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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं उन जिन भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरुषों की अपने सभा में प्रशंसा कर रहा था। उस समय उसने कहा- जिस पुरुष का जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वह दूसरों के बहुत से गुणों पर बिल्कुल ध्यान न देकर उसमें रहने वाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ गुणों के ग्रहण करने की ओर है वह पुरुष, वह महात्मा संसार में सबसे श्रेष्ठ है, उसी का जन्म भी सफल है। इन्द्र के मुँह से इस प्रकार दूसरों की प्रशंसा सुन एक मौजी ले देव ने उससे पूछा-देवराज, जैसा इस समय आपने गुणग्राहक पुरुष की प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोई बड़भागी पृथ्वी पर है । इन्द्र ने उत्तर में कहा- हाँ हैं और वे अन्तिम वासुदेव द्वारका के स्वामी श्रीकृष्ण । सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया। इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान् के दर्शनार्थ जा रहे थे । उनकी परीक्षा के लिए यह मरे कुत्ते का रूप ले रास्ते में पड़ गया। उसके शरीर से बड़ी ही दुर्गन्ध भभक रही थी । आने-जाने वालों के लिए इधर- उधर होकर आना-जाना मुश्किल हो गया था। उसकी उस असह दुर्गन्ध के मारे श्रीकृष्ण के साथी सब भाग खड़े हुए। उसी समय वह देव एक दूसरे ब्राह्मण का रूप लेकर श्रीकृष्ण के पास आया और उस कुत्ते की बुराई करने लगा, उसके दोष दिखाने लगा । श्रीकृष्ण ने उसकी सब बातें सुन- सुनाकर कहा - अहा! देखिये, इस कुत्ते के दाँतों की श्रेणी स्फटिक के समान कितनी निर्मल और सुन्दर है । श्रीकृष्ण ने कुत्ते के और दोषों पर उसकी दुर्गन्ध आदि पर कुछ ध्यान न देकर उसके दाँतों की, उसमें रहने वाले थोड़े से भी अच्छे भाग की उल्टी प्रशंसा ही की । श्रीकृष्ण की पशु के लिए इतनी उदार बुद्धि देखकर वह देव बहुत खुश हुआ । उसने फिर प्रत्यक्ष होकर सब हाल श्रीकृष्ण से कहा- और उचित आदर मान करके आप अपने स्थान चला गया ॥२- ११॥
    इसी तरह अन्य जिन भगवान् के भक्त भव्यजनों को भी उचित है कि वे दूसरों के दोषों को छोड़कर सुख की प्राप्ति के लिए प्रेम के साथ उनके गुणों को ग्रहण करने का यत्न करें । इसी से वे गुणज्ञ और प्रशंसा के पात्र कहे जा सकेंगे ॥१२॥
  2. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञान की शोभा को प्राप्त हुए और तीनों जगत् के गुरु ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर लुब्धक सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    राजा अभयवाहन चम्पापुरी के राजा हैं इनकी रानी पुण्डरीका है। नेत्र इसके ठीक पुण्डरीक कमल जैसे हैं। चम्पापुरी में लुब्धक नाम का एक सेठ रहता है। इसकी स्त्री का नाम नागवसु हैं । लुब्धक के दो पुत्र हैं। इनके नाम गरुड़दत्त और नागदत्त हैं। दोनों भाई सदा हँस-मुख रहते हैं ॥२-४॥
    लुब्धक के पास बहुत धन था । उसने बहुत कुछ खर्च करके यक्ष, पक्षी, हाथी, ऊँट, घोड़ा, सिंह, हरिण आदि पशुओं की एक - एक जोड़ी सोने की बनवाई । इसके सींग, पूँछ, खूर आदि में अच्छे- अच्छे बहुमूल्य हीरा, मोती, माणिक आदि रत्नों को जड़ाकर लुब्धक ने देखने वालों के लिए एक नया ही आविष्कार कर दिया था। जो इन जोड़ियों को देखता वह बहुत खुश होता और लुब्धक की तारीफ किये बिना नहीं रहता। स्वयं लुब्धक भी अपनी इस जगमगाती प्रदर्शनी को देखकर अपने को बड़ा धन्य मानता था। इसके सिवा लुब्धक को थोड़ा-सा दुःख इस बात का था कि उसने एक बैल की जोड़ी बनवाना शुरू की थी और एक बैल बन भी चुका था, पर फिर सोना न रहने के कारण वह दूसरा बैल नहीं बनवा सका। बस, इसी की उसे एक चिन्ता थीं । पर यह प्रसन्नता की बात है कि वह सदा चिन्ता से घिरा न रहकर इसी कमी को पूरा करने के यत्न में लगा रहता था ॥५-६॥
    एक बार सात दिन बराबर पानी की झड़ी लगी रही। नदी-नाले सब पूर आ गये । पर कर्मवीर लुब्धक ऐसे समय भी अपने दूसरे बैल के लिए लकड़ी लेने को स्वयं नदी पर गया और बहती नदी में से बहुत-सी लकड़ी निकालकर उसने उसकी गठरी बाँधी और उसे आप ही अपने सिर पर लादे लाने लगा। सच है, ऐसे लोभियों की तृष्णा कहीं कभी किसी से मिटी है? नहीं ॥७-८॥
    इस समय रानी पुण्डरीका अपने महल पर बैठी हुई प्रकृति की शोभा को देख रही थी । महाराज अभयवाहन भी इस समय यहीं पर थे। लुब्धक को सिर पर एक बड़ा भारी काठ का भार लादकर लाते देख रानी ने अभयवाहन से कहा - प्राणनाथ, जान पड़ता है आपके राज में यह कोई बड़ा ही दरिद्री है। देखिए, बेचारा सिर पर लकड़ियों का कितना भारी गट्ठा लादे हुए आ रहा है। दया करके इसे कुछ आप सहायता दीजिए, जिससे इसका कष्ट दूर हो जाये। यह उचित ही है कि दयावानों की बुद्धि दूसरों पर दया करने की होती है । राजा ने उसी समय नौकरों को भेजकर लुब्धक को अपने पास बुलवाया । लुब्धक के आने पर राजा ने उससे कहा- जान पड़ता है तुम्हारे घर की हालत अच्छी नहीं है। इसका मुझे खेद है कि इतने दिनों से मेरा तुम्हारी ओर ध्यान न गया। अस्तु, तुम्हें जितने रुपये पैसे की जरूरत हो, तुम खजाने से ले जाओ। मैं तुम्हें एक पत्र लिख देता हूँ। यह कहकर राजा पत्र लिखने को तैयार हुए कि लुब्धक ने उनसे कहा- महाराज, मुझे और कुछ न चाहिए किन्तु एक बैल की जरूरत है। कारण मेरे पास एक बैल तो है, पर उसकी जोड़ी मुझे मिलानी है। राजा ने कहा-अच्छी बात है तो जाओ हमारे बहुत से बैल है उनमें तुम्हें जो बैल पसंद आवे उसे अपने घर ले जाओ। राजा के जितने बैल थे उन सबको देख आकर लुब्धक ने राजा से कहा- महाराज, उन बैलों में मेरे बैल सरीखा तो एक भी बैल मुझे नहीं दिखाई पड़ा । सुनकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ। उन्होंने लुब्धक से कहा- भाई, तुम्हारा बैल कैसा है, यह मैं नहीं समझा। क्या तुम मुझे अपना बैल दिखाओगे? लुब्धक बड़ी खुशी के साथ अपना बैल दिखाना स्वीकार कर महाराज को अपने घर पर लिवा ले गया। राजा को उस सोने के बने बैल को देखकर बड़ा अचम्भा हुआ। जिसे उन्होंने एक महा दरिद्री समझा था, वही इतना बड़ा धनी है, यह देखकर किसे अचम्भा न होगा ॥९-१८॥
    लुब्धक की स्त्री नागवसु अपने घर पर महाराज को आये देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई उसने महाराज की भेंट के लिए सोने का थाल बहुमूल्य सुन्दर - सुन्दर रत्नों से सजाया और उसे अपने स्वामी के हाथ में देकर कहा - इस थाल को महाराज को भेंट कीजिए । रत्नों के थाल को देखकर लुब्धक की तो छाती बैठ गई, पर पास ही महाराज के होने से उसे वह थाल हाथों में लेना पड़ा। जैसे ही थाल को उसने हाथों में लिया उसके दोनों हाथ थर-थर काँपने लगे और ज्यों ही उसने थाल देने को महाराज के पास हाथ बढ़ाया तो लोभ के मारे इसकी अंगुलियाँ महाराज को साँप के फण की तरह देख पड़ी। सच है, जिस पापी ने कभी किसी को एक कौड़ी तक नहीं दी, उसका मन क्या दूसरे की प्रेरणा से भी कभी दान की ओर झुक सकता है? नहीं । राजा को उसके ऐसे बुरे बरताव पर बड़ी नफरत हुई फिर एक पल भर भी उन्हें वहाँ ठहरना अच्छा न लगा। वे उसका नाम ‘फणहस्त’ रखकर अपने महल पर आ गये ॥१९-२०॥
    लुब्धक की दूसरा बैल बनाने की आकांक्षा अभी पूरी नहीं हुई वह उसके लिए धन कमाने को सिंहलद्वीप गया। लगभग चार करोड़ का धन उसने वहाँ रहकर कमाया भी। जब वह अपना धन, माल-असबाब जहाज पर लाद कर लौटा तो रास्ते में आते-आते कर्मयोग से हवा उलटी वह चली। समुद्र में तूफान पर तूफान आने लगे । एक जोर की आँधी आई उसने जहाज को एक ऐसा जोर का धक्का मारा कि जहाज उलट कर देखते-देखते समुद्र के विशाल गर्भ में समा गया। लुब्धक, उसका धन-असबाब, इसके सिवा और भी बहुत से लोग जहाज के संगी हुए । लुब्धक आर्त्तध्यान से मरकर अपने धन का रक्षक साँप हुआ। तब भी उसमें से एक कोड़ी भी किसी को नहीं उठाने देता था ॥२१-२६॥
    एक सर्प को अपने धन पर बैठा देखकर लुब्धक के बड़े लड़के गरुड़दत्त को बहुत क्रोध आया और इसीलिए उसने उसे उठाकर मार डाला । यहाँ से वह बड़े बुरे भावों से मरकर चौथे नरक गया, जहाँ के पापकर्मों का बड़ा ही दुस्सह फल भोगना पड़ता था। इस प्रकार धर्मरहित जीव क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वश होकर पाप के उदय से इस दुःखों के समुद्र संसार में अनन्त काल तक दुःख- कष्ट उठाया करता है । इसलिए जो सुख चाहते हैं, जिन्हें सुख प्यारा है, उन्हें चाहिए कि वे इन क्रोध, लोभ, मान, मायादि को संसार में दुःख देने वाले मूल कारण समझ कर इनका मन, वचन और शरीर से त्याग करें और साथ ही जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये धर्म को भक्ति और शक्ति के अनुसार ग्रहण करें, जो परम शान्ति - मोक्ष का प्राप्त कराने वाला है ॥२७-२९॥
  3. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के स्वामी और अनन्त सुखों के देने वाले श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर द्वीपायन मुनि का चरित लिखा जाता है, जैसा पूर्वाचार्यों ने उसे लिखा है ॥१॥
    सोरठदेश में द्वारका प्रसिद्ध नगरी है। नेमिनाथ भगवान् का जन्म यहीं हुआ है। इससे यह बड़ी पवित्र समझी जाती है। जिस समय की यह कथा लिखी जाती है । उस समय द्वारका का राज्य नवमें बलभद्र और वासुदेव करते थे । एक दिन ये दोनों राज- राजेश्वर गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ भगवान् की पूजा-वन्दना करने को गए । भगवान् की इन्होंने भक्तिपूर्वक पूजा की और उनका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर इन्हें बहुत प्रसन्नता हुई इसके बाद बलभद्र ने भगवान् से पूछा- हे संसार के अकारण बन्धो, हे केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक, हे तीन जगत् के स्वामी! हे करुणा के समुद्र ! और हे लोकालोक के प्रकाशक, कृपाकर कहिए कि वासुदेव को पुण्य से जो सम्पत्ति प्राप्त है वह कितने समय तक ठहरेगी? भगवान् बोले- बारह वर्ष पर्यन्त वासुदेव के पास रहकर फिर नष्ट हो जायेगी। इसके सिवा मद्य-पान से यदुवंश का समूल नाश होगा, द्वारका द्वीपायन मुनि के सम्बन्ध से जलकर खाक हो जायेगी, और बलभद्र, तुम्हारी इस छुरी द्वारा जरत्कुमार के हाथों से श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी। भगवान् के द्वारा यदुवंश द्वारका और वासुदेव का भविष्य सुनकर बलभद्र द्वारका आए। उस समय द्वारका में जितनी शराब थी, उसे उन्होंने गिरनार पर्वत के जंगल में डलवा दिया। उधर द्वीपायन अपने सम्बन्ध से द्वारका का भस्म होना सुन मुनि हो गए और द्वारका को छोड़कर कहीं अन्यत्र चल दिये। मूर्ख लोग न समझ कुछ यत्न करें, पर भगवान् का कहा कभी झूठा नहीं होता । बलभद्र ने शराब को तो फिकवा दिया था। अब एक छुरी और उनके पास रह गई थी, जिसके द्वारा भगवान् ने श्रीकृष्ण की मौत होना बतलाई थी। बलभद्र ने उसे भी खूब घिस - घिसाकर समुद्र में फिकवा दिया। कर्मयोग से उस छुरी को एक मच्छ निगल गया और वही मच्छ फिर एक मल्लाह के जाल में आ फँसा। उसे मारने पर उसके पेट से वह छुरी निकली और धीरे-धीरे वह जरत्कुमार के हाथ तक भी पहुँच गई जरत्कुमार ने उसका बाण के लिए फला बनाकर उसे अपने बाण पर लगा लिया ॥२-१४॥
    बारह वर्ष हुए नहीं, पर द्वीपायन को अधिक महीनों का ख्याल न रहने से बारह वर्ष पूरे हुए समझ वे द्वारका की ओर लौट आकर गिरनार पर्वत के पास ही कहीं ठहरे और तपस्या करने लगे । पर तपस्या द्वारा कर्मों का ऐसा योग कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। एक दिन की बात है कि द्वीपायन मुनि आतापन योग द्वारा तपस्या कर रहे थे। इसी समय मानों पापकर्मों द्वारा उभारे हुए यादवों के कुछ लड़के गिरनार पर्वत से खेल - कूद कर लौट रहे थे। रास्ते में इन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। यहाँ तक कि वे बेचैन हो गए। उनके लिए घर आना मुश्किल पड़ गया । आते-आते इन्हें पानी से भरा एक गड्ढा दिख पड़ा। पर वह पानी नहीं था किन्तु बलभद्र ने जो शराब दुलवा दी थी वही बहकर इस गड्ढे में इकट्ठी हो गई थी। उस शराब को उन लड़कों ने पानी समझ पी लिया। शराब पीकर थोड़ी देर हुई होगी कि उसने उन पर अपना रंग जमाना शुरू किया। नशे से वे सुध-बुध भूलकर उन्मत्त की तरह कूदते-फाँदते आने लगे। रास्ते में इन्होंने द्वीपायन मुनि को ध्यान करते देखा। मुनि की रक्षा के लिए बलभद्र ने उनके चारों ओर एक पत्थरों का कोट सा बनवा दिया था । एक ओर उसके आने-जाने का दरवाजा था । इन शैतान लड़कों ने मजाक में आ उस जगह को पत्थरों से पूर दिया । सच हैं, शराब पीने से सुध-बुध भूलकर बड़ी बुरी हालत हो जाती है । यहाँ तक कि उन्मत्त पुरुष अपनी माता बहिनों के साथ भी बुरी वासनाओं को प्रकट करने में नहीं लजाता है ॥१५-२१॥
    शराब पीने वाले पापी लोगों को हित-अहित का कुछ ज्ञान नहीं रहता। इन लड़कों की शैतानी का हाल जब बलभद्र को मालूम हुआ तो वे वासुदेव को लिए दौड़े-दौड़े मुनि के पास आए और उन पत्थरों को निकाल कर उनसे क्षमा की प्रार्थना की। इस क्षमा कराने का मुनि पर कुछ असर नहीं हुआ। उनके प्राण निकलने की तैयारी कर रहे थे। मुनि ने सिर्फ दो उंगलियाँ उन्हें बतलाई और थोड़ी ही देर बाद वे मर गए। क्रोध से मर कर तपस्या के फल से वे व्यन्तर हुए । उन्होंने कुअवधि द्वारा अपने व्यन्तर होने का कारण जाना तो उन्हें उन लड़कों के उपद्रव की सब बातें ज्ञात हो गई यह देखकर व्यन्तर को बड़ा क्रोध आया। उसने उसी समय द्वारका में आकर आग लगा दी । सारी द्वारका धन-जन सहित देखते-देखते खाक हो गई सिर्फ बलभद्र और वासुदेव ही बच पाए, जिनके लिए कि द्वीपायन ने दो उंगलियाँ बतलाई थी । सच है, क्रोध के वश हो मूर्ख पुरुष सब कुछ कर बैठते है। इसलिए भव्यजनों को शान्ति-लाभ के लिए क्रोध को कभी पास भी न फटकने देना चाहिए। उस भयंकर अग्नि लीला को देखकर बलभद्र और वासुदेव का भी जी ठिकाने न रहा। ये अपना शरीर मात्र लेकर भाग निकले। यहाँ से निकल कर वे एक घोर जंगल में पहुँचे। सच है-पाप का उदय आने पर सब धन-दौलत नष्ट होकर जी बचाना तक मुश्किल पड़ जाता है। जो पलभर पहले सुखी रहा हो वह दूसरे ही पल में पाप के उदय से अत्यन्त दुःखी हो जाता है इसलिए जिन लोगों के पास बुद्धिरूपी धन है, उन्हें चाहिए कि वे पाप के कारणों को छोड़कर पुण्य के कार्यों में अपने हाथों को बँटावें। पात्र- दान, जिन-पूजा, परोपकार, विद्या - प्रचार, शील, व्रत, संयम आदि ये सब पुण्य के कारण हैं। बलभद्र और वासुदेव जैसे ही उस जंगल में आए, वासुदेव को यहाँ अत्यन्त प्यास लगी। प्यास के मारे वे गश खाकर गिर पड़े। बलभद्र उन्हें ऐसे ही छोड़कर जल लाने चले गए। इधर जरत्कुमार न जाने कहाँ से इधर ही आ निकला । उसने श्रीकृष्ण को हरिण के भ्रम से बाण द्वारा बेध दिया। पर जब उसने आकर देखा कि वह हरिण नहीं किन्तु श्रीकृष्ण है तब तो उसके दुःख का कोई पार न रहा। पर अब वह कुछ करने-धरने को लाचार था । वह बलभद्र के भय से फिर उसी समय वहाँ से भाग लिया। इधर बलभद्र जब पानी लेकर लौटे और उन्होंने श्रीकृष्ण की यह दशा देखी तब उन्हें जो दुःख हुआ वह लिखकर नहीं बताया जा सकता । यहाँ तक कि वे भ्रातृप्रेम से सिड़ी से हो गए और श्रीकृष्ण को कन्धों पर उठाये महीनों पर्वतों और जंगलों में घूमते फिरे । बलभद्र की यह हालत देख उनके पूर्व जन्म के मित्र एक देव को बहुत खेद हुआ। उसने आकर इन्हें समझा-बुझा कर शान्त किया और उनसे भाई का दहन - संस्कार करवाया । संस्कार कर जैसे ही वे निर्वृत्त हुए, उन्हें संसार की दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब दुःख, शोक, माया-ममता छोड़कर योगी हो गए। उन्होंने फिर पर्वतों पर खूब दुस्सह तप किया ॥२२-३२॥
    अन्त में धर्मध्यान सहित मरण कर ये माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुए वहाँ वे प्रतिदिन नित नये और मूल्यवान् सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहनते हैं, अनेक देव-देवी उनकी आज्ञा में सदा हाजिर रहते हैं । नाना प्रकार के उत्तम से उत्तम स्वर्गीय भोगों को वे भोगते हैं, विमान द्वारा कैलाश, सम्मेद शिखर, हिमालय, गिरनार आदि पर्वतों की यात्रा करते हैं और विदेह क्षेत्र में जाकर साक्षात् जिनभगवान् की पूजा - भक्ति करते हैं। मतलब यह है कि पुण्य के उदय से उन्हें सब कुछ सुख प्राप्त हैं और वे आनन्द-उत्सव के साथ अपना समय बिताते हैं ॥३३-३६॥
    जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप इन तीन महान् रत्नों से भूषित हैं, जो जिन भगवान् के चरणों के सच्चे भक्त हैं, चारित्र धारण करने वालों में जो सबसे ऊँचे हैं, जिनकी परम पवित्र बुद्धि गुणरूपी रत्नों से शोभा को धारण किए हैं और जो ज्ञान के समुद्र हैं, ऐसे बलभद्र मुनिराज मुझे वह सुख, शांति और वह मंगल दें, जिससे मन सदा प्रसन्न रहे ॥३७॥
     
  4. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सर्वोत्तम धर्म का उपदेश करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर सोमशर्म मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    आलोचना, गर्हा, आत्मनिन्दा, व्रत उपवास, स्तुति और कथाएँ तथा इनके द्वारा प्रमाद को असावधानी को नाश करना चाहिए। जैसे मंत्र, औषधि आदि से विष का वेग नाश किया जाता है। इसी सम्बन्ध की यह कथा है ॥२॥
    भारत के किसी हिस्से में बसे हुए पुण्ड्रक देश के प्रधान शहर देवी- कोटपुर में सोमशर्म नाम का ब्राह्मण हो चुका है। सोमशर्म वेद और वेदांग, व्याकरण, निरुरक्त, छन्द, ज्योतिष, शिक्षा और कला का अच्छा विद्वान् था। इसकी स्त्री का नाम सोमिल्या था । इसके अग्निभूति और वायुभूति दो लड़के थे ॥३-४॥
    यहाँ विष्णुदत्त नाम का एक और ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम विष्णु श्री था । विष्णुदत्त अच्छा धनी था। पर स्वभाव का अच्छा आदमी न था । किसी दिन कोई खास जरूरत पड़ने पर सोमशर्म ने विष्णुदत्त से कुछ रुपया कर्ज लिया था। उसका कर्ज अदा न कर पाया था कि एक दिन सोमशर्म के किसी जैनमुनि के धर्मोपदेश से वैराग्य हो जाने से मुनि हो गया। वहाँ से विहार कर वह कहीं अन्यत्र चला गया और दूसरे नगरों और गाँवों में धर्म का उपदेश करता हुआ एक बार फिर वह कोटपुर में आया। विष्णुदत्त ने तब उसे देखकर पकड़ लिया और कहा - साधुजी, आपके दोनों लड़के तो इस समय महा दरिद्र दशा में हैं। उनके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं हैं वे मेरा रुपया नहीं दे सकते। इसलिए या तो आप मेरा रुपया दे दीजिये या अपना धर्म बेच दीजिये । सोमशर्म मुनि के सामने बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई, वे क्या करें, इसकी उन्हें कुछ सूझ न पड़ी। तब उनके गुरु वीरभद्राचार्य ने उनसे कहा-अच्छा तुम जाओ और धर्म बेचो ! उनकी आज्ञा पाकर सोमशर्म मुनि मसान में जाकर धर्म बेचने लगे। इस समय एक देवी ने आकर उनसे पूछा- मुनिराज, जिस धर्म को आप बेच रहे हैं, भला कहिए तो वह कैसा है ? उत्तर में मुनि ने कहा- मेरा धर्म अट्ठाईस मूलगुण और चौरासी लाख उत्तरगुणों से युक्त है तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन और ब्रह्मचर्य इन दस भेद रूप है। धर्म का यह स्वरूप श्री जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। मुनि द्वारा अपने बेचे जाने वाले धर्म की इस प्रकार व्याख्या सुनकर वह देवी बहुत प्रसन्न हुई उसने मुनि को नमस्कार कर धर्म की प्रशंसा में कहा - मुनिराज, आपने जो कहा वह बहुत ठीक है । यही धर्म संसार को वश करने के लिए एक वशीकरण मंत्र है, अमूल्य चिन्तामणि है, सुखरूप अमृत की धारा है और मनचाही वस्तुओं के दुहने-देने के लिए कामधेनु हैं। अधिक क्या किन्तु यह समझना चाहिए कि संसार में जो- जो मनोहरता देख पड़ती है वह सब एक धर्महीन का फल है। धर्म एक सर्वोत्तम अमोल वस्तु है। उसका मोल हो ही नहीं सकता। पर मुनिराज, आपको उस ब्राह्मण का कर्ज चुकाना है। आपका यह उपसर्ग दूर हो, इसलिए दीक्षा समय- केशलोंच किए आपके बालों को उस कर्ज के बदले दिये देती हूँ। यह कहकर देवी उन बालों को अपनी दैवी-माया से चमकते हुए बहुमूल्य रत्न बनाकर आप अपने स्थान पर चल दी। सच है, जैनधर्म का प्रभाव कौन वर्णन कर सकता है, जो कि सदा ही सुख देने वाला और देवों द्वारा पूजा किया जाता है ॥५-१७॥
    सबेरा होने पर विष्णुदत्त, सोमशर्म मुनि के तप का प्रभाव देखकर चकित रह गया। उसकी मुनि पर तब बड़ी श्रद्धा हो गई उसने नमस्कार कर उनकी प्रशंसा में कहा- योगिराज, सचमुच आप बड़े ही भाग्यशाली है। आपके सरीखा विद्वान् और धीर मैंने किसी को नहीं देखा। यह आपही से महात्माओं का काम है जो मोहपाश को तोड़ - तुड़ाकर इस प्रकार दु:सह तपस्या कर रहे हैं। महाराज, आपकी मैं किन शब्दों में तारीफ करूँ, यह मुझे नहीं जान पड़ता। आपने तो अपने जीवन को सफल बना लिया । पर हाय! मैं पापी पापकर्म के उदय से धनरूपी चोरों द्वारा ठगा गया। मैं अब इनके पैंचीले जाल से कैसे छूट सकूँगा? दयासागर ! मुझे बचाइये । नाथ, अब तो मैं आप ही के चरणों की सेवा करूँगा। आपकी सेवा को ही अपना ध्येय बनाऊँगा । तब ही कहीं मेरा भला होगा। इस प्रकार बड़ी देर तक विष्णुदत्त ने सोमशर्म मुनि की स्तुति की । अन्त में प्रार्थना कर उनसे दीक्षा ले वह मुनि हो गया। जो विष्णुदत्त एक ही दिन पहले मुनि की इज्जत, प्रतिष्ठा बिगाड़ने को हाथ धोकर उनके पीछा पड़ा था और मुनि को उपसर्ग कर जिसने पाप बाँधा था वही गुरुभक्ति से स्वर्ग और मोक्ष के सुख का पात्र हो गया। सच है, धर्म की शरण ग्रहण कर सभी सुखी होती हैं । विष्णुदत्त के सिवा और भी बहुतेरे भव्यजन जैनधर्म का ऐसा प्रभाव देखकर जैनधर्म के प्रेमी हो गए और उस धन से, जिसे देवी ने मुनि के बालों को रत्नों के रूप में बनाया था, कोटितीर्थ नाम का एक बड़ा ही सुन्दर जिनमन्दिर बनवा दिया, जिसमें धर्मसाधन कर भव्यजन सुख-शान्ति लाभ - करते थे ॥१८-२४॥
    जो बुद्धिरूपी धन के मालिक, बड़े विचारशील साधु-सन्त जिन भगवान् के द्वारा उपदेश किए, सारे संसार में पूजे-माने जाने वाले, स्वर्ग-मोक्ष के या और सब प्रकार सांसारिक सुख के कारण, संसार का भय मिटाने वाले ऐसे परम पवित्र तप को भक्ति से ग्रहण करते हैं वे कभी नाश न होने वाले मोक्ष सुख का लाभ करते हैं। ऐसे महात्मा योगीराज मुझे भी आत्मीक सच्चा सुख दें ॥२५॥
  5. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल नेत्र और तीनों लोक को देखने और जानने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन के लोभ से डरकर मुनि हो जाने वाले सागरदत्त की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    किसी समय धनमित्र, धनदत्त आदि बहुत से सेठों के पुत्र व्यापार के लिए कौशाम्बी से चलकर राजगृह की ओर रवाना हुए। रास्ते में एक गहन वन में चोरों ने इन्हें लूट लिया। इनका सब माल- असबाब छीन-छानकर वे चलते हुए । सच है, जिनके पल्ले में कुछ पुण्य नहीं होता। वे कोई भी काम करें, उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ता है ॥२-३॥
    उधर धन पाकर चोरों की नियत बिगड़ी । सब परस्पर में यह चाहने लगे कि धन मेरे ही हाथ पड़े और किसी को कुछ न मिले और इसी लालसा से एक-एक के विरुद्ध जान लेने की कोशिश करने  लगे। रात को जब वे सब खाने को बैठे तो किसी ने भोजन में विष मिला दिया और उसे खाकर सब के सब परलोक सिधार गए। यहाँ तक कि जिसने विष मिलाया था, वह भी भ्रम से उसे खाकर मर गया। उसमें एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र बच गया । वह इसलिए कि उसे रात्रि में खाने-पीने की प्रतिज्ञा थी । धन के लोभ में फँसने से एक साथ सबको मरा देखकर सागरदत्त को बड़ा वैराग्य हुआ। वह उस धन को वहीं छोड़-छाड़कर चल दिया और एक साधु के पास जाकर आप मुनि बन गया ॥४-७॥
    रात्रिभुक्तत्यागव्रती सागरदत्त ने संसार की सब लीलाओं को दुःख का कारण और जीवन को बिजली की तरह जानकर पलभर में नाश होने वाला सब धन वहीं पर पड़ा छोड़कर आप एक ऊँचा आचरण का धारक साधु हो गया। वह सागरदत्त मुनि आप सज्जनों का कल्याण करें ॥८॥
  6. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों और राजाओं, महाराजाओं द्वारा पूजा किए गए भगवान् के चरणों को नमस्कार कर नागदत्ता की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    आभीर देश नासक्य नगर में सागरदत्त नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम नागदत्त था। इसके एक लड़का और एक लड़की थी ॥२॥
    दोनों के नाम थे श्रीकुमार और श्रीषेणा । नागदत्ता का चाल-चलन अच्छा न था। अपनी गायों को चराने वाले नन्द नाम के ग्वाल के साथ उसकी आशनाई थी । नागदत्ता ने उसे एक दिन कुछ सिखा-सुझा दिया। सो वह बीमारी का बहाना बनाकर गायें चराने को नहीं आया । तब बेचारे सागरदत्त को स्वयं गायें चराने को जाना पड़ा । जंगल में गायों को चरते छोड़कर वह एक झाड़के नीचे सो गया। पीछे से नन्दग्वाल ने आकर उसे मार डाला। बात यह थी कि नागदत्ता ने ही अपने पति को मार डालने के लिए उसे उकसाया था और फिर परस्त्री - लम्पटी पुरुष अपने सुख में आने वाले विघ्न को नष्ट करने के लिए कौन बुरा काम नहीं करता ॥३-६॥
    नागदत्ता और पापी नन्द इस प्रकार अनर्थ द्वारा अपने सिर पर एक बड़ा भारी पाप का बोझ लादकर अपनी नीच मनोवृत्तियों को प्रसन्न करने लगे। श्रीकुमार अपनी माता की इस नीचता से बेहद कष्ट पाने लगा। उसे लोगों को मुँह दिखाना तक कठिन हो गया । उसे बड़ी लज्जा आने लगी और इसके लिए उसने अपनी माता को बहुत कुछ कहा सुना भी। पर नागदत्ता के मन पर उसका कुछ असर नहीं हुआ। वह पिचली हुई नागिन की तरह उसी पर दाव खाने लगी। उसने नाराज होकर श्रीकुमार को भी मार डालने के लिए नन्द को उभारा । नन्द फिर बीमारी का बहाना बनाकर गायें चराने को नहीं आया। तब श्रीकुमार स्वयं ही जाने को तैयार हुआ । उसे जाता देखकर उसकी बहिन श्रीषेणा उसे रोककर कहा-भैया, तुम मत जाओ । मुझे माता का इसमें कुछ कपट दिखता है। उसने जैसे नन्द द्वारा अपने पिताजी को मरवा डाला है, वह तुम्हें भी मरवा डालने के लिए दाँत पीस रही है। मुझे जान पड़ता है नन्द इसीलिए बहाना बनाकर आज गायें चराने को नहीं आया । श्रीकुमार बोला- बहिन, तुमने मुझे आज सावधान कर दिया। यह बड़ा ही अच्छा किया। तू मत घबरा। मैं अपनी रक्षा अच्छी तरह कर सकूँगा। अब मुझे रंचमात्र भी डर नहीं रहा और मैं तुम्हारे कहने से नहीं जाता, पर इससे माता को अधिक सन्देह होता और वह फिर कोई दूसरा ही यत्न कर मुझे मरवाने का करती क्योंकि वह चुप तो कभी बैठी ही न रहेगी। आज बहुत ही अच्छा मौका हाथ लगा है। इसीलिए मरा जाना ही उचित है। और जहाँ तक मेरा बस चलेगा मैं जड़मूल से उस अंकुर को उखाड़कर फेंक दूँगा, जो हमारी माता के अनर्थ का मूल कारण है । बहिन ! तुम किसी तरह की चिन्ता मन में न लाओ। अनाथों का नाथ अपना भी मालिक है ॥७-१२॥
    श्रीकुमार बहिन को समझा कर जंगल में गायें चराने को गया । उसने वहाँ एक बड़े लकड़े को वस्त्रों से ढककर इस तरह रख दिया कि वह दूसरों को सोया हुआ मनुष्य जान पड़ने लगा और आप एक ओर छिप गया श्रीषेणा की बात सच निकली । नन्द नंगी तलवार लिए दबे पाँव उस लकड़े के पास आया और तलवार उठाकर उसने उस पर दे मारी। इतने में श्रीकुमार ने आकर उसकी पीठ में इस जोर की एक भाले की जमाई कि भाला आर-पार हो गया और नन्द देखते-देखते तड़फड़ाकर मर गया। इधर श्रीकुमार गायों को लेकर घर लौट आया। आज गायें दोहने के लिए भी श्रीकुमार ही गया। उसे देखकर नागदत्ता ने उससे पूछा- क्यों कुमार, नन्द नहीं आया? मैंने तो तेरे ढूँढ़ने के लिए उसे जंगल में भेजा था। क्या तूने उसे देखा है कि वह कहाँ पर है? श्रीकुमार से तब न रहा गया और गुस्से में आकर उसने कह डाला - माता, मुझे तो मालूम नहीं कि नन्द कहाँ है। पर मेरा यह भाला अवश्य जानता है। नागदत्ता की आँखें जैसे ही उस खून से भरे भाले पर पड़ी तो उसकी छाती धड़क उठी। उसने समझ लिया कि इसने उसे मार डाला है। अब तो क्रोध से वह भर गई उसे सामने एक मूसला रखा था। उस पापिनी ने उसे ही उठाकर श्रीकुमार के सिर पर इस प्रकार जोर से मारा कि सिर फटकर तत्काल वह भी धराशायी हो गया । अपने भाई की इस प्रकार हत्या हुई देखकर श्रीषेणा दौड़ी और नागदत्ता के हाथ से झट से मूसला छुड़ाकर उसने उसके सिर पर एक जोर की मार जमाई, जिससे वह भी अपने किए की योग्य सजा पा गई। नागदत्ता मरकर पाप के फल से नरक गई। सच है-पापी को अपना जीवन पाप में ही बिताना पड़ता है । नागदत्ता इसका उदाहरण है। उस दुराचार को धिक्कार, उस काम को धिक्कार, जिसके वश मनुष्य महा पापकर्म कर और फिर उसके फल से दुर्गति में जाता है । इसलिए सत्पुरुषों को उचित है कि वे जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए, सबको प्रसन्न करने वाले और सुख प्राप्ति के साधन ब्रह्मचर्य व्रत का सदा पालन करें ॥१३-२२॥
  7. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरुषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने मात्र से ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ी भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बाई में एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊँचाई में ढाई सौ योजन का है। (एक योजन चार या दो हजार कोस का होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बड़े मच्छ के कानों के पास रहता है। पर यह बहुत ही छोटा है और इस बड़े मच्छ के कानों का मैल खाया करता है। जब यह बड़ा मच्छ सैकड़ों छोटे-मोटे जल - जीवों को खाकर और मुँह फाड़े छह मास की गहरी नींद के खुर्राटे में मग्न हो जाता उस समय कोई एक-एक दो-दो योजन के लंबे-चौड़े कछुए, मछलियाँ, घड़ियाल, मगर आदि जल जन्तु, बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल डाढों वाले मुँह में घुसते और बाहर निकलते रहते हैं तब यह छोटा सिक्थ-मच्छ रोज-रोज सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुख में आसानी से आए हुए जीवों को व्यर्थ ही जाने देता है! यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्राप्त हुई होती तो मैं कभी एक भी जीव को न जाने देता। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग अपने आप ही ऐसे बुरे भावों द्वारा महान् पाप का बन्धकर दुर्गतियों में जाते हैं और वहाँ अनेक कष्ट सहते हैं । सिक्थ-मच्छ की भी यह दशा हुई वह इस प्रकार बुरे भावों से तीव्र कर्मों का बन्ध कर सातवें नरक गया क्योंकि मन के भाव ही तो पुण्य या पाप के कारण होते हैं। इसलिए सत्पुरुषों को जैन शास्त्रों के अभ्यास या पढ़ने-पढ़ाने से मन को सदा पवित्र बनाये रखना चाहिए, जिससे उसमें बुरे विचारों का प्रवेश ही न हो पाये और शास्त्रों के अभ्यास के बिना अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए शास्त्राभ्यास पवित्रता का प्रधान कारण है ॥२-११॥
    यही जिनवाणी मिथ्यात्वरूपी अंधेरे को नष्ट करने के लिए दीपक है, संसार के दुःखों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाली है, स्वर्ग- मोक्ष के सुख की कारण है और देव, विद्याधर आदि सभी महापुरुषों के आदर की पात्र है। सभी जिनवाणी की उपासना बड़ी भक्ति से करते हैं । आप लोग भी इस पवित्र जिनवाणी का शांति और सुख के लिए सदा अभ्यास मनन- चिन्तन करें ॥१२॥ 
  8. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार द्वारा वन्दना-स्तुति किए गए और सब सुखों को देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर गोपवती की कथा लिखी जाती है, जिसे सुनकर हृदय में वैराग्य भावना जगती है ॥१॥
    पलासगाँव में सिंहबल नाम का एक साधारण गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्री का नाम गोपवती था। गोपवती बड़े दुष्ट स्वभाव की स्त्री थी । उसकी दिन-रात की खटपट से बेचारा सिंहबल तबाह हो गया। उसे पलभर के लिए भी गोपवती के द्वारा कभी सुख नहीं मिला ॥२॥
    गोपवती से तंग आकर एक दिन सिंहबल पास ही के एक पद्मिनीखेट नाम के गाँव में गया। वहाँ उसने अपनी पहली स्त्री को बिना कुछ पूछे - ताछे गुप्त रीति से सिंहसेन चौधरी की सुभद्रा नाम की लड़की से, जो कि बहुत ही खूबसूरत थी, ब्याह कर लिया । किसी तरह यह बात गोपवती को मालूम हो गई, सुनते ही क्रोध के मारे वह आग-बबूला हो गई उससे सिंहबल का यह अपराध नहीं सहा गया। वह उसे उसके अपराध की योग्य सजा देने की फिराक में लग गई ॥३-५॥
    एक दिन शाम के कोई सात बजे होंगे कि गोपवती अपने घर से निकलकर पद्मिनीखेट गई। उस समय कोई ग्यारह बज गए होंगे। गोपवती सीधी सिंहसेन के घर पहुँची। घर के लोगों ने समझा कि कोई आवश्यक काम के लिए यहाँ आई होगी, सबेरा होने पर विशेष पूछ-ताछ करेंगे। यह विचार कर वे सब सो गए। गोपवती भी तब लोगों को दिखाने के लिए सो गई पर जब सबको नींद आ गई, तब आप चुपके से उठी और जहाँ अपनी माँ के पास बेचारी सुभद्रा सोई थी, वहाँ पहुँचकर उस  पापिनी ने सुभद्रा का मस्तक काट लिया और उसे लेकर रात ही में अपने घर पर आ गई। सबेरा होते ही यह हाल सिंहबल को मालूम हुआ। सुभद्रा के मुर्दे को देखकर उसे बेहद दुःख हुआ। वह खिन्न मन होकर अपने घर आ गया । उसे आया देखकर गोपवती अब उसका बड़ा आदर-सत्कार करने लगी। बड़ा स्नेह प्रकट कर उसे भोजन कराने लगी। पर सिंहबल के हृदय पर तो सुभद्रा के मरण की बड़ी गहरी चोट लगी थी, इसलिए उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और वह सदा उदास रहा करता था और सच भी है, एक महा दुःखी को भोजन वगैरह में क्या प्रीति होती होगी? सिंहबल की सुभद्रा के लिए वह दशा देख गोपवती का क्रोध और भी बढ़ गया। एक दिन बेचारा सिंहबल उदास मन से भोजन कर रहा था। यह देख गोपवती ने क्रोध से सुभद्रा का मस्तक लाकर उसकी थाली में डाल दिया और बोली- हाँ, बिना इसके देखे तुझे भोजन अच्छा नहीं लगता था; अब तो अच्छा लगेगा न? सुभद्रा के सिर को देखकर सिंहबल काँप गया। वह “हाय ! यह तो महाराक्षसी है" इस प्रकार जोर से चिल्लाकर डर के मारे भागने लगा। इतने में राक्षसी गोपवती ने पास ही पड़े हुए भाले को उठाकर सिंहबल की पीठ में जोर से मारा कि वह उसी समय तड़फड़ा कर वहीं पर ढेर हो गया । गोपवती के ऐसे घृणित चरित को देखकर बुद्धिमानों को उचित है कि वे दुष्ट स्त्रियों पर कभी विश्वास न लावें ॥६-१३॥
    वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् संसार में सर्वश्रेष्ठ कहलावें जो कामरूपी हाथी के मारने को सिंह हैं, संसार का भय मिटाने वाले हैं, शान्ति, स्वर्ग और मोक्ष के देने वाले हैं और मोक्षरूपी रमणी-रत्न के स्वामी हैं । वे मुझे भी शान्ति प्रदान करें ॥ १४ ॥
  9. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों द्वारा पूजा भक्ति किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अभयघोष मुनिका चरित्र लिखा जाता है ॥१॥
    अभयघोष काकन्दी के राजा थे उनकी रानी का नाम अभयमती था। दोनों में परस्पर बहुत प्यार था। एक दिन अभयघोष घूमने को जंगल में गए हुए थे। इस समय एक मल्लाह एक बहुत बड़े और जीवित कछुए के चारों पाँव बाँध कर उसे लकड़ी में लटकाये हुए लिए जा रहा था। पापी अभयघोष की उस पर नजर पड़ गई उन्होंने मूर्खता के वश हो अपनी तलवार से उसके चारों पाँवों को काट दिया। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग बेचारे ऐसे निर्दोष जीवों को निर्दयता के साथ मार डालते हैं और न्याय-अन्याय का कुछ विचार नहीं करते! कछुआ उसी समय तड़फड़ा कर गत प्राण हो गया। मरकर वह अकाम - निर्जरा के फल से इन्हीं अभयघोष के यहाँ चंडवेग नाम का पुत्र हुआ ॥२-६॥
    एक दिन राजा को चन्द्र ग्रहण देखकर वैराग्य हुआ । उन्होंने विचार किया जो एक महान् तेजस्वी ग्रह है, जिसकी तुलना कोई नहीं कर सकता और जिसकी गणना देवों में है, वह भी जब दूसरों से हार खा जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या ? जिनके सिर पर काल सदा चक्कर लगाता रहता है। हाय, मैं बड़ा ही मूर्ख हूँ जो आज तक विषयों में फँसा रहा और कभी अपने हित की ओर मैंने ध्यान नहीं दिया। मोह रूपी गाढ़े अँधेरे ने मेरी दोनों आँखों को ऐसा अन्धा बना डाला, जिससे मुझे अपने कल्याण का रास्ता देखने या उस पर सावधानी के साथ चलने को सूझ ही न पड़ा। इसी मोह के पापमय जाल में फँस कर मैंने जैनधर्म से विमुख होकर अनेक पाप किए। हाय, मैं अब इस संसाररूपी अथाह समुद्र को पार कर सुखमय किनारे को कैसे प्राप्त कर सकूँगा? प्रभो, मुझे शक्ति प्रदान कीजिए, जिससे मैं आत्मिक सच्चा सुख पा सकूँ । इस विचार के बाद उन्होंने निश्चित किया कि जो हुआ सो हुआ । अब भी मुझे अपने कर्तव्य के लिए बहुत समय है। जिस प्रकार मैंने संसार में रहकर विषय सुख भोगा, शरीर और इन्द्रियों को खूब सन्तुष्ट किया, उसी तरह अब मुझे अपने आत्महित के लिए कड़ी से कड़ी तपस्या कर अनादि काल से पीछा किए हुए इन आत्मशत्रुरूपी कर्मों का नाश करना उचित हैं, यही मेरे पहले किए कर्मों का पूर्ण प्रायश्चित्त है और ऐसा करने से ही मैं शिवरमणी के हाथों का सुख - स्पर्श कर सकूँगा । इस प्रकार स्थिर विचार कर अभयघोष ने सब राजभार अपने कुँवर चण्डवेग को सौंप जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें आत्मशक्ति के बढ़ाने को सहायक बनाती है। इसके बाद अभयघोष मुनि संसार-समुद्र से पार करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज को नमस्कार कर और उनकी आज्ञा ले देश विदेशों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विचार कर गए। इसके कितने वर्षों बाद वे घूमते-फिरते फिर एक बार अपनी राजधानी काकन्दी की ओर आ निकले। एक दिन वे वीरासन से तपस्या कर रहे थे। इसी समय उनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला। पाठकों को याद होगा कि चण्डवेग की और इसके पिता अभयघोष की शत्रुता है। कारण चण्डवेग पूर्व जन्म में कछुआ था और उसके पाँव अभयघोष न काट डाले थे। चण्डवेग की जैसे ही इन पर नजर पड़ी उसे अपने पूर्व की घटना याद आ गई उसने क्रोध से अन्धे होकर उनके भी हाथ पाँवों को काट डाला। सच है धर्महीन अज्ञानी जन कौन पाप नहीं कर डालते ॥७-१६॥
    अभयघोष मुनि पर महान् उपसर्ग हुआ, पर वे तब भी मेरु के समान अपने कर्तव्य में दृढ़ बने रहे। अपने आत्मध्यान से वे रत्तीभर भी न डिगे। इसी ध्यान बल से केवलज्ञान प्राप्त कर अन्त में उन्होंने अक्षयान्त मोक्ष लाभ किया। सच है, आत्मशक्ति बड़ी गहन है, आश्चर्य पैदा करने वाली है। देखिए कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःसह कष्ट का आना और कहाँ मोक्ष प्राप्ति का कारण दिव्य आत्मध्यान ॥१७-१८॥
    सत्पुरुषों द्वारा सेवा किए गए वे अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्ष का सुख दें, जिन्होंने दुःसह परीषह को जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखों के देने वाले कर्मों का क्षय कर मोक्ष का सर्वोच्च सुख, जिस सुख की कोई तुलना नहीं कर सकता, प्राप्त किया ॥१९॥
  10. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब दोषों के नाश करने वाले और सुख के देने वाले ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर अपने बुरे कर्मों की निन्दा-आलोचना करने वाली बीरा ब्राह्मणी की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    दुर्योधन जब अयोध्या का राजा था तब की यह कथा है। यह राजा बड़ा न्यायी और बुद्धिमान् हुआ है। इसकी रानी का नाम श्रीदेवी था । श्रीदेवी बड़ी सुन्दरी और सच्ची पतिव्रता थी । यहाँ एक सर्वोपाध्याय नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम वीरा था । उसका चाल-चलन अच्छा न था। जवानी के जोर में वह मस्त रहा करती थी । उपाध्याय के घर पर एक विद्यार्थी पढ़ा करता था। उसका नाम अग्निभूति था । वीरा ब्राह्मणी के साथ इसकी अनुचित प्रीति थी । ब्राह्मणी इसे बहुत चाहती थी। पर उपाध्याय इन दोनों के सुख का काँटा था। इसलिए ये मनमाना ऐशोआराम न कर पाते थे। ब्राह्मणी को यह बहुत खटका करता था । सो एक दिन मौका पाकर ब्राह्मणी ने अपने पति को मार डाला और उसे श्मशान में फेंक आने को छत्री में छुपाकर अन्धेरी रात में वह घर से निकली । श्मशान में जैसे ही उपाध्याय के मुर्दे को फेंकने को तैयार हुई कि एक व्यन्तरदेवी ने उसके ऐसे नीच कर्म पर गुस्सा होकर छत्री को कील दिया और कहा - " सबेरा होने पर जब तू सारे शहर की स्त्रियों के घर-घर पर जाकर अपना यह नीच कर्म प्रकट करेगी, अपने कर्म पर पछतायेगी तब तेरे सिर पर से यह छत्री गिरेगी।” देवी के कहे अनुसार ब्राह्मणी ने वैसा ही किया। तब कहीं उसका पीछा छूटा, छत्री सिर से अलग हो सकी। इस आत्म-निन्दा से ब्राह्मणी का पापकर्म बहुत हल्का हो गया, वह  शुद्ध हुई। इसी तरह अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे प्रतिदिन होने वाले बुरे कर्मों की गुरुओं के पास आलोचना किया करें। उससे उनका पाप नष्ट होगा और अपने आत्मा को वे शुद्ध बना सकेंगे। किसी पुरुष के शरीर में काँटा लग गया और वह उससे बहुत कष्ट पा रहा है। पर जब तक वह काँटा उसके शरीर से नहीं निकलेगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता। इसलिए उस काँटे को निकाल फेंककर जैसे वह पुरुष सुखी होता है, उसी तरह जो आत्म- हितैषी जैनधर्म के बताये सिद्धान्त पर चलने वाले वीतरागी साधुओं की शरण ले अपने आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाले पापकर्म रूपी काँटे की कृत कर्मों की आलोचना द्वारा निकाल फेंकते हैं वे फिर कभी नाश न होने वाली आत्मीक लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं ॥२- १०॥
  11. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के द्वारा पूजे गए भगवान् आदि ब्रह्मा (आदिनाथ स्वामी) को नमस्कार कर, देवपुत्र ब्रह्मा की कथा लिखी जाती है ॥ १ ॥
    कुछ असमझ लोग ऐसा कहते हैं कि एक दिन ब्रह्माजी के मन में आया कि मैं इन्द्रादिक का पद छीनकर सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ और इसके लिए उन्होंने एक भयंकर वन में हाथ ऊँचा किए बड़ी घोर तपस्या की। वे कोई साढ़े चार हजार वर्ष पर्यन्त (यह वर्ष संख्या देवों के वर्ष के हिसाब से हैं, जो कि मनुष्यों के वर्षों से कई गुणी होती है।) एक ही पाँव से खड़े होकर तप करते रहे और केवल वायु का आहार करते रहे । ब्रह्माजी की यह कठिन तपस्या निष्फल न गई इन्द्रादि का आसन हिल गया। उन्हें अपने राज्य नष्ट होने का बड़ा भय हुआ । तब उन्होंने ब्रह्माजी का तप भ्रष्ट करने के लिए स्वर्ग की एक तिलोत्तमा नाम की वेश्या को, जो कि गन्धर्व देवों के समान गाने और बड़ी सुन्दर नाचने वाली थी, भेजा । तिलोत्तमा उनके पास आई और अनेक प्रकार के हाव-भाव विलास बतला - बतलाकर नाचने लगी। तिलोत्तमा का नृत्य, तिलोत्तमा की भुवन मनोहारिणी रूपराशि और उसका हाव-भाव-विलास देखकर ब्रह्माजी तपसे डगमगे। उन्होंने हजारों वर्षों की तपस्या को एक क्षण भर में नष्ट कर अपने को काम के हाथ सौंप दिया। वे आँखें फाड़-फाड़कर तिलोत्तमा की रूप राशि को बड़े चाव से देखने लगे। तिलोत्तमा ने जब देखा कि हाँ योगिराज अब अपने आपमें नहीं है और आँखें फाड़-फाड़कर मेरी ही ओर देख रहे हैं, तब उनकी इच्छा को और जागृत करने के लिए वह उनकी बायीं ओर आकर नाचने लगी । ब्रह्मा जी ने तब अपनी हजारों वर्षों की तपस्या के प्रभाव से अपना दूसरा मुँह बाँयी ओर बना लिया । तिलोत्तमा जब उनकी पीठ पीछे आकर नाचने लगी। ब्रह्माजी ने तब तीसरा मुँह पीछे की ओर बना लिया ॥२-१०॥
    तिलोत्तमा फिर उनकी दाहिनी ओर जाकर नाचने लगी, ब्रह्माजी ने उस ओर भी मुँह बना लिया। अन्त में तिलोत्तम आकाश में जाकर नाचने लगी। तब ब्रह्माजी ने अपना पाँचवाँ मुँह गधे के मुख के आकार का बनाया । कारण अब उनकी तपस्या का फल बहुत थोड़ा बच रहा था । मतलब यह कि तिलोत्तमा ने जिस प्रकार ब्रह्माजी को नचाया वे उसी प्रकार नाचे। इस प्रकार उन्हें तप से भ्रष्ट कर और उनके हृदय में काम की आग धधका कर चालाक तिलोत्तमा अछूती की अछूती स्वर्ग को चली गई और बेचारे ब्रह्माजी काम के तीव्र वेग से मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर आ गिरे । तिलोत्तमा ने सब हाल इन्द्र से कहकर कहा-प्रभो, अब आप अनन्त काल तक सुख से रहे। मैं ब्रह्माजी की खूब गति बना आई हूँ। तब इन्द्र ने बहुत खुश होकर उससे पूछा- हाँ तिलोत्तमा, तू ब्रह्माजी के पास ठहरी नहीं? तिलोत्तमा बोली- वाह ! प्रभो, भली उस बूढ़े की और मेरी आपने जोड़ी मिलाई ! मैं तो कभी उसके पास खड़ी तक नहीं रह सकती। यह सुन इन्द्र को ब्रह्माजी की हालत पर बड़ी दया आई उसने फिर सुन्दर वेश्या को उनके पास भेजा । इन्द्र की आज्ञा सिर पर चढ़ा उर्वशी ब्रह्माजी के पास आई उनके पाँवों को छूकर उन्हें उसने सचेत किया। ब्रह्माजी पाँव तले एक स्वर्गीय सुन्दरी को बैठी देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्हें मानों आज उनकी कड़ी तपस्या का फल मिल गया। ब्रह्माजी अब घर बनाकर उर्वशी के साथ रहने लगे और मनमाने भोग भोगने लगे; तब से लौकिक ब्रह्मा कहलाने लगे ॥११-१७॥
    बड़े दुःख की बात है कि असमझ लोग देव या देव के सच्चे स्वरूप को जानते नहीं और जैसी अपनी इच्छा में आता है उन्मत्त की तरह झूठा ही कह दिया करते हैं क्या कोई हठ करके इन्द्रादि का का पद छीन सकता है ? और क्या स्वर्ग की देवांगनाएँ व्यभिचार कर सकती है ? और जो ब्रह्मा तीन लोक का स्वामी देव कहा जाता है वह क्या ऐसा नीच कर्म करेगा? समझदारों को ये बातें झूठी समझना चाहिए और जिसमें ऐसी बातें हैं वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता । जैन शास्त्रों में ब्रह्मा उसे कहा है, जो मोक्षमार्ग का बताने वाला, सच्चे ज्ञान और सच्चे चारित्र की प्राप्ति कराने वाला और आत्मा को निजस्वरूप में स्थिर करने वाला है। वह अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन अवस्थाओं से पाँच प्रकार का है । इनके सिवा संसार में कोई ब्रह्मा नहीं है क्योंकि राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया लोभ आदि दोषों से युक्त कभी ब्रह्मा - देव हो ही नहीं सकता किन्तु जो इन रागादि दोषों से रहित हैं, लोक और अलोक जानने वाले हैं और केवलज्ञानरूपी नेत्र से युक्त हैं वे ही ऋषभ द्यापीठ भगवान् मेरे सच्चे ब्रह्मा हैं ॥१८-२३॥
    वे परम पवित्र आदिनाथ जिनेन्द्र मुझे संसार के दुःखों से छुड़ाकर शांति प्रदान करें, जो भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूरज के समान हैं, संसार - समुद्र पार करने वाले हैं, गुणों के समुद्र हैं, स्वर्ग और मोक्ष का पवित्र सुख देने वाले हैं, इंद्रादि देवों द्वारा पूज्य हैं और केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के जानने और देखने वाले हैं ॥२४॥
  12. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवों द्वारा पूजा किए गए जिनभगवान् के चरणों को भक्ति सहित नमस्कार कर सुरत नाम के राजा का हाल लिखा जाता है ॥१॥
    सुरत अयोध्या के राजा थे। इनके पाँच सौ स्त्रियाँ थीं। उनमें पट्टरानी का पद महादेवी सती को प्राप्त था। राजा का सती पर बहुत प्रेम था। वे रात दिन भोगों में ही आसक्त रहा करते थे, उन्हें राज- काज की कुछ चिन्ता न थी । अन्तःपुर के पहरे पर रहने वाले सिपाही से उन्होंने कह रखा था कि जब कोई खास मेरा कार्य हो या कभी कोई साधु-महात्मा यहाँ आवें तो मुझे उनकी सूचना देना। वैसे कभी कुछ कहने को न आना ॥२॥
    एक दिन पुण्योदय से एक महीने के उपवासे दमदत्त और धर्मरुचि मुनि आहार के लिए राजमहल में आए। उन्हें देखकर द्वारपाल राजा के पास गया और नमस्कार कर उसने मुनियों के आने का हाल उनसे कहा। राजा इस समय अपनी प्राणप्रिया सती के मुख-कमल पर तिलक रचना कर रहे थे। वे सती से बोले - प्रिये, जब तक कि तुम्हारा तिलक न सूखे, मैं अभी मुनिराजों को आहार देकर बहुत जल्दी आया जाता हूँ। यह कहकर राजा चले आए। उन्होंने मुनिराजों को भक्तिपूर्वक ऊँचे आसन पर बैठाकर नवधा भक्ति - सहित पवित्र आहार कराया, जो कि उत्तम सुखों का देने वाला है। सच है, दान, पूजा, व्रत, उपवासादि से ही श्रावकों की शोभा है और जो इनसे रहित हैं वे फलरहित वृक्ष की तरह निरर्थक समझे जाते हैं । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे पात्रदान, जिनपूजा, व्रत, उपवासादिक सदा अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें ॥३-१३॥
    इधर तो राजा ने मुनियों को दान देकर पुण्य उत्पन्न किया और उधर उनकी प्राणप्रिया अपने विषय सुख के अन्तराय करने वाले मुनियों का आना सुनकर बड़ी दुःखी हुई उसने अपना भला-बुरा कुछ न सोचकर मुनियों की निन्दा करना शुरू किया और खूब ही मनमानी उन्हें गालियाँ दी। सन्तों का यह कहना व्यर्थ नहीं है कि - " इस हाथ दे, उस हाथ ले" । सती के लिए यह नीति चरितार्थ हुई अपने बाँधे तीव्र पापकर्मों का फल उसे उसी समय मिल गया। रानी के कोढ़ निकल आया। सारा शरीर काला पड़ गया। उससे दुर्गन्ध निकलने लगी । आचार्य कहते हैं- हलाहल विष खा लेना अच्छा है, जो एक ही जन्म में कष्ट देता है, पर जन्म-जन्म में दुःख देने वाली मुनि-निन्दा करना कभी अच्छा नहीं क्योंकि सन्त-महात्मा तो व्रत, उपवास, शील आदि से भूषित होते हैं और सच्चे आत्महित का मार्ग बताने वाले हैं, वे निन्दा करने योग्य कैसे हों ? और ये ही गुरु अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं इसलिए दीपक हैं, सबका हित करते हैं इसलिए बन्धु हैं और संसाररूपी समुद्र से पार कराते हैं इसलिए कर्मशील खेवटिया हैं। अतः हर प्रयत्न द्वारा इनकी आराधना, सेवा-सुश्रुषा करते रहना चाहिए ॥१४-१७॥
    जब राजा मुनिराजों को आहार देकर निवृत्त हुए तब अपनी प्रिया के पास आ गए। आते ही जैसे उन्होंने रानी का काला और दुर्गन्धमय शरीर देखा वे बड़े अचंभे में पड़ गए। पूछने पर उन्हें उसका कारण मालूम हुआ। सुनकर वे बहुत खिन्न हुए । संसार, शरीर, भोग उन्हें अब अप्रिय जान पड़ने लगे। उन्हें अपनी रानी का मुनि-निन्दारूप घृणित कर्म देखकर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब राज-पाट छोड़कर योगी बन गए और अपना तथा संसार का हित करने में उद्यमी बने ॥१८-१९॥
    समय पाकर सती की मृत्यु हुई। अपने पाप के फल से वह संसाररूपी वन में घूमने लगी। सो ठीक ही है, अपने किए पुण्य या पाप का फल जीवों को भोगना ही पड़ता है । इस प्रकार संसार की विचित्र स्थिति जानकर आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को भगवान् के उपदेश किए पवित्र धर्म पर सदा विश्वास रखना चाहिए, जो कि स्वर्ग और मोक्ष के सुख का प्रधान कारण है ॥२०-२१॥
  13. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    निर्मल केवलज्ञान के धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर व्यंजनहीन अर्थ करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे। ये बड़े धर्मात्मा और जिन भगवान् के सच्चे भक्त थे । इनकी रानी का नाम पद्मश्री था। पद्मश्री सरल स्वभाववाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करने वाले जिनपूजा, दान, व्रत उपवास आदि पुण्यकर्म निरन्तर किया करती थी। मतलब यह कि जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी॥२-३॥
    सुरम्य देश के पोदनपुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कई दिनों की शत्रुता चली आ रही थी। इसलिए मौका पाकर महापद्म ने उस पर चढ़ाई कर दी । पोदनपुर में महापद्म ने एक 'सहस्रकूट ' नाम से प्रसिद्ध जिनमन्दिर देखा । मन्दिर की हजार खम्भों वाली भव्य और विशाल इमारत देखकर महापद्म बड़े खुश हुए। उनके हृदय में भी धर्मप्रेम का प्रवाह बहा। अपने शहर में भी एक ऐसे ही सुन्दर मन्दिर के बनवाने की इनकी इच्छा हुई तब उसी समय इन्होंने अपनी राजधानी में पत्र लिखा। उसमें इन्होंने लिखा- ॥४-७॥
    'बहुत जल्दी बड़े - बड़े एक हजार खम्भे इकट्ठे करना । पत्र बाँचने वाले ने इस भ्रम से पड़ा- "महास्तभसहस्त्रस्य कर्तव्यः संग्रहो ध्रुवम् ” ' स्तंभ' शब्द को 'स्तभ' समझकर उसने खम्भे की जगह एक हजार बकरों को इकट्ठा करने को कहा । ऐसा ही किया गया । तत्काल एक हजार बकरे मँगवाये जाकर वे अच्छे खाने पिला ने द्वारा पाले जाने लगे ॥८- १०॥
    जब महाराज लौटकर वापस आए तो उन्होंने अपने कर्मचारियों से पूछा कि मैंने जो आज्ञा की थी, उसकी तामील की गई ? उत्तर में उन्होंने 'जी हाँ' कहकर उन बकरों को महाराजा को दिखलाया। महापद्म देखकर सिर से पैर तक जल उठे। उन्होंने गुस्सा होकर कहा- मैंने तो तुम्हें एक हजार खम्भों को इकट्ठा करने को लिखा था, तुमने वह क्या किया? तुम्हारे इस अविचार की सजा मैं तुम्हें जीवनदण्ड देता हूँ ॥११-१२॥
    महापद्म की ऐसी कठोर सजा सुनकर वे बेचारे बड़े घबराये ! उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि महाराज, इसमें हमारा तो कुछ दोष नहीं हैं। हमें तो जैसा पत्र बाँचने वाले ने कहा, वैसा ही हमने किया। महाराज ने तब उसी समय पत्र बाँचने वाले को बुलाकर उसके इस गुरुत्तर अपराध को जैसी चाहिए वैसी सजा की। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे ज्ञान, ध्यान आदि कामों में कभी ऐसा प्रमाद न करें क्योंकि प्रमाद कभी सुख के लिए नहीं होता ॥ १३-१५॥
    जो सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किए पवित्र और पुण्यमय ज्ञान का अभ्यास करेंगे वे फिर मोह उत्पन्न करने वाले प्रमाद को न कर सुख देने वाले जिनपूजा, दान, व्रत, उपवासादि धार्मिक कामों में अपनी बुद्धि को लगाकर केवलज्ञान का अनन्तसुख प्राप्त करेंगे ॥१६॥
  14. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    स्वर्गादि सुखों को देने वाले और मोक्षरूपी रमणी के स्वामी श्रीजिन भगवान् को नमस्कार कर जयसेन राजा की सुन्दर कथा लिखी जाती है ॥१॥
    श्रावस्ती के राजा जयसेन की रानी वीरसेना के एक पुत्र था। इसका नाम वीरसेन था। वीरसेन बुद्धिमान् और सच्चे हृदय का था, मायाचार-कपट उसे छू तक न गया था ॥२॥
    यहाँ एक शिवगुप्त नाम का बुद्ध भिक्षुक रहता था । यह मांसभक्षी और निर्दयी था। ईर्ष्या और द्वेष इसके रोम-रोम में ठसा था मानों वह इनका पुतला था। यह शिवगुप्त राजगुरु था। ऐसे मिथ्यात्व को धिक्कार है जिसके वश हो ऐसे मायावी और द्वेषी भी गुरु हो जाते हैं ॥३॥
    एक दिन यतिवृषभ मुनिराज अपने सारे संघ को साथ लिए श्रावस्ती में आए। राजा यद्यपि बुद्धधर्म का मानने वाला था, तथापि वह और लोगों को मुनिदर्शन के लिए जाते देख आप भी गया। उसने मुनिराज द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश चित्त लगाकर सुना । उपदेश उसे बहुत पसन्द आया। उसने मुनिराज से प्रार्थना कर श्रावक के व्रत लिए। जैनधर्म पर अब उसकी दिनों-दिन श्रद्धा बढ़ती ही गई उसने अपने सारे राज्यभर में कोई ऐसा स्थान न रहने दिया जहाँ जिनमन्दिर न हो । प्रत्येक शहर, प्रत्येक गाँव में उसने जिनमन्दिर बनवा दिया। जिनधर्म के लिए राजा का यह प्रयत्न देख शिवगुप्त ईर्ष्या और द्वेष के मारे जल कर खाक हो गया। वह अब राजा को किसी प्रकार मार डालने के प्रयत्न में लगा। और एक दिन खास इसी काम के लिए वह पृथ्वीपुरी गया और वहाँ के बुद्धधर्म के अनुयायी राजा सुमति को उसने जयसेन के जैनधर्म धारण करने और जगह- जगह जिनमन्दिरों के बनवाने आदि का सब हाल कह सुनाया । यह सुन सुमति ने जयसेन को एक पत्र लिखा कि 'तुमने बुद्धधर्म छोड़कर जो जैनधर्म ग्रहण किया, यह बहुत बुरा किया है। तुम्हें उचित है कि तुम फिर से बुद्धधर्म स्वीकार कर लो।" इसके उत्तर में जयसेन ने लिख भेजा कि - " मेरा विश्वास है, निश्चय है कि जैनधर्म ही संसार में एक ऐसा सर्वोच्च धर्म है जो जीवमात्र का हित करने वाला है। जिस धर्म में जीवों का मांस खाया जाता है या जिनमें धर्म के नाम पर हिंसा वगैरह महापाप बड़ी खुशी के साथ किए जाते हैं वे धर्म नहीं हो सकते। धर्म का अर्थ है जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में रक्खें, सो यह बात सिवा जैनधर्म के और धर्मों में नहीं है। इसलिए इसे छोड़कर और सब अशुभ बन्ध के कारण है।" सच है, जिसने जैनधर्म का सच्चा स्वरूप जान लिया वह क्या फिर किसी से डिगाया जा सकता है? नहीं । प्रचण्ड हवा भी क्यों न चले पर क्या वह मेरु को हिला देगी? नहीं। जयसेन के इस प्रकार विश्वास को देख सुमति को बड़ा गुस्सा आया। तब उसने दो आदमियों को इसलिए श्रावस्ती में भेजा कि वे जयसेन की हत्या कर आवें । वे दोनों आकर कुछ समय तक श्रावस्ती में ठहरे और जयसेन के मार डालने की खोज में लगे रहे, पर उन्हें ऐसा मौका ही न मिल पाया जो वे जयसेन को मार सकें। तब लाचार हो वे वापस पृथ्वीपुरी लौट आए और सब हाल उन्होंने राजा से कह सुनाया। इससे सुमति का क्रोध और भी बढ़ गया । उसने तब अपने सब नौकरों को इकट्ठा कर कहा-क्या कोई मेरे आदमियों में ऐसा भी हिम्मत बहादुर है जो श्रावस्ती जाकर किसी तरह जयसेन को मार आवे। उनमें से एक हिमारक नाम के दुष्ट ने कहा- हाँ महाराज, मैं इस काम को कर सकता हूँ। आप मुझे आज्ञा दें। इसके बाद ही वह राजाज्ञा पाकर श्रावस्ती आया और यतिवृषभ मुनिराज के पास मायाचार से जिनदीक्षा लेकर मुनि हो गया ॥४-१६॥
    एक दिन जयसेन मुनिराज के दर्शन करने को आया और अपने नौकर-चाकरों को मन्दिर के बाहर ठहरा कर आप मन्दिर में गया। मुनि को नमस्कार कर वह कुछ धर्म-सम्बन्धी बातचीत की। इसके बाद जब वह चलने के पहले मुनिराज को ढोक देने के लिए झुका कि इतने में वह दुष्ट हिमारक जयसेन को मार कर भाग गया। सच है - बुद्ध लोग बड़े ही दुष्ट हुआ करते हैं। यह देख मुनि यतिवृषभ को बड़ी चिन्ता हुई उन्होंने सोचा - कहीं सारे संघ पर विपत्ति न आए, इसलिए पास ही की भीत पर उन्होंने यह लिखकर कि “ दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा काम किया गया है।” छुरी से अपना पेट चीर लिया और स्थिरता से संन्यास द्वारा मृत्यु प्राप्त कर वे स्वर्ग गए ॥१७-२२॥
    वीरसेन को जब अपने पिता की मृत्यु का हाल मालूम हुआ तो वह उसी समय दौड़ा हुआ मन्दिर आया। उसे इस प्रकार दिन-दहाड़े किसी साधारण आदमी की नहीं किन्तु खास राजा साहब की हत्या हो जाने और हत्याकारी का कुछ पता न चलने का बड़ा ही आश्चर्य हुआ और जब उसने अपने पिता के पास मुनि को भी मरा पाया तब तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना ही न रहा। वह बड़े विचार में पड़ गया। वे हत्याएँ क्यों हुई? और कैसे हुई? इसका कारण कुछ भी उसकी समझ में न आया। उसे यह भी सन्देह हुआ कि कहीं इन मुनि ने तो यह काम न किया हो? पर दूसरे ही क्षण में उसने सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता । इनका और पिताजी का कोई वैर-विरोध नहीं, लेना- देना नहीं, फिर वे क्यों ऐसा करने चले ? और पिताजी तो इनके इतने बड़े भक्त थे और न केवल यही बात थी कि पिताजी ही इनके भक्त हों, ये साधु भी तो उनसे बड़ा प्रेम करते थे; घण्टों तक उनके साथ इनकी धर्मचर्चा हुआ करती थी । फिर इस सन्देह को जगह नहीं रहती कि एक निस्पृह और शान्त योगी यह अनर्थ किया जा सके। तब हुआ क्या? बेचारा वीरसेन बड़ी कठिन समस्या में फँसा । वह इस प्रकार चिन्तातुर हो कुछ सोच-विचार कर ही रहा था कि उसकी नजर सामने की भीत पर जा पड़ी। उस पर यह लिखा हुआ, कि “ दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा हुआ है” देखते ही उसकी समझ में उस समय सब बातें बराबर आ गई उसके मन को अब रहा-सहा सन्देह भी दूर हो गया। उसकी अब मुनिराज पर अत्यन्त श्रद्धा हो गई। उसने मुनिराज के धैर्य और सहनपने की बड़ी प्रशंसा की। जैनधर्म के विषय में उसका पूरा-पूरा विश्वास हो गया । जिनका दुष्ट स्वभाव है, जिनसे दूसरों के धर्म का अभ्युदय - उन्नति नहीं सही जाती ऐसे लोग जिनधर्म सरीखे पवित्र धर्म पर चाहे कितना ही दोष क्यों न लगावें, पर जिनधर्म तो बादलों से न ढके हुए सूरज की तरह सदा ही निर्दोष रहता है ॥२३-२५॥
    जिस धर्म को चारों प्रकार के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती, राजा-महाराजा आदि सभी महापुरुष भक्ति से पूजते-मानते हैं, जो संसार के दुःखों का नाश कर स्वर्ग या मोक्ष का देने वाला हैं, सुख का स्थान है, संसार के जीव मात्र का हित करने वाला है और जिसका उपदेश सर्वज्ञ भगवान् ने किया है और इसीलिए सबसे अधिक प्रमाण या विश्वास करने योग्य है, वह धर्म - वह आत्मा की एक खास शक्ति मुझे प्राप्त होकर मोक्ष का सुख दे ॥२६॥
  15. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब सुखों के देने वाले और संसार में सर्वोच्च गिने जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार विद्युच्चर मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में इनके समय कोतवाल के ओहदे पर एक यमदण्ड नाम का मनुष्य नियुक्त था। वहीं एक विद्युच्चर नाम का चोर रहता था । यह अपने चोरी के फन में बड़ा चलता हुआ था। सो यह क्या करता कि दिन में तो एक कोढ़ी के वेष में किसी सुनसान मन्दिर में रहता और ज्यों ही रात होती कि एक सुन्दर मनुष्य का वेष धारण कर खूब मजा - मौज मारता । यही ढंग इसका बहुत दिनों से चला आता था । पर इसे कोई पहचान न सकता था। एक दिन विद्युच्चर राजा के देखते-देखते खास उन्हीं के हार को चुरा लाया । पर राजा से तब कुछ भी न बन पड़ा। सुबह उठकर राजा ने कोतवाल को बुलाकर कहा- देखो, कोई चोर अपनी सुन्दर वेषभूषा से मुझे मुग्ध बनाकर मेरा रत्न-हार उठा ले गया है। इसलिए तुम्हें हिदायत की जाती है कि सात दिन के भीतर उस हार को या उसके चुरा ले जाने वाले को मेरे सामने उपस्थित करो, नहीं तो तुम्हें इसकी पूरी सजा भोगनी पड़ेगी। जान पड़ता है तुम अपने कर्तव्य पालन में बहुत त्रुटि करते हों । नहीं तो राजमहल में से चोरी हो जाना कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है । " हुक्म हुजूर का” कहकर कोतवाल चोर के ढूँढ़ने को निकला। उसने सारे शहर की गली - कूँची, घर-बार आदि एक-एक करके छान डाला, पर उसे चोर का पता कहीं न चला। ऐसे उसे छह दिन बीत गए। सातवें दिन वह फिर घर से बाहर हुआ। चलते- चलते उसकी नजर एक सुनसान मन्दिर पर पड़ी। वह उसके भीतर घुस गया। वहाँ उसने एक कोढ़ी को पड़ा पाया। उस कोढ़ी का रंग ढंग देखकर कोतवाल को कुछ सन्देह हुआ। उसने उससे कुछ बातचीत इस ढंग से की कि जिससे कोतवाल उसके हृदय का कुछ पता पा सके। यद्यपि उस बातचीत से कोतवाल को जैसी चाहिए थी वैसी सफलता न हुई, पर तब भी उसके पहले शक को सहारा अवश्य मिला। कोतवाल उस कोढ़ी को राजा के पास ले गया और बोला - महाराज, आपके हार का चोर है। राजा के पूछने पर उस कोढ़ी ने साफ इनकार कर दिया कि मैं चोर नहीं हूँ। मुझे ये जबरदस्ती पकड़ लाये है। राजा ने कोतवाल की ओर नजर की। कोतवाल ने फिर भी दृढ़ता के साथ कहा कि महाराज, यही चोर है । इसमें कोई सन्देह नहीं। कोतवाल को बिना कुछ सबूत के इस प्रकार जोर देकर कहते देखकर कुछ लोगों के मन में यह विश्वास जम गया कि यह अपनी रक्षा के लिए जबरन इस बेचारे गरीब भिखारी को चोर बताकर सजा दिलवाना चाहता है । उसकी रक्षा हो जाए, इस आशय से उन लोगों ने राजा से प्रार्थना की कि महाराज, कहीं ऐसा न हो कि बिना ही अपराध के इस गरीब भिखारी को कोतवाल साहब की मार खाकर बेमौत मर जाना पड़े और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये इसे मारेंगे अवश्य । तब कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे अपना हार भी मिल जाए और बेचारे गरीब की जान भी न जाए। जो हो, राजा ने उन लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दिया या नहीं, पर यह स्पष्ट है कि कोतवाल साहब उस गरीब कोढ़ी को अपने घर लिवा ले गए और जहाँ तक उनसे बन पड़ा। उन्होंने उसके मारने पीटने, सजा देने, बाँधने आदि में कोई कसर न की। वह कोढ़ी इतने दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी हर बार यही कहता रहा कि मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ। दूसरे दिन कोतवाल ने फिर उसे राजा के सामने खड़ा करके कहा - महाराज, यही पक्का चोर है। कोढ़ी ने फिर भी यही कहा कि महाराज मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ । सच है, चोर बड़े ही कट्टर साहसी होते हैं॥२-१५॥
    तब राजा ने उससे कहा- अच्छा, मैं तेरा सब अपराध क्षमा कर तुझे अभय देता हूँ, तू सच्चा- सच्चा हाल कर दे कि तू चोर है या नहीं? राजा से जीवनदान पाकर उस कोढ़ी या विद्युच्चर ने कहा- यदि ऐसा है तो लीजिए कृपानाथ, मैं सब सच्ची बात आपके सामने प्रकट करे देता हूँ। यह कहकर वह बोला-राजाधिराज, अपराध क्षमा हो । वास्तव में मैं ही चोर हूँ । आपके कोतवाल साहब का कहना सत्य है। सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने तब विद्युच्चर से पूछा - जब तू चोर था तब फिर तूने इतनी मारपीट कैसे सह ली रे? विद्युच्चर बोला-महाराज, इसका तो कारण यह है कि मैंने एक मुनिराज द्वारा नरकों के दुःखों का हाल सुन रखा था। तब मैंने विचारा कि नरकों के दुःखों में और इन दुःखों में तो पर्वत और राई का सा अन्तर है और जब मैंने अनन्त बार नरकों के भयंकर दुःख, जिनके कि सुनने मात्र से ही छाती दहल उठती है, सहे है तब इन तुच्छ, ना कुछ चीज दुःखों का सह लेना कौन बड़ी बात है! यही विचार कर मैंने सब कुछ सहकर चूँ तक भी नहीं की। विद्युच्चर से उसकी सच्ची घटना सुनकर राजा ने खुश होकर उसे वर दिया कि तुझे 'जो कुछ माँगना हो माँग’। मुझे तेरी बातें सुनने से बड़ी प्रसन्नता हुई तब विद्युच्चर ने कहा- महाराज, आपकी इस कृपा का मैं अत्यन्त उपकृत हूँ। इस कृपा के लिए आप जो कुछ मुझे देना चाहते हैं वह मेरे मित्र इन कोतवाल साहब को दीजिए। राजा सुनकर और भी अधिक अचम्भे में पड़ गए। उन्होंने विद्युच्चर से कहा- क्यों यह तेरा मित्र कैसे है ? विद्युच्चर ने तब कहा - सुनिए महाराज, मैं सब आपको खुलासा सुनाता हूँ। यहाँ से दक्षिण की ओर आभीर प्रान्त में बहने वाली वेना नदी के किनारे पर बेनातट नाम का एक शहर बसा हुआ है। उसके राजा जितशत्रु और उनकी रानी जयावती ये मेरे माता-पिता हैं । मेरा नाम विद्युच्चर है। मेरे शहर में एक यमपाश नाम के कोतवाल थे। उनकी स्त्री यमुना थी। ये आपके कोतवाल यमदण्ड साहब उन्हीं के पुत्र है। हम दोनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए है। इसलिए तभी से मेरी इनके साथ मित्रता है। विशेषता यह है कि इन्होंने तो कोतवाली सम्बन्धी शास्त्राभ्यास किया था और मैंने चौर्यशास्त्र का । यद्यपि मैंने यह विद्या केवल विनोद के लिए पढ़ी थी, तथापि एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी चतुरता की तारीफ कर रहे थे; तब मैंने जरा घमण्ड के साथ कहा-भाई, मैं अपने फन में कितना होशियार हूँ, इसकी परीक्षा मैं इसी से कराऊँगा कि जहाँ तुम कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त होगे, वहीं मैं आकर चोरी करूँगा । तब इन महाशय ने कहा- अच्छी बात है, मैं भी उसी जगह रहूँगा जहाँ तुम चोरी करोगे और मैं तुमसे शहर की अच्छी तरह रक्षा करूँगा। तुम्हारे द्वारा मैं उसे कोई तरह की हानि न पहुँचने दूँगा ॥१६-२९॥
    इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता जितशत्रु मुझे सब राजभार दे जिनदीक्षा ले गए। मैं तब राजा हुआ और इनके पिता यमपाश भी तभी जिनदीक्षा लेकर साधु बन गए । इनके पिता की जगह तब इन्हें मिली। पर ये मेरे डर के मारे मेरे शहर में न रहकर यहाँ कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त हुए। मैं अपनी प्रतिज्ञा के वश चोर बनकर इन्हें ढूंढ़ने को यहाँ आया । यह कहकर फिर विद्युच्चर ने उनके हार के चुराने के सब बातें कह सुनाई और फिर यमदण्ड को साथ लिए वह अपने शहर में आ गया ॥३०-३४॥
    विद्युच्चर को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ । उसने राजमहल में पहुँचते ही अपने पुत्र को बुलाया और उसके साथ जिनेन्द्र भगवान् का पूजा-अभिषेक किया। इसके बाद वह सब राजभार पुत्र को सौंपकर आप बहुत से राजकुमारों के साथ जिनदीक्षा ले मुनि बन गया ॥३५-३६॥
    यहाँ से विहार कर विद्युच्चर मुनि अपने सारे संघ को साथ लिए देश विदेशों में बहुत घूमे- फिरे । बहुत से बे-समझ या मोह-माया में फँसे हुए जनों को इन्होंने आत्महित के मार्ग पर लगाया और स्वयं भी काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेषादि आत्मशत्रुओं का प्रभुत्व नष्ट कर उन पर विजय लाभ किया। आत्मोन्नति के मार्ग में दिन ब दिन बेरोक-टोक ये बढ़ने लगे। एक दिन घूमते-फिरते ये ताम्रलिप्तपुरी की ओर आए। अपने संघ के साथ वे पुरी में प्रवेश करने को ही थे कि इतने में वहाँ की चामुण्डा देवी ने आकर भीतर घुसने से इन्हें रोका और कहा - योगिराज, जरा ठहरिए, अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। इसलिए जब तक वह पूरी न हो जाये तब तक आप यहीं ठहरें, भीतर न जायें । देवी के इस प्रकार मना करने पर भी अपने शिष्यों के आग्रह से वे न रुककर भीतर चले गए और पुरी के पश्चिम तरफ के परकोटे के पास कोई पवित्र जगह देखकर वहीं सारे संघ ने ध्यान करना शुरू कर दिया। अब तो देवी के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उसने अपनी माया से कोई कबूतर के बराबर डाँस तथा मच्छर आदि खून पीने वाले जीवों की सृष्टि रचकर मुनि पर घोर उपद्रव किया। विद्युच्चर मुनि ने इस कष्ट को बड़ी शान्ति से सह कर बारह भावनाओं के चिन्तन से अपने आत्मा को वैराग्य की ओर खूब दृढ़ किया और अन्त में शुक्ल - ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर अक्षय और अनन्त मोक्ष के सुख को अपनाया ॥३७-४५॥
    उन देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों तथा राजाओं - महाराजाओं द्वारा, जो अपने मुकुटों में जड़े हुए बहुमूल्य दिव्य रत्नों की कान्ति से चमक रहे हैं, बड़ी भक्ति से पूजा किए गए और केवलज्ञान से विराजमान वे विद्युच्चर मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को मंगल-मोक्ष सुख दें, जिससे संसार का भटकना छूटकर शान्ति मिले ॥४६॥
  16. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सारे संसार द्वारा भक्ति सहित पूजा किए गए जिन भगवान् को नमस्कार कर प्राचीनाचार्यों के कहे अनुसार मृगध्वज राजकुमार की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सीमन्धर अयोध्या के राजा थे। उनकी रानी का नाम जिनसेना था। इनके एक मृगध्वज नाम का पुत्र था। वह मांस का बड़ा लोलुपी था । उसे बिना मांस खाये एक दिन भी चैन न पड़ता था। यहाँ एक राजकीय भैंसा था । वह बुलाने से पास चला आता, लौट जाने को कहने से चला जाता और लोगों के पाँवों में लोटने लगता । एक दिन वह भैंसा एक तालाब में क्रीड़ा कर रहा था । इतने में राजकुमार मृगध्वज, मंत्री और सेठ के लड़कों को साथ लिए वहाँ आया । इस भैंसे के पाँवों को देखकर मृगध्वज के मन में न जाने क्या धुन समाई सो उसने अपने नौकर से कहा- देखो, आज इस भैंसे का पिछला पाँव काट कर इसका मांस खाने के लिए पकाना । इतना कहकर मृगध्वज चल दिया। नौकर उसके कहे अनुसार भैंसे का पाँव काट कर ले गया। उसका मांस पका। उसे खाकर राजकुमार और उसके साथी बड़े प्रसन्न हुए। इधर बेचारा भैंसा बड़े दुःख के साथ लंगड़ाता हुआ राजा के सामने जाकर गिर पड़ा। राजा ने देखा कि उसकी मौत आ गई है। इसलिए उस समय उसने विशेष पूछ-पाछ न कर, कि किसने उसकी ऐसी दशा की है, दयाबुद्धि से उसे संन्यास देकर नमस्कार मन्त्र सुनाया। सच है, संसार में बहुत से ऐसे भी गुणवान् परोपकारी हैं, जो चन्द्रमा, सूर्य, कल्पवृक्ष, पानी आदि उपकारक वस्तुओं से भी कहीं बढ़कर हैं। भैंसा मरकर नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ । सच है, जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया पवित्र धर्म जीवों का वास्तव में हित करने वाला है ॥२-९॥
    इसके बाद राजा ने इस बात का पता लगाया कि भैंसा की यह दशा किसने की। उन्हें जब यह नीच काम अपने और मंत्री तथा सेठ के पुत्रों का जान पड़ा तब तो उनके गुस्से का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय तीनों को मरवा डालने के लिए मंत्री को आज्ञा की । इस राजाज्ञा की खबर उन तीनों को भी लग गई तब उन्होंने झटपट मुनिदत्त मुनि के पास जाकर उनसे जिन दीक्षा ले ली। इनमें मृगध्वज महामुनि बड़े तपस्वी हुए । उन्होंने कठिन तपस्या कर ध्यानाग्नि द्वारा घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर संसार द्वारा वे पूज्य हुए। सच है, जिनधर्म का प्रभाव ही कुछ ऐसा अचिन्त्य है जो महापापी से पापी भी उसे धारण कर त्रिलोक - पूज्य हो जाता है और ठीक भी है, धर्म से और उत्तम है ही क्या? वे मृगध्वज मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को महा मंगलमय मोक्ष लक्ष्मी दें, जो भव्य - जनों का उद्धार करने वाले हैं, केवलज्ञानरूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, देवों, विद्याधरों और बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं से पूज्य हैं, संसार का हित करने वाले हैं, बड़े धीर हैं और अनेक प्रकार का उत्तम से उत्तम सुख देने वाले हैं ॥१०-१५॥
  17. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों, विद्याधरों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुदृष्टि नामक सुनार की, जो रत्नों के काम में बड़ा होशियार था, कथा लिखी जाती है ॥१॥
    उज्जैन के राजा प्रजापाल बड़े प्रजाहितैषी, धर्मात्मा और भगवान् के सच्चे भक्त थे। उनकी रानी का नाम सुप्रभा था । सुप्रभा बड़ी सुन्दरी और सती थी । सच है - संसार में वही रूप और वही सौन्दर्य प्रशंसा के लायक होता है जो शील से भूषित हो ॥२-३॥
    यहाँ एक सुदृष्टि नाम का सुनार रहता था । जवाहरात के काम में यह बड़ा चतुर था तथा सदाचारी और सरल-स्वभावी था । इसकी स्त्री का नाम विमला था, विमला दुराचारिणी थी । अपने घर में रहने वाले एक वक्र नाम के विद्यार्थी से, जिसे कि सुदृष्टि अपने खर्च से लिखाता-पढ़ाता था, विमला का अनुचित सम्बन्ध था । विमला अपने स्वामी से बहुत नाखुश थी । इसलिए उसने अपने प्रेमी वक्र को उस्का कर, उसे कुछ भली - बुरी सुझाकर सुदृष्टि का खून करवा दिया। खून उस समय किया गया जब कि सुदृष्टि विषय - सेवन में मग्न था । सो यह मरकर विमला के ही गर्भ में आया। विमला ने कुछ दिनों बाद पुत्र प्रसव किया । आचार्य कहते हैं कि संसार की स्थिति बड़ी ही विचित्र है जो पल भर में कर्मों की पराधीनता से जीवों का अजब परिवर्तन हो जाता है । वे नट की तरह क्षणक्षण में रूप बदला ही करते हैं ॥४-८॥
    चैत का महीना था वसन्त शोभा ने सब ओर अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था । वन जन विद्याप उपवनों की शोभा मन को मोह लेती थी। इसी सुन्दर समय में एक दिन महारानी सुप्रभा अपने खास बगीचे में प्राणनाथ के साथ हँसी विनोद कर रही थी । इसी हँसी - विनोद में उसका क्रीड़ा - विलास नाम का सुन्दर बहुमूल्य हार टूट पड़ा। उसके सब रत्न बिखर गए । राजा ने उसे फिर वैसा ही बनवाने का बहुत यत्न किया, जगह-जगह से अच्छे सुनार बुलवाए पर हार पहले सा किसी से नहीं बना। सच है-बिना पुण्य के कोई उत्तम कला या ज्ञान नहीं होता। इसी टूटे हुए हार को विमला के लड़के ने अर्थात् पूर्वभव के उसके पति सुदृष्टि ने देखा। देखते ही उसे जातिस्मरण पूर्व जन्म का ज्ञान हो गया। उससे उसने इस हार को पहले जैसा ही बना दिया । इसका कारण यह था कि इस हार को पहले भी सुदृष्टि ने ही बनाया था और यह बात सच है कि इस जीव को पूर्व जन्म के संस्कार पुण्य से ही कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान दान - पूजा आदि सभी बातें प्राप्त हुआ करती है। प्रजापाल उसकी ऐसी होशियारी देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे पूछा भी कि भाई, यह हार जैसा सुदृष्टि का बनाया था वैसा ही तुमने कैसे बना दिया? तब वह विमला का लड़का मुँह नीचा कर बोला- राजाधिराज, मैं अपनी कथा आपसे क्या कहूँ। आप यह समझें कि वास्तव में मैं ही सुदृष्टि हूँ। इसके बाद उसने बीती हुई सब घटना राजा से कह सुनाई । वे संसार की इस विचित्रता को सुनकर विषय- भोगों से बड़े विरक्त हुए । उन्होंने उसी समय सब माया-जाल छोड़कर आत्महित का पथ जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ॥९ - १६॥ 
    इधर विमला के लड़के को भी अत्यन्त वैराग्य हुआ। वह स्वर्ग- मोक्ष के सुखों को देने वाली जिनदीक्षा लेकर योगी बन गया। यहाँ से फिर यह विशुद्धात्मा धर्मोपदेश के लिए अनेक शहरों में घूम- फिर कर तपस्या करता हुआ और अनेक भव्यजनों को आत्महित के मार्ग पर लगाता हुआ शौरीपुर के उत्तर भाग में यमुना के पवित्र किनारे पर आकर ठहरा। यहाँ शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर इसने लोकालोक का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अन्त में मुक्ति लाभ किया। वे विमला - सुत मुनि मुझे शान्ति दें ॥१७-२०॥
    वे जिन भगवान् आप भव्यजनों को और मुझे मोक्ष का सुख दें, जो संसार - सिन्धु में डूबते हुए, असहाय-निराधार जीवों को पार करने वाले हैं, कर्म - शत्रुओं का नाश करने वाले है।, , संसार के सब पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञान से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले हैं और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि प्रायः सभी महापुरुषों से पूजा किए जाते हैं ॥२१॥
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