम्यग्ज्ञान के प्राप्त करने का भक्तिपूर्वक यत्न करेंगे वे अनन्तज्ञानरूपी लक्ष्मी का सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे ॥१७॥
  11. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान के धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर व्यंजनहीन अर्थ करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे। ये बड़े धर्मात्मा और जिन भगवान् के सच्चे भक्त थे । इनकी रानी का नाम पद्मश्री था। पद्मश्री सरल स्वभाववाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करने वाले जिनपूजा, दान, व्रत उपवास आदि पुण्यकर्म निरन्तर किया करती थी। मतलब यह कि जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी॥२-३॥
    सुरम्य देश के पोदनपुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कई दिनों की शत्रुता चली आ रही थी। इसलिए मौका पाकर महापद्म ने उस पर चढ़ाई कर दी । पोदनपुर में महापद्म ने एक 'सहस्रकूट ' नाम से प्रसिद्ध जिनमन्दिर देखा । मन्दिर की हजार खम्भों वाली भव्य और विशाल इमारत देखकर महापद्म बड़े खुश हुए। उनके हृदय में भी धर्मप्रेम का प्रवाह बहा। अपने शहर में भी एक ऐसे ही सुन्दर मन्दिर के बनवाने की इनकी इच्छा हुई तब उसी समय इन्होंने अपनी राजधानी में पत्र लिखा। उसमें इन्होंने लिखा- ॥४-७॥
    'बहुत जल्दी बड़े - बड़े एक हजार खम्भे इकट्ठे करना । पत्र बाँचने वाले ने इस भ्रम से पड़ा- "महास्तभसहस्त्रस्य कर्तव्यः संग्रहो ध्रुवम् ” ' स्तंभ' शब्द को 'स्तभ' समझकर उसने खम्भे की जगह एक हजार बकरों को इकट्ठा करने को कहा । ऐसा ही किया गया । तत्काल एक हजार बकरे मँगवाये जाकर वे अच्छे खाने पिला ने द्वारा पाले जाने लगे ॥८- १०॥
    जब महाराज लौटकर वापस आए तो उन्होंने अपने कर्मचारियों से पूछा कि मैंने जो आज्ञा की थी, उसकी तामील की गई ? उत्तर में उन्होंने 'जी हाँ' कहकर उन बकरों को महाराजा को दिखलाया। महापद्म देखकर सिर से पैर तक जल उठे। उन्होंने गुस्सा होकर कहा- मैंने तो तुम्हें एक हजार खम्भों को इकट्ठा करने को लिखा था, तुमने वह क्या किया? तुम्हारे इस अविचार की सजा मैं तुम्हें जीवनदण्ड देता हूँ ॥११-१२॥
    महापद्म की ऐसी कठोर सजा सुनकर वे बेचारे बड़े घबराये ! उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि महाराज, इसमें हमारा तो कुछ दोष नहीं हैं। हमें तो जैसा पत्र बाँचने वाले ने कहा, वैसा ही हमने किया। महाराज ने तब उसी समय पत्र बाँचने वाले को बुलाकर उसके इस गुरुत्तर अपराध को जैसी चाहिए वैसी सजा की। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे ज्ञान, ध्यान आदि कामों में कभी ऐसा प्रमाद न करें क्योंकि प्रमाद कभी सुख के लिए नहीं होता ॥ १३-१५॥
    जो सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किए पवित्र और पुण्यमय ज्ञान का अभ्यास करेंगे वे फिर मोह उत्पन्न करने वाले प्रमाद को न कर सुख देने वाले जिनपूजा, दान, व्रत, उपवासादि धार्मिक कामों में अपनी बुद्धि को लगाकर केवलज्ञान का अनन्तसुख प्राप्त करेंगे ॥१६॥
  12. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    उन जिन भगवान् को नमस्कार कर, जिनका कि केवलज्ञान एक सर्वोच्च नेत्र की उपमा धारण करने वाला है, न्यूनाधिक अक्षरों से सम्बन्ध रखने वाली धरसेनाचार्य की कथा लिखी जाती है ॥१-२॥
    गिरनार पर्वत की एक गुफा में श्रीधरसेनाचार्य, जो कि जैनधर्मरूप समुद्र के लिए चन्द्रमा की उपमा धारण करने वाले हैं, निवास करते थे । उन्हें निमित्तज्ञान से जान पड़ा कि उनकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्रज्ञान की रक्षा के लिए कुछ अंगादि का ज्ञान करा दें । आचार्य ने तब तीर्थयात्रा के लिए आन्ध्रदेश के वेनातट नगर में आए हुए संघाधिपति महासेनाचार्य को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा- ॥३-४॥
    'भगवान् महावीर का शासन अचल रहे, उसका सब देशों में प्रचार हो । लिखने का कारण यह है कि कलियुग में अंगादि का ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्रज्ञान की रक्षा हो, इसलिए कृपाकर आप दो ऐसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों को मेरे पास भेजिये, जो बुद्धि के बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैनसिद्धान्त का उद्धार कर सकें ॥५-६॥
    आचार्य ने पत्र देकर एक ब्रह्मचारी को महासेनाचार्य के पास भेजा। महासेनाचार्य उस पत्र को पढ़कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तब अपने संघ में से पुष्पदन्त और भूतबलि ऐसे दो धर्मप्रेमी और सिद्धान्त के उद्धार करने में समर्थ मुनियों को बड़े प्रेम के साथ धरसेनाचार्य के पास भेजा। ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य के पास पहुँचने वाले थे। उसकी पिछली रात को धरसेनाचार्य को एक स्वप्न देख पड़ा। स्वप्न में उन्होंने दो हृष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पाँवों में पड़ते देखा। इस उत्तम स्वप्न को देखकर आचार्य को जो प्रसन्नता हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वे ऐसा कहते हुए, कि सब सन्देहों के नाश करने वाली श्रुतदेवी - जिनवाणी सदा काल इस संसार में जल लाभ करे, उठ बैठे। स्वप्न का फल उनके विचार अनुसार ठीक निकला। सबेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी कि उन्हें चाह थी, आकर आचार्य के पाँवों में बड़ी भक्ति के साथ अपना सिर झुकाया और आचार्य की स्तुति की। आचार्य ने तब उन्हें आशीर्वाद दिया- तुम चिरकाल जीकर महावीर भगवान् के पवित्र शासन की सेवा करो । अज्ञान और विषयों के दास बने संसारी जीवों को ज्ञान देकर उन्हें कर्तव्य की ओर लगाओ। उन्हें सुझाओ कि अपने धर्म और अपने भाइयों के प्रति जो उनका कर्तव्य है उसे पूरा करें ॥७-१२ ॥
    इसके बाद आचार्य ने उन दोनों मुनियों को दो-तीन दिन तक अपने पास रखा और उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएँ सिद्ध करने को दीं । आचार्य ने उनकी परीक्षा के लिए विद्या साधने के मन्त्रों के अक्षरों को कुछ न्यूनाधिक कर दिया था। आचार्य की आज्ञानुसार ये दोनों गिरनार पर्वत के एक पवित्र और एकान्त भाग में भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या सिद्ध करने को बैठे। मंत्र साधन की अवधि जब पूरी होने को आई तब दो देवियाँ उनके पास आयी । उन देवियों में एक देवी तो आँखों से अन्धी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले हुए थे । देवियों के ऐसे रूप को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं, फिर यह क्यों? तब उन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों को व्याकरण से उन्होंने मिलाया कि कहीं उनमें तो गलती न रह गई हो ? इनका अनुमान सच हुआ। मंत्रों की गलती उन्हें भास गई फिर उन्होंने उन्हें शुद्ध कर जपा | अब की बार दो देवियाँ सुन्दर वेष में उन्हें दीख पड़ी। गुरु के पास आकर तब उन्होंने अपना सब हाल कहा। धरसेनाचार्य उनका वृत्तान्त सुनकर बड़े प्रसन्न हुए । आचार्य ने उन्हें सब तरह योग्य पा फिर खूब शास्त्राभ्यास कराया। आगे चलकर यही दो मुनिराज गुरुसेवा के प्रसाद से जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् बनकर सिद्धान्त के उद्धारकर्ता हुए। जिस प्रकार उन मुनियों ने शास्त्रों का उद्धार किया उसी प्रकार अन्य धर्मप्रेमियों को भी शास्त्रोद्धार या शास्त्रप्रचार करना उचित है ॥१३-२२॥
    श्रीमान् धरसेनाचार्य और जैनसिद्धान्त के समुद्र श्री पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य मेरी बुद्धि को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले पवित्र जैनधर्म में लगावें; जो जीव मात्र का हित करने वाले और देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं ॥२३॥ 
  13. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर सुव्रत मुनिराज की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सौराष्ट्र देश की सुन्दर नगरी द्वारका में अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। श्रीकृष्ण की कई स्त्रियाँ थीं, पर उन सबमें सत्यभामा बड़ी भाग्यवती थी । श्रीकृष्ण का सबसे अधिक प्रेम उसी पर था। श्रीकृष्ण अर्धचक्री थे, तीन खण्ड के मालिक थे । हजारों राजा-महाराजा उनकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करते थे ॥२-३ ॥
    एक दिन श्रीकृष्ण नमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ समवसरण में जा रहे थे। रास्ते में इन्होंने तपस्वी श्रीसुव्रत मुनिराज को सरोग दशा में देखा। सारा शरीर उनका रोग से कष्ट पा रहा था। उनकी यह दशा श्रीकृष्ण से न देखी गई धर्म प्रेम से उनका हृदय अस्थिर हो गया। उन्होंने उसी समय एक जीवक नाम के प्रसिद्ध वैद्य को बुलाया और मुनि को दिखलाकर औषधि के लिए पूछा। वैद्य के कहे अनुसार सब श्रावकों के घरों में उन्होंने औषधि-मिश्रित लड्डूओं के बनवाने की सूचना करवा दी। थोड़े ही दिनों में इस व्यवस्था से मुनि को आराम हो गया, सारा शरीर फिर पहले सा सुन्दर हो गया । इस औषधिदान के प्रभाव से श्रीकृष्ण के तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ । सच है - सुख के कारण सुपात्रदान से संसार में सत्पुरुषों को सभी कुछ प्राप्त होता है ॥४-८॥
    निरोग अवस्था में सुव्रत मुनिराज को एक दिन देखकर श्रीकृष्ण बड़े खुश हुए। इसलिए कि उन्हें अपने काम में सफलता प्राप्त हुई । उनसे उन्होंने पूछा-भगवान्, अब अच्छे तो हैं? उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन्, शरीर स्वभाव से अपवित्र, नाश होने वाला और क्षण-क्षण में अनेक अवस्थाओं को बदलने वाला है, इसमें अच्छा और बुरापन क्या है? पदार्थों का जैसा परिवर्तन स्वभाव है उसी प्रकार यह कभी निरोग और कभी सरोग हो जाया करता है। मुझे इसके रोगी होने में न खेद है और न निरोग होने से हर्ष! मुझे तो अपने आत्मा से काम, जिसे कि मैं प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ और जो मेरा परम कर्तव्य है। सुव्रत योगिराज की शरीर से इस प्रकार निस्पृहता देखकर श्रीकृष्ण को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने मुनि को नमस्कार कर उनकी बड़ी प्रशंसा की ॥९-१२॥
    पर जब मुनि की यह निस्पृहता जीवक वैद्य के कानों में पहुँची तो उन्हें इस बात का बड़ा दुःख हुआ, बल्कि मुनि पर उन्हें अत्यन्त घृणा हुई कि मुनि का मैंने इतना उपकार किया तब भी उन्होंने मेरे सम्बन्ध में तारीफ का एक शब्द भी न कहा ! इससे उन्होंने मुनि को बड़ा कृतघ्न समझ उनकी बहुत निन्दा की-बुराई की। इस मुनि निन्दा से उन्हें बहुत पाप का बन्ध हुआ । अन्त में जब उनकी मृत्यु हुई तब वे इस पाप के फल से नर्मदा के किनारे पर एक बन्दर हुए। सच है - अज्ञानियों को साधुओं के अचार-विचार, व्रत-नियमादि का कुछ ज्ञान तो होता नहीं है । व्यर्थ उनकी निन्दा-बुराई कर वे पापकर्म बाँध लेते हैं। इससे उन्हें दुःख उठाना पड़ता है ॥१३-१५॥
    एक दिन की बात है कि यह जीवक वैद्य का जीव बन्दर जिस वृक्ष पर बैठा हुआ था, उससे नीचे यही सुव्रत मुनिराज ध्यान कर रहे थे । इस समय उस वृक्ष की एक टहनी टूट कर मुनि पर गिरी । उसकी तीखी नोंक जाकर मुनि के पेट में घुस गई पेट का कुछ हिस्सा चिरकर उससे खून बहने लगा। मुनि पर जैसे ही उस बन्दर की नजर पड़ी उसे जातिस्मरण हो गया । वह पूर्व जन्म की शत्रुता भूलकर उसी समय दौड़ा और थोड़ी ही देर में बहुत से बन्दरों को बुला लाया। उन सबने मिलकर उस डाली को बड़ी सावधानी से खींचकर निकाल लिया और वैद्य के जीव ने पूर्व जन्म के संस्कार से जंगल से जड़ी-बूटी लाकर उसका रस उन मुनि के घाव पर निचोड़ दिया। उससे मुनि को शान्ति मिली। उस बन्दर ने भी उस धर्मप्रेम से बहुत पुण्यबंध किया । सच है, पूर्व जन्मों में जैसा अभ्यास किया जाता है, जैसा पूर्व जन्म का संस्कार होता है दूसरे जन्मों में भी उसका संस्कार बना रहता है और प्रायः जीव वैसा ही कार्य करने लगता है । बन्दर में - एक पशु में इस प्रकार दयाशीलता देखकर मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा तो उन्हें वैद्य के जीव के जन्म का सब हाल ज्ञात हो गया। उन्होंने तब उसे भव्य समझकर उसके पूर्वजन्म की सब कथा उसे सुनाई और धर्म का उपदेश किया। मुनि की कृपा से धर्म का पवित्र उपदेश सुनकर धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा हो गई उसने भक्ति से सम्यक्त्व-व्रत पूर्वक अणुव्रतों को ग्रहण किया। उन्हें उसने बड़ी अच्छी तरह पाला भी । अन्त में वह सात दिन का संन्यास ले मरा। इस धर्म के प्रभाव से वह सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ। सच है, जैनधर्म से प्रेम करने वालों को क्या प्राप्त नहीं होता । देखिए, यह धर्म का ही तो प्रभाव था जिससे कि एक बन्दर -पशु देव हो गया इसलिए धर्म या गुरु से बढ़कर संसार में कोई सुख का कारण नहीं है ॥१६-२५॥
    वह जैनधर्म जय लाभ करे, संसार में निरन्तर चमकता रहे, जिसके प्रसाद से एक तुच्छ प्राणी भी देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की सम्पत्ति लाभ कर उसका सुख भोगकर अन्त में मोक्षश्री का अनन्त, अविनाशी सुख प्राप्त करता है । इसलिए आत्महित चाहने वाले बुद्धिमानों को उचित है, उनका कर्तव्य है कि वे मोक्षसुख के लिए परम पवित्र जैनधर्म के प्राप्त करने का और प्राप्त कर उसके पालने का सदा यत्न करें ॥२६॥
  14. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञान जिनका नेत्र है ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर हरिषेण चक्रवर्ती की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अंगदेश के सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगर के राजा सिंहध्वज थे । इनकी रानी का नाम प्रिया था । कथानायक हरिषेण इन्हीं का पुत्र था । हरिषेण बुद्धिमान् था, शूरवीर था, सुन्दर था, दानी था और बड़ा तेजस्वी था। सब उसका बड़ा मान - आदर करते थे ॥२-३॥
    हरिषेण की माता धर्मात्मा थी । भगवान् पर उसकी अचल भक्ति थी । यही कारण था कि वह अठाई के पर्व में सदा जिन भगवान् का रथ निकलवाया करती और उत्सव मनाती। सिंहध्वज की दूसरी रानी लक्ष्मीमती को जैनधर्म पर विश्वास न था । वह सदा उसकी निन्दा करती थी। एक बार उसने अपने स्वामी से कहा- आज पहले मेरा भगवान् का रथ शहर में घूमे ऐसी आप आज्ञा दीजिए, सिंहध्वज ने इसका परिणाम क्या होगा, इस पर कुछ विचार न कर लक्ष्मीमती का कहा मान लिया। पर जब धर्मवत्सल वप्रा रानी को इस बात की खबर मिली तो उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने उसी समय प्रतिज्ञा की कि मैं खाना-पीना तभी करूँगी जब कि मेरा रथ पहले निकलेगा। सच है- सत्पुरुषों को धर्म ही शरण होता है, उनकी धर्म तक ही दौड़ होती है ॥४-८॥
    हरिषेण इतने में भोजन करने को आया । उसने सदा की भाँति आज अपनी माता को हँस - मुख न देखकर उदास मन देखा। इससे उसे बड़ा खेद हुआ। माता क्यों दुःखी हैं, इसका कारण जब उसे जान पड़ा तब वह एक पलभर भी फिर वहाँ न ठहर कर घर से निकल पड़ा। यहाँ से चलकर वह एक चोरों के गाँव में पहुँचा। इसे देखकर एक तोता अपने मालिकों से बोला- जो कि चोरों का सिखाया- पढ़ाया था, देखिये, यह राजकुमार जा रहा है, इसे पकड़ो। तुम्हें लाभ होगा । तोते के इस प्रकार कहने पर किसी चोर का ध्यान न गया । इसलिए हरिषेण बिना किसी आफत के आए यहाँ से निकल गया। सच है, दुष्टों की संगति पाकर दुष्टता आती ही है। फिर ऐसे जीवों से कभी किसी का हित नहीं होता ॥९-११॥
    यहाँ से निकल कर हरिषेण फिर एक शतमन्यु नाम के तापसी के आश्रम में पहुँचा। वहाँ भी एक तोता था परन्तु यह पहले तोते सा दुष्ट न था । इसलिए उसने हरिषेण को देखकर मन में सोचा कि जिसके मुँह पर तेजस्विता और सुन्दरता होती है उसमें गुण अवश्य ही होते हैं। यह जाने वाला भी कोई ऐसा ही पुरुष होना चाहिए। इसके बाद ही उसने अपने मालिक तापसियों से कहा-वह राजकुमार जा रहा है। इसका आप लोग आदर करें। राजकुमार को बड़ा अचम्भा हुआ। उसने पहले का हाल कह कर इस तोते से पूछा- क्यों भाई, तेरे भाई ने तो अपने मालिकों से मेरे पकड़ने को कहा था और तू अपने मालिक से मेरा मान - आदर करने को कह रहा है, इसका कारण क्या है? तोता बोला-अच्छा राजकुमार, सुनो मैं तुम्हें इसका कारण बतलाता हूँ । उस तोते की और मेरी माता एक ही है, हम दोनों भाई-भाई हैं । इस हालत में मुझमें और उसमें विशेषता होने का कारण यह है कि मैं इन तपस्वियों के हाथ पड़ा और वह चोरों के । मैं रोज-रोज इन महात्माओं की अच्छी-अच्छी बातें सुना करता हूँ और वह उन चोरों की बुरी - बुरी बातें सुनता है । इसलिए मुझमें और उसमें इतना अन्तर है। सो आपने अपनी आँखों से देख ही लिया कि दोष और गुण ये संगति के फल हैं। अच्छों की संगति से गुण प्राप्त होते हैं और बुरों की संगति से दुर्गुण ॥१२-१८॥
    इस आश्रम के स्वामी तापसी शतमन्यु पहले चम्पापुरी के राजा थे । उनकी रानी का नाम नागवती है। इनके जनमेजय नाम का एक पुत्र और मदनावती नाम की एक कन्या है । शतमन्यु अपने पुत्र को राज्य देकर तापसी हो गए। राज्य अब जनमेजय करने लगा। एक दिन जनमेजय से मदनावती के सम्बन्ध में एक ज्योतिषी ने कहा कि यह कन्या चक्रवर्ती का सर्वोच्च स्त्रीरत्न होगी और यह सच है कि ज्ञानियों का कहा कभी झूठा नहीं होता ॥१९-२१॥
    जब मदनावती की इस भविष्यवाणी की सब ओर खबर पहुँची तो अनेकों राजा लोग उसे चाहने लगे। उन्हीं में उड्रदेश का राजा कलकल भी था । उसने मदनावती के लिए उसके भाई से मँगनी की। उसकी यह मँगनी जनमेजय ने नहीं स्वीकारी। इससे कलकल को बड़ा ना - गवार गुजरा। उसने रुष्ट होकर जनमेजय पर चढ़ाई कर दी और चम्पापुरी के चारों ओर घेरा डाल दिया। सच है-काम से अन्धे हुए मनुष्य कौन काम नहीं कर डालते । जनमेजय भी ऐसा डरपोक राजा न था। उसने फौरन ही युद्धस्थल में आ-डटने की अपनी सेना को आज्ञा दी। दोनों ओर के वीर योद्धाओं की मुठभेड़ हो गई खूब घमासान युद्ध आरम्भ हुआ। इधर युद्ध छिड़ा और इधर नागवती अपनी लड़की मदनावती को साथ ले सुरंग के रास्ते से निकल भागी । वह इसी शतमन्यु के आश्रम में आयी। पाठकों को याद होगा कि यही शतमन्यु नागवती का पति है। उसने युद्ध का सब हाल शतमन्यु को कह सुनाया। शतमन्यु ने नागवती और मदनावती को अपने आश्रम में ही रख लिया ॥ २२ - २५॥
    हरिषेण राजकुमार का ऊपर जिकर आया है। उसका मदनावती पर पहले से ही प्रेम था। हरिषेण उसे बहुत चाहता था । यह बात आश्रमवासी तापसियों को मालूम पड़ जाने से उन्होंने हरिषेण को आश्रम से निकाल बाहर कर दिया । हरिषेण को इससे बुरा लगा, पर वह कुछ कर-धर नहीं सकता था। इसलिए लाचार होकर उसे चला जाना पड़ा। उसने चलते समय प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा इस पवित्र राजकुमारी के साथ ब्याह होगा तो मैं अपने सारे देश में चार - चार कोस दूरी पर अच्छे-अच्छे सुन्दर और विशाल जिनमन्दिर बनवाऊँगा, जो पृथ्वी को पवित्र करने वाले कहलायेंगे। सच है, उन लोगों के हृदय में जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति सदा रहा करती है जो स्वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्त करने वाले होते हैं ॥२६-२९॥
    प्रसिद्ध सिन्धुदेश के सिन्धुतट शहर के राजा सिन्धुनद और रानी सिन्धुमती के कोई सौ लड़कियाँ थी। ये सब बड़ी सुन्दर थीं । उन लड़कियों के सम्बन्ध में नैमित्तिक ने कहा था कि-ये सब राजकुमारियाँ चक्रवर्ती हरिषेण की स्त्रियाँ होंगी। ये सिन्धुनदी पर स्नान करने के लिए जायेंगीं । उसी समय हरिषेण भी यहीं आ जाएगा। तब परस्पर की चार आँखें होते ही दोनों ओर से प्रेम का बीज अंकुरित हो उठेगा ॥ ३०-३२॥
    नैमित्तिक का कहना ठीक हुआ । हरिषेण दूसरे राजाओं पर विजय करता हुआ उसी सिन्धुनदी के किनारे पर आकर ठहरा। उसी समय सिन्धुनद की कुमारियाँ भी यहाँ स्नान करने के लिए आई हुई थीं। प्रथम ही दर्शन में दोनों के हृदय में प्रेम का अंकुर फूटा और फिर वह क्रम से बढ़ता ही गया। सिन्धुनद से यह बात छिपी न रही। उसने प्रसन्न होकर हरिषेण के साथ अपनी लड़कियों का ब्याह कर दिया ॥३३ - ३४॥
    रात को हरिषेण चित्रशाला नाम के एक खास महल में सोया हुआ था । इसी समय एक वेगवती नाम की विद्याधरी आकर हरिषेण को सोता हुआ ही उठा ले चली। रास्ते में हरिषेण जग उठा। अपने को एक स्त्री कहीं लिए जा रही है, इस बात का मालूम होते ही उसे बड़ा गुस्सा आया। उसने तब उसे विद्याधरी को मारने के लिए घूँसा उठाया। उसे गुस्सा हुआ देख विद्याधरी डरी और हाथ जोड़ कर बोली-महाराज, क्षमा कीजिए । मेरी एक प्रार्थना सुनिए । विजयार्द्ध पर्वत पर बसे हुए सूर्योदर शहर के राजा इन्द्रधनु और रानी बुद्धिमती की एक कन्या है । उसका नाम जयचन्द्रा है। वह सुन्दर है, बुद्धिमती है और बड़ी चतुर है । पर उसमें एक दुर्गुण है और वह महा दुर्गुण है। वह यह कि उसे पुरुषों से बड़ा द्वेष है, पुरुषों को वह आँखों से देखना तक पसन्द नहीं करती। नैमित्तिक ने उसके सम्बन्ध में कहा है कि जो सिन्धुनद की सौ राजकुमारियों का पति होगा, वही इसका भी होगा । तब मैंने आपका चित्र ले जाकर उसे बतलाया । वह उसे देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। उसका सब कुछ आप पर न्यौछावर हो चुका है । वह आपके सम्बन्ध की तरह-तरह की बातें पूछा करती है और बड़ी चाव से उन्हें सुनती है। आप का जिकर छिड़ते ही वह बड़े ध्यान से उसे सुनने लगती है। उसकी इन सब चेष्टाओं से जान पड़ता है कि उसका आप पर अत्यन्त प्रेम है। यही कारण है कि मैं उसी की आज्ञा से आपको उसके पास लिए जा रही हूँ । सुनकर हरिषेण बहुत खुश हुआ और फिर वह कुछ भी न बोलकर जहाँ उसे विद्याधरी लिवा गई, चला गया । वेगवती ने हरिषेण को इन्द्रधनु के महल पर ला रखा। हरिषेण के रूप और गुणों को देख कर सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई जयचन्द्रा के माता-पिता ने उसके ब्याह का भी दिन निश्चित कर दिया। जो दिन ब्याह का था उस दिन राजकुमारी जयचन्द्रा के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर ये दोनों हरिषेण पर चढ़ आए। इसलिए कि वह जयचन्द्रा को स्वयं ब्याहना चाहते थे। हरिषेण ने इनके साथ बड़ी वीरता से युद्ध कर उन्हें हराया। उस युद्ध में हरिषेण के हाथ जवाहरात और बहुत धन-दौलत लगी। वह चक्रवर्ती होकर अपने घर लौटा। रास्ते में उसने अपनी प्रेमिणी मदनावती से भी ब्याह किया । घर आकर फिर उसने अपनी माता की इच्छा पूरी की। पहले उसी का रथ चला। इसके बाद हरिषेण ने अपने देशभर में जिन मन्दिर बनवा कर अपनी प्रतिज्ञा को भी निबाहा । सच है - पुण्यवानों के लिए कोई काम कठिन नहीं ॥३५-४३॥
    वे जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें, जो देवादिकों द्वारा पूजा किए जाते हैं, गुणरूपी रत्नों की खान हैं, स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले है, संसार के प्रकाशित करने वाले निर्मल चन्द्रमा हैं केवलज्ञानी, सर्वज्ञ है और जिनके पवित्र धर्म का पालन कर भव्यजन सुख लाभ करते हैं ॥४४॥
  15. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं उन जिन भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरुषों की अपने सभा में प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा- जिस पुरुष का जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वह दूसरों के बहुत से गुणों पर बिल्कुल ध्यान न देकर उसमें रहने वाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ गुणों के ग्रहण करने की ओर है वह पुरुष, वह महात्मा संसार में सबसे श्रेष्ठ है, उसी का जन्म भी सफल है। इन्द्र के मुँह से इस प्रकार दूसरों की प्रशंसा सुन एक मौजी ले देव ने उससे पूछा-देवराज, जैसा इस समय आपने गुणग्राहक पुरुष की प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोई बड़भागी पृथ्वी पर है । इन्द्र ने उत्तर में कहा- हाँ हैं और वे अन्तिम वासुदेव द्वारका के स्वामी श्रीकृष्ण । सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया। इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ जा रहे थे । उनकी परीक्षा के लिए यह मरे कुत्ते का रूप ले रास्ते में पड़ गया। उसके शरीर से बड़ी ही दुर्गन्ध भभक रही थी । आने-जाने वालों के लिए इधर- उधर होकर आना-जाना मुश्किल हो गया था। उसकी उस असह दुर्गन्ध के मारे श्रीकृष्ण के साथी सब भाग खड़े हुए। उसी समय वह देव एक दूसरे ब्राह्मण का रूप लेकर श्रीकृष्ण के पास आया और उस कुत्ते की बुराई करने लगा, उसके दोष दिखाने लगा । श्रीकृष्ण ने उसकी सब बातें सुन- सुनाकर कहा - अहा! देखिये, इस कुत्ते के दाँतों की श्रेणी स्फटिक के समान कितनी निर्मल और सुन्दर है । श्रीकृष्ण ने कुत्ते के और दोषों पर उसकी दुर्गन्ध आदि पर कुछ ध्यान न देकर उसके दाँतों की, उसमें रहने वाले थोड़े से भी अच्छे भाग की उल्टी प्रशंसा ही की । श्रीकृष्ण की पशु के लिए इतनी उदार बुद्धि देखकर वह देव बहुत खुश हुआ । उसने फिर प्रत्यक्ष होकर सब हाल श्रीकृष्ण से कहा- और उचित आदर मान करके आप अपने स्थान चला गया ॥२- ११॥
    इसी तरह अन्य जिन भगवान् के भक्त भव्यजनों को भी उचित है कि वे दूसरों के दोषों को छोड़कर सुख की प्राप्ति के लिए प्रेम के साथ उनके गुणों को ग्रहण करने का यत्न करें । इसी से वे गुणज्ञ और प्रशंसा के पात्र कहे जा सकेंगे ॥१२॥
  16. admin
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  17. admin
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    1    Jain Accountants & Finance  Professionals
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    2    Jain Actuary professionals
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    3    Jain Agents & Brokers
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    4    Jain Bloggers Authors & Translators
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    5    Jain Bureaucrats
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    6    Jain Businessmen
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    7    Jain Charted Accountants
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    8    Jain Company Secretaries
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    9    Jain Data science & Analytics professionals
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    10    Jain Doctors
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    11    Jain Engineers
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    12    Jain Housewives   
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    13    Jain Industrialist
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    14    Jain IT professionals 
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    15    Jain Journalists and Media professionals
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    16    Jain life Science professionals
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    17    Jain Management professionals
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    18    Jain Retailers and Shopkeepers
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    19    Jain Sales & Marketing professionals
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    20    Jain Scholar & Research professional
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    22    Jain Self Employed Entrepreneur
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    24    Jain Teachers & Professors
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    25    Jain Traders & Suppliers
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  18. admin
    सभी को जय जिनेन्द्र, 
    संयम स्वर्ण महोत्सव में हम सभी कर रहे हैं आचार्य श्री के व्यक्तित्व को विश्व में फ़ैलाने का प्रयास, हमने भी की हैं शुरुआत, केवल whatsapp पर पूरा नहीं होगा प्रयास 
    सोशल मीडिया में दीजिये साथ, जुड़िये और करियें सम्पूर्ण समाज  को  जोड़ने का सफल प्रयास 
    *आपके देश व राज्य के  समाज के फेसबुक समूह से जुड़िये और समाज के सभी श्रावको को समूह से जोड़े *
    1. Jain Samaj Andaman and Nicobar Islands
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    36. Jain Samaj West Bengal
    https://www.facebook.com/groups/Jain.Samaj.West.Bengal---------
  19. admin
    सादर जय जिनेन्द्र,
    आपको यह आज शाम 9 बजे तक भेजनी है।
    आओ शब्दो से भजन बनाये
    उदहारण :-
    ध     क   म      ज
    धरम करो  मस्त  जवानी में
    1  जी      है      पा     की     बूं    क
    2  मे      आ    कृ      से     स    का
    3   पा      प्या      ला     च    प्या
    4   मं      ण    ह    प्रा     से  प्या
    5    ज      से     गु    द   मि    म
    6   स     ध    क    जि    दि    मौ    की
    7    अ     ज   ज   सि      प्र    ज    ज
    8    ण     मं     है     न्या     जि    ला
    9    छो     सा      मं     ब    वी    गु
    10   वि     की     तृष्     को     छो   के
    11  हिं      पी      वि    रा    म
    12 तू      जा     रे     चे    प्रा    क
    13 ते      पां    हु    कल्     प्र    ए    बा
    14  सो     सो    में     नि     ग    सा    जिं
    15  मु      आ     मे     कु      में      आ    है
    16  मि        है       सच्    सु      के      भ
    17  मा      तू     द      क     क       से
    18 ल       ल      ल     के       झं       जि     का
    19 क      हूं      में      अ     स्वी    क
    20 झी     झी   उ      रे      गु     चा      रे
  20. admin
    भारत देश में हर 10 वर्ष में राष्ट्रीय जनगणना का कार्यक्रम एक माह तक चलता है। प्रायः फरवरी माह जनगणना के लिये सुनिश्चित रहता है इस बार भी 2021 में फरवरी के माह में जनगणना होगी जन समाज की राष्ट्रीय संस्थाएँ सदैव जैनो की जनसंख्या 1 करोड़ होने का दावा करती रही है, किन्तु जनगणना उपरांत अभी तक जैनो की संख्या एक करोड नहीं हो पाई। शायद शासकीय आकड़ामजना का सख्या कम होने का सबसे बड़ा कारण यह हैं कि जनगणना प्रपत्र में नम्बर का कॉलम धर्म का है सन् 1872 से सन् 2011 तक 15 बार राष्ट्रीय जनगणना हई 1872 में जैनों की संख्या 12.21% होतीथी किन्तु अभी तक यह संख्या कोई 1 करोड़ का आंकड़ा नहीं कर पाई जबकि भारत की जनसंख्या उस
    समय.............थी और जैनो की जनसंख्या अकबर के समय 1 करोड़ थी तब यह प्रश्न पैदा होता है किआज भारत की जनसंख्या 132 करोड़ हो चुकी है। तब भी जैनो की संख्या 1 करोड़ नहीं हो पा रही है। बल्कि 2011 में 44.51 लाख रह गई थी जैन धर्मांलंबी अपनी संख्या कम होने का दोष सरकारी तंत्र पर थोपते है। वे अपनी जागरूकता के अभावको इन आंकड़ों की कमी का कारण नहीं मानते है। ____ 2015 में मुनि प्रमाण सागर जी के नेतृत्व में जब संलेखना, संथारा आंदोलन में 76 लाख लोगो ने भाग लिया तब एक आशा की किरण जगी कि जैनो की संख्या भारत देश में निश्चित तौर पर 1 करोड़ से अधिक है परंतु सबसे बड़ी चुनौती यह है क्या जैन समाज के जागरूक वर्ग ने जनगणना के समय अपनी सक्रियता का परिचय देते हुए समस्त जैन समाज को पंथ, संत, जातिवाद से ऊपर उठाकर जैन धर्म की पहचान मिटने से बचाने का प्रयास किया ? यदि हाँ तो अभी से इस दिशा में हमें कार्य प्रारंभ करना होगा, संगठनात्मक रूप से 1 अभियान चलाना होगा कि अब हम न चूकें और धर्म के छठवें कॉलम में जैन लिखाने का हर परिवार तक संदेश भेजे क्योंकि इस बार यदि चूक हुई तो जनगणना प्रपत्र से अगली बार की जनगणना में धर्म के कॉलम से जैन शब्द ही हट सकता है। और फिर हमारे मंदिर और मूर्तियों की उत्सवों की सार्थकता आयोजनों की उपयोगिता कोई मायना नही रखेगी। हम अपने धन और शक्ति को जितना आयोजनों में लगा रहे हैं, उन आयोजन के माध्यम से यदि यह बात प्रसारित कर दी जाये कि जैनियों के लिये 2021 फरवरी का महिना जीवन मरण जैसा प्रश्न है। हम अपने अहिंसा सत्य विश्वशांति विश्वमैत्री सह अस्तित्व जैसी मानवताओं का संचार करने वाले जैन धर्म को जनगणना में आनुपातिक सिद्ध नहीं कर पाये तो निश्चित तौर पर हम कैसे गर्व से कह पायेंगे कि हम जैन है।
    उठो जागो और गर्व से कहो हम जैन हैं। जैन कभी पतित नहीं होता है। जैन कभी तिरस्कृत नहीं हुआ है। भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद से आज तक जैन धर्म की पताका गगनचुंबी रही है। जैन धर्मअनुयायियों ने अपने बुद्धि बल, धनबल, समरसता की भावनाओंसे देश के सभी वर्गों को अपनाया है। लेकिन वर्तमान समय में सरकारी आँकड़ों में घटती जनसंख्या हमारे अस्तित्व के लिये चुनौती है। इस चुनौती का सामना हर जैनकोजागरूकता के साथ, एकता के साथ, बड़ेसोच के साथ करना होगा।
    हम आपस के मतभेदों को भुलाकर जातिपंथ से ऊपर उठकर मात्र एक परिचय देने में अपनी शक्ति को स्थापित करे और 2021 की जनगणना में धर्म के कॉलम में जैन लिखकर भगवान महावीर के प्रति सच्ची श्रद्धांजली समर्पित करें। ।
     
    साभार
     
    संस्कार प्रवाह संस्कार सागर पत्रिका
  21. admin
    आदरणीय श्री राजकुमार जैन अजमेरा जी, हजारीबाग को शास्वत तीर्थराज के महामंत्री पद पर मनोनीत होने पर बहुत बहुत बधाई एवम अशेष शुभकामनाएं। आदरणीय अजमेरा जी अत्यंत ऊर्जावान, कर्मठ, समर्पित व्यक्तित्व हैं। पूर्व में भी अनेक पदों पर सुशोभित होकर धर्म प्रभावना और धर्मायतन सेवा में हमेशा अग्रणी रहे हैं।
  22. admin
    आंध्रप्रदेश
    क्र. सं. तीर्थ क्षेत्र का नाम  Name of the Teerth क्षेत्र  1 कुलचारम् Kulcharam अतिशय क्षेत्र असम
    2 सूर्यपहाड़ Suryapahad अतिशय क्षेत्र बिहार
    3 आरा Arrah अतिशय क्षेत्र 4 बासोकुण्ड (वैशाली) Basokund (Vaishali) कल्याणक क्षेत्र 5 चम्पापुर Champapur सिद्ध क्षेत्र 6 गुणावाँजी Gunawaji सिद्ध क्षेत्र 7 कमलदहजी Kamaldahji सिद्ध क्षेत्र 8 कुण्डलपुर Kundalpur कल्याणक क्षेत्र 9 कुण्डलपुर-नंद्यावर्त महल Kundalpur-Nandyavart Mahal कल्याणक क्षेत्र 10 मन्दारगिर Mandargir सिद्ध क्षेत्र 11 पावापुरी Pawapuri सिद्ध क्षेत्र 12 राजगिरजी Rajgirji सिद्ध क्षेत्र 13 वैशाली Vaishali अतिशय क्षेत्र गुजरात
    14 भिलोड़ा Bhiloda अतिशय क्षेत्र 15 चैतन्यधाम Chetanyadham साधना तीर्थ 16 देरोल-वाघेला Derol-Vaghela अतिशय क्षेत्र 17 घोघा Ghogha अतिशय क्षेत्र 18 गिरनारजी Girnarji सिद्ध क्षेत्र 19 महुवा पार्श्वनाथ Mahua अतिशय क्षेत्र 20 पावागढ़ Pawagarh सिद्ध क्षेत्र 21 शत्रुजयजी (पालीताणा) Shatrunjayaji सिद्ध क्षेत्र 22 तारंगाजी Tarangaji सिद्ध क्षेत्र 23 उमता Umata अतिशय क्षेत्र हरियाणा
    24 हाँसी (पुण्योदय तीर्थ) Hansi अतिशय क्षेत्र 25 कासनगांव Kasangaon अतिशय क्षेत्र 26 रानीला (आदिनाथपुरम्) Ranila अतिशय क्षेत्र 27 रोहतक Rohtak अतिशय क्षेत्र झारखंड
    28 कोल्हुआ पहाड़ Kolhua Pahad सिद्ध क्षेत्र 29 सम्मेदशिखरजी Sammedshikharji सिद्ध क्षेत्र कर्नाटक
    30 बीजापुर Bijapur अतिशय क्षेत्र 31 धर्मस्थल Dharmasthal कला क्षेत्र 32 हरसूर Harsur अतिशय क्षेत्र 33 हॅमचा Humcha अतिशय क्षेत्र 34 हुणसे हडगली Hunse Hadgali अतिशय क्षेत्र 35 ज्वालामालिनि Jwalamalini अतिशय क्षेत्र 36 कमठाण Kamthan अतिशय क्षेत्र 37 कनकगिरि (मलेयूर) Kanakgiri (Maleyur) सिद्ध क्षेत्र 38 कारकल Karkal अतिशय क्षेत्र 39 कोथली Kothali अन्य क्षेत्र 40 मलखेड Malkhed अतिशय क्षेत्र 41 मूडबिद्री Mudbidri अतिशय क्षेत्र 42 शंखबसदी Shankhabasdi कला क्षेत्र 43 श्रवणबेलगोला Shrawanbelgola अतिशय क्षेत्र 44 स्तवनिधी (तवंदी) Stavanidhi (Tavandi) अतिशय क्षेत्र 45 वेणूर Venur कला क्षेत्र मध्य प्रदेश
    46 आहूजी Aahuji अतिशय क्षेत्र  47 अहारजी Aharji सिद्ध क्षेत्र  48 अजयगढ़ Ajaygarh अतिशय क्षेत्र  49 अमरकंटक Amarkantak अतिशय क्षेत्र  50 बाड़ी Badi अतिशय क्षेत्र  51 बड़ोह Badoh कला क्षेत्र  52 बही पार्श्वनाथ Bahi Parshvanath अतिशय क्षेत्र  53 बहोरीबन्द Bahoriband अतिशय क्षेत्र  54 बजरंगगढ़ Bajranggarh अतिशय क्षेत्र  55 बंधाजी Bandhaji अतिशय क्षेत्र  56 बनेड़ियाजी Banediyaji अतिशय क्षेत्र  57 बरासोंजी Baransoji अतिशय क्षेत्र  58 बरेला Barela अतिशय क्षेत्र  59 बरही Barhi अतिशय क्षेत्र  60 बावनगजा (चूलगिरि) Bawangaja सिद्ध क्षेत्र  61 भोजपुर Bhojpur अतिशय क्षेत्र  62 भौंरासा Bhourasa अतिशय क्षेत्र  63 बिजोरी Bijori अतिशय क्षेत्र  64 बीनाजी (बारहा) Binaji (Barha) अतिशय क्षेत्र  65 चन्देरी Chanderi अतिशय क्षेत्र  66 छोटा महावीरजी Chota Mahaveerji अतिशय क्षेत्र  67 द्रोणगिरि Drongiri सिद्ध क्षेत्र  68 ईशुरवारा Eshurwara अतिशय क्षेत्र  69 फलहोड़ी बड़ागाँव Falhodi Badagaon सिद्ध क्षेत्र 70 गंधर्वपुरी Gandharvapuri पुरातत्व क्षेत्र  71 गोलाकोट Golakot अतिशय क्षेत्र  72 गोम्मटगिरि (इन्दौर) Gommatgiri अतिशय क्षेत्र  73 गोपाचल पर्वत Gopachal Parwat सिद्ध क्षेत्र 74 गुड़र Gudar अतिशय क्षेत्र  75 ग्वालियर - स्वर्ण मंदिर Gwalior-Swarna Mandir दर्शनीय क्षेत्र  76 ग्यारसपुर Gyaraspur अतिशय क्षेत्र  77 जामनेर Jamner अतिशय क्षेत्र  78 जयसिंहपुरा-उज्जैन Jaysinghpura-Ujjain अतिशय क्षेत्र  79 कैथूली Kaithuli अतिशय क्षेत्र  80 खजुराहो Khajuraho अतिशय क्षेत्र  81 खंदारगिरि Khandargiri अतिशय क्षेत्र  82 खनियाँधाना Khaniyadhana दर्शनीय क्षेत्र  83 कुण्डलगिरि (कोनीजी) Kundalgiri (Koniji) अतिशय क्षेत्र  84 कुण्डलपुर (दमोह) Kundalpur (Damoh) सिद्ध क्षेत्र 85 लखनादौन Lakhnadaun अतिशय क्षेत्र  86 महावीर तपोभूमि-उज्जैन Shri Mahavir-Tapobhumi-Ujjain अतिशय क्षेत्र  87 मक्सी पार्श्वनाथ Maksi-Parshvanath अतिशय क्षेत्र  88 मंगलगिरि (सागर) Mangalgiri (Sagar) अतिशय क्षेत्र  89 मनहरदेव Manhardev अतिशय क्षेत्र  90 मानतुंगगिरि (धार) Mantunggiri अतिशय क्षेत्र  91 मुक्तागिरि (मेंढागिरि) Muktagiri सिद्ध क्षेत्र 92 नैनागिरि (रेशंदीगिरि) Nainagiri सिद्ध क्षेत्र 93 नेमावर (सिद्धोदय) Nemawar (Siddhodaya) सिद्ध क्षेत्र 94 निंसईजी (मल्हारगढ़) Nisaiji अन्य क्षेत्र  95 निसईजी सूखा (पथरिया) Nisaiji Sukha अतिशय क्षेत्र  96 नोहटा (आदीश्वरगिरि) Nohta अतिशय क्षेत्र  97 पंचराई Pacharai अतिशय क्षेत्र  98 पजनारी Pajnari अतिशय क्षेत्र  99 पनागर Panagar अतिशय क्षेत्र  100 पानीगाँव Panigaon कला क्षेत्र  101 पपौराजी Paporaji अतिशय क्षेत्र  102 पाश्वगिरि (बड़वानी) Parshvagiri (Badwani) अतिशय क्षेत्र  103 पटेरिया (गढ़ाकोटा) Pateria (Gadakota) अतिशय क्षेत्र  104 पटनागंज (रहली) Patnaganj (Raheli) अतिशय क्षेत्र  105 पावई (पावागढ़) Paawai (Pawagadh) अतिशय क्षेत्र  106 पिड़रूवा Pidruva अतिशय क्षेत्र  107 पिसनहारी-मढ़ियाजी Pisanhari-Madiyaji अतिशय क्षेत्र  108 पुष्पगिरि Pushpagiri अतिशय क्षेत्र  109 पुष्पावती  बिलहरी Pushpavati Bilhari अतिशय क्षेत्र  110 सेमरखेड़ी (निसईंजी) Semarkhedi (Nisaiji) अतिशय क्षेत्र  111 सेसई Sesai अतिशय क्षेत्र  112 सिद्धवरकूट Siddhvarkut सिद्ध क्षेत्र 113 सिहोंनियाँजी Sihoniyaji अतिशय क्षेत्र  114 सिरोंज Sironj अतिशय क्षेत्र  115 सोनागिरिजी Sonagiriji सिद्ध क्षेत्र 116 तालनपुर Talanpur अतिशय क्षेत्र  117 तेजगढ़ Tejgarh अतिशय क्षेत्र  118 थुबोनजी Thubonji अतिशय क्षेत्र  119 तिगोड़ाजी Tigodaji अतिशय क्षेत्र  120 ऊन (पावागिरि) Un (Pawagiri) सिद्ध क्षेत्र 121 उरवाहा Urwaha अतिशय क्षेत्र  महाराष्ट्र
    122 आसेगांव Aasegaon अतिशय क्षेत्र 123 आष्टा (कासार) Aashta (Kasar) अतिशय क्षेत्र 124 अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ Antariksha Parshvanath अतिशय क्षेत्र 125 भातकुली जैन Bhatkuli Jain अतिशय क्षेत्र 126 दहीगाँव Dahigaon अतिशय क्षेत्र 127 धरणगाँव Dharangaon अतिशय क्षेत्र 128 एलोरा (वेरूल) Ellora (Verul) अतिशय क्षेत्र 129 गजपंथा Gajpantha सिद्ध क्षेत्र 130 जटवाड़ा Jatwada अतिशय क्षेत्र 131 कचनेर Kachner अतिशय क्षेत्र 132 कारंजा (लाड़) Karanja (Lad) अतिशय क्षेत्र 133 कौडण्यपुर Kaudanyapur अतिशय क्षेत्र 134 केसापुरी-बीड़ Kesapuri-Bir अतिशय क्षेत्र 135 कुम्भोज बाहुबली Kumbhoj Bahubali अतिशय क्षेत्र 136 कुण्डल Kundal सिद्ध क्षेत्र 137 कुंथलगिरि Kunthalgiri सिद्ध क्षेत्र 138 कुन्थुगिरि Kunthugiri अतिशय क्षेत्र 139 मांडल Mandal अतिशय क्षेत्र 140 मांगीतुंगी Mangitungi सिद्ध क्षेत्र 141 नाईचाकुर Naichakur अतिशय क्षेत्र 142 नंदीश्वर-पंचालेश्वर Nandishwar-Panchaleshwar अतिशय क्षेत्र 143 नवागढ़ (उखलद) Nawagarh अतिशय क्षेत्र 144 नेमगिरि, जिंतूर Nemgiri Jintur अतिशय क्षेत्र 145 पैठण Paithan अतिशय क्षेत्र 146 पोदनपुर (बोरीवली) Podanpur (Borivalli) अतिशय क्षेत्र 147 रामटेक Ramtek अतिशय क्षेत्र 148 सावरगाँव (काटी) Sawargaon अतिशय क्षेत्र 149 शिरड़ शहापुर Shirad अतिशय क्षेत्र 150 तेर Ter अतिशय क्षेत्र 151 विजय गोपाल Vijay Gopal अतिशय क्षेत्र उड़ीसा
    152 खंडगिरि-उदयगिरि Khandgiri-Udaygiri सिद्ध क्षेत्र राजस्थान
    153 अडिन्दा Adinda अतिशय क्षेत्र 154 अन्देश्वर पार्श्वनाथ Andeshwar Parshvanath अतिशय क्षेत्र 155 अरथूना नसियाँजी Arthuna Nasiyaji अतिशय क्षेत्र 156 बिजौलियां पार्श्वनाथ Bijoliya parshvanath अतिशय क्षेत्र 157 चमत्कारजी (सवाईमाधोपुर) Chamatkarji अतिशय क्षेत्र 158 चाँदखेड़ी Chandkhedi अतिशय क्षेत्र 159 चन्द्रगिरि बैनाड़ Chandragiri Bainad अतिशय क्षेत्र 160 चंवलेश्वर पार्श्वनाथ Chanwaleshwar Parshvanath अतिशय क्षेत्र 161 चूलगिरि (खानियांजी) Chulgiri Khaniyaji अतिशय क्षेत्र 162 देबारी Debari अतिशय क्षेत्र 163 देहरा - तिजारा Dehara-Tijara अतिशय क्षेत्र 164 दिलवाड़ा-माउण्ट आबू Dilwada-Mount Abu अतिशय क्षेत्र 165 जहाजपुर Jahajpur अतिशय क्षेत्र 166 झाझीरामपुरा-दौसा Jhajhirampura-Dausa अतिशय क्षेत्र 167 झालरापाटन-पार्श्वगिरि Jhalarapatan Parshwagiri अतिशय क्षेत्र 168 केशवराय पाटन Keshorai Patan अतिशय क्षेत्र 169 खेरवाड़ा Khairwada अतिशय क्षेत्र 170 खन्डारजी Khandarji अतिशय क्षेत्र 171 खूणादरी Khunadari अतिशय क्षेत्र 172 महावीरजी Mahavirji अतिशय क्षेत्र 173 मालपुरा - टोंक Malpura - Tonk अतिशय क्षेत्र 174 मौजमाबाद Maujamabad अतिशय क्षेत्र 175 मेहन्दवास - टोंक Mehandwas - Tonk अतिशय क्षेत्र 176 नागफणी पार्श्वनाथ Nagphani Parshvanath अतिशय क्षेत्र 177 नारेली Nareli दर्शनीय क्षेत्र 178 नौगामा नसियाँजी Naugama Nasiyaji कला क्षेत्र 179 पदमपुरा (बाड़ा) Padampura (Baada) अतिशय क्षेत्र 180 रैवासा-सीकर Raiwasa-Seekar अतिशय क्षेत्र 181 ऋषभदेव (केशरियाजी) Rishabhdev Keshriyaji अतिशय क्षेत्र 182 सालेड़ा Saleda अतिशय क्षेत्र 183 संधीजी-सांगानेर Sanghiji-Sanganer अतिशय क्षेत्र 184 सांखना - टोंक Sankhana - Tonk अतिशय क्षेत्र 185 सरवाड़ Sarvaad अतिशय क्षेत्र 186 शांतिनाथ-बमोतर Shantinath-Bamotar अतिशय क्षेत्र 187 वागोल-पार्श्वनाथ Vagol-Parshvanath अतिशय क्षेत्र तमिलनाडु
    188 मेलचित्तामूर Melchitamur अतिशय क्षेत्र 189 पोन्नूरमले Ponnurmalle अतिशय क्षेत्र 190 तिरूमलै Tirumalle अतिशय क्षेत्र उत्तराखंड
    191  अष्टापद कैलाश बद्रीनाथ Ashtapad Kailash Badrinath सिद्ध क्षेत्र उत्तर प्रदेश 
    192 अहिच्छत्र पार्श्वनाथ  Ahikhetra Parshvanath अतिशय क्षेत्र  193 अयोध्या Ayodhya कल्याणक क्षेत्र  194 बड़ागाँव Badagaon अतिशय क्षेत्र  195 बड़ागाँव त्रिलोकतीर्थ Badagaon Trilok Tirth अतिशय क्षेत्र  196 बहसूमा Bahsuma अतिशय क्षेत्र  197 बानपुर Banpur अतिशय क्षेत्र  198 बरनावा-जिला-बागपत Barnava-Jila-Bagpat अतिशय क्षेत्र  199 भदैनीजी-वाराणसी Bhadainiji-Varanasi कल्याणक क्षेत्र  200 भेलूपुर - वाराणसी Bhelupur - Varanasi कल्याणक क्षेत्र  201 चन्द्रावतीजी Chandravatiji कल्याणक क्षेत्र  202 चन्द्रवाड़ (फिरोज़ाबाद) Chandrawad (Firozabad) अतिशय क्षेत्र  203 देवगढ़जी Devgarhji अतिशय क्षेत्र  204 गिरारगिरिजी Girargiriji अतिशय क्षेत्र  205 हस्तिनापुर Hastinapur कल्याणक क्षेत्र  206 हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप Hastinapur-Jamboodveep कल्याणक क्षेत्र  207 हुसैनपुर कलाँ Husainpur Kalan अतिशय क्षेत्र  208 कहाऊँ Kahaun कल्याणक क्षेत्र  209 काकन्दी Kakandi कल्याणक क्षेत्र  210 कम्पिलजी Kampilji कल्याणक क्षेत्र  211 करगुवाँजी Karguwanji अतिशय क्षेत्र  212 कारीटोरन Karitoran अतिशय क्षेत्र  213 कौशाम्बी Kaushambi कल्याणक क्षेत्र  214 महलका-जिला-मेरठ Mahalka-Jila-Meerut अतिशय क्षेत्र  215 मङ्गलायतन Manglayatan कला क्षेत्र  216 मरसलगंज Marsalganj अतिशय क्षेत्र  217 मथुरा चौरासी Mathura Chourasi सिद्ध क्षेत्र  218 नवागढ़ (नन्दपुर) Navagarh (Nandpur) अतिशय क्षेत्र  219 पावागिरजी Pawagirji सिद्ध क्षेत्र  220 पावानगर Pawanagar सिद्ध क्षेत्र  221 प्रभासगिरि (पभौसा) Prabhasgiri (Pabhausa) कल्याणक क्षेत्र  222 प्रयाग Prayag कल्याणक क्षेत्र  223 प्रयाग-ऋषभदेव तपस्थली Prayag-Rishabhadev Tapsthali कल्याणक क्षेत्र  224 राजमल (फिरोजाबाद) Rajmal (Firozabad) अतिशय क्षेत्र  225 रतनपुरी Ratanpuri कल्याणक क्षेत्र  226 ऋषभांचल Rishabhanchal अतिशय क्षेत्र  227 सेरोनजी Seronji अतिशय क्षेत्र  228 सीरोनजी (मड़ावरा) Sironji (Madawara) अतिशय क्षेत्र  229 शान्तिगिरि (मदनपुर) Shantigiri (Madanpur) अतिशय क्षेत्र  230 शौरीपुर (बटेश्वर) Shouripur (Bateshvar) कल्याणक क्षेत्र  231 श्रावस्ती (सहेठ-महेठ) Shravasti (Saheth-Maheth) कल्याणक क्षेत्र  232 सिंहपुरी (सारनाथ) Sinhpuri (Sarnath) कल्याणक क्षेत्र  233 टोड़ी फतेहपुर Todi Fatehpur अतिशय क्षेत्र  234 त्रिलोकपुर Trilokpur अतिशय क्षेत्र  235 त्रिमूर्ति मन्दिर - एत्मादपुर Trimurti Mandir (Etmadpur) अतिशय क्षेत्र  236 वहलना Vahalana अतिशय क्षेत्र  पश्चिम बंगाल
    237 चिन्सुरा Chinsura अतिशय क्षेत्र 238 पाकबीरा (पुरुलिया) Paakbira (Purulia) अतिशय क्षेत्र  
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