Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

admin

Administrators
  • Posts

    2,455
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    329

 Content Type 

Profiles

Forums

Events

Jinvani

Articles

दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

Downloads

Gallery

Blogs

Musicbox

Blog Entries posted by admin

  1. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिन्होंने अपने गुणों से संसार में प्रसिद्ध हुए और सब कामों को करके सिद्धि, कृत्यकृत्यता लाभ की है, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर गजकुमार मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र हुई प्रसिद्ध द्वारका के अर्धचक्री वासुदेव की रानी गन्धर्वसेना से गजकुमार का जन्म हुआ था । गजकुमार बड़ा वीर था । उसके प्रताप को सुनकर ही शत्रुओं की विस्तृत मानरूपी बेल भस्म हो जाती थी ॥२-३॥
    पोदनपुर के राजा अपराजित ने तब बड़ा सिर उठा रखा था। वासुदेव ने उसे अपने काबू में लाने के लिए अनेक यत्न किए, पर वह किसी तरह इनके हाथ न पड़ा। तब इन्होंने शहर में यह डौंडी पिटवाई कि जो मेरे शत्रु अपराजित को पकड़ लाकर मेरे सामने उपस्थित करेगा, उसे उसका, चाहा वर मिलेगा। गजकुमार डौंडी सुनकर पिता के पास गया और हाथ जोड़कर उसने स्वयं अपराजित पर चढ़ाई करने की प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना मंजूर हुई वह सेना लेकर अपराजित पर जा चढ़ा। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ । अन्त में विजयलक्ष्मी ने गजकुमार का साथ दिया। अपराजित को पकड़ लाकर उसने पिता के सामने उपस्थित कर दिया । गजकुमार की इस वीरता को देखकर वासुदेव बहुत खुश हुए उन्होंने उसकी इच्छानुसार वर देकर उसे संतुष्ट किया ॥४-९॥
    ऐसे बहुत कम अच्छे पुरुष निकलते हैं जो मनचाहा वर लाभकर सदाचारी और सन्तोषी बने रहें। परन्तु गजकुमार की उल्टी दशा हुई उसने मनचाहा वर पिताजी से लाभ कर अन्याय की ओर कदम बढ़ाया। वह पापी जबरदस्ती अच्छे-अच्छे घरों की सती स्त्रियों की इज्जत लेने लगा । वह ठहरा राजकुमार, उसे कौन रोक सकता था और जो रोकने की कुछ हिम्मत करता तो वह उसकी आँखों को काँटा खटकने लगता और फिर गजकुमार उसे जड़मूल से उखाड़कर फेंकने का यत्न करता । उस काम को, उस दुराचार को धिक्कार है, जिसके वश हो मूर्ख - जनों को लज्जा और भय भी नहीं रहता है॥१०-११॥
    इसी तरह गजकुमार ने अनेक अच्छी-अच्छी कुलीन स्त्रियों की इज्जत ले डाली। पर इसके दबदबे से किसी ने चूँ तक न किया। एक दिन पांसुल सेठ की सुरति नाम की स्त्री पर इसकी नजर पड़ी और उसने उसे खराब भी कर दिया। यह देख पांसुल का हृदय क्रोधाग्नि से जलने लगा। पर वह बेचारा उसका कुछ कर नहीं सकता था। इसलिए उसे भी चुपचाप घर में बैठा रह जाना पड़ा ॥१२–१३॥
    एक दिन भगवान् नेमिनाथ भव्य-जनों के पुण्योदय से द्वारका में आए बलभद्र, वासुदेव तथा और बहुत से राजा-महाराजा बड़े आनन्द के साथ भगवान् की पूजा करने को गए। खूब भक्तिभावों से उन्होंने स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले भगवान् की पूजा-स्तुति की, उनका ध्यान - स्मरण किया। बाद में मुनि और गृहस्थ धर्म का भगवान् के द्वारा उन्होंने उपदेश सुना, जो कि अनेक सुखों का देने वाला है। उपदेश सुनकर सभी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने बार-बार भगवान् की स्तुति की। सच है, साक्षात् सर्वज्ञ भगवान् का दिया सर्वोपदेश सुनकर किसे आनन्द या खुशी न होगी । भगवान् के उपदेश का गजकुमार के हृदय पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा। वह अपने किए पापकर्मों पर बहुत पछताया। संसार से उसे बड़ी घृणा हुई। उसने उसी समय भगवान् के पास ही दीक्षा ले ली, जो संसार के भटकने को मिटाने वाली है। दीक्षा लेकर गजकुमार मुनि विहार कर गए। अनेक देशों और नगरों में विहार करते और भव्य - जनों को धर्मोपदेश द्वारा शान्तिलाभ कराते । अन्त में वे गिरनार पर्वत के जंगल में आए। उन्हें अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी । इसलिए वे प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्म-चिंतन करने लगे। तब उनकी ध्यान - मुद्रा बड़ी निश्चल और देखने योग्य थी ॥१४-२२॥
    उनके संन्यास का हाल पांसुल सेठ को जान पड़ा, जिसकी स्त्री को गजकुमार ने अपने दुराचारीपने की दशा में खराब किया था । सेठ को अपना बदला चुकाने को बड़ा अच्छा मौका हाथ लग गया। वह क्रोध से भर्राता हुआ गजकुमार मुनि के पास पहुँचा और उनके सब सन्धिस्थानों में लोहे के बड़े-बड़े कीले ठोककर चलता बना। गजकुमार मुनि पर उपद्रव तो बड़ा ही दुःसह हुआ, पर वे जैनतत्त्व के अच्छे अभ्यासी थे, अनुभवी थे, इसलिए उन्होंने इस घोर कष्ट को एक तिनके के चुभने की बराबर भी न गिन बड़ी शान्ति और धीरता के साथ शरीर छोड़ा । यहाँ से ये स्वर्ग में गए। वहाँ अब चिरकाल तक वे सुख भोगेंगे । अहा ! महापुरुषों का चरित बड़ा ही अचंभा पैदा करने वाला होता है। देखिये, कहाँ तो गजकुमार मुनि का ऐसा दुःसह कष्ट और कहाँ सुख देने वाली पुण्य-समाधि! इसका कारण सच्चा तत्त्वज्ञान है। इसलिए इस महत्ता को प्राप्त करने के लिए तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना सबके लिए आवश्यक है ॥२३-२७॥
    सारे संसार के प्रभु कहलाने वाले जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा सुख के कारण धर्म का उपदेश सुनकर जो गजकुमार अपनी दुर्बुद्धि को छोड़कर पवित्र बुद्धि के धारक और बड़े भारी सहनशील योगी हो गए, वे हमें भी सुबुद्धि और शान्ति प्रदान करें, जिससे हम भी कर्तव्य के लिए कष्ट सहने में समर्थ हो सकें ॥२८॥
  2. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सर्वोच्च धर्म का उपदेश करने वाले श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन्य नाम के मुनि की कथा लिखी जाती है, जो पढ़ने या सुनने से सुख प्रदान करने वाली है ॥१॥
    जम्बूद्वीप पूर्व की ओर बसे हुए विदेह क्षेत्र की प्रसिद्ध राजधानी वीतशोकपुर का राजा अशोक बड़ा ही लोभी राजा हो चुका है। जब फसल काटकर खेतों पर खले किए जाते थे तब वह बेचारे बैलों का मुँह बँधवा दिया करता और रसोई घर में रसोई बनाने वाली स्त्रियों के स्तन बँधवा कर उनके बच्चे को दूध न पीने देता था, सच है, लोभी मनुष्य कौन सा पाप नहीं करते? ॥२-५॥
    एक दिन अशोक के मुँह में कोई ऐसी बीमारी हो गई जिससे उसका असर उसके सिर में आ गया। सिर में हजारों फोड़े-फुंसी हो गए। उससे उसे बड़ा कष्ट होने लगा। उसने उस रोग की औषधि बनवाई वह उसे पीने को ही था कि इतने में अपने चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए मुनि आहार के लिए इसी ओर आ निकले। भाग्य से यह मुनि भी राजा की तरह इसी माह रोग से पीड़ित हो रहे थे। इन तपस्वी मुनि की यह कष्टमय दशा देखकर राजा ने सोचा कि जिस रोग से मैं कष्ट पा रहा हूँ, जान पड़ता है उसी रोग से ये तपोनिधि भी दुःखी है। यह सोचकर या दया से प्रेरित होकर राजा जिस दवा को स्वयं पीने वाला था, उसे उसने मुनिराज को पिला दिया और वैसा ही उन्हें पथ्य भी दिया। दवा ने बहुत लाभ किया। बारह वर्ष का यह मुनि का महारोग थोड़े ही समय में मिट गया, मुनि भले चंगे हो गए ॥६-११॥
    अशोक जब मरा तो इस पुण्य के फल से वह अमलकण्ठपुर के राजा निष्ठसेन की रानी नन्दमती के धन्य नाम का सुन्दर गुणवान् पुत्र हुआ । धन्य को एक दिन श्रीनेमिनाथ भगवान् के पास धर्म का उपदेश सुनने को मौका मिला। वह भगवान् के द्वारा अपनी उम्र बहुत थोड़ी जानकर उसी समय सब माया-ममता छोड़ मुनि बन गया । एक दिन वह शहर में आहार के लिए गया, पर पूर्वजन्म के पाप कर्म के उदय से उसे आहार नहीं मिला। वह वैसे ही तपोवन में लौट आया। यहाँ से विहार कर वह तपस्या करता तथा धर्मोपदेश देता हुआ शौरीपुर आकर यमुना के किनारे आतापन योग द्वारा ध्यान करने लगा । इसी ओर यहाँ का राजा शिकार के लिए आया हुआ था, पर आज उसे शिकार न मिला। वह वापस अपने महल की ओर आ रहा था कि इसी समय इसकी नजर मुनि पर पड़ी। इसने समझ लिया कि बस, शिकार न मिलने का कारण इस नंगे का दीख पड़ना है, उसने यह अपशकुन किया है। यह धारणा कर इस पापी राजा ने मुनि को बाणों से खूब वेध दिया। मुनि ने तब शुक्लध्यान की शक्ति से कर्मों का नाश कर सिद्ध गति प्राप्त की । सच है, महापुरुषों की धीरता बड़ी ही चकित करने वाली होती है। जिससे महान् कष्ट के समय में भी मोक्ष प्राप्ति हो जाता है ॥१२- २०॥
    वे धन्य मुनि रोग, शोक, चिन्ता आदि दोषों को नष्ट कर मुझे शाश्वत, कभी नाश न होने वाला सुख दें, जो भव्यजनों का भय मिटाने वाले हैं, संसार समुद्र से पार करने वाले हैं, देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं, मोक्ष - महिला के स्वामी हैं, ज्ञान का समुद्र हैं और चारित्र-चूड़ामणि हैं ॥२१॥
  3. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर चिलातपुत्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    राजगृह के राजा उपश्रेणिक एक बार हवाखोरी के लिए शहर से बाहर गए । वे जिस घोड़े पर सवार थे, वह बड़ा दुष्ट था। सो उसने उन्हें एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक एक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक लड़की थी। उसका नाम तिलकवती था । वह बड़ी सुन्दरी थी । उपश्रेणिक उसे देखकर काम के बाणों से अत्यन्त बींधे गये । उनकी यह दशा देखकर यमदण्ड ने उनसे कहा-राजाधिराज, यदि आप इससे उत्पन्न होने वाले पुत्र को राज्य का मालिक बनाना मंजूर करें तो मैं इसे आपके साथ ब्याह सकता हूँ । उपश्रेणिक ने यमदण्ड की शर्त मंजूर कर ली। यमदण्ड ने तब तिलकवती का ब्याह उनके साथ कर दिया। वे प्रसन्न होकर उसे साथ लिये राजगृह लौट आये ॥२-७॥
    बहुत दिनों तक उन्होंने तिलकवती के साथ सुख भोगा, आनन्द मनाया। तिलकवती के एक पुत्र हुआ। इसका नाम चिलातपुत्र रखा गया । उपश्रेणिक के पहली रानियों से उत्पन्न हुए और भी कई पुत्र थे। यद्यपि राज्य वे तिलकवती के पुत्र को देने का संकल्प कर चुके थे, तो भी उनके मन में यह खटका सदा बना रहता था कि कहीं इसके हाथ में राज्य जाकर धूलधानी न हो जाये । जो हो, I वे अपनी प्रतिज्ञा के न तोड़ने को लाचार थे । एक दिन उन्होंने एक अच्छे विद्वान् ज्योतिषी को बुलाकर उससे पूछा-पंडित जी, अपने निमित्तज्ञान को लगाकर मुझे आप यह समझाइए कि मेरे इन पुत्रों में राज्य का मालिक कौन होगा? ज्योतिषी जी बहुत कुछ सोच-विचार के बाद राजा से बोले- सुनिये महाराज, मैं आपको इसका खुलासा कहता हूँ । आपके सब पुत्र खीर का भोजन करने को एक जगह बिठाएँ जायें और उस समय उन पर कुत्तों का एक झुंड छोड़ा जाये। तब उन सबमें जो निडर होकर वहीं रखे हुए सिंहासन पर बैठे नगारा बजाता जाये और भोजन भी करता जाये और दूसरे कुत्तों को भी डालकर खिलाता जाये, उसमें राजा होने की योग्यता है। मतलब यह कि अपनी बुद्धिमानी से कुत्तों के स्पर्श से अछूता रहकर आप भोजन कर ले ॥८- १०॥
    दूसरा निमित्त यह होगा कि आग लगने पर जो सिंहासन, छत्र, चाँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल सके, वह राजा हो सकेगा इत्यादि और कई बातें है, पर उनके विशेष कहने की जरूरत नहीं ॥११-१२॥
    कुछ दिन बीतने पर उपश्रेणिक ने ज्योतिषी जी के बताये निमित्त की जाँच करने का उद्योग किया। उन्होंने सिंहासन के पास ही एक नगारा रखवाकर वहीं अपने सब पुत्रों को खीर खाने को बैठाया। वे जीमने लगे कि दूसरी ओर से कोई पाँच सौ कुत्तों का झुण्ड दौड़कर उन पर लपका। उन कुत्तों को देखकर राजकुमारों के तो होश गायब हो गए। वे सब चीख मारकर भाग खड़े हुए। पर हाँ एक श्रेणिक जो इन सबसे वीर और बुद्धिमान् था, उन कुत्तों से डरा नहीं और बड़ी फुरती से उठकर उसने खीर परोसी हुई बहुत-सी पत्तलों को एक ऊँची जगह रख कर आप पास ही रखे हुए सिंहासन पर बैठ गया और आनन्द से खीर खाने लगा। साथ में वह उन कुत्तों को भी थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक एक पत्तल उठा-उठा डालता गया और नगारा बजाता गया, जिससे कि कुत्ते उपद्रव न करें ॥१३-१६॥
    इसके कुछ दिनों बाद उपश्रेणिक ने दूसरे निमित्त की भी जाँच की । अब की बार उन्होंने कहीं कुछ थोड़ी-सी आग लगवा लोगों द्वारा शोरगुल करवा दिया कि राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक ने जैसे ही आग लगने की बात सुनी वह दौड़ा गया और झटपट राजमहल से सिंहासन, चँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल बाहर हो गया । यही श्रेणिक आगे तीर्थंकर होगा ॥१७॥
    श्रेणिक की वीरता और बुद्धिमानी देखकर उपश्रेणिक को निश्चय हो गया कि राजा यही होगा। इसी के यह योग्य भी है। श्रेणिक के राजा होने की बात तब तक कोई न जान पाए जब तक वह अपना अधिकार स्वयं अपनी भुजाओं द्वारा प्राप्त न कर ले | इसके लिए उन्हें उसके रक्षा की चिन्ता हुई। कारण उपश्रेणिक राज्य का अधिकारी तिलकवती के पुत्र चिलात को बना चुके थे और इस हाल में किसी दुश्मन को या चिलात के पक्षपातियों को यह पता लग जाता कि इस राज्य का राजा तो श्रेणिक ही होगा, तब यह असम्भव नहीं था कि वे उसे राजा होने देने के पहले ही मार डालते। इसलिए उपश्रेणिक को यह चिन्ता करना वाजिब था, समयोचित और दूरदर्शिता का था। इसके लिए उन्हें एक अच्छी युक्ति सूझ गई और बहुत जल्दी उन्होंने उसे कार्य में भी परिणत कर दिया। उन्होंने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि उसने कुत्तों का झूठा खाया, इसलिए वह भ्रष्ट है। अब वह न तो राजघराने में ही रहने योग्य रहा और न देश में ही । इसलिए मैं उसे आज्ञा देता हूँ कि वह बहुत जल्दी राजगृह से बाहर हो जाये । सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं ॥१८-१९॥
    श्रेणिक अपने पिता की आज्ञा पाते ही राजगृह से उसी समय निकल गया। वह फिर पलभर के लिए भी वहाँ न ठहरा। वहाँ से चलकर वह द्राविड़ देश की प्रधान नगरी काँची में पहुँचा। उसने अपनी बुद्धिमानी से वहाँ कोई ऐसा वसीला लगा लिया जिससे उसके दिन बड़े सुख से कटने लगे ॥२०॥
    इधर उपश्रेणिक कुछ दिनों तक तो और राजकाज चलाते रहे। इसके बाद कोई ऐसा कारण उन्हें देख पड़ा जिससे संसार और विषयभोगों से वे बहुत उदासीन हो गए। अब उन्हें संसार का वास एक बहुत ही पेचीला जाल जान पड़ने लगा। उन्होंने तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार चिलातपुत्र को राजा बनाकर सब जीवों का कल्याण करने वाला मुनिपद ग्रहण कर लिया ॥२१-२२॥
    चिलात - पुत्र राजा हो गया, पर उसका जाति - स्वभाव न गया और ठीक भी है कौए को मोर के पांख भले ही लगा दिये जायें, पर वह मोर न बनकर रहेगा कौआ का कौआ ही। यही दशा चिलातपुत्र की हुई। वह राजा बना भी दिया गया तो क्या हुआ, उसमें अगत के तो कुछ गुण नहीं थे, तब वह राजा होकर भी क्या बड़ा कहला सका? नहीं। अपने जाति स्वभाव के अनुसार प्रजा को कष्ट देना, उस पर जबरन जोर-जुल्म करना उसने शुरू किया । यह एक साधारण बात है कि अन्यायी का कोई साथ नहीं देता और यही कारण हुआ कि मगध की प्रजा की श्रद्धा उस पर से बिल्कुल ही उठ गई । सारी प्रजा उससे हृदय से नफरत करने लगी । प्रजा का पालक होकर जो राजा उसी पर अन्याय करे तब उससे बढ़कर और दुःख की बात क्या हो सकती है? ॥२३॥
    परन्तु इसके साथ यह भी बात है कि प्रकृति अन्याय को नहीं सहती । अन्यायी को अपने अन्याय का फल तुरन्त मिलता है । चिलातपुत्र के अन्याय की डुगडुगी चारों ओर पिट गई । श्रेणिक को जब यह बात सुन पड़ी तब उससे चिलातपुत्र का प्रजा पर जुल्म करना न सहा गया। वह उसी समय मगध की ओर रवाना हुआ। जैसे ही प्रजा को श्रेणिक के राजगृह आने की खबर लगी उसने उसका एकमत होकर साथ दिया । प्रजा की इस सहायता से श्रेणिक ने चिलात को राज्य से बाहर निकाल आप मगध का सम्राट् बना। सच है, राजा होने के योग्य वही पुरुष है जो प्रजा का पालन करने वाला हो। जिसमें यह योग्यता नहीं वह राजा नहीं किन्तु इस लोक में तथा परलोक में अपनी कीर्ति का नाश करने वाला है | २४ - २५॥
    चिलात पुत्र मगध से भागकर एक वन में जाकर बसा । वहाँ उसने एक छोटा-मोटा किला बनवा लिया और आसपास के छोटे-छोटे गाँवों से जबरदस्ती कर वसूल कर आप उनका मालिक बन बैठा। इसका भर्तृमित्र नाम का एक मित्र था । भर्तृमित्र के मामा रुद्रदत्त के एक लड़की थी । सो भर्तृमित्र ने अपने मामा से प्रार्थना की-वह अपनी लड़की का ब्याह चिलातपुत्र के साथ कर दे। उसकी बात पर कुछ ध्यान न देकर रुद्रदत्त चिलातपुत्र को लड़की देने से साफ मुकर गया। चिलातपुत्र से अपना वह अपमान न सहा गया। वह छुपा हुआ राजगृह में पहुँचा और विवाहित स्नान करती हुई सुभद्रा को उठा चलता बना। जैसे ही यह बात श्रेणिक के कानों में पहुँची वह सेना लेकर उसके पीछे दौड़ा। चिलातपुत्र ने जब देखा कि अब श्रेणिक के हाथ से बचना कठिन है, तब उस दुष्ट निर्दयी ने बेचारी सुभद्रा को जान से मार डाला और आप जान बचाकर भागा । वह वैभारपर्वत पर से जा रहा था कि उसे वहाँ एक मुनियों का संघ देख पड़ा । चिलातपुत्र दौड़ा हुआ संघाचार्य श्री मुनिदत्त मुनिराज के पास पहुँचा और उन्हें हाथ जोड़ सिर नवा उसने प्रार्थना की कि प्रभो, मुझे तप दीजिए, जिससे मैं अपना हित कर सकूँ । आचार्य ने तब उससे कहा-प्रिय, तूने बड़ा अच्छा सोचा 'तू तप लेना चाहता है। तेरी आयु अब सिर्फ आठ दिन की रह गई है। ऐसे समय जिनदीक्षा लेकर तुझे अपना हित करना उचित ही है। मुनिराज से अपनी जिन्दगी इतनी थोड़ी सुन उनसे उसी समय तप ले लिया जो संसार-समुद्र से पार करने वाला है। चिलातपुत्र तप लेने के साथ ही प्रायोपगमन संन्यास ले धीरता से आत्मभावना भाने लगा। इधर उसके पकड़ने को पीछे आने वाले श्रेणिक ने वैभारपर्वत पर आकर उसे इस अवस्था में जब देखा तब उसे चिलातपुत्र की इस धीरता पर बड़ा चकित होना पड़ा। श्रेणिक ने तब उसके इस साहस की बड़ी तारीफ की। इसे बाद वह उसे नमस्कार कर राजगृह लौट आया । चिलातपुत्र ने जिस सुभद्रा को मार डाला था, वह मरकर व्यन्तर देवी हुई । उसे जान पड़ा कि मैं चिलातपुत्र द्वारा बड़ी निर्दयता से मारी गई हूँ । मुझे भी तब अपने बैर का बदला लेना ही चाहिए । यह सोचकर वह चील का रूप ले चिलात मुनि के सिर पर आकर बैठ गई उसने मुनि को कष्ट देना शुरू किया। पहले उसने चोंच से उनकी दोनों आँखें निकाल लीं और बाद मधुमक्खी बनकर वह उन्हें काटने लगी। आठ दिन तक उन्हें उसने बेहद कष्ट पहुँचाया। चिलातमुनि ने विचलित न हो इस कष्ट को बड़े शान्ति से सहा। अन्त में समाधि से मरकर उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की ॥२६-४०॥
    जिस वीरों के वीर और गुणों की खान चिलात मुनि ने ऐसा दुःसह उपसर्ग सहकर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ा और जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का, जो कि देवों द्वारा भी पूज्य हैं, खूब मन लगाकर ध्यान करते रहे और अन्त में जिन्होंने अपने पुण्यबल से सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की वे मुझे भी मंगल दें ॥ २६-४१॥
  4. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिनकी कृपा से केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त हो सकती है, उन पंच परमेष्ठी - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर गुरुदत्त मुनि का पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥
    गुरुदत्त हस्तिनापुर के धर्मात्मा राजा विजयदत्त की रानी विजया के पुत्र थे। बचपन से ही इनकी प्रकृति में गम्भीरता, धीरता, सरलता तथा सौजन्यता थी । सौन्दर्य में भी वे अद्वितीय थे। अस्तु, पुण्य की महिमा अपरम्पार है ॥२- ३॥
    विजयदत्त अपना राज्य गुरुदत्त को सौंपकर स्वयं मुनि हो गए और आत्महित करने लगे। राज्य की बागडोर गुरुदत्त ने अपने हाथ में लेकर बड़ी सावधानी और नीति के साथ शासन आरम्भ किया। प्रजा उनसे बहुत खुश हुई वह अपने नये राजा को हजार-हजार साधुवाद देने लगी। दुःख किसे कहते हैं, यह बात गुरुदत्त की प्रजा जानती ही न थी । कारण - किसी को कुछ, थोड़ा भी कष्ट होता था तो गुरुदत्त फौरन ही उसकी सहायता करता । तन से, मन से और धन से वह सभी के काम आता था ॥४॥
    लाट देश में द्रोणीमान पर्वत के पास चन्द्रपुरी नाम की एक सुन्दर नगरी बसी हुई थी। उसके राजा थे चन्द्रकीर्ति। उनकी रानी का नाम चन्द्रलेखा था । उनके अभयमती नाम की एक पुत्री थी । गुरुदत्त ने चन्द्रकीर्ति से अभयमती के लिए प्रार्थना की कि वे अपनी कुमारी का ब्याह उसके साथ कर दें परन्तु चन्द्रकीर्ति ने उनकी इस बात से साफ इनकार कर दिया, वे गुरुदत्त के साथ अभयमती का ब्याह करने को राजी न हुए। गुरुदत्त ने इससे कुछ अपना अपमान हुआ समझा । चन्द्रकीर्ति पर उसे गुस्सा आया। उसने उसी समय चन्द्रपुरी पर चढ़ाई कर दी और उसे चारों ओर से घेर लिया। कुमारी अभयमती गुरुदत्त पर पहले ही से मुग्ध थी और जब उसने उसके द्वारा चन्द्रपुरी का घेरा जाना सुना तो वह अपने पिता के पास आकर बोली- पिताजी ! अपने सम्बन्ध में मैं आपसे कुछ कहना उचित नहीं समझती, पर मेरे संसार को सुखमय होने में कोई बाधा या विघ्न न आए। इसलिए कहना या प्रार्थना करना उचित जान पड़ता है क्योंकि मुझे दुःख में देखना तो आप सपने में भी पसन्द नहीं करेंगे। वह प्रार्थना यह है कि आप गुरुदत्त जी के साथ ही मेरा ब्याह कर दें, इसी में मुझे सुख होगा । उदार-हृदय चन्द्रकीर्ति ने अपनी पुत्री की बात मान ली। इसके बाद अच्छा दिन देख खूब आनन्दोत्सव के साथ उन्होंने अभयमती का ब्याह गुरुदत्त के साथ कर दिया। इस सम्बन्ध से कुमार और कुमारी दोनों ही सुखी हुए। दोनों की मनचाही बात पूरी हुई ॥५ - ९॥
    ऊपर जिस द्रोणीमान पर्वत का उल्लेख हुआ है, उसमें एक बड़ा भयंकर सिंह रहता था। उसने सारे शहर को बहुत ही आतंकित कर रखा था। सबके प्राण सदा मुट्ठी में रहा करते थे। कौन जाने कब आकर सिंह खा ले, इस चिन्ता से सब हर समय घबराए हुए से रहते थे। इस समय कुछ लोगों ने गुरुदत्त से जाकर प्रार्थना की कि राजाधिराज, इस पर्वत पर एक बड़ा भारी हिंसक सिंह रहता है। उससे हमें बड़ा कष्ट है इसलिए आप कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे हम लोगों का कष्ट दूर हो ॥१०-११॥
    गुरुदत्त उन लोगों को धीरज बँधाकर आप अपने कुछ वीरों को साथ लिए पर्वत पर पहुँचा। सिंह को उसने सब ओर से घेर लिया। पर मौका पाकर वह भाग निकला और जाकर एक अँधेरी गुफा में घुसकर छिप गया। गुरुदत्त ने तब इस मौके को अपने लिए और भी अच्छा समझा। उसने उसी समय बहुत से लकड़े गुफा में भरवाकर सिंह के निकलने का रास्ता बन्द कर दिया और बाहर गुफा के मुँह पर भी एक लकड़ों का ढेर लगवा कर उसमें आग लगवा दी। लकड़ों की खाक के साथ-साथ उस सिंह की भी देखते-देखते खाक हो गयी। सिंह बड़े कष्ट के साथ मरकर इसी चन्द्रपुरी में भरत नाम के ब्राह्मण की विश्वदेवी स्त्री के कपिल नाम का लड़का हुआ। वह जन्म से ही बड़ा क्रूर हुआ और यह ठीक भी है कि पहले जैसा संस्कार होता है, वह दूसरे जन्म में भी आता है ॥१२- १५॥
    इसके बाद गुरुद्रत अपनी प्रिया को लिए राजधानी में लौट आया। दोनों नव दम्पत्ति बड़े सुख से रहने लगे। कुछ दिनों बाद अभयमती के एक पुत्र ने जन्म लिया। इसका नाम रखा गया सुवर्णभद्र। यह सुन्दर था, सरलता और पवित्रता की प्रतिमा था और बुद्धिमान् था। इसीलिए सब उसे बहुत प्यार करते थे। जब उसकी उमर योग्य हो गई और सब कामों में वह होशियार हो गया तब जिनेन्द्र भगवान् के सच्चे भक्त उसके पिता गुरुदत्त ने अपना राज्यभार इसे देकर आप वैरागी बन मुनि हो गए। इसके कुछ वर्षों बाद अनेक देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोपदेश करते, भव्य-जनों को सुलटाते एक बार चन्द्रपुरी की ओर आए ॥१६-१९॥
    एक दिन गुरुदत्त मुनि कपिल ब्राह्मण के खेत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। उसी समय कपिल घर पर अपनी स्त्री से यह कह कर, कि प्रिये, मैं खेत पर जाता हूँ, तुम वहाँ भोजन लेकर जल्दी आना, , खेत पर आ गया। जिस खेत पर गुरुदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे, उसे तब जोतने योग्य न समझ वह दूसरे खेत पर जाने लगा। जाते समय मुनि से वह यह कहता गया कि मेरी स्त्री यहाँ भोजन लिए हुए आवेगी सो उसे आप कह दीजियेगा कि कपिल दूसरे खेत पर गया है। तू भोजन वहीं ले जा, सच है, मूर्ख लोग महामुनि के मार्ग को न समझ कर कभी-कभी बड़ा ही अनर्थ कर बैठते हैं। इसके बाद जब कपिल की स्त्री भोजन लेकर खेत पर आई और उसने अपने स्वामी को खेत पर न पाया तब मुनि से पूछा- - क्यों साधु महाराज, मेरे स्वामी यहाँ से कहाँ गए हैं? मुनि चुप रहे, कुछ बोले नहीं। उनसे कुछ उत्तर न पाकर वह घर पर लौट आयी । इधर समय पर समय बीतने लगा ब्राह्मण देवता भूख के मारे छटपटाने लगे पर ब्राह्मणी का अभी तक पता नहीं; यह देख उन्हें बड़ा गुस्सा आया। वे क्रोध से गुर्राते हुए घर आये और लगे बेचारी ब्राह्मणी पर गालियों की बौछार करने । राँड, मैं तो भूख के मारे मरा जाता हूँ और तेरा अभी तक आने का ठिकाना ही नहीं । उस नंगे को पूछकर खेत पर चली आती । बेचारी ब्राह्मणी घबराती हुई बोली- अजी तो इसमें मेरा क्या अपराध था । मैंने उस साधु से तुम्हारा ठिकाना पूछा। उसने कुछ न बताया तब मैं वापस घर पर आ गई। ब्राह्मण ने दाँत पीसकर कहा- हाँ, उस नंगे ने तुझे मेरा ठिकाना नहीं बताया और मैं तो उससे कह गया था । अच्छा, मैं अभी जाकर उसे उसका मजा चखता हूँ । पाठकों को याद होगा कि कपिल पहले जन्म में सिंह था और उसे इन्हीं गुरुदत्त मुनि ने राज अवस्था में जलाकर मार डाला था तब इस हिसाब से कपिल के वे शत्रु हुए। यदि कपिल को किसी तरह यह जान पड़ता कि ये मेरे शत्रु हैं, तो उस शत्रुता का बदला उसने कभी का ले लिया होता पर उसे इसके जानने का न तो कोई जरिया मिला और न था ही। तब उस शत्रुता को जाग्रत करने के लिए कपिल की स्त्री को कपिल के दूसरे खेत पर जाने का हाल जो मुनि ने न बताया, यह घटना सहायक हो गई । कपिल गुस्से से लाल होता हुआ मुनि के पास पहुँचा। वहाँ बहुत सी सेमल की रुई पड़ी हुई थी। कपिल ने उस रुई से मुनि को लपेट कर उसमें आग लगा दी। मुनि पर बड़ा उपसर्ग हुआ। पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । उस समय शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों का नाश होकर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने आकर उन पर फूलों की वर्षा की, आनन्द मनाया। कपिल ब्राह्मण यह सब देखकर चकित हो गया । उसे तब जान पड़ा कि जिन साधु को मैंने अत्यन्त निर्दयता से जला डाला उनका कितना माहात्म्य था । उसे अपनी इस नीचता पर बड़ा ही पछतावा हुआ । उसने बड़ी भक्ति से भगवान् को हाथ जोड़कर अपने अपराध की उनसे क्षमा माँगी। भगवान् के उपदेश को उसने बड़े चाव से सुना । उसे वह बहुत रुचा भी । वैराग्यपूर्ण भगवान् के उपदेश ने उसके हृदय पर गहरा असर किया । वह उसी समय सब छोड़ कर अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये मुनि हो गया। सच है, सत्पुरुषों-महात्माओं की संगति सुख देने वाली होती है। यही तो कारण था कि एक महाक्रोधी ब्राह्मण पल भर में सब छोड़कर योगी बन गया। इसलिये भव्य-जनों को सत्पुरुषों की संगति से अपने को, अपनी सन्तान को और अपने कुल को सदा पवित्र करने का यत्न करते रहना चाहिए । यह सत्संग परम सुख का कारण है ॥२० - ३४॥
    वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा संसार में रहें, उनका शासन चिरकाल तक जय लाभ करे जो सारे संसार को सुख देने वाले हैं, सब सन्देहों के नाश करने वाले हैं और देवों द्वारा जो पूजा स्तुति किये जाते हैं तथा दुःसह उपसर्ग आने पर भी जो मेरु की तरह स्थिर रहे और जिन्होंने अपना आत्मस्वभाव प्राप्त किया ऐसे गुरुदत्त मुनि तथा मेरे परम गुरु श्रीप्रभाचन्द्राचार्य, ये मुझे आत्मीक सुख प्रदान करें ॥३५॥
  5. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सब सुखों के देने वाले और संसार में सर्वोच्च गिने जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार विद्युच्चर मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में इनके समय कोतवाल के ओहदे पर एक यमदण्ड नाम का मनुष्य नियुक्त था। वहीं एक विद्युच्चर नाम का चोर रहता था । यह अपने चोरी के फन में बड़ा चलता हुआ था। सो यह क्या करता कि दिन में तो एक कोढ़ी के वेष में किसी सुनसान मन्दिर में रहता और ज्यों ही रात होती कि एक सुन्दर मनुष्य का वेष धारण कर खूब मजा - मौज मारता । यही ढंग इसका बहुत दिनों से चला आता था । पर इसे कोई पहचान न सकता था। एक दिन विद्युच्चर राजा के देखते-देखते खास उन्हीं के हार को चुरा लाया । पर राजा से तब कुछ भी न बन पड़ा। सुबह उठकर राजा ने कोतवाल को बुलाकर कहा- देखो, कोई चोर अपनी सुन्दर वेषभूषा से मुझे मुग्ध बनाकर मेरा रत्न-हार उठा ले गया है। इसलिए तुम्हें हिदायत की जाती है कि सात दिन के भीतर उस हार को या उसके चुरा ले जाने वाले को मेरे सामने उपस्थित करो, नहीं तो तुम्हें इसकी पूरी सजा भोगनी पड़ेगी। जान पड़ता है तुम अपने कर्तव्य पालन में बहुत त्रुटि करते हों । नहीं तो राजमहल में से चोरी हो जाना कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है । " हुक्म हुजूर का” कहकर कोतवाल चोर के ढूँढ़ने को निकला। उसने सारे शहर की गली - कूँची, घर-बार आदि एक-एक करके छान डाला, पर उसे चोर का पता कहीं न चला। ऐसे उसे छह दिन बीत गए। सातवें दिन वह फिर घर से बाहर हुआ। चलते- चलते उसकी नजर एक सुनसान मन्दिर पर पड़ी। वह उसके भीतर घुस गया। वहाँ उसने एक कोढ़ी को पड़ा पाया। उस कोढ़ी का रंग ढंग देखकर कोतवाल को कुछ सन्देह हुआ। उसने उससे कुछ बातचीत इस ढंग से की कि जिससे कोतवाल उसके हृदय का कुछ पता पा सके। यद्यपि उस बातचीत से कोतवाल को जैसी चाहिए थी वैसी सफलता न हुई, पर तब भी उसके पहले शक को सहारा अवश्य मिला। कोतवाल उस कोढ़ी को राजा के पास ले गया और बोला - महाराज, आपके हार का चोर है। राजा के पूछने पर उस कोढ़ी ने साफ इनकार कर दिया कि मैं चोर नहीं हूँ। मुझे ये जबरदस्ती पकड़ लाये है। राजा ने कोतवाल की ओर नजर की। कोतवाल ने फिर भी दृढ़ता के साथ कहा कि महाराज, यही चोर है । इसमें कोई सन्देह नहीं। कोतवाल को बिना कुछ सबूत के इस प्रकार जोर देकर कहते देखकर कुछ लोगों के मन में यह विश्वास जम गया कि यह अपनी रक्षा के लिए जबरन इस बेचारे गरीब भिखारी को चोर बताकर सजा दिलवाना चाहता है । उसकी रक्षा हो जाए, इस आशय से उन लोगों ने राजा से प्रार्थना की कि महाराज, कहीं ऐसा न हो कि बिना ही अपराध के इस गरीब भिखारी को कोतवाल साहब की मार खाकर बेमौत मर जाना पड़े और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये इसे मारेंगे अवश्य । तब कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे अपना हार भी मिल जाए और बेचारे गरीब की जान भी न जाए। जो हो, राजा ने उन लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दिया या नहीं, पर यह स्पष्ट है कि कोतवाल साहब उस गरीब कोढ़ी को अपने घर लिवा ले गए और जहाँ तक उनसे बन पड़ा। उन्होंने उसके मारने पीटने, सजा देने, बाँधने आदि में कोई कसर न की। वह कोढ़ी इतने दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी हर बार यही कहता रहा कि मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ। दूसरे दिन कोतवाल ने फिर उसे राजा के सामने खड़ा करके कहा - महाराज, यही पक्का चोर है। कोढ़ी ने फिर भी यही कहा कि महाराज मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ । सच है, चोर बड़े ही कट्टर साहसी होते हैं॥२-१५॥
    तब राजा ने उससे कहा- अच्छा, मैं तेरा सब अपराध क्षमा कर तुझे अभय देता हूँ, तू सच्चा- सच्चा हाल कर दे कि तू चोर है या नहीं? राजा से जीवनदान पाकर उस कोढ़ी या विद्युच्चर ने कहा- यदि ऐसा है तो लीजिए कृपानाथ, मैं सब सच्ची बात आपके सामने प्रकट करे देता हूँ। यह कहकर वह बोला-राजाधिराज, अपराध क्षमा हो । वास्तव में मैं ही चोर हूँ । आपके कोतवाल साहब का कहना सत्य है। सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने तब विद्युच्चर से पूछा - जब तू चोर था तब फिर तूने इतनी मारपीट कैसे सह ली रे? विद्युच्चर बोला-महाराज, इसका तो कारण यह है कि मैंने एक मुनिराज द्वारा नरकों के दुःखों का हाल सुन रखा था। तब मैंने विचारा कि नरकों के दुःखों में और इन दुःखों में तो पर्वत और राई का सा अन्तर है और जब मैंने अनन्त बार नरकों के भयंकर दुःख, जिनके कि सुनने मात्र से ही छाती दहल उठती है, सहे है तब इन तुच्छ, ना कुछ चीज दुःखों का सह लेना कौन बड़ी बात है! यही विचार कर मैंने सब कुछ सहकर चूँ तक भी नहीं की। विद्युच्चर से उसकी सच्ची घटना सुनकर राजा ने खुश होकर उसे वर दिया कि तुझे 'जो कुछ माँगना हो माँग’। मुझे तेरी बातें सुनने से बड़ी प्रसन्नता हुई तब विद्युच्चर ने कहा- महाराज, आपकी इस कृपा का मैं अत्यन्त उपकृत हूँ। इस कृपा के लिए आप जो कुछ मुझे देना चाहते हैं वह मेरे मित्र इन कोतवाल साहब को दीजिए। राजा सुनकर और भी अधिक अचम्भे में पड़ गए। उन्होंने विद्युच्चर से कहा- क्यों यह तेरा मित्र कैसे है ? विद्युच्चर ने तब कहा - सुनिए महाराज, मैं सब आपको खुलासा सुनाता हूँ। यहाँ से दक्षिण की ओर आभीर प्रान्त में बहने वाली वेना नदी के किनारे पर बेनातट नाम का एक शहर बसा हुआ है। उसके राजा जितशत्रु और उनकी रानी जयावती ये मेरे माता-पिता हैं । मेरा नाम विद्युच्चर है। मेरे शहर में एक यमपाश नाम के कोतवाल थे। उनकी स्त्री यमुना थी। ये आपके कोतवाल यमदण्ड साहब उन्हीं के पुत्र है। हम दोनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए है। इसलिए तभी से मेरी इनके साथ मित्रता है। विशेषता यह है कि इन्होंने तो कोतवाली सम्बन्धी शास्त्राभ्यास किया था और मैंने चौर्यशास्त्र का । यद्यपि मैंने यह विद्या केवल विनोद के लिए पढ़ी थी, तथापि एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी चतुरता की तारीफ कर रहे थे; तब मैंने जरा घमण्ड के साथ कहा-भाई, मैं अपने फन में कितना होशियार हूँ, इसकी परीक्षा मैं इसी से कराऊँगा कि जहाँ तुम कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त होगे, वहीं मैं आकर चोरी करूँगा । तब इन महाशय ने कहा- अच्छी बात है, मैं भी उसी जगह रहूँगा जहाँ तुम चोरी करोगे और मैं तुमसे शहर की अच्छी तरह रक्षा करूँगा। तुम्हारे द्वारा मैं उसे कोई तरह की हानि न पहुँचने दूँगा ॥१६-२९॥
    इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता जितशत्रु मुझे सब राजभार दे जिनदीक्षा ले गए। मैं तब राजा हुआ और इनके पिता यमपाश भी तभी जिनदीक्षा लेकर साधु बन गए । इनके पिता की जगह तब इन्हें मिली। पर ये मेरे डर के मारे मेरे शहर में न रहकर यहाँ कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त हुए। मैं अपनी प्रतिज्ञा के वश चोर बनकर इन्हें ढूंढ़ने को यहाँ आया । यह कहकर फिर विद्युच्चर ने उनके हार के चुराने के सब बातें कह सुनाई और फिर यमदण्ड को साथ लिए वह अपने शहर में आ गया ॥३०-३४॥
    विद्युच्चर को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ । उसने राजमहल में पहुँचते ही अपने पुत्र को बुलाया और उसके साथ जिनेन्द्र भगवान् का पूजा-अभिषेक किया। इसके बाद वह सब राजभार पुत्र को सौंपकर आप बहुत से राजकुमारों के साथ जिनदीक्षा ले मुनि बन गया ॥३५-३६॥
    यहाँ से विहार कर विद्युच्चर मुनि अपने सारे संघ को साथ लिए देश विदेशों में बहुत घूमे- फिरे । बहुत से बे-समझ या मोह-माया में फँसे हुए जनों को इन्होंने आत्महित के मार्ग पर लगाया और स्वयं भी काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेषादि आत्मशत्रुओं का प्रभुत्व नष्ट कर उन पर विजय लाभ किया। आत्मोन्नति के मार्ग में दिन ब दिन बेरोक-टोक ये बढ़ने लगे। एक दिन घूमते-फिरते ये ताम्रलिप्तपुरी की ओर आए। अपने संघ के साथ वे पुरी में प्रवेश करने को ही थे कि इतने में वहाँ की चामुण्डा देवी ने आकर भीतर घुसने से इन्हें रोका और कहा - योगिराज, जरा ठहरिए, अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। इसलिए जब तक वह पूरी न हो जाये तब तक आप यहीं ठहरें, भीतर न जायें । देवी के इस प्रकार मना करने पर भी अपने शिष्यों के आग्रह से वे न रुककर भीतर चले गए और पुरी के पश्चिम तरफ के परकोटे के पास कोई पवित्र जगह देखकर वहीं सारे संघ ने ध्यान करना शुरू कर दिया। अब तो देवी के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उसने अपनी माया से कोई कबूतर के बराबर डाँस तथा मच्छर आदि खून पीने वाले जीवों की सृष्टि रचकर मुनि पर घोर उपद्रव किया। विद्युच्चर मुनि ने इस कष्ट को बड़ी शान्ति से सह कर बारह भावनाओं के चिन्तन से अपने आत्मा को वैराग्य की ओर खूब दृढ़ किया और अन्त में शुक्ल - ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर अक्षय और अनन्त मोक्ष के सुख को अपनाया ॥३७-४५॥
    उन देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों तथा राजाओं - महाराजाओं द्वारा, जो अपने मुकुटों में जड़े हुए बहुमूल्य दिव्य रत्नों की कान्ति से चमक रहे हैं, बड़ी भक्ति से पूजा किए गए और केवलज्ञान से विराजमान वे विद्युच्चर मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को मंगल-मोक्ष सुख दें, जिससे संसार का भटकना छूटकर शान्ति मिले ॥४६॥
  6. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    देवों द्वारा पूजा भक्ति किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अभयघोष मुनिका चरित्र लिखा जाता है ॥१॥
    अभयघोष काकन्दी के राजा थे उनकी रानी का नाम अभयमती था। दोनों में परस्पर बहुत प्यार था। एक दिन अभयघोष घूमने को जंगल में गए हुए थे। इस समय एक मल्लाह एक बहुत बड़े और जीवित कछुए के चारों पाँव बाँध कर उसे लकड़ी में लटकाये हुए लिए जा रहा था। पापी अभयघोष की उस पर नजर पड़ गई उन्होंने मूर्खता के वश हो अपनी तलवार से उसके चारों पाँवों को काट दिया। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग बेचारे ऐसे निर्दोष जीवों को निर्दयता के साथ मार डालते हैं और न्याय-अन्याय का कुछ विचार नहीं करते! कछुआ उसी समय तड़फड़ा कर गत प्राण हो गया। मरकर वह अकाम - निर्जरा के फल से इन्हीं अभयघोष के यहाँ चंडवेग नाम का पुत्र हुआ ॥२-६॥
    एक दिन राजा को चन्द्र ग्रहण देखकर वैराग्य हुआ । उन्होंने विचार किया जो एक महान् तेजस्वी ग्रह है, जिसकी तुलना कोई नहीं कर सकता और जिसकी गणना देवों में है, वह भी जब दूसरों से हार खा जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या ? जिनके सिर पर काल सदा चक्कर लगाता रहता है। हाय, मैं बड़ा ही मूर्ख हूँ जो आज तक विषयों में फँसा रहा और कभी अपने हित की ओर मैंने ध्यान नहीं दिया। मोह रूपी गाढ़े अँधेरे ने मेरी दोनों आँखों को ऐसा अन्धा बना डाला, जिससे मुझे अपने कल्याण का रास्ता देखने या उस पर सावधानी के साथ चलने को सूझ ही न पड़ा। इसी मोह के पापमय जाल में फँस कर मैंने जैनधर्म से विमुख होकर अनेक पाप किए। हाय, मैं अब इस संसाररूपी अथाह समुद्र को पार कर सुखमय किनारे को कैसे प्राप्त कर सकूँगा? प्रभो, मुझे शक्ति प्रदान कीजिए, जिससे मैं आत्मिक सच्चा सुख पा सकूँ । इस विचार के बाद उन्होंने निश्चित किया कि जो हुआ सो हुआ । अब भी मुझे अपने कर्तव्य के लिए बहुत समय है। जिस प्रकार मैंने संसार में रहकर विषय सुख भोगा, शरीर और इन्द्रियों को खूब सन्तुष्ट किया, उसी तरह अब मुझे अपने आत्महित के लिए कड़ी से कड़ी तपस्या कर अनादि काल से पीछा किए हुए इन आत्मशत्रुरूपी कर्मों का नाश करना उचित हैं, यही मेरे पहले किए कर्मों का पूर्ण प्रायश्चित्त है और ऐसा करने से ही मैं शिवरमणी के हाथों का सुख - स्पर्श कर सकूँगा । इस प्रकार स्थिर विचार कर अभयघोष ने सब राजभार अपने कुँवर चण्डवेग को सौंप जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें आत्मशक्ति के बढ़ाने को सहायक बनाती है। इसके बाद अभयघोष मुनि संसार-समुद्र से पार करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज को नमस्कार कर और उनकी आज्ञा ले देश विदेशों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विचार कर गए। इसके कितने वर्षों बाद वे घूमते-फिरते फिर एक बार अपनी राजधानी काकन्दी की ओर आ निकले। एक दिन वे वीरासन से तपस्या कर रहे थे। इसी समय उनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला। पाठकों को याद होगा कि चण्डवेग की और इसके पिता अभयघोष की शत्रुता है। कारण चण्डवेग पूर्व जन्म में कछुआ था और उसके पाँव अभयघोष न काट डाले थे। चण्डवेग की जैसे ही इन पर नजर पड़ी उसे अपने पूर्व की घटना याद आ गई उसने क्रोध से अन्धे होकर उनके भी हाथ पाँवों को काट डाला। सच है धर्महीन अज्ञानी जन कौन पाप नहीं कर डालते ॥७-१६॥
    अभयघोष मुनि पर महान् उपसर्ग हुआ, पर वे तब भी मेरु के समान अपने कर्तव्य में दृढ़ बने रहे। अपने आत्मध्यान से वे रत्तीभर भी न डिगे। इसी ध्यान बल से केवलज्ञान प्राप्त कर अन्त में उन्होंने अक्षयान्त मोक्ष लाभ किया। सच है, आत्मशक्ति बड़ी गहन है, आश्चर्य पैदा करने वाली है। देखिए कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःसह कष्ट का आना और कहाँ मोक्ष प्राप्ति का कारण दिव्य आत्मध्यान ॥१७-१८॥
    सत्पुरुषों द्वारा सेवा किए गए वे अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्ष का सुख दें, जिन्होंने दुःसह परीषह को जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखों के देने वाले कर्मों का क्षय कर मोक्ष का सर्वोच्च सुख, जिस सुख की कोई तुलना नहीं कर सकता, प्राप्त किया ॥१९॥
  7. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार के सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों को देखने जानने के लिए केवलज्ञान जिनका सर्वोत्तम नेत्र है और जो पवित्रता की प्रतिमा और सब सुखों के दाता हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर कार्तिकेय मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    कार्तिकपुर के राजा अग्निदत्त की रानी वीरवती के कृतिका नाम की एक लड़की थी। एक बार अठाई के दिनों में उसने आठ दिन के उपवास किए। अन्त के दिन वह भगवान् की पूजा कर शेषा को- भगवान् के लिए चढ़ाई फूलमाला को लाई । उसे उसने अपने पिता को दिया। उस समय उसकी दिव्य रूपराशि को देखकर उसके पिता अग्निदत्त की नियत ठिकाने न रही। काम के वश हो उस पापी ने बहुत से अन्य धर्मी और कुछ जैन साधुओं को इकट्ठा कर उनसे पूछा -योगी-महात्माओं, आप कृपा कर मुझे बतलावें कि मेरे घर में पैदा हुए रत्न का मालिक मैं ही हो सकता हूँ या कोई और? राजा का प्रश्न पूरा होता है कि सब ओर से एक ही आवाज आई कि महाराज, उस रत्न के तो आप ही मालिक हो सकते हैं, न कि दूसरा। पर जैन साधुओं ने राजा के प्रश्न पर कुछ गहरा विचार कर इस रूप में राजा के प्रश्न का उत्तर दिया- राजन्, यह बात ठीक है कि अपने यहाँ उत्पन्न हुए रत्न के मालिक आप हैं, पर एक कन्या-रत्न को छोड़कर। उसकी मालिकी पिता के नाते से ही आप कर सकते हैं और रूप में नहीं। जैन साधुओं का यह हित भरा उत्तर राजा को बड़ा बुरा लगा और लगना ही चाहिए क्योंकि पापियों को हित की बात कब सुहाती है? राजा ने गुस्सा होकर उन मुनियों को देश बाहर कर दिया और अपनी लड़की के साथ स्वयं ब्याह कर लिया । सच है, जो पापी हैं, कामी हैं जिन्हें आगामी दुर्गतियों में दुःख उठाना है, उसमें कहाँ धर्म, कहाँ लाज, कहाँ नीति-सदाचार और कहाँ सुबुद्धि ? ॥२-९॥
    कुछ दिनों बाद कृतिका के दो सन्तान हुई एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्र का नाम रखा कार्तिकेय और पुत्री का नाम वीरमती । वीरमती बड़ी खूबसूरत थी । उसका ब्याह रोहेड़ नगर के राजा क्रोंच के साथ हुआ। वीरमती वहाँ रहकर सुख के साथ दिन बिताने लगी ॥१०-११॥
    इधर कार्तिकेय भी बड़ा हुआ। अब उसकी उम्र कोई १४ वर्ष की हो गई थी। एक दिन वह अपने साथी राजकुमारों के साथ खेल रहा था। वे सब अपने नाना के यहाँ से आए हुए अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण पहने हुए थे। पूछने पर कार्तिकेय को ज्ञात हुआ कि वे वस्त्राभरण उन सब राजकुमारों के नाना-मामा के यहाँ से आए हैं। तब उसने अपनी माँ से जाकर पूछा- क्यों माँ! मेरे साथी राजपुत्रों के लिए तो उनके नाना-मामा अच्छे-अच्छे वस्त्राभरण भेजते हैं, भला फिर मेरे नाना-मामा मेरे लिए क्यों नहीं भेजते हैं? अपने प्यारे पुत्र की ऐसी भोली बात सुनकर कृतिका का हृदय भर आया। आँखों से आँसू बह चले । अब वह उसे क्या कहकर समझायें और कहने को जगह ही कौन सी बच रही थी परन्तु अबोध पुत्र के आग्रह से उसे सच्ची हालत कहने को बाध्य होना पड़ा। वह रोती हुई बोली- बेटा, मैं इस महापाप की बात तुझसे क्या कहूँ । कहते हुए छाती फटती है। जो बात कभी नहीं हुई, वही बात मेरे तेरे सम्बन्ध में है। वह केवल यही कि जो मेरे पिता हैं वे ही तेरे भी पिता हैं। मेरे पिता ने मुझसे बलात् ब्याह कर मेरी जिन्दगी कलंकित की । उसकी करनी का तू फल है। कार्तिकेय को काटो तो खून नहीं। उसे अपनी माँ का हाल सुनकर बेहद दुःख हुआ । लज्जा और आत्मग्लानि से उसका हृदय तिलमिला उठा। इसके लिए वह लाइलाज था। उसने फिर अपनी माँ से पूछा- तो क्यों माँ! उस समय मेरे पिता को ऐसा अनर्थ करते किसी ने रोका नहीं, सब कानों में तेल डाले पड़े रहे? उसने कहा- बेटा !रोका क्यों नहीं? जैन मुनियों ने उन्हें रोका था, पर उनकी कोई बात नहीं सुनी गई, उल्टे वे ही देश से निकाल दिये गए ॥१२-१७॥
    कार्तिकेय ने तब पूछा-माँ वे गुणवान् मुनि कैसे होते हैं? कृतिका बोली बेटा! वे कभी कपड़े नहीं पहनते, उनका वस्त्र केवल यह आकाश है। वे बड़े दयावान् होते हैं, कभी किसी जीव को जरा भी नहीं सताते! इसी दया को पूरी तौर से पालने के लिए वे अपने पास सदा मोर के अत्यन्त कोमल पंखों की एक पीछी रखते हैं और जहाँ उठते-बैठते हैं, वहाँ की जमीन को पहले उस पीछी से झाड़- पोंछकर साफ कर लेते हैं । उनके हाथ में लकड़ी का एक कमण्डलु होता है, जिसमें वे शौच वगैरह के लिए प्रासु (जीवरहित) पानी रखते हैं। अपनी माता द्वारा जैन साधुओं की तारीफ सुनकर कार्तिकेय की उन पर बड़ी श्रद्धा हो गई उसे अपने पिता के कार्य से वैराग्य तो पहले ही हो चुका था, घर से निकल गया और मुनियों के स्थान तपोवन में जा पहुँचा । मुनियों का संघ देख उसे बड़ी प्रसन्नता हुई उसने बड़ी भक्ति से उन सब साधुओं को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दीक्षा के लिए उनसे प्रार्थना की। संघ के आचार्य ने उसे होनहार जान दीक्षा दे मुनि बना लिया। कुछ दिनों में ही कार्तिकेय मुनि, आचार्य के पास शास्त्राभ्यास कर बड़े विद्वान् हो गए । कार्तिकेय की जुदाई का दुःख सहना उसकी माँ के लिए बड़ा कठिन हो गया । दिनों-दिन उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और आखिर वह पुत्र शोक से मृत्यु को प्राप्त हुई। मरते समय भी वह पुत्र के आर्तध्यान से मरी, अतः मरकर व्यन्तर देवी हुई। उधर कार्तिकेय मुनि घूमते-फिरते एक बार रोहेड़ नगरी की ओर आ गए, जहाँ इनकी बहिन ब्याही थी । ज्येष्ठ का महीना था। खूब गर्मी थी । अमावस्या के दिन कार्तिकेय मुनि शहर में आहार के लिए गए। राजमहल के नीचे होकर वे जा रहे थे कि ऊपर महल पर बैठी हुई उनकी बहिन वीरमती की नजर पड़ गई वह उसी समय अपनी गोद में सिर रखकर लेटे हुए पति के सिर को नीचे रखकर दौड़ी हुई भाई के पास आई और बड़ी भक्ति से उसने भाई को हाथ जोड़कर नमस्कार किया। प्रेम के वशीभूत हो वह उसके पाँवों में गिर पड़ी और ठीक है - भाई होकर फिर मुनि हो तब किसका प्रेम उन पर न हो? क्रौंचराज ने जब एक नंगे भिखारी के पाँव पड़ते अपनी रानी को देखा तब उसके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने आकर मुनि को खूब मार लगाई यहाँ तक कि मुनि मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। सच है, पापी, मिथ्यात्वी और जैनधर्म से द्वेष करने वाले लोग ऐसा कौन सा नीच कर्म नहीं कर गुजरते जो जन्म-जन्म में अनन्त दुःखों का देने वाला न हो ॥१८-२८॥
    कार्तिकेय को अचेत पड़े देखकर उनकी पूर्वजन्म की माँ, जो इस जन्म में व्यन्तर देवी हो गई थीं, मोरनी का रूप ले उनके पास आई और उन्हें उठा लाकर बड़े यत्न से शीतलनाथ भगवान् के मन्दिर में एक निरापद जगह में रख दिया। कार्तिकेय मुनि की हालत बहुत खराब हो चुकी थी । उनके अच्छे होने की कोई सूरत न थी । इसलिए ज्योंही मुनि को मूर्च्छा से चेत हुआ उन्होंने समाधि ले ली। उसी दशा में शरीर छोड़कर वे स्वर्गधाम सिधारे। तब देवों ने आकर उनकी भक्ति से बड़ी पूजा की। उसी दिन से वह स्थान भी कीर्तिकेय तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बे वीरमती के भाई थे इसलिए' भाई दूज' के नाम से दूसरा लौकिक पर्व प्रचलित हुआ ॥२९-३३॥
    आप लोग जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट ज्ञान का अभ्यास करें । वह सब सन्देहों का नाश करने वाला और स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख प्रदान करने वाला है। जिनका ऐसा उच्च ज्ञान संसार के पदार्थों का स्वरूप दिखाने के लिए दिये की तरह सहायता करने वाला है वे देवों द्वारा पूजे जाने वाले, जिनेन्द्र भगवान् मुझे भी कभी नाश न होने वाला सुख देकर अविनाशी बनावें ॥३४-३५॥
  8. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन्हें सारा संसार बड़े आनन्द के साथ सिर झुकाता है, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन का चरित लिखा जाता है ॥१॥
    उज्जैन के राजा प्रद्योत एक दिन उन्मत्त हाथी पर बैठकर हाथी पकड़ने के लिए स्वयं किसी एक घने जंगल में गए। हाथी इन्हें बड़ी दूर ले भागा और आगे-आगे भागता ही चला जाता था। इन्होंने उसके ठहराने की बड़ी कोशिश की, पर उसमें वे सफल नहीं हुए । भाग्य से हाथी एक झाड़ के नीचे होकर जा रहा था कि इन्हें सुबुद्धि सूझ गई वे उसकी टहनी पकड़ कर लटक गए और फिर धीरे-धीरे नीचे उतर आए। यहाँ से चलकर वे खेट नाम के एक छोटे से पर बहुत सुन्दर गाँव के पास पहुँचे। एक पनघट पर जाकर ये बैठ गये । उन्हें बड़ी प्यास लग रही थी । इन्होंने उसी समय पनघट पर पानी भरने को आई हुई जिनपाल की लड़की जिनदत्ता से जल पिला देने के लिए कहा। उसने इनके चेहरे के रंग-ढंग से इन्हें कोई बड़ा आदमी समझ जल पिला दिया। बाद में अपने घर पर आकर उसने प्रद्योत का हाल अपने पिता से कहा । सुनकर जिनपाल दौड़ा हुआ आकर उन्हें अपने घर लिवा लाया और बड़े आदर सत्कार के साथ उसने उन्हें स्नान-भोजन कराया। प्रद्योत उसकी इस मेहमानी से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने जिनपाल को अपना सब परिचय दिया। जिनपाल ने ऐसे महान् अतिथि द्वारा अपना घर पवित्र होने से अपने को बड़ा भाग्यशाली माना । वे कुछ दिन वहाँ और ठहरे। इतने में उनके सब नौकर-चाकर भी उन्हें लिवाने को आ गए। प्रद्योत अपने शहर जाने को तैयार हुए। इसके पहले एक बात कह देने की है कि जिनदत्ता को जबसे प्रद्योत ने देखा तब ही से उनका उस पर अत्यन्त प्रेम हो गया था और इसी से जिनपाल की सम्मति पा उन्होंने उसके साथ ब्याह भी कर लिया था । दोनों नव दम्पत्ति सुख के साथ अपने राज्य में आ गए। जिनदत्ता को तब प्रद्योत ने अपनी पट्टरानी का सम्मान दिया। सच है, समय पर दिया हुआ थोड़ा भी दान बहुत ही सुखों का देने वाला होता है। जैसे वर्षाकाल में बोया हुआ बीज बहुत फलता है । जिनदत्ता के उस जलदान से, जो उसने प्रद्योत को किया था, जिनदत्ता को एक राजरानी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे नये दम्पत्ति सुख से समय बिताने लगे, प्रतिदिन नये-नये सुखों का स्वाद लेने में इनके दिन कटने लगे ॥२- १०॥
    कुछ दिनों बाद इनके एक पुत्र हुआ। जिस दिन पुत्र होने वाला था, उसी रात को राजा ने सपने में एक सफेद बैल को देखा था । इसलिए पुत्र का नाम भी उन्होंने वृषभसेन रख दिया। पुत्र- लाभ होने के बाद राजा की प्रवृत्ति धर्म - कार्यों की ओर अधिक झुक गई वे प्रतिदिन पूजा, प्रभावना, अभिषेक, दान आदि पवित्र कार्यों को बड़ी भक्ति - श्रद्धा के साथ करने लगे। इसी तरह सुख के साथ कोई आठ बरस बीत गए। जब वृषभसेन कुछ होशियार हुआ तब एक दिन राजा ने उससे कहा- बेटा, अब तुम अपने इस राज्य के कार्य - भार को सम्भालो । मैं अब जिन भगवान् के उपदेश किए पवित्र तप को ग्रहण करता हूँ। वही शान्ति प्राप्ति का कारण है। वृषभसेन ने तब कहा-पिताजी, आप तप क्यों ग्रहण करते हैं, क्या परलोक - सिद्धि, मोक्ष - प्राप्ति राज्य करते हुए नहीं हो सकती है? राजा ने कहा-बेटा हाँ, जिसे सच्ची सिद्धि या मोक्ष कहते हैं, वह बिना तप किए नहीं होती। जिन भगवान् ने मोक्ष का कारण एक मात्र तप बताया है । इसलिए आत्महित करने वालों को उसका ग्रहण करना अत्यन्त ही आवश्यक है । राजपुत्र वृषभसेन ने तब कहा - पिताजी, यदि यह बात है तो फिर मैं इस दुःख के कारण राज्य को लेकर क्या करूँगा? कृपाकर यह भार मुझ पर न रखिए। राजा ने वृषभसेन को बहुत समझाया, पर उसके ध्यान में तप छोड़कर राज्यग्रहण करने की बात बिल्कुल न आयी। लाचार हो राजा राज्यभार अपने भतीजे को सौंपकर आप पुत्र के साथ जिनदीक्षा ले ली ॥११- १८॥
    यहाँ से वृषभसेन मुनि तपस्या करते हुए अकेले ही देश, विदेशों में धर्मोपदेशार्थ घूमते-फिरते एक दिन कौशाम्बी के पास आ एक छोटी-सी पहाड़ी पर ठहरे। समय गर्मी का था। बड़ी तेज धूप पड़ती थी। मुनिराज एक पवित्र शिला पर कभी बैठे और कभी खड़े इस कड़ी धूप में योग साधा करते थे। उनकी इस कड़ी तपस्या और आत्मतेज से दिपते हुए उनके शारीरिक सौन्दर्य को देख लोगों की उन पर बड़ी श्रद्धा हो गई जैनधर्म पर उनका विश्वास खूब दृढ़ जम गया ॥१९-२१॥
    एक दिन चारित्रचूड़ामणि श्रीवृषभसेन मुनि आहार के लिए शहर में गए हुए थे कि पीछे से किसी जैनधर्म के प्रभाव को न सहने वाले बुद्धदास नाम के बुद्धधर्मी ने मुनिराज के ध्यान करने की शिला को आग से तपाकर लाल सुर्ख कर दिया। सच है, साधु-महात्माओं का प्रभाव दुर्जनों से नहीं सहा जाता। जैसे सूरज के तेज को उल्लू नहीं सह सकता। जब मुनिराज आहार कर लौटे और उन्होंने शिला को अग्नि की तपी हुई देखा, यदि वे चाहते और भौतिक शरीर से उन्हें मोह होता तो बिना शक वे अपनी रक्षा कर सकते थे। पर उनमें यह बात न थी; वे कर्तव्यशील थे, अपनी प्रतिज्ञाओं का पालना वे सर्वोच्च समझते । यही कारण था कि वे संन्यास की शरण ले उस आग से धधकती शिला पर बैठ गए। उस समय उनके परिणाम इतने ऊँचे चढ़े कि उन्हें शिला पर बैठते ही केवलज्ञान हो गया और उसी समय अघातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने निर्वाण- - लाभ किया । सच है, महापुरुषों का चारित्र मेरु से भी कहीं अधिक स्थिर होता है ॥२२-२७॥ 
    जिसके चित्तरूपी अत्यन्त ऊँचे पर्वत की तुलना में बड़े-बड़े पर्वत एक ना कुछ चीज परमाणु की तरह दीखने लगते हैं, समुद्र दूबा की अणी पर ठहरे जल कण सा प्रतीत होता है, वे गुणों के समुद्र और कर्मों को नाश करने वाले वृषभसेन जिन मुझे अपने गुण प्रदान करें, जो सब मनचाही सिद्धियों के देने वाले हैं॥२८॥
  9. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    केवलज्ञानरूपी सर्वोच्च लक्ष्मी के जो स्वामी हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्रीदत्त मुनि की कथा लिखी जाती हैं, जिन्होंने देवों द्वारा दिये हुए कष्ट को बड़ी शान्ति से सहा ॥१॥
    श्रीदत्त इलावर्द्धनपुरी के राजा जितशत्रु की रानी इला के पुत्र थे । अयोध्या के राजा अंशुमान की राजकुमारी अंशुमती से इनका ब्याह हुआ था । अंशुमती ने एक तोते को पाल रखा था। जब ये पति- पत्नी विनोद के लिए चौपड़ वगैरह खेलते तब तोता कौन कितनी बार जीता, इसके लिए अपने पैर के नख से रेखा खींच दिया करता था। पर इसमें यह दुष्टता थी कि जब श्रीदत्त जीतता तब तो यह एक ही रेखा खींचता और जब अपनी मालकिन की जीत होती तब दो रेखाएँ खींच दिया करता था। आश्चर्य है कि पक्षी भी ठगाई कर सकते है । श्रीदत्त तोते की इस चालाकी को कई बार तो सहन कर गया। पर आखिर उसे तोते पर बहुत गुस्सा आया । सो उसने तोते की गरदन पकड़ कर मरोड़ दी । तोता उसी दम मर गया। बड़े कष्ट के साथ मरकर वह व्यन्तरदेव हुआ ॥२-६॥
    इधर साँझ को एक दिन श्रीदत्त अपने महल पर बैठा हुआ प्रकृति की सुन्दरता को देख रहा था। इतने में एक बादल का बड़ा भारी टुकड़ा उसकी आँखों के सामने से गुजरा। वह थोड़ी दूर न गया होगा कि देखते देखते छिन्न-भिन्न हो गया। उसकी इस क्षण नश्वरता का श्रीदत्त के चित्त पर बहुत असर पड़ा। संसार की सब वस्तुएँ उसे बिजली की तरह नाशवान् दिखाई पड़ने लगीं। सर्प के समान भयंकर विषय-भोगों से उसे डर लगने लगा। शरीर जिससे कि वह बहुत प्यार करता था सर्व अपवित्रता का स्थान जान पड़ने लगा। उसे ज्ञान हुआ कि ऐसे दुःखमय और देखते-देखते नष्ट होने वाले संसार के साथ जो प्रेम करते हैं, माया-ममता बढ़ाते हैं, वे बड़े बे समझ हैं। वह अपने लिए भी बहुत पछताया कि हाय! मैं कितना मूर्ख हूँ जो अब तक अपने हित को न शोध सका । मतलब यह है कि संसार की दशा से उसे बड़ा वैराग्य हुआ और अन्त में वह सुख के कारण जिनदीक्षा ले ही गया ॥७-१०॥
    इसके बाद श्रीदत्त मुनि ने बहुत से देशों और नगरों में भ्रमण कर अनेक भव्य-जनों को सम्बोधा, उन्हें आत्महित की ओर लगाया । घूमते-फिरते वे एक बार अपने शहर की ओर आ गए। समय जाड़े का था। एक दिन श्रीदत्त मुनि शहर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे, उन्हें ध्यान में खड़ा देख उस तोते के जीव को, जिसे श्रीदत्त ने गर्दन मरोड़ मार डाला था और जो मरकर व्यन्तर हुआ था, अपने बैरी पर बड़ा क्रोध आया। उस बैर का बदला लेने के अभिप्राय से उसने मुनि पर बड़ा उपद्रव किया। एक तो वैसे ही जाड़े का समय, उस पर इसने बड़ी जोर की ठंडी-ठार हवा चलाई, पानी बरसाया, , ओले गिराये। मतलब यह कि उसने अपना बदला चुकाने में मुनि को बहुत कष्ट दिया। श्रीदत्त मुनिराज ने इन सब कष्टों को बड़ी शान्ति और धीरज के साथ सहा । व्यन्तर उनका पूरा दुश्मन था, पर तब भी इन्होंने उस पर रंच मात्र भी क्रोध न किया। वे वैरी और हितैषी को सदा समान भाव से देखते थे । अन्त में शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर वे कभी नाश न होने वाले मोक्ष स्थान को चले गए ॥११- १५॥
    जितशत्रु  राजा के पुत्र श्रीदत्त मुनि देवकृत कष्टों को बड़ी शान्ति के साथ सहकर अन्त में शुक्लध्यान द्वारा सब कर्मों का नाश कर मोक्ष गए। वे केवलज्ञानी भगवान् मुझे अपनी भक्ति प्रदान जितशत्रु करें, जिससे मुझे भी शान्ति प्राप्त हो ॥१६॥
  10. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    सत्य धर्म का उपदेश करने वाले अतएव सारे संसार के स्वामी जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्रीधर्मघोष मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    एक महीना के उपवास से धर्ममूर्ति श्रीधर्मघोष मुनि एक दिन चम्पापुरी के किसी मुहल्ले में पारणा कर तपोवन की ओर लौट रहे थे। रास्ता भूल जाने से उन्हें बड़ी दूर तक हरी-हरी घास पर चलना पड़ा। चलने में अधिक परिश्रम होने से थकावट के मारे उन्हें प्यास लग आई, वे आकर गंगा के किनारे एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठे गए। उन्हें प्यास से कुछ व्याकुल से देखकर गंगा देवी पवित्र जल का भरा एक लोटा लेकर उनके पास आई वह उनसे बोली- योगिराज, मैं आपके लिए ठंडा पानी लाई हूँ, आप इसे पीकर प्यास शान्त कीजिए। मुनि ने कहा- देवी, तूने अपना कर्तव्य पूरा किया, यह तेरे लिए उचित ही था; पर हमारे लिए देवों द्वारा दिया गया आहार- पानी काम नहीं आता । देवी सुनकर बड़ी चकित हुई वह उसी समय इसका कारण जानने के लिए विदेह क्षेत्र में गई और वहाँ सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर उसने पूछा-भगवान्, एक प्यासे मुनि को मैं जल पिलाने गई, पर उन्होंने मेरे हाथ का पानी नहीं पिया; इसका क्या कारण है? तब भगवान् ने इसके उत्तर में कहा- देवों का दिया आहार मुनि लोग नहीं कर सकते । भगवान् का उत्तर सुन देवी निरुपाय हुई तब उसने मुनि को शान्ति प्राप्त हो, इसके लिए उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जल की वर्षा शुरू की । उससे मुनि को शान्ति प्राप्त हुई। इसके बाद शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्ग के देव उनकी पूजा करने को आए । अनेक भव्य-जनों को आत्म-हित के रास्ते पर लगा कर अन्त में उन्होंने निर्वाण लाभ किया ॥२-१२॥
    वे धर्मघोष मुनिराज आपको तथा मुझे भी सुखी करें, जो पदार्थों की सूक्ष्म स्थिति देखने के लिए केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं, भव्य जनों को हितमार्ग में लगाने वाले हैं, लोक तथा अलोक के जानने वाले हैं, देवों द्वारा पूजित हैं और भव्य - जनों के मिथ्यात्व, मोहरूपी गाढ़े अन्धकार को नाश करने के लिए सूर्य हैं ॥१३॥
  11. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    लोक और अलोक के प्रकाश करने वाले- उन्हें देख जानकर उनके स्वरूप को समझाने वाले श्रीसर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर बत्तीस सेठ पुत्रों की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    कौशाम्बी में बत्तीस सेठ थे । उनके नाम थे इन्द्रदत्त, जिनदत्त, सागरदत्त आदि । इनके पुत्र भी बत्तीस ही थे। उनके नाम समुद्रदत्त, वसुमित्र, नागदत्त, जिनदास आदि थे। ये सब ही धर्मात्मा थे, जिनभगवान् के सच्चे भक्त थे, विद्वान् थे, गुणवान् थे और सम्यक्त्वरूपी रत्न से भूषित थे। इन सबकी परस्पर में बड़ी मित्रता थी । वह एक उनके पुण्य का उदय कहना चाहिए जो सब ही धनवान्, सब ही गुणवान्, सब ही धर्मात्मा और सबकी परस्पर में गाड़ी मित्रता । बिना पुण्य के ऐसा योग कभी मिल ही नहीं सकता ॥२-५॥
    एक दिन ये सब ही मित्र मिलकर एक केवलज्ञानी योगिराज की पूजा करने को गए । भक्ति से इन्होंने भगवान् की पूजा की और फिर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना। भगवान् से पूछने पर इन्हें जान पड़ा कि इनकी उमर अब बहुत थोड़ी रह गई है। तब अन्त समय में आत्म हित साधने के योग को उचित समझ उन सभी ने संसार का भटकना मिटाने वाली जिनदीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर तपस्या करते हुए ये यमुना नदी के किनारे पर आए। यहीं इन्होंने प्रायोपगमन संन्यास ले लिया ।भाग्य से इन्हीं दिनों में खूब जोर की वर्षा हुई । नदी, नाले सब पूर आ गए। यमुना भी खूब चढ़ी। एक जोर का ऐसा प्रवाह आया कि ये सभी मुनि उसमें बह गए। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर स्वर्ग गए। सच है - महापुरुषों का चरित्र सुमेरु से कहीं स्थिरशाली होता है । स्वर्ग में दिव्य सुखों को भोगते हुए वे सब जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति में सदा लीन रहते हैं ॥६-१२॥
    कर्मों को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें। उनका पवित्र शासन संसार में सदा रहकर जीवों का हित साधन करे। उनका सर्वोच्च चारित्र अनेक प्रकार के दुःसह कष्टों को सहकर भी मेरु सदृश स्थिर रहता है, उसकी तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती, वह संसार में सर्वोत्तम आदर्श है, भव - भ्रमण मिटाने वाला है, परम सुख का स्थान है और मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आत्म शत्रुओं का नाश करने वाला है, उन्हें जड़ मूल से उखाड़ फेंक देने वाला है। हे भव्यजन! आप भी इस उच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करिये, ताकि आप भी परमसुख -मोक्ष के पात्र बन सकें । जिनेन्द्र भगवान् इसके लिए आप सबको शक्ति प्रदान करें, यही भावना है॥१३॥
    प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञान भास्कराः ।
    कुर्वन्तु जगतः शान्तिं वृषभाद्या जिनेश्वराः॥
    ॥ इति आराधना कथाकोश द्वितीय भाग ॥
  12. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार का कल्याण करने वाले और देवों द्वारा नमस्कार किए गए श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु मुनिराज की कथा लिखी जाती है, जो कथा सबका हित करने वाली है ॥१॥
    पुण्ड्रवर्द्धन देश के कोटीपुर नामक नगर के राजा पद्मरथ के समय में वहाँ सोमशर्मा नाम का एक पुरोहित ब्राह्मण था । इसकी स्त्री का नाम श्रीदेवी था । कथा - नायक भद्रबाहु इसी के लड़के थे। भद्रबाहु बचपन से ही शान्त और गम्भीर प्रकृति के थे । उनके भव्य चेहरे को देखने से यह झट : से कल्पना होने लगती थी कि ये आगे चलकर कोई बड़े भारी प्रसिद्ध महापुरुष होंगे क्योंकि यह कहावत बिल्कुल सच्ची है कि “पूत के पग पालने में ही नजर आ जाते हैं।” अस्तु ॥२-३॥
    जब भद्रबाहु आठ वर्ष के हुए और इनका यज्ञोपवीत और मूँजीबंधन हो चुका था तब एक दिन की बात है कि ये अपने साथी बालकों के साथ खेल रहे थे । खेल था गोलियों का । सब अपनी-अपनी होशियारी और हाथों की सफाई से गोलियों को एक पर एक रखकर दिखला रहे थे । किसी ने दो, किसी ने चार, किसी ने छह और किसी-किसी ने अपनी होशियारी से आठ गोलियाँ तक ऊपर तले चढ़ा दी। पर हमारे कथानायक भद्रबाहु इन सबसे बढ़कर निकले। इन्होंने एक साथ चौदह गोलियाँ तले ऊपर चढ़ा दीं। सब बालक देखकर दंग रहे गए। इसी समय एक घटना हुई वह यह कि-श्रीवर्धमान भगवान् को निर्वाण लाभ के बाद होने वाले पाँच श्रुतकेवलियों में चौदह महापूर्व के जानने वाले चौथे श्रुतकेवली श्री गोवर्द्धनाचार्य गिरनार की यात्रा को जाते हुए इस ओर आ गए। उन्होंने भद्रबाहु के खेल की इस चकित करने वाली चतुरता को देखकर निमित्तज्ञान से समझ लिया कि पाँचवें होने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं। भद्रबाहु से उनका नाम वगैरह जानने पर उन्हें और भी दृढ़ निश्चय हो गया । वे भद्रबाहु को साथ लिए उसके घर पर गये । सोमशर्मा से उन्होंने भद्रबाहु को पढ़ाने के लिए माँगा । सोमशर्मा ने कुछ आनाकानी न कर अपने लड़के को आचार्य महाराज के सुपुर्द कर दिया । आचार्य ने भद्रबाहु को लाकर खूब पढ़ाया और सब विषयों में उसे आदर्श विद्वान् बना दिया। जब आचार्य ने देखा कि भद्रबाहु अच्छा विद्वान् हो गया तब उन्होंने उसे वापस घर लौटा दिया इसीलिए कि कहीं सोमशर्मा यह न समझ ले कि मेरे लड़के को बहका कर इन्होंने साधु बना लिया । भद्रबाहु घर गए सही, पर अब उनका मन घर में न लगा। उन्होंने माता-पिता से अपने साधु होने की प्रार्थना की। माता-पिता को उनकी इस इच्छा से बड़ा दुःख हुआ। भद्रबाहु ने उन्हें समझा बुझाकर शान्त किया और आप सब माया-मोह छोड़कर गोवर्द्धनाचार्य द्वारा दीक्षा ले योगी हो गए। सच है, जिसने तत्त्वों का स्वरूप समझ लिया वह फिर गृह जंजाल को क्यों अपने सिर पर उठायेगा? जिसने अमृत चख लिया है वह फिर क्यों खारा जल पीयेगा? मुनि होने के बाद भद्रबाहु अपने गुरुमहाराज गोवर्द्धनाचार्य की कृपा से चौदह महापूर्व के भी विद्वान् हो गए। जब संघाधीश गोवर्द्धनाचार्य का स्वर्गवास हो गया तब उनके बाद पट्ट पर भद्रबाहु श्रुतकेवली ही बैठे। जब भद्रबाहु आचार्य अपने संघ को साथ लिए अनेक देशों और नगरों में अपने उपदेशामृत द्वारा भव्यजनरूपी धन को बढ़ाते हुए उज्जैन की ओर आए और सारे संघ को एक पवित्र स्थान में ठहरा कर आप आहार के लिए शहर में गए। जिस घर में इन्होंने पहले ही पाँव दिया वहाँ एक बालक पालने में झूल रहा था और जो अभी स्पष्ट बोलना तक न जानता था; इन्हें घर में पाँव रखते देख वह सहसा बोल उठा कि “महाराज, जाइए! जाइए! जाइए!! एक अबोध बालक का बोलना देखकर भद्रबाहु आचार्य बड़े चकित हुए । उन्होंने उस पर निमित्तज्ञान से विचार किया तो उन्हें जान पड़ा कि यहाँ बारह वर्ष का भयानक दुर्भिक्ष पड़ेगा और वह इतना भीषणरूप धारण करेगा कि धर्म- कर्म की रक्षा तो दूर रहे, पर मनुष्यों को अपनी जान बचाना भी कठिन हो जाएगा। भद्रबाहु आचार्य उसी समय अन्तराय कर लौट आए। शाम के समय उन्होंने अपने सारे संघ को इकट्ठा कर उनसे कहा—साधुओं, यहाँ बारह वर्ष का बड़ा भारी अकाल पड़ने वाला है, और तब धर्म-कर्म का निर्वाह होना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाएगा। इसलिए आप लोग दक्षिण दिशा की ओर जायें और मेरी आयु बहुत ही थोड़ी रह गई है। इसलिए मैं इधर ही रहूँगा। यह कहकर उन्होंने दसपूर्व के जानने वाले अपने प्रधान शिष्य श्री विशाखाचार्य को चारित्र की रक्षा के लिए सारे संघसहित दक्षिण की ओर रवाना कर दिया। दक्षिण की ओर जाने वाले उधर सुख - शान्ति से रहे । उसका चारित्र निर्विघ्न पला और सच है, गुरु के वचनों का मानने वाले शिष्य सदा सुखी रहते हैं ॥४-२३॥
    सारे संघ को चला गया देख उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को उसके वियोग का बहुत रंज हुआ। उसने भी दीक्षा ले मुनि बन गए और भद्रबाहु आचार्य की सेवा में रहे । आचार्य की आयु थोड़ी रह गई थी, इसलिए उन्होंने उज्जैन में ही किसी एक बड़ के झाड़ के नीचे समाधि ले ली और भूख-प्यास आदि की परीषह जीतकर अन्त में स्वर्गलाभ किया। वे जैनधर्म के सार तत्त्व को जानने वाले महान् तपस्वी श्रीभद्रबाहु आचार्य हमें सुखमयी सन्मार्ग में लगावें ॥२४-२७॥
    सोमशर्मा ब्राह्मण के वंश के एक चमकते हुए रत्न, जिनधर्मरूप समुद्र के बढ़ाने को पूर्ण चन्द्रमा और मुनियों के, योगियों के शिरोमणि श्रीभद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली हमें वह लक्ष्मी दें जो सर्वोच्च सुख की देने वाली है, सब धन-दौलत, वैभव - सम्पत्ति में श्रेष्ठ है ॥२८॥
  13. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सुख के देने वाले और सत्पुरुषों से पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्री पणिक नाम के मुनि की कथा लिखी जाती है, जो सबका हित करने वाली है ॥१॥
    पणीश्वर नामक शहर के राजा प्रजापाल के समय वहाँ सागरदत्त नाम का एक सेठ हो चुका है। उसकी स्त्री का नाम पणिका था । उसका एक लड़का था । उसका नाम पणिक था । पणिक सरल, शान्त और पवित्र हृदय का था। पाप कभी उसे छू भी न गया था। सदा अच्छे रास्ते पर चलना उसका कर्तव्य था। एक दिन वह भगवान् के समवसरण में गया, जो कि रत्नों के तोरणों से बड़ी ही सुन्दरता धारण किए हुए था और अपनी मानस्तंभादि शोभा से सबके चित्त को आनन्दित करने वाला था। वहाँ उसने वर्धमान भगवान् को गंधकुटी पर विराजे हुए देखा । भगवान् की इस समय की शोभा अपूर्व और दर्शनीय थी। वे रत्न- -जड़े सोने के सिंहासन पर विराजे हुए थे, पूनम के चन्द्रमा को शर्मिन्दा करने वाले तीन छत्र उन पर शोभा दे रहे थे, मोतियों के हार के समान उज्ज्वल और दिव्य चँवर उन पर दुर रहे थे, एक साथ उदय हुए अनेक सूर्यों के तेज को जिनके शरीर की कान्ति दबाती थी, नाना प्रकार की शंकाओं को मिटाने वाली दिव्यध्वनि द्वारा जो उपदेश कर रहे थे, देवों के बजाये दुन्दुभि नाम के बाजों से आकाश और पृथ्वी मण्डल शब्दमय बन गया था । इन्द्र, , नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर और बड़े-बड़े राजा-महाराजा आदि आ-आकर जिनकी पूजा करते थे, अनेक निर्ग्रन्थ मुनिराज उनकी स्तुति कर अपने को कृतार्थ कर रहे थे, चौंतीस प्रकार के अतिशयों से जो शोभित थे, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ऐसे चार अनन्त चतुष्टय आत्म- सम्पत्ति को धारण किये थे, जिन्हें संसार के सर्वोच्च महापुरुष का सम्मान प्राप्त था, तीनों लोकों को स्पष्ट देख- - जानकर उसका स्वरूप भव्य - जनों को जो उपदेश कर रहे थे और जिनके लिए मुक्ति-रमणी वरमाला हाथ में लिए उत्सुक हो रही थी । पणिक ने भगवान् का ऐसा दिव्य स्वरूप देखकर उन्हें अपना सिर नवाया, उनकी स्तुति - पूजा की, प्रदक्षिणा दी और बैठकर धर्मोपदेश सुना । अन्त में उसने अपनी आयु के सम्बन्ध में भगवान् से प्रश्न किया। भगवान् के उत्तर से उसे अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी। ऐसी दशा में आत्महित करना बहुत आवश्यक समझ पणिक वहीं दीक्षा ले साधु हो गया । यहाँ से विहार कर अनेक देशों और नगरों में धर्मोपदेश करते हुए पणिक मुनि एक दिन गंगा किनारे आए । नदी पार होने के लिए वे एक नाव में बैठे। मल्लाह नाव खेये जा रहा था कि अचानक एक प्रलय की-सी आँधी ने आकर नाव को खूब डगमग कर दिया, उसमें पानी भर आया, नाव डूबने लगी। जब तक नाव डूबती है पणिक मुनि ने अपने भावों को खूब उन्नत किया। यहाँ तक कि उन्हें उसी समय केवलज्ञान हो गया और तुरन्त ही वे अघातिया कर्मों का नाश कर मोक्ष चले गए। वे सेठ पुत्र पणिक मुनि मुझे भी अविनाशी मोक्ष - लक्ष्मी दें, जिन्होंने मेरु समान स्थिर रहकर कर्म शत्रुओं का नाश किया ॥२-१५॥
    सागरदत्त सेठ की स्त्री पणिका सेठानी के पुत्र पवित्रात्मा पणिक मुनि, वर्धमान भगवान् के दर्शन कर, जो कि मोक्ष के देने वाले हैं और उनसे अपनी आयु बहुत थोड़े जानकर संसार की सब माया-ममता छोड़ मुनि हो गए और अन्त में कर्मों का नाश कर मोक्ष गए, वे मुझे भी सुखी करें ॥१६॥ 
  14. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सुखरूपी धान को हरा-भरा करने के लिए जो मेघ समान हैं, ऐसे जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर भरत-पुत्र मरीचि की कथा लिखी जाती है, जैसी कि वह और शास्त्रों में लिखी है ॥१॥
    अयोध्या में रहने वाले सम्राट् भारतेश्वर भरत के मरीचि नाम का पुत्र हुआ। मरीचि भव्य था और सरल मन था। जब आदिनाथ भगवान्, जो कि इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा सदा पूजा किए जाते थे, संसार छोड़कर योगी हुए तब उनके साथ कोई चार हजार राजा और भी साधु हो गए। इस कथा का नायक मरीचि भी इन साधुओं में था ॥२-३॥
    भरतराज एक दिन भगवान् आदिनाथ तीर्थंकर का उपदेश सुनने को समवसरण में गए। भगवान् को नमस्कार कर उन्होंने पूछा-भगवन् आपके बाद तेईस तीर्थंकर और होंगे, ऐसा मुझे आपके उपदेश से जान पड़ा। पर इस सभा में भी कोई ऐसा महापुरुष जो तीर्थंकर होने वाला हो? भगवान् बोले- हाँ है। वह यही तेरा पुत्र मरीचि, जो अन्तिम तीर्थंकर महावीर के नाम से प्रख्यात होगा । इसमें कोई सन्देह नहीं । सुनकर भरत की प्रसन्नता का तो कुछ ठिकाना न रहा और इसी बात से मरीचि की मतिगति उल्टी ही हो गई । उसे अभिमान आ गया कि अब तो मैं तीर्थंकर होऊँगा ही, फिर मुझे नंगे रहना, दुःख सहना, पूरा खाना-पीना नहीं यह सब कष्ट क्यों ? किसी दूसरे वेष में रहकर मैं क्यों न सुख आरामपूर्वक रहूँ, बस फिर क्या था जैसे ही विचारों का हृदय में उदय हुआ, उसी समय वह सब व्रत, , संयम, आचार-विचार, सम्यक्त्व आदि को छोड़-छाड़ कर तापसी बन गया और सांख्य, परिव्राजक आदि कई मतों को अपनी कल्पना से चलाकर संसार के घोर दुःखों का भोगने वाला हुआ। इसके बाद वह अनेक कुगतियों में घूमा । सच है, प्रमाद, असावधानी या कषाय जीवों के कल्याण-मार्ग में बड़ा ही विघ्न करने वाली है और अज्ञान से अभव्यजन भी प्रमादी बनकर दुःख भोगते हैं। इसलिए ज्ञानियों को धर्मकार्यों में तो कभी भूलकर भी प्रमाद करना ठीक नहीं है। मोह की लीला से मरीचि को चिरकाल तक संसार में घूमना पड़ा। इसके बाद पापकर्म की कुछ शान्ति होने से उसे जैनधर्म का फिर योग मिल गया । उसके प्रसाद से वह नन्द नाम का राजा हुआ। फिर किसी कारण से इसे संसार से वैराग्य हो गया। मुनि होकर इसने सोलहकारण भावना द्वारा तीर्थंकर नाम प्रकृति का बन्ध किया। वहाँ से वह स्वर्ग गया। स्वर्गायु पूरी होने पर इसने कुण्डलपुर में सिद्धार्थ राजा की प्रियकारिणी प्रिया के यहाँ जन्म लिया । वे ही संसार - पूज्य महावीर भगवान् के नाम से प्रख्यात हुए। इन्होंने कुमारपन में ही दीक्षा लेकर तपस्या द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। देव, विद्याधर, चक्रवर्त्तियों द्वारा वे पूज्य हुए। अनेक जीवों को इन्होंने कल्याण के मार्ग पर लगाया । अपने समय में धर्म के नाम पर होने वाली बे-शुमार पशु हिंसा का उन्होंने घोर विरोध कर उसे जड़मूल से उखाड़ कर फेंक दिया। उनके समय में अहिंसा धर्म की पुनः स्थापना हुई। अन्त में वे अघातिया कर्मों का नाश कर परमधाम - मोक्ष चले गए। इसलिए हे आत्मसुख के चाहने वालों! तुम्हें सच्चे मोक्ष सुख की यदि चाह है तो तुम सदा हृदय में जिनभगवान् के पवित्र उपदेश को स्थान दो । यही तुम्हारा कल्याण करेगा । विषयों की ओर ले जाने वाले उपदेश, कल्याण-मार्ग की ओर नहीं झुका सकते ॥४-१८॥
    वे वर्द्धमान-महावीर भगवान् संसार में सदा जय लाभ करें, उनका पवित्र शासन निरन्तर मिथ्यान्धकार का नाश कर चमकता रहे, जो भगवान् जीवमात्र का हित करने वाले हैं, ज्ञान के समुद्र हैं, राजाओं महाराजाओं द्वारा पूज्यनीय हैं और जिसकी भक्ति स्वर्गादि का उत्तम सुख देकर अन्त में अनन्त, अविनाशी मोक्ष-लक्ष्मी से मिला देती है ॥१९॥
  15. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जगत्पवित्र जिनेन्द्र भगवान् जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर सुकौशल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अयोध्या में प्रजापाल राजा के समय में एक सिद्धार्थ नाम के सेठ हुए हैं। उनके बत्तीस अच्छी- अच्छी सुन्दर स्त्रियाँ थीं। पर खोटे भाग्य से उनकी कोई सन्तान न थी । स्त्री कितनी भी सुन्दर हो, गुणवती हो, पर बिना सन्तान के उसकी शोभा नहीं होती। जैसे बिना फल-फूल के लताओं की शोभा नहीं होती। इन स्त्रियों में जो सेठ की खास प्राणप्रिया थी, जिस पर कि सेठ महाशय का अत्यन्त प्रेम था, वह पुत्र प्राप्ति के लिए सदा कुदेवों की पूजा - मानता किया करती थी। एक दिन उसे कुदेवों की पूजा करते एक मुनिराज ने देख लिया। उन्होंने तब उससे कहा-बहिन, जिस आशा से तू इन कुदेवों की पूजा करती है वह आशा ऐसा करने से सफल न होगी। कारण सुख-सम्पत्ति, सन्तान प्राप्ति, नीरोगता, मान-मर्यादा, सद्बुद्धि आदि जितनी अच्छी बातें हैं, उन सबका कारण पुण्य है। इसलिए यदि तू पुण्य - प्राप्ति के लिए कोई उपाय करे तो अच्छा हो । मैं तुझे तेरे हित की बात कहता हूँ कि इन यक्षादिक कुदेवों की पूजा - मानता छोड़कर, जो कि पुण्य-बन्ध का कारण नहीं है, जिनधर्म का विश्वास कर। इससे तू सत्पथ पर आ जायेगी और फिर तेरी आशा भी पूरी होने लगेगी। जयावती को मुनि का उपदेश रुचा और वह अब से जिनधर्म पर श्रद्धा करने लगी। चलते समय उसे ज्ञानी मुनि ने यह भी कह दिया था कि जिसकी तुझे चाह है वह चीज तुझे सात वर्ष के भीतर-भीतर अवश्य प्राप्त होगी । तू चिन्ता छोड़कर धर्म का पालन कर । मुनि का यह अंतिम वाक्य सुनकर जयावती को बड़ी भारी खुशी हुई और क्यों न हो? जिसकी कि वर्षों से उसके हृदय में भावना थी वही भावना तो अब सफल होने को है न! अस्तु ! मुनि का कथन सत्य हुआ। जयावती ने धर्म के प्रसाद से पुत्र - रत्न का मुँह देख पाया। उसका नाम रखा गया सुकौशल। सुकौशल खूबसूरत और तेजस्वी था ॥२-९॥
    सिद्धार्थ सेठ विषय-भोगों को भोगते - भोगते कंटाल गए थे। उनके हृदय की ज्ञानमयी आँखों ने उन्हें अब संसार का सच्चा स्वरूप बतला कर बहुत डरा दिया था । वे चाहते तो नहीं थे कि एक मिनट भी संसार में रहे, पर अपनी सम्पत्ति को सम्हाल लेने वाला कोई न होने से पुत्र - दर्शन तक, उन्हें लाचारी से घर में रहना पड़ा अब सुकौशल हो गया, इसका उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। वे पुत्र का मुखचन्द्र देखकर और अपने सेठ पद का उसके ललाट पर तिलक कर आप श्री नयंधर मुनिराज के पास दीक्षा ले गए। अभी बालक को जन्मते ही तो देर न हुई कि सिद्धार्थ सेठ घर-बार छोड़कर योगी हो गए। उनकी इस कठोरता पर जयावती को बड़ा गुस्सा आया । न केवल सिद्धार्थ पर ही उसे गुस्सा आया किन्तु नयंधर मुनि पर भी । इसलिए कि उन्हें इस समय सिद्धार्थ को दीक्षा देना उचित न था और इसी कारण मुनि मात्र पर उसकी अश्रद्धा हो गई। उसने अपने घर में मुनियों का आना-जाना तक बन्द कर दिया। बड़े दुःख की बात है कि यह जीव मोह के वश हो धर्म को भी छोड़ बैठता है । जैसे जन्म का अन्धा हाथ में आए चिन्तामणि को खो बैठता है ॥१० - १३॥
    वयः प्राप्त होने पर सुकौशल का अच्छे-अच्छे घराने की कोई बत्तीस कन्या-रत्नों से ब्याह हुआ। सुकौशल के दिन अब बड़े ऐशो आराम के साथ बीतने लगे। माता का उस पर अत्यन्त प्यार होने से नित नई वस्तुएँ उसे प्राप्त होती थीं। सैकड़ों दास-दासियाँ उसकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करती थी। वह जो कुछ चाहता वह कार्य उसकी आँखों के इशारे मात्र से होता था। सुकौशल को कभी कोई बात के लिए चिन्ता न करनी पड़ती थी। सच है, जिनके पुण्य का उदय होता है उन्हें सब सुख- सम्पत्ति सहज में प्राप्त हो जाती हैं ॥ १४-१५॥
    एक दिन सुकौशल, अपनी माँ, अपनी स्त्री और अपनी धाय के साथ महल पर बैठा अयोध्या की शोभा तथा मन को लुभाने वाले प्रकृति की नई-नई सुन्दर छटाओं को देख-देखकर बड़ा खुश हो रहा था। उसकी दृष्टि कुछ दूर तक गई उसने एक मुनिराज को देखा। ये मुनि इसके पिता सिद्धार्थ ही थे। इस समय कई अन्य नगरों और गाँवों में विहार करते हुए ये आ रहे थे। इनके वंदन पर नाममात्र के लिए भी वस्त्र न देखकर सुकौशल बड़ा चकित हुआ । इसलिए कि पहले कभी उसने मुनि को देखा नहीं था। उनका अजीब वेष देखकर सुकौशल ने माँ से पूछा- माँ, यह कौन है? सिद्धार्थ को देखते ही जयावती की आँखों में खून बरस गया। वह कुछ घृणा और कुछ उपेक्षा कर बोली-बेटा, होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब परन्तु अपनी माँ के इस उत्तर से सुकौशल को सन्तोष नहीं हुआ। उसने फिर पूछा- माँ, यह तो बड़ा खूबसूरत और तेजस्वी देख पड़ता है। तुम इसे भिखारी कैसे बताती हो? जयावती को अपने स्वामी पर ऐसी घृणा करते देख सुकौशल की धाय सुनन्दा से न रहा गया। वह बोल उठी-अरी ओ, तू इन्हें जानती है कि ये हमारे मालिक है । फिर भी तू इनके सम्बन्ध में ऐसा उल्टा सुझा रही है? तुझे यह योग्य नहीं। क्या हो गया यदि ये मुनि हो गए तो? इसके लिए क्या तुझे इनकी निन्दा करनी चाहिए? इसकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि सुकौशल की माँ ने उसे आँख के इशारे से रोककर कह दिया कि चुप क्यों नहीं रह जाती । तुझसे कौन पूछता है, जो बीच में ही बोल उठी! सच है, दुष्ट स्त्रियों के मन में धर्म- प्रेम कभी नहीं होता। जैसे जलती हुई आग का बीच का भाग ठंडा नहीं होता ॥ १६-२२॥
    सुकौशल ठीक तो न समझ पाया, पर उसे इतना ज्ञान हो गया कि माँ ने मुझे सच्ची बात नहीं बतलाई। इतने में रसोइया सुकौशल को भोजन कर आने के लिए बुलाने आया। उसने कहा-प्रभो, चलिए। बहुत समय हो गया । सब भोजन ठंडा हुआ जाता है । सुकौशल ने तब भोजन के लिए इंकार कर दिया। माता और स्त्रियों ने भी बहुत आग्रह किया, पर वह भोजन करने को नहीं गया । उसने साफ-साफ कह दिया कि जब तक मैं उस महापुरुष का सच्चा - सच्चा हाल न सुन लूँगा तब तक भोजन नहीं करूँगा। जयावती को सुकौशल के इस आग्रह से कुछ गुस्सा आ गया, सो वह तो वहाँ से चल दी। पीछे सुनन्दा ने सिद्धार्थ मुनि की सब बातें सुकौशल से कह दीं। सुनकर सुकौशल को कुछ दुःख भी हुआ, पर साथ ही वैराग्य ने उसे सावधान कर दिया । वह उसी समय सिद्धार्थ मुनिराज के पास गया और उन्हें नमस्कार कर धर्म का स्वरूप सुनने की उसने इच्छा प्रकट की। सिद्धार्थ ने उसे मुनिधर्म और गृहस्थ-धर्म का खुलासा स्वरूप समझा दिया । सुकौशल को मुनिधर्म बहुत पसन्द पड़ा। वह मुनिधर्म की भावना भाता हुआ घर आया और सुभद्रा की गर्भस्थ सन्तान को अपने सेठ पद का तिलक कर तथा सब माया-ममता, धन-दौलत और स्वजन - परिजन को छोड़कर श्री सिद्धार्थ मुनि के पास ही दीक्षा लेकर योगी बन गया । सच है - जिसे पुण्योदय से धर्म पर प्रेम है और जो अपना हित करने के लिए सदा तैयार रहता है, उस महापुरुष को कौन झूठी - सच्ची सुझाकर अपने कैद में रख सकता है, उसे धोखा दे ठग सकता है? ॥२३-३०॥
    एक मात्र पुत्र और वह भी योगी बन गया । इस दुःख की जयावती के हृदय पर बड़ी गहरी चोट लगी। वह पुत्र दुःख से पगली - सी बन गई । खाना-पीना उसके लिए जहर हो गया। उसकी सारी जिन्दगी ही धूलधानी हो गई वह दुःख और चिन्ता के मारे दिनोंदिन सूखने लगी। जब देखो तब ही उसकी आँखें आँसुओं से भरी रहती । मरते दम तक वह पुत्रशोक को न भूल सकी। इसी चिन्ता, दुःख, आर्त्तध्यान से उसके प्राण निकले । इस प्रकार बुरे भावों से मरकर मगध देश के मौद्गल नाम के पर्वत पर उसने व्याघ्री का जन्म लिया। इसके तीन बच्चे हुए। यह अपने बच्चों के साथ पर्वत पर ही रहती थी | सच हैं, जो जिनेन्द्र भगवान् के पवित्र धर्म को छोड़ बैठते हैं, उनकी ऐसी ही दुर्गति होती है। विहार करते हुए सिद्धार्थ और सुकौशल मुनि ने भाग्य से इसी पर्वत पर आकर योग धारण कर लिया। योग पूरा हुए बाद जब ये भिक्षा के लिए शहर में जाने के लिए पर्वत पर से नीचे उतर रहे थे उसी समय वह व्याघ्री, जो कि पूर्वजन्म में सिद्धार्थ की स्त्री और सुकौशल की माता थी, इन्हें खाने को दौड़ी और जब तक कि ये संन्यास लेकर बैठते हैं, उसने इन्हें खा लिया। ये पिता-पुत्र समाधि से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर देव हुए। वहाँ से आकर अब वे निर्वाण लाभ करेंगे। ये दोनों मुनिराज आप भव्यजनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥३१-३६॥
    जिस समय व्याघ्री ने सुकौशल को खाते-खाते उनका हाथ खाना शुरू किया, उस समय उसकी दृष्टि सुकौशल के हाथों के लाञ्छनों (चिह्नों) पर जा पड़ी। उन्हें देखते ही इसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हो गया। जिसे वह खा रही है, वह उसी का पुत्र है, जिस पर उसका बेहद प्यार था, उसे ही वह खा रही है यह ज्ञान होते ही उसे जो दुःख, जो आत्म-ग्लानि हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वह सोचती है, हाय! मुझसी पापिनी कौन होगी जो अपने ही प्यारे पुत्र को मैं खा रही हूँ ! धिक्कार है मुझसी मूर्खिनी को जो पवित्र धर्म को छोड़कर अनन्त संसार को अपना वास बनाती है। उस मोह को, उस संसार को धिक्कार है जिसके वश हो यह जीव अपने हित-अहित को भूल जाता है और फिर कुमार्ग में फँसकर दुर्गतियों में दुःख उठाता है । इस प्रकार अपने किए कर्मों की बहुत कुछ आलोचना कर उस व्याघ्री ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अन्त में शुद्ध भावों से मरकर व सौधर्मस्वर्ग में देव हुई। सच है - जीवों की शक्ति अद्भुत ही हुआ करती है और जैनधर्म का प्रभाव भी संसार में बड़ा ही उत्तम है। नहीं तो कहाँ तो पापिनी व्याघ्री और कहाँ उसे स्वर्ग की प्राप्ति इसलिए जो आत्मसिद्धि ने चाहने वाले हैं, उन भव्य जनों को स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले पवित्र जैनधर्म का पालन करना चाहिए ॥ ३७-४२॥
    श्री मूलसंघरूपी अत्यन्त ऊँचे उदयाचल से उदय होने वाले मेरे गुरु श्रीमल्लिभूषणरूपी सूर्य संसार में सदा प्रकाश करते रहें ॥४३॥
    वे प्रभाचन्द्राचार्य विजयलाभ करें जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिए, समुद्र में रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी तरंगों से युक्त हैं, स्याद्वाद विद्या के बड़े ही विद्वान् हैं । समुद्र की तरंगें जैसे कूड़ा-करकट निकाल बाहर फेंक देती हैं, इसी तरह ये अपनी सप्तभंगवाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मतों के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजयलाभ करते थे। समुद्र में मगरमच्छ घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिनेन्द्र भगवान् का वचनमयी निर्मल अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक तरह की बिकने योग्य वस्तुएँ रहती हैं ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रेय-वस्तु को धारण किए थे ॥४४॥
  16. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिनके नाम मात्र का ध्यान करने से हर प्रकार की धन-सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है, उन परम पवित्र जिन भगवान् को नमस्कार कर सुकुमाल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अतिबल कौशाम्बी के जब राजा थे, तब का यह आख्यान है । यहाँ एक सोमशर्मा पुरोहित रहता था, इसकी स्त्री का नाम काश्यपी था । इसके अग्निभूत और वायुभूति नामक दो लड़के हुए। माँ-बाप के अधिक लाड़ले होने से वे कुछ भी पढ़-लिख न सके और सच है पुण्य के बिना किसी को विद्या आती भी तो नहीं । काल की विचित्र गति से सोमशर्मा की असमय में ही मौत हो गई ये दोनों भाई तब निरे मूर्ख थे । इन्हें मूर्ख देखकर अतिबल ने उनके पिता का पुरोहित पद, जो उन्हें मिलता, किसी और को दे दिया। यह ठीक है कि मूर्खों का कहीं आदर-सत्कार नहीं होता। अपना अपमान हुआ देखकर उन दोनों भाइयों को बड़ा दुःख हुआ । तब उनकी कुछ अकल ठिकाने आई तब उन्हें कुछ लिखने-पढ़ने की सूझी। वे राजगृह में अपने काका सूर्यमित्र के पास गए और अपना सब हाल उन्होंने उनसे कहा । उनकी पढ़ने की इच्छा देखकर सूर्यमित्र ने स्वयं उन्हें पढ़ाना शुरू किया और कुछ ही वर्षों में उन्हें अच्छा विद्वान् बना दिया। दोनों भाई जब अच्छे विद्वान् हो गए तब ये अपने शहर लौट आए। आकर उन्होंने अतिबल को अपनी विद्या का परिचय कराया। अतिबल उन्हें विद्वान् देखकर बहुत खुश हुआ और उनके पिता का पुरोहित - पद उसने उन्हें दे दिया। सच है सरस्वती की कृपा से संसार में क्या नहीं होता ॥२-१०॥
    एक दिन सन्ध्या के समय सूर्यमित्र सूर्य को अर्घ चढ़ा रहा था। उसकी अंगुली में राजकीय एक रत्नजड़ी बहुमूल्य अँगूठी थी । अर्घ चढ़ाते समय वह अँगूठी अंगुली में से निकलकर महल के नीचे तालाब में जा गिरी। भाग्य से वह एक खिले हुए कमल में पड़ी। सूर्य अस्त होने पर कमल मुँद गया। अंगूठी कमल के अन्दर बन्द हो गई। सूर्यमित्र पाठ करके उठा और उसकी नजर उँगली पर पड़ी तब उसे मालूम हुआ कि अँगूठी कहीं पर गिर पड़ी। अब तो उसके डर का कुछ ठिकाना न रहा। राजा जब अँगूठी माँगेगा तब उसे क्या जवाब दूँगा, इसकी उसे बड़ी चिन्ता होने लगी । अँगूठी की शोध के लिए इसने बहुत कुछ यत्न किया, पर इसे उसका कुछ पता न चला। तब किसी के कहने से यह अवधिज्ञानी सुधर्म मुनि के पास गया और हाथ जोड़कर इसने उनसे अँगूठी के बाबत पूछा कि प्रभो, कृपा कर मुझे आप यह बतलावेंगे कि मेरी अँगूठी कहाँ चली गई और हे करुणा के समुद्र, वह कैसे प्राप्त होगी? मुनि ने उत्तर में यह कहा कि सूर्य को अर्घ देते समय तालाब में एक खिले हुए कमल में अँगूठी गिर पड़ी है। वह सबेरे मिल जायेगी। वही हुआ। सूर्योदय होते ही जैसे कमल खिला सूर्यमित्र को उसमें अँगूठी मिली। सूर्यमित्र बड़ा खुश हुआ। उसे इस बात का बड़ा अचम्भा होने लगा कि मुनि ने यह बात कैसे बतलाई ? हो न हो, उनसे अपने को भी वह विद्या सीखनी चाहिए। यह विचार कर सूर्यमित्र, मुनिराज के पास गया। उन्हें नमस्कार कर उसने प्रार्थना की कि हे योगिराज, मुझे भी आप अपनी विद्या सिखा दीजिये, जिसमें मैं भी दूसरों के ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे सकूँ। आपकी मुझ पर बड़ी कृपा होगी, यदि आप मुझे अपनी यह विद्या पढ़ा देंगे। तब मुनिराज ने कहा- भाई, मुझे इस विद्या के सिखाने में कोई इंकार नहीं है । पर बात यह है कि बिना जिनदीक्षा लिए यह विद्या आ नहीं सकती। सूर्यमित्र तब केवल विद्या के लोभ से दीक्षा लेकर मुनि हो गया। मुनि होकर उसने गुरु से विद्या सिखाने को कहा । सुधर्म मुनिराज ने तब सूर्यमित्र को मुनियों के आचार-विचार के शास्त्र तथा सिद्धान्त - शास्त्र पढ़ायें । अब तो एकदम सूर्यमित्र की आँखें खुल गई यह गुरु के उपदेश रूपी दिये के द्वारा अपने हृदय के अज्ञानान्धकार को नष्ट कर जैनधर्म का अच्छा विद्वान् हो गया । सच है, जिन भव्य पुरुषों ने सच्चे मार्ग को बतलाने वाले और संसार के अकारण बन्धु गुरुओं की भक्ति सहित सेवा-पूजा की है, उनके सब काम नियम से सिद्ध हुए हैं ॥११-२१॥
    जब सूर्यमित्र मुनि अपने मुनिधर्म में खूब कुशल हो गए तब वे गुरु की आज्ञा लेकर अकेले ही विहार करने लगे। एक बार वे विहार करते हुए कौशाम्बी में आए । अग्निभूत ने इन्हें भक्तिपूर्वक दान दिया। उसने अपने छोटे भाई वायुभूति से बहुत प्रेरणा और आग्रह इसलिए किया कि वह सूर्यमित्र मुनि की वन्दना करें, उसे जैनधर्म से कुछ प्रेम हो । कारण वह जैनधर्म से सदा विरुद्ध रहता था पर अग्निभूति के इस आग्रह का परिणाम उल्टा हुआ । वायुभूति ने और खिसियाकर मुनि की अधिक निन्दा की और उन्हें बुरा-भला कहा । सच है - जिन्हें दुर्गतियों में जाना होता है प्रेरणा करने पर भी ऐसे पुरुषों का श्रेष्ठ धर्म की ओर झुकाव नहीं होता किन्तु वह उल्टा पाप कीचड़ में अधिक- अधिक फँसता है। अग्निभूति को अपने भाई की ऐसी दुर्बुद्धि पर बड़ा दुःख हुआ । यही कारण था कि जब मुनिराज आहार कर वन में गए तब अग्निभूति भी उनके साथ - साथ चला गया और वहाँ धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य हो जाने से दीक्षा लेकर वह भी तपस्वी हो गया । अपना और दूसरों का हित करना अग्निभूति के जीवन का उद्देश्य हुआ ॥२२-२८॥
    अग्निभूति के मुनि हो जाने की बात जब उसकी स्त्री सती सोमदत्ता को ज्ञात हुई तो उसे अत्यन्त दुःख हुआ। उसने वायुभूति से जाकर कहा- - देखा, तुमने मुनि वन्दना न कर उनकी बुराई की, सुनती हूँ उससे दुःखी होकर तुम्हारे भाई भी मुनि हो गए। यदि वे अब तक मुनि न हुए हों तो चलो उन्हें तुम हम समझा लावें । वायुभूति ने गुस्सा होकर कहा- हाँ तुम्हें गर्ज हो तो तुम भी उस बदमाश नंगे के पास जाओ! मुझे तो कुछ गर्ज नहीं है। यह कहकर वायुभूति अपनी भौजी को एक लात मारकर चलता बना। सोमदत्ता को उसके मर्मभेदी वचनों को सुनकर बड़ा दुःख हुआ। उसे क्रोध भी अत्यन्त आया । पर अबला होने वह उस समय कर कुछ नहीं कर सकी । तब उसने निदान किया कि पापी, तूने जो इस समय मेरा मर्म भेदा है और मुझे लातों से ठुकराया है, और इसका बदला स्त्री होने से मैं इस समय न ले सकी तो कुछ चिन्ता नहीं, पर याद रख इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में सही, पर बदला लूँगी अवश्य । तेरे इसी पाँव को, जिससे कि तूने मुझे लात मारी है और मेरे हृदय भेदने वाले तेरे इसी हृदय को मैं खाऊँगी तभी मुझे सन्तोष होगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी मूर्खता को धिक्कार है जिसके वश हुए प्राणी अपने पुण्य-कर्म को ऐसे नीच निदानों द्वारा भस्म कर डालते हैं ॥२९-३४॥
    ‘इस हाथ दे उस हाथ ले" इस कहावत के अनुसार तीव्र पाप का फल प्रायः तुरन्त मिल जाता है। वायुभूति ने मुनिनिन्दा द्वारा जो तीव्र पापकर्म बाँधा, उसका फल उसे बहुत जल्दी मिल गया। पूरे सात दिन भी न हुए होंगे कि वायुभूति के सारे शरीर में कोढ़ निकल आया। सच है-जिनकी सारा संसार पूजा करता है और जो धर्म के सच्चे मार्ग को दिखाने वाले हैं ऐसे महात्माओं की निन्दा करने वाला पापी पुरुष किन महाकष्टों को नहीं सहता । वायुभूति कोढ़ के दुःख से मरकर कौशाम्बी में ही एक नट के यहाँ गधा हुआ । गधा मरकर वह जंगली सूअर हुआ । इस पर्याय से मरकर इसने चम्पापुर में एक चाण्डाल के यहाँ कुत्ती का जन्म धारण किया, कुत्ती मरकर चम्पापुरी में ही एक दूसरे चाण्डाल के यहाँ लड़की हुई वह जन्म से ही अन्धी थी । उसका सारा शरीर बदबू दे रहा था। इसलिए उसके माता-पिता ने उसे छोड़ दिया। पर भाग्य सभी का बलवान् होता है। इसलिए उसकी भी किसी तरह रक्षा हो गई। वह एक जांबू के झाड़-नीचे पड़ी - पड़ी जांबू खाया करती थी ॥३५-४०॥
    सूर्यमित्र मुनि अग्निभूति को साथ लिए हुए भाग्य से इस ओर आ निकले। उस जन्म की दुःखिनी लड़की को देखकर अग्निभूति के हृदय में कुछ मोह, कुछ दुःख हुआ। उन्होंने गुरु से पूछा- प्रभो, इसकी दशा बड़ी कष्ट में है । यह कैसे जी रही हैं? ज्ञानी सूर्यमित्र मुनि ने कहा- तुम्हारा भाई वायुभूति ने धर्म से पराङ्गमुख होकर जो मेरी निन्दा की थी, उसी पाप के फल से उसे कई भव पशुपर्याय में लेना पड़े। अन्त में वह कुत्ती की पर्याय से मरकर यह चाण्डाल कन्या हुई है। पर अब इसकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। इसलिए जाकर तुम इसे व्रत लिवाकर संन्यास दे आओ । अग्निभूति ने वैसा ही किया। उस चाण्डाल कन्या को पाँच अणुव्रत देकर उन्होंने संन्यास लिवा दिया ॥४१-४४॥
    चाण्डाल कन्या मरकर व्रत के प्रभाव से चम्पापुरी में नागशर्मा ब्राह्मण के यहाँ नागश्री नाम की कन्या हुई। एक दिन नागश्री वन में नागपूजा करने को गई थी । पुण्य से सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि भी विहार करते हुए इस ओर आ गए। उन्हें देखकर नाग श्री के मन में उनके प्रति अत्यन्त भक्ति हो गई वह उनके पास गई और हाथ जोड़कर उनके पाँवों के पास बैठ गई। नागश्री को देखकर अग्निभूति मुनि के मन में कुछ प्रेम का उदय हुआ और होना उचित ही था क्योंकि थे तो वह उनके पूर्वजन्म के भाई न? अग्निभूति मुनि ने इसका कारण अपने गुरु से पूछा । उन्होंने प्रेम होने का कारण जो पूर्व जन्म का भातृ-भाव था, वह बता दिया । तब अग्निभूति ने उसे धर्म का उपदेश किया और सम्यक्त्व तथा पाँच अणुव्रत उसे ग्रहण करवाये । नागश्री व्रत ग्रहण कर जब जाने लगी तब उन्होंने उससे कह दिया कि हाँ, देख बच्ची, तुझसे यदि तेरे पिताजी इन व्रतों को लेने के लिए नाराज हों,तो तू हमारे व्रत हमें ही आकर सौंप जाना । सच है, मुनि लोग वास्तव में सच्चे मार्ग के दिखाने वाले होते हैं ॥४५-५१॥
    इसके बाद नागश्री उन मुनिराजों के भक्ति से हाथ जोड़कर और प्रसन्न होती हुई अपने घर पर आ गई। नागश्री के साथ की और लड़कियों ने उसके व्रत लेने की बात को नागशर्मा से जाकर कह दिया। नागशर्मा तब कुछ क्रोध का भाव दिखाकर नागश्री से बोला- बच्ची, तू बड़ी भोली है, जो झट से हर एक के बहकाने में आ जाती है। भला, तू नहीं जानती कि अपने पवित्र ब्राह्मण - कुल में नंगे मुनियों के दिये व्रत नहीं लिए जाते। वे अच्छे लोग नहीं होते। इसलिए उनके व्रत तू छोड़ दे। तब नागश्री बोली-तो पिताजी, उन मुनियों ने मुझे आते समय यह कह दिया था कि यदि तुझसे तेरे पिताजी इन व्रतों को छोड़ देने के लिए आग्रह करें तो तू हमारे व्रत हमें ही दे जाना । तब आप चलिए मैं उन्हें उनके व्रत दे आती हूँ । सोमशर्मा नागश्री का हाथ पकड़े क्रोध से गुर्राता हुआ मुनियों के पास चला। रास्ते में नागश्री ने एक जगह कुछ गुलगपाड़ा होता सुना । उस जगह बहुत से लोग इकट्ठे हो रहे थे और एक मनुष्य उनके बीच में बँधा हुआ पड़ा था । उसे कुछ निर्दयी लोग बड़ी क्रूरता से मार रहे थे। नागश्री ने उसकी यह दशा देखकर सोमशर्मा से पूछा - पिताजी, बेचारा यह पुरुष इस प्रकार निर्दयता से क्यों मारा जा रहा है? सोमशर्मा बोला- बच्ची, इस पर एक बनिये के लड़के वरसेन का कुछ रुपया लेना था। उसने इससे अपने रुपयों का तकादा किया। इस पापी ने उसे रुपया न देकर जान से मार डाला। इसलिए उस अपराध के बदले अपने राजा साहब ने उसे प्राणदंड की सजा दी है और वह योग्य है क्योंकि एक को ऐसी सजा मिलने से अब दूसरा कोई ऐसा अपराध न करेगा। तब नागश्री ने जरा जोर देकर कहा- तो पिताजी, यही व्रत तो उन मुनियों ने मुझे दिया है, फिर आप उसे क्यों छुड़ाने को कहते हैं? सोमशर्मा लाजबाब होकर बोला- अस्तु पुत्री, तू इस व्रत को न छोड़, चल बाकी के व्रत तो उनके उन्हें दे आवें । आगे चलकर नाग श्री ने एक और पुरुष को बँधा देखकर पूछा- और पिताजी, यह पुरुष क्यों बाँधा गया है? सोमशर्मा ने कहा- पुत्री, यह झूठ बोलकर लोगों को ठगा करता था। इसके फन्दे में फँसकर बहुतों को दर-दर का भिखारी बनना पड़ा है। इसलिए झूठ बोलने के अपराध में इसकी यह दशा की जा रही है ॥५२-६४॥
    तब फिर नागश्री ने कहा - तो पिताजी, यही व्रत तो मैंने भी लिया है। अब तो मैं उसे कभी नहीं छोडूंगी। इस प्रकार चोरी, परस्त्री, लोभ आदि से दुःख पाते हुए मनुष्यों को देखकर नागश्री ने अपने पिता को लाजबाव कर दिया और व्रतों को नहीं छोड़ा । तब सोमशर्मा ने हार खाकर कहा- अच्छा, यदि तेरी इच्छा इन व्रतों को छोड़ने की नहीं है तो न छोड़, पर तू मेरे साथ उन मुनियों के पास तो चल। मैं उन्हें दो बातें कहूँगा कि तुम्हें क्या अधिकार था जो तुमने मेरी लड़की को बिना मेरे पूछे व्रत दे दिये? फिर वे आगे से किसी को इस प्रकार व्रत न दे सकेंगे। सच है, दुर्जनों को कभी सत्पुरुषों से प्रीति नहीं होती । तब ब्राह्मण देवता अपनी होंश निकालने को मुनियों के पास चले । उसने उन्हें दूर से ही देखकर गुस्से से आकर कहा- क्यों रे नंगे ! तुमने मेरी लड़की को व्रत देकर क्यों ठग लिया? बतलाओ, तुम्हें इसका क्या अधिकार था ? कवि कहता है कि ऐसे पापियों के विचारों को सुनकर बड़ा ही खेद होता है। भला, जो व्रत, शील, पुण्य के कारण हैं, उनसे क्या कोई ठगाया जा सकता है? नहीं। सोमशर्मा को इस प्रकार गुस्सा हुआ देखकर सूर्यमित्र मुनि बड़ी धीरता और शान्ति के साथ बोले- भाई, जरा धीरज धर, क्यों इतनी जल्दी कर रहा है? मैंने इसे व्रत दिये हैं, पर अपनी लड़की समझकर और सच पूछो तो यह है भी मेरी ही लड़की । तेरा तो इस पर कुछ भी अधिकार नहीं है। तू भले ही यह कह कि यह मेरी लड़की है, पर वास्तव में यह तेरी लड़की नहीं है ॥६५-७१॥
    यह कहकर सूर्यमित्र मुनि ने नागश्री को पुकारा । नाग श्री झट से आकर उनके पास बैठ गई अब तो ब्राह्मण देवता बड़े घबराये । वे 'अन्याय' ' अन्याय' चिल्लाते हुए राजा के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले-देव, नंगे साधुओं ने मेरी नागश्री लड़की को जबरदस्ती छुड़ा लिया। वे कहते हैं कि यह तेरी लड़की नहीं किन्तु हमारी लड़की है । राजाधिराज, सारा शहर जानता है कि नागश्री मेरी लड़की है। महाराज, उन पापियों से मेरी लड़की दिलवा दीजिए । सोमशर्मा की बात से सारी राज-सभा बड़े विचार में पड़ गई। राजा की अकल में कुछ न आया। तब वे सबको साथ लिए मुनि के पास आए और उन्हें नमस्कार कर बैठ गए । फिर यही झगड़ा उपस्थित हुआ। सोमशर्मा तो नागश्री को अपनी लड़की बताने लगा और सूर्यमित्र मुनि अपनी। मुनि बोले-अच्छा, यदि यह तेरी लड़की है तो बतला तूने इसे क्या पढ़ाया ? और सुन, मैंने इसे सब शास्त्र पढ़ायें है, इसलिए मैं अभिमान से कहता हूँ कि यह मेरी लड़की है। तब राजा बोले- अच्छा प्रभो, यह आपकी ही लड़की सही, पर आपने इसे जो पढ़ाया है उसकी परीक्षा इसके द्वारा दिलवाइए । जिससे कि हमें विश्वास हो। तब सूर्यमित्र मुनि अपने वचनरूपी किरणों द्वारा लोगों के चित्त में ठसे हुए मूर्खतारूप गाढ़े अन्धकार को नाश करते हुए बोले- हे नागश्री, हे पूर्वजन्म में वायुभूति का भव धारण करने वाली, पुत्री, तुझे मैंने जो पूर्वजन्म में कई शास्त्र पढ़ायें हैं, उनकी इस उपस्थित मंडली के सामने तू परीक्षा दे| सूर्यमित्र मुनिका इतना कहना हुआ कि नागश्री ने जन्मान्तर का पढ़ा- पढ़ाया सब विषय सुना दिया। राजा तथा और सब मंडली को इससे बड़ा अचम्भा हुआ । उन्होंने मुनिराज से हाथ जोड़कर कहा-प्रभो, नागश्री की परीक्षा से उत्पन्न हुआ विनोद हृदयभूमि में अठखेलियाँ कर रहा है। इसलिए कृपाकर आप अपने और नागश्री के सम्बन्ध की सब बातें खुलासा करिए। तब अवधिज्ञानी सूर्यमित्र मुनि ने वायुभूति के भव से लगाकर नाग श्री के जन्म तक की सब घटना उनसे कह सुनाई सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्हें यह सब मोह की लीला जान पड़ी। मोह ही सब दुःख का मूल कारण समझ कर उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ । वे उसी समय और भी बहुत से राजाओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण कर गए। सोमशर्मा भी जैनधर्म का उपदेश सुनकर मुनि हो गया और तपस्या कर अच्युत स्वर्ग में देव हुआ । इधर नाग श्री को अपना पूर्व का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ। वह दीक्षा लेकर आर्यिका हो गई और अन्त में शरीर छोड़कर तपस्या के फल से अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुई अहा! संसार में गुरु चिन्तामणि के समान हैं, सबसे श्रेष्ठ हैं। यही कारण है कि जिनकी कृपा से जीवों को सब सम्पदाएँ प्राप्त हो सकती है ॥७२-८७॥
    यहाँ से विहार कर सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिराज अग्निमन्दिर नाम के पर्वत पर पहुँचे। वहाँ तपस्या द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और त्रिलोकपूज्य हो अन्त में बाकी के कर्मों का भी नाश कर परम सुखमय, अक्षयानन्त मोक्ष लाभ किया। वे दोनों केवलज्ञानी मुनिराज मुझे और आप लोगों को उत्तम सुख की भीख दें ॥८८-९०॥
    अवन्ति देश के प्रसिद्ध उज्जैन शहर में एक इन्द्रदत्त नाम का सेठ था । वह बड़ा धर्मात्मा और जिनभगवान् का सच्चा भक्त था । उसकी स्त्री का नाम गुणवती था । वह नाम के अनुसार सचमुच गुणवती और बड़ी सुन्दरी थी । सोमशर्मा का जीव, जो अच्युत स्वर्ग में देव हुआ था वह, वहाँ अपनी आयु पूरी कर पुण्य के उदय से इस गुणवती सेठानी के सुरेन्द्रदत्त नाम का सुशील और गुणी पुत्र हुआ। सुरेन्द्रदत्त का ब्याह उज्जैन में रहने वाले सुभद्र सेठ की लड़की यशोभद्रा के साथ हुआ। उनके घर में किसी बात की कमी नहीं थी । पुण्य के उदय से उन्हें सब कुछ प्राप्त था । इसलिए बड़े सुख के साथ उनके दिन बीतते थे। वे अपनी इस सुख अवस्था में भी धर्म को न भूलकर सदा उसमें सावधान रहा करते थे॥९१-९५॥
    एक दिन यशोभद्रा ने एक अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा- क्यों योगिराज, क्या मेरी आशा इस जन्म में सफल होगी? मुनिराज यशोभद्रा का अभिप्राय जानकर कहा- हाँ होगी और अवश्य होगी। तेरे होने वाला पुत्र भव्य मोक्ष में जाने वाला, बुद्धिमान् और अनेक अच्छे-अच्छे गुणों का धारक होगा । पर साथ ही एक चिन्ता की बात यह होगी कि तेरे स्वामी पुत्र का मुख देखकर ही जिनदीक्षा ग्रहण कर जाएँगे, जो दीक्षा स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाली है। अच्छा, और एक बात यह है कि तेरा पुत्र भी जब कभी किसी जैन मुनि को देख पायेगा तो वह भी उसी समय सब विषयभोगों को छोड़- छोड़कर योगी बन जाएगा ॥९६-९९॥
    इसके कुछ महीनों बाद यशोभद्रा सेठानी के पुत्र हुआ । नागश्री के जीव ने, जो स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ था, अपनी स्वर्ग की आयु पूरी होने के बाद यशोभद्रा के यहाँ जन्म लिया। भाई- बन्धुओं ने उसके जन्म का बहुत कुछ उत्सव मनाया। उसका नाम सुकुमाल रखा गया। उधर सुरेन्द्र पुत्र के पवित्र दर्शन कर और उसे अपने सेठ - पद का तिलक कर आप मुनि हो गया ॥१००-१०२॥
    जब सुकुमाल बड़ा हुआ तब उसकी माँ को यह चिन्ता हुई कि कहीं यह भी कभी किसी मुनि को देखकर मुनि न हो जाए, इसके लिए यशोभद्रा ने अच्छे घराने की कोई बत्तीस सुन्दर कन्याओं के साथ उसका ब्याह कर उन सबके रहने को एक जुदा ही बड़ा भारी महल बनवा दिया और उसमें सब प्रकार की विषय-भोगों की एक से एक उत्तम वस्तु इकट्ठी करवा दी, जिससे कि सुकुमाल का मन सदा विषयों में फँसा रहे। इसके सिवा पुत्र के मोह से उसने अपने घर में जैन मुनियों का आना-जाना भी बन्द करवा दिया ॥१०३-१०५॥
    एक दिन किसी बाहर के सौदागर ने आकर राजा प्रद्योतन को एक बहुमूल्य रत्न-कम्बल दिखलाया, इसलिए कि वह उसे खरीद ले। पर उसकी कीमत बहुत ही अधिक होने से राजा ने उसे नहीं लिया। रत्न-कम्बल की बात यशोभद्रा सेठानी को मालूम हुई उसने उस सौदागर को बुलवाकर उससे वह कम्बल सुकुमाल के लिए मोल ले लिया । पर वह रत्नों को जड़ाई के कारण अत्यन्त ही कठोर था, इसलिए सुकुमाल ने उसे पसन्द न किया। तब यशोभद्रा ने उसके टुकड़े करवा कर अपनी बहुओं के लिए उसकी जूतियाँ बनवा दीं। एक दिन सुकुमाल की प्रिया जूतियाँ खोलकर पाँव धो रही थी। इतने में एक चील मांस के भ्रम से एक जूती को उठा ले उड़ी। उसकी चोंच से छूटकर वह जूती एक वेश्या के मकान की छत पर गिरी। उस जूती को देखकर वेश्या को बड़ा आश्चर्य हुआ । वह उसे राजघराने की समझकर राजा के पास ले गई। राजा भी उसे देखकर दंग रह गए कि इतनी कीमती जिसके यहाँ जूतियाँ पहनी जाती हैं तब उसके धन का क्या ठिकाना होगा। मेरे शहर में इतना भारी धनी कौन है? इसका अवश्य पता लगाना चाहिए । राजा ने जब इस विषय की खोज की तो उन्हें सुकुमाल सेठ का समाचार मिला कि इनके पास बहुत धन है और वह जूती उनकी स्त्री की है ॥१०६-११०॥
    राजा को सुकुमाल के देखने की बड़ी उत्कंठा हुई वे एक दिन सुकुमाल से मिलने को आए। राजा को अपने घर आए देख सुकुमाल की माँ यशोभद्रा को बड़ी खुशी हुई उसने राजा का खूब अच्छा आदर-सत्कार किया । राजा ने प्रेमवश हो सुकुमाल को भी अपने पास सिंहासन पर बैठा लिया। यशोभद्रा ने उन दोनों की एक साथ आरती उतारी। दिये की तथा हार की ज्योति से मिलकर बढ़े हुए तेज को सुकुमाल की आँखें न सह सकीं, उनमें पानी आ गया। इसका कारण पूछने पर यशोभद्रा ने राजा से कहा - महाराज, आज इसकी इतनी उमर हो गई, कभी इसने रत्नमयी दीये को छोड़कर ऐसे दीये को नहीं देखा । इसलिए इसकी आँखों में पानी आ गया है। यशोभद्रा जब दोनों को भोजन कराने बैठी तब सुकुमाल अपनी थाली में परोसे हुए चावलों में से एक-एक चावल को बीन-बीनकर खाने लगा । देखकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने यशोभद्रा से इसका भी कारण पूछा। यशोभद्रा ने कहा-राजराजेश्वर, इसे जो चावल खाने को दिये जाते हैं वे खिले हुए कमलों में रखे जाकर सुगन्धित किये होते हैं। पर आज वे चावल थोड़े होने से मैंने उन्हें दूसरे चावलों के साथ मिलाकर बना लिया। इससे वह एक-एक चावल चुन-चुनकर खाता है । राजा सुनकर बड़े ही खुश हुए। उन्होंने पुण्यात्मा सुकुमाल की बहुत प्रशंसा कर कहा - सेठानी जी, अब तक तो आपके कुँवर साहब केवल आपके ही घर के सुकुमाल थे, पर अब मैं इनका अवन्ति-सुकुमाल नाम रखकर इन्हें सारे देश का सुकुमाल बनाता हूँ। मेरा विश्वास है कि मेरे देशभर में इस सुन्दरता का इस सुकुमारता का यही आदर्श है । इसके बाद राजा सुकुमाल को संग लिए महल के पीछे जलक्रीड़ा करने बावड़ी पर गए। सुकुमाल के साथ उन्होंने बहुत देर तक जलक्रीड़ा की। खेलते समय राजा की उँगली में से अँगूठी निकलकर क्रीड़ा सरोवर में गिर गई राजा उसे ढूँढ़ने लगे। वे जल के भीतर देखते हैं तो उन्हें उसमें हजारों बड़े - बड़े सुन्दर और कीमती भूषण देख पड़े। उन्हें देखकर राजा की अकल चकरा गई। वे सुकुमाल के अनन्त वैभव को देखकर बड़े चकित हुए। वे यह सोचते हुए, कि यह सब पुण्य की लीला है, कुछ शर्मिन्दा से होकर महल लौट आए ॥१११-११८॥
    सज्जनों, सुनो-धन-धान्यादि सम्पदा का मिलना, पुत्र, मित्र और सुन्दर स्त्री का प्राप्त होना, बन्धु-बान्धवों का सुखी होना, अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषणों का होना, दुमंजले, तिमंजले आदि मनोहर महलों में रहने को मिलना, खाने-पीने को अच्छी से अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होना, विद्वान् होना, नीरोग होना आदि जितनी सुख - सामग्री हैं, वह सब जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश दिये मार्ग पर चलने से जीवों को मिल सकती है। इसलिए दुःख देने वाले खोटे मार्ग को छोड़कर बुद्धिमानों को सुख का मार्ग और स्वर्ग-मोक्ष के सुख का बीज पुण्यकर्म करना चाहिए । पुण्य जिन भगवान् की पूजा करने से, पात्रों को दान देने से तथा व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य के धारण करने से होता है ॥११९-१२३॥
    एक दिन जैनतत्त्व के परम विद्वान् सुकुमाल के मामा गणधराचार्य सुकुमाल की आयु बहुत थोड़ी रही जानकर उसके महल के पीछे से बगीचे में आकर ठहरे और चातुर्मास लग जाने से उन्होंने वहीं योग धारण कर लिया । यशोभद्रा को उनके आने की खबर हुई वह जाकर उनसे कह आई कि प्रभो, जब तक आपका योग पूरा न हो तब तक आप कभी ऊँचे से स्वाध्याय या पठन-पाठन न कीजिएगा। जब उनका योग पूरा हुआ तब उन्होंने अपने योग- सम्बन्धी सब क्रियाओं के अन्त में लोकप्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरू किया। उसमें उन्होंने अच्युतस्वर्ग के देवों की आयु, उनके शरीर की ऊँचाई आदि का खूब अच्छी तरह वर्णन किया । उसे सुनकर सुकुमाल को जातिस्मरण हो गया। पूर्व जन्म में पाए दुःखों को याद कर वह काँप उठा । वह उसी समय चुपके से महल से निकल कर मुनिराज के पास आ गया और उन्हें भक्ति से नमस्कार कर उनके पास बैठ गया। तब मुनि ने उससे - बेटा, अब तुम्हारी आयु सिर्फ तीन दिन की रह गई है, इसलिए अब तुम्हें इन विषय-भोगों को छोड़कर अपना आत्महित करना उचित है। ये विषय-भोग पहले कुछ अच्छे से मालूम होते हैं, पर इनका अन्त बड़ा ही दुःखदायी है । जो विषय-भोगों की धुन में ही मस्त रहकर अपने हित की ओर ध्यान नहीं देते, उन्हें कुगतियों के अनन्त दुःख उठाना पड़ते हैं । तुम समझो सियाले में आग बहुत प्यारी लगती है, पर जो उसे छुएगा वह तो जलेगा ही। यही हाल इन ऊपर के स्वरूप से मन को लुभाने वाले विषयों का है ॥१२४-१३०॥
    इसलिए ऋषियों ने इन्हें ‘भोगा भुजंगभोगाभाः' अर्थात् सर्प के समान भयंकर कहकर उल्लेख किया है। विषयों को भोगकर आज तक कोई सुखी नहीं हुआ, तब फिर ऐसी आशा करना कि इनसे सुख मिलेगा, नितान्त भूल है । मुनिराज का उपदेश सुनकर सुकुमाल को बड़ा वैराग्य हुआ। वह उसी समय सुख देने वाली जिनदीक्षा लेकर मुनि हो गया। मुनि होकर सुकुमाल वन की ओर चल दिया। उसका यह अन्तिम जीवन बड़ा ही करुणा से भरा हुआ है । कठोर से कठोर चित्त वाले मनुष्यों तक के हृदयों को हिला देने वाला है । सारी जिन्दगी में कभी जिनकी आँखों आँसू न झरे हों, उन आँखों में भी सुकुमाल का यह जीवन आँसू ला देने वाला है । पाठकों को सुकुमाल की सुकुमारता का हाल मालूम है कि यशोभद्रा ने जब उसकी आरती उतारी थी, तब जो मंगल द्रव्य सरसों उस पर डाली गई थी, उन सरसों के चुभने को भी सुकुमाल न सह सका था । यशोभद्रा ने उसके लिए रत्नों का बहूमूल्य कम्बल खरीदा था, पर उसने उसे कठोर होने से ही ना - पास कर दिया था । उसकी माँ का उस पर इतना प्रेम था, उसने उसे इस प्रकार लाड़-प्यार से पाला था कि सुकुमाल को कभी जमीन पर तक पाँव रखने का मौका नहीं आया था। उसी सुकुमार सुकुमाल ने अपने जीवन भर के एक रूप से बहे प्रवाह को कुछ ही मिनटों के उपदेश से बिल्कुल ही उल्टा बहा दिया। जिसने कभी यह नहीं जाना कि घर बाहर क्या है, वह अब अकेला भयंकर जंगल में जा बसा । जिसने स्वप्न में भी कभी दुःख नहीं देखा, वही अब दुःखों का पहाड़ अपने सिर पर उठा लेने को तैयार हो गया। सुकुमाल दीक्षा लेकर वन की ओर चला । कंकरीली जमीन पर चलने से उसके फूलों से कोमल पाँवों में कंकर-पत्थरों के गड़ने से घाव हो गए। उनसे खून की धारा बह चली। पर धन्य सुकुमाल की सहनशीलता जो उसने उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं झाँका । अपने कर्तव्य में वह इतना एकनिष्ठ हो गया, इतना तन्मय हो गया कि उसे इस बात का भान ही न रहा कि मेरे शरीर की क्या दशा हो रही है सुकुमाल की सहनशीलता की इतने में ही समाप्त नहीं हो गई। अभी आगे बढ़िए और देखिये कि वह अपने को इस परीक्षा में कहाँ तक उत्तीर्ण करता है ॥१३१॥
    पाँवों से खून बहता जाता है और सुकुमाल मुनि चले जा रहे हैं । चलकर वे एक पहाड़ की गुफा में पहुँचे। वहाँ वे ध्यान लगाकर बारह भावनाओं का विचार करने लगे । उन्होंने प्रायोपगमन संन्यास एक पाँव से खड़े रहने का ले लिया, जिसमें कि किसी से अपनी सेवा-शुश्रूषा भी कराना मना किया है। सुकुमाल मुनि तो इधर आत्म-ध्यान में लीन हुए। अब जरा इनके वायुभूति के जन्म को याद कीजिए ॥१३२॥
    जिस समय वायुभूति के बड़े भाई अग्निभूति मुनि हो गए थे, तब इनकी स्त्री ने वायुभूति से कहा था कि देखो, तुम्हारे कारण से ही तुम्हारे भाई मुनि हो गए सुनती हूँ । तुमने अन्याय कर मुझे दुःख के सागर में ढकेल दिया । चलो, जब तक वे दीक्षा न ले उससे पहले उन्हें हम तुम समझा- बुझाकर घर लौटा लावें । इस पर गुस्सा होकर वायुभूति ने अपनी भौजी को बुरी - भली सुना डाली थी और फिर ऊपर से उस पर लात भी जमा दी थी । तब उसने निदान किया था कि पापी, तूने मुझे निर्बल समझ मेरा जो अपमान किया है, मुझे कष्ट पहुँचाया है, यह ठीक है कि मैं इस समय इसका बदला नहीं चुका सकती । पर याद रख कि इस जन्म में नहीं तो परजन्म में सही, पर बदला लूँगी और घोर बदला लूँगी।
    इसके बाद वह मरकर अनेक कुयोनियों में भटकी । अन्त में वायुभूति तो यह सुकुमाल हुए और उनकी भौजी सियारनी हुई। जब सुकुमाल मुनि वन की ओर रवाना हुए और उनके पावों में कंकर, पत्थर, काँटे वगैरह लगकर खून बहने लगा, तब यही सियारनी अपने पिल्लों को साथ लिए उस खून को चाटती-चाटती वहीं आ गई जहाँ सुकुमाल मुनि ध्यान में मग्न हो रहे थे । सुकुमाल को देखते ही पूर्वजन्म के संस्कार से सियारनी को अत्यन्त क्रोध आया। वह उनकी ओर घूरती हुई उनके बिल्कुल नजदीक आ गई है। उसका क्रोध भाव उमड़ा। उसने सुकुमाल को खाना शुरू कर दिया। उसे खाते देखकर उसके पिल्ले भी खाने लग गए। जो कभी एक तिनके का चुभ जाना भी नहीं सह सकता था, वह आज ऐसे घोर कष्ट को सहकर भी सुमेरु सा निश्चय बना हुआ था। जिसके शरीर को एक साथ चार हिंसक जीव बड़ी निर्दयता से खा रहे है, तब भी जो रंचमात्र हिलता - डुलता तक नहीं। उस महात्मा की इस अलौकिक सहन-शक्ति का किन शब्दों में उल्लेख किया जाए, यह बुद्धि में नहीं आता। तब भी जो लोग एक ना- कुछ चीज काँटे के लग जाने से तिलमिला उठते हैं, वे अपने हृदय में जरा गंभीरता के साथ विचार कर देखें कि सुकुमाल मुनि की आदर्श सहनशक्ति कहाँ तक बढ़ी चढ़ी थी और उनका हृदय कितना उच्च था! सुकुमाल मुनि की यह सहनशक्ति उन कर्तव्यशील मनुष्यों को अप्रत्यक्ष रूप में शिक्षा कर रही है कि अपने उच्च और पवित्र कामों में आने वाले विघ्नों की परवाह मत करो। विघ्नों को आने दो और खूब आने दो । आत्मा की अनन्त शक्तियों के सामने ये विघ्न कुछ चीज नहीं, किसी गिनती में नहीं । तुम अपने पर विश्वास करो । भरोसा करो। हर एक कामों में आत्मदृढ़ता, आत्मविश्वास, उनके सिद्ध होने का मूलमंत्र है। जहाँ ये बातें नहीं वहाँ मनुष्यता भी नहीं। तब कर्तव्यशीलता तो फिर योजनों की दूरी पर है। सुकुमाल यद्यपि सुखिया जीव थे, पर कर्तव्यशीलता उनके पास थी । इसलिए देखने वालों के भी हृदय को हिला देने वाले कष्ट में भी वे अचल रहे ॥१३३-१३६॥
    सुकुमाल मुनि को उस सियारनी ने पूर्व बैर के सम्बन्ध से तीन दिन तक खाया। पर वे मेरु के समान धीर रहे। दुःख की उन्होंने कुछ परवाह न की । यहाँ तक कि अपने को खाने वाली सियारनी पर भी उनके बुरे भाव न हुए। शत्रु और मित्र को समभावों से देखकर उन्होंने अपना कर्तव्यपालन किया। तीसरे दिन सुकुमाल शरीर छोड़कर अच्युतस्वर्ग में महर्द्धिक देव हुए ॥१३७॥
    वायुभूति की भौजी ने निदान के वश सियारनी होकर अपने बैर का बदला चुका लिया। सच है, निदान करना अत्यन्त दुःखों का कारण है । इसलिए भव्यजनों को यह पाप का कारण निदान कभी नहीं करना चाहिए। इस पाप के फल से सियारनी मरकर कुगति में गई । कहाँ वे मन को अच्छे लगने वाले भोग और कहाँ यह दारुण तपस्या ! सच तो यह है कि महापुरुषों का चरित कुछ विलक्षण हुआ करता है। सुकुमाल मुनि अच्युतस्वर्ग में देव होकर अनेक प्रकार के दिव्य सुखों को भोगते हैं और जिनभगवान् की भक्ति में सदा लीन रहते हैं । सुकुमाल मुनि की इस वीर मृत्यु के उपलक्ष्य में स्वर्ग के देवों ने आकर उनका बड़ा उत्सव मनाया।‘जय जय' शब्द द्वारा महाकोलाहल हुआ। इसी दिन से उज्जैन में महाकाल नाम के कुतीर्थ की स्थापना हुई, जिसके कि नाम से अगणित जीव रोज वहाँ मारे जाने लगे और देवों ने जो र जल की वर्षा की थी, उससे वहाँ की नदी गन्धवती नाम से प्रसिद्ध हुई ॥१३८-१४१॥
    जिसने दिनरात विषय-भोगों में ही फँसे रहकर अपनी सारी जिन्दगी बिताई, जिसने कभी दुःख का नाम भी न सुना था, उस महापुरुष सुकुमाल ने मुनिराज द्वारा अपनी तीन दिन की आयु सुनकर उसी समय माता, स्त्री, पुत्र आदि स्वजनों को, धन-दौलत को और विषय - भोगों को छोड़-छाड़कर जिनदीक्षा ले ली और अन्त में पशुओं द्वारा दुःसह कष्ट सहकर भी जिसने बड़ी धीरता और शान्ति के साथ मृत्यु को अपनाया। वे सुकुमाल मुनि मुझे कर्तव्य के लिए कष्ट सहने की शक्ति प्रदान करें ॥१४२॥
  17. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार-समुद्र से पार करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर परशुराम का चरित्र लिखा जाता है जिसे सुनकर आश्चर्य होता है ॥१॥
    अयोध्या का राजा कार्त्तवीर्य अत्यन्त मूर्ख था। उसकी रानी का नाम पद्मावती था। अयोध्या के जंगल में यमदग्नि नाम के एक तपस्वी का आश्रम था। इस तपस्वी की स्त्री का नाम रेणुका था। इसके दो लड़के थे। इसमें एक का नाम श्वेतराम था और दूसरे का महेन्द्रराम। एक दिन की बात है कि रेणुका के भाई वरदत्त मुनि उस ओर आ निकले। वे एक वृक्ष के नीचे ठहरे। उन्हें देखकर रेणुका बड़े प्रेम से उनसे मिलने को आई और उनके हाथ जोड़कर वहीं बैठ गई । बुद्धिमान् वरदत्त मुनि ने उससे कहा-बहिन, मैं तुझे कुछ धर्म का उपदेश सुनाता हूँ। तू उसे जरा सावधानी से सुन! देख, सब जीव सुख को चाहते हैं, पर सच्चे सुख के प्राप्त करने की कोई बिरला ही खोज करता है और इसीलिए प्रायः लोग दुःखी देखे जाते हैं। सच्चे सुख का कारण पवित्र सम्यग्दर्शन का ग्रहण करना है। जो पुरुष सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं, वे दुर्गतियों में फिर नहीं भटकते । संसार का भ्रमण भी उनका कम हो जाता है । उनमें कितने तो उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं । सम्यक्त्व का साधारण स्वरूप यह है कि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र पर विश्वास लाना। सच्चे देव वे हैं, जो भूख और प्यास, राग और द्वेष, क्रोध और लोभ, मान और माया आदि अठारह दोषों से रहित हों, जिनका ज्ञान इतना बढ़ा-चढ़ा हो कि उससे संसार का कोई पदार्थ अंजाना न रह गया हो, जिन्हें स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती और बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी पूजते हों और जिनका उपदेश किया पवित्र धर्म, इस लोक और परलोक में सुख का देने वाला हो तथा जिस पवित्र धर्म की इन्द्रादि देव भी पूजा-भक्ति कर अपना जीवन कृतार्थ समझते हों । धर्म का स्वरूप उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव आदि दशलक्षणों द्वारा प्रायः प्रसिद्ध है और सच्चे गुरु वे कहलाते हैं, जो शील और संयम के पालने वाले हों, ज्ञान और ध्यान का साधन ही जिनके जीवन का खास उद्देश्य हो और जिनके पास परिग्रह रत्तीभर भी न हो । इन बातों पर विश्वास करने को सम्यक्त्व कहते हैं । इसके सिवा गृहस्थों के लिए पात्रदान करना, भगवान् की पूजा करना, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत धारण करना, पर्वों में उपवास वगैरह करना आदि बातें भी आवश्यक हैं। यह गृहस्थ-धर्म कहलाता है। तू इसे धारण कर। इससे तुझे सुख प्राप्त होगा। भाई के द्वारा धर्म का उपदेश सुन रेणुका बहुत प्रसन्न हुई। उसने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ सम्यक्त्व - रत्न द्वारा अपनी आत्मा को विभूषित किया और सच भी है, यही सम्यक्त्व तो भव्यजनों का भूषण है। रेणुका का धर्म-प्रेम देखकर वरदत्त मुनि ने उसे एक ‘परशु’ और दूसरी 'कामधेनु' ऐसी दो महाविद्याएँ दीं, जो कि नाना प्रकार का सुख देने वाली हैं। रेणुका को विद्या देकर जैनतत्त्व के परम विद्वान् वरदत्तमुनि विहार कर गए। इधर सम्यक्त्वशालिनी रेणुका घर आकर सुख से रहने लगी। रेणुका को धर्म पर अब खूब प्रेम हो गया। वह भगवान् की बड़ी भक्त हो गई ॥२-१८॥ 
    एक दिन राजा कार्त्तवीर्य हाथी पकड़ने को इसी वन की ओर आ निकला। घूमता हुआ वह रेणुका के आश्रम में आ गया। यमदग्नि तापस ने उसका अच्छा आदर-सत्कार किया और उसे अपने यहीं जिमाया। भोजन कामधेनु नाम की विद्या की सहायता से बहुत उत्तम तैयार किया गया था। राजा भोजन कर बहुत ही प्रसन्न हुआ और क्यों न होता ? क्योंकि सारी जिन्दगी में उसे कभी ऐसा भोजन खाने को ही न मिला था । उस कामधेनु को देखकर इस पापी राजा के मन में पाप आया। यह कृतघ्न तब उस बेचारे तापसी को जान से मारकर गौ को ले गया । सच है, दुर्जनों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जो उनका उपकार करते हैं, वे दूध पिलाये सर्प की तरह अपने उन उपकारक की ही जान के लेने वाले हो उठते हैं ॥ १९-२२॥
    राजा के जाने के थोड़ी देर बाद ही रेणुका के दोनों लड़के जंगल से लकड़ियाँ वगैरह लेकर आ गए। माता को रोती हुई देखकर उन्होंने उसका कारण पूछा। रेणुका ने सब हाल उनसे कह दिया। माता की दुःख भरी बातें सुनकर श्वेतराम के क्रोध का ठिकाना न रहा । वह कार्त्तवीर्य से अपने पिता का बदला लेने के लिए उसी समय माता से 'परशु' नाम की विद्या को लेकर अपने छोटे भाई को साथ लिए चल पड़ा। राजा के नगर में पहुँच कर उसने कार्त्तवीर्य को युद्ध के लिए ललकारा। यद्यपि एक ओर कार्त्तवीर्य की प्रचण्ड सेना थी और दूसरी ओर सिर्फ ये दो ही भाई थे; पर तब भी परशु विद्या के प्रभाव से इन दोनों भाइयों ने कार्त्तवीर्य की सारी सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया और अन्त में कार्त्तवीर्य को मारकर अपने पिता का बदला लिया। मरकर पाप के फल से कार्त्तवीर्य नरक गया। सो ठीक ही है, पापियों की ऐसी गति होती ही है । उस तृष्णा को धिक्कार है जिसके वश हो लोग न्याय-अन्याय को कुछ नहीं देखते और फिर अनेक कष्टों को सहते हैं । ऐसे ही अन्यायों द्वारा तो पहले भी अनेक राजाओं - महाराजाओं का नाश हुआ है । और ठीक भी है जिस वायु से बड़े-बड़े हाथी तक मर जाते हैं तब उसके सामने बेचारे कीट-पतंगादि छोटे-छोटे जीव तो ठहर कैसे सकते हैं। श्वेतराम ने कार्त्तवीर्य को परशु विद्या से मारा था, इसलिए फिर अयोध्या में वह 'परशुराम' इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥२३-२९॥
    संसार में जो शूरवीर, विद्वान्, सुखी, धनी हुए देखे जाते हैं वह पुण्य की महिमा है। इसलिए जो सुखी, विद्वान्, धनवान्, वीर आदि बनना चाहते हैं, उन्हें जिन भगवान् का उपदेश किया पुण्य- मार्ग ग्रहण करना चाहिए ॥३०॥
  18. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सारे संसार द्वारा भक्ति सहित पूजा किए गए जिन भगवान् को नमस्कार कर प्राचीनाचार्यों के कहे अनुसार मृगध्वज राजकुमार की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    सीमन्धर अयोध्या के राजा थे। उनकी रानी का नाम जिनसेना था। इनके एक मृगध्वज नाम का पुत्र था। वह मांस का बड़ा लोलुपी था । उसे बिना मांस खाये एक दिन भी चैन न पड़ता था। यहाँ एक राजकीय भैंसा था । वह बुलाने से पास चला आता, लौट जाने को कहने से चला जाता और लोगों के पाँवों में लोटने लगता । एक दिन वह भैंसा एक तालाब में क्रीड़ा कर रहा था । इतने में राजकुमार मृगध्वज, मंत्री और सेठ के लड़कों को साथ लिए वहाँ आया । इस भैंसे के पाँवों को देखकर मृगध्वज के मन में न जाने क्या धुन समाई सो उसने अपने नौकर से कहा- देखो, आज इस भैंसे का पिछला पाँव काट कर इसका मांस खाने के लिए पकाना । इतना कहकर मृगध्वज चल दिया। नौकर उसके कहे अनुसार भैंसे का पाँव काट कर ले गया। उसका मांस पका। उसे खाकर राजकुमार और उसके साथी बड़े प्रसन्न हुए। इधर बेचारा भैंसा बड़े दुःख के साथ लंगड़ाता हुआ राजा के सामने जाकर गिर पड़ा। राजा ने देखा कि उसकी मौत आ गई है। इसलिए उस समय उसने विशेष पूछ-पाछ न कर, कि किसने उसकी ऐसी दशा की है, दयाबुद्धि से उसे संन्यास देकर नमस्कार मन्त्र सुनाया। सच है, संसार में बहुत से ऐसे भी गुणवान् परोपकारी हैं, जो चन्द्रमा, सूर्य, कल्पवृक्ष, पानी आदि उपकारक वस्तुओं से भी कहीं बढ़कर हैं। भैंसा मरकर नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ । सच है, जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया पवित्र धर्म जीवों का वास्तव में हित करने वाला है ॥२-९॥
    इसके बाद राजा ने इस बात का पता लगाया कि भैंसा की यह दशा किसने की। उन्हें जब यह नीच काम अपने और मंत्री तथा सेठ के पुत्रों का जान पड़ा तब तो उनके गुस्से का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय तीनों को मरवा डालने के लिए मंत्री को आज्ञा की । इस राजाज्ञा की खबर उन तीनों को भी लग गई तब उन्होंने झटपट मुनिदत्त मुनि के पास जाकर उनसे जिन दीक्षा ले ली। इनमें मृगध्वज महामुनि बड़े तपस्वी हुए । उन्होंने कठिन तपस्या कर ध्यानाग्नि द्वारा घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर संसार द्वारा वे पूज्य हुए। सच है, जिनधर्म का प्रभाव ही कुछ ऐसा अचिन्त्य है जो महापापी से पापी भी उसे धारण कर त्रिलोक - पूज्य हो जाता है और ठीक भी है, धर्म से और उत्तम है ही क्या? वे मृगध्वज मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को महा मंगलमय मोक्ष लक्ष्मी दें, जो भव्य - जनों का उद्धार करने वाले हैं, केवलज्ञानरूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, देवों, विद्याधरों और बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं से पूज्य हैं, संसार का हित करने वाले हैं, बड़े धीर हैं और अनेक प्रकार का उत्तम से उत्तम सुख देने वाले हैं ॥१०-१५॥
  19. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवो द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर दूसरे चक्रवर्ती सगर का चरित लिखा जाता है ॥१॥
    जम्बूद्वीप के प्रसिद्ध और सुन्दर विदेह क्षेत्र की पूरब दिशा में सीता नदी के पश्चिम की ओर वत्सकावती नाम का एक देश है । वत्सकावती की बहुत पुरानी राजधानी पृथ्वीनगर के राजा का नाम जयसेन था। जयसेन की रानी जयसेना थी । इसके दो लड़के हुए। इनके नाम थे रतिषेण और धृतिषेण। दोनों भाई बड़े सुन्दर और गुणवान् थे । काल की कराल गति से रतिषेण अचानक मर गया। जयसेन को इसके मरने का बड़ा दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वे धृतिषेण को राज्य देकर मारुत और मिथुन नाम के राजाओं के साथ यशोधर मुनि के पास दीक्षा ले साधु हो गए। बहुत दिनों तक इन्होंने तपस्या की। फिर संन्यास सहित शरीर छोड़ स्वर्ग में वह महाबल नाम का देव हुआ इनके साथ दीक्षा लेने वाला मारुत भी इसी स्वर्ग में मणिकेतु नामक देव हुआ, जो कि भगवान् के चरण कमलों का भौंरा था, अत्यन्त भक्त था । वे दोनों देव स्वर्ग की सम्पत्ति प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। एक दिन उन दोनों ने विनोद करते-करते धर्म- प्रेम से एक प्रतिज्ञा की कि जो हम दोनों में पहले मनुष्य-जन्म धारण करे, तब स्वर्ग में रहने वाले देव का कर्तव्य होना चाहिए कि वह मनुष्य- लोक में जाकर उसे समझाये और संसार से उदासीनता उत्पन्न करा कर जिनदीक्षा के सम्मुख करे ॥२-११॥
    महाबल की आयु बाईस सागर की थी । तब तक उसने खूब मनमाना स्वर्ग का सुख भोगा। अन्त में आयु पूरी कर बचे हुए पुण्य प्रभाव से वह अयोध्या के राजा समुद्रविजय की रानी सुबला के सगर नाम का पुत्र हुआ । इसकी उम्र सत्तर लाख पूर्व वर्षों की । उसके सोने के समान चमकते हुए शरीर की ऊँचाई साढ़े चार सौ धनुष अर्थात् १५७५ हाथों की थी । संसार की सुन्दरता ने इसी में आकर अपना डेरा दिया था, वह बड़ा ही सुन्दर था । जो इसे देखता उसके नेत्र बड़े आनन्दित होते । सगर ने राज्य प्राप्त कर छहों खण्ड पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। अपनी भुजाओं के बल उसने दूसरे चक्रवर्ती का मान प्राप्त किया । सगर चक्रवर्ती हुआ, पर इसके साथ वह अपना धर्म-कर्म भूल गया था। उसके आठ हजार पुत्र हुए। इसे कुटुम्ब, धन-दौलत, शरीर, सम्पत्ति आदि सभी सुख प्राप्त थे । उसका समय खूब ही सुख के साथ बीतता था । सच है, पुण्य से जीवों को सभी उत्तम - उत्तम सम्पदायें प्राप्त होती है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे जिनभगवान् के उपदेश किए गए पुण्यमार्ग का पालन करें ॥१२- १८॥
    इसी अवसर में सिद्धवन में चतुर्मुख महामुनि को केवलज्ञान हुआ । स्वर्ग के देव, विद्याधर राजा-महाराजा उनकी पूजा के लिए आए। सगर भी भगवान् के दर्शन करने को आया था। सगर को आया देख मणिकेतु ने उससे कहा- क्यों राजराजेश्वर, क्या अच्युत स्वर्ग की बात याद है? जहाँ कि तुमने और मैंने प्रेम के वश हो प्रतिज्ञा की थी । कि जो हम दोनों में से पहले मनुष्य जन्म ले उसे स्वर्ग का देव जाकर समझावें और संसार से उदासीन कर तपस्या के सम्मुख करें अब तो आपने बहुत समय तक राज्य-सुख भोग लिया । अब तो इसके छोड़ने का यत्न कीजिए। क्या आप नहीं जानते कि ये विषय-भोग दुःख के कारण और संसार में घुमाने वाले हैं? राजन्, आप तो स्वयं बुद्धिमान् हैं। आपको मैं क्या अधिक समझा सकता हूँ। मैंने तो सिर्फ अपनी प्रतिज्ञा-पालन के लिए आपसे इतना निवेदन किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन क्षण-भंगुर विषयों से अपनी लालसा को कम करके जिन भगवान् का परम पवित्र तपोमार्ग ग्रहण करेंगे और बड़ी सावधानी के साथ मुक्ति कामिनी के साथ ब्याह की तैयारी करेंगे । मणिकेतु ने उसे बहुत कुछ समझाया पर पुत्रमोही सगर को संसार से नाममात्र के लिए उदासीनता न हुई । मणिकेतु ने जब देखा कि अभी यह पुत्र, स्त्री, धन- दौलत के मोह में खूब फँस रहा है। अभी इसे संसार से, विषयभोगों से उदासीन बना देना कठिन ही नहीं किन्तु एक प्रकार असंभव को संभव करने का यत्न है । अस्तु, फिर देखा जायेगा। यह विचार कर मणिकेतु अपने स्थान चला गया। सच है, काललब्धि के बिना कल्याण हो भी नहीं सकता ॥१९-२६॥
    कुछ समय के बाद मणिकेतु के मन में फिर एक बार तरंग उठी कि अब किसी दूसरे यत्न द्वारा सगर को तपस्या के सम्मुख करना चाहिए । तब वह चारण मुनि का वेष लेकर, जो कि स्वर्ग- मोक्ष के सुख का देने वाला है, सगर के जिन मन्दिर में आया और भगवान् के दर्शन कर वहीं ठहर गया। उसकी नई उमर और सुन्दरता को देखकर सगर को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने मुनिरूप धारण करने वाले देव से पूछा, मुनिराज, आपकी इस नई उमर ने, जिसने कि संसार का अभी कुछ सुख नहीं देखा, ऐसे कठिन योग को किसलिए धारण किया? मुझे तो आपको योगी हुए देखकर बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है तब देव ने कहा- राजन् ! तुम कहते हो, वह ठीक है । पर मेरा विश्वास है कि संसार में सुख है ही नहीं। जिधर मैं आँखें खोलकर देखता हूँ मुझे दुःख या अशान्ति ही देख पड़ती है। यह जवानी बिजली की तरह चमक कर पलभर में नाश होने वाली है । यह शरीर, जिसे कि तुम भोगों में लगाने को कहते हो, महा अपवित्र है । ये विषय-भोग, जिन्हें तुम सुखरूप समझते हो, सर्प के समान भयंकर हैं और यह संसाररूपी समुद्र अथाह है, नाना तरह के दुःखरूपी भयंकर जलजीवों से भरा हुआ है और मोह जाल में फँसे हुए जीवों के लिए अत्यन्त दुस्तर है । तब जो पुण्य से यह मनुष्य देह मिली है, इसे इस अथाह समुद्र में बहने देना या जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बतलाये इस अथाह समुद्र के पार होने के साधन तपरूपी जहाज द्वारा उसके पार पहुँचा देना। मैं तो इसके लिए यही उचित समझता हूँ कि, जब संसार असार है और उसमें सुख नहीं है, तब संसार से पार होने का उपाय करना ही कर्तव्य और दुर्लभ मनुष्य देह के प्राप्त करने का फल है। मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूँगा कि तुम इस नाशवान् माया-ममता को छोड़कर कभी नाश न होने वाली लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए यत्न करो । मणिकेतु ने इसके सिवा और भी बहुत कहने सुनने या समझाने में कोई कसर न की। पर सगर सब कुछ जानता हुआ भी पुत्र - प्रेम के वश हो संसार को न छोड़ सका । मणिकेतु को इससे बड़ा दुःख हुआ कि सगर की दृष्टि में अभी संसार की तुच्छता नजर न आई और वह उल्टा उसी में फँसता जाता है । लाचार हो वह स्वर्ग चला गया ॥२७-३४॥
    एक दिन सगर राज सभा में सिंहासन पर बैठे हुए थे इतने में उनके पुत्रों ने आकर उनसे सविनय प्रार्थना की-पूज्य पिताजी, उन वीर क्षत्रिय - पुत्रों का जन्म किसी काम का नहीं, व्यर्थ है, जो कुछ काम न कर पड़े-पड़े खाते-पीते और ऐशोआराम उड़ाया करते हैं। इसलिए आप कृपाकर हमें कोई काम बतलाइए। फिर वह कितना ही कठिन या असाध्य ही क्यों न हो, उसे हम करेंगे। सगर ने उन्हें जवाब दिया- पुत्रों, तुमने कहा- वह ठीक है और तुमसे वीरों को यही उचित भी है पर अभी मुझे कोई कठिन या सीधा ऐसा काम नहीं दीख पड़ता जिसके लिए मैं तुम्हें कष्ट दूँ और न छहों खण्ड पृथ्वी में मेरे लिए कुछ असाध्य ही है। इसलिए मेरी तो तुमसे यही आज्ञा है कि पुण्य से जो धन-सम्पत्ति प्राप्त है, इसे तुम भोगो। उस दिन तो वे सब लड़के पिता की बात का कुछ जवाब न देकर चुपचाप इसलिए चले गए कि पिता की आज्ञा तोड़ना ठीक नहीं परन्तु उनका मन इससे अप्रसन्न ही रहा ||३५-४०॥
    कुछ दिन बीतने पर एक दिन वे सब फिर सगर के पास गए और उन्हें नमस्कार कर बोले- पिताजी, आपने जो आज्ञा दी थी, उसे हमने इतने दिनों उठाई, पर अब हम अत्यन्त लाचार हैं । हमारा मन यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। इसलिए आप अवश्य कुछ काम में हमें लगाइये। नहीं तो हमें भोजन न करने को भी बाध्य होना पड़ेगा। सगर ने जब इनका अत्यन्त ही आग्रह देखा तो उसने उनसे कहा-मेरी इच्छा नहीं कि तुम किसी कष्ट के उठाने को तैयार हो । पर जब तुम किसी तरह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो, तो अस्तु, मैं तुम्हें यह काम बताता हूँ कि श्रीमान् भरत सम्राट् ने कैलाश पर्वत पर चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस मन्दिर बनवाएँ हैं। वे सब सोने के हैं। उनमें बे-शुमार धन खर्च किया है। उनमें जो अर्हन्त भगवान् की पवित्र प्रतिमाएँ हैं वे रत्नमयी हैं । उनकी रक्षा करना बहुत जरूरी है। इसलिए तुम जाओ कैलाश के चारों ओर एक गहरी खाई खोदकर उसमें गंगा का प्रवाह लाकर भर दो। जिससे कि फिर दुष्ट लोग मन्दिरों को कुछ हानि न पहुँचा सकें । सगर के सब पुत्र पिताजी की इस आज्ञा से बहुत खुश हुए। वे उन्हें नमस्कार कर आनन्द और उत्साह के साथ अपने काम के लिए चल पड़े। कैलाश पर पहुँच कर कई वर्षों के कठिन परिश्रम द्वारा उन्होंने चक्रवर्ती के दण्डरत्न की सहायता से अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर ली ॥४१-४६॥
    अच्छा, अब उस मणिकेतु की बात सुनिए - उसने सगर को संसार से उदासीन कर योगी बनाने के लिए दोबार यत्न किया, पर दोनों बार उसे निराश हो जाना पड़ा। अबकी बार उसने एक बड़ा भयंकर कांड रचा। जिस समय सगर के ये साठ हजार लड़के खाई खोदकर गंगा का प्रवाह लाने को हिमवान् पर्वत पर गए और इन्होंने दण्ड-रत्न द्वारा पर्वत फोड़ने के लिए उस पर एक चोट मारी उस समय मणिकेतु ने एक बड़े भारी और महाविषधर सर्प का रूप धर, जिसकी फुंकार मात्र से कोसों के जीव-जन्तु भस्म हो सकते थे, अपनी विषैली हवा छोड़ी। उससे देखते-देखते वे सब ही जलकर खाक हो गए। सच है, अच्छे पुरुष दूसरे का हित करने के लिए कभी-कभी तो उसका अहित कर उसे हित की ओर लगाते हैं। मंत्रियों को उनके मरने की बात मालूम हो गई पर उन्होंने राजा से इसलिए नहीं कहा कि वे ऐसे महान् दुःख को न सह सकेंगे। तब मणिकेतु ब्राह्मण का रूप लेकर सगर के पास पहुँचा और बड़े दुःख के साथ रोता-रोता बोला- राजाधिराज, आप सरीखे न्यायी और प्रजाप्रिय राजा के रहते मुझे अनाथ हो जाना पड़े, मेरी आँखों के एक मात्र तारे को पापी लोग जबरदस्ती मुझसे छुड़ा ले जाए, मेरी सब आशाओं पर पानी फेर कर मुझे द्वार-द्वार का भिखारी बना जाए और मुझे रोता छोड़ जाए तो इससे बढ़कर दुःख की और क्या बात होगी? प्रभो, मुझे आज पापियों ने बे-मौत मार डाला है । मेरी आप रक्षा कीजिए-अशरण-शरण, मुझे बचाइए ॥४७-५२॥
    सगर ने उसे इस प्रकार दुःखी देखकर धीरज दिया और कहा - ब्राह्मण देव, घबराइए मत वास्तव में बात क्या है उसे कहिए । मैं तुम्हारे दुःख दूर करने का यत्न करूँगा। ब्राह्मण ने कहा– महाराज क्या कहूँ? कहते छाती फटी जाती है, मुँह से शब्द नहीं निकलता। यह कहकर वह फिर रोने लगा। चक्रवर्ती को इससे बड़ा दुःख हुआ । उसके अत्यन्त आग्रह करने पर मणिकेतु बोला- अच्छा तो महाराज, मेरी दुःख कथा सुनिए - मेरे एक मात्र लड़का था । मेरी सब आशा उसी पर थी। वही मुझे खिलाता-पिलाता था । पर मेरे भाग्य आज फूट गए। उसे एक काल नाम का एक लुटेरा मेरे हाथों से जबरदस्ती छीन भागा। मैं बहुत रोया व कलपा, दया की मैंने उससे भीख माँगी, बहुत आरजू-मिन्नत की, पर पापी चाण्डाल ने मेरी ओर आँख उठाकर भी न देखा। राजराजेश्वर, आपसे, मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि आप मेरे पुत्र को उस पापी से छुड़ा ला दीजिए। नहीं तो मेरी जान न बचेगी। सगर को काल- लुटेरे का नाम सुनकर कुछ हँसी आ गई उसने कहा- महाराज, आप बड़े भोले हैं। भला, जिसे काल ले जाता है, जो मर जाता है वह फिर कभी जीता हुआ है क्या ? ब्राह्मण देव, काल किसी से नहीं रुक सकता । वह तो अपना काम किए ही चला जाता है । फिर चाहे कोई बूढ़ा हो, या जवान हो, या बालक, सबके प्रति उसके समान भाव हैं। आप तो अभी अपने लड़के के लिए रोते हैं, पर मैं कहता हूँ कि वह तुम पर भी बहुत जल्दी सवारी करने वाला है। इसलिए यदि आप यह चाहते हों कि मैं उससे रक्षा पा सकूँ, तो इसके लिए ऐसा उपाय कीजिए कि आप दीक्षा लेकर मुनि हो जाएँ और अपना आत्महित करें। इसके सिवा काल पर विजय पाने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। सब कुछ सुन - सुनाकर ब्राह्मण ने कुछ लाचारी बतलाते हुए कहा कि यदि यह बात सच है और वास्तव में काल से कोई मनुष्य विजय नहीं पा सकता तो लाचारी है। अस्तु, हाँ एक बात तो राजाधिराज, मैं आपसे कहना ही भूल गया और वह बड़ी ही जरूरी बात थी । महाराज, इस भूल की मुझ गरीब पर क्षमा कीजिए । बात यह है कि मैं रास्ते में आता - आता सुनता आ रहा हूँ, लोग परस्पर में बातें करते हैं कि हाय ! बड़ा बुरा हुआ जो अपने महाराज के लड़के कैलाश पर्वत की रक्षा के लिए खाई खोदने को गए थे, वे सबके सब एक साथ मर गए ॥५३-५७॥
    ब्राह्मण का कहना पूरा भी न हुआ था कि सगर एकदम गश खाकर गिर पड़े। सच है, ऐसे भयंकर दुःख समाचार से किसे गश न आयेगा, कौन मूच्छित न होगा? उसी समय उपचारों द्वारा सगर होश में लाये गए। इसके बाद मौका पाकर मणिकेतु ने उन्हें संसार की दशा बतलाकर खूब उपदेश किया। अब की बार वह सफल प्रयत्न हो गया । सगर को संसार की इस क्षण-भंगुर दशा पर बड़ा ही वैराग्य हुआ। उन्होंने भागीरथ को राज देकर और सब माया-ममता छुड़ाकर दृढ़धर्म केवली द्वारा दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार का भटकना मिटाने वाली है ॥५८-६१॥
    सगर की दीक्षा लेने के बाद ही मणिकेतु कैलाश पर्वत पर पहुँचा और उन लड़कों को माया- मौत से सचेत कर बोला- सगर सुतो सुनो, जब आपकी मृत्यु का हाल आपके पिता ने सुना तो उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वे संसार की विनाशीक लक्ष्मी को छोड़कर साधु हो गए। मैं आपके कुल का ब्राह्मण हूँ । महाराज को दीक्षा ले जाने की खबर पाकर आपको ढूँढ़ने को निकला था। अच्छा हुआ जो आप मुझे मिल गए। अब आप राजधानी में जल्दी चलें । ब्राह्मणरूपधारी मणिकेतु द्वारा पिता का अपने लिए दीक्षित हो जाना सुनकर सगरसुतों ने कहा महाराज, आप जायें । हम लोग अब घर नहीं जाएँगे । जिस लिए पिताजी सब राज्यपाठ छोड़कर साधु हो गए तब हम किस मुँह से उस राज को भोग सकते हैं? हमसे इतनी कृतघ्नता न होगी, जो पिताजी के प्रेम का बदला हम ऐशो आराम भोग कर दें । जिस मार्ग को हमारे पूज्य पिताजी ने उत्तम समझकर ग्रहण किया है वही हमारे लिए भी शरण है । इसलिए कृपा कर आप हमारे इस समाचार को भैया भागीरथ से जाकर कह दीजिए कि वह हमारे लिए कोई चिन्ता न करें । ब्राह्मण से इस प्रकार कहकर वे सब भाई भगवान् के समवसरण में आए और पिता की तरह दीक्षा लेकर साधु बन गए ॥६२-६५॥
    भागीरथ को भाइयों का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ । उसकी इच्छा भी योग ले लेने की हुई, पर राज्य-प्रबन्ध उसी पर निर्भर रहने से वह दीक्षा न ले सका परन्तु उसने उन मुनियों द्वारा जिनधर्म का उपदेश सुनकर श्रावकों के व्रत ग्रहण किए। मणिकेतु का सब काम जब अच्छी तरह सफल हो गया तब वह प्रकट हुआ और उन सब मुनियों को नमस्कार कर बोला- भगवन् आपका मैंने बड़ा भारी अपराध जरूर किया है। पर आप जैनधर्म में तत्त्व को यथार्थ जानने वाले हैं। इसलिए सेवक को क्षमा करें। इसके बाद मणिकेतु ने आदि से इति पर्यन्त सब घटना कह सुनाई मणिकेतु के द्वारा सब हाल सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई वे उससे बोले - देवराज, इसमें तुम्हारा अपराध क्या हुआ, जिसके लिए क्षमा की जाए? तुमने तो उल्टा हमारा उपकार किया है। इसलिए हमें तुम्हारा कृतज्ञ होना चाहिए। मित्रपने के नाते से तुमने जो कार्य किया है वैसा करने के लिए तुम्हारे बिना और समर्थ ही कौन था? इसलिए देवराज, तुम ही सच्चे धर्म-प्रेमी हो, जिन भगवान् के भक्त हो और मोक्ष - लक्ष्मी की प्राप्ति के कारण हो । सगर - - सुतों को इस प्रकार सन्तोष जनक उत्तर पर मणिकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। वह फिर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर स्वर्ग चला गया । यह मुनिसंघ विहार करता हुआ सम्मेदशिखर पर आया और यहीं कठिन तपस्या कर शुक्लध्यान के प्रभाव से इसने निर्वाण लाभ किया ॥६६-७३॥
    उधर भागीरथ ने जब अपने भाइयों का मोक्ष प्राप्त करना सुना तो उसे भी संसार से बड़ा वैराग्य हुआ। वह फिर अपने वरदत्त पुत्र को राज्य सौंप आप कैलाश पर शिवगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहण कर मुनि हो गया । भगीरथ ने मुनि होकर गंगा के सुन्दर किनारों पर कभी प्रतिमायोग से, कभी आतापन योग से और कभी और किसी आसन से खूब तपस्या की । देवता लोग उसकी तपस्या से बहुत खुश हुए और इसीलिए उन्होंने भक्ति के वश हो भगीरथ के चरणों को क्षीर-समुद्र के जल से अभिषेक किया, जो कि अनेक प्रकार के सुखों का देने वाला है। उस अभिषेक के जल का प्रवाह बहता हुआ गंगा में गया। तभी से गंगा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुई और लोग उसके स्नान को पुण्य का कारण समझने लगे। भगीरथ ने फिर कहीं अन्यत्र विहार न किया । वह वहीं तपस्या करता रहा और अन्त में कर्मों का नाशकर उसने जन्म, जरा, मरणादि रहित मोक्ष का सुख भी यहीं से प्राप्त किया ॥७४-८०॥
    केवलज्ञानरूपी नेत्र द्वारा संसार के पदार्थों को जानने और देखने वाले, देवों द्वारा पूजा किए गए और मुक्तिरूप रमणीरत्न के स्वामी श्रीसगर मुनि तथा जैनतत्त्व के परम विद्वान् वे सगरसुत मुनिराज मुझे वह लक्ष्मी दें, जो कभी नाश होने वाली नहीं है और सर्वोच्च सुख की देने वाली है ॥८१॥
  20. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सब सुखों के देने वाले सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर शराब पीकर नुकसान उठाने वाले एक ब्राह्मण की कथा लिखी जाती है । वह इसलिए कि इसे पढ़कर सर्व साधारण लाभ उठावें ॥१॥
    वेद और वेदांगों का अच्छा विद्वान् एकपात नाम का एक संन्यासी एक चक्रपुर से चलकर गंगा नदी की यात्रार्थ जा रहा था। रास्ते में जाता हुआ वह दैवयोग से विन्ध्याटवी में पहुँच गया। यहाँ जवानी से मस्त हुए कुछ चाण्डाल लोग दारु पी-पीकर एक अपनी जाति की स्त्री के साथ हँसी मजाक करते हुए नाचकूद रहे थे, गा रहे थे और अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ में मस्त हो रहे थे। अभागा संन्यासी इस टोली के हाथ पड़ गया। उन लोगों ने उसे आगे न जाने देकर कहा-अहा! आप भले आए! आप ही की हम लोगों में कसर थी। आइए, मांस खाइए, दारू पीजिए और जिन्दगी का सुख देने वाली इस खूबसूरत औरत का मजा लूटिए । महाराज जी, आज हमारे लिए बड़ी खुशी का दिन है और ऐसे समय में जब आप स्वयं यहाँ आ गए तब तो हमारा यह सब करना धरना सफल हो गया। आप सरीखे महात्माओं का आना, सहज में थोड़े ही होता है? और फिर ऐसे खुशी के समय में। लीजिए, अब देर न कर हमारी प्रार्थना को पूरी कीजिए उनकी बातें सुनकर बेचारे संन्यासी के तो होश उड़ गए। वह इन शराबियों को कैसे समझाए, क्या कहे, और वह कुछ कहे सुने भी तो वे मानने वाले कब? वह बड़े संकट में फँस गया। तब भी उसने इन लोगों से कहा- बतलाओ मैं मांस, मदिरा कैसे खा पी सकता हूँ? इसलिए तुम मुझे जाने दो। उन चाण्डालों ने कहा— महाराज कुछ भी हो, हम तो आपको बिना कुछ प्रसाद लिए तो जाने नहीं देंगे। आपसे हम यहाँ तक कह देते हैं कि यदि आप अपनी खुशी से खायेंगे तो बहुत अच्छा होगा, नहीं तो फिर जिस तरह बनेगा हम आपको खिलाकर ही छोड़ेंगे। बिना हमारा कहना किए आप जीते जी गंगाजी नहीं देख सकते। अब तो संन्यासी जी घबराये । वे कुछ विचार करने लगे, तभी उन्हें स्मृतियों के कुछ प्रमाण वाक्य याद आ गए - ॥२-७॥
    'जो मनुष्य तिल या सरसों के बराबर मांस खाता है वह नरकों में तब तक दुःख भोगा करेगा, जब तक पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्र रहेंगे अर्थात् अधिक मांस खाने वाला नहीं। ब्राह्मण लोग यदि चाण्डाली के साथ विषय सेवन करें तो उनकी 'काष्ठ भक्षण' नाम के प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि हो सकती है। जो आँवले, गुड़ आदि से बनी हुई शराब पीते हैं, वह शराब पीना नहीं कहा जा सकता- आदि।” इसलिए जैसा ये कहते हैं, उसके करने में शास्त्रों, स्मृतियों से तो कोई दोष नहीं आता। ऐसा विचार कर उस मूर्ख ने शराब पी ली। थोड़ी ही देर बाद उसे नशा चढ़ने लगा । बेचारे को पहले कभी शराब पीने का काम पड़ा नहीं था इसलिए उसका रंग इस पर और अधिकता से चढ़ा | शराब के नशे में चूर होकर यह सब सुध-बुध भूल गया, अपनेपन का इसे कुछ ज्ञान न रहा। लंगोटी आदि फेंक कर वह भी उन लोगों की तरह नाचते-कूदने लगा जैसे कोई भूत-पिशाच के पंजे में पड़ा हुआ उन्मत्त की भाँति नाचने-कूदने लगता है। सच है, कुसंगति कुल, धर्म, पवित्रता आदि सभी का नाश कर देती है। संन्यासी बड़ी देर तक तो इसी तरह नाचता-कूदता रहा पर जब वह थोड़ा थक गया तो उसे जोर की भूख लगी । वहाँ खाने के लिए मांस के सिवा कुछ भी नहीं था । संन्यासी ने तब मांस ही खा लिया। पेट भरने के बाद उसे काम ने सताया। तब उसने यौवन की मस्ती में मत्त उस स्त्री के साथ अपनी नीच वासना पूरी की। मतलब यह कि एक शराब पीने से उसे ये सब नीचकर्म करने पड़े। दूसरे ग्रन्थों में भी इस एकपात संन्यासी के सम्बन्ध में लिखा है कि- मूर्ख एकपात संन्यासी ने स्मृतियों के वचनों को प्रमाण मानकर शराब पी, मांस खाया और चाण्डालिनी के साथ विषय सेवन किया। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे सहसा किसी प्रमाण पर विश्वास न कर बुद्धि से काम लें, क्योंकि मीठे पानी में मिला हुआ विष भी जान लिए बिना नहीं छोड़ता ॥८- १२ ॥ देखिये, एकपात संन्यासी गंगा - गोदावरी का नहाने वाला था, विष्णु का सच्चा भक्त था, और स्मृतियों का अच्छा विद्वान् था, पर अज्ञान से स्मृतियों के वचनों को हेतु-शुद्ध मानकर अर्थात् ऐसी शराब पीने में पाप नहीं, चाण्डालिनी का सेवन करने पर भी प्रायश्चित्त द्वारा ब्राह्मणों की शुद्धि हो सकती है, थोड़ा मांस खाने में दोष है, न कि ज्यादा खाने में । इस प्रकार मन का समझौता करके उसने मांस खाया, शराब पी और अपने वर्षों के ब्रह्मचर्य को नष्ट कर वह कामी हुआ । इसलिए बुद्धिमानों को उन सच्चे शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए जो पाप से बचाकर कल्याण का रास्ता बतलाने वाले हैं और ऐसे शास्त्र जिनभगवान् ने ही उपदेश किए हैं ॥१३-१४॥
  21. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के स्वामी और अनन्त सुखों के देने वाले श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर द्वीपायन मुनि का चरित लिखा जाता है, जैसा पूर्वाचार्यों ने उसे लिखा है ॥१॥
    सोरठदेश में द्वारका प्रसिद्ध नगरी है। नेमिनाथ भगवान् का जन्म यहीं हुआ है। इससे यह बड़ी पवित्र समझी जाती है। जिस समय की यह कथा लिखी जाती है । उस समय द्वारका का राज्य नवमें बलभद्र और वासुदेव करते थे । एक दिन ये दोनों राज- राजेश्वर गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ भगवान् की पूजा-वन्दना करने को गए । भगवान् की इन्होंने भक्तिपूर्वक पूजा की और उनका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर इन्हें बहुत प्रसन्नता हुई इसके बाद बलभद्र ने भगवान् से पूछा- हे संसार के अकारण बन्धो, हे केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक, हे तीन जगत् के स्वामी! हे करुणा के समुद्र ! और हे लोकालोक के प्रकाशक, कृपाकर कहिए कि वासुदेव को पुण्य से जो सम्पत्ति प्राप्त है वह कितने समय तक ठहरेगी? भगवान् बोले- बारह वर्ष पर्यन्त वासुदेव के पास रहकर फिर नष्ट हो जायेगी। इसके सिवा मद्य-पान से यदुवंश का समूल नाश होगा, द्वारका द्वीपायन मुनि के सम्बन्ध से जलकर खाक हो जायेगी, और बलभद्र, तुम्हारी इस छुरी द्वारा जरत्कुमार के हाथों से श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी। भगवान् के द्वारा यदुवंश द्वारका और वासुदेव का भविष्य सुनकर बलभद्र द्वारका आए। उस समय द्वारका में जितनी शराब थी, उसे उन्होंने गिरनार पर्वत के जंगल में डलवा दिया। उधर द्वीपायन अपने सम्बन्ध से द्वारका का भस्म होना सुन मुनि हो गए और द्वारका को छोड़कर कहीं अन्यत्र चल दिये। मूर्ख लोग न समझ कुछ यत्न करें, पर भगवान् का कहा कभी झूठा नहीं होता । बलभद्र ने शराब को तो फिकवा दिया था। अब एक छुरी और उनके पास रह गई थी, जिसके द्वारा भगवान् ने श्रीकृष्ण की मौत होना बतलाई थी। बलभद्र ने उसे भी खूब घिस - घिसाकर समुद्र में फिकवा दिया। कर्मयोग से उस छुरी को एक मच्छ निगल गया और वही मच्छ फिर एक मल्लाह के जाल में आ फँसा। उसे मारने पर उसके पेट से वह छुरी निकली और धीरे-धीरे वह जरत्कुमार के हाथ तक भी पहुँच गई जरत्कुमार ने उसका बाण के लिए फला बनाकर उसे अपने बाण पर लगा लिया ॥२-१४॥
    बारह वर्ष हुए नहीं, पर द्वीपायन को अधिक महीनों का ख्याल न रहने से बारह वर्ष पूरे हुए समझ वे द्वारका की ओर लौट आकर गिरनार पर्वत के पास ही कहीं ठहरे और तपस्या करने लगे । पर तपस्या द्वारा कर्मों का ऐसा योग कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। एक दिन की बात है कि द्वीपायन मुनि आतापन योग द्वारा तपस्या कर रहे थे। इसी समय मानों पापकर्मों द्वारा उभारे हुए यादवों के कुछ लड़के गिरनार पर्वत से खेल - कूद कर लौट रहे थे। रास्ते में इन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। यहाँ तक कि वे बेचैन हो गए। उनके लिए घर आना मुश्किल पड़ गया । आते-आते इन्हें पानी से भरा एक गड्ढा दिख पड़ा। पर वह पानी नहीं था किन्तु बलभद्र ने जो शराब दुलवा दी थी वही बहकर इस गड्ढे में इकट्ठी हो गई थी। उस शराब को उन लड़कों ने पानी समझ पी लिया। शराब पीकर थोड़ी देर हुई होगी कि उसने उन पर अपना रंग जमाना शुरू किया। नशे से वे सुध-बुध भूलकर उन्मत्त की तरह कूदते-फाँदते आने लगे। रास्ते में इन्होंने द्वीपायन मुनि को ध्यान करते देखा। मुनि की रक्षा के लिए बलभद्र ने उनके चारों ओर एक पत्थरों का कोट सा बनवा दिया था । एक ओर उसके आने-जाने का दरवाजा था । इन शैतान लड़कों ने मजाक में आ उस जगह को पत्थरों से पूर दिया । सच हैं, शराब पीने से सुध-बुध भूलकर बड़ी बुरी हालत हो जाती है । यहाँ तक कि उन्मत्त पुरुष अपनी माता बहिनों के साथ भी बुरी वासनाओं को प्रकट करने में नहीं लजाता है ॥१५-२१॥
    शराब पीने वाले पापी लोगों को हित-अहित का कुछ ज्ञान नहीं रहता। इन लड़कों की शैतानी का हाल जब बलभद्र को मालूम हुआ तो वे वासुदेव को लिए दौड़े-दौड़े मुनि के पास आए और उन पत्थरों को निकाल कर उनसे क्षमा की प्रार्थना की। इस क्षमा कराने का मुनि पर कुछ असर नहीं हुआ। उनके प्राण निकलने की तैयारी कर रहे थे। मुनि ने सिर्फ दो उंगलियाँ उन्हें बतलाई और थोड़ी ही देर बाद वे मर गए। क्रोध से मर कर तपस्या के फल से वे व्यन्तर हुए । उन्होंने कुअवधि द्वारा अपने व्यन्तर होने का कारण जाना तो उन्हें उन लड़कों के उपद्रव की सब बातें ज्ञात हो गई यह देखकर व्यन्तर को बड़ा क्रोध आया। उसने उसी समय द्वारका में आकर आग लगा दी । सारी द्वारका धन-जन सहित देखते-देखते खाक हो गई सिर्फ बलभद्र और वासुदेव ही बच पाए, जिनके लिए कि द्वीपायन ने दो उंगलियाँ बतलाई थी । सच है, क्रोध के वश हो मूर्ख पुरुष सब कुछ कर बैठते है। इसलिए भव्यजनों को शान्ति-लाभ के लिए क्रोध को कभी पास भी न फटकने देना चाहिए। उस भयंकर अग्नि लीला को देखकर बलभद्र और वासुदेव का भी जी ठिकाने न रहा। ये अपना शरीर मात्र लेकर भाग निकले। यहाँ से निकल कर वे एक घोर जंगल में पहुँचे। सच है-पाप का उदय आने पर सब धन-दौलत नष्ट होकर जी बचाना तक मुश्किल पड़ जाता है। जो पलभर पहले सुखी रहा हो वह दूसरे ही पल में पाप के उदय से अत्यन्त दुःखी हो जाता है इसलिए जिन लोगों के पास बुद्धिरूपी धन है, उन्हें चाहिए कि वे पाप के कारणों को छोड़कर पुण्य के कार्यों में अपने हाथों को बँटावें। पात्र- दान, जिन-पूजा, परोपकार, विद्या - प्रचार, शील, व्रत, संयम आदि ये सब पुण्य के कारण हैं। बलभद्र और वासुदेव जैसे ही उस जंगल में आए, वासुदेव को यहाँ अत्यन्त प्यास लगी। प्यास के मारे वे गश खाकर गिर पड़े। बलभद्र उन्हें ऐसे ही छोड़कर जल लाने चले गए। इधर जरत्कुमार न जाने कहाँ से इधर ही आ निकला । उसने श्रीकृष्ण को हरिण के भ्रम से बाण द्वारा बेध दिया। पर जब उसने आकर देखा कि वह हरिण नहीं किन्तु श्रीकृष्ण है तब तो उसके दुःख का कोई पार न रहा। पर अब वह कुछ करने-धरने को लाचार था । वह बलभद्र के भय से फिर उसी समय वहाँ से भाग लिया। इधर बलभद्र जब पानी लेकर लौटे और उन्होंने श्रीकृष्ण की यह दशा देखी तब उन्हें जो दुःख हुआ वह लिखकर नहीं बताया जा सकता । यहाँ तक कि वे भ्रातृप्रेम से सिड़ी से हो गए और श्रीकृष्ण को कन्धों पर उठाये महीनों पर्वतों और जंगलों में घूमते फिरे । बलभद्र की यह हालत देख उनके पूर्व जन्म के मित्र एक देव को बहुत खेद हुआ। उसने आकर इन्हें समझा-बुझा कर शान्त किया और उनसे भाई का दहन - संस्कार करवाया । संस्कार कर जैसे ही वे निर्वृत्त हुए, उन्हें संसार की दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब दुःख, शोक, माया-ममता छोड़कर योगी हो गए। उन्होंने फिर पर्वतों पर खूब दुस्सह तप किया ॥२२-३२॥
    अन्त में धर्मध्यान सहित मरण कर ये माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुए वहाँ वे प्रतिदिन नित नये और मूल्यवान् सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहनते हैं, अनेक देव-देवी उनकी आज्ञा में सदा हाजिर रहते हैं । नाना प्रकार के उत्तम से उत्तम स्वर्गीय भोगों को वे भोगते हैं, विमान द्वारा कैलाश, सम्मेद शिखर, हिमालय, गिरनार आदि पर्वतों की यात्रा करते हैं और विदेह क्षेत्र में जाकर साक्षात् जिनभगवान् की पूजा - भक्ति करते हैं। मतलब यह है कि पुण्य के उदय से उन्हें सब कुछ सुख प्राप्त हैं और वे आनन्द-उत्सव के साथ अपना समय बिताते हैं ॥३३-३६॥
    जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप इन तीन महान् रत्नों से भूषित हैं, जो जिन भगवान् के चरणों के सच्चे भक्त हैं, चारित्र धारण करने वालों में जो सबसे ऊँचे हैं, जिनकी परम पवित्र बुद्धि गुणरूपी रत्नों से शोभा को धारण किए हैं और जो ज्ञान के समुद्र हैं, ऐसे बलभद्र मुनिराज मुझे वह सुख, शांति और वह मंगल दें, जिससे मन सदा प्रसन्न रहे ॥३७॥
     
  22. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों और राजाओं, महाराजाओं द्वारा पूजा किए गए भगवान् के चरणों को नमस्कार कर नागदत्ता की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    आभीर देश नासक्य नगर में सागरदत्त नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम नागदत्त था। इसके एक लड़का और एक लड़की थी ॥२॥
    दोनों के नाम थे श्रीकुमार और श्रीषेणा । नागदत्ता का चाल-चलन अच्छा न था। अपनी गायों को चराने वाले नन्द नाम के ग्वाल के साथ उसकी आशनाई थी । नागदत्ता ने उसे एक दिन कुछ सिखा-सुझा दिया। सो वह बीमारी का बहाना बनाकर गायें चराने को नहीं आया । तब बेचारे सागरदत्त को स्वयं गायें चराने को जाना पड़ा । जंगल में गायों को चरते छोड़कर वह एक झाड़के नीचे सो गया। पीछे से नन्दग्वाल ने आकर उसे मार डाला। बात यह थी कि नागदत्ता ने ही अपने पति को मार डालने के लिए उसे उकसाया था और फिर परस्त्री - लम्पटी पुरुष अपने सुख में आने वाले विघ्न को नष्ट करने के लिए कौन बुरा काम नहीं करता ॥३-६॥
    नागदत्ता और पापी नन्द इस प्रकार अनर्थ द्वारा अपने सिर पर एक बड़ा भारी पाप का बोझ लादकर अपनी नीच मनोवृत्तियों को प्रसन्न करने लगे। श्रीकुमार अपनी माता की इस नीचता से बेहद कष्ट पाने लगा। उसे लोगों को मुँह दिखाना तक कठिन हो गया । उसे बड़ी लज्जा आने लगी और इसके लिए उसने अपनी माता को बहुत कुछ कहा सुना भी। पर नागदत्ता के मन पर उसका कुछ असर नहीं हुआ। वह पिचली हुई नागिन की तरह उसी पर दाव खाने लगी। उसने नाराज होकर श्रीकुमार को भी मार डालने के लिए नन्द को उभारा । नन्द फिर बीमारी का बहाना बनाकर गायें चराने को नहीं आया। तब श्रीकुमार स्वयं ही जाने को तैयार हुआ । उसे जाता देखकर उसकी बहिन श्रीषेणा उसे रोककर कहा-भैया, तुम मत जाओ । मुझे माता का इसमें कुछ कपट दिखता है। उसने जैसे नन्द द्वारा अपने पिताजी को मरवा डाला है, वह तुम्हें भी मरवा डालने के लिए दाँत पीस रही है। मुझे जान पड़ता है नन्द इसीलिए बहाना बनाकर आज गायें चराने को नहीं आया । श्रीकुमार बोला- बहिन, तुमने मुझे आज सावधान कर दिया। यह बड़ा ही अच्छा किया। तू मत घबरा। मैं अपनी रक्षा अच्छी तरह कर सकूँगा। अब मुझे रंचमात्र भी डर नहीं रहा और मैं तुम्हारे कहने से नहीं जाता, पर इससे माता को अधिक सन्देह होता और वह फिर कोई दूसरा ही यत्न कर मुझे मरवाने का करती क्योंकि वह चुप तो कभी बैठी ही न रहेगी। आज बहुत ही अच्छा मौका हाथ लगा है। इसीलिए मरा जाना ही उचित है। और जहाँ तक मेरा बस चलेगा मैं जड़मूल से उस अंकुर को उखाड़कर फेंक दूँगा, जो हमारी माता के अनर्थ का मूल कारण है । बहिन ! तुम किसी तरह की चिन्ता मन में न लाओ। अनाथों का नाथ अपना भी मालिक है ॥७-१२॥
    श्रीकुमार बहिन को समझा कर जंगल में गायें चराने को गया । उसने वहाँ एक बड़े लकड़े को वस्त्रों से ढककर इस तरह रख दिया कि वह दूसरों को सोया हुआ मनुष्य जान पड़ने लगा और आप एक ओर छिप गया श्रीषेणा की बात सच निकली । नन्द नंगी तलवार लिए दबे पाँव उस लकड़े के पास आया और तलवार उठाकर उसने उस पर दे मारी। इतने में श्रीकुमार ने आकर उसकी पीठ में इस जोर की एक भाले की जमाई कि भाला आर-पार हो गया और नन्द देखते-देखते तड़फड़ाकर मर गया। इधर श्रीकुमार गायों को लेकर घर लौट आया। आज गायें दोहने के लिए भी श्रीकुमार ही गया। उसे देखकर नागदत्ता ने उससे पूछा- क्यों कुमार, नन्द नहीं आया? मैंने तो तेरे ढूँढ़ने के लिए उसे जंगल में भेजा था। क्या तूने उसे देखा है कि वह कहाँ पर है? श्रीकुमार से तब न रहा गया और गुस्से में आकर उसने कह डाला - माता, मुझे तो मालूम नहीं कि नन्द कहाँ है। पर मेरा यह भाला अवश्य जानता है। नागदत्ता की आँखें जैसे ही उस खून से भरे भाले पर पड़ी तो उसकी छाती धड़क उठी। उसने समझ लिया कि इसने उसे मार डाला है। अब तो क्रोध से वह भर गई उसे सामने एक मूसला रखा था। उस पापिनी ने उसे ही उठाकर श्रीकुमार के सिर पर इस प्रकार जोर से मारा कि सिर फटकर तत्काल वह भी धराशायी हो गया । अपने भाई की इस प्रकार हत्या हुई देखकर श्रीषेणा दौड़ी और नागदत्ता के हाथ से झट से मूसला छुड़ाकर उसने उसके सिर पर एक जोर की मार जमाई, जिससे वह भी अपने किए की योग्य सजा पा गई। नागदत्ता मरकर पाप के फल से नरक गई। सच है-पापी को अपना जीवन पाप में ही बिताना पड़ता है । नागदत्ता इसका उदाहरण है। उस दुराचार को धिक्कार, उस काम को धिक्कार, जिसके वश मनुष्य महा पापकर्म कर और फिर उसके फल से दुर्गति में जाता है । इसलिए सत्पुरुषों को उचित है कि वे जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए, सबको प्रसन्न करने वाले और सुख प्राप्ति के साधन ब्रह्मचर्य व्रत का सदा पालन करें ॥१३-२२॥
  23. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञानरूपी नेत्रों की अपूर्व शोभा को धारण किए हुए श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर भीमराज की कथा लिखी जाती है, जिसे सुनकर सत्पुरुषों को इस दुःखमय संसार से वैराग्य होगा ॥१॥
    वद्यापी कांपिल्य नगर में भीम नाम का एक राजा हो गया है। वह दुर्बुद्धि बड़ा पापी था। उसकी रानी का नाम सोमश्री था। इसके भीमदास नाम का एक लड़का था । भीम ने कुल - क्रम के अनुसार नन्दीश्वर पर्व में मुनादी पिटवाई कि कोई इस पर्व में जीवहिंसा न करें । राजा ने मुनादी तो पिटवा दी, पर स्वयं महा लम्पटी था। मांस खाये बिना उसे एक दिन भी चैन नहीं पड़ता था। उसने इस पर्व में भी अपने रसोइये से मांस पकाने को कहा । पर दुकानें सब बन्द थीं, अतः उसे बड़ी चिन्ता हुई वह मांस लाये कहाँ से? तब उसने एक युक्ति की । वह मसान से एक बच्चे की लाश उठा लाया और उसे पकाकर राजा को खिलाया । राजा को वह मांस बड़ा ही अच्छा लगा। तब उसने रसोइये से कहा- क्यों रे, आज यह मांस और दिनों की अपेक्षा इतना स्वादिष्ट क्यों हैं? रसोइये ने डरकर सच्ची बात राजा से कह दी। राजा ने तब उससे कहा- आज से तू बालकों का ही मांस पकाया करना ॥२-७॥
    राजा ने तो झट से कह दिया कि अब से बालकों का ही मांस खाने के लिए पकाया करना पर रसोइये को इसकी बड़ी चिन्ता हुई कि वह रोज-रोज बालकों को लाये कहाँ से? और राजाज्ञा का पालन होना ही चाहिए । तब उसने यह प्रयत्न किया कि रोज शाम के वक्त शहर के मुहल्लों में जाना जहाँ बच्चे खेल रहे हों उन्हें मिठाई का लोभ देकर झट से किसी एक को पकड़ कर उठा लाना । इसी तरह वह रोज-रोज एक बच्चे की जान लेने लगा। सच है -पापी लोगों की संगति दूसरों को भी पापी बना देती है । जैसे भीमराज की संगति से उसका रसोइया भी उसी के सरीखा पापी हो गया ॥ ८-९ ॥
    बालकों को प्रतिदिन इस प्रकार एकाएक गायब होने से शहर में बड़ी हलचल मच गई सब इसका पता लगाने की कोशिश में लगे । एक दिन इधर तो रसोइया को चुपके से एक गृहस्थ के बालक को उठाकर चला कि पीछे से उसे किसी ने देख लिया । रसोइया झट-पट पकड़ लिया गया। उससे जब पूछा गया तो उसने सब बातें सच्ची - सच्ची बतला दीं। यह बात मंत्रियों के पास पहुँची । उन्होंने सलाह कर भीमदास को अपना राजा बनाया और भीम को रसोइये के साथ शहर से निकाल बाहर किया। सच है, पापियों का कोई साथ नहीं देता । माता, पुत्र, भाई, बहिन, मित्र, मंत्री, प्रजा आदि सब ही विरुद्ध होकर उसके शत्रु बन जाते हैं ॥१०-१३॥
    भीम यहाँ से चलकर अपने रसोइये के साथ एक जंगल में पहुँचा । यहाँ इसे बहुत ही भूख लगी । इसके पास खाने को कुछ नहीं था। तब यह अपने रसोइये को ही मारकर खा गया। यहाँ से घूमता- फिरता यह मेखलपुर पहुँचा और वहाँ वासुदेव के हाथ मारा जाकर नरक गया ॥१४-१५॥
    अधर्मी पुरुष अपने ही पापकर्मों से संसार - समुद्र में रुलते हैं । इसलिए सुख की चाह करने वाले बुद्धिमानों को चाहिए कि वे सुख के स्थान जैनधर्म का पालन करें ॥१६॥
  24. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    सब सुखों के देने वाले जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मूर्खिणी गन्धर्वसेना का चरित लिखा जाता है। गन्धर्वसेना भी एक विषय की अत्यासक्ति से मौत के पंजे में फँसी थी ॥१॥
    पाटलिपुत्र (पटना) के राजा गन्धर्वदत्त की रानी गन्धर्वदत्त के गन्धर्वसेना नाम की एक कन्या थी। गन्धर्वसेना गानविद्या की बड़ी जानकार थी और इसीलिए उसने प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जो मुझे गाने में जीत लेगा “वही मेरा स्वामी होगा, उसी की मैं अंकशायिनी बनूँगी।” गन्धर्वसेना की खूबसूरती की मनोहारी सुगन्ध की लालसा से अनेक क्षत्रियकुमार भौंरे की तरह खिंचे हुए आते थे, पर यहाँ आकर उन सबको निराश - मुँह लौट जाना पड़ता था । गन्धर्व सेना के सामने गाने में कोई नहीं ठहर पाता था ॥२-४॥
    एक पांचाल नाम का उपाध्याय गानशास्त्र का बहुत अच्छा अभ्यासी था । उसकी इच्छा भी गन्धर्वसेना को देखने की हुई वह अपने पाँच सौ शिष्यों को साथ लिए पटना आकर एक बगीचे में ठहरा। समय गर्मी का था और बहुत दूर की मंजिल तय करने से पांचाल थक भी गया था। इसलिए वह अपने शिष्यों से यह कहकर, कि कोई यहाँ आए तो मुझे जगा देना, एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया। इधर वह सोया और उधर इसके बहुत से विद्यार्थी शहर देखने को चल दिये ॥५-८॥
    गन्धर्वसेना को जब पांचाल के आने और उसके पाण्डित्य की खबर लगी । वह इसे देखने को आई उसने उसे बहुत-सी वीणाओं को आस - पास रखे सोया देखकर समझा कि वह विद्वान् तो बहुत भारी है, पर जब उसके लार बहते हुए मुँह पर उसकी नजर गई तो उसे पांचाल से बड़ी नफरत हुई उसने फिर उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा और जिस झाड़के नीचे पांचाल सोया हुआ था। उसकी चन्दन, फूल वगैरह से पूजा कर वह उसी समय अपने महल लौट आई। गन्धर्वसेना के जाने के बाद जब पांचाल की नींद खुली और उसने वृक्ष को गंध- पुष्पादि से पूजा हुआ पाया तो कुछ संदेह हुआ। एक विद्यार्थी से इसका कारण पूछा तो उसने एक स्त्री के आने और इस वृक्ष की पूजा कर उसके चले जाने का हाल पांचाल से कहा। पांचाल ने समझ लिया कि गन्धर्वसेना आकर चली गई तब उसने सोचा यह तो ठीक नहीं हुआ। सोने ने सब बना-बनाया खेल बिगाड़ दिया। खैर, जो हुआ, अब लौट जाना भी ठीक नहीं । चलकर प्रयत्न जरूर करना चाहिए। इसके बाद वह राजा के पास गया और प्रार्थना कर अपने रहने को एक स्थान उसने माँगा। स्थान उसकी प्रार्थना के अनुसार गन्धर्वसेना के महल के पास ही मिला । कारण राजा से पांचाल ने कह दिया था कि आपकी राजकुमारी गान में बड़ी होशियार है, ऐसा मैं सुनता हूँ और मैं भी आपकी कृपा से थोड़ी बहुत गाना जानता हूँ, इसलिए मेरी इच्छा राजकुमारी का गाना सुनकर यह बात देखने की है कि इस विषय में उसकी कैसी गति है। यही कारण था कि राजा ने कुमारी के महल के समीप ही उसे रहने की आज्ञा दे दी। अस्तु ॥९-१२॥
    एक दिन पांचाल कोई रात के तीन चार बजे के समय वीणा को हाथ में लिए बड़ी मधुरता से गाने लगा। उसके मधुर मनोहर गाने की आवाज शान्त रात्रि में आकाश को भेदती हुई गन्धर्वसेना के कानों से जाकर टकराई गन्धर्वसेना उस समय भर नींद में थी । पर उस मनोमुग्ध करने वाली आवाज को सुनकर वह सहसा चौंक कर उठ बैठी । न केवल उठ बैठने ही से उसे सन्तोष हुआ बल्कि वह उठकर उधर दौड़ी और उधर गई जिधर से आवाज गूँजती हुई आ रहा थी। इस बे-भान अवस्था में दौड़ते हुए उसका पाँव खिसक गया और वह धड़ाम से आकर जमीन पर गिर पड़ी। देखते-देखते उसका आत्माराम उसे छोड़कर चला गया। इस विषयासक्ति से उसे फिर संसार में चिर समय तक रुलना पड़ा । गन्धर्वसेना एक कर्णेन्द्रिय के विषय की लम्पटता से जब अथाह संसार सागर में डूबी, तब जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में सदा काल मस्त रहते हैं, वे यदि डूबे तो इसमें नई बात क्या? इसलिए बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे इन दुःखों के कारण विषयभोगों को छोड़कर सुख के सच्चे स्थान जिनधर्म का आश्रय लें ॥१३-१६॥
  25. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    अनन्त गुण-विराजमान और संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर गन्धमित्र राजा की कथा लिखी जाती है, जो घ्राणेन्द्रिय के विषय में फँसकर अपनी जान गँवा बैठा है ॥१॥
    अयोध्या के राजा विजय सेन और रानी विजयवती के दो पुत्र थे । इनके नाम थे जयसेन और गन्धमित्र। इनमें गन्धमित्र बड़ा लम्पटी था । भौरे की तरह नाना प्रकार के फूलों के सूँघने में वह सदा मस्त रहता था ॥२-३॥
    उनके पिता विजयसेन एक दिन कोई कारण देखकर संसार में विरक्त हो गए। इन्होंने अपने बड़े लड़के जयसेन को राज्य देकर और गन्धमित्र को युवराज बनाकर सागरसेन मुनिराज से योग ले लिया। सच है, जो अच्छे पुरुष होते हैं उनकी धर्म की ओर स्वभाव ही से रुचि होती है ॥४-५॥
    महत्त्वाकांक्षा राजा होने की थी तब उसने राज्य के लोभ में पड़कर अपने बड़े भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। कितने ही बड़े-बड़े कर्मचारियों को उसने धन का लोभ देकर उभारा, प्रजा में से बहुतों को उल्टी-सीधी सुझाकर बहकाया । गन्धमित्र को इसमें सफलता प्राप्त हुई । उसने मौका पाकर बड़े भाई जयसेन को सिंहासन से उतार राज्य से बाहर कर दिया और आप राजा बन बैठा । राजवैभव सचमुच ही महापाप का कारण है। देखिए न, इस राजवैभव के लोभ में पड़कर मूर्खजन अपने सगे भाई की जान तक लेने की कोशिश में रहते हैं ॥ ६-८ ॥
    राज्य-भ्रष्ट जयसेन को अपने भाई के इस अन्याय से बड़ा दुःख हुआ । उसका उसे ठीक बदला मिले, उस उपाय में अब लग गया। प्रतिहिंसा से अपने कर्तव्य को वह भूल बैठा। उस दिन का रास्ता वह बड़ी उत्सुकता से देखने लगा जिस दिन गन्धमित्र को वह लात मारकर अपने हृदय को सन्तुष्ट करे। गन्धमित्र लम्पटी तो था ही, सो रोज-रोज अपनी स्त्रियों को साथ ले जाकर सरयू नदी में उनके साथ जलक्रीड़ा, हँसी, दिल्लगी किया करता था । जयसेन ने इस मौके को अपना बदला चुकाने के लिए बहुत अच्छा समझा । एक दिन उसने जहर के पुट लिये अनेक प्रकार के अच्छे-अच्छे मनोहर फूलों को ऊपर की ओर से नदी में बहा दिया। फूल गन्धमित्र के पास होकर बहे जा रहे थे । गन्धमित्र उन्हें देखते ही उनके लेने के लिए झपटा। कुछ फूलों को हाथ में ले वह सूँघने लगा। फूलों के विष का उस पर बहुत जल्दी असर हुआ और देखते-देखते वह चल बसा। मरकर गन्धमित्र घ्राणेन्द्रिय के विषय की अत्यन्त लालसा से नरक गया । सो ठीक है, इंद्रियों के अधीन हुए लोगों का नाश होता ही है ॥९ - १३॥
    देखिये, गंधमित्र केवल एक विषय का सेवन कर नरक में गया, जो कि अनन्त दुःखों का स्थान है। तब जो लोग पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने वाले हैं, वे क्या नरकों में न जाएँगे? अवश्य जाएँगे। इसलिए जिन बुद्धिमानों को दुःख सहना अच्छा नहीं लगता या वे दुःखों को चाहते नहीं है उन्हें विषयों की ओर से अपने मन को खींचकर जिनधर्म की ओर लगाना चाहिए ॥१४॥
×
×
  • Create New...