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 ४९. गन्धर्वसेना की कथा


सब सुखों के देने वाले जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मूर्खिणी गन्धर्वसेना का चरित लिखा जाता है। गन्धर्वसेना भी एक विषय की अत्यासक्ति से मौत के पंजे में फँसी थी ॥१॥

पाटलिपुत्र (पटना) के राजा गन्धर्वदत्त की रानी गन्धर्वदत्त के गन्धर्वसेना नाम की एक कन्या थी। गन्धर्वसेना गानविद्या की बड़ी जानकार थी और इसीलिए उसने प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जो मुझे गाने में जीत लेगा “वही मेरा स्वामी होगा, उसी की मैं अंकशायिनी बनूँगी।” गन्धर्वसेना की खूबसूरती की मनोहारी सुगन्ध की लालसा से अनेक क्षत्रियकुमार भौंरे की तरह खिंचे हुए आते थे, पर यहाँ आकर उन सबको निराश - मुँह लौट जाना पड़ता था । गन्धर्व सेना के सामने गाने में कोई नहीं ठहर पाता था ॥२-४॥

एक पांचाल नाम का उपाध्याय गानशास्त्र का बहुत अच्छा अभ्यासी था । उसकी इच्छा भी गन्धर्वसेना को देखने की हुई वह अपने पाँच सौ शिष्यों को साथ लिए पटना आकर एक बगीचे में ठहरा। समय गर्मी का था और बहुत दूर की मंजिल तय करने से पांचाल थक भी गया था। इसलिए वह अपने शिष्यों से यह कहकर, कि कोई यहाँ आए तो मुझे जगा देना, एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया। इधर वह सोया और उधर इसके बहुत से विद्यार्थी शहर देखने को चल दिये ॥५-८॥

गन्धर्वसेना को जब पांचाल के आने और उसके पाण्डित्य की खबर लगी । वह इसे देखने को आई उसने उसे बहुत-सी वीणाओं को आस - पास रखे सोया देखकर समझा कि वह विद्वान् तो बहुत भारी है, पर जब उसके लार बहते हुए मुँह पर उसकी नजर गई तो उसे पांचाल से बड़ी नफरत हुई उसने फिर उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा और जिस झाड़के नीचे पांचाल सोया हुआ था। उसकी चन्दन, फूल वगैरह से पूजा कर वह उसी समय अपने महल लौट आई। गन्धर्वसेना के जाने के बाद जब पांचाल की नींद खुली और उसने वृक्ष को गंध- पुष्पादि से पूजा हुआ पाया तो कुछ संदेह हुआ। एक विद्यार्थी से इसका कारण पूछा तो उसने एक स्त्री के आने और इस वृक्ष की पूजा कर उसके चले जाने का हाल पांचाल से कहा। पांचाल ने समझ लिया कि गन्धर्वसेना आकर चली गई तब उसने सोचा यह तो ठीक नहीं हुआ। सोने ने सब बना-बनाया खेल बिगाड़ दिया। खैर, जो हुआ, अब लौट जाना भी ठीक नहीं । चलकर प्रयत्न जरूर करना चाहिए। इसके बाद वह राजा के पास गया और प्रार्थना कर अपने रहने को एक स्थान उसने माँगा। स्थान उसकी प्रार्थना के अनुसार गन्धर्वसेना के महल के पास ही मिला । कारण राजा से पांचाल ने कह दिया था कि आपकी राजकुमारी गान में बड़ी होशियार है, ऐसा मैं सुनता हूँ और मैं भी आपकी कृपा से थोड़ी बहुत गाना जानता हूँ, इसलिए मेरी इच्छा राजकुमारी का गाना सुनकर यह बात देखने की है कि इस विषय में उसकी कैसी गति है। यही कारण था कि राजा ने कुमारी के महल के समीप ही उसे रहने की आज्ञा दे दी। अस्तु ॥९-१२॥

एक दिन पांचाल कोई रात के तीन चार बजे के समय वीणा को हाथ में लिए बड़ी मधुरता से गाने लगा। उसके मधुर मनोहर गाने की आवाज शान्त रात्रि में आकाश को भेदती हुई गन्धर्वसेना के कानों से जाकर टकराई गन्धर्वसेना उस समय भर नींद में थी । पर उस मनोमुग्ध करने वाली आवाज को सुनकर वह सहसा चौंक कर उठ बैठी । न केवल उठ बैठने ही से उसे सन्तोष हुआ बल्कि वह उठकर उधर दौड़ी और उधर गई जिधर से आवाज गूँजती हुई आ रहा थी। इस बे-भान अवस्था में दौड़ते हुए उसका पाँव खिसक गया और वह धड़ाम से आकर जमीन पर गिर पड़ी। देखते-देखते उसका आत्माराम उसे छोड़कर चला गया। इस विषयासक्ति से उसे फिर संसार में चिर समय तक रुलना पड़ा । गन्धर्वसेना एक कर्णेन्द्रिय के विषय की लम्पटता से जब अथाह संसार सागर में डूबी, तब जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में सदा काल मस्त रहते हैं, वे यदि डूबे तो इसमें नई बात क्या? इसलिए बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे इन दुःखों के कारण विषयभोगों को छोड़कर सुख के सच्चे स्थान जिनधर्म का आश्रय लें ॥१३-१६॥

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