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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मैं जीवों को सुख के देने वाले जिनभगवान् को नमस्कार करके इस अध्याय में भट्टाकलंकदेव की कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाली है ॥१॥
    भारतवर्ष में एक मान्यखेट नाम का नगर था। उसके राजा थे शुभतुंग और उनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था। पुरुषोत्तम की गृहिणी पद्मावती थी। उसके दो पुत्र हुए। उनके नाम थे अकलंक और निकलंक। वे दोनों भाई बड़े बुद्धिमान् गुणी थे ॥२-३॥
    एक दिन की बात है कि अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम और उसकी गृहिणी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराज की वन्दना करने को गए साथ में दोनों भाई भी गए। मुनिराज की वन्दना कर इनके माता-पिता ने आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य लिया और साथ ही विनोदवश अपने दोनों पुत्रों को भी उन्होंने ब्रह्मचर्य दिला दिया ॥४-५॥
    कुछ दिनों के बाद पुरुषोत्तम ने अपने पुत्रों के ब्याह की आयोजना की । यह देख दोनों भाईयों ने मिलकर पिता से कहा - पिताजी ! इतना भारी आयोजन, इतना परिश्रम आप किसलिए कर रहे हैं? अपने पुत्रों की भोली बात सुनकर पुरुषोत्तम ने कहा- यह सब आयोजन तुम्हारे ब्याह के लिए है। पिता का उत्तर सुनकर दोनों भाइयों ने फिर कहा - पिताजी ! अब हमारा ब्याह कैसा? आपने तो हमें ब्रह्मचर्य दिलवा दिया था न? पिता ने कहा नहीं, वह तो केवल विनोद से दिया गया था। उन बुद्धिमान् भाइयों ने कहा-पिताजी ! धर्म और व्रत में विनोद कैसा? यह हमारी समझ में नहीं आया । अच्छा आपने विनोद ही से दिया सही, तो अब उसके पालन करने में भी हमें लज्जा कैसी ? पुरुषोत्तम ने फिर कहा- अस्तु! जैसा तुम कहते हो वही सही, पर तब तो केवल आठ ही दिन के लिए ब्रह्मचर्य दिया था न ? दोनों भाइयों ने कहा - पिताजी! हमें आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य दिया गया था, इसका न तो आपने हमसे खुलासा कहा था और न आचार्य महाराज ने ही । तब हम कैसे समझें कि वह व्रत आठ ही दिन के लिए था। इसलिए हम तो अब उसका आजन्म पालन करेंगे, ऐसी हमारी दृढ़ प्रतिज्ञा है । हम अब विवाह नहीं करेंगे। यह कहकर दोनों भाइयों ने घर का सब कारोबार छोड़कर और अपना चित्त शास्त्राभ्यास की ओर लगाया। थोड़े ही दिनों में वे अच्छे विद्वान् बन गए। इनके समय में बौद्धधर्म का बहुत जोर था इसलिए उन्हें उसके तत्त्व जानने की इच्छा हुई। उस समय मान्यखेट में ऐसा कोई बौद्ध विद्वान् नहीं था, जिससे वे बौद्धधर्म का अभ्यास करते। इसलिए वे एक अज्ञ विद्यार्थी का वेश बनाकर महाबोधि नामक स्थान में बौद्धधर्माचार्य के पास गए। आचार्य ने इनकी अच्छी तरह परीक्षा करके कि कहीं ये छली तो नहीं हैं और जब उन्हें इनकी ओर से विश्वास हो गया तब वे और शिष्यों के साथ-साथ उन दोनों को भी पढ़ाने लगे। वे भी अन्तरंग में तो पक्के जिनधर्मी और बाहर से एक महामूर्ख बनकर स्वर व्यंजन सीखने लगे । निरन्तर बौद्धधर्म सुनते रहने से अकलंकदेव की बुद्धि बड़ी विलक्षण हो गई, उन्हें एक ही बार के सुनने से कठिन से कठिन बात भी याद हो जाने लगी और निकलंक को दो बार सुनने से याद होने लगा अर्थात् अकलंक एक संस्थ और निकलंक दो संस्थ हो गए। इस प्रकार वहाँ रहते दोनों भाइयों का बहुत समय बीत गया ॥६- १९॥
    एक दिन की बात है बौद्धगुरु अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे । उस समय प्रकरण था, , जैनधर्म के सप्तभंगी सिद्धान्त का। वहाँ कोई अशुद्ध पाठ आ गया, जो बौद्धगुरु की समझ न आया, तब वे अपने व्याख्यान को वहीं समाप्त कर कुछ समय के लिए बाहर चले आए। अकलंक बुद्धिमान् थे, वे बौद्धगुरु के भाव समझ गए; इसलिए उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उस पाठ को शुद्ध कर दिया और उसकी खबर किसी को न होने दी। इतने में पीछे बौद्धगुरु आए। उन्होंने अपना व्याख्यान आरम्भ किया। जो पाठ अशुद्ध था, वह अब देखते ही उनकी समझ में गया । यह देख उन्हें सन्देह हुआ कि अवश्य इस जगह कोई जिनधर्मरूप समुद्र का बढ़ाने वाला चन्द्रमा है और वह हमारे धर्म के नष्ट करने की इच्छा से बौद्धवेष धारण कर बौद्धशास्त्र का अभ्यास कर रहा है । उसका जल्दी ही पता लगाकर उसे मरवा डालना चाहिए। इस विचार के साथ ही बौद्धगुरु ने सब विद्यार्थियों को शपथ, प्रतिज्ञा आदि देकर पूछा, पर जैनधर्मी का पता उन्हें नहीं लगा। इसके बाद उन्होंने जिनप्रतिमा मँगवाकर उसे लाँघ जाने के लिए सबको कहा । सब विद्यार्थी तो लाँघ गए, अब अकलंक की बारी आई, उन्होंने अपने कपड़े में से एक सूत का सूक्ष्म धागा निकालकर उसे प्रतिमा पर डाल दिया और उसे परिग्रही समझकर वे झट से लाँघ गए। यह कार्य इतनी जल्दी किया गया कि किसी की समझ में न आया। बौद्धगुरु इस युक्ति में भी जब कृतकार्य नहीं हुए, तब उन्होंने एक और नई युक्ति की । उन्होंने बहुत से काँसे के बर्तन इकट्ठे करवाए और उन्हें एक बड़ी भारी गौन में भरकर वह बहुत गुप्त रीति से विद्यार्थियों के सोने की जगह के पास रखवा दी और विद्यार्थियों की देखरेख के लिए अपना एक-एक गुप्तचर रख दिया ॥२०-२८॥
    आधी रात का समय था । सब विद्यार्थी निडर होकर निद्रादेवी की गोद में सुख का अनुभव कर रहे थे। किसी को कुछ मालूम न था कि हमारे लिए क्या-क्या षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं। एकाएक बड़ा विकराल शब्द हुआ। मानों आसमान से बिजली टूटकर पड़ी। सब विद्यार्थी उस भयंकर आवाज से काँप उठे। वे अपना जीवन बहुत थोड़े समय के लिए समझकर अपने उपास्य परमात्मा का स्मरण कर उठे। अकलंक और निकलंक भी पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करने लग गए । पास ही बौद्धगुरु का जासूस खड़ा हुआ था। वह उन्हें बुद्ध भगवान् का स्मरण करने की जगह जिन भगवान् का स्मरण करते देखकर बौद्धगुरु के पास ले गया और गुरु से उसने प्रार्थना की । प्रभो! आज्ञा कीजिए कि इन दोनों धूर्तों का क्या किया जाये ? ये ही जैनी हैं। सुनकर वह दुष्ट बौद्धगुरु बोला-इस समय रात थोड़ी बीती है, इसलिए इन्हें ले जाकर कैदखाने में बन्द कर दो, जब आधी रात हो जाये तब इन्हें मार डालना। गुप्तचर ने दोनों भाइयों को ले जाकर कैदखाने में बन्द कर दिया ॥२९-३२॥
    अपने पर एक महाविपत्ति आई देखकर निकलंक ने बड़े भाई से कहा- भैया ! हम लोगों ने इतना कष्ट उठाकर तो विद्या प्राप्त की, पर कष्ट है कि उसके द्वारा हम कुछ भी जिनधर्म की सेवा न कर सके और एकाएक हमें मृत्यु का सामना करना पड़ा। भाई की दुःखभरी बात सुनकर महाधीर-वीर अकलंक ने कहा-प्रिय! तुम बुद्धिमान् हो, तुम्हें भय करना उचित नहीं । घबराओ मत। अब भी हम अपने जीवन की रक्षा कर सकेंगे। देखो मेरे पास यह छत्री है, इसके द्वारा अपने को छुपाकर हम लोग यहाँ से निकल चलते हैं। अभी हम शीघ्र ही अपने स्थान पर जा पहुँचते हैं। यह विचार करके दोनों भाई दबे पाँव निकल गए और जल्दी-जल्दी रास्ता तय करने लगे ॥३३-३७॥
    इधर जब आधी रात बीत चुकी और बौद्धगुरु की आज्ञानुसार उन दोनों भाइयों के मारने का समय आया; तब उन्हें पकड़ लाने के लिए नौकर लोग दौड़ाए गए, पर वे कैदखाने में जाकर देखते हैं तो वहाँ कोई भी नहीं । सभी को उनके एकाएक गायब हो जाने से बड़ा आश्चर्य हुआ । पर कर क्या सकते थे। उन्हें उनके कहीं आस-पास ही छुपे रहने का सन्देह हुआ। उन्होंने आस-पास के वन, जंगल, खंडहर, बावड़ी, कुँए, पहाड़, गुफाएँ आदि सब एक-एक करके ढूँढ़ डाले, पर उनका कहीं पता न चला। उन पापियों को तब भी सन्तोष न हुआ सो उनको मारने की इच्छा से अश्व द्वारा उन्होंने यात्रा की। उनकी दयारूपी बेल क्रोधरूपी दावाग्नि से खूब ही झुलस गई थी, इसीलिए उन्हें ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा। दोनों भाई भागते जाते थे और पीछे फिर-फिर कर देखते जाते थे कि कहीं किसी ने हमारा पीछा तो नहीं किया है। पर उनका सन्देह ठीक निकला, दूर तक देखा तो उन्हें आकाश में धूल उठती हुई दिखाई पड़ी। निकलंक ने बड़े भाई से कहा- भैया ! हम लोग जितना कुछ करते हैं, वह सब निष्फल जाता है । जान पड़ता है दैव ने अपने से पूर्ण शत्रुता बाँधी है। खेद है परम पवित्र जिनशासन की हम लोग कुछ भी सेवा न कर सके और मृत्यु ने बीच ही में आकर धर दबाया। भैया! देखो, तो पापी लोग हमें मारने के लिए पीछा किए चले आ रहे हैं। अब रक्षा होना असंभव है। हाँ, मुझे एक उपाय सूझ पड़ा है उसे आप करेंगे तो जैनधर्म का बड़ा उपकार होगा । आप बुद्धिमान् हैं, एक संस्थ है। आपके द्वारा जैनधर्म का खूब प्रकाश होगा। देखते हैं - वह सरोवर है । उसमें बहुत से कमल हैं। आप जल्दी जाइए और तालाब में उतरकर कमलों में अपने को छुपा लीजिए । जाइए, जल्दी कीजिए; देरी का काम नहीं है । शत्रु पास पहुँचे आ रहे हैं। आप मेरी चिन्ता न कीजिए। मैं भी जहाँ तक बन पड़ेगा, जीवन की रक्षा करूँगा और यदि मुझे अपना जीवन देना भी पड़े तो मुझे उसकी कुछ परवाह नहीं, जबकि मेरा प्यारा भाई जीवित रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करेगा। आप जाइए भैया! मैं अब यहाँ से भागता हूँ ॥३८-४२॥ विद्यापीठ
    अकलंक की आँखों से आँसुओं की धार बह चली। उनका गला भ्रातृप्रेम से भर आया। वे भाई से एक अक्षर भी न कह पाए कि निकलंक वहाँ से भाग खड़ा हुआ। लाचार होकर अकलंक को अपने जीवन की नहीं, पवित्र जिनशासन की रक्षा के लिए कमलों में छुपना पड़ा। उनके लिए कमलों का आश्रय केवल दिखाऊ था। वास्तव में तो उन्होंने जिसके बराबर संसार में कोई आश्रय नहीं हो सकता, उस जिनशासन का आश्रय लिया था ॥४३-४४॥
    निकलंक भाई से विदा हो, जी छोड़कर भागा जा रहा था, रास्ते में उसे एक धोबी कपड़े धो हुए मिला। धोबी ने आकाश में धूल की घटा छाई हुई देखकर निकलंक से पूछा, यह क्या हो रहा है? और तुम ऐसे जी छोड़कर क्यों भागे जा रहे हो? निकलंक ने कहा- पीछे शत्रुओं की सेना आ रही है । उन्हें जो मिलता है उसे ही वह मार डालती है इसीलिए मैं भागा जा रहा हूँ। ऐसा सुनते ही धोबी भी कपड़े वगैरह सब वैसे ही छोड़कर निकलंक के साथ भाग खड़ा हुआ। वे दोनों बहुत भागे, पर आखिर कहाँ तक भाग सकते थे? सवारों ने उन्हें धर पकड़ा और उसी समय अपनी चमचमाती हुई तलवार से दोनों का शिर काटकर वे अपने मालिक के पास ले गए। सच है पवित्र जिनधर्म अहिंसा धर्म से रहित मिथ्यात्व को अपनाए हुए पापी लोगों के लिए ऐसा कौन महापाप बाकी रह जाता है, जिसे वे नहीं करते। जिनके हृदय में जीवमात्र को सुख पहुँचाने वाले जिनधर्म का लेश भी नहीं है, उन्हें दूसरों पर दया आ भी कैसे सकती है ? ॥४५-५० ॥
    उधर शत्रु अपना काम कर वापस लौटे और इधर अकलंक अपने को निर्विघ्न समझ सरोवर से निकले और निडर होकर आगे बढ़े। वहाँ से चलते-चलते वे कुछ दिनों बाद कलिंग देशान्तर्गत रत्नसंचयपुर नामक शहर में पहुँचे। इसके बाद का हाल हम नीचे लिखते हैं ॥५१-५२॥
    उस समय रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल थे। उनकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था। वह जिन भगवान् की बड़ी भक्त थी। उसने स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले पवित्र जिनधर्म की प्रभावना के लिए अपने बनवाये हुए जिनमन्दिर में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन से रथयात्रोत्सव का आरम्भ करवाया था। उसमें उसने बहुत द्रव्य व्यय किया था ॥५३-५५॥
    वहाँ संघश्री नामक बौद्धों का प्रधान आचार्य रहता था । उसे महारानी का कार्य सहन नहीं हुआ। उसने महाराज से कहकर रथयात्रोत्सव अटका दिया और साथ ही वहाँ जिनधर्म का प्रचार न देखकर शास्त्रार्थ के लिए घोषणा भी करवा दी । महाराज शुभतुंग ने अपनी महारानी से कहा-प्रिये, जब तक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरु के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव न फैलाएगा, तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है। महाराज की बातें सुनकर रानी को बड़ा खेद हुआ । पर वह कर ही क्या सकती थी। उस समय कौन उसकी आशा पूरी कर सकता था। वह उसी समय जिनमन्दिर गई और वहाँ मुनियों को नमस्कार कर उनसे बोली- प्रभो, बौद्धगुरु ने मेरा रथयात्रोत्सव रुकवा दिया है। वह कहता है कि पहले मुझसे शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर लो, फिर रथोत्सव करना । बिना ऐसा किए उत्सव न हो सकेगा। इसलिए मैं आपके पास आई हूँ। बतलाइए जैनदर्शन का अच्छा विद्वान् कौन है, जो बौद्धगुरु को जीतकर मेरी इच्छा पूरी करे? सुनकर मुनि बोले- इधर आसपास तो ऐसा विद्वान् नहीं दिखता जो बौद्धगुरु का सामना कर सके । हाँ मान्यखेट नगर में ऐसे विद्वान् अवश्य हैं। उनके बुलाने का आप प्रयत्न करें तो सफलता प्राप्त हो सकती है। रानी ने कहा- वाह, आपने बहुत ठीक कहा, सर्प तो सिर के पास फुंकार कर रहा है और कहते हैं कि गारुड़ी दूर है | भला, इससे क्या सिद्धि हो सकती है ? अस्तु ! जान पड़ा कि आप लोग इस विपत्ति का सद्य; प्रतिकार नहीं कर सकते । दैव को जिनधर्म का पतन कराना ही इष्ट मालूम देता है । जब मेरे पवित्र धर्म की दुर्दशा होगी, तब मैं ही जीकर क्या करूँगी ? यह कहकर महारानी राजमहल से अपना सम्बन्ध छोड़कर जिनमन्दिर गई और उसने यह दृढ़ प्रतिज्ञा की-‘“जब संघश्री का मिथ्याभिमान चूर्ण होकर मेरा रथोत्सव बड़े ठाठ-बाट के साथ निकलेगा और जिनधर्म की खूब प्रभावना होगी, तब ही मैं भोजन करूँगी, नहीं तो वैसे ही निराहार रहकर मर मिटँगी; पर अपनी आँखों से पवित्र जैनशासन की दुर्दशा कभी नहीं देखूँगी।" ऐसा हृदय में निश्चय कर मदनसुन्दरी जिन भगवान् के सन्मुख कायोत्सर्ग धारण कर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना करने लगी । उस समय उसकी ध्यान निश्चय अवस्था बड़ी ही मनोहर दीख पड़ती थी । मानों सुमेरु गिरि की श्रेष्ठ निश्चल चूलिका हो।‘“भव्यजीवों को जिनभक्ति का फल अवश्य मिलता है।” इस नीति के अनुसार महारानी भी उससे वंचित नहीं रही । महारानी के निश्चय ध्यान के प्रभाव से पद्मावती का आसन कंपित हुआ ॥५६-६७॥
    वह आधी रात के समय आई और महारानी से बोली- देवी, जब तुम्हारे हृदय में जिन भगवान् के चरण कमल शोभित हैं, तब तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उनके प्रसाद से तुम्हारा मनोरथ नियम से पूर्ण होगा। सुनो, कल प्रातःकाल ही अकलंकदेव इधर आएँगे, वे जैनधर्म के बड़े भारी विद्वान् हैं। वे ही संघश्री का दर्प चूर्णकर जिनधर्म की खूब प्रभावना करेंगे और तुम्हारा रथोत्सव का कार्य निर्विघ्न समाप्त करेंगे। उन्हें अपने मनोरथों के पूर्ण करने वाले मूर्तिमान शरीर समझो। यह कहकर पद्मावती अपने स्थान चली गईं ॥६८-७२॥
    देवी की बात सुनकर महारानी अत्यन्त प्रसन्न हुई उसने बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की स्तुति की और प्रातःकाल होते ही महाभिषेकपूर्वक पूजा की। इसके बाद उसने अपने राजकीय प्रतिष्ठित पुरुषों को अकलंकदेव को ढूँढ़ने को चारों और दौड़ाया। उनमें जो पूर्व दिशा की ओर गए थे, उन्होंने एक बगीचे में अशोक वृक्ष के नीचे बहुत से शिष्यों के साथ एक महात्मा को बैठे देखा । उनके किसी एक शिष्य से महात्मा का परिचय और नाम धाम पूछकर वे अपनी मालकिन के पास आए और सब हाल उन्होंने उससे कह सुनाया सुनकर ही वह धर्मवत्सला खानपान आदि सब सामग्री लेकर अपने साधर्मियों के साथ बड़े वैभव से महात्मा अकलंक के सामने गई, वहाँ पहुँच कर उसने बड़े प्रेम और भक्ति से उन्हें प्रणाम किया। उनके दर्शन से रानी को अत्यन्त आनन्द हुआ। जैसे सूर्य को देखकर कमलिनी को और मुनियों का तत्त्वज्ञान देखकर बुद्धि को आनन्द होता हैं। इसके बाद रानी ने धर्मप्रेम के वश होकर अकलंकदेव की चन्दन, अगुरु, फल, फूल, वस्त्रादि से बड़े विनय के साथ पूजा की और पुनः प्रणाम कर वह उनके सामने बैठ गई, उसे आशीर्वाद देकर पवित्रात्मा अकलंक बोले-देवी, तुम अच्छी तरह तो हो और सब संघ भी अच्छी तरह है न? महात्मा के वचनों को सुनकर रानी की आँखों से आँसू बह निकले, उसका गला भर आया । वह बड़ी कठिनता से बोली- प्रभो, संघ है तो कुशल, पर इस समय उसका घोर अपमान हो रहा है; उसका मुझे बड़ा कष्ट है। यह कहकर उसने संघश्री का सब हाल अकलंक से कह सुनाया । पवित्र धर्म का अपमान अकलंक न सह सके। उन्हें क्रोध हो आया। वे बोले - वह वराक संघ श्री मेरे पवित्र धर्म का अपमान करता है, पर वह मेरे सामने है कितना, इसकी उसे खबर नहीं है। अच्छा देखूँगा उसके अभिमान को कि वह कितना पाण्डित्य रखता है। मेरे साथ खास बुद्ध तक तो शास्त्रार्थ करने की हिम्मत नहीं रखता, तब वह बेचारा किस गिनती में है? इस तरह रानी को सन्तुष्ट करके अकलंक ने संघ श्री के शास्त्रार्थ के विज्ञापन की स्वीकारता उसके पास भेज दी और आप बड़े उत्सव के साथ जिनमन्दिर आ पहुँचे ॥७३-८६॥
    पत्र संघश्री के पास पहुँचा । उसे देखकर और उसकी लेखन शैली को पढ़कर उसका चित्त क्षुभित हो उठा। आखिर उसे शास्त्रार्थ के लिए तैयार होना ही पड़ा ॥८७॥
    अकलंक के आने के समाचार महाराज हिमशीतल के पास पहुँचे। उन्होंने उसी समय बड़े आदर सम्मान के साथ उन्हें राजसभा में बुलवाकर संघ श्री के साथ उनका शास्त्रार्थ कराया। संघ श्री उनके साथ शास्त्रार्थ करने को तो तैयार हो गया, पर जब उसने अकलंक के प्रश्नोत्तर करने का पाण्डित्य देखा और उससे अपनी शक्ति की तुलना की, तब उसे ज्ञान हुआ कि मैं अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने में असक्त हूँ, पर राजसभा में ऐसा कहना भी उसने उचित न समझा क्योंकि उससे उसका अपमान होता । तब उसने एक नई युक्ति सोचकर राजा से कहा- महाराज, यह धार्मिक विषय है, इसका निर्णय होना कठिन है। इसलिए मेरी इच्छा है कि यह शास्त्रार्थ सिलसिलेबार तब तक चलना चाहिए जब तक कि एक पक्ष पूर्ण निरुत्तर न हो जाये। राजा ने अकलंक की अनुमति लेकर संघश्री के कथन को मान लिया। उस दिन का शास्त्रार्थ बन्द हुआ। राजसभा भंग हुई ॥८८-८९॥
    अपने स्थान पर आकर संघ श्री ने जहाँ-जहाँ बौद्धधर्म के विद्वान् रहते थे, उनको बुलवाने को अपने शिष्यों को दौड़ाया और स्वयं ने रात्रि के समय अपने धर्म की अधिष्ठात्री देवी की आराधना की। देवी उपस्थित हुई संघश्री ने उससे कहा- देखती हो, धर्म पर बड़ा संकट उपस्थित हुआ है। उसे दूरकर धर्म की रक्षा करनी होगी। अकलंक बड़ा पंडित है। उसके साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त करना असम्भव था इसीलिए मैंने तुम्हें कष्ट दिया है। यह शास्त्रार्थ मेरे द्वारा तुम्हें करना होगा और अकलंक को पराजित कर बुद्धधर्म की महिमा प्रकट करनी होगी । बोलो, क्या कहती हो? उत्तर में देवी ने कहा- हाँ, मैं शास्त्रार्थ करूँगी सही, पर खुली सभा में नहीं; किन्तु परदे के भीतर घड़े में रहकर । 'तथास्तु' कहकर संघश्री ने देवी को विसर्जित किया और आप प्रसन्नता के साथ दूसरी निद्रा देवी की गोद में जा लेटा ॥९०-९३॥
    प्रातःकाल हुआ। शौच, स्नान, देवपूजन आदि नित्य कर्म से छुट्टी पाकर संघश्री राजसभा में पहुँचा और राजा से बोला- महाराज, हम आज से शास्त्रार्थ परदे के भीतर रहकर करेंगे। हम शास्त्रार्थ के समय किसी का मुँह नहीं देखेंगे। आप पूछेंगे क्यों? इसका उत्तर अभी न देकर शास्त्रार्थ के अन्त में दिया जायेगा। राजा संघश्री के कपट जाल को कुछ नहीं समझ सके । उसने जैसा कहा वैसा उन्होंने स्वीकार कर उसी समय वहाँ एक परदा लगवा दिया। संघ श्री ने उसके भीतर जाकर बुद्ध भगवान् की पूजा की और देवी की पूजा कर एक घड़े में आह्वान किया। धूर्त लोग बहुत कुछ छल कपट करते हैं, पर अन्त में उसका फल अच्छा न होकर बुरा ही होता हैं ॥९४-९६॥
    इसके बाद घड़े की देवी अपने में जितनी शक्ति थी, उसे प्रकट कर अकलंक के साथ शास्त्रार्थ करने लगी। इधर अकलंकदेव भी देवी के प्रतिपादन किए हुए विषय का अपनी दिव्य भारती द्वारा खण्डन और अपने पक्ष का समर्थन तथा परपक्ष का खण्डन करने वाले परम पवित्र अनेकान्त - स्याद्वाद मत का समर्थन बड़े ही पाण्डित्य के साथ निडर होकर करने लगे । इस प्रकार शास्त्रार्थ होते-होते छह महीने बीत गए, पर किसी की विजय न हो पाई, यह देख अकलंकदेव को बड़ी चिन्ता हुई उन्होंने सोचा-संघश्री साधारण पढ़ा-लिखा और जो पहले ही दिन मेरे सम्मुख थोड़ी देर भी न ठहर सका था, वह आज बराबर छह महीने से शास्त्रार्थ करता चला आता है; इसका क्या कारण है, सो नहीं जान पड़ता। उन्हें इसकी बड़ी चिन्ता हुई पर वे कर ही क्या सकते थे । एक दिन इसी चिन्ता में डूबे हुए थे कि इतने में जिनशासन की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी आई और अकलंकदेव से बोली- प्रभो ! आपके साथ शास्त्रार्थ करने की मनुष्य मात्र में शक्ति नहीं है और बेचारा संघ श्री भी तो मनुष्य है, तब उसकी क्या मजाल जो वह आपसे शास्त्रार्थ करे? पर यहाँ तो बात कुछ और ही है। आपके साथ जो शास्त्रार्थ करता है वह संघश्री नहीं है किन्तु बुद्धधर्म की अधिष्ठात्री तारा नाम की देवी है। इतने दिनों से वही शास्त्रार्थ कर रही है। संघ श्री ने उसकी आराधना कर यहाँ बुलाया है। इसलिए कल जब शास्त्रार्थ होने लगे और देवी उस समय जो कुछ प्रतिपादन करे तब आप उससे उसी विषय का फिर से प्रतिपादन करने के लिए कहिए। वह उसे फिर न कह सकेगी और तब उसे अवश्य नीचा देखना पड़ेगा । यह कहकर देवी अपने स्थान पर चली गई, अकलंकदेव की चिन्ता दूर हुई वे बड़े प्रसन्न हुए ॥९७-१०७॥
    प्रातःकाल हुआ । अकलंकदेव अपने नित्यकर्म से मुक्त होकर जिनमन्दिर गए। बड़े भक्तिभाव से उन्होंने भगवान् की स्तुति की। इसके बाद वे वहाँ से सीधे राजसभा में आए। उन्होंने महाराज शुभतुंग को सम्बोधन करके कहा- राजन् ! इतने दिनों तक मैंने जो शास्त्रार्थ किया, उसका यह मतलब नहीं था कि मैं संघश्री को पराजित नहीं कर सका परन्तु ऐसा करने से मेरा अभिप्राय जिनधर्म का प्रभाव बतलाने का था। वह मैंने बतलाया। पर अब मैं इस वाद का अन्त करना चाहता हूँ। मैंने आज निश्चय कर लिया है कि मैं आज इस वाद की समाप्ति करके ही भोजन करूँगा । ऐसा कहकर उन्होंने परदे की ओर देखकर कहा-क्या जैनधर्म के सम्बन्ध में कुछ और कहना बाकी है या मैं शास्त्रार्थ समाप्त करूँ? वे कहकर जैसे ही चुप रहे कि परदे की ओर से फिर वक्तव्य आरम्भ हुआ । देवी अपना पक्ष समर्थन करके चुप हुई कि अकलंकदेव ने उसी समय कहा- जो विषय अभी कहा गया है, उसे फिर से कहो? वह मुझे ठीक नहीं सुन पड़ा। आज अकलंक का यह नया ही प्रश्न सुनकर देवी का साहस एक साथ ही न जाने कहाँ चला गया। देवता जो कुछ बोलते वे एक ही बार बोलते हैं- उसी बात को वे पुनः नहीं बोल पाते। तारा देवी का भी यही हाल हुआ। वह अकलंकदेव के प्रश्न का उत्तर न दे सकी। आखिर उसे अपमानित होकर भाग जाना पड़ा। जैसे सूर्योदय से रात्रि भाग जाती है ॥१०८-११२॥
    इसके बाद ही अकलंकदेव उठे और परदे को फाड़कर उसके भीतर घुस गए। वहाँ जिस घड़े में देवी का आह्वान किया गया था, उसे उन्होंने पाँव की ठोकर से फोड़ डाला। संघश्री सरीखे जिनशासन के शत्रुओं का, मिथ्यात्वियों का अभिमान चूर्ण किया। अकलंक की इस विजय और जिनधर्म की प्रभावना से मदनसुन्दरी और सर्वसाधारण को बड़ा आनन्द हुआ। अकलंक ने सब लोगों के सामने जोर देकर कहा - सज्जनों! मैंने इस धर्मशून्य संघ श्री को पहले ही दिन पराजित कर दिया था किन्तु इतने दिन जो देवी के साथ शास्त्रार्थ किया, वह जिनधर्म का माहात्म्य प्रकट करने के लिए और सम्यग्ज्ञान का लोगों के हृदय पर प्रकाश डालने के लिए था। यह कहकर अकलंकदेव ने इस श्लोक को पढ़ा ॥११३-११८॥
    अर्थात्-महाराज, हिमशीतल की सभा में मैंने सब बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को ठुकराया, यह न तो अभिमान के वश होकर किया और न किसी प्रकार द्वेषभाव से किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आई इसलिए उनकी दया से बाध्य होकर मुझे ऐसा करना पड़ा।
    उस दिन से बौद्धों का राजा और प्रजा के द्वारा चारों और अपमान होने लगा। किसी की बुद्धधर्म पर श्रद्धा नहीं रही। सब उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे । यही कारण है बौद्ध लोग यहाँ से भागकर विदेशों में जा बसे ॥११९॥
    महाराज हिमशीतल और प्रजा के लोग जिनशासन की प्रभावना देखकर बड़े खुश हुए। सबने मिथ्यात्व मत छोड़कर जिनधर्म स्वीकार किया और अकलंकदेव का सोने, रत्न आदि के अलंकारों से खूब आदर सम्मान किया, खूब उनकी प्रशंसा की । सच बात है जिन भगवान् के पवित्र सम्यग्ज्ञान के प्रभाव से कौन सत्कार का पात्र नहीं होता ॥१२०-१२२॥
    अकलंकदेव के प्रभाव से जिनशासन का उपद्रव टला देखकर महारानी मदनसुन्दरी ने पहले से भी कई गुणे उत्साह से रथ निकलवाया। रथ बड़ी सुन्दरता के साथ सजाया गया था। उसकी शोभा देखते ही बन पड़ती थी। वह वेशकीमती वस्त्र था, छोटी-छोटी घंटियाँ उसके चारों ओर लगी हुई थी, उनकी मधुर आवाज एक बड़े घंटे की आवाज से मिलकर, जो कि उन घंटियों के ठीक बीच में था, बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी, उस पर रत्नों और मोतियों की माला से अपूर्व शोभा दे रही थी, उसके ठीक बीच में रत्नमयी सिंहासन पर जिनभगवान् की बहुत सुन्दर प्रतिमा शोभित थी । वह मौलिक छत्र, चामर, भामण्डल आदि से अलंकृत थी । रथ चलता जाता था और उसके आगे-आगे भव्य पुरुष बड़ी भक्ति के साथ जिनभगवान् की जय बोलते हुए और भगवान् पर अनेक प्रकार के सुगन्धित फूलों की, जिनकी महक से सब दिशाएँ सुगन्धित होतीं थीं, वर्षा करते चले जाते थे। चारणलोग भगवान् की स्तुति पढ़ते जाते थे। कुल कामिनियाँ सुन्दर-सुन्दर गीत गाती जाती थीं । नर्तकियाँ नृत्य करती जातीं थीं। अनेक प्रकार के बाजों का सुन्दर शब्द दर्शकों के मन को अपनी ओर आकर्षित करता था। इन सब शोभाओं से रथ ऐसा जान पड़ता था, मानों पुण्यरूपी रत्नों के उत्पन्न करने को चलने वाला वह एक दूसरा रोहण पर्वत उत्पन्न हुआ है। उस समय जो याचकों को दान दिया जाता था, वस्त्राभूषण वितीर्ण किए जाते थे, उससे रथ की शोभा एक चलते हुए कल्पवृक्ष की सी जान पड़ती थी । हम रथ की शोभा का कहाँ तक वर्णन करें? आप इसी से अनुमान कर लीजिए कि जिसकी शोभा को देखकर ही बहुत से अन्यधर्मी लोगों ने जब सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया, तब उसकी सुन्दरता का क्या ठिकाना है? इत्यादि दर्शनीय वस्तुओं से सजाकर रथ निकाला गया, उसे देखकर यही जान पड़ता था, मानों महादेवी मदनसुन्दरी की यशोराशि ही चल रही है। वह रथ भव्य-पुरुषों के लिए सुख को देने वाला था। उस सुन्दर रथ की हम प्रतिदिन भावना करते है, उसका ध्यान करते हैं । वह हमें सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी प्रदान करें ॥१२३-१३२॥
    जिस प्रकार अकलंकदेव ने सम्यग्ज्ञान की प्रभावना की, उसका महत्त्व सर्व साधारण लोगों के हृदय पर अंकित कर दिया उसी प्रकार और - और भव्य पुरुषों को भी उचित है कि वे भी अपने से जिस तरह बन पड़े जिनधर्म की प्रभावना करें, जैनधर्म के प्रति उनका जो कर्तव्य है उसे वे पूरा करे। संसार में जिनभगवान् की सदा जय हो, जिन्हें इन्द्र, धरणेन्द्र नमस्कार करते हैं और जिनका ज्ञानरूपी प्रदीप सारे संसार को सुख देने वाला है। श्रीप्रभाचन्द्र मुनि मेरा कल्याण करें, जो गुण रत्नों के उत्पन्न होने के स्थान पर्वत हैं और ज्ञान के समुद्र हैं ॥१३३-१३४॥
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    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर करकण्डु राजा का सुखमय पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥
    जिसने पहले केवल एक कमल से जिन भगवान् की पूजा कर जो महान् फल प्राप्त किया, उसका चरित जैसा ग्रन्थों में पुराने ऋषियों ने लिखा है उसे देखकर या उनकी कृपा से उसका थोड़ा सार मैं लिखता हूँ ॥२-३॥
    नील और महानील तेरपुर के राजा थे । तेरपुर कुन्तल देश की राजधानी थी । यहाँ वसुमित्र नाम का एक जिनभक्त सेठ रहता था। सेठानी वसुमती उसकी स्त्री थी। धर्म से उसे बड़ा प्रेम था। इन सेठ- सेठानी के यहाँ धनदत्त नाम का एक ग्वाला नौकर था । वह एक दिन गाय चराने को जंगल में गयाहुआ था। एक तालाब में उसने कोई हजार पंखुड़ियों वाला एक बहुत सुन्दर कमल देखा। उस पर यह मुग्ध हो गया। तब तालाब में कूद कर उसने उस कमल को तोड़ लिया। उस समय नागकुमारी ने उससे कहा–धनदत्त, तूने मेरा कमल तोड़ा तो हैं, पर इतना तू ध्यान में रखना कि यह उस महापुरुष को भेंट किया जाए, जो संसार में सबसे श्रेष्ठ हो । नागकुमारी का कहा मानकर धनदत्त कमल लिए अपने सेठ के पास गया और उनसे सब हाल इसने कहा । वसुमित्र ने तब राजा के पास जाकर उनसे यह सब हाल कहा। सबसे श्रेष्ठ कौन है और यह कमल किसको भेंट चढ़ाया जाए, यह किसी को समझ में न आया। तब सब विचार कर चले कि यह हाल मुनिराज से कहें। संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बात का पता वे अपने को देंगे। यह निश्चय कर राजा, सेठ, ग्वाला तथा और बहुत से लोग सहस्रकूट नाम के जिन मन्दिरों में गए। वहाँ सुगुप्ति मुनिराज ठहरे हुए थे। उनसे राजा ने पूछा- हे करुणा के समुद्र, हे पवित्र धर्म के रहस्य को समझने वाले ! कृपया बतलाइए कि संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है? जिन्हें यह पवित्र कमल भेंट किया जाये । उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् ! सारे संसार के स्वामी, राग-द्वेषादि दोषों से रहित जिन भगवान् सर्वोत्कृष्ट हैं क्योंकि संसार उन्हीं की पूजा करता है । यह सुनकर सबको बड़ा सन्तोष हुआ जिसे वे चाहते थे वह अनायास मिल गया। उसी समय वे सब भगवान् के सामने आए। धनदत्त ग्वाले ने तब भगवान् को नमस्कार कर कहा - हे संसार में सबसे श्रेष्ठ गिने जाने वाले, आपको यह कमल मैं भेंट करता हूँ। इसे आप स्वीकार कर मेरी आशा को पूरी करें। यह कहकर वह ग्वाला उस कमल को भगवान् के चरणों में चढ़ाकर चला गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पवित्र कर्म मूर्ख लोगों को भी सुख देने वाला होता है। इस कथा से सम्बन्ध रखने वाली एक दूसरी कथा यहाँ लिखी जाती है उसे सुनिए - ॥४-१७॥
    श्रावस्ती के रहने वाले सागरदत्त सेठ की स्त्री नागदत्त बड़ी पापिनी थी । उसका चाल-चलन अच्छा न था। एक सोमशर्मा ब्राह्मण के साथ उसका अनुचित बरताव था । सच है, कोई-कोई स्त्रियाँ तो बड़ी दुष्ट और कुल- कुलंकिनी हुआ करती है। उन्हें अपने कुल की मान-मर्यादा की कुछ लाज- शरम नहीं रहती। अपने उज्ज्वल कुलरूपी मन्दिर को मलिन करने के लिए वे काले धुएँ के समान होती है। बेचारा सेठ सरल स्वभावी था और धर्मात्मा था । इसलिए अपनी स्त्री का ऐसा दुराचार देखकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । उसने फिर संसार के भ्रमण को मिटाने वाली जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। वह बहुत ही कंटाल गया था। सागरदत्त तपस्या कर स्वर्ग गया। स्वर्गायु पूरी कर वह अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी में वसुपाल राजा की रानी वसुमती के दन्तिवाहन नाम का राजकुमार हुआ। वसुपाल सुख से राज करते रहे ॥ १८-२३॥
    इधर वह सोमशर्मा मर कर पाप के फल से बहुत समय तक दुर्गतियों में घूमा । एक से एक दुःसह कष्ट उसे सहना पड़ा। अन्त में वह कलिंग देश के जंगल में नर्मदा तिलक राजा का हाथी हुआ और ठीक ही है पाप से जीवों को दुर्गतियों के दुःख भोगने ही पड़ते हैं । कर्म से इस हाथी को किसी ने पकड़ लाकर वसुपाल को भेंट किया ॥२४-२५॥
    उधर इस हाथी के पूर्वभव के जीव सोमशर्मा की स्त्री नागदत्ता ने भी पाप के उदय से दुर्गतियों में अनेक कष्ट सहे। अन्त में वह ताम्रलिप्तनगर में भी वसुदत्त सेठ की स्त्री नागदत्ता हुई उस समय इसके धनवती और धनश्री नाम की दो लड़कियाँ हुई ये दोनों बहिनें बड़ी सुन्दर थीं। स्वर्ग कुमारियाँ इनका रूप देखकर मन ही मन बड़ी कुढ़ा करती थीं। इनमें धनवती का ब्याह नागानन्द पुर के रहने वाले वनपाल नाम के सेठ पुत्र के साथ हुआ और छोटी बहिन धनश्री कौशाम्बी के वसुमित्र की स्त्री हुई। वसुमित्र जैनी था। इसलिए उसके सम्बन्ध से धनश्री को कई बार जैनधर्म के उपदेश सुनने का मौका मिला। वह उपदेश उसे बहुत रुचि कर हुआ और फिर वह भी श्राविका हो गई। लड़की के प्रेम गोद को आज एकाएक भरी पा बहुत आनन्दित हुई। वह आनन्द इतना था कि उसके हृदय में भी न समा सका। यही कारण था कि उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। उसने बड़े प्रेम से इसे छाती से लगाया ॥२६-४०॥
    पद्मावती उस समय कोई तेरह - चौदह वर्ष की है। उसके सुकोमल, सुगन्धित और सुन्दर यौवनरूपी फूल की कलियाँ कुछ-कुछ खिलने लगी हैं। ब्रह्मा ने उसके शरीर को लावण्य सुधा-धारा से सींचना शुरू कर दिया है। वह अब थोड़े ही दिनों में स्वर्ग के देव कुमारियों से भी अधिक सुन्दरता लाभ कर ब्रह्मा को अपनी सृष्टि का अभिमानी बनायेगी। लोग स्वर्गीय सुन्दरता की बड़ी प्रशंसा करते हैं। ब्रह्मा को उनकी इस थोथी तारीफ से बड़ी डाह है। इसलिए कि इससे उसकी रचना सुन्दरता में कमी आती है और उस कमी से उन्हें नीचा देखना पड़ता है। ब्रह्मा ने सर्व साधारण के इस भ्रम को मिटाने लिए कि जो कुछ सुन्दरता है वह स्वर्ग में है, मानो पद्मावती को उत्पन्न किया है। इसके सिवा उन लोगों की झूठी प्रशंसा जो अमरांगनाएँ अभिमान के ऊँचे पर्वत पर चढ़कर सारे संसार को अपनी सुन्दरता की तुलना में ना- कुछ चीज समझ बैठी हैं, उनके इस गर्व को चूर-चूर करना है। इन्हीं सब अभिमान, ईर्ष्या, मत्सर आदि के वश हो ब्रह्मा पद्मावती को त्रिभुवन - सुन्दर बनाने में विशेष यत्नशील है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि पद्मावती कुछ दिनों बाद तो ब्रह्मा की सब तरह आशा पूरी करेगी ही। पर इस समय भी उसका रूप-सौंदर्य इतना मनोमधुर है कि उसे देखते रहने की इच्छा होती है। प्रयत्न करने पर भी आँखें उस ओर से हटना पसन्द नहीं करती है । अस्तु ।
    पद्मावती की इस अनिंद्य सुन्दरता का समाचार किसी ने चम्पा के राजा दन्तिवाहन को कह दिया। दन्तिवाहन उसकी सुन्दरता की तारीफ सुनकर कुसुमपुर आए । पद्मावती को एक माली की लड़की को इतनी सुन्दरी, इतनी तेजस्विनी देखकर उसके विषय में उन्हें कुछ सन्देह हुआ। उन्होंने तब उस माली को बुलाकर पूछा -सच कह यह लड़की तेरी ही है क्या ? और यदि तेरी नहीं तो इसे कहाँ से और कैसे लाया ? माली डर गया । उससे राजा के सवालों का कुछ उत्तर देते न बना। सिर्फ उसने इतना ही किया जिस सन्दूक में पद्मावती निकली थी, उसे राजा के सामने ला रख दिया और कह दिया था महाराज, मुझे अधिक तो कुछ मालूम नहीं, पर यह लड़की इस सन्दूक में से निकली थी। मेरे कोई लड़का-बाला न होने से इसे मैंने अपने यहाँ रख लिया। राजा ने सन्दूक खोलकर देखा तो उसमें एक अंगूठी निकली। उस पर कुछ इबादत खुदी हुई थी । उसे पढ़कर राजा को पद्मावती के सम्बन्ध में कोई सन्देह करने की जगह न रह गई । जैसे वे राजपुत्र हैं वैसे ही पद्मावती भी एक राजघराने की राजकन्या है। दन्तिवाहन तब उसके साथ ब्याह कर उसे चम्पा में ले आए और सुख से अपना समय बिताने लगे ॥४१-४५॥
    दन्तिवाहन के पिता वसुपाल ने कुछ वर्षों तक और राज्य किया । एक दिन उन्हें अपने सिर पर यमदूत सफेद केश दीख पड़ा । उसे देखकर इन्हें संसार, शरीर, विषय- भोगादि से बड़ा वैराग्य हुआ। वे अपने राज्य का सब भार दन्तिवाहन को सौंप कर जिनमन्दिर गए। वहाँ उन्होंने भगवान् का अभिषेक किया, पूजन किया, दान किया, गरीबों की सहायता की। उस समय उन्हें जो उचित कार्य जान पड़ा उसे उन्होंने खुले हाथों किया बाद वे वहीं एक मुनिराज द्वारा दीक्षा ले योगी हो गए। उन्होंने योगदशा में खूब तपस्या की। अन्त में समाधि से शरीर छोड़कर वे स्वर्ग गए। दन्तिवाहन अब राजा हुए प्रजा का शासन वे भी अपने पिता की भाँति प्रेम के साथ करते थे । धर्म पर उनकी भी पूरी श्रद्धा थी । पद्मावती सी त्रिलोक-सुन्दरी को पा ये अपने को कृतार्थ मानते थे। दोनों दम्पत्ति सदा बड़े हँसमुख और प्रसन्न रहते थे। सुख की इन्हें चाह न थी, पर सुख ही इनका गुलाम बन रहा था ॥४६-४९॥
    एक दिन सती पद्मावती ने स्वप्न में सिंह, हाथी और सूरज को देखा । सबेरे उठकर उसने अपने प्राणनाथ से इस स्वप्न का हाल कहा। दन्तिवाहन ने उसके फल के सम्बन्ध में कहा-प्रिये, स्वप्न तुमने बड़ा ही सुन्दर देखा हैं। तुम्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। सिंह का देखना जनाता है, कि वह बड़ा ही प्रतापी होगा हाथी के देखने से सूचित होता है कि वह सबसे प्रधान क्षत्रिय वीर होगा और सूरज यह कहता है कि वह प्रजारूपी कमल-वन को प्रफुल्लित करने वाला होगा, उसके शासन से प्रजा बड़ी सन्तुष्ट रहेगी। अपने स्वामी द्वारा स्वप्न फल सुनकर पद्मावती को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और सच है, पुत्र प्राप्ति की किसे प्रसन्नता नहीं होती ॥५०-५२॥
    पाठकों को तेरपुर के रहने वाले धनदत्त ग्वाले का स्मरण होगा, जिसने कि एक हजार पंखुरियों का कमल भगवान् को चढ़ाकर बड़ा पुण्यबन्ध किया था । उसी की कथा फिर लिखी जाती है। धनदत्त को तैरने का बड़ा शौक था । वह रोज-रोज जाकर एक तालाब में तैरा करता था। एक दिन वह तैरने को गया हुआ था। कुछ होनहार ही ऐसा था जो वह तैरता - तैरता एक बार घनी काई में बिंध गया । बहुत यत्न किया पर उससे निकलते न बना । आखिर बेचारा मर ही गया । मरकर वह जिनपूजा के पुण्य से इसी सती पद्मावती के गर्भ में आया ॥ ५३-५४॥
    उधर वसुमित्र सेठ को जब इसके मरने का हाल ज्ञान हुआ तो उसे बड़ा दुःख हुआ । सेठ उसी समय तालाब पर आया और धनदत्त की लाश को निकलवा कर उसका अग्नि-संस्कार किया। संसार की यह क्षणभंगुर दशा देखकर वसुमित्र को बड़ा वैराग्य हुआ। वह सुगुप्ति मुनिराज द्वारा योगव्रत लेकर मुनि हो गया। अन्त में वह तपस्या कर पुण्य के उदय से स्वर्ग गया ॥ ५५-५६॥
    पद्मावती के गर्भ में धनदत्त के आने पर उसे दोहला उत्पन्न हुआ उसकी इच्छा हुई कि मेघ बरसने लगें और बिजलियाँ चमकने लगे । ऐसे समय पुरुष - वेष में हाथ में अंकुश लिए मैं स्वयं हाथी पर सवार होऊँ और मेरे साथ स्वामी भी बैठे। फिर हम दोनों घूमने के लिए शहर के बाहर निकलें। पद्मावती ने अपनी यह इच्छा दन्तिवाहन से जाहिर की । दन्तिवाहन ने उसकी इच्छा के अनुसार अपने मित्र वायुवेग विद्याधर द्वारा मायामयी कृत्रिम मेघ की काली काली घटाओं द्वारा आकाश आच्छादित करवाया। कृत्रिम बिजलियाँ भी उन मेघों में चमकने लगी । राजा-रानी इस समय उस नर्मदातिलक नाम के हाथी पर, जो सोमशर्मा का जीव था और जिसे किसी ने वसुपाल को भेंट किया था, चढ़कर बड़े ठाट बाट से नौकर-चाकरों को साथ लिए शहर के बाहर हुए । पद्मावती का यह दोहला सचमुच ही बड़ा ही आश्चर्यजनक था। जो हो, जब ये शहर के बाहर होकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि कर्मयोग से हाथी उन्मत्त हो गया । अंकुश वगैरह की वह कुछ परवाह न कर आगे चलने वाले लोगों की भीड़ को चीरता हुआ भाग निकला। रास्ते में एक घने वृक्षों की वनी में होकर वह भागा जा रहा था । सो दन्तिवाहन को उस समय कुछ ऐसी बुद्धि सूझ गई, कि जिससे वे एक वृक्ष की डाली को पकड़ कर लटक गए। हाथी आगे भागा ही चला गया। सच है, पुण्य कष्ट समय में जीवों को बचा लेता हैं। बेचारे दन्तिवाहन उदास मुँह अपनी राजधानी में आए। उन्हें इस बात का अत्यन्त दुःख हुआ कि गर्भिणी प्रिया की न जाने क्या दशा हुई होगी । दन्तिवाहन की यह दशा देखकर समझदार लोगों ने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सत्पुरुषों के वचन चन्दन से कहीं बढ़कर शीतल होते हैं और उनके द्वारा दुखियों के हृदय का दुःख सन्ताप बहुत जल्दी ठण्डा पड़ जाता है ॥५७-६८॥
    उधर हाथी पद्मावती को लिए भागा चला गया । अनेक जंगलों और गाँवों को लाँघकर वह एक तालाब पर पहुँचा। वह बहुत थक गया था । इसलिए थकावट मिटाने को वह सीधा उस तालाब घुस गया। पद्मावती सहित तालाब में उसे घुसता देख जलदेवी ने झट से पद्मावती को हाथी पर से उतार कर तालाब के किनारे पर रख दिया । आफत की मारी बेचारी पद्मावती किनारे पर बैठी- बैठी रोने लगी। वह क्या करे, कहाँ जाए, इस विषय में उसका चित्त बिल्कुल धीर न धरता था। सिवा रोने के उसे कुछ न सूझता था । इसी समय एक माली इस ओर होकर अपने घर जा रहा था। उसने इसे रोते हुए देखा। इसके वेष-भूषा और चेहरे के रंग-ढंग से इसे किसी उच्च घराने की समझ उसे उस पर बड़ी दया आई उसने उसके पास आकर कहा- बहिन, जान पड़ता है तुम पर कोई भारी दुःख आकर पड़ा है। यदि तुम कोई हर्ज न समझो तो मेरे घर चलो। तुम्हें वहाँ कोई कष्ट न होगा | मेरा घर यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हस्तिनापुर में है और मैं जाति का माली हूँ । पद्मावती उसे दयावान् देख उसके साथ होली । इसके सिवा उसके लिए दूसरी गति भी न थी । उस माली ने पद्मावती को अपने घर ले जाकर बड़े आदर-सत्कार के साथ रखा। वह उसे अपने बहिन के बराबर समझता था। उसका स्वभाव बहुत अच्छा था। ठीक है, कोई-कोई साधारण पुरुष भी बड़े सज्जन होते हैं। उसके सरल और सज्जन होने पर भी उसकी स्त्री बड़ी कर्कशा थी । उसे दूसरे आदमी का अपने घर रहना अच्छा ही न लगता था। कोई अपने घर में पाहुना आया कि उस पर सदा मुँह चढ़ाये रहना, उससे बोलना-चालना नहीं आदि उसके बुरे स्वभाव की खास बातें थीं। पद्मावती के साथ भी उसका यही बर्ताव रहा। एक दिन भाग्य से वह माली किसी काम के लिए दूसरे गाँव चला गया। पीछे से इसकी स्त्री की बन पड़ी। उसने पद्मावती को गाली-गलौज देकर और बुरा भला कह घर से निकाल दिया। बेचारी पद्मावती अपने कर्मों को कोसती यहाँ से चल दी । वह एक घोर श्मशान में पहुँची । प्रसूति के दिन आ लगे थे। उस पर चिन्ता और दुःख के मारे इसे चैन नहीं था । उसने यहीं पर एक पुण्यवान् पुत्र को जना। उसके हाथ, पाँव, ललाट वगैरह में ऐसे सब चिह्न थे, जो बड़े से बड़े पुरुष के होने चाहिए। जो हो, इस समय तो उसकी दशा एक भिखारी से भी बढ़कर थी । पर भाग्य कहीं छुपा नहीं रहता। पुण्यवान् महात्मा पुरुष कहीं हो, कैसी अवस्था में हो, पुण्य वहीं पहुँच कर उसकी सेवा करता है। पर होना चाहिए पास में पुण्य । पुण्य बिना संसार में जन्म निस्सार है । जिस समय पद्मावती ने पुत्र जना उसी समय पुत्र के पुण्य का भेजा हुआ एक मनुष्य चाण्डाल के वेष में श्मशान में पद्मावती के पास आया और उसे विनय से सिर झुकाकर बोला- माँ, अब चिन्ता न करो। तुम्हारे लड़के का दास आ गया है। वह इसकी सब तरह जी-जान से रक्षा करेगा। किसी तरह का कोई कष्ट इसे न होने देगा। जहाँ इस बच्चे का पसीना गिरेगा वहाँ यह अपना खून गिरावेगा। आप मेरी मालकिन हैं। सब भार मुझ पर छोड़ आप निश्चिन्त होइये । पद्मावती ने ऐसे कष्ट के समय पुत्र की रक्षा करने वाले को पाकर अपने भाग्य को सराहा, पर फिर भी अपना सब सन्देह दूर हो, इसलिए उसने कहा- भाई, तुमने ऐसे निराधार समय में आकर मेरा जो उपकार करना विचारा है, तुम्हारे इस ऋण से मैं कभी मुक्त नहीं हो सकती। मुझे तुमसे दयावानों का अत्यन्त उपकार मानना चाहिए । अस्तु, इस समय मैं और क्या अधिक कह सकती हूँ कि जैसा तुमने मेरा भला किया, वैसा भगवान् तुम्हारा भी भला करे। भाई, मेरी इच्छा तुम्हारा विशेष परिचय पाने की है । इसलिए कि तुम्हारा पहनावा और तुम्हारे चेहरे पर की तेजस्विता देखकर मुझे बड़ा ही सन्देह हो रहा है। अतएव यदि तुम मुझसे अपना परिचय देने में कोई हानि न समझो तो कृपा कर कहो । वह आगत पुरुष पद्मावती से बोला-माँ, मुझ अभागे की कथा तुम सुनोगी। अच्छा तो सुनो, मैं सुनाता हूँ। विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्प्रभ नाम का एक शहर है। उसके राजा का नाम भी विद्युत्प्रभ है। विद्युत्प्रभ की रानी का नाम विद्युल्लेखा है । ये दोनों राजा-रानी मुझ अभागे के माता-पिता हैं। मेरा नाम बालदेव है। एक दिन मैं अपनी प्रिया कनकमाला के साथ विमान में बैठा हुआ दक्षिण की ओर जा रहा था ॥६९-७९॥
    रास्ते में मुझे रामगिरी पर्वत पड़ा। उस पर मेरा विमान अटक गया। मैंने नीचे नजर डालकर देखा तो मुझे एक मुनि दीख पड़े। उन पर मुझे बड़ा गुस्सा आया । मैंने तब कुछ आगा-पीछा न सोचकर मुनि को बहुत कष्ट दिया, उन पर घोर उपसर्ग किया। उनके तप के प्रभाव से जिनभक्त पद्मावती देवी का आसन हिला और वह उसी समय वहाँ आई उसने मुनि का उपसर्ग दूर किया। सच है, साधुओं पर किए उपद्रव को सम्यग्दृष्टि कभी नहीं सह सकते । माँ, उस समय देवी ने गुस्सा होकर मेरी सब विद्याएँ नष्ट कर दीं । मेरा सब अभिमान चूर हुआ । मैं एक मद रहित हाथी की तरह निःसत्व-तेज रहित हो गया। मैं अपनी इस दशा पर बहुत पछताया । मैं रोकर देवी से बोला- प्यारी माँ, मैं आपका अज्ञानी बालक हूँ। मैंने जो कुछ यह बुरा काम किया वह सब मूर्खता और अज्ञान से न समझ कर ही किया है। आप मुझे इसके लिए क्षमा करें और मेरी विद्याएँ मुझे लौटा दें। इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरी यह दीनता भरी पुकार व्यर्थ न गई। देवी ने शान्त होकर मुझे क्षमा किया और वह बोली-मैं तुझे तेरी विद्याएँ लौटा देती, पर मुझे तुझसे एक महान् कार्य करवाना है इसलिए मैं कहती हूँ वह कर। समय पाकर सब विद्याएँ तुझे अपने आप सिद्ध हो जायेगी। मैं हाथ जोड़े हुए उसके मुँह की ओर देखने लगा । वह बोली - "हस्तिनापुर के श्मशान में एक विपत्ति की मारी स्त्री के गर्भ से एक पुण्यवान् और तेजस्वी पुत्ररत्न जन्म लेगा । उस समय पहुँचकर तू उसकी सावधानी से रक्षा करना और अपने घर लाकर पालना - पोसना। उसके राज्य समय तुझे सब विद्याएँ सिद्ध होगी। माँ उसकी आज्ञा से मैं तभी से यहाँ इस वेष में रहता हूँ । इसलिए कि मुझे कोई पहचान न सके। माँ, यही मुझ अभागे की कथा है। आज मैं आपकी दया से कृतार्थ हुआ। पद्मावती विद्याध का हाल सुनकर दुःखी जरूर हुई, पर उसे अपने पुत्र का रक्षक मिल गया, इससे कुछ सन्तोष भी हुआ । उसने तब अपने प्रिय बच्चे को विद्याधर के हाथ में रखकर कहा- भाई, इसकी सावधानी से रक्षा करना ।अब इसके तुम ही सब प्रकार से कर्ता-धर्ता हो । मुझे विश्वास है कि तुम इसे अपना ही प्यारा बच्चा समझोगे। उसने फिर पुत्र के प्रकाशमान चेहरे पर प्रेमभरी दृष्टि डालकर पुत्र वियोग से भर आए हृदय से कहा-मेरे लाल! तुम पुण्यवान् होकर भी उस अभागिनी माँ के पुत्र हुए हो, जो जन्मते ही तुम्हें छोड़कर बिछुड़ना चाहती है। लाल ! मैं तो अभागिनी थी ही, पर तुम भी ऐसे अभागे हुए जो अपनी माँ के प्रेममय हृदय का कुछ भी पता न पा सके और न पाओगे ही। मुझे इस बात का बड़ा खेद रहेगा कि जिस पुत्र ने अपनी प्रेम - प्रतिमा माँ के पवित्र हृदय द्वारा प्रेम का पाठ न सीखा वह दूसरों के साथ किस तरह प्रेम करेगा? कैसे दूसरों के साथ प्रेम का बरताव कर उनका प्रेमपात्र बनेगा? जो हो, तब भी मुझे इस बात की खुशी है कि तुम एक दूसरी माँ के पास जाते हो और वह भी आखिर है तो माँ ही । जाओ लाल जाओ, सुख से रहना, परमात्मा तुम्हारा मंगल करें । इस प्रकार प्रेममय पवित्र आशीष देकर पद्मावती कड़ा हृदय कर चल दी । बालदेव ने उस सुन्दर और तेजपुंज बच्चे को अपने घर ले आकर अपनी प्रिया कनकमाला की गोद में रख दिया और कहा- - प्रिये, भाग्य से मिली इस निधि को लो। कनकमाला उस बाल - चन्द्रमा से अपनी गोद को भरी देखकर फूली न समाई। वह उसे जितना देखती उसका प्रेम क्षण-क्षण में अनंत गुणा बढ़ता ही गया । कनकमाला का जितना प्रेम होना संभव न था उतना इस नये बालक पर उसका प्रेम हो गया, सचमुच यह आश्चर्य है अथवा नई वस्तु स्वभाव से प्रिय होती है और फिर वह अपनी हो जाये तब तो उस पर होने वाले प्रेम के सम्बन्ध में कहना ही क्या? और वह प्रेम, जिसकी प्राप्ति के लिए आत्मा सदा तड़फा ही करता है और वह पुत्र जैसी परम प्रिय वस्तु तब पढ़ने वाले कनकमाला के प्रेममय हृदय का एक बार अवगाहन करके देखें कि एक नई माँ जिस बच्चे पर इतना प्रेम करती है तब जिसने उसे जन्म दिया उसके प्रेम का क्या कुछ अन्त है-सीमा है! नहीं। माँ का अपने बच्चे पर जो प्रेम होता है उसकी तुलना किसी दृष्टांत या उदाहरण द्वारा नहीं की जा सकती और जो करते हैं वे माँ के अनन्त प्रेम को कम करने का यत्न करते हैं। कनकमाला उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उसने उसका नाम करकण्डु रखा। इसलिए कि उस बच्चे के हाथ में उसे खुजली दीख पड़ी थी । कनकमाला ने उसका लालन-पालन करने में अपने खास बच्चे से कोई कमी न की । सच है, पुण्य के उदय से कष्ट समय में भी जीवों को सुख सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए भव्यजनों को जिन पूजा, पात्र - दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि पुण्य-कर्मों द्वारा सदा शुभ कर्म करते रहना चाहिए ॥८०-९३॥
    पद्मावती तब करकण्डु से जुदा होकर गान्धारी नाम की क्षुल्लिका के पास आई उसे उसने भक्ति से प्रणाम किया और आज्ञा पा उसी के पास वह बैठ गई। थोड़ी देर बार पद्मावती ने उस क्षुल्लिका से अपना सब हाल कहा और जिनदीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । क्षुल्लिका उसे तब समाधिगुप्त मुनि के पास लिवा गई पद्मावती ने मुनिराज को नमस्कार कर उनसे भी अपनी इच्छा कह सुनाई। उत्तर में मुनि ने कहा- बहिन, तू साध्वी होना चाहती है, तेरा यह विचार बहुत अच्छा है पर यह समय तेरी दीक्षा के लिए उपयुक्त नहीं हैं। कारण तूने पहले जन्म में नागदत्ता की पर्याय में जिनव्रत को तीन बार ग्रहण कर तीनों बार ही छोड़ दिया था और फिर चौथी बार ग्रहण कर तू उसके फल से राजकुमार हुई तूने तीन बार व्रत छोड़ा उससे तुझे तीनों बार ही दुःख उठाना पड़ा। तीसरी बार का कर्म कुछ और बचा है। वह जब शान्त हो जाए और इस बीच में तेरे पुत्र को भी राज्य मिल जाए तब कुछ दिनों तक राज्य सुख भोग कर फिर पुत्र के साथ-साथ ही तू भी साध्वी होना । मुनि द्वारा अपना भविष्य सुनकर पद्मावती उन्हें नमस्कार कर उस क्षुल्लिका के साथ चली गई। अब से वह पद्मावती उसी के पास रहने लगी ॥९४-१००॥
    इधर करकण्डु बालदेव के यहाँ दिनों-दिन बढ़ने लगा। जब उसकी पढ़ने की उमर हुई तब बालदेव ने अच्छे-अच्छे विद्वान् अध्यापकों को रखकर उसे पढ़ाया। करकण्डु पुण्य के उदय से थोड़े ही वर्षों में पढ़-लिखकर अच्छा होशियार हो गया। कई विषय में उसकी अरोक गति हो गई एक दिन बालदेव और करकण्डु हवा-खोरी करते-करते शहर के बाहर श्मशान में आ निकले। ये दोनों एक अच्छी जगह बैठकर श्मशान भूमि की लीला देखने लगे। इतने में जयभद्र मुनिराज अपने संघ को लिए इसी श्मशान में आकर ठहरे । यहाँ एक नर - कपाल पड़ा हुआ था । उसके मुँह और आँखों के तीन छेदों में तीन बाँस उग रहे थे। उसे देखकर एक मुनि ने विनोद से अपने गुरु से पूछा-भगवान् यह क्या कौतुक है, जो इस नर - कपाल में तीन बाँस उगे हुए हैं? तपस्वी मुनि ने उसके उत्तर में कहा- इस हस्तिनापुर का जो नया राजा होगा, इस बाँसों के उसके लिए अंकुश, छत्र, दण्ड वगैरह बनेंगे। जयभद्राचार्य द्वारा कहे गए इस भविष्य को किसी एक ब्राह्मण ने सुन लिया। अतः वह धन की आशा से इन बाँसों को उखाड़ लाया। उसके हाथ से इन्हें करकण्डु ने खरीद लिया। सच है मुनि लोग जिसके सम्बन्ध में जो बात कह देते हैं वह फिर होकर ही रहती है। उस समय हस्तिनापुर का राजा बलवाहन था। इसके कोई संतान न थी । उसकी मृत्यु हो गई अब राजा किसको बनाया जाए, इस विषय में चर्चा चली। आखिर यह निश्चय हुआ कि महाराज का खास हाथी जल भरा सुवर्ण-कलश देकर छोड़ा जाए। वह जिसका अभिषेक कर राजसिंहासन पर ला बैठा दे, वही इस राज्य का मलिक हो। ऐसा ही किया गया। हाथी राजा को ढूँढ़ने निकला। चलता-चलता वह करकण्डु के पास पहुँचा। वही इसे अधिक पुण्यवान् दीख पड़ा। उसी समय उसने करकण्डु का अभिषेक कर उसे अपने ऊपर चढ़ा लिया और राज्यसिंहासन पर ला रख दिया। सारी प्रजा ने उस तेजस्वी करकण्डु को अपना मालिक हुआ देख खूब जय-जयकार मनाया और खूब आनन्द उत्सव किया । करकण्डु के भाग्य का सितारा चमका। वह राजा हुआ । सच है, जिन भगवान् की पूजा के फल से क्या-क्या प्राप्त नहीं होता। करकण्डु के राजा होते ही बालदेव को उसकी नष्ट हुई विद्याएँ फिर सिद्ध हो गई उसे उसकी सेवा का मनचाहा फल मिल गया। इसके बाद बालदेव विद्या की सहायता से करकण्डु की खास माँ पद्मावती जहाँ थी, वहाँ गया और उसे करकण्डु के पास लाकर उसने दोनों माता-पुत्रों का मिलाप करवाया। पद्मावती आज कृतार्थ हुई उसकी वर्षों की तपस्या समाप्त हुई पश्चात् बालदेव इन दोनों को बड़ी नम्रता से प्रणाम कर अपनी राजधानी में चला गया ॥ १०१-११५॥
    करकण्डु के राजा होने पर कुछ राजा लोग उससे विरुद्ध होकर लड़ने को तैयार हुए। पर करकण्डु ने अपनी बुद्धिमानी और राजनीति की चतुरता से सबको अपना मित्र बनाकर देशभर में शत्रु का नाम भी न रहने दिया। वह फिर सुख से राज्य करने लगा । करकण्डु के दिनों-दिन बढ़ते हुए प्रताप की खबर चारों ओर फैलती-फैलती दन्तिवाहन के पास पहुँची । दन्तिवाहन करकण्डु के पिता हैं। पर न तो दन्तिवाहन को यह ज्ञात था कि करकण्डु मेरा पुत्र है और न करकण्डु को इस बात का पता था कि दन्तिवाहन मेरे पिता हैं । यही कारण था कि दन्तिवाहन को इस नये राजा का प्रताप सहन नहीं हुआ । उन्होंने अपने एक दूत को करकण्डु के पास भेजा । दूत ने आकर करकण्डु से प्रार्थना की- " राजाधिराज दन्तिवाहन मेरे द्वारा आपको आज्ञा करते हैं कि यदि राज्य आप सुख से करना चाहते हैं तो उनकी आप आधीनता स्वीकार करें। ऐसे किए बिना किसी देश के किसी हिस्से पर आपकी सत्ता नहीं रह सकती।” करकण्डु एक तेजस्वी राजा और उस पर एक दूसरे की सत्ता, सचमुच करकण्डु के लिए यह आश्चर्य की बात थी। उसे दन्तिवाहन की इस धृष्टता पर बड़ा क्रोध आया। उसने तेज आँखें कर दूत की ओर देखा और उससे कहा-यदि तुम्हें अपनी जान प्यारी है तो तुम यहाँ से जल्दी भाग जाओ। तुम दूसरे के नौकर हो, इसलिए मैं तुम पर दया करता हूँ नहीं तो तुम्हारी इस धृष्टता का फल तुम्हें मैं अभी ही बता देता । जाओ और अपने मालिक से कह दो कि वह रणभूमि में आकर तैयार रहे। मुझे जो कुछ करना होगा मैं वही करूँगा । दूत ने जैसे ही करकण्डु की आँखें चढ़ी देखीं वह उसी समय डरकर राजदरबार से रवाना हो गया ॥११६-१२१॥
    इधर करकण्डु अपनी सेना में युद्धघोषणा दिलवा कर आप दन्तिवाहन पर जा चढ़ा और उनकी राजधानी को उसने सब ओर से घेर लिया । दन्तिवाहन तो इसके लिए पहले ही से तैयार थे । वे भी सेना ले युद्धभूमि में उतरे । दोनों ओर की सेना में व्यूह रचना हुई रणवाद्य बजने वाला ही था कि पद्मावती को यह ज्ञान हो कि यह युद्ध शत्रुओं का न होकर खास पिता-पुत्र का है। वह तब उसी समय अपने प्राणनाथ के पास गई और सब हाल उसने उन से कह सुनाया । दन्तिवाहन को इस समय अपनी प्रिया-पुत्र को प्राप्त कर जो आनन्द हुआ, उसका पता उन्हीं के हृदय को हैं । दूसरा वह कुछ थोड़ा बहुत पा सकता है जिस पर ऐसा ही भयानक प्रसंग आकर कभी पड़ा हो । सर्वसाधारण उनके उस आनन्द का, उस सुख का थाह नहीं ले सकते । दन्तिवाहन तब उसी समय हाथी से उतर कर अपने प्रिय-पुत्र के पास आए। करकण्डु को ज्ञात होते ही वह उनके सामने दौड़ा गया और जाकर उनके पाँवों में गिर पड़ा। दन्तिवाहन ने झट से उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। पिता-पुत्र का पुण्य मिलाप हुआ । इसके बाद दन्तिवाहन ने बड़े आनन्द और ठाठबाट से पुत्र का शहर में प्रवेश कराया। प्रजा ने अपने युवराज का अपार आनन्द के साथ स्वागत किया। घर-घर आनन्द उत्सव मनाया गया । दान दिया गया। पूजा-प्रभावना की गई महा अभिषेक किया गया। गरीब लोग मनचाही सहायता से खुश किए गए। इस प्रकार पुण्य-प्रसाद से करकण्डु ने राज्यसम्पत्ति के सिवा कुटुम्ब - सुख भी प्राप्त किया। वह अब स्वर्ग के देवों की तरह सुख से रहने लगा ॥१२२-१२८॥
    कुछ दिनों बाद दन्तिवाहन ने अपने पुत्र का विवाह समारंभ किया । उसमें उन्होंने खूब खर्च कर बड़े वैभव के साथ करकण्डु का कोई आठ हजार राजकुमारियों के साथ ब्याह किया । ब्याह के बाद ही दन्तिवाहन राज्य का भार सब करकण्डु के जिम्मे कर आप अपनी प्रिया पद्मावती के साथ सुख से रहने लगे। सुख-चैन से समय बिताना उन्होंने अब अपना प्रधान कार्य रखा ॥१२९-१३१॥
    इधर करकण्डु राज्यशासन करने लगा। प्रजा को उसके शासन की जैसी आशा थी, करकण्डु ने उससे कहीं बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा प्रेम बतलाया । प्रजा को सुखी बनाने में उसने कोई बात की कमी न रखी। इस प्रकार वह अपने पुण्य का फल भोगने लगा। एक दिन समय देख मंत्रियों ने करकण्डु से निवेदन किया- महाराज, चेरम, पाण्ड्य और चोल आदि राजा चिर समय से अपने आधीन हैं। पर जान पड़ता है उन्हें इस समय कुछ अभिमान ने आ घेरा है। वे मानपर्वत का आश्रय पा अब स्वतंत्र से हो रहे हैं। राज - कर वगैरह भी अब वे नहीं देते। इसलिए उन पर चढ़ाई करना बहुत आवश्यक है। इस समय ढील कर देने से सम्भव है थोड़े ही दिनों में शत्रुओं का जोर अधिक बढ़ जायें इसलिए इसके लिए प्रयत्न कीजिए कि वे ज्यादा सिर पर न चढ़ें, उसके पहले ही ठीक ठिकाने लगाया जाये। मंत्रियों की सलाह सुन और उस पर विचार कर पहले करकण्डु ने उन लोगों के पास अपना दूत भेजा। दूत अपमान के साथ लौट आया। करकण्डु ने सब सीधी तरह सफलता प्राप्त न होती देखी तब उसे युद्ध के लिए तैयार होना पड़ा। वह सेना लिए युद्धभूमि में जा डटा । शत्रु लोग भी चुपचाप न बैठकर उसके सामने हुए। दोनों ओर की सेना की मुठभेड़ हो गई घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के हजारों वीर काम आए। अन्त में करकण्डु की सेना के युद्धभूमि से पाँव उखड़े। यह देख करकण्डु स्वयं युद्धभूमि में उतरा। बड़ी वीरता से वह शत्रुओं के साथ लड़ा। इस नई उम्र में उसकी इस प्रकार वीरता देखकर शत्रुओं को दाँतों तले उँगली दबाना पड़ी। विजयश्री ने करकण्डु को ही वरा। जब शत्रु राजा आ-आकर इसके पाँव पड़ने लगे और इसकी नजर उनके मुकुटों पर पड़ी तो देखकर यह एक साथ हतप्रभ हो गया और बहुत- बहुत पश्चाताप करने लगा कि हाय ! मुझ पापी ने यह अनर्थ क्यों किया? न जाने इस पाप से मेरी क्या गति होगी? बात यह थी कि उन राजाओं के मुकुटों में जिन भगवान् की प्रतिमाएँ खुदी हुई थी और वे राजा जैनी थे । अपने धर्मबन्धुओं को जो उसने कष्ट दिया और भगवान् का अविनय किया उसका उसे बेहद दुःख हुआ । उसने उन लोगों को बड़े आदरभाव से उठाकर पूछा- क्या सचमुच आप जैनधर्मी हैं? उनकी ओर से सन्तोषजनक उत्तर पाकर उसने बड़े कोमल शब्दों में उनसे कहा-महानुभावो, मैंने क्रोध से अन्धे होकर जो आपको यह व्यर्थ कष्ट दिया, आप पर उपद्रव किया, इसका मुझे अत्यन्त दुःख है। मुझे इस अपराध के लिए आप लोग क्षमा करें। इस प्रकार उनसे क्षमा कराकर उनको साथ लिए वह अपने देश को रवाना हुआ ॥ १३२-१४२॥
    रास्ते में तेरपुर के पास इनका पड़ाव पड़ा। इसी समय कुछ भीलों ने आकर नम्र मस्तक से इनसे प्रार्थना की-राजाधिराज, हमारे तेरपुर से दो - कोस दूरी पर एक पर्वत है । उस पर एक छोटा-सा धाराशिव नाम का गाँव बसा हुआ है। इस गाँव में एक बहुत बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है। उसमें विशेषता यह है कि उसमें कोई एक हजार खम्भे हैं। वह बड़ा सुन्दर है। उसे आप देखने को चलें। इसके सिवा पर्वत पर एक यह आश्चर्य की बात है कि वहाँ एक बाँवी है। एक हाथी रोज अपनी सूँड में थोड़ा-सा पानी और एक कमल का फूल लिए वहाँ आता है और उस बाँवी की परिक्रमा देकर वह पानी और फूल उस पर चढ़ा देता है। इसके बाद वह उसे अपना मस्तक नवाकर चला जाता है। उसका यह प्रतिदिन का नियम है। महाराज ! नहीं जान पड़ता कि इसका क्या कारण है? करकण्डु भीलों द्वारा यह शुभ समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । इस समाचार को लाने वाले भीलों को उचित इनाम देकर वह स्वयं सबको साथ लिए, उस कौतुकमय स्थान को देखने गया। पहले उसने जिनमन्दिर जाकर भक्ति पूर्वक भगवान् की पूजा की, स्तुति की। सच है - धर्मात्मा पुरुष धर्म के कामों में कभी प्रमाद - आलस नहीं करते। बाद में वह उस बाँवी की जगह गया । उसने वहाँ भीलों के कहे माफिक हाथी को उस बाँवी की पूजा करते पाया। देखकर उसे बड़ा अचम्भा हुआ उसने सोचा कि इसका कुछ न कुछ कारण होना चाहिए। नहीं तो इस पशु में ऐसा भक्तिभाव नहीं देखा जाता । यह विचार कर उसने उस बाँवी को खुदवाया । उसमें से एक सन्दूक निकली। उसने उसे खोलकर देखा । सन्दूक में एक रत्नमयी पार्श्वनाथ भगवान् की पवित्र प्रतिमा थी । उसे देखकर धर्मप्रेमी करकण्डु को अतिशय प्रसन्नता हुई उसने तब वहाँ‘अग्गलदेव' नाम का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाकर उसमें बड़े उत्सव के साथ उस प्रतिमा को विराजमान किया। प्रतिमा पर एक गाँठ देखकर करकण्डु ने शिल्पकार से कहा-देखो, तो प्रतिमा पर यह गाँठ कैसी है? प्रतिमा की सब सुन्दरता इससे मारी गई इसे सावधानी के साथ तोड़ दो। यह अच्छी नहीं दीख पड़ती ॥१४३-१५५॥
    शिल्पकार ने कहा-महाराज, यह गाँठ ऐसी वैसी नहीं है जो तोड़ दी जाये । ऐसी रत्नमयी दिव्य प्रतिमा पर गाँठ होने का कुछ न कुछ कारण जान पड़ता है। इसका बनाने वाला इतना कम बुद्धि न होगा कि प्रतिमा की सुन्दरता नष्ट होने का ख्याल न कर इस गाँठ को रहने देता। मुझे जहाँ तक जान पड़ता है, इस गाँठ का सम्बन्ध किसी भारी जल-प्रवाह से होना चाहिए और यह असंभव भी नहीं । संभवतः इसकी रक्षा के लिए यह प्रयत्न किया गया हो। इसलिए मेरी समझ में इसका तुड़वाना उचित नहीं। करकण्डु ने उसका कहा न माना। उसे उसकी बात पर विश्वास न हुआ। उसने तब शिल्पकार से बहुत आग्रह कर आखिर उसे तुड़वाया ही । जैसे ही वहाँ गाँठ टूटी उसमें से एक बड़ा भारी जल- प्रवाह वह निकला। मन्दिर में पानी इतना भर गया कि करकण्डु वगैरह को अपने जीवन के बचने का भी सन्देह हो गया। तब वह जिनभक्त उस प्रवाह के रोकने के लिए संन्यास ले कुशासन पर बैठ कर परमात्मा का स्मरण चिंतन करने लगा । उसके पुण्य - प्रभाव से नागकुमार ने प्रत्यक्ष आकर उससे कहा- राजन् काल अच्छा नहीं इसलिए प्रतिमा की सुरक्षा के लिए मुझे यह जल पूर्ण लवण बनाना पड़ा इसलिए आप इस जलप्रवाह के रोकने का आग्रह न करें इस प्रकार ककण्डु को नागकुमार ने समझा कर आसन पर से उठ जाने को कहा। करकण्डु नागकुमार के कहने से संन्यास छोड़ उठ गया। उठकर उसने नागकुमार से पूछा- क्यों जी, ऐसा सुन्दर यह लवण यहाँ किसने बनाया और किसने इस बाँवी में इस प्रतिमा को विराजमान किया? नागकुमार ने कहा - सुनिए, विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में खूब सम्पत्तिशाली नभस्तिलक नाम का एक नगर था । उसमें अमितवेग और सुवेग नाम के दो विद्याधर राजा हो चुके हैं। दोनों धर्मज्ञ और सच्चे जिनभक्त थे । एक दिन वे दोनों भाई आर्यखण्ड के जिनमन्दिरों के दर्शन करने के लिए आये । कई मंदिरों में दर्शन-पूजन कर वे मलयाचल पर्वत पर आये यहाँ घूमते हुए उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान् की इस रत्नमयी प्रतिमा को देखा । इसके दर्शन कर उन्होंने इसे एक सन्दूक में बन्द कर दिया और सन्दूक को एक गुप्त स्थान पर रखकर वे उस समय चले गए। कुछ समय बाद वे आकर उस सन्दूक को कहीं अन्यत्र ले जाने के लिए उठाने लगे पर सन्दूक अब की बार उनसे न उठी। तब तेरपुर जाकर उन्होंने अवधिज्ञानी मुनिराज से अब हाल कहकर सन्दूक के न उठने का कारण पूछा। मुनि ने कहा- " - "सुनिए, यह सुखकारिणी सन्दूक तो पहले लयण ऊपर दूसरा लयण होगी। मतलब यह कि यह सुवेग आर्तध्यान से मरकर हाथी होगा। वह इस सन्दूक की पूजा किया करेगा। कुछ समय बाद करकण्डु राजा यहाँ आकर इस सन्दूक को निकालेगा और सुवेग का जीव हाथी तब संन्यास ग्रहण कर स्वर्ग गमन करेगा । इस प्रकार मुनि द्वारा इस प्रतिमा की चिरकाल तक अवस्थिति जानकर उन्होंने मुनि से फिर पूछा- तो प्रभो ! इस लयण को किसने बनाया? मुनिराज बोले-इसी विजयार्द्ध की दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर में नील और महानील नाम के दो राजा हो गए हैं। शत्रुओं के साथ युद्ध में उनकी विद्या, धन, राज्य वगैरह सब कुछ नष्ट हो गया। तब वे इस मलय पर्वत पर आकर बसे । यहाँ वे कई वर्षों तक आराम से रहे। दोनों भाई बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने यह लयण बनवाया। पुण्य से उन्हें उनकी विद्याएँ फिर प्राप्त हो गई तब वे पीछे अपनी जन्मभूमि रथनूपुर चले गए। इसके बाद कुछ दिनों तक वे दोनों गृह- संसार में रहे। फिर जिनदीक्षा लेकर दोनों भाई साधु हो गए। अन्त में तपस्या के प्रभाव से वे स्वर्ग गए।" इस प्रकार सब हाल सुनकर बड़ा भाई अमितवेग तो उसी समय दीक्षा लेकर मुनि हो गया और अन्त में समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ और सुवेग- अमितवेग का छोटा भाई आर्तध्यान से मरकर वह हाथी हुआ। सो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग से पूर्व जन्म के भातृप्रेम के वश देखने आकर उसे धर्मोपदेश किया, समझाया। उससे इस हाथी को जातिस्मरण हो गया । तब उसने अणुव्रत ग्रहण किए। तब से यह इस प्रकार शान्त रहता है और सदा इस बाँवी की पूजन किया करता है तुमने बाँवी तुड़ाकर उसमें से प्रतिमा निकाल ली तब से हाथी संन्यास लिए यहीं रहता है और राजन्, आप पूर्वजन्म में इसी तेरपुर में ग्वाले थे। आपने तब एक कमल के फल द्वारा जिनभगवान् की पूजा की थी। उसी के फल से समय आप राजा हुए हैं। राजन्, यह जिनपूजा सब पुण्यकर्मों में उत्तम पुण्यकर्म है यही तो कारण है कि क्षणमात्र में इसके द्वारा उत्तम से उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार करकण्डु को आदि से इति पर्यन्त सब हाल कहकर और धर्म प्रेम से उसे नमस्कार कर नागकुमार अपने स्थान चला गया। सच है यह पुण्य ही का प्रभाव है जो देव भी मित्र हो जाते हैं ॥१५६-१९२॥
    हाथी को संन्यास लिए आज तीसरा दिन था । करकण्डु ने उसके पास जाकर उसे धर्म का पवित्र उपदेश किया हाथी अन्त में सम्यक्त्व सहित मरकर सहस्रार स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ। एक पशु धर्म का उपदेश सुनकर स्वर्ग में अनन्त सुखों का भोगने वाला देव हुआ, तब जो मनुष्य जन्म पाकर पवित्र भावों से धर्म पालन करें तो उन्हें क्या प्राप्त न हो? बात यह है कि धर्म से बढ़कर सुख देने वाली संसार में कोई वस्तु है ही नहीं । इसलिए धर्म प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। करकण्डु ने इसके बाद इसी पर्वत पर अपने, अपनी माँ के तथा बालदेव के नाम से विशाल और सुन्दर तीन जिनमन्दिर बनवाएँ, बड़े वैभव के साथ उनकी प्रतिष्ठा करवाई जब करकण्डु ने देखा कि मेरा सांसारिक कर्तव्य सब पूरा हो चुका, तब राज्य का सब भार अपने पुत्र वसुपाल को सौंप कर और संसार, शरीर, भोगों को महादोष वाला जानकर करके भोगादि से विरक्त होकर आप अपने माता-पिता तथा और भी कई राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले योगी हो गया । योगी होकर करकण्डु मुनि ने खूब तप किया, जो कि निर्दोष और संसार-समुद्र से पार करने वाला है । अन्त में परमात्म-स्मरण में लीन हो उसने भौतिक शरीर छोड़ा। तप के प्रभाव से उसे सहस्रार स्वर्ग में दिव्य देह मिली। पद्मावती, दन्तिवाहन तथा अन्य राजा तो अपने पुण्य के अनुसार स्वर्गलोक गए ॥ १९३ - २०२॥
    करकण्डु ने ग्वाले के जन्म में केवल एक कमल के फूल द्वारा भगवान् की पूजा की थी । उसे उसका जो फल मिला उसे आप सुन चुके हैं । तब जो पवित्र भावपूर्वक आठ द्रव्यों से भगवान् की पूजा करेंगे उनके सुख का तो फिर पूछना ही क्या? थोड़े में यों समझिए कि जो भव्यजन भक्ति से भगवान् की प्रतिदिन पूजा किया करते हैं वे सर्वोत्तम - सुख मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं, तब और सांसारिक सुखों की तो उनके सामने गिनती ही क्या हैं? ॥२०३-२०४॥
    एक बे-समझ ग्वाले ने जिन भगवान् के पवित्र चरणों की एक कमल के फूल से पूजा की थी, उसके फल से वह करकण्डु राजा होकर देवों द्वारा पूज्य हुआ । इसलिए सुख की चाह करने वाले भव्यजनों को भी उचित है कि वे जिन-पूजा की ओर अपने ध्यान को आकर्षित करें । उससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा, क्योंकि भावों का पवित्र होना पुण्य का कारण है और भावों के पवित्र करने को जिन-पूजा भी एक प्रधान कारण है ॥२०५॥
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    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जिन भगवान्, जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर रात्रि भोजन का त्याग करने से जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जो लोग धर्मरक्षा के लिए, रात्रिभोजन का त्याग करते हैं, वे दोनों लोकों में सुखी होते हैं, यशस्वी होते हैं, दीर्घायु होते हैं, कान्तिमान होते हैं और उन्हें सब सम्पदाएँ तथा शान्ति मिलती है, और जो लोग रात में भोजन करने वाले हैं, वे दरिद्री होते हैं, जन्मांध होते हैं, अनेक रोग और व्याधियाँ उन्हें सदा सताए रहती हैं, उनके संतान नहीं होती । रात में भोजन करने से छोटे जीव जन्तु नहीं दिखाई पड़ते। वे खाने में आ जाते हैं। उससे बड़ा पापबन्ध होता है । जीवहिंसा का पाप लगता है। मांस का दोष लगता है । इसलिए रात्रिभोजन का छोड़ना सबके लिए हितकारी है और खासकर उन लोगों को तो छोड़ना ही चाहिए जो मांस नहीं खाते। ऐसे धर्मात्मा श्रावकों को दिन निकले दो घड़ी बाद सबेरे और दो घड़ी दिन बाकी रहे तब शाम को भोजन वगैरह से निवृत्त हो जाना चाहिए । समन्तभद्रस्वामी का भी ऐसा ही मत है - " रात्रि भोजन का त्याग करने वाले को सबेरे शाम को आरम्भ और अन्त में दो-दो घड़ी छोड़कर भोजन करना चाहिए ।" जो नैष्ठिक श्रावक नहीं हैं उनके लिए पान, सुपारी, इलायची, जल और पवित्र औषधि आदि का सेवन विशेष दोष के कारण नहीं है, इन्हें छोड़कर और अन्न की चीजें या मिठाई, फलादिक ये सब कष्ट पड़ने पर भी कभी न खाना चाहिए। जो भव्य जीवन भर के लिए चारों प्रकार के आहार का रात में त्याग कर देते हैं उन्हें वर्ष भर में छह माह के उपवास का फल होता है। रात्रिभोजन को त्याग करने से प्रीतिंकर कुमार को फल प्राप्त हुआ था उसकी विस्तृत कथा अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध है। यहाँ उसका सार लिखा जाता है-॥२-९॥
    मगध में सुप्रतिष्ठपुर अच्छा प्रसिद्ध शहर था । अपनी सम्पत्ति और सुन्दरता से वह स्वर्ग से टक्कर लेता था। जिनधर्म का वहाँ विशेष प्रचार था। जिस समय की यह कथा है, उस समय उसके राजा जयसेन थे। जयसेन धर्मज्ञ, नीतिपरायण और प्रजाहितैषी थे ॥१०-११॥
    यहाँ धनमित्र नाम का एक सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम धनमित्रा था। दोनों ही की जैनधर्म पर अखण्ड प्रीति थी। एक दिन सागरसेन नाम के अवधिज्ञानी मुनि को आहार देकर इन्होंने उनसे पूछा-प्रभो! हमें पुत्र सुख होगा या नहीं? यदि न हों तो हमें व्यर्थ की आशा से अपने दुर्लभ मनुष्य- जीवन को संसार के मोह-माया में फँसा रखकर, उसका क्यों दुरुपयोग करें? फिर क्यों न हम पापों के नाश करने वाली पवित्र जिनदीक्षा ग्रहण कर आत्महित करें ? मुनि ने इनके प्रश्न के उत्तर में कहा-हाँ अभी तुम्हारी दीक्षा का समय नहीं आया । कुछ दिन गृहवास में तुम्हें अभी और ठहरना पड़ेगा। तुम्हें एक महाभाग और कुलभूषण पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । वह बड़ा तेजस्वी होगा। उसके द्वारा अनेक प्राणियों का उद्धार होगा और वह इसी भव से मोक्ष जाएगा । अवधिज्ञानी मुनि की यह भविष्यवाणी सुनकर दोनों को अपार हर्ष हुआ। सच है, गुरुओं के वचनामृत का पान कर किसे हर्ष नहीं होता ॥१२-१७॥
    तब से वे सेठ-सेठानी अपना समय जिनपूजा, अभिषेक, पात्रदान आदि पुण्य कर्मों में अधिक समय देने लगे, क्योंकि उन्हें पूर्ण विश्वास था कि सुख का कारण धर्म ही है। इस प्रकार आनन्द उत्सव के साथ कुछ दिन बीतने पर धनमित्रा ने एक प्रतापी पुत्र प्रसव किया। मुनि की भविष्यवाणी सच हुई। पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में सेठ ने बहुत उत्सव किया, दान दिया, पूजा प्रभावना की । बन्धु- बाँधवों को बड़ा आनन्द हुआ। उस नवजात शिशु को देखकर सबको अत्यन्त प्रीति हुई इसलिए उसका नाम भी प्रीतिंकर रख दिया गया। दूज के चाँद की तरह वह दिनों-दिन बढ़ने लगा। सुन्दरता में यह कामदेव से कहीं बढ़कर था, बड़ा भाग्यवान् था और इसके बल के सम्बन्ध में तो कहना ही , जबकि यह चरमशरीर का धारी - इसी भव से मोक्ष जाने वाला हैं । जब प्रीतिंकर पाँच वर्ष का हो गया, तब उसके पिता ने उसे पढ़ाने के लिए गुरु को सौंप दिया। इसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी और फिर इस पर गुरु की कृपा हो गई। इससे यह थोड़े ही वर्षों में पढ़ लिखकर योग्य विद्वान् बन गया। कई शास्त्रों में उसकी अबाधगति हो गई, गुरु- सेवारूपी नाव द्वारा इसने शास्त्ररूपी समुद्र का प्रायः अधिकांश पार कर लिया । विद्वान् और धनी होकर भी उसे अभिमान छू तक न पाया था। यह सदा लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता और पढ़ाता - लिखाता था । उसमें आलस्य, ईर्ष्या, मत्सरता आदि दुर्गुणों का नाम निशान भी न था । यह सबसे प्रेम करता था। वह सबके दुःख-सुख में सहानुभूति रखता । वही कारण था कि उसे सब छोटे-बड़े हृदय से चाहते थे। जयसेन उसको ऐसी सज्जनता और परोपकार बुद्धि देखकर बहुत खुश हुए। उन्होंने स्वयं उसका वस्त्राभूषणों से आदर सत्कार किया, इससे उसकी इज्जत बढ़ाई ॥ १८-२६॥
    यद्यपि प्रीतिंकर को धन दौलत की कोई कमी नहीं थी परन्तु तब भी एक दिन बैठे-बैठे उसके मन में आया कि अपने को भी कमाई करनी चाहिए । कर्तव्यशीलों का यह काम नहीं कि बैठे-बैठे अपने बाप-दादों की सम्पत्ति पर मजा - मौज उड़ाकर आलसी और कर्तव्यहीन बनें और न सपूतों का यह काम है। इसलिए मुझे धन कमाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । यह विचार कर उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं स्वयं कुछ न कमा लूँगा तब तक ब्याह न करूँगा । प्रतिज्ञा के साथ ही वह विदेश के लिए रवाना हो गया। कुछ वर्षों तक विदेश में ही रहकर उसने बहुत धन कमाया। खूब कीर्ति अर्जित की। उसे अपने घर से गए कई वर्ष बीत गए थे, इसलिए अब उसे अपने माता- पिता की याद आने लगी । फिर वह बहुत दिनों बाहर रहकर अपना सब माल असबाब लेकर घर लौट आया। सच हैं पुण्यवानों को लक्ष्मी थोड़े ही प्रयत्न से मिल जाती है । प्रीतिंकर अपने माता- पिता से मिला। सब को बहुत आनन्द हुआ। जयसेन का प्रीतिंकर की पुण्यवानी और प्रसिद्धि सुनकर उस पर अत्यन्त प्रेम हो गया। उन्होंने तब अपनी कुमारी पृथ्वीसुन्दरी और एक दूसरे देश से आई हुए वसुन्धरा तथा और भी कई सुन्दर-सुन्दर राजकुमारियों का ब्याह इस महाभाग के साथ बड़े ठाट-बाट से कर दिया। इसके साथ जयसेन ने अपना आधा राज्य भी इसे दे दिया । प्रीतिंकर के राज्य प्राप्ति आदि के सम्बन्ध की विशेष कथा यदि जानना हो तो महापुराण का स्वाध्याय करना चाहिए ॥२७-३३॥
    प्रीतिंकर को पुण्योदय से जो राज्यविभूति प्राप्त हुई उसे सुखपूर्वक भोगने लगा। उसके दिन आनन्द-उत्सव के साथ बीतने लगे। इससे यह न समझना चाहिए कि प्रीतिंकर सदा विषयों में ही फँसा रहता है। वह धर्मात्मा भी था क्योंकि वह निरन्तर जिन भगवान् की अभिषेक - पूजा करता, जो कि स्वर्ग या मोक्ष का सुख देने वाली और बुरे भावों या पापकर्मों का नाश करने वाली है। वह श्रद्धा, भक्ति आदि गुणों से युक्त हो पात्रों को दान देता, जो दान महान् सुख का कारण है । वह जिनमन्दिरों, तीर्थक्षेत्रों, जिन प्रतिमाओं आदि सप्त क्षेत्रों की, जो कि शान्तिरूपी धन के प्राप्त कराने के कारण हैं, जरूरतों को अपने धनरूपी जल - वर्षा से पूरी करता, परोपकार करना उसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था। वह स्वभाव का बड़ा सरल था । विद्वानों से उसे प्रेम था । इस प्रकार इस लोक सम्बन्धी और पारमार्थिक कार्यों में सदा तत्पर रहकर वह अपनी प्रजा का पालन करता रहता था ॥३४-३९॥
    प्रीतिंकर का समय इस प्रकार बहुत सुख से बीतता था। एक बार सुप्रतिष्ठपुर के सुन्दर बगीचे में सागरसेन नाम के मुनि आकर ठहरे थे । उनका वहीं स्वर्गवास हो गया था। उनके बाद फिर इस बगीचे में आज चारणऋद्धि धारी ऋजुमति और विपुलमति मुनि आए । प्रीतिंकर तब बड़े वैभव के साथ भव्यजनों को लिए उनके दर्शनों को गया । मुनिराज के चरणों की आठ द्रव्यों से पूजा की और नमस्कार कर बड़े विनय के साथ धर्म का स्वरूप पूछा- तब ऋजुमति मुनि ने उसे इस प्रकार संक्षेप में धर्म का स्वरूप कहा- ॥४०-४४॥
    प्रीतिंकर, धर्म उसे कहते हैं जो संसार के दुःखों से रक्षाकर उत्तम सुख प्राप्त करा सके। ऐसे धर्म के दो भेद हैं-एक मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थ धर्म । मुनियों का धर्म सर्व त्याग रूप होता है। सांसारिक माया-ममता से उनका कुछ सम्बन्ध नहीं रहता और वह उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि दस आत्मिक शक्तियों से युक्त होता है। गृहस्थधर्म में संसार के साथ लगाव रहता है। घर में रहते हुए धर्म का पालन करना पड़ता है। मुनिधर्म उन लोगों के लिए है जिनका आत्मा पूर्ण बलवान् है, जिनमें कष्टों के सहने की पूरी शक्ति है और गृहस्थ धर्म मुनिधर्म के प्राप्त करने की सीढ़ी है। जिस प्रकार एक साथ सौ-पचास सीढ़ियाँ नहीं चढ़ी जा सकतीं उसी प्रकार साधारण लोगों में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे एकदम मुनिधर्म ग्रहण कर सकें। उसके अभ्यास के लिए वे क्रम-क्रम से आगे बढ़ते जाँय, इसलिए पहले उन्हें गृहस्थधर्म का पालन करना पड़ता है। मुनिधर्म और गृहस्थधर्म में सबसे बड़ा भेद यह है कि, पहला साक्षात् मोक्ष का कारण है और दूसरा परम्परा से। श्रावकधर्म का मूल कारण है- सम्यग्दर्शन का पालन । यही मोक्ष - सुख का बीज है। बिना इसके प्राप्त किए ज्ञान, चारित्र वगैरह की कुछ कीमत नहीं। इस सम्यग्दर्शन को आठ अंगों सहित पालना चाहिए। सम्यक्त्व पालने के पहले मिथ्यात्व छोड़ा जाता है क्योंकि मिथ्यात्व ही आत्मा का एक ऐसा प्रबल शत्रु है जो संसार में इसे अनन्त काल तक भटकाये रहता है और कुगतियों के असह्य दुःखों को प्राप्त कराता है। मिथ्यात्व का संक्षिप्त लक्षण है-जिन भगवान् के उपदेश किए तत्त्व या धर्म से उल्टा चलना और यही धर्म से उल्टापन दुःख का कारण है । इसलिए उन पुरुषों को, जो सुख चाहते हैं, मिथ्यात्व के परित्याग पूर्वक शास्त्राभ्यास द्वारा अपनी बुद्धि को काँच के समान निर्मल बनानी चाहिए। इसके सिवा श्रावकों को मद्य, मांस और मधु (शहद) का त्याग करना चाहिए क्योंकि इनके खाने से जीवों को नरकादि दुर्गतियों में दुःख भोगना पड़ते हैं। श्रावकों के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रत हैं, उन्हें धारण करना चाहिए । रात के भोजन का, चमड़े में रखे हुए हींग, जल, घी, तैल आदि का तथा कन्दमूल, आचार और मक्खन का श्रावकों को खाना उचित नहीं। इनके खाने से मांस-त्याग- व्रत में दोष आता है। जुआ खेलना, चोरी करना, परस्त्री सेवन, वेश्या सेवन, शिकार करना, मांस खाना, मदिरा पीना ये सात व्यसन- दुःखों को देने वाली आदतें हैं। कुल, जाति, धन, जन, शरीर, सुख, कीर्ति, मान-मर्यादा आदि का नाश करने वाली हैं। श्रावकों को इन सबका दूर से ही काला मुँह कर देना चाहिए । इसके सिवा जल का छानना, पात्रों को भक्तिपूर्वक दान देना, श्रावकों का कर्तव्य होना चाहिए । ऋषियों ने पात्र तीन प्रकार बतलाये हैं । उत्तम पात्र- मुनि, मध्यम पात्र - व्रती श्रावक और जघन्य पात्र - अविरत - सम्यग्दृष्टि । इनके सिवा कुछ लोग और ऐसे हैं, जो दान पात्र होते हैं- दु:खी, अनाथ, अपाहिज आदि, जिन्हें कि दयाबुद्धि से दान देना चाहिए। पात्रों को जो थोड़ा भी दान देते हैं उन्हें उस दान का फल वटबीज की तरह अनन्त गुण मिलता है। श्रावकों के और भी आवश्यक कर्म हैं । जैसे- स्वर्ग - मोक्ष के सुख की कारण जिन भगवान् की जलादि द्रव्यों द्वारा पूजा करना, अभिषेक करना, जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराना, तीर्थयात्रा करना आदि। ये सब सुख के कारण और दुर्गति के दुःखों के नाश करने वाले हैं। इस प्रकार धार्मिक जीवन बना कर अन्त में भगवान् का स्मरण - चिंतन पूर्वक संन्यास लेना चाहिए। यही जीवन के सफलता का सीधा और सच्चा मार्ग है। इस प्रकार मुनिराज द्वारा धर्म का उपदेश सुनकर बहुतेरे सज्जनों ने व्रत, नियमादि को ग्रहण किया जैनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई। प्रीतिंकर ने मुनिराज को नमस्कार कर पुनः प्रार्थना की- हे करुणा के समुद्र योगिराज ! कृपाकर मुझे मेरे पूर्वभव का हाल सुनाइए। मुनिराज ने तब यों कहना शुरू किया- ॥४५-६५॥
    " प्रीतिंकर, इसी बगीचे में पहले तपस्वी सागरसेन मुनि आकर ठहरे थे । उनके दर्शनों के लिए राजा वगैरह प्रायः सब ही नगर निवासी बड़े गाजे-बाजे और आनन्द उत्सव के साथ आये थे। वे मुनिराज की पूजा-स्तुति कर वापस शहर में चले गए। इसी समय एक सियार ने इनके गाजे-बाजे के शब्दों को सुनकर यह समझा कि ये लोग किसी मुर्दे को डाल कर गए हैं। सो वह उसे खाने के लिए आया। उसे आता देख मुनि ने अवधिज्ञान से जान लिया कि यह मुर्दे को खाने के अभिप्राय से इधर आ रहा है। पर यह है भव्य और व्रतों को धारण कर मोक्ष जायेगा । इसलिए इसे सुलटाना आवश्यक है। यह विचार कर मुनिराज ने उसे समझाया - अज्ञानी पशु, तुझे मालूम नहीं कि पाप का परिणाम बहुत बुरा होता है। देख, पाप के ही फल से तुझे आज इस पर्याय में आना पड़ा और फिर भी तू पाप करने से मुँह न मोड़कर मुर्दे को खाने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है, यह कितने आश्चर्य की बात है। तेरी इस इच्छा को धिक्कार है । प्रिय, जब तक तू नरकों में न गिरे इसके पहले ही तुझे यह महा पाप छोड़ देना चाहिए। तूने जिनधर्म को न ग्रहण कर आज तक दुःख उठाया, पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय उपस्थित है। इसलिए तू इस पुण्य-पथ पर चलना सीख। सियार का होनहार अच्छा था या उसकी काललब्धि आ गई थी । यही कारण था कि मुनि के उपदेश को सुनकर वह बहुत शान्त हो गया। उसने जान लिया कि मुनिराज मेरे हृदय की वासना को जान गए । उसे इस प्रकार शान्त देखकर मुनि फिर बोले-प्रिय, तू और व्रतों को धारण नहीं कर सकता, इसलिए सिर्फ रात में खाना- पीना ही छोड़ दे। यह व्रत सर्व व्रतों का मूल है, सुख का देने वाला है और चित्त का प्रसन्न करने वाला है। सियार ने उपकारी मुनिराज के वचनों को मानकर रात्रिभोजन - त्याग - व्रत ले लिया। कुछ दिनों तक तो उसने केवल उसी व्रत को पाला । उसके बाद उसने मांस वगैरह भी छोड़ दिया । उसे जो कुछ थोड़ा पवित्र खाना मिल जाता, वह उसी को खाकर रह जाता । इस वृत्ति से उसे सन्तोष बहुत हो गया था। बस वह इसी प्रकार समय बिताता और मुनिराज के चरणों को स्मरण किया करता ॥६६-७८॥
    इस प्रकार कभी खाने को मिलने और कभी न मिलने से वह सियार बहुत ही दुबला हो गया। ऐसी दशा में एक दिन उसे केवल सूखा भोजन खाने को मिला । समय गर्मी का था। उसे बड़े जोर की प्यास लगी। उसके प्राण छटपटाने लगे। वह एक कुँए पर पानी पीने को गया। भाग्य से कुँए का पानी बहुत नीचा था। जब वह कुँए में उतरा तो उसे अँधेरा ही अँधेरा दीखने लगा। कारण सूर्य का प्रकाश भीतर नहीं पहुँच पाता था । इसलिए सियार ने समझा कि रात हो गई, सो वह बिना पानी पिए ही कुँए के बाहर आ गया। बाहर आकर जब उसने दिन देखा तो फिर वह भीतर उतरा और भीतर पहले सा अँधेरा देखकर रात के भ्रम से फिर लौट आया। इस प्रकार वह कितनी ही बार आया गया, पर जल नहीं पी पाया। अन्त में वह इतना अशक्त हो गया कि उससे कुँए से बाहर नहीं आया गया। उसने तब घोर अँधेरे को देखकर सूरज को अस्त हुआ समझ लिया और वहीं वह संसार समुद्र से पार करने वाले अपने गुरु मुनिराज का स्मरण - चिन्तन करने लगा । तृषा रूपी आग उसे जलाए डालती थी, तब भी वह अपने व्रत में बड़ा दृढ़ रहा । उसके परिणाम क्लेशरूप या आकुल-व्याकुल न होकर बड़े शान्त रहे। उसी दशा में वह मरकर कुबेरदत्त और उसकी स्त्री धनमित्रा के प्रीतिंकर पुत्र हुआ है। तेरा यह अन्तिम शरीर है । अब तू कर्मों का नाश कर मोक्ष जाएगा। इसलिए सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वे कष्ट समय में व्रतों की दृढ़ता से रक्षा करें । मुनिराज द्वारा प्रीतिंकर का यह पूर्व जन्म का हाल सुन उपस्थित मंडली की जिनधर्म पर अचल श्रद्धा हो गई। प्रीतिंकर को अपने इस वृत्तान्त से बड़ा वैराग्य हुआ। उसने जैनधर्म की बहुत प्रशंसा की और अन्त में उन स्वपरोपकार के करने वाले मुनिराजों को भक्ति से नमस्कार कर व्रतों के प्रभाव को हृदय में विचारता हुआ वह घर पर आया ॥ ७९-८९॥ 
    मुनिराज के उपदेश का उस पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसे अब संसार अस्थिर, विषयभोग दुःखों के देने वाले, शरीर पवित्र - अपवित्र वस्तुओं से भरा, महाघिनौना और नाश होने वाला, धन- दौलत बिजली की तरह चंचल और केवल बाहर से सुन्दर देख पड़ने वाली तथा स्त्री-पुत्र, भाई- बन्धु आदि ये सब अपने आत्मा से पृथक् जान पड़ने लगे। उसने तब इस मोहजाल की, जो केवल फँसाकर संसार में भटकाने वाला है, तोड़ देना ही उचित समझा। इस शुभ संकल्प के दृढ़ होते ही पहले प्रीतिंकर ने अभिषेक पूर्वक भगवान् की सब सुखों को देने वाली पूजा की, खूब दान किया और दुःखी, अनाथ, अपाहिजों की सहायता की । अन्त में वह अपने प्रियंकर पुत्र को राज्य देकर अपने बन्धु, बांधवों की सम्मति से योग लेने के लिए विपुलाचल पर भगवान् वर्धमान के समवसरण में गया और उन त्रिलोक पूज्य भगवान् के पवित्र दर्शन कर उसने भगवान् के द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इसके बाद प्रीतिंकर मुनि ने खूब दुःसह तपस्या की और अन्त में शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया। अब वे लोकालोक के सब पदार्थों को हाथ की रेखाओं के समान साफ-साफ जानने देखने लग गए। उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। यह सुन विद्याधर, चक्रवर्ती, स्वर्ग के देव आदि बड़े-बड़े महापुरुष उनके दर्शन - -पूजन आने लगे। प्रीतिंकर भगवान् ने तब संसार ताप को नाश करने वाले परम पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को दुःखों से छुड़ाकर सुखी बनाये । अन्त में अघातिया कर्मों का नाश कर वे परम धाम मोक्ष सिधार गए। आठ कर्मों का नाश कर आठ आत्मिक महान् शक्तियों को उन्होंने प्राप्त किया । अब वे संसार में न आकर अनन्त काल तक वहीं रहेंगे । वे प्रीतिंकर स्वामी मुझे शांति प्रदान करें । प्रीतिंकर का यह पवित्र और कल्याण करने वाला चरित आप भव्यजनों को और मुझे सम्यग्ज्ञान के लाभ का कारण हो। यही मेरी पवित्र भावना है ॥९०-१००॥
    एक अत्यन्त अज्ञानी पशुओं में जन्मे सियार ने भगवान् के पवित्र धर्म का थोड़ा सा आश्रय लिया अर्थात् केवल रात्रिभोजनत्याग व्रत स्वीकार कर मनुष्य जन्म लिया और उसमें खूब सुख भोगकर अन्त में अविनाशी मोक्ष - लक्ष्मी प्राप्त की । तब आप हम लोग भी क्यों न इस अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए पवित्र जैनधर्म में अपने विश्वास को दृढ़ करें ॥१०१॥
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    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार-श्रेष्ठ जिनभगवान्, जिनवाणी और जैन ऋषियों को नमस्कार कर उदयन राजा की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यक्त्व के तीसरे निर्विचिकित्सा अंग का पालन किया है ॥१॥
    उड्वायन रौरवक नामक शहर के राजा थे, जो कि कच्छदेश के अन्तर्गत था। उड्वायन सम्यग्दृष्टि थे, दानी थे, विचारशील थे, जिनभगवान् के सच्चे भक्त थे और न्यायी थे । सुतरां प्रजा का उन पर बहुत प्रेम था और वे भी प्रजा के हित में सदा उद्यत रहा करते थे ॥२-३॥
    उसकी रानी का नाम प्रभावती था। वह भी सती थी, धर्मात्मा थी । उसका मन सदा पवित्र रहता था। वह अपने समय को प्रायः दान, पूजा, व्रत, उपवास, स्वाध्यायादि में बिताती थी ॥४॥
    उड्वायन अपने राज्य का शान्ति और सुख से पालन करते और अपनी शक्ति के अनुसार जितना बन पड़ता, उतना धार्मिक काम करते। कहने का मतलब यह कि वे सुखी थे, उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी। उनका राज्य भी शत्रु रहित निष्कंटक था ॥५॥
    एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में धर्मोपदेश कर रहा था कि संसार में सच्चे देव अरहन्त भगवान् हैं, जो कि भूख, प्यास, रोग, शोक, भय, जन्म, जरा, मरण आदि दोषों से रहित और जीवों को संसार के दुःखों से छुड़ाने वाले हैं; सच्चा धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशलक्षण रूप है; गुरु निर्ग्रन्थ हैं; जिनके पास परिग्रह का नाम निशान नहीं और जो क्रोध, मान, माया, लोभ, द्वेष आदि से रहित हैं और वह सच्ची श्रद्धा है, जिससे जीवाजीवादिक पदार्थों में रुचि होती है। वही रुचि स्वर्ग-मोक्ष की देने वाली है। यह रुचि अर्थात् श्रद्धा धर्म में प्रेम करने से, तीर्थयात्रा करने से, रथोत्सव कराने से, जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार कराने से, प्रतिष्ठा कराने से, प्रतिमा बनवाने से और साधर्मियों से वात्सल्य अर्थात् प्रेम करने से उत्पन्न होती है। आप लोग ध्यान रखिये कि सम्यग्दर्शन संसार में एक सर्वश्रेष्ठ वस्तु है और कोई वस्तु उसकी समानता नहीं कर सकती। यही सम्यग्दर्शन दुर्गतियों का नाश करके स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला है। इसे तुम धारण करो। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का और उसके आठ अंगों का वर्णन करते समय इन्द्र ने निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने वाे उड्वायन राजा की बहुत प्रशंसा की । इन्द्र के मुँह से एक मध्यलोक के मनुष्य की प्रशंसा सुनकर एक बासव नाम का देव उसी समय स्वर्ग से भारत में आया और उड्वायन राजा की परीक्षा करने के लिए एक कोढ़ी मुनि का वेश बनाकर भिक्षा के लिए दोपहर ही को उड्वायन के महल गया ॥६-१३॥
    उसके शरीर से कोढ़ गल रहा था, उसकी वेदना से उसके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे, सारे शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और सब शरीर विकृत हो गया था। उसकी यह हालत होने पर भी जब वह राजद्वार पर पहुँचा और महाराज उद्दायन की उस पर दृष्टि पड़ी तब वे उसी समय सिंहासन से उठकर आये और बड़ी भक्ति से उन्होंने उस छली मुनि का आह्वान किया। इसके बाद नवधाभक्तिपूर्वक हर्ष के साथ राजा ने मुनि को प्रासुक आहार कराया। राजा आहार कराकर निवृत हुए कि इतने में उस कपटी मुनि ने अपनी माया से महा दुर्गन्धित वमन कर दिया। उसकी असह्य दुर्गन्ध के कारण जितने और लोग पास खड़े हुए थे, वे सब भाग खड़े हुए किन्तु केवल राजा और रानी मुनि की सम्हाल करने को वहीं रह गये। रानी मुनि का शरीर पोंछने को उसके पास गई। कपटी मुनि ने उस बेचारी पर भी महा दुर्गन्धित उछाट कर दी। राजा और रानी ने इसकी कुछ परवाह न कर उलटा इस बात पर बहुत पश्चाताप किया कि हमसे मुनि की प्रकृति विरुद्ध न जाने क्या आहार दे दिया गया, जिससे मुनिराज को इतना कष्ट हुआ। हम लोग बड़े पापी हैं । इसीलिए तो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहाँ निरन्तराय आहार नहीं हुआ। सच है जैसे पापी लोगों को मनोवांछित देने वाला चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष प्राप्त नहीं होता, उसी तरह सुपात्र के दान का योग भी पापियों को नहीं मिलता है। इस प्रकार अपनी आत्मनिन्दा कर और अपने प्रमाद पर बहुत - बहुत खेद प्रकाश कर राजा रानी ने मुनि का सब शरीर जल से धोकर साफ किया । उनकी इस प्रकार अचलभक्ति देखकर देव अपनी माया समेटकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बोला-राजराजेश्वर, सचमुच हो तुम सम्यग्दृष्टि हो, महादानी हो । निर्विचिकित्सा अंग के पालन करने में इन्द्र ने जैसी तुम्हारी प्रशंसा की थी, वह अक्षर-अक्षर ठीक निकली, वैसा ही मैंने तुम्हें देखा। वास्तव में तुम ही ने जैनशासन का रहस्य समझा है। यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे बिना और कौन मुनि की दुर्गन्धित उछाट अपने हाथों से उठाता ? राजन् ! तुम धन्य हो, शायद ही इस पृथ्वी मंडल पर इस समय तुम सरीखा सम्यग्दृष्टियों में शिरोमणि कोई होगा ? इस प्रकार उड्वायन की प्रशंसा कर देव अपने स्थान पर चला गया और राजा फिर अपने राज्य का सुखपूर्वक पालन करते हुए दान, पूजा, व्रत आदि में अपना समय बिताने लगे ॥१४-२८॥
    इसी तरह राज्य करते-करते उड्वायन का कुछ और समय बीत गया। एक दिन वे अपने महल पर बैठे हुए प्रकृति की शोभा देख रहे थे कि इतने में एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा उनकी आँखों के सामने से निकला। वह थोड़ी ही दूर पहुँचा होगा कि एक प्रबल वायु के वेग ने उसे देखते-देखते नामशेष कर दिया। क्षणभर में एक विशाल मेघखण्ड की यह दशा देखकर उड्वायन की आँखें खुलीं। उन्हें सारा संसार ही अब क्षणिक जान पड़ने लगा । उन्होंने उसी समय महल से उतरकर अपने पुत्र को बुलाया और उसके मस्तक पर राजतिलक करके आप भगवान् वर्द्धमान के समवसरण में पहुँचे और भक्ति के साथ भगवान् की पूजा कर उनके चरणों के पास ही उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जिसका इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि सभी आदर करते हैं ॥२९-३१॥
    साधु होकर उड्वायन राजा ने खूब तपश्चर्या की, संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ रत्नत्रय प्राप्त किया। इसके बाद ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मों का नाशकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। उसके द्वारा उन्होंने संसार के दुःखों से तड़फते हुए अनेक जीवों को उबार कर, अनेकों को धर्म के पथ पर लगाया और अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अविनाशी अनन्त मोक्षपद प्राप्त किया ॥३२-३३॥
    उधर उनकी रानी सती प्रभावती भी जिनदीक्षा ग्रहण कर तपश्चर्या करने लगी और अन्त में समाधि-मृत्यु प्राप्त कर ब्रह्मस्वर्ग में जाकर देव हुई ॥३४॥
    वे जिन भगवान् मुझे मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करें, जो सब श्रेष्ठ गुणों के समुद्र हैं, जिनका केवलज्ञान संसार के जीवों का हृदयस्थ अज्ञानरूपी आताप नष्ट करने को चन्द्रमा समान है, जिनके चरणों को इन्द्र, नरेन्द्र आदि सभी नमस्कार करते हैं, जो ज्ञान के समुद्र और साधुओं के शिरोमणि हैं ॥३५॥
  5. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    केवलज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा समस्त संसार के पदार्थों के देखने, जानने वाले और जगत्पूज्य श्री जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं राजा श्रेणिक की कथा लिखता हूँ, जिसके पढ़ने से सर्वसाधारण का हित हो। श्रेणिक मगध देश के अधीश्वर थे। मगध की प्रधान राजधानी राजगृह थी । श्रेणिक कई विषयों के सिवा राजनीति के बहुत अच्छे विद्वान् थे । उनकी महारानी चेलना बड़ी धर्मात्मा, जिनभगवान् की भक्त और सम्यग्दर्शन से विभूषित थी । एक दिन श्रेणिक ने उससे कहा- देखो, संसार में वैष्णव धर्म की बहुत प्रतिष्ठा है और वह जैसा सुख देने वाला है वैसा और धर्म नहीं। इसलिए तुम्हें भी उसी धर्म का आश्रय स्वीकार करना उचित है। सुनकर चेलना देवी, जिसे कि जिनधर्म पर अगाध विश्वास था, बड़े विनय से बोली-नाथ, अच्छी बात है, समय पाकर मैं इस विषय की परीक्षा करूँगी ॥ १-६॥
    इसके कुछ दिनों बाद चेलना ने कुछ भागवत साधुओं का अपने यहाँ निमंत्रण किया और बड़े गौरव के साथ अपने यहाँ उन्हें बुलाया । वहाँ आकर अपना ढोंग दिखलाने के लिए वे कपट मायाचार से ईश्वराराधन करने को बैठे। उस समय चेलना ने उनसे पूछा, आप लोग क्या करते है? उत्तर में उन्होंने कहा-देवी, हम लोग मलमूत्रादि अपवित्र वस्तुओं से भरे हुए शरीर को छोड़कर अपने आत्मा को विष्णु अवस्था में प्राप्त कर स्वानुभवजन्य सुख भोगते हैं। सुनकर देवी चेलना ने उस मंडप में, जिसमें सब साधु ध्यान करने को बैठे थे, आग लगवा दी। आग लगते ही वे सब कौ की तरह भाग खड़े हुए। यह देखकर श्रेणिक ने बड़े क्रोध के साथ चेलना से कहा- आज तुमने साधुओं के साथ बड़ा अनर्थ किया। यदि तुम्हारी उन पर भक्ति नहीं थी, तो क्या उसका यह अर्थ है कि उन्हें जान से मार डालना ? बतलाओ तो उन्होंने तुम्हारा क्या अपराध किया, . जिससे तुम जीवन की ही प्यासी हो उठी? ॥७-११॥
    रानी बोली-नाथ, मैंने तो कोई बुरा काम नहीं किया और जो किया वह उन्हीं के कहे अनुसार उनके लिए सुख का कारण था । मैंने तो केवल परोपकार बुद्धि से ऐसा किया था। जब वे लोग ध्यान करने को बैठे तब मैंने उनसे पूछा कि आप लोग क्या करते हैं? तब उन्होंने मुझे कहा था कि हम अपवित्र शरीर छोड़कर उत्तम सुखमय विष्णुपद प्राप्त करते हैं तब मैंने सोचा कि ओहो, ये जब शरीर छोड़कर विष्णुपद प्राप्त करते हैं तब तो बहुत अच्छा है और इससे उत्तम यह होगा कि यदि ये निरन्तर विष्णु बने रहें। संसार में बार-बार आना और जाना यह इनके पीछे पचड़ा क्यों? यह विचार कर वे निरन्तर विष्णुपद में रहकर सुखभोग करें, इस परोपकार बुद्धि से मैंने मंडप में आग लगवा दी थी। आप ही अब विचार कर बतलाइए कि इसमें मैंने सिवा परोपकार के कौन बुरा काम किया? और सुनिये मेरे वचनों पर आपको विश्वास हो, इसलिए एक कथा भी आपको सुनाये देती हूँ ॥१२- १४॥
    ‘‘जिस समय की यह कथा है, उस समय वत्सदेश की राजधानी कौशाम्बी के राजा प्रजापाल थे। वे अपना राज्य शासन नीति के साथ करते हुए सुख से समय बिताते थे । कौशाम्बी में दो सेठरहते थे। उनके नाम थे सागरदत्त और समुद्रदत्त । दोनों सेठों में परस्पर बहुत प्रेम था। उनका प्रेम सदा दृढ़ बना रहे, इसलिए परस्पर में एक शर्त की । वह यह कि, “मेरे यदि पुत्री हुई तो मैं उसका ब्याह तुम्हारे लड़के के साथ कर दूँगा और इसी तरह मेरे पुत्र हुआ तो तुम्हें अपनी लड़की का ब्याह उसके साथ करना पड़ेगा॥१५-१८॥”
    दोनों ने उक्त शर्त स्वीकार की। इसके कुछ दिनों बाद सागरदत्त के घर पुत्रजन्म हुआ। उसका नाम वसुमित्र हुआ। पर उसमें एक बड़े भारी आश्चर्य की बात थी । वह यह कि वसुमित्र न जाने किस कर्म के उदय से रात के समय तो एक दिव्य मनुष्य होकर रहता और दिन में एक भयानक सर्प ॥ १९॥
    उधर समुद्रदत्त के घर कन्या हुई उसका नाम रखा गया नागदत्ता । वह बड़ी खूबसूरत सुन्दरी थी । उसके पिता ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ब्याह वसुमित्र के साथ कर दिया। सच है-॥२०-२१॥
    सत्पुरुष सैकड़ों कष्ट सह लेते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होते । वसुमित्र का ब्याह हो गया। वह अब प्रतिदिन दिन में तो सर्प बनकर एक पिटारे में रहता और रात में एक दिव्य पुरुष होकर अपनी प्रिया के साथ सुखभोग करता । सचमुच संसार की विचित्र ही स्थिति होती है। इसी तरह उसे कई दिन बीत गए । एक दिन नागदत्ता की माता अपनी पुत्री को एक ओर तो यौवन अवस्था में पदार्पण करती हुई और दूसरी ओर उसके विपरीत भाग्य को देखकर दुःखी होकर बोली- हाय! कैसी विडम्बना है, जो कहाँ देवबाला सरीखी सुन्दरी मेरी पुत्री और कैसा उसका अभाग्य जो उसे पति मिला एक भयंकर सर्प? उसकी दुःख भरी आह को नागदत्ता ने सुन लिया। वह दौड़ी आकर अपनी माता से बोली-माता, इसके लिए दुःख आप क्यों करती हैं? मेरा जब भाग्य ही ऐसा था, तब उसके लिए दुःख करना व्यर्थ है और अभी मुझे विश्वास है कि मेरे स्वामी का इस दशा से उद्धार हो सकता है। इसके बाद नागदत्ता ने अपनी माता को स्वामी के उद्धार सम्बन्ध की बात समझा दी||२२-२६॥
    सदा के नियमानुसार आज भी रात के समय वसुमित्र अपना सर्प का शरीर छोड़कर मनुष्य रूप में आया और अपने शय्या - भवन में पहुँचा। इधर नागदत्ता छुपी हुई आकर वसुमित्र के पिटारे को वहाँ से उठा ले आई और उसे उसी समय उसने जला डाला। तब से वसुमित्र मनुष्यरूप में ही अपनी प्रिया के साथ सुख भोगता हुआ अपना समय आनन्द से बिताने लगा। नाथ! उसी तरह ये साधु भी निरन्तर विष्णुलोक में रहकर सुख भोगें यह मेरी इच्छा थी; इसलिए मैंने वैसे किया था। महारानी चेलना की कथा सुनकर श्रेणिक उत्तर तो कुछ नहीं दे सके, पर वे उस पर बहुत गुस्सा हुए और उपयुक्त समय न देखकर वे अपने क्रोध को उस समय दबा भी गए ॥२७-३१॥
    एक दिन श्रेणिक शिकार के लिए गए हुए थे । उन्होंने वन में यशोधर मुनिराज को देखा। वे उस समय आतप योग धारण किए हुए थे । श्रेणिक ने उन्हें शिकार के लिए विघ्नरूप समझकर मारने का विचार किया और बड़े गुस्से में आकर अपने क्रूर शिकारी कुत्तों को उन पर छोड़ दिया। कुत्ते बड़ी निर्दयता के साथ मुनि को मारने को झपटे। पर मुनिराज की तपश्चर्या के प्रभाव से वे उन्हें कुछ कष्ट न पहुँचा सके। बल्कि उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके पाँवों के पास खड़े रह गए। यह देख श्रेणिक को और भी क्रोध आया। उन्होंने क्रोधान्ध होकर मुनि पर शर चलाना आरम्भ किया। पर यह कैसा आश्चर्य जो शरों के द्वारा उन्हें कुछ क्षति न पहुँच कर वे ऐसे जान पड़े मानों किसी ने उन पर फूलों की वर्षा की है। सच बात यह है कि तपस्वियों का प्रभाव कह कौन सकता है? श्रेणिक ने मुनि हिंसारूप तीव्र 
    परिणामों द्वारा उस समय सातवें नरक की आयु का बन्ध किया, जिसकी स्थिति तैंतीस सागर की है॥३२-३७॥
    इन सब अलौकिक घटनाओं को देखकर श्रेणिक का पत्थर के समान कठोर हृदय फल सा कोमल हो गया। उनके हृदय की सब दुष्टता निकलकर उसमें मुनि के प्रति पूज्यभाव पैदा हो गए। वे मुनिराज के पास गए और भक्ति से उन्होंने मुनि के चरणों को नमस्कार किया । यशोधर मुनिराज ने श्रेणिक के हित के लिए उपयुक्त समझकर उन्हें अहिंसामयी पवित्र जिनशासन का उपदेश दिया। उसका श्रेणिक के हृदय पर बहुत ही असर पड़ा। उनके परिणामों में विलक्षण परिवर्तन हुआ। उन्हें अपने कृतकर्म पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ। मुनिराज के उपदेशानुसार उन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण किया। इसके प्रभाव से, उन्होंने जो सातवें नरक की आयु का बन्ध किया था, वह उसी समय घटकर पहले नरक का रह गया, जहाँ स्थिति चौरासी हजार वर्षों की है। ठीक है सम्यग्दर्शन के प्रभाव से भव्यपुरुषों को क्या प्राप्त नहीं होता? ॥३८ - ४१॥
    इसके बाद श्रेणिक ने श्रीचित्रगुप्त मुनिराज के पास क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया और अन्त में भगवान् वर्धमान स्वामी के द्वारा शुद्ध क्षायिक - सम्यक्त्व, जो कि मोक्ष का कारण है, प्राप्त कर पूज्य तीर्थंकर नाम प्रकृति का बन्ध किया । श्रेणिक महाराज अब तीर्थंकर होकर निर्वाण लाभ करेंगे। वे केवलज्ञानरूपी प्रदीप श्रीजिनभगवान् संसार में सदाकाल विद्यमान रहें, जो इन्द्र, देव, विद्याधर, चक्रवर्ती द्वारा पूज्य हैं और जिनके पवित्र उपदेश के हृदय में मनन और ग्रहण द्वारा मनुष्य निर्मल लक्ष्मी को प्राप्त करने का पात्र होता है, मोक्षलाभ करता है ॥४२-४५॥
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    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    Listen to अंजनचोर की कथा byआचार्य श्री विद्यासागर on hearthis.at
     
    सुख के देने वाले श्रीसर्वज्ञ वीतराग भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर अंजनचोर की कथा लिखता है, जिसने सम्यग्दर्शन के निःशंकित अंग का उद्योत किया है ॥१॥
    भारतवर्ष-मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नामक शहर में एक जिनदत्त सेठ रहता था। वह बड़ा धर्मात्मा था। वह निरन्तर जिनभगवान् की पूजा करता, दीन-दुखियों को दान देता, श्रावकों के व्रतों का पालन करता और सदा शान्त और विषयभोगों से विरक्त रहता । एक दिन जिनदत्त चतुर्दशी के दिन आधी रात के समय श्मशान में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था । उस समय वहाँ दो देव आये। उनके नाम अमितप्रभ और विद्युत्प्रभ थे। अमितप्रभ जैनधर्म का विश्वासी था और विद्युत्प्रभ दूसरे धर्म का।
    वे अपने-अपने स्थान से परस्पर के धर्म की परीक्षा करने को निकले थे। पहले उन्होंने एक पंचाग्नि तप करने वाले तापस की परीक्षा की । वह अपने ध्यान से विचलित हो गया। इसके बाद उन्होंने जिनदत्त को श्मशान में ध्यान करते देखा । तब अमितप्रभ ने विद्युत्प्रभ से कहा-प्रिय, उत्कृष्ट चारित्र के पालने वाले जिनधर्म के सच्चे साधुओं की परीक्षा की बात को तो जाने दो परन्तु देखते हो, वह गृहस्थ जो कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ है, यदि तुममें कुछ शक्ति हो, तो तुम उसे ही अपने ध्यान से विचलित कर दो यदि तुमने उसे ध्यान से चला दिया तो हम तुम्हारा ही कहना सत्य मान लेंगे ॥२-९॥
    अमितप्रभ से उत्तेजना पाकर विद्युत्प्रभ ने जिनदत्त पर अत्यन्त दुस्सह और भयानक उपद्रव किया, पर जिनदत्त उससे कुछ भी विचलित न हुआ और पर्वत की तरह खड़ा रहा। जब सबेरा हुआ तब दोनों देवों ने अपना असली वेष प्रकट कर बड़ी भक्ति के साथ उसका खूब सत्कार किया और बहुत प्रशंसा कर जिनदत्त को एक आकाशगामिनी विद्या दी। इसके बाद वे जिनदत्त से यह कहकर कि श्रावकोत्तम! तुम्हें आज से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई; तुम पंच नमस्कार मंत्र की साधना विधि के साथ इसे दूसरों को प्रदान करोगे तो उन्हें भी यह सिद्ध होगी-अपने स्थान पर चले गये ॥१०-१३॥
    विद्या की प्राप्ति से जिनदत्त बड़ा प्रसन्न हुआ। उसकी अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने की इच्छा पूरी हुई। वह उसी समय विद्या के प्रभाव से अकृत्रिम चैत्यालय के दर्शन करने को गया और खूब भक्तिभाव से उसने जिनभगवान् की पूजा की, जो कि स्वर्ग-मोक्ष को देने वाली है ॥१४॥
    इसी प्रकार अब जिनदत्त प्रतिदिन अकृत्रिम जिनमन्दिरों के दर्शन करने के लिए जाने लगा। एक दिन वह जाने के लिए तैयार खड़ा हुआ था कि उससे एक सोमदत्त नाम के माली ने पूछा- आप प्रतिदिन सबेरे ही उठकर कहाँ जाया करते हैं? उत्तर में जिनदत्त सेठ ने कहा- मुझे दो देवों की कृपा से आकाशगामिनी विद्या की प्राप्ति हुई है। सो उसके बल से सुवर्णमय अकृत्रिम जिनमन्दिरों की पूजा करने के लिए जाया करता हूँ, जो कि सुख शान्ति को देने वाली है । तब सोमदत्त ने जिनदत्त से कहा- प्रभो, मुझे भी विद्या प्रदान कीजिये न ? जिससे मैं भी अच्छे सुन्दर सुगन्धित फूल लेकर प्रतिदिन भगवान् की पूजा करने को जाया करूँ और उसके द्वारा शुभकर्म उपार्जन करूँ । आपकी बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे विद्या प्रदान करेंगे ॥ १५-२० ॥ 
    सोमदत्त की भक्ति और पवित्रता को देखकर जिनदत्त ने उसे विद्या साधन करने की रीति बतला दी। सोमदत्त उससे सब विधि ठीक-ठीक समझकर विद्या साधने के लिए कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की अन्धेरी रात में श्मशान में गया, जो कि बड़ा भयंकर था । वहाँ उसने एक बड़ की डाली में एक सौ आठ लड़ी का एक दूबा का सींका बाँधा और उसके नीचे अनेक भयंकर तीखे - तीखे शस्त्र सीधे मुँह गाड़ कर उनकी पुष्पादि से पूजा की। इसके बाद वह सींके पर बैठकर पंच नमस्कार मंत्र जपने लगा । मंत्र पूरा होने पर जब सींका के काटने का समय आया और उसकी दृष्टि चमचमाते हुए शस्त्रों पर पड़ी तब उन्हें देखते ही वह कांप उठा । उसने विचारा यदि जिनदत्त ने मुझे झूठ कह दिया हो तब तो मेरे प्राण ही चले जायेंगे; यह सोचकर वह नीचे उतर आया। उसके मन में फिर कल्पना उठी कि भला जिनदत्त को मुझसे क्या लेना है जो वह झूठ कहकर मुझे ऐसे मृत्यु के मुख में डालेगा ? और फिर वह तो जिनधर्म का परम श्रद्धालु है, उसके रोम-रोम में दया भरी हुई है, उसे मेरी जान लेने से क्या लाभ ? इत्यादि विचारों से अपने मन को सन्तुष्ट कर वह फिर सींके पर चढ़ा, पर जैसे ही उसकी दृष्टि फिर शस्त्रों पर पड़ी कि वह फिर भय के मारे नीचे उतर आया। इसी तरह वह बार-बार उतरने चढ़ने लगा, पर उसकी हिम्मत सींका काट देने की नहीं हुई । सच है जिन्हें स्वर्ग - मोक्ष का सुख देने वाले जिनभगवान् के वचनों पर विश्वास नहीं, मन में उन पर निश्चय नहीं, उन्हें संसार में कोई सिद्धि कभी प्राप्त नहीं होती ॥२१-२९॥
    उसी रात को एक और घटना हुई वह उल्लेख योग्य है और खासकर उसका इसी घटना से सम्बन्ध है। इसलिए उसे लिखते हैं । वह इस प्रकार है- इधर तो सोमदत्त सशंक होकर क्षणभर में वृक्ष पर चढ़ता और क्षणभर में उस पर से उतरता था और दूसरी ओर इसी समय माणिकांजन सुन्दरी नाम को एक वेश्या ने अपने पर प्रेम करने वाले एक अंजन नाम के चोर से कहा- प्राणवल्लभ, आज मैंने प्रजापाल महाराज की कनकवती नाम की पट्टरानी के गले में रत्न का हार देखा है। वह बहुत ही सुन्दर है । मेरा तो यह भी विश्वास है कि संसार भर में उसकी तुलना करने वाला कोई और हार होगा ही नहीं । सो आप उसे लाकर मुझे दीजिये, तब ही आप मेरे स्वामी हो सकेंगे अन्यथा नहीं ॥३०-३२॥ 
    माणिकांजन सुन्दरी की ऐसी कठिन प्रतिज्ञा सुनकर पहले तो वह कुछ हिचका, पर साथ ही उसके प्रेम ने उसे वैसा करने को बाध्य किया । वह अपने जीवन की भी कुछ परवाह न कर हार चुरा लाने के लिए राजमहल पहुँचा और मौका देखकर महल में घुस गया। रानी के शयनागार में पहुँचकर उसने उसके गले में से बड़ी कुशलता के साथ हार निकाल लिया। हार लेकर वह चलता बना। हजारों पहरेदारों को आँखों में धूल डालकर साफ निकल जाता, पर अपने दिव्य प्रकाश से गाढ़े से गाढ़े अन्धकार को भी नष्ट करने वाले हार ने उसे सफल प्रयत्न नहीं होने दिया । पहरे वालों ने उसे हार ले जाते हुए देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। अंजनचोर भी खूब जी छोड़कर भागा, पर आखिर कहाँ तक भाग सकता था? पहरेदार उसे पकड़ लेना ही चाहते थे कि उसने एक नई युक्ति की। वह हार को पीछे की ओर जोर से फेंक कर भागा। सिपाही लोग तो हार उठाने में लगे और इधर अंजनचोर बहुत दूर तक निकल आया। सिपाहियों ने तब भी उसका पीछा न छोड़ा। वे उसका पीछा किये चले ही गये। अंजनचोर भागता-भागता श्मशान की ओर जा निकला, जहाँ जिनदत्त के उपदेश से सोमदत्त विद्या साधन के लिए व्यग्र हो रहा था । उसका यह भयंकर उपक्रम देखकर अंजन ने उससे पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो ? क्यों अपनी जान दे रहे हो ? उत्तर में सोमदत्त ने सब बातें उसे बता दीं, जैसी कि जिनदत्त ने उसे बतलाई थीं। सोमदत्त की बातों से अंजन को बड़ी खुशी हुई। उसने सोचा कि सिपाही लोग तो मुझे मारने के लिए पीछे आ ही रहे हैं और वे अवश्य मुझे मार भी डालेंगे क्योंकि मेरा अपराध कोई साधारण अपराध नहीं है। फिर यदि मरना ही है तो धर्म के आश्रित रहकर ही मरना अच्छा है। यह विचार कर उसने सोमदत्त से कहा - बस इसी थोड़ी-सी बात के लिए इतने डरते हो? अच्छा लाओ, मुझे तलवार दो, मैं भी तो जरा आजमा लूँ। यह कहकर उसने सोमदत्त से तलवार ले ली और वृक्ष पर चढ़कर सींके पर जा बैठा। वह सींके को काटने के लिए तैयार हुआ कि सोमदत्त के बताये मन्त्र को भूल गया । पर उसकी वह कुछ परवाह न कर और केवल इस बात पर विश्वास करके कि “जैसा सेठ ने कहा-उसका कहना मुझे प्रमाण है।” उसने निःशंक होकर एक ही झटके में सारे सींके को काट दिया। काटने के साथ ही जब तक वह शस्त्रों पर गिरता तब तक आकाशगामिनी विद्या ने आकर उससे कहा–देव, आज्ञा कीजिये, मैं उपस्थित हूँ । विद्या को अपने सामने खड़ी देखकर अंजनचोर को बड़ी खुशी हुई। उसने विद्या से कहा, मेरु पर्वत पर जहाँ जिनदत्त सेठ भगवान् की पूजा कर रहा है, वहीं मुझे पहुँचा दो। उसके कहने के साथ ही विद्या ने उसे जिनदत्त के पास पहुँचा दिया। सच है, जिनधर्म के प्रसाद से क्या नहीं होता ? ॥३३ -४१ ॥
    सेठ के पास पहुँचकर अंजन ने बड़ी भक्ति के साथ उन्हें प्रणाम किया और वह बोला- हे दया के समुद्र! मैंने आपकी कृपा से आकाशगामिनी विद्या तो प्राप्त की, पर अब आप मुझे कोई ऐसा मंत्र बतलाइये, जिससे मैं संसार समुद्र से पार होकर मोक्ष में पहुँच जाऊँ, सिद्ध हो जाऊँ ॥४२-४३॥
    अंजन की इस प्रकार वैराग्य भरी बातें सुनकर परोपकारी जिनदत्त ने उसे एक चारणऋद्धि के धारक मुनिराज के पास ले जाकर उनसे जिनदीक्षा दिलवा दी । अंजनचोर साधु बनकर धीरे-धीरे कैलाश पर जा पहुँचा। वहाँ खूब तपश्चर्या कर ध्यान के प्रभाव से उसने घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर वह त्रैलोक्य द्वारा पूजित हुआ । अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अंजन मुनिराज ने अविनाशी, अनन्त गुणों के समुद्र मोक्षपद को प्राप्त किया ॥४४-४६॥
    सम्यग्दर्शन के निःशंकित गुण का पालन कर अंजनचोर भी निरंजन हुआ, कर्मों के नाश करने में समर्थ हुआ। इसलिए भव्य पुरुषों को तो निःशंकित अंग का पालन करना ही चाहिए ॥४७॥
    मूलसंघ में श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नों से अलंकृत थे, बुद्धिमान् थे और ज्ञान के समुद्र थे । सिंहनन्दी मुनि उनके शिष्य थे । वे मिथ्यात्वमतरूपी पर्वतों को तोड़ने के लिए वज्र के समान थे, बड़े पाण्डित्य के साथ वे अन्य सिद्धान्तों का खण्डन करते थे और भव्य पुरुष रूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए वे सूर्य के समान थे वे चिरकाल तक जीयें उनका यशः शरीर इस नश्वर संसार में सदा बना रहे ॥४८॥
     
  7. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार-समुद्र से पार करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुख प्राप्ति की कारण शास्त्र - दान की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मैं उस भारती सरस्वती को नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रकटकर्ता जिनभगवान् हैं और जो आँखों के आड़े आने वाले, पदार्थों का ज्ञान न होने देने वाले अज्ञान -पटल को नाश करने वाली सलाई है। भावार्थ-नेत्ररोग दूर करने के लिए जैसे सलाई द्वारा सूरमा लगाया जाता है या कोई सलाई ऐसी वस्तुओं की बनी होती है जिसके द्वारा सब नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह अज्ञानरूपी रोग को नष्ट करने के लिए सरस्वती-जिनवाणी सलाई का काम देने वाली है। इसकी सहायता से पदार्थों का ज्ञान बड़े सहज में हो जाता है ॥२॥
    उन मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूँ, जो मोह को जीतने वाले हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विभूषित हैं और जिनके चरण-कमल लक्ष्मी के-सब सुखों के स्थान हैं ॥३॥
    इस प्रकार देव, गुरु और शास्त्र को नमस्कार कर शास्त्रदान करने वाले की कथा संक्षेप में यहाँ लिखी जाती है। जिससे कि इसे पढ़कर सत्पुरुषों के हृदय में ज्ञानदान की पवित्र भावना जागृत हो । ज्ञान जीवमात्र का सर्वोत्तम नेत्र है । जिसके यह नेत्र नहीं, उसके चर्म नेत्र होने पर भी वह अन्धा है, उसके जीवन का कुछ मूल्य नहीं होता। इसलिए अकिंचित्कर जीवन को मूल्यवान् बनाने के लिए ज्ञान-दान देना चाहिए। यह दान सब दानों का राजा हैं और दानों द्वारा थोड़े समय की और एक ही जीवन की ख्वाहिशें मिटेंगी, पर ज्ञान-दान से जन्म-जन्म की ख्वाहिशें मिटकर वह दाता और दान लेने वाला ये दोनों ही उस अनन्त स्थान को पहुँच जाते हैं, जहाँ ज्ञान के सिवा कुछ नहीं है, ज्ञान ही जिनका आत्मा हो जाता है। यह हुई परलोक की बात। इसके सिवा ज्ञानदान से इस लोक में भी दाता की निर्मल कीर्ति चारों ओर फैल जाती है । सारा संसार उसकी शत- मुख से बड़ाई करता है। ऐसे लोग जहाँ जाते हैं। वहीं उनका मनमाना आदरमान होता है। इसलिए ज्ञान-दान भुक्ति और मुक्ति इन दोनों का ही देने वाला है। अतः भव्यजनों को उचित है - उनका कर्तव्य है कि वे स्वयं ज्ञान-दान करें और दूसरों को भी इस पवित्र मार्ग में आगे करें । इस ज्ञान-दान के सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने की यह है कि यह सम्यक्त्वपने को लिए हुए हो अर्थात् ऐसा हो कि जिससे किसी जीव का अहित, बुरा न हो, जिसमें किसी तरह का विरोध या दोष न हो, क्योंकि कुछ लोग उसे भी ज्ञान बतलाते हैं, जिसमें जीवों की हिंसा को धर्म कहा गया है, धर्म के बहाने जीवों को अकल्याण का मार्ग बतलाया जाता है और जिसमें कहीं कुछ कहा गया है और कहीं कुछ कहा गया है जो परस्पर विरोधी है। ऐसा ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं किन्तु मिथ्याज्ञान है। इसलिए सच्चे - सम्यग्ज्ञान दान देने की आवश्यकता है। जीव अनादि से कर्मों के वश हुआ अज्ञानी बनकर अपने निज ज्ञानमय शुद्ध स्वरूप को भूल गया है और माया-ममता के पेंचीले जाल में फँस गया है, इसलिए प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि जिससे यह अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त कर सके। ऐसी दशा में इसे असुख का रास्ता बतलाना उचित नहीं है। सुख प्राप्त करने का सच्चा प्रयत्न सम्यग्ज्ञान है। इसलिए दान, मान पूजा - प्रभावना, पठन-पाठन आदि से इस सम्यग्ज्ञान की आराधना करना चाहिए । ज्ञान प्राप्त करने की पाँच भावनाएँ ये हैं-उन्हें सदा उपयोग में लाते रहना चाहिए। वे भावनाएँ हैं-
    वाचना—पवित्र ग्रन्थ का स्वयं अध्ययन करना या दूसरे पुरुषों को कराना ।
    पृच्छना- किसी प्रकार के सन्देह को दूर करने के लिए परस्पर में पूछ-ताछ करना।
    अनुप्रेक्षा–शास्त्रों में जो विषय पढ़ा हो या सुना हो उसका बार-बार मनन- चिन्तन करना।
    आम्नाय–पाठ का शुद्ध पढ़ना या शुद्ध ही पढ़ाना और धर्मोपदेश - पवित्र धर्म का भव्यजन को उपदेश करना। ये पाँचों भावनाएँ ज्ञान बढ़ाने की कारण हैं । इसलिए इनके द्वारा सदा अपने ज्ञान की वृद्धि करते रहना चाहिए। ऐसा करते रहने से एक दिन वह आयेगा जब कि केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा। इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान सर्वोत्तम दान है और यही संसार के जीवमात्र का हित करने वाला है। पुरा काल से जिन-जिन भव्य जनों ने ज्ञानदान किया आज तो उनके नाम मात्र का उल्लेख करना भी असंभव है, तब उनका चरित लिखना तो दूर रहा। अस्तु, कौण्डेश का चरित ज्ञानदान करने वालों में अधिक प्रसिद्ध है । इसलिए उसी का चरित संक्षेप में लिखा जाता है ॥४-१२॥
    जिनधर्म के प्रचार या उपदेशादि से पवित्र हुए भारतवर्ष में कुरुमरी गाँव में गोविन्द नाम का एक ग्वाला रहता था। उसने एक बार जंगल में एक वृक्ष की कोटर में जैनधर्म का एक पवित्र ग्रन्थ देखा। उसे वह अपने घर पर ले आया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। एक दिन पद्मनंदि नाम के महात्मा को गोविन्द ने जाते देखा। इसने वह ग्रन्थ इन मुनि को भेंट कर दिया ॥१३-१५॥ 
    यह जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ द्वारा पहले भी मुनियों ने यहाँ भव्यजनों को उपदेश किया है, इसके पूजा महोत्सव द्वारा जिनधर्म की प्रभावना की है और अनेक भव्यजनों को कल्याण मार्ग में लगाकर सच्चे मार्ग का प्रकाश किया है । अन्त में वे इस ग्रन्थ को इसी वृक्ष की कोटर में रखकर विहार कर गए हैं। उनके बाद जबसे गोविन्द ने इस ग्रन्थ को देखा तभी से वह इसकी भक्ति और श्रद्धा से निरन्तर पूजा किया करता था । इसी समय अचानक गोविन्द की मृत्यु हो गई वह निदान करके इसी कुरुमरी गाँव में गाँव के चौधरी के यहाँ लड़का हुआ। इसकी सुन्दरता देखकर लोगों की आँखें इस पर से हटती ही न थी, सब इससे बड़े प्रसन्न होते थे। लोगों के मन को प्रसन्न करना, उनकी अपने पर प्रीति होना यह सब पुण्य की महिमा है । इसके पल्ले में पूर्व जन्म का पुण्य था। इसलिए इसे ये सब बातें सुलभ थीं ॥१६-२२॥
    एक दिन उसने उन्हीं पद्मनन्दि मुनि को देखा, जिन्हें कि इस गोविन्द ने ग्वाले के भव में ग्रन्थ भेंट किया था। उन्हें देखकर इसे जातिस्मरण हो गया। मुनि को नमस्कार कर सब धर्मप्रेम से उसने उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। इसकी प्रसन्नता का कुछ पार न रहा। यह बड़े उत्साह से तपस्या करने लगा। दिनों-दिन उसके हृदय की पवित्रता बढ़ती ही गई। आयु के अन्त में शान्ति से मृत्यु लाभ कर वह पुण्य के उदय से कौण्डेश नाम का राजा हुआ | कौण्डेश बड़ा ही वीर था। तेज में वह सूर्य से टक्कर लेता था। सुन्दरता उसकी इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि उसे देखकर कामदेव को भी नीचा मुँह कर लेना पड़ता था। उसकी स्वभाव - सिद्ध कान्ति को देखकर तो लज्जा के मारे बेचारे चन्द्रमा का हृदय ही काला पड़ जाता। शत्रु उसका नाम सुनकर काँपते थे । वह बड़ा ऐश्वर्यवान् था, भाग्यशाली था, यशस्वी था और सच्चा धर्मज्ञ था। वह अपनी प्रजा का शासन प्रेम और नीति के साथ करता था। अपनी सन्तान के माफिक ही उसका प्रजा पर प्रेम था। इस प्रकार बड़े ही सुख - शान्ति से उसका समय बीतता था ॥२३-२८॥
    इस तरह कौण्डेश का बहुत समय बीत गया। एक दिन उसे कोई ऐसा कारण मिल गया कि जिससे उसे संसार से बड़ा वैराग्य हो गया । वह संसार को अस्थिर, विषयभोगों को रोग के समान, सम्पत्ति को बिजली की तरह चंचल - तत्काल देखते-देखते नष्ट होने वाली, शरीर को मांस, मल, रुधिर आदि महा अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ, दुःखों का देने वाला, घिनौना और नाश होने वाला जानकर सबसे उदासीन हो गया। इस जैनधर्म के रहस्य को जानने वाले कौण्डेश के हृदय में वैराग्य भावना की लहरें लहराने लगी। उसे अब घर में रहना कैद खाने के समान जान पड़ने लगा। वह राज्याधिकार पुत्र को सौंपकर जिनमन्दिर गया। वहाँ उसने जिन भगवान् की पूजा की, जो सब सुखों की कारण है। इसके बाद निर्ग्रन्थ गुरु को नमस्कार कर उनके पास वह दीक्षित हो गया। पूर्व जन्म में कौण्डेश ने जो दान किया था, उसके फल से वह थोड़े ही समय में श्रुतकेवली हो गया। वह श्रुतकेवली होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि ज्ञानदान तो केवलज्ञान का भी कारण है। जिस प्रकार ज्ञान-दान से एक ग्वाला श्रुतज्ञानी हुआ उसी तरह अन्य भव्य पुरुषों को भी ज्ञान - दान देकर, अपना आत्महित करना चाहिए । जो भव्यजन संसार के हित करने वाले इस ज्ञान-दान की भक्तिपूर्वक पूजा-प्रभावना, पठन-पाठन लिखने - लिखाने, दान-मान, स्तवन - जपन आदि सम्यक्त्व के कारणों से आराधना किया करते हैं वे धन, जन, यश, ऐश्वर्य, उत्तम कुल, गोत्र, दीर्घायु आदि का मनचाहा सुख प्राप्त करते हैं। अधिक क्या कहा जाए किन्तु इसी ज्ञानदान द्वारा वे स्वर्ग या मोक्ष का सुख भी प्राप्त कर सकेंगे । अठारह दोष रहित जिन भगवान् के ज्ञान का मनन, चिन्तन करना उच्च सुख का कारण है ॥२९-४१॥
    मैंने जो यह दान की कथा लिखी है वह आप लोगों को तथा मुझे केवलज्ञान के प्राप्त करने में सहायक हो ॥४२॥
    मूलसंघ सरस्वती गच्छ में भट्टारक मल्लिभूषण हुए। वे रत्नत्रय से युक्त थे। उनके प्रिय शिष्य ब्रह्मनेमिदत्त ने यह ज्ञानदान की कथा लिखी है । यह निरन्तर आप लोगों के संसार की शान्ति करें अर्थात् जन्म, जरा, मरण मिटाकर अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त कराये ॥४३॥
  8. admin
    सभी को जय जिनेन्द्र, 
    संयम स्वर्ण महोत्सव में हम सभी कर रहे हैं आचार्य श्री के व्यक्तित्व को विश्व में फ़ैलाने का प्रयास, हमने भी की हैं शुरुआत, केवल whatsapp पर पूरा नहीं होगा प्रयास 
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  9. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक श्री जिनेन्द्र भगवान् को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर मैं अहिंसाव्रत का फल पाने वाले एक धीवर की कथा लिखता हूँ ॥१॥
    सब सन्देहों को मिटाने वाली, प्रीतिपूर्वक आराधना करने वाले प्राणियों के लिए सब प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली, जिनेन्द्र भगवान् की वाणी संसार में सदैव बनी रहे ॥२॥
    संसाररूपी अथाह समुद्र से भव्य पुरुषों को पार कराने के लिए पुल के समान ज्ञान के सिन्धु मुनिराज निरन्तर मेरे हृदय में विराजमान रहें ॥३॥
    इस प्रकार पंचपरमेष्ठी का स्मरण और मंगल करके कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के लिए मैं अहिंसाव्रत की पवित्र कथा लिखता हूँ । जिस अहिंसा का नाम ही जीवों को अभय प्रदान करने वाला है, उसका पालन करना तो निस्सन्देह सुख का कारण है । अतः दयालु पुरुषों को मन, वचन और काय से संकल्पी हिंसा का परित्याग करना उचित है। बहुत से लोग अपने पितरों आदि की शान्ति के लिए श्राद्ध वगैरह में हिंसा करते हैं, बहुत से देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिए उन्हें जीवों की बलि देते हैं और कितने ही महामारी, रोग आदि के मिट जाने के उद्देश्य से जीवों की हिंसा करते है परन्तु यह हिंसा सुख के लिए न होकर दुःख के लिए ही होती है। हिंसा द्वारा जो सुख की कल्पना करते हैं, यह उनका अज्ञान ही है। पाप कर्म कभी सुख का कारण हो ही नहीं सकता । सुख है अहिंसाव्रत के पालन करने में। भव्य जन! मैं आपको भव भ्रमण का नाश करने वाला तथा अहिंसाव्रत का माहात्म्य प्रकट करने वाली एक कथा सुनाता हूँ; आप ध्यान से सुनें ॥४-७॥
    अपनी उत्तम सम्पत्ति से स्वर्ग को नीचा दिखाने वाले सुरम्य अवन्ति देश के अन्तर्गत शिरीष नाम के एक छोटे से सुन्दर गाँव में मृगसेन नाम का एक धीवर रहा करता था । अपने कन्धों पर एक बड़ा भारी जाल लटकाए हुए एक दिन वह मछलियाँ पकड़ने के लिए क्षिप्रा नदी की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे यशोधर नामक मुनिराज के दर्शन हुए। उस समय अनेक राजा महाराजा आदि उनके पवित्र चरणों की पर्युपासना कर रहे थे, मुनिराज जैन सिद्धान्त के मूल रहस्य स्याद्वाद के बहुत अच्छे विद्वान् थे, जीवमात्र का उद्धार करने हेतु वे सदा कमर कसे तैयार रहते थे, जीवमात्र का उपकार करना ही एक मात्र उनका व्रत था, धर्मोपदेश रूपी अमृत से सारे संसार को उन्होंने सन्तुष्ट कर दिया था, अपने वचनरूपी प्रखर किरणों के तेज से उन्होंने मिथ्यात्वरूपी गाढ़ान्धकार को नष्ट कर दिया था, उनके पास वस्त्र वगैरह कुछ नहीं थे किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी इन तीन मौलिक रत्नों से वे अवश्य अलंकृत थे । मुनिराज को देखते ही उसके ऐसा पुण्य का उदय आया, जिससे हृदय में कोमलता ने अधिकार कर लिया। अपने कन्धों पर से जाल हटाकर वह मुनिराज के समीप पहुँचा, बहुत भक्तिपूर्वक उनके चरणों में प्रणाम कर उसने उनसे प्रार्थना की कि हे स्वामी! कामरूपी हाथी को नष्ट करने वाले हे केसरी ! मुझे भी ऐसा व्रत दीजिए, जिससे मेरा जीवन सफल हो। ऐसी प्रार्थना कर विनय-विनीत मस्तक से वह मुनिराज के चरणों में बैठ गया । मुनिराज ने उसकी ओर देखकर विचार किया कि देखो! कैसे आज इस महाहिंसक के परिणाम कोमल हो गए हैं और इसकी मनोवृत्ति व्रत लेने की हुई है। सत्य है-आगे जैसा अच्छा या बुरा होना होता है, जीवों का मन भी उसी अनुसार पवित्र या अपवित्र बन जाता है अर्थात् जिसका भविष्य अच्छा होता है उसका मन पवित्र हो जाता है और जिसका बुरा होनहार होता है उसका मन भी बुरा हो जाता है ॥८-१७॥
    इसके बाद मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा मृगसेन के भावी जीवन पर जब विचार किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि इसकी आयु अब बहुत कम रह गई है। यह देख उन्होंने करुणा बुद्धि से उसे समझाया कि हे भव्य! मैं तुझे एक बात कहता हूँ, तू जब तक जीए तब तक उसका पालन करना वह यह कि तेरे जाल में पहली बार जो मछली आए उसे तू छोड़ देना और इस तरह जब तक तेरे हाथ से मरे हुए जीव का मांस तुझे प्राप्त न हो, तब तक तू पाप से मुक्त ही रहेगा। इसके अतिरिक्त मैं तुझे पंचनमस्कार मंत्र सिखाता हूँ जो प्राणी मात्र का हित करने वाला है, उसका तू सुख में, दुःख में, सरोग या नीरोग अवस्था में सदैव ध्यान करते रहना। मुनिराज के स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले इस प्रकार के वचनों को सुनकर मृगसेन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने यह व्रत स्वीकार कर लिया। जो भक्तिपूर्वक अपने गुरुओं के वचनों को मानते हैं, उन पर विश्वास लाते हैं, उन्हें सब सुख मिलता है और वे परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त करते हैं ॥१८-२३॥
    व्रत लेकर मृगसेन नदी पर गया। उसने नदी में जाल डाला । भाग्य से एक बड़ा भरी मत्स्य उसके जाल में फँस गया। उसे देखकर धीवर ने विचारा हाय! मैं निरन्तर ही तो महापाप करता हूँ और आज गुरु महाराज ने मुझे व्रत दिया है, भाग्य से आज ही इतना बड़ा मच्छ जाल में आ फँसा। पर जो कुछ हो, मैं तो इसे कभी नहीं मारूँगा। यह सोचकर व्रती मृगसेन ने अपने कपड़े की एक चिन्दी फाड़कर उस मत्स्य के कान में इसलिए बाँध दी कि यदि वही मच्छ दूसरी बार जाल में आ जाय तो मालूम हो जाये। इसके बाद वह उसे बहुत दूर जाकर नदी में छोड़ आया । सच है, मृत्यु पर्यन्त निर्विघ्न पालन किया हुआ व्रत सब प्रकार की उत्तम सम्पत्ति को देने वाला होता है ॥२४-२७॥
    वह फिर दूसरी ओर जाकर मछलियाँ पकड़ने लगा। पर भाग्य से इस बार भी वही मच्छ उसके जाल में आया। उसने उसे फिर छोड़ दिया। इस तरह उसने जितनी बार जाल डाला, उसमें वही वही मत्स्य आया पर उससे वह क्षुब्ध नहीं हुआ अपितु अपने व्रत की रक्षा के लिए खूब दृढ़ हो गया। उसे वहाँ इतना समय हो गया कि सूर्य भी अस्त हो चला, पर उसके जाल में उस मत्स्य को छोड़कर और कोई मत्स्य नहीं आया। अन्त में मृगसेन निरुपाय होकर घर की ओर लौट पड़ा। उसे अपने व्रत पर खूब श्रद्धा हो गई। वह रास्ते भर गुरु महाराज द्वारा सिखाए पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ चला आया। जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा तो उसकी स्त्री उसे खाली हाथ देखकर आग बबूला हो उठी उसने गुस्से से पूछा- रे मूर्ख ! घर पर खाली हाथ तो चला आया, पर बतला तो सही कि खायेगा क्या पत्थर? इतना कहकर वह घर के भीतर चली गई और गुस्से में उसने भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए। सच हैं-छोटे कुल की स्त्रियों का अपने पति पर प्रेम, लाभ होते रहने पर ही अधिक होता है । अपनी स्त्री का इस प्रकार दुर्व्यवहार देखकर बेचारा मृगसेन किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया । उसकी कुछ नहीं चली। उसे घर के बाहर ही रह जाना पड़ा। बाहर एक पुराना बड़ा भारी लकड़ा पड़ा हुआ था। मृगसेन निरुपाय होकर पंचनमस्कार मंत्र का ध्यान करता हुआ उसी पर सो गया। दिनभर के श्रम के कारण रात में वह नींद में सोया हुआ था कि उस लकड़े में से एक भयंकर और जहरीले सर्प ने निकल कर उसे काट खाया । वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ ॥२८-३६॥
    प्रातःकाल होने पर जब उसकी पत्नी ने मृगसेन की यह दुर्दशा देखी तो उसके दुःख का कोई ठिकाना नहीं रहा । वह रोने लगी, छाती कूटने लगी और अपने नीच कर्म का बार-बार पश्चाताप करने लगी। उसका दुःख बढ़ता ही गया । उसने भी यह प्रतिज्ञा ली कि जो व्रत मेरे स्वामी ने ग्रहण किया था वही मैं भी ग्रहण करती हूँ और निदान किया कि “ ये ही मेरे अन्य जन्म में भी स्वामी हों।” अनन्तर साहस करके वह भी अपने स्वामी के साथ अग्नि प्रवेश कर गई इस प्रकार अपघात से उसने अपनी जान गँवा दी ॥३७-३९॥
    विशाला नाम की नगरी में विश्वम्भर राजा राज्य करते थे। उनकी प्रिया का नाम विश्वगुणा था। वही एक सेठ रहते थे। गुणपाल उनका नाम था। उनकी स्त्री का नाम धनश्री था । धनश्री के सुबन्धु नाम की एक अतिशय सुन्दरी और गुणवती कन्या थी। पुण्योदय से मृगसेन धीवर का जीव धनश्री के गर्भ में आया ॥४०-४२॥
    अपने नर्मधर्म नामक मंत्री के अत्यन्त आग्रह और प्रार्थना से राजा ने सेठ गुणपाल से आग्रह किया कि वह मंत्री नर्मधर्म के साथ अपनी पुत्री सुबन्धु का ब्याह कर दे । यह जानकर गुणपाल को बहुत दुःख हुआ। उसके सामने एक अत्यन्त कठिन समस्या उत्पन्न हुई उसने विचारा कि पापी राजा मेरी प्यारी सुन्दरी सुबन्धु का, जो कि मेरे कुलरूपी बगीचे पर प्रकाश डालने वाली है, नीच कर्म करने वाले नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देने को कहता है। उसने इस समय मुझे बड़ा संकट में डाल दिया। यदि सुबन्धु का नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देता हूँ, तो मेरे कुल का क्षय होता है और साथ ही अपयश होता है और यदि नहीं करता हूँ, तो सर्वनाश होता है। राजा न जाने क्या करेगा? प्राण भी बचे या नहीं बचे? आखिर उसने निश्चय किया जो कुछ हो, पर मैं ऐसे नीचों के हाथ तो कभी अपनी प्यारी पुत्री का जीवन नहीं सौपूँगा-उसकी जिन्दगी बरबाद नहीं करूँगा। इसके बाद वह अपने श्रीदत्त मित्र के पास गया और उससे सब हाल कह कर तथा उसकी सम्मति से अपनी गर्भिणी स्त्री को उसी के घर पर छोड़कर रात के समय अपना कुछ धन और पुत्री को साथ लिए वहाँ गुपचुप से निकल खड़ा हुआ। वह धीरे-धीरे कौशाम्बी आ पहुँचा । सच है, दुर्जनों के सम्बन्ध से देश भी छोड़ देना पड़ता है॥४३-४८॥
    श्रीदत्त के घर के पास ही एक श्रावक रहता था । एक दिन उसके यहाँ पवित्र चारित्र के धारक शिवगुप्त और मुनिगुप्त नाम के दो मुनिराज आहार के लिए आए ॥४९-५०॥
    उन्हें श्रावक महाशय ने अपने कल्याण की इच्छा से विधिपूर्वक आहार दिया जो कि सर्वोत्तम सम्पत्ति की प्राप्ति का कारण है । मुनिराज को आहार देकर उसने बहुत पुण्य उत्पन्न किया, जो कि दुःख दरिद्रता आदि का नाश करने वाला है । मुनिराज आहार के बाद जब वन में जाने लगे तब उनमें से मुनिगुप्त की नजर धनश्री पर पड़ी, जो कि श्रीदत्त के आँगन में खड़ी हुई थी। उस समय उसकी दशा अच्छी नहीं थी। बेचारी पति और पुत्री वियोग से दुःखी थी, पराये घर पर रह कर अनेक दुःखों को सहती थी, आभूषण वगैरह सब उसने उतार डालकर शरीर को शोभाहीन बना डाला था, कुकवि की रचना के समान उसका सारा शरीर रुक्ष और श्रीहीन हो रहा था और इन सब दुःखों के होने पर भी वह गर्भिणी थी, इससे और अधिक दुर्व्यवस्था में वह फँसी थी। उसे इस हालत में देखकर मुनिगुप्त ने शिवगुप्त मुनिराज से कहा-प्रभो, देखिये तो इस बेचारी की कैसी दुर्दशा हो रही है, कैसे भयंकर कष्ट का इसे सामना करना पड़ा है? जान पड़ता है। इसके गर्भ में किसी अभागे जीव ने जन्म लिया है, इसी से इसकी यह दीन-हीन दशा हो रही है। सुनकर जैनसिद्धान्त के विद्वान् और अवधिज्ञानी श्री शिवगुप्त मुनि बोले- मुनिगुप्त, तुम यह न समझो कि इसके गर्भ में कोई अभागा आया है किन्तु इतना अवश्य है कि इस समय उसकी अवस्था ठीक नहीं है और यह दुःखी है परन्तु थोड़े ही दिनों के बाद- इसके दिन फिरेंगे और पुण्य का उदय आएगा। इसके यहाँ जिसका जन्म होगा, वह बड़ा महात्मा, जिनधर्म का पूर्ण भक्त और राजसम्मान का पात्र होगा । होगा तो वह वैश्यवंश में पर उसका ब्याह इन्हीं विश्वंभर राजा की पुत्री के साथ होगा, राजवंश भी उसकी सेवा करेगा ॥५१-५९ ॥
    मुनिराज की भविष्य वाणी पापी श्रीदत्त ने भी सुनी। वह था तो धनश्री के पति गुणपाल का मित्र, पर अपने एक जातीय बंधु का उत्कर्ष होना उसे सह्य नहीं हुआ । उसका पापी हृदय मत्सरता के द्वेष से अधीर हो उठा। उसने बालक को जन्मते ही मार डालने का निश्चय किया । अब से वह बाहर कहीं न जाकर बगुले की तरह सीधा साधा बनकर घर ही में रहने लगा। सच है - दुर्जन - शत्रु बिना कारण के भी सुजन - मित्र बन जाया करते हैं ॥ ६०-६१॥
    पहले तो श्रीदत्त बेचारी धनश्री को कष्ट दिया करता था और अब उसके साथ बड़ी सज्जनताका बर्ताव करने लगा। धनश्री सेठानी ने समय पाकर पुत्र को प्रसव किया । वास्तव में बालक बड़ा भाग्यशाली हुआ। वह उत्पन्न होते ही ऐसा तेजस्वी जान पड़ता था, मानो पुण्यसमूह हो। धनश्री पुत्र की प्रसव वेदना से मूर्छित हो गई उसे अचेत देखकर पापी श्रीदत्त ने अपने मन में सोचा- बालक प्रज्ज्वलित अग्नि की तरह तेजस्वी है, अपने को आश्रय देने वाले का ही क्षय करने वाला होगा, इसलिए इसका जीता रहना ठीक नहीं। यह विचार कर उसने अपने घर की बड़ी बूढ़ी स्त्रियों द्वारा यह प्रकट करवा कर, कि बालक मरा हुआ पैदा हुआ था, बालक को एक दुर्जन के हाथ सौंप दिया और उससे कह दिया कि इसे ले जाकर मार डालना । उचित तो यह था कि-
    शत्रु का भी यदि बच्चा हो, तो उसे नहीं मारना चाहिए, तब दूसरों के बच्चों के सम्बन्ध में तो क्या कहें? परन्तु खेद है कि सर्प के समान दुष्ट पुरुष कोई भी बुरा काम करते नहीं हिचकते । चाण्डाल बच्चे को एकान्त में मारने को ले गया, पर जब उसने उजेले में उसे देखा तो उसकी सुन्दरता को देखकर उसे भी दया आ गई करुणा से उसका हृदय भर आया । सो वह उसे न मारकर वहीं एक अच्छे स्थान पर रखकर अपने घर चला गया ॥६२-६८॥
    श्रीदत्त की एक बहिन थी । उसका ब्याह इन्द्रदत्त सेठ के साथ हुआ था । भाग्य से उसके सन्तान नहीं हुई थी। बालक के पूर्व पुण्य के उदय से इन्द्रदत्त माल बेचता हुआ इसी ओर आ निकला । जब वह ग्वाल लोगों के मुहल्ले में आया तो उसने ग्वालों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि “एक बहुत सुन्दर बालक को न जाने कोई अमुक स्थान की सिला पर लेटा गया है, वह बहुत तेजस्वी है, उसके चारों ओर अपनी गायों के बच्चे खेल रहे हैं और वह उनके बीच में बड़े सुख से खेल रहा है।” उनकी बातें सुनकर ही इन्द्रदत्त बालक के पास आया। वह एक दूसरे बाल सूर्य को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसके कोई सन्तान तो थी ही नहीं, इसलिए बच्चे को उठाकर वह अपने घर ले आया और अपनी प्रिया से बोला-प्यारी राधा ? तुम्हें इसकी खबर भी नहीं कि तुम्हारे गूढगर्भ से अपने कुल का प्रकाशक पुत्र हुआ है? और देखो वह यह है इसे ले लो और पालो । आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ । यह कहकर उसने बालक को अपनी प्रिया की गोद में रख दिया है। बालक की खुशी के उपलक्ष में इन्द्रदत्त ने खूब उत्सव किया। खूब दान किया। सच है - पुण्यवानों के लिए विपत्ति भी सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है॥६९-७३॥
    पापी श्रीदत्त को यह सारा हाल मालूम हो गया। इससे वह इन्द्रदत्त के घर आया और मायाचार से अपने बहनोई से कहा- देखो जी, हमारा भानजा बड़ा तेजस्वी है, बड़ा भाग्यवान् है, इसलिए उसे हम अपने घर पर ही रखेंगे। आप हमारी बहिन को भेज दीजिये । बेचारा इन्द्रदत्त उसके पापी हृदय की बात नहीं जान पाया। इसलिए उसने अपने सीधे स्वभाव से अपनी प्रिया को पुत्र सहित उसके साथ कर दिया। बहुत ठीक लिखा है-
    जिन लोगों का हृदय दुष्ट होता है, उनके चित्त में कुछ और रहता है, वचनों से वे कुछ और ही कहते और शरीर से कुछ और ही करते हैं। दूसरों को ठगना, उन्हें धोखा देना ही एक मात्र ऐसे पुरुषों का उद्देश्य रहता है। पापी श्रीदत्त भी एक ऐसा ही दुष्ट मनुष्य था । इसीलिए तो वह निरपराध बालक के खून का प्यासा हो उठा । उसने पहले की तरह फिर भी उसे मार डालने की इच्छा से एक चाण्डाल को बहुत कुछ लोभ देकर उसके हाथ सौंप दिया । चाण्डाल ने भी बालक को ले तो लिया पर जब उसने उसकी स्वर्गीय सुन्दरता देखी तो उसके हृदय में भी दया आ गई। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि कुछ भी हो, मैं कभी इस बच्चे को न मारूँगा और इसे बचाऊँगा । वह अपना विचार श्रीदत्त से नहीं कहकर बच्चे को लिवा ले गया। कारण श्रीदत्त की पाप वासना उसे कभी जिन्दा रहने न देगी, यह उसे उसकी बातचीत से मालूम हो गया था । चाण्डाल बच्चे को एक नदी के किनारे पर लिवा ले गया। वहीं एक सुन्दर गुहा थी, जिसके चारों ओर वृक्ष थे । वह बालक को उस गुहा में रखकर अपने घर पर लौट आया ॥७४-७९॥
    संध्या का समय था। ग्वाल लोग अपनी-अपनी गायों को घर पर लौटा कर ला रहे थे । उनमें से कुछ गायें इस गुहा की ओर आ गई थीं, जहाँ गुणपाल का पुत्र अपने पूर्वपुण्य के उदय से रक्षा पा रहा था। धाय के समान उन गायों ने आकर उस बच्चे को घेर लिया। मानों बच्चा प्रेम से अपनी माँ की ही गोद में बैठा हो। बच्चे को देखकर गायों के थनों में से दूध झरने लग गया। ग्वाल लोग प्रसन्नमुख बच्चे को गायों से घिरा हुआ और निर्भय खेलता हुआ देखकर बहुत आश्चर्य करने लगे। उन्होंने जाकर अपनी जाति के मुखिया गोविन्द से यह सब हाल कह सुनाया। गोविन्द के कोई सन्तान नहीं थी, इसलिए वह दौड़ा गया और बालक को उठा लाकर उसने अपनी सुनन्दा नाम की प्रिया को सौंप दिया। उसका नाम उसने धनकीर्ति रखा। वहाँ बड़े यत्न और प्रेम से उसका पालन व संरक्षण होने लगा। धनकीर्ति भी दिनों दिन बढ़ने लगा। वह ग्वाल महिलाओं के नेत्ररूपी कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करने वाला चन्द्रमा था। उसे देखकर उनके नेत्रों को बड़ी शान्ति मिलती थी । वह सब सामुद्रिक लक्षणों से युक्त था। उसे देखकर सबको बड़ा प्रेम होता था। वह अपनी रूप मधुरिमा से कामदेव जान पड़ता था, कान्ति चन्द्रमा और तेज से एक दूसरा सूर्य से जैसे-जैसे उसकी सुन्दरता बढ़ती जाती थी, वैसे- वैसे ही उसमें अनेक उत्तम - उत्तम गुण भी स्थान पाते चले जाते थे |८०-८७॥
    एक दिन पापी श्रीदत्त घी की खरीद करता हुआ इधर आ गया । उसने धनकीर्ति को देखकर पहचान लिया। अपना सन्देह मिटाने को और भी दूसरे लोगों से उसने उसका हाल जान लिया। उसे निश्चय हो गया कि यह गुणपाल ही का पुत्र है। तब उसने फिर उसके मारने का षड्यंत्र रचा। उसने गोविन्द से कहा-भाई, मेरा एक बहुत जरूरी काम हैं, यदि तुम अपने पुत्र द्वारा उसे करा दो तो बड़ी कृपा हो। मैं अपने घर पर भेजने के लिए एक पत्र लिख देता हूँ, उसे यह पहुँचा आवे। बेचारे गोविन्द ने कह दिया कि मुझे आपके काम से कोई इनकार नहीं है। आप लिख दीजिये, यह उसे दे आयेगा। सच बात है-दुष्टों की दुष्टता का पता जल्दी से कोई नहीं पा सकता । पापी श्रीदत्त ने पत्र में लिखा ॥८८- ९० ॥
    पुत्र महाबल, जो तुम्हारे पास पत्र लेकर आ रहा है, वह अपने कुल का नाश करने के लिए भयंकरता से जलता हुआ मानों प्रलय काल की अग्नि है, समर्थ होते ही यह अपना सर्वनाश कर देगा। इसलिए तुम्हें उचित है कि इसे गुप्तरीति से तलवार द्वारा वा मूसले से मार डालकर अपना कांटा साफ कर दो। काम बड़ी सावधानी से हो, जिसे कोई जान न पावे ॥९१-९२॥
    पत्र को अच्छी तरह बन्द करके उसने कुमार धनकीर्ति को सौंप दिया । धनकीर्ति ने उसे अपने गले में पड़े हुए हार से बाँध लिया और सेठ की आज्ञा लेकर उसी समय वह वहाँ से निडर होकर चल दिया। वह धीरे-धीरे उज्जयिनी के उपवन में आ पहुँचा। रास्ते में चलते-चलते वह थक गया था इसलिए थकावट मिटाने के लिए वह वहीं एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया। उसे वहाँ नींद आ गई ॥९३-९५॥
    इतने ही वहाँ एक अनंगसेना नाम की वेश्या फूल तोड़ने के लिए आई, वह बहुत सुन्दरी थी अनेक तरह के मौलिक भूषण और वस्त्र वह पहने थी । उससे उसकी सुन्दरता भी बेहद बढ़ गई थी। वह अनेक विद्या कलाओं की जानने वाली और बड़ी विनोदिनी थी । उसने धनकीर्ति को एक वृक्ष के नीचे सोता देखा। पूर्वजन्म में अपना उपकार करने के कारण से उस पर उसका बहुत प्रेम हुआ। उसके वश होकर ही उसे न जाने क्या बुद्धि उत्पन्न हुई जो उसने उसके गले में बँधे हुए श्रीदत्त के कागज को खोल लिया। पर जब उसने उसे बाँचा तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना न रहा। एक निर्दोष कुमार के लिए श्रीदत्त का ऐसा घोर पैशाचिक अत्याचार का हाल पढ़कर उसका हृदय काँप उठा। वह उसकी रक्षा के लिए घबरा उठी । वह भी थी बड़ी बुद्धिमती सो झट एक युक्ति सूझ गई। उसने उस लिखावट को बड़ी सावधानी से मिटाकर उसकी जगह अपनी आँखों में अंजे हुए काजल को पत्तों के रस से गीली की हुई सलाई से निकाल-निकाल कर उसके द्वारा लिख दिया कि-“प्रिये ! यदि तुम मुझे सच्चा अपना स्वामी समझती हो और पुत्र महाबल ! तुम यदि वास्तव में मुझे अपना पिता समझते हो तो इस पत्र लाने वाले के साथ श्रीमती का ब्याह शीघ्र कर देना । अपने को बड़े भाग्य से ऐसे वर की प्राप्ति हुई है। मैंने इसकी साखें वगैरह सब अच्छी तरह देख ली है। कहीं कोई बाधा आती है । इस काम के लिए तुम मेरी भी अपेक्षा नहीं करना । कारण, सम्भव है मुझे आने में कुछ विलम्ब हो जाए। फिर ऐसा योग मिलना कठिन है। वर के मान-सम्मान में तुम लोग किसी प्रकार की कमी मत रखना।”
    इस प्रकार पत्र लिखकर अनंगसेना ने पहले की तरह उसे धनकीर्ति के गले में बाँध दिया अथवा यों कह लीजिए कि उसने धनकीर्ति को मानों जीवन प्रदान किया। इसके बाद वह अपने घर पर लौट आई॥९६-१०२॥ 
    अनंगसेना के चले जाने के बाद धनकीर्ति की भी नींद खुली। वह उठा और श्रीदत्त के घर पहुँचा। उसने पत्र निकाल कर श्रीदत्त की स्त्री के हाथ में सौंपा। पत्र को उसके पुत्र महाबल ने भी पढ़ा । पत्र पढ़कर उन्हें बहुत खुशी हुई। धनकीर्ति का उन्होंने बहुत आदर-सम्मान किया तथा शुभ मुहूर्त में श्रीमती का ब्याह उसके साथ कर दिया । सच कहा है-
    पुण्यवान् जीवों को महासंकट के समय भी जीवन के नष्ट होने के कारणों के मिलने पर भी सुख प्राप्त होता है। यह हाल जब श्रीदत्त को ज्ञात हुआ, तो वह घबराकर उसी समय दौड़ा हुआ आया। उसने रास्ते में ही धनकीर्ति को मार डालने की युक्ति सोचकर अपनी नगरी के बाहर पार्वती के मन्दिर में एक मनुष्य को इसलिए नियुक्त कर दिया कि मैं किसी बहाने से धनकीर्ति को रात के समय यहाँ भेजूँगा, सो उसे तुम मार डालना। इसके बाद वह अपने घर आया और एकान्त में अपने जमाई को बुलाकर उसने कहा- देखो जी, मेरी कुल परम्परा में एक रीति चली आ रही है, उसका पालन तुम्हें भी करना होगा । वह यह है कि नवविवाहित वर रात्रि के आरम्भ में उड़द के आटे के बनाए हुए तोता, काक, मुर्गा आदि जानवरों को लाल वस्त्र से ढककर और कंकण पहने हुए हाथ में रखकर बड़े आदर के साथ शहर के बाहर पार्वती के मन्दिर में ले जाए और शान्ति के लिए उनकी बलि दे ॥१०३ - १०९॥
    यह सुनकर धनकीर्ति बोला - जैसी आपकी आज्ञा । मुझे शिरोधार्य है। इसके बाद वह बलि लेकर घर से निकला। शहर के बाहर पहुँचते ही उसे उसका साला महाबल मिला। महाबल ने उससे पूछा- क्यों जी! ऐसे अन्धकार में अकेले कहाँ जा रहे हो? उत्तर में धनकीर्ति ने कहा- आपके पिताजी की आज्ञा से मैं पार्वती के मन्दिर बलि देने के लिए जा रहा हूँ। यह सुनकर महाबल बोला-आप बलि मुझे दे दीजिए, मैं चला जाता हूँ । आपके वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप घर पधारिए। धनकीर्ति ने कहा- - देखिए, इससे आपके पिताजी बुरा मानेंगे। इसलिए आप मुझे ही जाने दीजिए । महाबल ने कहा-नहीं, मुझे बलि देने की सब विधि वगैरह मालूम है, इसलिए मैं ही जाता हूँ - यह कहकर उसने धनकीर्ति को तो घर लौटा दिया और आप दुर्गा के मन्दिर जाकर काल के घर का पाहुना बना । सच है - ॥११०-११४॥
    पुण्यवानों के लिए कालरूपी अग्नि जल हो जाती है, समुद्र स्थल हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है, विष अमृत के रूप में परिणत हो जाता है, विपत्ति सम्पत्ति हो जाती है और विघ्न डर के मारे नष्ट हो जाते हैं। इसलिए बुद्धिमानों को सदा पुण्यकर्म करते रहना चाहिए। पुण्य उत्पन्न करने के कारण ये हैं-भक्ति से भगवान् की पूजा करना, पात्रों को दान देना, व्रत पालना, उपवासादि के द्वारा इंद्रियों को जीतना, ब्रह्मचर्य रखना, दुखियों की सहायता करना, विद्या पढ़ाना, पाठशाला खोलना अर्थात् अपने से जहाँ तक बन पड़े तन से, मन से और धन से दूसरों की भलाई करना ॥११५-११८॥
    अपने पुत्र के मारे जाने की जब श्रीदत्त को खबर हुई, तब वह बहुत दुःखी हुआ । पर फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। उसका हृदय अब प्रतिहिंसा से और अधिक जल उठा। उसने अपनी स्त्री को एकान्त में बुलाकर कहा-प्रिये, बतलाओ तो हमारे कुलरूपी वृक्ष को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाले इस दुष्ट की हत्या कैसे हो? कैसे यह मारा जा सके? मैंने इसके मारने को जितने उपाय किए, भाग्य से वे सब व्यर्थ गए और उलटा उनसे मुझे ही अत्यन्त हानि उठानी पड़ी। सो मेरी बुद्धि तो बड़े असमंजस में फँस गई है। देखो, कैसे अचंभे की बात है जो इसके मारने के लिए जितने उपाय किए,उन सबसे रक्षा पाकर और अपना ही बैरी बना हुआ यह अपने घर में बैठा है ॥११९-१२०॥
    श्री दत्त की स्त्री ने कहा- बात यह है कि अब आप बूढ़े हो गए है । आपकी बुद्धि अब काम नहीं देती । अब जरा आप चुप होकर बैठे रहें। मैं आपकी इच्छा बहुत जल्दी पूरी करूँगी । यह कहकर उस पापिनी ने दूसरे दिन विष मिले हुए लड्डू बनाये और अपने पुत्री से कहा-बेटी श्रीमती, देख मैं तो अब स्नान करने जाती हूँ और तू इतना ध्यान रखना कि ये जो उजले लड्डू हैं, उन्हें तो अपने स्वामी को परोसना और जो मैले हैं, उन्हें अपने पिता को परोसना । यह कहकर श्रीमती की माँ नहाने को चली गई। श्रीमती अपने पिता और पति को भोजन कराने को बैठी । बेचारी श्रीमती भोली-भाली लड़की थी और न उसे अपनी माता का कूट-कपट ही मालूम था; इसलिए उसने अच्छे लड्डू अपने पिता के लिए ही परोसना उचित समझा, जिससे कि उसके पिता को अपने सामने श्रीमती का बरताव बुरा न जान पड़े और यही एक कुलीन कन्या के लिए उचित भी था, क्योंकि अपने माता-पिता या बड़ों के सामने ऐसा बेहयापन काम अच्छी स्त्रियाँ नहीं करती। इसलिए जो लड्डू उसके पति के लिए उसकी माँ ने बनाये थे, उन्हें उसने पिता की थाली में परोस दिया । सच है -
    "विचित्रा कर्मणां गतिः" अर्थात् कर्मों की गति विचित्र ही हुआ करती है ॥१२१-१२६॥
    विष मिले हुए लड्डुओं के खाते ही श्रीदत्त ने अपने किए कर्म का उपयुक्त प्रायश्चित पा लिया, वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ । ठीक ही कहा है कि पाप कर्म करने वालों का कभी कल्याण नहीं होता ॥१२७॥
    श्रीमती की माँ जब नहाकर लौटी और उसने अपने स्वामी को इस प्रकार मरा पाया तो उसके दुःख का कोई पार नहीं रहा । वह बहुत विलाप करने लगी परन्तु अब क्या हो सकता था! जो दूसरों के लिए कुआँ खोदते हैं, उसमें पहले वे स्वयं ही गिरते हैं, यह संसार का नियम है । श्रीमती की माँ और पिता उसके उदाहरण है। इसलिए जो अपना बुरा नहीं चाहते उन्हें दूसरों का बुरा करने का कभी स्वप्न में भी विचार नहीं करना चाहिए । अन्त में श्रीमती की माता ने अपनी पुत्री से कहा- हे पुत्री ! तेरे पिता ने और मैंने निर्दय होकर अपने हाथों ही अपने कुल का सर्वनाश किया । हमने दूसरे का अनिष्ट करने के जितने प्रयत्न किए वे सब व्यर्थ गए और अपने नीच कर्मों का फल भी हमें हाथों हाथ मिल गया। अब जो तेरे पिताजी की गति हुई वही मेरे लिए भी इष्ट है । अन्त में मैं तुझे आशीर्वाद देती हूँ कि तू और तेरे पति इस घर में सुख शान्ति से रहें जैसे इन्द्र अपनी प्रिया के साथ रहता है। इतना कहकर उसने भी जहर के लड्डुओं को खा लिया। देखते-देखते उसकी आत्मा भी शरीर को छोड़कर चली गई। ठीक है-दुर्बुद्धियों की ऐसी ही गति हुआ करती है । जो लोग दुष्ट हृदय बनकर दूसरों का बुरा कर सोचते हैं, उनका बुरा करते हैं, वे स्वयं अपना बुरा अन्त में कुगतियों में जाकर अनन्त दुःख उठाते हैं। इस प्रकार धनकीर्ति पुण्य के प्रभाव से अनेक बड़ी-बड़ी आपत्तियों से भी सुरक्षित रहकर सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगा ॥१२८-१३३॥
    जब महाराज विश्वम्भर को धनकीर्ति के पुण्य, उसकी प्रतिष्ठा तथा गुणशालीनता का परिचय मिला तो वे उससे बहुत खुश हुए और उन्होंने अपनी राजकुमारी का विवाह भी शुभ दिन देखकर बड़े ठाटबाट सहित उसके साथ कर दिया । धनकीर्ति को उन्होंने दहेज में बहुत धन सम्पत्ति दी, उसका खूब सम्मान किया तथा ‘राज्य सेठ' के पद पर भी उसे प्रतिष्ठित किया। इस पर किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि संसार में ऐसी कोई शुभ वस्तु नहीं जो जिनधर्म के प्रभाव से प्राप्त न होती हो ॥१३४-१३६॥
    गुणपाल को जब अपने पुत्र का हाल ज्ञात हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई वह उसी समय कौशाम्बी से उज्जयिनी के लिए चला और बहुत शीघ्र अपने पुत्र से आ मिला। सबका फिर पुण्य मिलाप हुआ। धनकीर्ति पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को भोगता हुआ अपना समय सुख से बिताने लगा। इससे कोई यह न समझ ले कि वह अब दिन-रात विषयभोगों में ही फँसा रहता था, नहीं; उसका अपने आत्मकल्याण की ओर भी पूरा ध्यान था वह बड़ी सावधानी के साथ सुख देने वाले जिनधर्म की सेवा करता था, भगवान् की प्रतिदिन पूजा करता था, पात्रों को दान देता था, दुःखी अनाथों की सहायता करता था और सदा स्वाध्याय-अध्ययन करता था, मतलब यह कि धर्म - सेवा और परोपकार करना ही उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो गया था। पुण्य के उदय से जो प्राप्त होना चाहिए वह सब धनकीर्ति को इस समय प्राप्त था । इस प्रकार धनकीर्ति ने बहुत दिनों तक खूब सुख भोगा और सबको प्रसन्न रखने की वह सदा चेष्टा करता रहा ॥१३७-१४२॥
    एक दिन धनकीर्ति का पिता गुणपाल सेठ अपनी स्त्री, पुत्र, मित्र, बन्धु - बान्धव को साथ लिए यशोध्वज मुनिराज की वन्दना करने को गया । भाग्य से अनंगसेना भी इस समय पहुँच गई संसार का उपकार करने वाले उन मुनिराज की सभी ने बड़ी भक्ति के साथ वन्दना की। इसके बाद गुणपाल ने मुनिराज से पूछा-प्रभो, कृपाकर बतलाइए कि मेरे इस धनकीर्ति पुत्र ने ऐसा कौन महापुण्य पूर्व जन्म में किया है, जिससे इसने इस बालपन में ही भयंकर से भयंकर कष्टों पर विजय प्राप्त कर बहुत कीर्ति कमाई, खूब धन कमाया और अच्छे-अच्छे पवित्र काम किए, सुख भोगा और यह बड़ा ज्ञानी हुआ, दानी हुआ तथा दयालु हुआ। भगवन्, इन सब बातों को मैं सुनना चाहता हूँ ॥१४३-१४८॥
    करुणा समुद्र और चार ज्ञान के धारी यशोध्वज मुनिराज ने, मृगसेन धीवर के अहिंसाव्रत ग्रहण करने, जाल में एक ही एक मच्छ के बार-बार आने, घर पर सूने हाथ लौट आने, स्त्री के नाराज होकर घर में न आने देने आदि की सब कथा गुणपाल से कहकर कहा- वह मृगसेन तो अहिंसाव्रत के प्रभाव से यह धनकीर्ति हुआ, जो कि सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति का मालिक और महाभव्य है और मृगसेन की जो घण्टा नाम की स्त्री थी, वह निदान करके इस जन्म में भी धनकीर्ति की श्रीमती नाम की गुणवती स्त्री हुई है और जो मच्छ पाँच बार पकड़कर छोड़ दिया गया था, वह यह अनंगसेना हुई है, जिसने कि धनकीर्ति को जीवनदान देकर अत्यन्त उपकार किया है, सेठ महाशय, यह सब एक अहिंसाव्रत के धारण करने का फल है और परम अहिंसामयी जिनधर्म के प्रसाद से सज्जनों को क्या प्राप्त नहीं होता । मुनिराज के द्वारा इस सुखदाई कथा को सुनकर सब ही बहुत प्रसन्न हुए, जिनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई। अपने पूर्व भव का हाल सुनकर धनकीर्ति, श्रीमती और अनंगसेना को जातिस्मरण हो गया। उससे उन्हें संसार की क्षणस्थायी दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ । धर्माधर्म का फल भी उन्हें जान पड़ा। उनमें धनकीर्ति तो, जिसका कि सुयश सारे संसार में विस्तृत है, यशोध्वज मुनिराज के पास ही एक दूसरे मोहपाश की तरह जान पड़ने वाले अपने केशकलाप को हाथों से उखाड़ कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार के जीवों का उद्धार करने वाली है। साधु हो जाने के बाद धनकीर्ति ने खूब निर्दोष तपस्या की, अनेक जीवों को कल्याण के मार्ग पर लगाया, जिनधर्म की प्रभावना की, पवित्र रत्नत्रय प्राप्त किया और अन्त में समाधि सहित मरकर सर्वार्थसिद्धि का श्रेष्ठ सुख लाभ किया ॥१४९-१६१॥
    धनकीर्ति आगे केवली होकर मुक्ति प्राप्त करेगा और ऋषियों ने भी अहिंसाव्रत का फल लिखते समय धनकीर्ति की प्रशंसा में लिखा है- “ धनकीर्ति ने पूर्व भव में एक मच्छ को पाँच बार छोड़ा था, उसके फल से वह स्वर्गीय श्री का स्वामी हुआ ।" इसलिए आत्महित की इच्छा करने वालों को यह व्रत मन, वचन, काय की पवित्रतापूर्वक निरन्तर पालते रहना चाहिए।
    धनकीर्ति दीक्षित हुआ देखकर श्रीमती और अनंगसेना ने भी हृदय से विषय-वासनाओं को दूरकर अपने योग्य जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि सब दुःखों की नाश करने वाली है। इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर उन दोनों ने भी मृत्यु के अन्त में स्वर्ग प्राप्त किया। सच है- जिनशासन की आराधना कर किस किसने सुख प्राप्त न किया अर्थात् जिसने जिनधर्म ग्रहण किया उसे नियम से सुख मिला है ॥१६२-१६३॥
    इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धि ने धर्म-प्रेम के वश हो यह अहिंसाव्रत की पवित्र कथा जैनशास्त्र के अनुसार लिखी है। यह सब सुखों की देने वाली माता है और विघ्नों को नाश करने वाली है। इसे आप लोग हृदय में धारण करें । वह इसलिए कि इसके द्वारा आपको शान्ति प्राप्त होगी ॥१६४॥
    मूलसंघ के प्रधान प्रवर्तक श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में मल्लिभूषण गुरु हुए। वे ज्ञान के समुद्र थे। उनके शिष्य श्रीसिंहनन्दी मुनि हुए। वे बड़े आध्यात्मिक विद्वान् थे। उन्हें अच्छे-अच्छे परमार्थवित्-अध्यात्मशास्त्र के जानकार विद्वान् नमस्कार करते थे । वे सिंहनन्दी मुनि आपके लिए संसार-समुद्र से पार करने वाले होकर संसार में चिरकाल तक बढ़े। उनका यशः शरीर बहुत समय तक प्रकाशित रहे ॥१६५॥
  10. admin
    माननीय पद्मश्री डा.आर .के .जैन उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष बने। भारत का पहला राज्य जिसमे प्रथम बार किसी जैन को अल्प संख्यक आयोग का अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। माननीय प्रधानमंत्री भारत सरकार एवं मुख्यमंत्री उत्तराखंड सरकार को सम्पूर्ण जैन समाज की ओर से आभार एवम धन्यवाद।
  11. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    पात्रकेसरी आचार्य ने सम्यग्दर्शन का उद्योत किया था । उनका चरित मैं कहता हूँ, वह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कारण है ॥१६॥
    भगवान् के पंचकल्याणकों से पवित्र और सब जीवों को सुख के देने वाले इस भारतवर्ष में एक मगध नाम का देश है । वह संसार के श्रेष्ठ वैभव का स्थान है। उसके अन्तर्गत एक अहिछत्र नाम का सुन्दर शहर है। उसकी सुन्दरता संसार को चकित करने वाली है ॥१७-१८॥
    नगरवासियों के पुण्य से उसका अवनिपाल नाम का राजा बड़ा गुणी था, सब राजविद्याओं का पण्डित था। अपने राज्य का पालन वह अच्छी नीति के साथ करता था । उनके पास पाँच सौ अच्छे विद्वान् ब्राह्मण थे । वे वेद और वेदांग के जानकार थे । राजकार्य में वे अवनिपाल को अच्छी सहायता देते थे। उनमें एक अवगुण था, वह यह कि उन्हें अपने कुल का बड़ा घमण्ड था। उससे वे सबको नीची दृष्टि से देखा करते थे । वे प्रातःकाल और सायंकाल नियमपूर्वक अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करते थे। उनमें एक विशेष बात थी, वह यह कि वे जब राजकार्य करने को राजसभा में जाते, तब उसके पहले कौतूहल से पार्श्वनाथ जिनालय में श्रीपार्श्वनाथ की पवित्र प्रतिमा का दर्शन कर जाया करते थे ॥१९-२१॥ 
    एक दिन की बात है कि वे जब अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करके जिनमन्दिर में आए तब उन्होंने एक चारित्रभूषण नाम के मुनिराज को भगवान् के सम्मुख देवागम नाम का स्तोत्र का पाठ करते देखा। उन सबमें प्रधान पात्रकेसरी ने मुनि से पूछा- क्या आप इस स्तोत्र का अर्थ भी जानते हैं? सुनकर मुनि बोले-मैं इसका अर्थ नहीं जानता। पात्रकेसरी फिर बोले- साधुराज, इस स्तोत्र को फिर तो एक बार पढ़ जाइए। मुनिराज ने पात्रकेसरी के कहे अनुसार धीरे-धीरे और पदान्त में विश्रामपूर्वक फिर देवागम को पढ़ा, उसे सुनकर लोगों का चित्त बड़ा प्रसन्न होता था ॥२२-२६॥
    पात्रकेसरी की धारणाशक्ति बड़ी विलक्षण थी । उन्हें एक बार के सुनने से ही सबका सब याद हो जाता था। देवागम को भी सुनते ही उन्होंने याद कर लिया। जब वे उसका अर्थ विचारने लगे, उस समय दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें यह निश्चय हो गया कि जिन भगवान् ने जो जीवादिक पदार्थों का स्वरूप कहा है, वही सत्य है और अतिरिक्त सत्य नहीं है । इसके बाद वे घर पर जाकर वस्तु का स्वरूप विचारने लगे। सब दिन उनका उसी तत्त्वविचार में बीता । रात को भी उनका यही हाल रहा। उन्होंने विचार किया - जैनधर्म में जीवादिक पदार्थों को प्रमेय - जानने योग्य माना है और तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना है। पर क्या आश्चर्य है कि अनुमान प्रमाण का लक्षण कहा ही नहीं गया, यह क्यों? जैनधर्म के पदार्थों में उन्हें कुछ सन्देह हुआ, उससे उनका चित्त व्यग्र हो उठा।
    इतने ही में पद्मावती देवी का आसन कम्पायमान हुआ। वह उसी समय वहाँ आई और पात्रकेसरी से उसने कहा-आपको जैनधर्म के पदार्थों में कुछ सन्देह हुआ है, पर इसकी आप चिन्ता न करें। आप प्रातःकाल जब जिन भगवान् के दर्शन करने को जायेंगे तब आपका सब सन्देह मिटकर आपको अनुमान प्रमाण का निश्चय हो जायेगा। पात्रकेसरी से इस प्रकार कहकर पद्मावती जिनमन्दिर गई और वहाँ पार्श्वजिन की प्रतिमा के फण पर एक श्लोक लिखकर वह अपने स्थान पर चली गई, वह श्लोक यह था ॥२७-३६॥
    'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥" 
    अर्थात्-जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ हेतु के दूसरे तीन रूप मानने से क्या प्रयोजन है? तथा जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ हेतु के तीन रूप मानने से भी क्या फल है? भावार्थ-साध्य के अभाव में न मिलने वाले को ही अन्यथानुपपन्न कहते हैं। इसलिए अन्यथानुपपत्ति हेतु का असाधारण रूप है किन्तु बौद्ध इसको न मानकर हेतु के १ . पक्षेसत्त्व, २. सपक्षेसत्त्व, ३. विपक्षाद्व्यावृत्ति ये तीन रूप मानता है, सो ठीक नहीं है क्योंकि कहीं-कहीं पर त्रैरूप्य के न होने पर अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु होता है और कहीं-कहीं पर एक त्रैरूप्य के होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता। जैसे मुहूर्त के अनन्तर शकट का उदय होगा क्योंकि अभी कृतिका का उदय है। यहाँ पर पक्षेसत्त्व न होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु है और ‘गर्भस्थ पुत्र श्याम होगा' क्योंकि यह मित्र का पुत्र है। यहाँ पर त्रैरूप्य के रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता।
    पात्रकेसरी ने जब पद्मावती को देखा तब ही उनकी श्रद्धा जैनधर्म में खूब दृढ़ हो गई थी, जो कि सुख देने वाली और संसार के परिवर्तन का नाश करने वाली है। पश्चात् जब वे प्रातःकाल जिनमन्दिर गए और श्रीपार्श्वनाथ की प्रतिमा पर उन्हें अनुमान प्रमाण का लक्षण लिखा हुआ मिला तब तो उनके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा। उसे देखकर उनका सब सन्देह दूर हो गया। जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥ ३७-३९॥
    इसके बाद ब्राह्मण-प्रधान, पुण्यात्मा और जिनधर्म के परम श्रद्धालु पात्रकेसरी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने हृदय में निश्चय कर लिया कि भगवान् ही निर्दोष और संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाले देव हो सकते हैं और जिनधर्म ही दोनों लोक में सुख देने वाला धर्म हो सकता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें सम्यक्त्वरूपी परम रत्न की प्राप्ति हो गई, उससे उनका मन बहुत प्रसन्न रहने लगा ॥४०-४२॥
    अब उन्हें निरंतर जिनधर्म के तत्त्वों की मीमांसा के सिवा कुछ न सूझने लगा-वे उनके विचार में मग्न रहने लगे। उनकी यह हालत देखकर उनसे ब्राह्मणों ने पूछा- आज कल हम देखते हैं कि आपने मीमांसा, गौतमन्याय, वेदान्त आदि का पठन-पाठन बिल्कुल ही छोड़ दिया है और उनकी जगह जिनधर्म के तत्त्वों का ही आप विचार किया करते हैं, यह क्यों? सुनकर पात्रकेसरी ने उत्तर दिया-आप लोगों को अपने वेदों का अभिमान है, उस पर ही आपका विश्वास है, इसलिए आपकी दृष्टि सत्य बात की ओर नहीं जाती पर मेरा विश्वास आपसे उल्टा है, मुझे वेदों पर विश्वास न होकर जैनधर्म पर विश्वास है, वही मुझे संसार में सर्वोत्तम धर्म दिखता है । मैं आप लोगों से भी आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि आप विद्वान् हैं, सच झूठ की परीक्षा कर सकते हैं, इसलिए जो मिथ्या हो, झूठा हो, उसे छोड़कर सत्य को ग्रहण कीजिए और ऐसा सत्यधर्म एक जिनधर्म ही हैं; इसलिए वह ग्रहण करने योग्य है ॥४३-४६॥
    पात्रकेसरी के इस उत्तर से उन ब्राह्मणों को सन्तोष नहीं हुआ। वे इसके विपरीत उनसे शास्त्रार्थ करने को तैयार हो गए। राजा के पास जाकर उन्होंने पात्रकेसरी के साथ शास्त्रार्थ करने की प्रार्थना की। राजाज्ञा के अनुसार पात्रकेसरी राजसभा में बुलवाए गए। उनका शास्त्रार्थ हुआ। उन्होंने वहाँ सब ब्राह्मणों को पराजित कर संसार पूज्य और प्राणियों को सुख देने वाले जिनधर्म का खूब प्रभाव प्रकट किया और सम्यग्दर्शन की महिमा प्रकाशित की ॥४७-४८॥
    उन्होंने एक जिनस्तोत्र बनाया, उसमें जिनधर्म के तत्त्वों का विवेचन और अन्यमतों के तत्त्वों का बड़े पाण्डित्य के साथ खण्डन किया गया है। उसका पठन-पाठन सबके लिए सुख का कारण है। पात्रकेसरी के श्रेष्ठ गुणों और अच्छे विद्वानों द्वारा उनका आदर सम्मान देखकर अवनिपाल राजा ने तथा उन ब्राह्मणों ने मिथ्यामत को छोड़कर शुभ भावों के साथ जैनमत को ग्रहण कर लिया ॥४९-५१॥
    इस प्रकार पात्रकेसरी के उपदेश से संसार समुद्र से पार करने वाले सम्यग्दर्शन को और स्वर्ग तथा मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म को स्वीकार कर अवनिपाल आदि ने पात्रकेसरी की बड़ी श्रद्धा के साथ प्रशंसा की, कि द्विजोत्तम, तुमने जैनधर्म को बड़े पाण्डित्य के साथ खोज निकाला है, तुम्हीं ने जिन भगवान् के उपदेशित तत्त्वों के मर्म को अच्छी तरह समझा है, तुम ही जिन भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने वाले सच्चे भ्रमर हो, तुम्हारी जितनी स्तुति की जाये थोड़ी है । इस प्रकार पात्रकेसरी के गुणों और पाण्डित्य की हृदय से प्रशंसा करके उन सबने उनका बड़ा आदर सम्मान किया ॥५२-५४॥
    जिस प्रकार पात्रकेसरी ने सुख के कारण, परम पवित्र सम्यग्दर्शन का उद्योतकर उसका संसार में प्रकाशकर राजाओं के द्वारा सम्मान प्राप्त किया, उसी प्रकार और भी जो जिनधर्म का श्रद्धानी होकर भक्तिपूर्वक सम्यग्दर्शन का उद्योत करेगा, वह भी यशस्वी बनकर अंत में स्वर्ग या मोक्ष का पात्र होगा ॥५५॥
    कुन्दपुष्प, चन्द्र आदि के समान निर्मल और कीर्ति युक्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की आम्नाय में श्री मल्लिभूषण भट्टारक हुए। श्रुतसागर उनके गुरुभाई हैं । उन्हीं की आज्ञा से मैंने यह कथा श्री सिंहनन्दी मुनि के पास रहकर बनाई है। वह इसलिए कि इसके द्वारा मुझे सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो ॥५६॥
  12. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    संसार के बन्धु और देवों द्वारा पूज्य श्रीजिनेन्द्रदेव को नमस्कार कर झूठ बोलने से नष्ट होने वाले वसुराजा का चरित्र मैं लिखता हूँ ॥१॥
    स्वस्तिकावती नाम की एक सुन्दर नगरी थी । उसके राजा का नाम विश्वावसु था । विश्वावसु की रानी श्रीमती थी । उसके एक वसु नाम का पुत्र था ॥२॥
    वहीं एक क्षीरकदम्ब नामक उपाध्याय रहता था । वह बड़ा सुचरित्र और सरल स्वभावी था। जिनभगवान् का वह भक्त था और होम, शान्तिविधान आदि जैन क्रियाओं द्वारा गृहस्थों के लिए शान्ति-सुखार्थ अनुष्ठान करना उसका काम था । उसकी स्त्री का नाम स्वस्तिमती था। उसे पर्वत नाम का एक पुत्र था। भाग्य से वह पापी और दुर्व्यसनी हुआ । कर्मों की कैसी विचित्र स्थिति है पिता तो कितना धर्मात्मा और सरल और उसका पुत्र दुराचारी। इसी समय एक विदेशी ब्राह्मण नारद, जो कि निरभिमानी और सच्चा जिनभक्त था, क्षीरकदम्ब के पास पढ़ने के लिए आया । राजकुमार वसु, पर्वत और नारद ये तीनों एक साथ पढ़ने लगे । वसु और नारद की बुद्धि अच्छी थी, सो वे थोड़े ही समय में अच्छे विद्वान् हो गए । रहा पर्वत सो एक तो उसकी बुद्धि ही खराब और पाप के उदय से उसे कुछ नहीं आता जाता था। अपने पुत्र की यह हालत देखकर उसकी माता ने एक दिन अपने पति से गुस्सा होकर कहा-जान पड़ता है, आप बाहर के लड़कों को तो अच्छी तरह पढ़ाते हैं और खास अपने पुत्र पर आपका ध्यान नहीं है, उसे आप अच्छी तरह नहीं पढ़ाते । इसीलिए उसे इतने दिन तक पढ़ते रहने पर भी कुछ नहीं आया । क्षीरकदम्ब ने कहा- इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है । मैं तो सबके साथ एक सा श्रम करता हूँ। तुम्हारा पुत्र ही मूर्ख है, पापी है, वह कुछ समझता ही नहीं । बोलो, अब इसके लिए मैं क्या करूँ? स्वस्तिमती को इस बात पर विश्वास हो, इसलिए उसने तीनों शिष्यों को बुलाकर कहा- पुत्रों, देखो तुम्हें यह एक-एक पाई दी जाती है, इसे लेकर तुम बाजार जाओ; और अपने बुद्धिबल से इसके द्वारा चने लेकर खा आओ और पाई पीछे वापस भी लौटा लाओ। तीनों गए ॥३-१२॥
    उनमें पर्वत एक जगह से चने मोल लेकर और वहीं खा पीकर सूने हाथ घर लौट आया। अब रहे वसु और नारद, सो इन्होंने पहले तो चने मोल लिए और फिर उन्हें इधर-उधर घूमकर बेचा, जब उनकी पाई वसूल हो गई तब बाकी बचे चनों को खाकर वे लौट आए । आकर उन्होंने गुरुजी को अमानत वापस सौंप दी। इसके बाद क्षीरकदम्ब ने एक दिन तीनों को आटे के बने हुए तीन बकरे देकर उनसे कहा-देखो, इन्हें ले जाकर और जहाँ कोई न देख पाए ऐसे एकान्त स्थान में इनके कानों को छेद लाओ। गुरु की आज्ञानुसार तीनों फिर इस नये काम के लिए गए। पर्वत ने तो एक जंगल में जाकर बकरे का कान छेद डाला । वसु और नारद बहुत जगह गए, सर्वत्र उन्होंने एकान्त स्थान ढूँढ डाला, पर उन्हें कहीं उनके मन योग्य स्थान नहीं मिला अथवा यों कहिए कि उनके विचारानुसार एकान्त स्थान कोई था ही नहीं। वे जहाँ पहुँचते और मन में विचार करते वहीं उन्हें चन्द्र, सूर्य, तारा, देव, व्यन्तर, पशु, पक्षी और अवधिज्ञानी मुनि आदि जान पड़ते । वे उस समय यह विचार कर, कि ऐसा कोई स्थान ही नहीं जहाँ कोई न देखता हो, वापस घर लौट आए। उन्होंने उन बकरों के कानों को नहीं छेदा । आकर उन्होंने गुरुजी को नमस्कार किया और अपना सब हाल उनसे कह सुनाया। सच है-बुद्धि कर्म के अनुसार ही हुआ करती है । उनकी बुद्धि की इस प्रकार चतुरता देखकर उपाध्याय जी ने अपनी प्रिया से कहा-क्यों देखी सबकी बुद्धि और चतुरता ? अब कहा, दोष मेरा या पर्वत के भाग्य का? ॥१३-२२॥
    एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उपाध्याय ने उसे बहुत मारा। उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़कर वसु को बचा लिया। वसु ने अपनी बचाने वाली गुरु माता से कहा-माता, तुमने मुझे बचाया इससे मैं बड़ा उपकृत हुआ । कहिए तुम्हें क्या चाहिए? वहीं लाकर मैं तुम्हें प्रदान करूँ । स्वस्तिमती ने उत्तर में राजकुमार से कहा- पुत्र, इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब होगी तब मागूँगी । तू मेरे इस वर को अभी अपने ही पास रख ॥२३-२४॥
    एक दिन क्षीरकदम्ब के मन में प्रकृति की शोभा देखने के लिए उत्कंठा हुई वह अपने साथ तीनों शिष्यों को भी इसलिए लिवा ले गया कि उन्हें वहीं पाठ भी पढ़ा दूँगा । वह एक सुन्दर बगीचे में पहुँचा। वहाँ कोई अच्छा पवित्र स्थान देखकर वह अपने शिष्यों को बृहदारण्य का पाठ पढ़ाने लगा। वहीं पर दो ऋद्धिधारी महामुनि स्वाध्याय कर रहे थे । उनमें से छोटे मुनि ने क्षीरकदम्ब को पाठ पढ़ाते देखकर बड़े मुनिराज से कहा-प्रभो, देखिए कैसे पवित्र स्थान में उपाध्याय अपने शिष्यों को पढ़ा रहे है। गुरु ने कहा-अच्छा है, पर देखो, इनमें से दो तो पुण्यात्मा है और वे स्वर्ग में जाएँगे और दो पाप के उदय से नरकों के दुःख सहेंगे। सच है - ॥२५-३०॥
    कर्मों के उदय से जीवों को सुख या दुःख भोगना ही पड़ता है। मुनि के वचन क्षीरकदम्ब ने सुन लिए। वह अपने विद्यार्थियों को घर भेजकर मुनिराज के पास गया। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा- हे भगवन्! हे जैन सिद्धान्त के उत्तम विद्वान्! कृपाकर मुझे कहिए कि हममें से कौन दो स्वर्ग जाकर सुखी होंगे और कौन दो नरक जाएँगे? काम के शत्रु मुनिराज ने क्षीरकदम्ब से कहा- भव्य, स्वर्ग जाने वालों में एक तो तू जिनभक्त और दूसरा धर्मात्मा नारद है और वसु तथा पर्वत पाप के उदय से नरक जाएँगे। क्षीरकदम्ब मुनिराज को नमस्कार कर अपने घर आया। उसे इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि उसका पुत्र नरक में जायेगा क्योंकि मुनियों का कहा अनन्तकाल में भी झूठा नहीं होता ॥३१-३६॥
    एक दिन कोई ऐसा कारण देख पड़ा, जिससे वसु के पिता विश्वावसु अपना राज-काज वसु को सौंपकर आप साधु हो गए। राज्य अब वसु करने लगा। एक दिन वसु वन-विहार के लिए उपवन में गया हुआ था। वहाँ उसने आकाश से लुढ़क कर गिरते हुए एक पक्षी को देखा। देखकर उसे आश्चर्य हुआ। उसने सोचा पक्षी के लुढ़कते हुए गिरने का कोई कारण यहाँ अवश्य होना चाहिए। उसकी शोध लगाने को जिधर से पक्षी गिरा था उधर ही लक्ष्य बाँधकर उसने बाण छोड़ा । उसका लक्ष्य व्यर्थ न गया । यद्यपि उसे यह नहीं जान पड़ा कि क्या गिरा, पर इतना उसे विश्वास हो गया कि उसके बाण के साथ ही कोई भारी वस्तु गिरी जरूर है । जिधर से किसी वस्तु के गिरने की आवाज उसे सुनाई पड़ी थी वह उधर ही गया पर तब भी उसे कुछ नहीं देख पड़ा। यह देख उसने उस भाग को हाथों से टटोलना शुरू किया। हस्तस्पर्श से उसे बहुत निर्मल खम्भा, जो कि स्फटिकमणि का बना था, जान पड़ा । वसुराजा उसे गुप्तरीति से अपने महल पर ले आया। वसु ने उस खम्भे के चार पाए बनवाएँ और उन्हें अपने न्याय-सिंहासन में लगवा दिये। उन पायों के लगने से सिंहासन ऐसा जान पड़ने लगा मानों वह आकाश में ठहरा हुआ हो । वसु अब उसी पर बैठकर राज्यशासन करने लगा। उसने सब जगह यह प्रकट कर दिया कि “राजा वसु बड़ा ही सत्यवादी है, उसकी सत्यता के प्रभाव से उसका न्याय- सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है।" इस प्रकार कपट की आड़ में वह सर्वसाधारण के बहुत ही आदर का पात्र हो गया। सच है- ॥३७-४४॥
    मायावी पुरुष संसार में क्या ठगाई नहीं करते ! इधर सम्यग्दृष्टि, जिनभक्त क्षीरकदम्ब संसार से विरक्त होकर तपस्वी हो गया और अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर अन्त में समाधिमरण द्वारा उसने स्वर्ग लाभ लिया। पिता का उपाध्याय पद अब पर्वत को मिला । पर्वत की जितनी बुद्धि थी, जितना ज्ञान था, उसके अनुकूल वह पिता के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगा। उसी वृत्ति के द्वारा उसका निर्वाह होता था। क्षीरकदम्ब के साधु हुए बाद ही नारद भी वहाँ से कहीं अन्यत्र चल दिया। वर्षों तक नारद विदेशों में घूमा, घूमते फिरते वह फिर भी एक बार स्वस्तिपुरी की ओर आ निकला। वह अपने सहाध्यायी और गुरुपुत्र पर्वत से मिलने को गया । पर्वत उस समय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था। साधारण कुशल प्रश्न के बाद नारद वहीं बैठ गया और पर्वत का अध्यापन कार्य देखने लगा। प्रकरण कर्मकाण्ड का था। वहाँ एक श्रुति थी- " अजैर्यष्टव्यमिति ।” दुराग्रही पापी पर्वत ने उसका अर्थ किया कि‘“ अजैश्छागैः प्रयष्टव्यमिति” अर्थात् बकरों की बलि देकर होम करना चाहिए। उसमें बाधा देकर नारद ने कहा-नहीं, इस श्रुति का यह अर्थ नहीं है । गुरुजी ने तो हमें इसका अर्थ बतलाया था कि‘अजैस्त्रिवार्षिकैर्धान्यैः प्रयष्टव्यम्' अर्थात्-तीन वर्ष के पुराने धान से, जिसमें उत्पन्न होने की शक्ति न हो, होम करना चाहिए। तू यह क्या अनर्थ करता है जो उलटा ही अर्थ कर दिया? उस पर पापी पर्वत ने दुराग्रह के वश हो यही कहा कि नहीं तुम्हारा कहना सर्वथा मिथ्या है। असल में ‘अज' शब्द का अर्थ बकरा होता है और उसी से होम करना चाहिए। ठीक कहा है-जिसे दुर्गति में जाना होता है, वही पुरुष जानकर भी ऐसा झूठ बोलता है ॥४५-५३॥
    तब दोनों में सच्चा कौन है, इसके निर्णय के लिए उन्होंने राजा वसु को मध्यस्थ चुना। उन्होंने परस्पर में प्रतिज्ञा की कि जिसका कहना झूठ हो उसकी जबान काट दी जाए । पर्वत की माँ को जब इस विवाद का और परस्पर की प्रतिज्ञा का हाल मालूम हुआ तब उसने पर्वत को बुलाकर बहुत डाँटा और गुस्से में आकर कहा- पापी, तूने यह क्या अनर्थ किया? क्यों उस श्रुति का उलटा अर्थ किया? तुझे नहीं मालूम कि तेरा पिता जैनधर्म का पूर्ण श्रद्धानी था और वह ' अजैर्यष्टव्यम्' इसका अर्थ तीन वर्ष के पुराने धान से होम करने को कहता था और स्वयं भी वह पुराने धान ही से सदा होमादिक किया करता था। स्वस्तिमती ने उसे और भी बहुत फटकारा, पर उसका फल कुछ नहीं निकला। पर्वत अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ बना रहा । पुत्र का इस प्रकार दुराग्रह देखकर वह अधीर हो उठी। एक ओर पुत्र के अन्याय पक्ष का समर्थन होकर सत्य की हत्या होती है और दूसरी ओर पुत्र - प्रेम उसे अपने कर्तव्य से विचलित करता है। अब वह क्या करे ? पुत्र - प्रेम में फँसकर सत्य की हत्या करे या उसकी रक्षा कर अपना कर्तव्य पालन करे? वे बड़े संकट में पड़ी । आखिर दोनों शक्तियों का युद्ध होकर पुत्र-प्रेम ने विजय प्राप्त कर उसे अपने कर्तव्य पथ से गिरा दिया, सत्य की हत्या करने को उसे सन्नद्ध किया। वह उसी समय वसु के पास पहुँची और उससे बोली- पुत्र, तुम्हें याद होगा कि मेरा एक वर तुमसे पाना बाकी है। आज उसकी मुझे जरूरत पड़ी है। इसलिए अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह कर मुझे कृतार्थ करो । बात यह है पर्वत और नारद का किसी विषय पर झगड़ा हो गया है। उसके निर्णय के लिए उन्होंने तुम्हें मध्यस्थ चुना है। इसलिए मैं तुम्हें कहने को आई हूँ कि तुम पर्वत के पक्ष का समर्थन करना। सच है- ॥५४-५८॥
    जो स्वयं पापी होते हैं वे दूसरों को भी पापी बना डालते हैं। जैसे सर्प जहरीला होता है और जिसे काटता है उसे भी विषयुक्त कर देता है । पापियों का यह स्वभाव ही होता है ॥५९॥
    राजसभा लगी हुई थी। बड़े-बड़े कर्मचारी यथास्थान बैठे हुए थे । राजा वसु भी एक बहुत सुन्दर रत्न-जड़े सिंहासन पर बैठा हुआ था। इतने में पर्वत और नारद अपना न्याय कराने के लिए राजसभा में आए। दोनों ने अपना-अपना कथन सुनाकर अन्त में किसका कहना सत्य है और गुरुजी ने अपने को ‘“ अजैर्यष्टव्यम्” इसका क्या अर्थ समझाया था, इसका खुलासा करने का भार वसु पर छोड़ दिया। वसु उक्त वाक्य का ठीक अर्थ जानता था और यदि वह चाहता तो सत्य की रक्षा कर सकता था, पर उसे अपनी गुराणी जी के माँगे हुए वर ने सत्यमार्ग से ढकेल कर आग्रही और पक्षपाती बना दिया। मिथ्या आग्रह के वश हो उसने अपनी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा की कुछ परवाह न कर नारद के विरुद्ध फैसला दिया । उसने कहा कि जो पर्वत कहता है वही सत्य है और गुरुजी ने हमें ऐसा ही समझाया था कि‘‘अजैर्यष्टव्यम्” इसका अर्थ बकरों को मारकर उनसे होम करना चाहिए। प्रकृति को उसका यह महा अन्याय सहन नहीं हुआ । उसका परिणाम यह हुआ कि राजा वसु जिस स्फटिक के सिंहासन पर बैठकर प्रतिदिन राजकार्य करता था और लोगों को यह कहा करता था कि मेरे सत्य के प्रभाव से मेरा सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है, वही सिंहासन वसु की असत्यता से टूट पड़ा और पृथ्वी में घुस गया। उसके साथ ही वसु भी पृथ्वी में जा धँसा। यह देख नारद ने उसे समझाया- महाराज, अब भी सत्य- सत्य कह दीजिए, गुरुजी ने जैसा अर्थ कहा था वह प्रकट कर दीजिए। अभी कुछ नहीं गया । सत्यव्रत आपकी इस संकट से अवश्य रक्षा करेगा। कुगति में व्यर्थ अपने आत्मा को न ले जाइए। अपनी इस दुर्दशा पर भी वसु को दया नहीं आयी । वह और जोश में आकर बोला-नहीं, जो पर्वत कहता है वही सत्य है। उसका इतना कहना था कि उसके पाप के उदय ने उसे पृथ्वीतल में पहुँचा दिया। वसु काल के सुपुर्द हुआ। मरकर वह सातवें नरक में गया । सच है जिसका हृदय दुष्ट और पापी होता है उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और अन्त में उन्हें कुगति में जाना पड़ता है। इसलिए जो अच्छे पुरुष हैं और पाप से बचना चाहते हैं उन्हें प्राणों पर कष्ट आने पर भी कभी झूठ न बोलनाचाहिए। पर्वत की यह दुष्टता देखकर प्रजा के लोगों ने उसे गधे पर बैठा कर शहर से निकाल बाहर किया और नारद का बहुत आदर-सत्कार किया। नारद अब वहीं रहने लगा। वह बड़ा बुद्धिमान् और धर्मात्मा था। सब शास्त्रों में उसकी गति थी । वह वहाँ रहकर लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता, भगवान् की पूजा करता, पात्रों को दान देता। उसकी यह धर्मपरायणता देखकर वसु के बाद राज्य- सिंहासन पर बैठने वाला राजा उस पर बहुत खुश हुआ। उस खुशी में उसने नारद को गिरितट नामक नगरी का राज्य भेंट में दे दिया। नारद ने बहुत समय तक उस राज्य का सुख भोगा । अन्त में संसार से उदासीन होकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि होकर उसने अनेक जीवों को कल्याण के मार्ग में लगाया और तपस्या द्वारा पवित्र रत्नत्रय की आराधना कर आयु के अन्त में वह सर्वार्थसिद्धि गया, जो कि सर्वोत्तम सुख का स्थान है। सच है, जैनधर्म की कृपा से भव्य पुरुषों को क्या प्राप्त नहीं होता ॥६०-७१॥
    निरभिमानी नारद अपने धर्म पर बड़ा दृढ़ था । उसने समय-समय पर और धर्म वालों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की । यह जिनशासन रूप महान् समुद्र के बढ़ाने वाला चन्द्रमा था। ब्राह्मणवंश का एक चमकता हुआ रत्न था। अपनी सत्यता के प्रभाव से उसने बहुत सिद्धि प्राप्त कर ली थी । अन्त में वह तपस्या कर सर्वार्थसिद्धि गया । वह महात्मा नारद सबका कल्याण करे ॥७२॥
  13. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिनभगवान् के चरणों को, जो कि कल्याण के करने वाले हैं, नमस्कार कर श्रीमती नीली सुन्दरी की मैं कथा कहता हूँ। नीली ने चौथे अणुव्रत ब्रह्मचर्य की रक्षा कर प्रसिद्धि प्राप्त की है ॥१॥
    पवित्र भारतवर्ष में लाटदेश एक सुन्दर और प्रसिद्ध देश था । जिनधर्म का वहाँ खूब प्रचार था । वहाँ की प्रजा अपने धर्म कर्म पर बड़ी दृढ़ थी। इससे इस देश की शोभा को उस समय कोई देश नहीं पा सकता था। जिस समय की यह कथा है, तब उसकी प्रधान राजधानी भृगुकच्छ नगर था। वह नगर बहुत सुन्दर और सब प्रकार की योग्य और कीमती वस्तुओं से पूर्ण था । इसका राजा वसुपाल था और वह जिससे अपनी प्रजा सुखी हो, धनी हो, सदाचारी हो, दयालु हो इसके लिए कोई बात का कष्ट न हो इसका सदा प्रयत्नशील रहता था ॥२- ३॥
    यहीं एक सेठ रहता था। उसका नाम जिनदत्त था । जिनदत्त की शहर के सेठ साहूकारों में बड़ी इज्जत थीं वह धर्मशील और जिनभगवान् का भक्त था । दान, पूजा, स्वाध्याय आदि पुण्यकर्मों को वह सदा नियमानुसार किया करता था । उसकी धर्मप्रिया का नाम जिनदत्ता था। जैसा जिनदत्त धर्मात्मा और सदाचारी था, उसकी गुणवती साध्वी स्त्री भी उसी के अनुरूप थी और इसी से इनके दिन बड़े ही सुख के साथ बीतते थे। अपने गार्हस्थ्य सुख को स्वर्ग सुख से भी कहीं बढ़कर इन्होंने बना लिया था। जिनदत्ता बड़ी उदार प्रकृति की स्त्री थी । वह जिसे दुःखी देखती उसकी सब तरह सहायता करती और उनके साथ प्रेम करती। इसके सन्तान में केवल एक पुत्री थी । उसका नाम नीली था । अपने माता- पिता के अनुरूप ही इसमें गुण और सदाचार की सृष्टि हुई थी । जैसे सन्तों का स्वभाव पवित्र होता है, नीली भी उसी प्रकार बड़े पवित्र स्वभाव की थी ॥४-५॥
    इस नगर में एक और वैश्य रहता था उसका नाम समुद्रदत्त था। यह जैनी नहीं था । इसकी बुद्धि बुरे उपदेशों को सुन-सुनकर बड़ी मट्टी हो गई थी। अपने हित की ओर तो कभी इसकी दृष्टि नहीं जाती थी। इसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था। इसके एक पुत्र था। उसका नाम सागरदत्त था। सागरदत्त एक दिन अचानक जिनमन्दिर में पहुँच गया। इस समय नीली भगवान की पूजा कर रही थी। वह एक तो स्वभाव से ही बड़ी सुन्दरी थी । इस पर उसने अच्छे-अच्छे रत्न, जड़े गहने और बहुमूल्य वस्त्र पहन रखे थे। इससे उसकी सुन्दरता और भी बढ़ गई थी। वह देखने वालों को ऐसी जान पड़ती थी, मानों कोई स्वर्ग की देव-बाला भगवान् की खड़ी खड़ी पूजा कर रही है। सागरदत्त उसकी भुवनमोहिनी सुन्दरता को देखकर मुग्ध हो गया। काम ने उसके मन को बेचैन कर दिया। अपने पास ही खड़े हुए मित्र से कहा- यह है कौन? मुझे तो नहीं जान पड़ता कि यह मध्यलोक की बालिका हो । या तो यह कोई स्वर्ग-बाला है या नागकुमारी अथवा विद्याधर कन्या क्योंकि मनुष्यों में इतना सुन्दर रूप होना असम्भव है ॥६-९॥
    सागरदत्त के मित्र प्रियदत्त ने नीली का परिचय देते हुए कहा कि यह तुम्हारा भ्रम है, , जो ऐसा कहते हो कि ऐसी सुन्दरता मनुष्यों में नहीं हो सकती । तुम जिसे स्वर्ग-बाला समझ रहे हो वह न स्वर्ग-बाला है, न नागकुमारी और न किसी विद्याधर वगैरह की पुत्री है किन्तु मनुष्यनी है और अपने इसी शहर में रहने वाले जिनदत्त सेठ के कुल की एकमात्र प्रकाश करने वाली उसकी नीली नाम की कन्या है। अपने मित्र द्वारा नीली का हाल जानकर सागरदत्त आश्चर्य के मारे दंग रह गया। साथ ही काम ने उसके हृदय पर अपना पूरा अधिकार किया । वह घर पर आया सही, पर अपने मन को वह नीली के पास ही छोड़ आया। अब वह दिन-रात नीली की चिन्ता में घुल-घुलकर दुबला होने लगा । खाना-पीना उसके लिए कोई आवश्यक काम नहीं रहा सच है - जिस काम के वश होकर श्रीकृष्ण लक्ष्मी द्वारा, महादेव गंगा द्वारा और ब्रह्मा उर्वशी द्वारा अपना प्रभुत्व, ईश्वरपना खो चुके तब बेचारे साधारण लोगों की तो कथा ही क्या कही जाये ॥१०-११॥
    सागरदत्त की हालत उसके पिता को जान पड़ी । उसने एक दिन सागरदत्त से कहा- जिनदत्त जैनी है, वह कभी अपनी कन्या को अजैनी के साथ नहीं ब्याहेगा । इसलिए तुम्हें यह उचित नहीं कि तुम अप्राप्य वस्तु के लिए इस प्रकार तड़फ - तड़फ कर अपनी जान को जोखिम में डालों । तुम्हें यह अनुचित विचार छोड़ देना चाहिए। यह कहकर समुद्रदत्त ने पुत्र के उत्तर पाने की आशा से उसकी ओर देखा। पर जब सागरदत्त उसकी बात का कुछ भी जवाब न देकर नीची नजर किए ही बैठा रहा। तब समुद्रदत्त को निराश हो जाना पड़ा। उसने समझ लिया कि इसके दो ही उपाय हैं या तो पुत्र के जीवन की आशा से हाथ धो बैठना या किसी तरह सेठ की लड़की के साथ इसको ब्याह देना । पुत्र के जीने की आशा को छोड़ बैठने की अपेक्षा उसने किसी तरह नीली के साथ उसका ब्याह कर देना ही अच्छा समझा। सच है, सन्तान का मोह मनुष्य से सब कुछ करा सकता है। इस सम्बन्ध के लिए समुद्रदत्त के ध्यान में एक युक्ति आई। वह यह कि इस दशा में उसने अपना और पुत्र का जैनी बन जाना बहुत ही अच्छा समझा और वे बन भी गए। अब से वे मन्दिर जाने लगे, भगवान् की पूजा करने लगे, स्वाध्याय, व्रत, उपवास भी करने लगे। मतलब यह कि थोड़े ही दिनों में पिता-पुत्र ने अपने जैनी हो जाने का लोगों को विश्वास करा दिया और धीरे-धीरे जिनदत्त से भी इन्होंने अधिक परिचय बढ़ा लिया। बेचारा जिनदत्त सरल स्वभाव का था और इसीलिए वह सब को अपना जैसा ही सरल- स्वभावी समझता था। यही कारण हुआ कि समुद्रदत्त का चक्र उस पर चल गया। उसने सागरदत्त को अच्छा पढ़ा लिखा, खूबसूरत और अपनी पुत्री के योग्य वर समझकर नीली को उसके साथ ब्याह दिया। सागरदत्त का मनोरथ सिद्ध हुआ। उसे नया जीवन मिला। इसके बाद थोड़े दिनों तक तो पिता- पुत्र ने और अपने को ढोंगी वेष में रखा, पर फिर कोई प्रसंग लाकर वे पीछे बुद्ध धर्म के मानने वाले हो गए। सच है, मायाचारियों - पापियों की बुद्धि अच्छे धर्म पर स्थिर नहीं रहती। यह बात प्रसिद्ध है कि कुत्ते के पेट में घी नहीं ठहरता ॥१२-१६॥
    जब इन पिता-पुत्र ने जैनधर्म छोड़ा तब इन दुष्टों ने यहाँ तक अन्याय किया कि बेचारी नीली का उसके पिता के घर जाना-आना भी बन्द कर दिया। सच है, पापी लोग क्या नहीं करते ! जब जिनदत्त को इनके मायाचार का यह हाल जान पड़ा तब उसे बहुत पश्चाताप हुआ, बेहद दुःख हुआ वह सोचने लगा-क्यों मैंने अपनी प्यारी पुत्री को अपने हाथों से कुँए में ढकेल दिया? क्यों मैंने उसे काल के हाथ सौंप दिया ? सच है दुर्जनों की संगति से दुःख के सिवा कुछ हाथ नहीं पड़ता। नीचे जलती हुई अग्नि भी ऊपर की छत को काली कर देती है ॥१७- १९॥
    जिनदत्त ने जैसा किया उसका पश्चाताप उसे हुआ। पर इससे क्या नीली दुःखी हो? उसका यह धर्म था क्या? नहीं! उसे अपने भाग्य के अनुसार जो पति मिला, उसे ही वह अपना देवता समझती थी और उसकी सेवा में कभी रत्तीभर भी कमी नहीं होने देती थी। उसका प्रेम पवित्र और आदर्श था। यही कारण था कि वह अपने प्राणनाथ की अत्यन्त प्रेमपात्र थी । विशेष इतना था कि नीली ने बुद्ध धर्म के मानने वालों के यहाँ आकर भी जिनधर्म को न छोड़ा था । वह बराबर भगवान् की पूजा, शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, उपवास आदि पुण्यकर्म करती थी, धर्मात्माओं से निष्कपट प्रेम करती थी और पात्रों को दान देती थी। मतलब यह कि अपने धर्म-कर्म में उसे खूब श्रद्धा थी और भक्तिपूर्वक वह उसे पालती थी। पर खेद है कि समुद्रदत्त की आँखों में नीली का यह कार्य भी खटका करता था। उसकी इच्छा थी कि नीली भी हमारा ही धर्म पालने लगे और इसके लिए उसने यह सोचकर, कि बुद्ध साधुओं की संगति से या दर्शन से या उनके उपदेश से यह अवश्य बुद्ध धर्म को मानने लगेगी। एक दिन नीली से कहा-पुत्री, तू पात्रों को तो सदा दान दिया करती है, तब एक दिन अपने धर्म के अनुसार बुद्ध साधुओं को भी तो दान दे ॥२०-२४॥
    नीली ने श्वसुर की बात मान ली। पर उसे जिनधर्म के साथ उनकी यह ईर्ष्या ठीक नहीं लगी और इसीलिए उसने कोई उपाय भी अपने मन में सोच लिया, जिससे फिर कभी उससे ऐसा मिथ्या आग्रह करके उसके धर्म पालन में किसी प्रकार की बाधा न दी जाए। फिर कुछ दिनों बाद उसने मौका देखकर कुछ बुद्ध साधुओं को भोजन के लिए बुलाया। वे आए। उनका आदर-सत्कार भी हुआ। वे एक अच्छे सुन्दर कमरे में बैठाये गए। इधर नीली ने उनके जूतों को एक दासी द्वारा मँगवा लिया और उनका खूब बारीक बूरा बनवाकर उसके द्वारा एक किस्म की बहुत ही बढ़िया मिठाई तैयार करवाई इससे जब वे साधु भोजन करने को बैठे तब और-और व्यंजन-मिठाइयों के साथ वह मिठाई भी उन्हें परोसी गई सब ने उसे बहुत पसन्द किया । भोजन समाप्त हुए बाद जब जाने की तैयारी हुई, तब वे देखते हैं तो जूता नहीं हैं। उन्होंने पूछा-जूते कहाँ गए ? भीतर से नीली ने आकर कहा-महाराज, सुनती हूँ, साधु लोग बड़े ज्ञानी होते हैं? तब क्या आप अपने जूतों का हाल नहीं जानते हैं? और यदि आपको इतना ज्ञान नहीं तो मैं बतला देती हूँ कि जूते आपके पेट में हैं। विश्वास के लिए आप उल्टी कर देखें। नीली की बात सुनकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने उल्टी करके देखा तो उन्हें जूतों के छोटे-छोटे बहुत से टुकड़े दीख पड़े। इससे उन्हें बहुत लज्जित होकर अपने स्थान पर आना पड़ा ॥२५-२८॥
    नीली की इस कार्यवाही से, अपने गुरुओं के अपमान से समुद्रदत्त, नीली की सासू, ननद आदि को बहुत ही गुस्सा आया । पर भूल उनकी जो नीली द्वारा उसके धर्मविरुद्ध कार्य उन्होंने करवाना चाहा। इसलिए वे अपना मन मसोस कर रह गए, नीली से वे कुछ नहीं कह सके । पर नीली की ननद को इससे संतोष नहीं हुआ। उसने कोई ऐसा ही छल-कपट कर नीली के माथे व्यभिचार का दोष मढ़ दिया । सच है, सत्पुरुषों पर किसी प्रकार का ऐब लगा देने में पापियों को तनिक भी भय नहीं रहता । बेचारी नीली अपने पर झूठ-मूठ महान् कलंक लगा सुनकर बड़ी दुःखी हुई। उसे कलंकित होकर जीते रहने से मर जाना ही उत्तम जान पड़ा। वह उसी समय जिनमन्दिर में गई और भगवान् के सामने खड़ी होकर उसने प्रतिज्ञा की, कि मैं इस कलंक से मुक्त होकर ही भोजन करूँगी, इसके अतिरिक्त मुझे इस जीवन में अन्न - पानी का त्याग है । इस प्रकार वह संन्यास लेकर भगवान् के सामने खड़ी हुई उनका ध्यान करने लगी। इस समय उसकी ध्यान मुद्रा देखने के योग्य थी। वह ऐसी जान पड़ती थी मानों सुमेरु पर्वत की स्थिर और सुन्दर जैसी चूलिका हो। सच है, उत्तम पुरुषों को सुख या दुःख में जिनेन्द्र भगवान् ही शरण होते हैं, जो अनेक प्रकार की आपत्तियों के नष्ट करने वाले और इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य हैं ॥२९-३३॥
    नीली की इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञा और उसके निर्दोष शील के प्रभाव से पुरदेवी का आसन हिल गया। वह रात के समय नीली के पास आई और बोली- सतियों की शिरोमणि, तुझे इस प्रकार निराहार रहकर प्राणों को कष्ट में डालना उचित नहीं । सुन, मैं आज शहर के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों को तथा राजा को एक स्वप्न देकर शहर के सब दरवाजे बन्द कर दूँगी । वे तब खुलेंगे जब कि उन्हें कोई शहर की महासती अपने पाँवों से छुएगी । सो जब तुझे राजकर्मचारी यहाँ से उठाकर ले जाय तब तू उनका स्पर्श करना। तेरे पाँव के लगते ही दरवाजे खुल जायेंगे और तू कलंक मुक्त होगी । यह कहकर पुरदेवी चली गई और सब दरवाजों को बन्द कर उसने राजा वगैरह को स्वप्न दिया ॥३४-३८॥
    सबेरा हुआ। कोई घूमने के लिए, कोई स्नान के लिए और कोई किसी काम के लिए शहर के बाहर जाने लगे। जाकर देखते हैं तो शहर से बाहर होने के सब दरवाजे बन्द हैं। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। बहुत कुछ कोशिशें की गई; पर एक भी दरवाजा नहीं खुला। सारे शहर में शोर मच गया। बात ही बात में राजा के पास खबर पहुँची। इस खबर के पहुँचते ही राजा को रात में आए हुए स्वप्न की याद हो उठी। उसी समय एक बड़ी भारी सभा बुलाई गई राजा ने सबको अपने स्वप्न का हाल कह सुनाया। शहर के कुछ प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी अपने को ऐसा ही स्वप्न आया बतलाया। आखिर सब की सम्मति से स्वप्न के अनुसार दरवाजों का खोलना निश्चित किया गया। शहर की स्त्रियाँ दरवाजों का स्पर्श करने को भेजी गई सबने उन्हें पाँवों से छुआ, पर दरवाजों को कोई नहीं खोल सकी। तब किसी ने, जो कि नीली के संन्यास का हाल जानता था, नीली को उठा ले जाकर उसके पावों को स्पर्श करवाया। दरवाजे खुल गए। जैसे वैद्य सलाई के द्वारा आँखों को खोल देता है उसी तरह नीली ने अपने चरणस्पर्श से दरवाजों को खोल दिया। नीली के शील की बहुत प्रशंसा हुई। नीली कलंक मुक्त हुई। उसके अखण्ड शीलप्रभाव को देखकर लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजा तथा शहर के और प्रतिष्ठित पुरुषों ने बहुमूल्य वस्त्राभूषणों द्वारा नीली का खूब सत्कार किया और इस शब्दों में उसकी प्रशंसा की ‘“हे जिनभगवान् के चरणकमलों की भौंरी, तुम खूब फलो, फूलो माता, तुम्हारे शील का माहात्म्य कौन कह सकता है।" सती नीली अपने धर्म पर दृढ़ रही, उससे उसकी बड़े-बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों ने प्रशंसा की। इसलिए सर्वसाधारण को भी सती नीली का पथ ग्रहण करना चाहिए ॥३९-४५॥
    जिनके वचन सारे संसार का उपकार करने वाले हैं, जो स्वर्ग के देवों और बड़े-बड़े राजा महाराजाओं से पूज्य हैं और जिनका किया हुआ उपदेश पवित्र शील-ब्रह्मचर्य स्वर्ग तथा परम्परा मोक्ष का देने वाला है, वे जिनभगवान् संसार में सदा काल रहें और उनके द्वारा कर्म - परवश जीवों को कर्म पर विचार प्राप्त करने का पवित्र उपदेश सदा मिलता रहे ॥४६॥
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    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिनेन्द्र भगवान् को, जो कि सारे संसार द्वारा पूज्य हैं और सबसे उत्तम गिनी जाने वाली जिनवाणी तथा गुरुओं को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर परिग्रह के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    मणिवत देश में मणिवत नाम का एक शहर था। उसके राजा का नाम भी मणिवत था। मणिवत की रानी पृथ्विीमति थी। इसके मणिचन्द्र नाम एक पुत्र था। मणिवत विद्वान्, बुद्धिमान् और अच्छा शूरवीर था । राजकाज में उसकी बहुत अच्छी गति थी ॥२-३॥
    राजा पुण्योदय से राजकाज योग्यता के साथ चलाते हुए सुख से अपना समय बिताते थे । धर्म पर उनकी पूरी श्रद्धा थी वे सुपात्रों को प्रतिदिन दान देते, भगवान् की पूजा करते और दूसरों की भलाई करने में भरसक यत्न करते। एक दिन रानी पृथ्वीमति महाराज के बालों को सँवार रही थीं कि उनकी  नजर एक सफेद बाल पर पड़ी। रानी ने उसे निकालकर राजा के हाथ में रख दिया। राजा उस सफेद बाल को काल का भेजा दूत समझ कर संसार और विषयभोगों से बड़े विरक्त हो गए। उन्होंने अपने मणिचन्द्र पुत्र को राज्य का सब कारोबार सौंप दिया और आप भगवान् की पूजा, अभिषेक कर तथा याचकों को दान दे जंगल की ओर रवाना हो गए और दीक्षा लेकर तपस्या करने लगे। वे अब दिनों-दिन आत्मा को पवित्र बनाते हुए परमात्म-स्मरण में लीन रहने लगे ॥४-९॥
    मणिवत मुनि नाना देशों में धर्मोपदेश करते हुए एक दिन उज्जैन के बाहर श्मसान में आए। रात के समय वे मृतक शय्या द्वारा ध्यान करते हुए शान्ति के लिए परमात्मा का स्मरण-चिन्तन कर रहे थे। इतने में वहाँ एक कापालिक बैताली विद्या साधने के लिए आया । उसे चूल्हा बनाने के लिए तीन मुर्दों की जरूरत पड़ी। सो एक तो उसने मुनि को समझ लिया और दो मुर्दों को वह और घसीट लाया। उन तीनों के सिर पर चूल्हा बनाकर उस पर उसने एक कपाल रखा और आग सुलगाकर कुछ नैवेद्य पकाने लगा। थोड़ी देर बाद जब आग जोर से चेती और मुनि की नसें जलने लगीं तब एकदम मुनि का हाथ ऊपर की ओर उठ जाने से सिर पर का कपाल गिर पड़ा । कापालिक उससे डर कर भागकर खड़ा हुआ। मुनिराज मेरु समान वैसे के वैसे ही अचल बने रहे । सबेरा होने पर किसी आते-जाते मनुष्य ने मुनि की यह दशा देख जिनदत्त को यह हाल सुनाया । जिनदत्त उसी समय दौड़ा-दौड़ा श्मसान में गया। मुनि की दशा देखकर उसे बेहद दुःख हुआ। मुनि को अपने घर पर लाकर उसने एक प्रसिद्ध वैद्य से उनके इलाज के लिए पूछा । वैद्य महाशय ने कहा- सोमशर्मा भट्ट के यहाँ लक्षपाक नाम का बहुत ही अच्छा तैल है, उसे लाकर लगाओ। उससे बहुत जल्दी आराम होगा, आग का जला उससे फौरन आराम होता है। सेठ सोमशर्मा के घर दौड़ा हुआ गया। घर पर भट्ट महाशय नहीं थे, इसलिए उसने उनकी तुंकारी नाम की स्त्री से तैल के लिए प्रार्थना की । तैल के कई घड़े उसके यहाँ भरे रखे थे । तुंकारी ने उनमें से एक घड़ा ले जाने को जिनदत्त से कहा। जिनदत्त ऊपर जाकर एक घड़ा उठाकर लाने लगा । भाग्य से सीढ़ियाँ उतरते समय पाँव फिसल जाने से घड़ा उसके हाथों से छूट पड़ा। घड़ा फूट गया और तैल सब रेलम-ठेल हो गया। जिनदत्त को इससे बहुत भय हुआ। उसने डरते-डरते घड़े के फूट जाने का हाल तुकारी से कहा । तब तुंकारी ने दूसरा घड़ा ले आने को कहा। उसे पहले घड़े के फूट जाने का कुछ भी ख्याल नहीं हुआ। सच है- सज्जनों का हृदय समुद्र से भी कहीं अधिक गम्भीर हुआ करता है । जिनदत्त दूसरा घड़ा लेकर आ रहा था। अब की बार तैल से चिकनी जगह पर पाँव पड़ जाने से फिर भी वह फिसल गया और घड़ा फूटकर उसका सब तैल बह गया। इसी तरह तीसरा घड़ा भी फूट गया । अब तो जिनदत्त के देवता कूँच कर गए। भय के मारे वह थर-थर काँपने लगा । उसकी यह दशा देखकर तुंकारी ने उससे कहा कि घबराने और डरने की कोई बात नहीं । तुमने कोई जानकर थोड़े ही फोड़े हैं। तुम किसी तरह की चिन्ता-फिकर मत करो। जब तक तुम्हें जरूरत पड़े तुम प्रसन्नता के साथ तैल ले जाया करो देने से मुझे कोई उजर न होगा। कोई कैसा ही सहनशील क्यों न हो, पर ऐसे मौके पर उसे भी गुस्सा आये बिना नहीं रहता। फिर इस स्त्री में इतनी क्षमा कहाँ से आई? इसका जिनदत्त को बड़ा आश्चर्य हुआ। जिनदत्त ने तुकारी से पूछा भी, कि माँ मैंने तुम्हारा इतना भारी अपराध किया, उस पर भी तुमको रत्तीभर क्रोध नहीं आया, इसका क्या कारण है? तुकारी ने कहा- भाई, क्रोध करने का फल जैसा चाहिए वैसा मैं भुगत चुकी हूँ ॥१०-२७॥
    इसलिए क्रोध के नाम से ही मेरा जी काँप उठता है । यह सुनकर जिनदत्त का कौतुक और बढ़ा, तब उसने पूछा यह कैसे ? तुकारी कहने लगी- चन्दनपुर में शिवशर्मा ब्राह्मण रहता है। वह धनवान् और राजा का आदरपात्र है। उसकी स्त्री का नाम कमल श्री है। उसके कोई आठ तो पुत्र और एक लड़की है। लड़की का नाम भट्टा है और वह मैं ही हूँ। मैं थी बड़ी सुन्दरी, पर मुझमें एक बड़ा दुर्गुण था। वह यह कि मैं अत्यन्त मानिनी थी । मैं बोलने में बड़ी ही तेज थी और इसलिए मेरे भय का सिक्का लोगों के मन पर ऐसा जमा हुआ था कि किसी की हिम्मत मुझे 'तू' कहकर पुकारने की नहीं होती थी। मुझे ऐसी अभिमानी देखकर मेरे पिता ने एक बार शहर में डौंडी पिटवा दी कि मेरी बेटी को कोई ‘तू’ कहकर न पुकारे क्योंकि जहाँ मुझसे किसी ने 'तू' कहा कि मैं उससे लड़ने- झगड़ने को तैयार ही रहा करती थी और फिर जहाँ तक मुझमें शक्ति जोर होता मैं उसकी हजारों पीढ़ियों को एक पलभर में अपने सामने ला खड़ा करती और पिताजी इस लड़ाई-झगड़े से सौ हाथ दूर भागने की कोशिश करते । जो हो, पिताजी ने अच्छा ही काम किया था, पर मेरे खोटे भाग्य से उनका डौंडी पिटवाना मेरे लिए बहुत ही बुरा हुआ। उस दिन से मेरा नाम ही ‘तुंकारी' पड़ गया और सब ही मुझे इस नाम से पुकार - पुकार कर चिढ़ाने लगे। सच है - अधिक मान भी कभी अच्छा नहीं होता और इसी चिड़ के मारे मुझसे कोई ब्याह करने तक के लिए तैयार न होता था। मेरे भाग्य से इन सोमशर्मा जी ने इस बात की प्रतिज्ञा की कि मैं कभी इसे 'तू' कहकर न पुकारूँगा। तब इनके साथ मेरा ब्याह हो गया। मैं बड़े उत्साह के साथ उज्जैन में लाई गई। सच कहूँगी कि इस घर में आकर मैं बड़े सुख से रही। भगवान् की कृपा से घर सब तरह हरा भरा है। धन सम्पत्ति भी मनमानी है ॥२८-३४॥
    पर “पड़ा स्वभाव जाए जीव से " इस कहावत के अनुसार मेरा स्वभाव भी सहज में थोड़े ही मिट जाने वाला था। सो एक दिन की बात है कि मरे स्वामी नाटक देखने गए। नाटक देखकर आते हुए उन्हें बहुत देर लग गई उनकी इस देरी से मुझे अत्यन्त गुस्सा आया। मैंने निश्चय कर लिया कि आज जो कुछ भी हो, मैं दरवाजा नहीं खोलूँगी और मैं सो गई थोड़ी देर बाद वे आए और दरवाजे पर खड़े रहकर बार-बार मुझे पुकारने लगे। मैं चुप्पी साधे पड़ी रही, पर मैंने किवाड़ न खोले । बाहर से चिल्लाते-चिल्लाते वे थक गए, पर उसका मुझ पर कुछ असर न हुआ । आखिर उन्हें भी बड़ा क्रोध हो आया। क्रोध में आकर वे अपनी प्रतिज्ञा तक भूल बैठे । सो उन्होंने मुझे 'तू' कहकर पुकार लिया। बस, उनका ‘तू’ कहना था कि मैं सिर से पाँव तक जल उठी और क्रोध से अन्धी बनकर किवाड़ खोलती हुई घर से निकल भागी । मुझे उस समय कुछ न सूझा कि मैं कहाँ जा रही हूँ। मैं शहर के बाहर होकर जंगल की ओर चल धरी । रास्ते में चोरों ने मुझे देख लिया।
    उन्होंने मेरे सब गहने- दागी ने और वस्त्र छीन-छानकर विजयसेन नाम के एक भील को सौंप दिया। मुझे खूबसूरत देखकर इस पापी ने मेरा धर्म बिगाड़ना चाहा, पर उस समय मेरे भाग्य से किसी दिव्य स्त्री ने आकर मुझे बचाया, मेरे धर्म की उसने रक्षा की। भील ने उस दिव्य स्त्री से डरकर मुझे एक सेठ के हाथ में सौंप दिया । उसकी नियत भी मुझ पर बिगड़ी। मैंने उसे खूब ही आड़े हाथों लिया। इससे वह मेरा कर तो कुछ न सका, पर गुस्से में आकर उस नीच ने मुझे एक ऐसे मनुष्य के हाथ सौंप दिया जो जीवों के खून से रँगकर कम्बल बनाया करता था। वह मेरे शरीर पर जौंके लगा-लगाकर मेरा रोज-रोज बहुत सा खून निकाल लेता था और उसमें फिर कम्बल को रँगा करता था। सच है, एक तो वैसे ही पाप कर्म का उदय और उस पर ऐसा क्रोध, तब उससे मुझ सरीखी हत-भागिनियों को यदि पद-पद पर कष्ट उठाना पड़े तो उसमें आश्चर्य ही क्या? ॥३५-४४॥
    इसी समय उज्जैन के राजा ने मेरे भाई को यहाँ के राजा पारस के पास किसी कार्य के लिए भेजा। मेरा भाई अपना काम पूराकर उज्जैन की ओर जा रहा था कि अचानक मेरी उसकी भेंट हो गई मैंने अपने कर्मों पर बड़ा पश्चाताप किया। जब मैंने अपना सब हाल उससे कहा तो उसे भी बहुत दुःख हुआ। उसने मुझे धीरज दिया। इसके बाद वह उसी समय राजा के पास गया और सब हाल उनसे कहकर उस कम्बल बनाने वाले पापी से उसने मेरा पंजा छुड़ाया । वहाँ से लाकर बड़ी आरजू- मिन्नत के साथ उसने फिर मुझे अपने स्वामी के घर ला रखा। सच है, सच्चे बन्धु वे ही हैं जो कष्ट के समय काम आवें। यह तो तुम्हें मालूम ही है कि मेरे शरीर का प्रायः खून निकल चुका था। इसी कारण घर पर आते ही मुझे लकवा मार गया । तब वैद्य ने यह लक्षपाक तैल बनाकर मुझे जिलाया। इसके बाद मैंने एक वीतरागी साधु द्वारा धर्मोपदेश सुनकर सर्वश्रेष्ठ और सुख देने वाला सम्यक्त्व व्रत ग्रहण किया और साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आज से मैं किसी पर क्रोध नहीं करूँगी । यही कारण है कि मैं अब किसी पर क्रोध नहीं करती। अब आप जाइए और इस तैल द्वारा मुनिराज की सेवा कीजिए। अधिक देरी करना उचित नहीं है ॥४५-५१ ॥
    जिनदत्त भट्टारक को नमस्कार कर घर गया और तेल की मालिश वगैरह से बड़ी सावधानी के साथ मुनि की सेवा करने लगा। कुछ दिन तक बराबर मालिश करते रहने से आराम हो गया। सेठ ने भी अपनी इस सेवा भक्ति द्वारा बहुत पुण्यबंध किया। चौमासा आ गया था इसलिए मुनिराज ने कहीं अन्यत्र जाना ठीक न समझ यहीं जिनदत्त सेठ के जिनमंदिर में वर्षायोग ले लिया और यहीं वे रहने लगे ॥५२-५५॥
    जिनदत्त का एक लड़का था, नाम इसका कुबेरदत्त था । इसका चाल-चलन अच्छा न देखकर जिनदत्त इस के डर से कीमती रत्नों का भरा अपना एक घड़ा जहाँ मुनि सोया करते थे वहाँ खोद कर गाड़ दिया। जिनदत्त ने यह कार्य किया तो था बड़ी दुपका - चोरी से, पर कुबेरदत्त को इसका पता पड़ गया। उसने अपने पिता का सब कर्म देख लिया और मौका पाकर वहाँ से घड़े को निकाल मंदिर के आँगन में दूसरी जगह गाड़ दिया । कुबेरदत्त को ऐसा करते मुनि ने देख लिया था परन्तु तब भी वह चुपचाप रहे और उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा और कहते भी कहाँ से जब कि उनका यह मार्ग ही नहीं है ॥५६-५७॥
    जब योग पूरा हुआ तब मुनिराज जिनदत्त को सुख - साता पूछकर वहाँ से बिहार कर गए। शहर बाहर जाकर वे ध्यान करने बैठे। इधर मुनिराज के चले जाने के बाद सेठ ने वह रत्नों का घड़ा घर ले जाने के लिए जमीन खोद कर देखा तो वहाँ घड़ा नहीं । घड़े को एकाएक गायब हो जाने का उसे बड़ा अचंभा हुआ और साथ ही उसका मन व्याकुल भी हुआ । उसने सोचा कि घड़े का हाल केवल मुनि ही जानते थे, फिर बड़े अचंभे की बात है कि उनके रहते यहाँ से घड़ा गायब हो जाए? उसे घड़ा गायब करने का मुनि पर कुछ सन्देह हुआ। तब वह मुनि के पास गया और उनसे उसने प्रार्थना की कि प्रभो, आप पर मेरा बड़ा ही प्रेम है, आप जब से चले आए है तब से मुझे सुहाता ही नहीं, इसलिए चलकर आप कुछ दिनों तक और वहीं ठहरें तो बड़ी कृपा हो । इस प्रकार मायाचारी से जिनदत्त मुनिराज को अपने मन्दिर पर लौटा लाया। इसके बाद उसने कहा, स्वामी, कोई ऐसी धर्म-कथा सुनाए, जिससे मनोरंजन हो । तब मुनि बोले- हम तो रोज ही सुनाया करते है, आज तुम ही कोई ऐसी कथा कहो। तुम्हें इतने दिन शास्त्र पढ़ते हो गए, देखें तुम्हें उसका सार कैसा याद रहता है? तब जिनदत्त अपने भीतरी कपट- भावों को प्रकट करने के लिए एक ऐसी ही कथा सुनाने लगा । वह बोला- ॥५८-६४॥
    एक दिन पद्मरथपुर के राजा वसुपाल ने अयोध्या के महाराज जितशत्रु के पास किसी काम के लिए अपना एक दूत भेजा। एक तो गर्मी का समय और ऊपर से चलने की थकावट सो इसे बड़े जोर की प्यास लग आई पानी इसे कहीं नहीं मिला । आते-आते यह एक घने वन में आकर वृक्ष के नीचे गिर पड़ा। इसके प्राण कण्ठगत हो गए। इसको यह दशा देखकर एक बन्दर दौड़ा-दौड़ा तालाब पर गया और उसमें डूबकर यह उस वृक्ष के नीचे पड़े पथिक के पास आया। आते ही इसने अपने शरीर को उस पर झिड़का दिया। जब जल उस पर गिरा और उसकी आँखें खुली तब बन्दर आगे होकर उसे इशारे से तालाब के पास ले गया । जल पीकर इसे बहुत शान्ति मिली। अब इसे आगे के लिए जल की चिन्ता हुई पर इसके पास कोई बरतन वगैरह न होने से यह जल ले जा नहीं सकता था। तब इसे एक युक्ति सूझी। इसने उस बेचारे जीवदान देने वाले बन्दर को बन्दूक से मारकर उसके चमड़े की थैली बनाई और उसमें पानी भर चल दिया । अच्छा प्रभो, अब आप बतलाइए कि उस नीच, निर्दयी, अधर्मी को अपने उपकारी बन्दर को मार डालना क्या उचित था? मुनि बोले तुम ठीक कहते हो। उस दूत का यह अत्यन्त कृतघ्नता भरा नीच काम था। इसके बाद अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए मुनिराज ने भी एक कथा कहना आरम्भ किया। वे कहने लगे- ॥६५-७२॥
    कौशाम्बी में किसी समय एक शिवशर्मा ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम कपिला था। इसके कोई लड़का नहीं था। एक दिन शिवशर्मा किसी दूसरे गाँव से अपने शहर की ओर लौट रहा था। रास्ते में एक जंगल में उसने एक नेवला के बच्चे को देखा। शिवशर्मा ने उसे घर उठा लाकर अपनी प्रिया से कहा-ब्राह्मणी जी आज मैं तुम्हारे लिए एक लड़का लाया हूँ। यह कहकर उसने नेवले को कपिला की गोद में रख दिया। सच है -मोह से अन्धे हुए मनुष्य क्या नहीं करते? ब्राह्मणी ने उसे ले लिया और पाल-पोस कर उसे कुछ सिखा-विखा भी दिया । नेवले में जितना ज्ञान और जितनी शक्ति थी वह उसके अनुसार ब्राह्मणी का बताये कुछ काम भी कर दिया करता था ॥७३-७६॥
    भाग्य से अब ब्राह्मणी के भी एक पुत्र हो गया। सो एक दिन ब्राह्मणी बच्चे को पालने में सुलाकर आप धान खाँडने को चली गई और जाते समय पुत्ररक्षा का भार वह नेवले को सौंपती गई इतने में एक सर्प ने आकर इस बच्चे को काट लिया बच्चा मर गया। क्रोध में आकर नेवले ने सर्प के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इसके बाद वह खून भरे मुँह से ही कपिला के पास गया। कपिला उसे खून से लथ-पथ भरा देखकर काँप गई उसने समझा कि इसने मेरे बच्चे को खा लिया। उसे अत्यन्त क्रोध आया। क्रोध के वेग में उसने न कुछ सोचा- विचारा और न जाकर देखा ही कि असल में बात क्या है किन्तु एक साथ ही पास में पड़े हुए मूसले को उठा कर नेवले पर दे मारा। नेवला तड़फड़ा कर मर गया। अब वह दौड़ी हुई बच्चे के पास गई देखती है तो वहाँ एक काला भुजंग सर्प मरा हुआ पड़ा है। फिर उसे बहुत पछतावा हुआ। ऐसे मूर्ख को धिक्कार है जो बिना विचारे जल्दी में आकर हर एक काम कर बैठते हैं। अच्छा सेठ महाशय, कहिए तो सर्प के अपराध पर बेचारे नेवले को इस प्रकार  निर्दयता से मार देना ब्राह्मणी को योग्य था क्या? जिनदत्त ने कहा- नहीं। यह उसकी बड़ी गलती हुई। यह कहकर उसने फिर एक कथा कहना आरम्भ की - ॥७७-८२॥
    बनारस के राजा जितशत्रु के यहाँ धनदत्त राज्यवैद्य था । इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था। वैद्य महाशय के धनमित्र और धनचन्द्र नाम के दो लड़के थे । लाड़-प्यार में रहकर इन्होंने अपनी कुलविद्या भी न पढ़ पाई कुछ दिनों बाद वैद्यराज काल कर गए। राजा ने दोनों भाइयों को मूर्ख देख इनके पिता की जीविका पर किसी दूसरे को नियुक्त कर दिया। तब इनकी बुद्धि ठिकाने आई ये दोनों भाई अब वैद्यशास्त्र पढ़ने की इच्छा से चम्पापुरी में शिवभूति वैद्य के पास गए। इन्होंने वैद्य से अपनी सब हालत कहकर उनसे वैद्यक पढ़ने की इच्छा जाहिर की । शिवभूति बड़ा दयावान् और परोपकारी था, इसलिए उसने इन दोनों भाइयों को अपने ही पास रखकर पढ़ाया और कुछ ही वर्षों में इन्हें अच्छा होशियार कर दिया। दोनों भाई गुरु महाशय के अत्यन्त कृतज्ञ होकर बनारस की ओर रवाना हुए। रास्ते में आते हुए इन्होंने जंगल में आँख की पीड़ा से दुःखी एक सिंह को देखा । धनचन्द्र को उस पर दया आई अपने बड़े भाई के बहुत कुछ मना करने पर भी धनचन्द्र ने सिंह की आँखों का इलाज किया। उससे सिंह को आराम हो गया। आँख खोलते ही उसने धनचन्द्र को अपने पास खड़ा पाया। वह अपने जन्म स्वभाव को न छोड़कर क्रूरता के साथ उसे खा गया। मुनिराज उस दुष्ट सिंह को बेचारे वैद्य को खा जाना क्या अच्छा काम हुआ? मुनि ने 'नहीं' कहकर एक और कथा कहना शुरू की ॥८३-८९॥
    चम्पापुरी में सोमशर्मा ब्राह्मण की दो स्त्रियाँ थी । एक का नाम सोमिल्या और दूसरी का सोमशर्मा था। सोमिल्या बाँझ थी और सोमशर्मा के एक लड़का था । यहीं एक बैल रहता था। लोग उसे ‘भद्र' नाम से बुलाया करते थे । बेचारा बड़ा सीधा था । कभी किसी को मारता नहीं था । वह सबके घर पर घूमा-फिरा करता था। उसे इस तरह जहाँ थोड़ी बहुत घास खाने को मिलती वह उसे खाकर रह जाता था। एक दिन उस बाँझ पापिनी ने डाह के मारे अपनी सौत के बच्चे को निर्दयता से मार कर उसका अपराध बेचारे बैल पर लगा दिया। उसे ब्राह्मण बालक का मारने वाला समझ कर सब लोगों ने घास खिलाना छोड़ दिया और शहर से निकाल बाहर कर दिया। बेचारा भूख- प्यास के मारे बड़ा दुःख पाने लगा। बहुत ही दुबला पतला हो गया। पर तब भी किसी ने उसे शहर के भीतर नहीं घुसने दिया । एक दिन जिनदत्त सेठ की स्त्री पर व्यभिचार का अपराध लगा। वह अपनी निर्दोषता बतलाने के लिए चौराहे पर जाकर खड़ी हुई, जहाँ बहुत से मनुष्य इकट्ठे हो रहे थे उसने कोई भयंकर दिव्य लेने के इरादे से एक लोहे के टुकड़े को अग्नि में खूब तपाकर लाल सुर्ख किया। इस मौके को अपने लिए बहुत अच्छा समझ उस बैल ने झट वहाँ पहुँच कर जलते हुए उस लोहे के टुकड़े को मुँह से उठा लिया। उसका यह भयंकर दृश्य देखकर सब लोगों ने उसे निर्दोष समझ लिया। अच्छा सेठ महाशय, बतलाइए तो क्या उन मूर्ख लोगों को बिना समझे-बूझे एक निरपराध पशु पर दोष लगाना ठीक था क्या? जिनदत्त ने 'नहीं' कहकर फिर एक कथा छेड़ी ॥९०-९८॥
    वह बोला-‘“गंगा के किनारे कीचड़ में एक बार एक हाथी का बच्चा फँस गया। विश्वभूति तापस ने उसे तड़फते हुए देखा। वह कीचड़ से उस हाथी के बच्चे को निकालकर अपने आश्रम में लिवा ले आया। उसने उसे बड़ी सावधानी के साथ पाला-पोसा भी। धीरे-धीरे वह बड़ा होकर एक महान् हाथी के रूप में आ गया । श्रेणिक ने इसकी प्रशंसा सुनकर इसे अपने यहाँ रख लिया। हाथी जब तक तापस के यहाँ रहा तब तक बड़ी स्वतंत्रता से रहा । वहाँ इसे कभी अंकुश वगैरह का कष्ट नहीं सहना पड़ा। पर जब यह श्रेणिक के यहाँ पहुँचा तबसे इसे बन्धन, अंकुश आदि का बहुत कष्ट सहना पड़ता था। इस दुःख के मारे एक दिन यह सांकल तोड़ - ताड़ कर तापस के आश्रम में भाग आया। इसके पीछे-पीछे राजा के नौकर भी इसे पकड़ने को आए । तापसी मीठे-मीठे शब्दों से हाथी को समझा कर उसे नौकरों के सुपुर्द करने लगा। हाथी को इससे अत्यन्त गुस्सा आया। सो इसने उस बेचारे तापस की ही जान ले ली। तो क्या मुनिराज, हाथी को यह उचित था कि वह अपने को बचाने वाले को ही मार डाले? इसके उत्तर में मुनि 'ना' कहकर और एक कथा कहने लगे। उन्होंने कहा-
    हस्तिनागपुर की पूरब दिशा में विश्वसेन राजा का बनाया आमों का एक बगीचा था। उसमें आम खूब लग रहे थे। एक दिन एक चील मरे साँप को चोंच में लिए आम के झाड़ पर बैठ गई उस समय साँप के जहर से एक आम पक गया, पीला - सा पड़ गया । माली ने उस पके फल को ले जाकर राजा को भेंट किया। राजा ने उसे 'प्रेमोपहार' के रूप में अपनी प्रिय रानी धर्मसेना को दिया। रानी उसे खाते ही मर गई राजा को बड़ा गुस्सा आया और उसने एक फल के बदले सारे बगीचे को ही कटवा डाला। मुनिराज ने कहा, तो क्या सेठ महाशय, राजा का यह काम ठीक हुआ ? सेठ ने भी 'ना' कहकर और एक कथा कहना शुरू की ॥९९ - ११० ॥
    के वह बोला-एक मनुष्य जंगल से चला जा रहा था। रास्ते में वह सिंह को देखकर डर के मारे एक वृक्ष पर चढ़ गया। जब सिंह चला गया, तब यह नीचे उतरा और जाने लगा। रास्ते में इसे राजा बहुत से आदमी मिले, जो कि भेरी के लिए अच्छे और बड़े झाड़ की तलाश में आये थे । सो इस दुष्ट मनुष्य ने वह वृक्ष इन लोगों को बता दिया, जिस पर चढ़कर कि इसने अपनी जान बचाई थी। राजा के आदमी उस घनी छाया वाले सुन्दर वृक्ष को काटकर ले गये । मुनिराज, जिसने बन्धु की तरह अपनी रक्षा की, मरने से बचाया, उस वृक्ष के लिए इस दुष्ट को ऐसा करना योग्य था क्या? मुनिराज 'नहीं' कहकर और एक कथा कही ॥१११-११४॥
    वे बोले-गन्धर्वसेन राजा की कौशाम्बी नगरी में एक अंगारदेव सुनार रहता था । जाति का यह ऊँच था। यह रत्नों की जड़ाई का काम बहुत ही बढ़िया करता था। एक दिन अंगारदेव राजमुकुट के एक बहुमूल्य मणि को उजाल रहा था । इसी समय उसके घर पर मेदज नाम के एक मुनि आहार  के लिए आये । वह मुनि को एक ऊँची जगह बैठाकर और उनके सामने उस मणि को रखकर आप भीतर स्त्री के पास चला गया। इधर मणि को मांस के भ्रम से फूँज पक्षी निगल गया । जब सुनार सब विधि ठीक-ठाक कर आया तो देखता है वहाँ मणि नहीं। मणि न देखकर उसके तो होश उड़ गये। उसने मुनिराज से पूछा - मुनिराज, मणि को मैं आपके पास अभी रखकर गया हूँ, इतने में वह कहाँ चला गया? कृपा करके बतलाइए। मुनि चुप रहे। उन्हें चुप्पी साधे देखकर अंगारदेव का उन्हीं पर कुछ शक गया। उसने फिर पूछा- स्वामी, मणि का क्या हुआ ? जल्दी कहिये । राजा को मालूम हो जाने से वह मेरा और मेरे बाल-बच्चों तक का बुरा हाल कर डालेगा। मुनि तब भी चुप ही रहे । अब तो अंगारदेव से न रहा गया। क्रोध से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया। उसने जान लिया कि मणि को इसी ने चुराया है। सो मुनि को बाँधकर उसने उन पर लकड़े की मार मारना शुरू की। उन्हें खूब मारा-पीटा सही, पर तब भी मुनि उसी तरह स्थिर बने रहे। ऐसे धन को, ऐसी मूर्खता को धिक्कार है जिससे मनुष्य कुछ भी सोच-समझ नहीं पाता और हर एक काम को जोश में आकर कर डालता है। अंगारदेव मुनि को लकड़े से पीट रहा था तब एक चोट फूँज पक्षी के गले पर भी जाकर लगी। उससे वह मणि बाहर आ गिरा । मणि को देखते ही अंगारदेव आत्मग्लानि, लज्जा और पश्चाताप के मारे अधमरा-सा हो गया। उसे काटो तो खून नहीं। वह मुनि के पाँवों में गिर पड़ा और रो-रोकर उनसे क्षमा माँगने लगा । इतना कह कर मुनिराज बोले- क्यों सेठ महाशय, अब समझे? मेदज मुनि को उस मणि का हाल मालूम था, पर तब भी दया के वश हो उन्होंने पक्षी का मणि निगल जाना न बतलाया । इसलिए कि पक्षी की जान न जाय और न मुनियों का ऐसा मार्ग ही है। इसी तरह मैं भी यद्यपि तुम्हारे घड़े का हाल जानता हूँ, तथापि कह नहीं सकता। इसलिए कि संयमी का यह मार्ग नहीं है कि वे किसी को कष्ट पहुँचावे । अब जैसा तुम जानते हो और जो तुम्हारे मन में हो उसे करो। मुझे उसकी परवा नहीं । घड़े का छुपाने वाला कुबेरदत्त अपने पिता और मुनि का यह परस्पर का कथोपकथन छुपा सुन रहा था। मुनि का अन्तिम निश्चय सुन उसकी उन पर बड़ी भक्ति हो गई वह दौड़ा जाकर झट से घड़े को निकाल लाया और अपने पिता के सामने उसे रखकर जरा गुस्से से बोला-हाँ देखता हूँ आप मुनिराज पर अब कितना उपसर्ग करते हैं? यह देखकर जिनदत्त बड़ा शर्मिन्दा हुआ। उसने अपने भ्रम भरे विचारों पर बड़ा ही पछतावा किया। अन्त में दोनों पिता-पुत्रों ने उन मेरु के समान स्थिर और तप के खजाने मुनिराज के पाँवों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा कराई और संसार से उदासीन होकर उन्हीं के पास उन्होंने दीक्षा भी ले ली, जो कि मोक्ष- सुख की देने वाली है। दोनों पिता-पुत्र मुनि होकर अपना कल्याण करने लगे और दूसरों को भी आत्मकल्याण का मार्ग बतलाने लगे। वे साधुरत्न मुझे सुख-शान्ति दें, जो भगवान् के उपदेश किये सम्यग्ज्ञान के उमड़े हुए समुद्र हैं, सम्यक्त्वरूपी रत्नों को धारण किये हैं और पवित्र शील जिसकी लहरें हैं। ऐसे मुनिराजों को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। मूलसंघ के मुख्य चलाने वाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में भट्टारक मल्लि भूषण हुए हैं। वे मेरे गुरु हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण किये हैं और गुणों की खान हैं। वे आप लोगों का कल्याण करें ॥११५-१३५॥
  15. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    जगद्गुरु तीर्थंकर भगवान् को नमस्कार कर पात्र दान के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जिन भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमा से जन्मी पवित्र जिनवाणी ज्ञानरूपी महा समुद्र से पार करने के लिए मुझे सहायता दें, मुझे ज्ञान - दान दें ॥२॥
    उन साधु रत्नों को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक हैं, परिग्रह कनक - कामिनी आदि से रहित वीतरागी हैं और सांसारिक सुख तथा मोक्ष सुख की प्राप्ति के कारण हैं ॥३॥
    पूर्वाचार्यों ने दान को चार हिस्सों बाँटा है, जैसे आहार - दान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान। ये ही दान पवित्र हैं। योग्य पात्रों को यदि ये दान दिये जायें तो इनका फल अच्छी जमीन में बोये हुए बड़ के बीज की तरह अनन्त गुणा होकर फलता है। जैसे एक ही बावड़ी का पानी अनेक वृक्षों में जाकर नाना रूप में परिणत होता है उसी तरह पात्रों के भेद से दान के फल में भी भेद हो जाता है। इसलिए जहाँ तक बने अच्छे सुपात्रों को दान देना चाहिए। सब पात्रों में जैनधर्म का आश्रय लेने वाले को अच्छा पात्र समझना चाहिए, औरों को नहीं, क्योंकि जब एक कल्पवृक्ष हाथ लग गया फिर औरों से क्या लाभ? जैनधर्म में पात्र तीन बतलाये गए है । उत्तम पात्र - मुनि, मध्यम पात्र- व्रती श्रावक और जघन्य पात्र - अव्रतसम्यग्दृष्टि । इन तीन प्रकार के पात्रों को दान देकर भव्य पुरुष जो सुख लाभ करते हैं उसका वर्णन मुझसे नहीं किया जा सकता परन्तु संक्षेप में यह समझ लीजिए कि धन-दौलत, स्त्री- पुत्र, खान-पान, भोग-उपभोग आदि जितनी उत्तम - उत्तम सुख सामग्री है वह तथा इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की पदवियाँ, अच्छे सत्पुरुषों की संगति, दिनों-दिन ऐश्वर्यादि की बढ़वारी वे सब पात्रदान के फल से प्राप्त होते हैं। पात्रदान के फल से मोक्ष प्राप्ति भी सुलभ है। राजा श्रेयांस ने दान के ही फल से मुक्ति लाभ किया था। इस प्रकार पात्रदान का अनन्त फल जानकर बुद्धिमानों को इस ओर अवश्य अपने ध्यान को खींचना चाहिए। जिन-जिन सत्पुरुषों ने पात्रदान का आज तक फल पाया है, उन सबके नाम मात्र का उल्लेख भी जिन भगवान् के बिना और कोई नहीं कर सकता, तब उनके सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना मुझसे मतिहीन मनुष्यों के लिए तो असंभव ही है । आचार्यों ने ऐसे दानियों में सिर्फ चार जनों का उल्लेख शास्त्रों में किया है। इस कथा में उन्हीं का संक्षिप्त चरित मैं पुराने शास्त्रों के अनुसार लिखूँगा। उन दानियों के नाम हैं- श्रीषेण, वृषभसेना, कौण्डेश और एक पशु बराह-सूअर। इनमें श्रीषेण ने आहारदान, वृषभसेना ने औषधिदान, कौण्डेश ने शास्त्रदान और सूअर ने अभयदान किया था। उनकी क्रम से कथा लिखी जाती है ॥४-२० ॥
    प्राचीन काल में श्रीषेण राजा ने आहारदान दिया । उनके फल से वे शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए। श्रीशान्तिनाथ भगवान् जय लाभ करें, जो सब प्रकार का सुख देकर अन्त में मोक्ष सुख के देने वाले हैं और जिनका पवित्र चरित का सुनना परम शान्ति का कारण है । ऐसे परोपकार भगवान् को परम पवित्र और जीव मात्र का हित करने वाला चरित आप लोग भी सुनें, जिसे सुनकर आप सुख लाभ करेंगे ॥२१-२३॥
    प्राचीन काल में इस भारतवर्ष में मलय नाम का एक अति प्रसिद्ध देश था। रत्नसंचयपुर उसकी राजधानी थी। जैनधर्म का इस देश में खूब प्रचार था । उस समय उसके राजा श्रीषेण थे। श्रीषेण धर्मज्ञ, उदारमना, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी, दानी और बड़े विचारशील थे। पुण्य से प्रायः अच्छे-अच्छे सभी गुण उन्हें प्राप्त थे। उनका प्रतिद्वंद्वी या शत्रु कोई न था । वे राज्य निर्विघ्न किया करते थे। सदाचार में उस समय उनका नाम सबसे ऊँचा था। उनकी दो रानियाँ थीं । उनके नाम थे सिंहनन्दिता और अनन्दिता । दोनों ही अपनी-अपनी सुन्दरता में अद्वितीय थीं, विदुषी और सती थीं। इन दोनों के पुत्र हुए । उनके नाम इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन थे। दोनों ही भाई सुन्दर थे, गुणी थे, शूरवीर थे और हृदय के बड़े शुद्ध थे । इस प्रकार श्रीषेण धन-सम्पत्ति, राज्य-वैभव, कुटुम्ब-परिवार आदि से पूरे सुखी थे। प्रजा का नीति के साथ पालन करते हुए वे अपने समय को बड़े आनन्द के साथ बिताते थे ॥२४-२९॥
    यहाँ एक सात्यकि ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम जंघा था। इसके सत्यभामा नाम की एक लड़की थी। रत्नसंचयपुर के पास बल नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें धरणीजट नाम का ब्राह्मण वेदों का अच्छा विद्वान् था। अग्नीला उसकी स्त्री थी अग्लीना से दो लड़के हुए। उनके नाम इन्द्रभूति और अग्निभूति थे । उसके यहाँ एक दासी - पुत्र (शूद्र) का लड़का रहता था। उसका नाम कपिल था। धरणीजट जब अपने लड़कों को वेदादिक पढ़ाया करता, उस समय कपिल भी बड़े ध्यान से उस पाठ को चुपचाप छुपे हुए सुन लिया करता था । भाग्य से कपिल की बुद्धि बड़ी तेज थी। सो वह अच्छा विद्वान् बन गया, एक दासी पुत्र भी पढ़-लिखकर महा विद्वान् बन गया इस धरणीजट को बड़ा आश्चर्य हुआ। पर सच तो यह है कि बेचारा मनुष्य करे भी क्या, बुद्धि तो कर्मों के अनुसार होती है न? जब सर्व साधारण में कपिल के विद्वान् हो जाने की चर्चा उठी तो धरणीजट पर ब्राह्मण लोग बड़े बिगड़े और उसे डराने लगे कि तूने यह बड़ा भारी अन्याय किया जो दासी-पुत्र को पढ़ाया। उसका फल तुझे बहुत बुरा भोगना पड़ेगा। अपने पर अपने जातीय भाइयों को इस प्रकार क्रोध उगलते देख धरणीजट बड़ा घबराया। तब डर से उसने कपिल को अपने घर से निकाल दिया। कपिल उस गाँव से निकल रास्ते में ब्राह्मण बन गया और इसी रूप में वह रत्नसंचयपुर आ गया। कपिल विद्वान् और सुन्दर था । इसे उस सात्यकि ब्राह्मण ने देखा, जिसका कि ऊपर जिकर आ चुका है। उसके गुण रूप को देखकर सात्यकि बहुत प्रसन्न हुआ। उनके मन पर वह बहुत चढ़ गया। तब सात्यकि ने उसे ब्राह्मण ही समझ अपनी लड़की सत्यभामा का उसके साथ ब्याह कर दिया । कपिल अनायास इस स्त्री-रत्न को प्राप्त कर सुख से रहने लगा। राजा ने उसके पाण्डित्य की तारीफ सुन उसे अपने यहाँ पुराण कहने को रख लिया । इस तरह कुछ वर्ष बीते । एक बार सत्यभामा ऋतुमती हुई सो उस समय भी कपिल ने उससे संसर्ग करना चाहा। उसके इस दुराचार को देखकर सत्यभामा को इसके विषय में सन्देह हो गया। उसने इस पापी को ब्राह्मण न समझ इससे प्रेम करना छोड़ दिया। वह इससे अलग रह दुःख के साथ जिन्दगी बिताने लगी ॥३०-४२॥
    इधर धरणीजट के कोई ऐसा पाप का उदय आया कि उसकी सब धन-दौलत बरबाद हो गई वह भिखारी-सा हो गया । उसे मालूम हुआ की कपिल रत्नसंचयपुर में अच्छी हालत में है। राजा द्वारा उसे धन-मान खूब प्राप्त है। वह तब उसी समय सीधा कपिल के पास आया। उसे दूर से देखकर कपिल मन ही मन धरणीजट पर बड़ा गुस्सा हुआ । अपनी बढ़ी हुई मान-मर्यादा के समय उसका अचानक आ जाना कपिल को बहुत खटका । पर वह कर क्या सकता था। उसे साथ ही उस बात का बड़ा भय हुआ कि कहीं वह मेरे सम्बन्ध में लोगों को भड़का न दें। यही सब विचार कर वह उठा और बड़ी प्रसन्नता से सामने जाकर धरणीजट को उसने नमस्कार किया और बड़े मान से लाकर उसे ऊँचे आसन पर बैठाया ॥४३-४५॥
    उसके बाद उसने पूछा- पिताजी, मेरी माँ, भाई आदि सब सुख से तो हैं न? इस प्रकार कुशल समाचार पूछ कर धरणीजट को स्नान, भोजनादि कराया और उसका वस्त्रादि से खूब सत्कार किया। फिर सबसे आगे एक खास मेहमान की जगह बैठाकर कपिल ने सब लोगों को धरणीजट का परिचय कराया कि ये ही मेरे पिताजी हैं। बड़े विद्वान् और आचार-विचारवान् हैं। कपिल ने यह सब समाचार इसीलिए किया था कि कहीं उसकी माता का सब भेद खुल न जाए। धरणीजट दरिद्री हो रहा था। धन की उसे चाह थी ही, सो उसने उसे अपना पुत्र मान लेने में कुछ भी आनाकानी न की । धन के लोभ से उसे यह पाप स्वीकार कर लेना पड़ा । ऐसे लोभ को धिक्कार है, जिसके वश हो मनुष्य हर एक पापकर्म कर डालता है । तब धरणीजट वहीं रहने लग गया । यहाँ रहते इसे कई दिन हो चुके। सबके साथ इसका थोड़ा बहुत परिचय भी हो गया। एक दिन मौका पाकर सत्यभामा ने उसे कुछ थोड़ा बहुत द्रव्य देकर एकान्त में पूछा - महाराज, आप ब्राह्मण हैं और मेरा विश्वास है कि ब्राह्मण देव कभी झूठ नहीं बोलते इसलिए कृपाकर मेरे संदेह को दूर कीजिए। मुझे आपके इन कपिल जी का दुराचार देख यह विश्वास नहीं होता कि ये आप सरीखे पवित्र ब्राह्मण के कुल उत्पन्न हुए हों, तब क्या वास्तव में ये ब्राह्मण ही हैं या कुछ गोलमाल है । धरणीजट को कपिल से इसलिए द्वेष हो ही रहा था कि भरी सभा में कपिल ने उसे अपना पिता बता उसका अपमान किया था और दूसरे उसे धन की चाह थी, सो उसके मन के माफिक धन सत्यभामा ने उसे पहले ही दे दिया था। तब वह कपिल की सच्ची हालत क्यों छिपायेगा ? जो हो, धरणीजट सत्यभामा को सब हाल कहकर और प्राप्त धन लेकर रत्नसंचयपुर से चल दिया । सुनकर कपिल पर सत्यभामा की घृणा पहले से कोई सौ गुणी बढ़ गई तब उसने उससे बोलना - चालना तक छोड़कर एकान्तवास स्वीकार कर लिया, पर अपने कुलाचार की मान-मर्यादा को न छोड़ा । सत्यभामा को इस प्रकार अपने से घृणा करते देख कपिल उससे बलात्कार करने पर उतारू हो गया। तब सत्यभामा घर से भागकर श्रीषेण महाराज की शरण में आ गई और उसने सब हाल उनसे कह दिया। श्रीषेण ने तब उस पर दयाकर उसे अपनी लड़की की तरह अपने यहीं रख लिया । कपिल सत्यभामा के अन्याय की पुकार लेकर श्रीषेण के पास पहुँचा। उसके व्यभिचार की हालत उन्हें पहले ही मालूम हो चुकी थी, इसलिए उसकी कुछ न सुनकर श्रीषेण ने उस लम्पटी और कपटी ब्राह्मण को अपने देश से निकाल दिया। सो ठीक ही है राजा को सज्जनों की रक्षा और दुष्टों को सजा देनी ही चाहिए। ऐसा न करने पर वे अपने कर्तव्य से च्युत होते है और प्रजा के धनहारी हैं ॥४६-५७॥
    एक दिन श्रीषेण के यहाँ आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारणऋद्धि के धारी मुनिराज पृथ्वी को अपने पाँवों से पवित्र करते हुए आहार के लिए आए। श्रीषेण ने बड़ी भक्ति से उनका आह्वान कर उन्हें पवित्र आहार कराया । इस पात्रदान से उनके यहाँ स्वर्ग के देवों ने रत्नों की वर्षा की, कल्पवृक्षों ने सुन्दर और सुगन्धित फूल बरसाये, दुन्दुभी बाजे बजे, मन्द-सुगन्ध वायु बहा और जय-जयकार हुआ, खूब बधाइयाँ मिलीं और सच है, सुपात्रों को दिये दान के फल से क्या नहीं हो पाता। इसके बाद श्रीषेण ने और बहुत वर्षों तक राज्य - सुख भोगा । अन्त में मरकर वे धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वभाग की उत्तर - कुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए। सच है, साधुओं की संगति से जब मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है तब कौन ऐसी उससे बढ़कर वस्तु होगी जो प्राप्त न हो । श्रीषेण की दोनों रानियाँ तथा सत्यभामा भी इसी उत्तरकुरु भोगभूमि में जाकर उत्पन्न हुई। सब इस भोगभूमि में दस प्रकार के कल्पवृक्ष से मिलने वाले सुखों को भोगते और आनन्द से रहते हैं । यहाँ इन्हें कोई खाने-कमाने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती है। पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को निराकुलता से ये आयु पूर्ण होने तक भोगेंगे । यहाँ की स्थिति बड़ी अच्छी है । यहाँ के निवासियों को कोई प्रकार की बीमारी, शोक, चिन्ता, दरिद्रता आदि से होने वाले कष्ट नहीं सता पाते। इनकी कोई प्रकार के अपघात से मौत नहीं होती । यहाँ किसी के साथ शत्रुता नहीं होती। यहाँ न अधिक जाड़ा पड़ता और न अधिक गर्मी होती है किन्तु सदा एक सी सुन्दर ऋतु रहती है। यहाँ न किसी की सेवा करनी पड़ती है और न किसी के द्वारा अपमान सहना पड़ता है, न यहाँ युद्ध है और न कोई किसी का वैरी है। यहाँ के लोगों के भाव सदा पवित्र रहते हैं। आयु पूरी होने तक ये इसी तरह सुख से रहते हैं । अन्त में स्वाभाविक सरल भावों से मृत्यु लाभ कर ये दानी महात्मा कुछ बाकी बचे पुण्य फल से स्वर्ग में जाते हैं। श्रीषेण ने भी भोग भूमि का खूब सुख भोगा। अन्त में वे स्वर्ग गए। स्वर्ग में भी मनचाहा दिव्य सुख भोगकर अन्त में वे मनुष्य हुए। इस जन्म में ये कई बार अच्छे-अच्छे राजघराने में उत्पन्न हुए। पुण्य से फिर स्वर्ग गए। वहाँ की आयु पूरी कर अबकी बार भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध शहर हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन की रानी ऐरा के यहाँ उन्होंने अवतार लिया । यही सोलहवें श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकर के नाम से संसार में प्रख्यात हुए। उनके जन्म समय में स्वर्ग के देवों ने आकर बड़ा उत्सव किया था, उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसमुद्र स्फटिक से पवित्र और निर्मल जल से उनका अभिषेक किया था। भगवान् शान्तिनाथ ने अपना जीवन बड़ी ही पवित्रता के साथ बिताया। उनका जीवन संसार का आदर्श जीवन है। अन्त में योगी होकर उन्होंने धर्म का पवित्र उपदेश देकर अनेक जनों को संसार से पार किया, दुःखों से उनकी रक्षा कर उन्हें सुखी किया । अपना संसार के प्रति जो कर्तव्य था उसे पूरा कर इन्होंने निर्वाण लाभ किया। यह सब पात्रदान का फल है। इसलिए जो लोग पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च सुख लाभ करेंगे। यह बात ध्यान में रखकर सत्पुरुषों का कर्तव्य है, कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें । यही दान स्वर्ग और मोक्ष के सुख का देने वाला है ॥५८-७४॥
    मूलसंघ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारी थे । इन्हीं गुरु महाराज की कृपा से मुझ अल्पबुद्धि नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने पात्रदान के सम्बन्ध में श्रीशान्तिनाथ भगवान् की पवित्र कथा लिखी है। यह कथा मेरी परम शान्ति की कारण हो ॥७५॥
  16. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार का हित करने वाले जिनभगवान् को परम भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अमूढदृष्टि अंग का पालन करने वाली रेवती रानी की कथा लिखता हूँ । विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघकूट नाम का एक सुन्दर शहर है। उसके राजा हैं चन्द्रप्रभ। चन्द्रप्रभ ने बहुत दिनों तक सुख के साथ अपना राज्य किया। एक दिन वे बैठे हुए थे कि एकाएक उन्हें तीर्थयात्रा करने की इच्छा हुई। राज्य का कारोबार अपने चन्द्रशेखर नाम के पुत्र को सौंपकर वे तीर्थयात्रा के लिए चल दिये। वे यात्रा करते हुए दक्षिण मथुरा में आये। उन्हें पुण्य से वहाँ गुप्ताचार्य के दर्शन हुए। आचार्य से चन्द्रप्रभ ने धर्मोपदेश सुना। उनके उपदेश का उन पर बहुत असर पड़ा। वे आचार्य के द्वारा-
    प्रोक्तः परोपकारोऽत्र महापुण्याय भूतले । - ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् परोपकार करना महान् पुण्य का कारण है, यह जानकर और तीर्थयात्रा करने के लिए एक विद्या को अपने अधिकार में रखकर क्षुल्लक बन गये ॥१-६॥
    एक दिन उनकी इच्छा उत्तर मथुरा की यात्रा करने की हुई। जब वे जाने को तैयार हुए तब उन्होंने अपने गुरु महाराज से पूछा- हे दया के समुद्र ! मैं यात्रा के लिए जा रहा हूँ, क्या आपको कुछ समाचार तो किसी के लिए नहीं कहना है ? गुप्ताचार्य बोले- मथुरा में एक सूरत नाम के बड़े ज्ञानी और गुणी मुनिराज हैं, उन्हें मेरा नमस्कार कहना और सम्यग्दृष्टिनी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि
    कहना ॥७-९॥
    क्षुल्लक ने और पूछा कि इसके सिवा और भी आपको कुछ कहना है क्या ? आचार्य ने कहा नहीं। तब क्षुल्लक ने विचारा कि क्या कारण है जो आचार्य ने एकादशांग के ज्ञाता श्री भव्यसेन मुनि तथा और-और मुनियों की रहते उन्हें कुछ नहीं कहा और केवल सूरत मुनि और रेवती के लिए ही नमस्कार किया तथा धर्मवृद्धि दी ? इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। अस्तु । जो कुछ होगा वह आगे स्वयं मालूम हो जायेगा। यह सोचकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक वहाँ से चल दिये। उत्तर मथुरा पहुँचकर उन्होंने सूरत मुनि को गुप्ताचार्य की वन्दना कह सुनाई । उससे सूरत मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चन्द्रप्रभ के साथ खूब वात्सल्य का परिचय दिया । उससे चन्द्रप्रभ को बड़ी खुशी हुई। बहुत ठीक कहा है ॥१०-१२॥
    ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः ।
    साधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले ॥ - ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् संसार में उन्हीं का जन्म लेना सफल है जो धर्मात्माओं से वात्सल्य-प्रेम करते हैं।
    इसके बाद क्षुल्लक चन्द्रप्रभ एकादशांग के ज्ञाता, पर नाम मात्र के भव्यसेन मुनि के पास गये। उन्होंने भव्यसेन को नमस्कार किया । पर भव्यसेन मुनि ने अभिमान में आकर चन्द्रप्रभ को धर्मवृद्धि तक भी न दी। ऐसे अभिमान को धिक्कार है जिन अविचारी पुरुषों के वचनों में भी दरिद्रता है जो वचनों से भी प्रेमपूर्वक आये हुए अतिथि से नहीं बोलते वे उनका और क्या सत्कार करेंगे ? उनसे तो स्वप्न में भी अतिथिसत्कार नहीं बन सकेगा। जैन शास्त्रों का ज्ञान सब दोषों से रहित है, निर्दोष है। उसे प्राप्त कर हृदय पवित्र होना ही चाहिए। पर खेद है कि उसे पाकर भी मान होता है। पर यह शास्त्र का दोष नहीं किन्तु यों कहना चाहिए कि पापियों के लिए अमृत भी विष हो जाता है। जो हो, तब भी देखना चाहिए कि इनमें कुछ भी भव्यपना है भी या केवल नाम मात्र के ही भव्य हैं? यह विचार कर दूसरे दिन सबेरे जब भव्यसेन कमण्डलु लेकर शौच के लिए चले तब उनके पीछे-पीछे चन्द्रप्रभ क्षुल्लक भी हो लिए। आगे चलकर क्षुल्लक महाशय ने अपने विद्याबल से भव्यसेन के आगे की भूमि को कोमल और हरे-हरे तृणों से युक्त कर दिया । भव्यसेन उसकी कुछ परवाह न कर और यह विचार कर कि जैनशास्त्रों में तो इन्हें एकेन्द्री कहा है, इनकी हिंसा का विशेष पाप नहीं होता, उस पर से निकल गए। आगे चलकर जब वे शौच हो लिए और शुद्धि के लिए कमण्डलु की ओर देखा तो उसमें जल नहीं और वह औंधा पड़ा हुआ है, तब तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई । इतने में एकाएक क्षुल्लक महाशय भी उधर आ निकले। कमण्डलु का जल यद्यपि क्षुल्लकजी ने ही अपने विद्याबल से सुखा दिया था, तब भी वे बड़े आश्चर्य के साथ भव्यसेन से बोले- मुनिराज, पास ही एक निर्मल जल का सरोवर भरा हुआ है, वहीं जाकर शुद्धि कर लीजिए न? भव्यसेन ने अपने पदस्थ पर, अपने कर्तव्य पर कुछ भी ध्यान न देकर जैसा क्षुल्लक ने कहा, वैसा ही कर लिया। सच बात तो यह है - ॥१३-२३॥
    किं करोति न मूढात्मा कार्यं मिथ्यात्वदूषितः ।
    न स्यान्मुक्तिप्रदं ज्ञानं चरित्रं दुर्दशामपि ॥
     उद्गतो भास्करश्चापि किं घूकस्य सुखायते ।
     मिथ्यादृष्टेः श्रुतं शास्त्रं कुमार्गाय प्रवर्तते ।
    यथा मृष्टं भवेत्कष्टं सुदुग्धं तुम्बिकागतम् ॥ -ब्रह्म नेमिदत्त
    अर्थात् मूर्ख पुरुष मिथ्यात्व के वश होकर कौन बुरा काम नहीं करते ? मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान और चारित्र मोक्ष का कारण नहीं होता । जैसे सूर्य के उदय से उल्लू को कभी सुख नहीं होता। मिथ्यादृष्टियों का शास्त्र सुनना, शास्त्राभ्यास करना केवल कुमार्ग में प्रवृत होने का कारण है। जैसे मीठा दूध भी तूबड़ी के सम्बन्ध से कड़वा हो जाता है। इन सब बातों को विचार क्षुल्लक ने भव्यसेन के आचरण से समझ लिया कि ये नाम मात्र के जैनी हैं, पर वास्तव में इन्हें जैनधर्म पर श्रद्धान नहीं, ये मिथ्यात्वी हैं। उस दिन से चन्द्रप्रभ ने भव्यसेन का नाम अभव्यसेन रखा। सच बात है दुराचार से क्या नहीं होता ? ॥२४-२८॥
    क्षुल्लक ने भव्यसेन की परीक्षा कर अब रेवती रानी की परीक्षा करने का विचार किया। दूसरे दिन उसने अपने विद्याबल से कमल पर बैठे हुए और वेदों का उपदेश करते हुए चतुर्मुख ब्रह्मा का वेष बनाया और शहर से पूर्व दिशा की ओर कुछ दूरी पर जंगल में वह ठहरा। यह हाल सुनकर राजा, भव्यसेन आदि सभी वहाँ गए और ब्रह्माजी को उन्होंने नमस्कार किया। उनकी चरण वंदना कर वे बड़े खुश हुए। राजा ने चलते समय अपनी प्रिया रेवती से भी ब्रह्माजी की वन्दना के लिए चलने को कहा था, पर रेवती सम्यक्त्व रत्न से भूषित थी, जिनभगवान् की अनन्यभक्त थी इसलिए वह नहीं गई। उसने राजा से कहा-महाराज, मोक्ष और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र को प्राप्त कराने वाला सच्चा ब्रह्मा जिनशासन में आदि जिनेन्द्र कहा गया है, उसके सिवा अन्य ब्रह्मा हो ही नहीं सकता और जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए आप जा रहे हैं, वह ब्रह्मा नहीं है किन्तु कोई धूर्त ठगने के लिए ब्रह्मा का वेष लेकर आया है। मैं तो नहीं चलूँगी ॥ २९-३५॥
    दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए, चतुर्बाहु, शंख, चक्र, गदा आदि से युक्त और दैत्यों को कँपाने वाले वैष्णव भगवान् का वेष बनाकर दक्षिण दिशा में अपना डेरा जमाया ॥३६-३७॥
    तीसरे दिन उस बुद्धिमान् क्षुल्लक ने बैल पर बैठे हुए, पार्वती के मुख कमल को देखते हुए, सिर पर जटा रखाये हुए, गणपति युक्त और जिन्हें हजारों देव आ-आकर नमस्कार कर रहे हैं, ऐसा शिव का वेष धारण कर पश्चिम दिशा की शोभा बढ़ाई ॥३८-३९॥
    चौथे दिन उसने अपनी माया से सुन्दर समवसरण में विराजे हुए, आठ प्रातिहार्यों से विभूषित, मिथ्यादृष्टियों के मान को नष्ट करने वाले मानस्तंभादि से युक्त, निर्ग्रन्थ और जिन्हें हजारों देव,विद्याधर, चक्रवर्ती आ-आकर नमस्कार करते हैं, ऐसा संसार श्रेष्ठ तीर्थंकर का वेष बनाकर उत्तर दिशा को अलंकृत किया। तीर्थंकर भगवान् का आगमन सुनकर सबको बहुत आनन्द हुआ। सब प्रसन्न होते हुए भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करने को गए । राजा, भव्यसेन आदि भी उनमें शामिल थे । तीर्थंकर भगवान् के दर्शनों के लिए भी रेवती रानी को न जाती हुई देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ । बहुतों ने उससे चलने के लिए आग्रह भी किया, पर वह न गई कारण, वह सम्यक्त्वरूप मौलिक रत्न से भूषित थी, उसे जिनभगवान् के वचनों पर पूरा विश्वास था कि तीर्थंकर परम देव चौबीस ही होते हैं और वासुदेव नौ और रुद्र ग्यारह होते हैं। फिर उनकी संख्या को तोड़ने वाले ये दसवें वासुदेव, बारहवें रुद्र और पच्चीसवें तीर्थंकर आ कहाँ से सकते हैं? वे तो अपने-अपने कर्मों के अनुसार जहाँ उन्हें जाना था वहाँ चले गए। फिर यह नई सृष्टि कैसी ? इनमें न तो कोई सच्चा रुद्र है, न वासुदेव है और न तीर्थंकर है किन्तु कोई मायावी ऐन्द्रजालिक अपनी धूर्तता से लोगों को ठगने के लिए आया है। यह विचार कर रेवती रानी तीर्थंकर की वन्दना के लिए भी नहीं गई। सच है कहीं वायु से मेरु पर्वत भी चला है? ॥४०-४८॥
    इसके बाद चन्द्रप्रभ, क्षुल्लक वेष ही में, पर अनेक प्रकार की व्याधियों से युक्त तथा अत्यन्त मलिन शरीर होकर रेवती के घर भिक्षा के लिए पहुँचे। आँगन में पहुँचते ही वे मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़े। उन्हें देखते ही धर्मवत्सला रेवती रानी हाय-हाय कहती हुई उनके पास दौड़ी गई और बड़ी भक्ति और विनय से उसने उन्हें उठाकर सचेत किया। इसके बाद अपने महल में ले जाकर बड़े कोमल और पवित्र भावों से उसने उन्हें प्रासुक आहार कराया। सच है जो दयावान् होते हैं उनकी बुद्धि दान देने में स्वभाव ही से तत्पर रहती है ॥४९-५३॥
    क्षुल्लक को अब तक भी रेवती की परीक्षा से सन्तोष नहीं हुआ। सो उन्होंने भोजन करने के साथ ही वमन कर दिया, जिसमें अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही थी क्षुल्लक की यह हालत देखकर रेवती को बहुत दुःख हुआ। उसने बहुत पश्चाताप किया कि न जाने क्या अपथ्य मुझ पापिनी के द्वारा दे दिया गया, जिससे इनकी यह हालत हो गई मेरी इस असावधानता को धिक्कार है । इस प्रकार बहुत कुछ है पश्चाताप करके उसने क्षुल्लक का शरीर पोंछा और बाद में कुछ गरम जल से उसे धोकर साफ किया ॥५४-५६॥
    क्षुल्लक रेवती की भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वे अपनी माया समेट कर बड़ी खुशी के साथ रेवती से बोले-देवी, संसार श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्मवृद्धि तेरे मन को पवित्र करे, जो कि सब सिद्धियों की देने वाली है और तुम्हारे नाम से मैंने यात्रा में जहाँ-जहाँ जिनभगवान् की पूजा की है वह भी तुम्हें कल्याण की देने वाली हो ॥५७-६०॥
    देवी, तुमने जिन संसार श्रेष्ठ और संसार समुद्र से पार करने वाले अमूढदृष्टि अंग को ग्रहण किया है, उसकी मैंने नाना तरह से परीक्षा की, पर उसमें तुम्हें अचल पाया तुम्हारे इस त्रिलोक पूज्य सम्यक्त्व की कौन प्रशंसा करने को समर्थ हैं? कोई नहीं । इस प्रकार गुणवती रेवती रानी की प्रशंसा कर और उसे सब हाल कहकर क्षुल्लक अपने स्थान चले गए ॥६१-६३॥
    इसके बाद वरुण नृपति और रेवती रानी का बहुत समय सुख के साथ बीता। एक दिन राजा को किसी कारण से वैराग्य हो गया है। वे अपने शिवकीर्ति नामक पुत्र को राज्य सौंपकर और सब माया जाल तोड़कर तपस्वी बन गए। साधु बनकर उन्होंने खूब तपश्चर्या की और आयु के अन्त में समाधिमरण कर वे माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए ॥६४-६५॥
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    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    मैं संसारपूज्य जिनभगवान् को नमस्कार कर श्रीवारिषेण मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यग्दर्शन के स्थितिकरण नामक अंग का पालन किया है। अपनी सम्पदा से स्वर्ग को नीचा दिखाने वाले मगधदेश के अन्तर्गत राजगृह नाम का एक सुन्दर शहर था। उसके राजा थे श्रेणिक । वे सम्यग्दृष्टि थे, उदार थे और राजनीति के अच्छे विद्वान् थे। उनकी महारानी का नाम चेलना था। वह भी सम्यक्त्वरूपी अमोल रत्न से भूषित थी, बड़ी धर्मात्मा, सती और विदुषी थी । उसके एक पुत्र था। उसका नाम था वारिषेण । वारिषेण बहुत गुणी था, धर्मात्मा श्रावक था एक बार सत्य को जानने वाला यह वारिषेण चतुर्दशी की रात्रि में उपवास सहित कायोत्सर्ग से श्मशान में स्थित था । एक दिन मगधसुन्दरी नाम की एक वेश्या राजगृह के उपवन में क्रीड़ा करने को आई हुई थी। उसने वहाँ श्रीकीर्ति नामक सेठ के गले में एक बहुत ही सुन्दर रत्नों का हार पड़ा हुआ देखा। उसे देखते ही मगधसुन्दरी उसके लिए लालायित हो उठी। उसे हार के बिना अपना जीवन निरर्थक जान पड़ने लगा। सारा संसार उसे हारमय दिखने लगा। वह उदास मुँह घर पर लौट आई। रात के समय उसका प्रेमी विद्युत्चोर जब घर पर आया तब उसने मगधसुन्दरी को उदास मुँह देखकर बडे प्रेम से पूछा-प्रिये ! आज मैं तुम्हें उदास देखता हूँ, क्या इसका कारण तुम बतलाओगी? तुम्हारी यह उदासी मुझे अत्यन्त दुःखी कर रही है ॥२-८॥
    मगधसुन्दरी विद्युत् पर कटाक्षबाण चलाते हुए कहा- प्राणवल्लभ ! तुम मुझे इतना प्रेम करते हो, पर मुझे तो जान पड़ता है कि यह सब तुम्हारा दिखाऊ प्रेम है और सचमुच तुम्हारा यदि मुझ पर प्रेम है तो कृपाकर श्रीकीर्ति सेठ के गले का हार, जिसे आज मैंने बगीचे में देखा है और जो बहुत ही सुन्दर है, लाकर मुझे दीजिये; जिससे मेरी इच्छा पूरी हो । तब ही मैं समझँगी कि आप मुझ से सच्चा प्रेम करते हैं और तब ही मेरे प्राणवल्लभ होने के अधिकारी हो सकेंगे ॥९॥
    मगधसुन्दरी के जाल में फँसकर उसे इस कठिन कार्य के लिए भी तैयार होना पड़ा। वह उसे सन्तोष देकर उसी समय वहाँ से चल दिया और श्रीकीर्ति सेठ के महल पर पहुँचा। वहाँ से वह श्रीकीर्ति के शयनागार में गया और अपनी कार्यकुशलता से उसके गले में से हार निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ वहाँ से चल दिया । हार के दिव्य तेज को वह नहीं छुपा सका । सो भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया। वे उसे पकड़ने को दौड़े। वह भागता हुआ श्मशान की ओर निकल आया । वारिषेण इस समय श्मशान में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। सो विद्युत्वोर मौका देखकर पीछे आने वाले सिपाहियों के पंजे से छूटने के लिए उस हार को वारिषेण के आगे पटक कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ। इतने में सिपाही भी वहीं आ पहुँचे, जहाँ वारिषेण को हार के पास खड़ा देखकर भौचक्के से रह गए। वे उसे उस अवस्था में देखकर हँसे और बोले- वाह, चाल तो खूब खेली गई? मानों हम कुछ जानते ही नहीं। तुझे धर्मात्मा जानकर हम छोड़ जायेंगे। पर याद रखिये हम अपने मालिक की सच्ची नौकरी करते हैं। हम तुम्हें कभी नहीं छोड़ेंगे यह कहकर वे वारिषेण को बाँधकर श्रेणिक के पास ले गए और राजा से बोले-महाराज, ये हार चुराकर लिए जा रहा था, सो हमने इन्हें पकड़ लिया॥१०-१३॥
    सुनते ही श्रेणिक का चेहरा क्रोध के मारे लाल सुर्ख हो गया, उनके ओठ काँपने लगे, आँखों से क्रोध की ज्वालाएँ निकलने लगीं। उन्होंने गरज कर कहा- देखो, इस पापी का नीच कर्म जो श्मशान में जाकर ध्यान करता है और लोगों को, यह बतलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ, ठगता है, धोखा देता है। पापी! कुल कलंक! देखा मैंने तेरा धर्म का ढोंग ! सच है - दुराचारी, लोगों को धोखा देने के लिए क्या-क्या अनर्थ नहीं करते? जिसे मैं राज्यसिंहासन पर बिठाकर संसार का अधीश्वर बनाना चाहता था, वह इतना नीच होगा? इससे बढ़कर और क्या कष्ट हो सकता है? अच्छा जो इतना दुराचारी है और प्रजा को धोखा देकर ठगता है उसका जीवित रहना सिवा हानि के लाभदायक नहीं हो सकता इसलिए जाओ इसे ले जाकर मार डालो ॥१४-१७॥
    अपने खास पुत्र के लिए महाराज की ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्र लिखे से होकर महाराज की ओर देखने लगे। सबकी आँखों में पानी भर आया । पर किस की मजाल जो उनकी आज्ञा का प्रतिवाद कर सके। जल्लाद लोग उसी समय वारिषेण को बध्यभूमि में ले गए। उनमें से एक ने तलवार खींचकर बड़े जोर से वारिषेण की गर्दन पर मारी, पर यह क्या आश्चर्य? जो उसकी गर्दन पर बिल्कुल घाव नहीं हुआ किन्तु वारिषेण को उल्टा यह जान पड़ा - मानो किसी ने उस पर फूलों की माला फेंकी है। जल्लाद लोग देखकर दाँतों में अँगुली दबा गए। वारिषेण के पुण्य ने उसकी रक्षा की। सच है- ॥१८-२०॥
    पुण्य के उदय से अग्नि जल बन जाती है, समुद्र स्थल हो जाता है, विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है और विपत्ति सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इसलिए जो लोग सुख चाहते हैं, उन्हें पवित्र कार्यों द्वारा सदा पुण्य उत्पन्न करना चाहिए ॥२१-२२॥
    जिनभगवान् की पूजा करना, दान देना, व्रत-उपवास करना, सदा विचार पवित्र और शुद्ध रखना, परोपकार, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापकर्मों का न करना ये पुण्य उत्पन्न करने के कारण हैं ॥२३॥
    वारिषेण की यह हालत देखकर सब उसकी जय जयकार करने लगे। देवों ने प्रसन्न होकर उस पर सुगंधित फूलों की वर्षा की। नगरवासियों को इस समाचार से बड़ा आनन्द हुआ । सबने एक स्वर से कहा कि, वारिषेण तुम धन्य हो, तुम वास्तव में साधु पुरुष हो, तुम्हारा चारित्र बहुत निर्मल है, तुम जिनभगवान् के सच्चे सेवक हो, तुम पवित्र पुरुष हो, तुम जैनधर्म के सच्चे पालन करने वाले हो । पुण्य-पुरुष, तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जाये उतनी थोड़ी है। सच है, पुण्य से क्या नहीं होता? श्रेणिक ने जब इस अलौकिक घटना का हाल सुना तो उन्हें भीअपने अविचार पर बड़ा पश्चाताप हुआ। वे दुःखी होकर बोले- ॥२४-२९॥
    जो मूर्ख लोग आवेश में आकर बिना विचारे किसी काम को कर बैठते हैं, वे फिर बड़े भी क्यों न हों, उन्हें मेरी तरह दुःख ही उठाने पड़ते हैं । इसलिए चाहे कैसा ही काम क्यों न हो, उसे बड़े विचार के साथ करना चाहिए। श्रेणिक बहुत कुछ पश्चाताप करके पुत्र के पास श्मशान में आए। वारिषेण की पुण्यमूर्ति को देखते ही उनका हृदय पुत्र प्रेम से भर आया । उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने पुत्र को छाती से लगाकर रोते-रोते कहा- प्यारे पुत्र, मेरी मूर्खता को क्षमा करो! मैं क्रोध के मारे अन्धा बन गया था, इसलिए आगे पीछे का कुछ सोच विचार न कर मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। पुत्र, पश्चाताप से मेरा हृदय जल रहा है, उसे अपने क्षमारूपी जल से बुझाओ ! दुःख के समुद्र में मैं गोते खा रहा हूँ, मुझे सहारा देकर निकालो! ॥३०-३१॥
    अपने पूज्य पिता की यह हालत देखकर वारिषेण को बड़ा कष्ट हुआ । वह बोला- पिताजी, आप यह क्या कहते हैं? आप अपराधी कैसे? आपने तो अपने कर्तव्य का पालन किया है और कर्तव्य पालन करना कोई अपराध नहीं है। मान लीजिए कि यदि आप पुत्र-प्रेम के वश होकर मेरे लिए ऐसे दण्ड की आज्ञा न देते, तो उससे प्रजा क्या समझती ? चाहे मैं अपराधी नहीं भी था तब भी क्या प्रजा इस बात को देखती? वह तो यही समझती कि आपने मुझे अपना पुत्र जानकर छोड़ दिया। पिताजी, आपने बहुत ही बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का काम किया है। आप की नीतिपरायणता देखकर मेरा हृदय आनन्द समुद्र में लहरें ले रहा है। आपने पवित्र वंश की आज लाज रख ली। यदि आप ऐसे समय में अपने कर्तव्य से जरा भी खिसक जाते, तो सदा के लिए अपने कुल में कलंक का टीका लग जाता। इसके लिए तो आपको प्रसन्न होना चाहिए न कि दुःखी । हाँ इतना जरूर हुआ कि मेरे इस समय पापकर्म का उदय था; इसलिए मैं निरपराधी होकर भी अपराधी बना । पर इसका मुझे कुछ खेद नहीं क्योंकि - ॥३२॥ 
    अवश्य ह्यनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् - वादीभसिंह
    अर्थात्-जो जैसा कर्म करता है उसका शुभ या अशुभ फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है। फिर मेरे लिए कर्मों का फल भोगना कोई नई बात नहीं है।
    पुत्र के ऐसे उन्नत और उदार विचार सुनकर श्रेणिक बहुत आनन्दित हुए। वे सब दुःख भूल गए। उन्होंने कहा, पुत्र सत्पुरुषों ने बहुत ठीक लिखा है-
    चन्दन को कितना भी घिसिये, अगुरु को खूब जलाइये, उससे उनका कुछ न बिगड़कर उल्टा उनमें से अधिक-अधिक सुगन्ध निकलेगी । उसी तरह सत्पुरुषों को दुष्ट लोग कितना ही सतावें, कितना ही कष्ट दें, पर वे उससे कुछ भी विकार को प्राप्त नहीं होते, सदा शान्त रहते हैं और अपनी बुराई करने वाले का भी उपकार ही करते हैं ॥३३॥
    वारिषेण के पुण्य का प्रभाव देखकर विद्युत् चोर को बड़ा भय हुआ । उसने सोचा कि राजा को मेरा हाल मालूम हो जाने से वे मुझे बहुत कड़ी सजा देंगे। इससे यही अच्छा है कि मैं स्वयं ही जाकर उनसे सब सच्चा-सच्चा हाल कह दूँ। ऐसा करने से वे मुझे क्षमा भी कर सकेंगे। यह विचार कर विद्युत्चोर महाराज के सामने जा खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर उनसे बोला- प्रभो, यह सब पापकर्म मेरा है। पवित्रात्मा वारिषेण सर्वथा निर्दोष है। पापिनी वेश्या के जाल में फँसकर ही मैंने यह नीच काम किया था; पर आज से मैं कभी ऐसा काम नहीं करूँगा । मुझे दया करके क्षमा कीजिए ॥३४-३५॥
    विद्युत्चोर को अपने कृतकर्म के पश्चाताप से दुःखी देख श्रेणिक उसे अभय देकर अपने प्रिय पुत्र वारिषेण से बोले-पुत्र, अब राजधानी में चलो, तुम्हारी माता तुम्हारे वियोग से बहुत दुःखी हो रही होंगी ॥३६॥
    उत्तर में वारिषेण ने कहा - पिताजी, मुझे क्षमा कीजिए । मैंने संसार की लीला देख ली। मेरी आत्मा उसमें और प्रवेश करने के लिए मुझे रोकती है। इसलिए मैं अब घर पर न जाकर जिनभगवान् के चरणों का आश्रय ग्रहण करूँगा । सुनिये, अब मेरा कर्तव्य होगा कि मैं हाथ ही में भोजन करूँगा, सदा वन में रहूँगा और मुनि मार्ग पर चलकर अपना आत्महित करूँगा। मुझे अब संसार में घूमने की इच्छा नहीं, विषयवासना से प्रेम नहीं। मुझे संसार दुःखमय जान पड़ता है, इसलिए मैं जान-बूझकर अपने को दुःखों में फँसाना नहीं चाहता क्योंकि-
    निजे पाणौ दीपे लसति भुवि कूपे निपततां फलं किं तेन स्यादिति - जीवंधर चम्पू
    अर्थात्-हाथ में प्रदीप लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरना चाहे, तो बतलाइए उस दीपक से क्या लाभ? जब मुझे दो अक्षरों का ज्ञान है और संसार की लीला से मैं अपरिचित नहीं हूँ; इतना होकर भी फिर मैं यदि उसमें फँसू, तो मुझसा मूर्ख और कौन होगा? इसलिए आप मुझे क्षमा कीजिए कि मैं आपकी पालनीय आज्ञा का भी बाध्य होकर विरोध कर रहा हूँ । यह कहकर वारिषेण फिर एक मिनट के लिए भी न ठहर कर वन की ओर चल दिया और श्रीसूरदेव मुनि के पास जाकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ॥३७-३९॥
    तपस्वी बनकर वारिषेण मुनि बड़ी दृढ़ता के साथ चारित्र का पालन करने लगे। वे अनेक देश- विदेशों में घूम-घूम कर धर्मोपदेश करते हुए एक बार पलाशकूट नामक शहर में पहुँचे। वहाँ श्रेणिक का मन्त्री अग्निभूति रहता था। उसका एक पुष्पडाल नाम का पुत्र था। वह बहुत धर्मात्मा था और दान, व्रत, पूजा आदि सत्कर्मों के करने में सदा तत्पर रहा करता था । वह वारिषेण मुनि को भिक्षार्थ आए हुए देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके सामने गया और भक्तिपूर्वक उनका आह्वान कर उसने नवधा भक्ति सहित उन्हें प्रासुक आहार दिया । आहार करके जब वारिषेण मुनि वन में जाने लगे तब पुष्पडाल भी कुछ तो भक्ति से, कुछ बालपने की मित्रता के नाते से और कुछ राजपुत्र होने के लिहाज से उन्हें थोड़ी दूर पहुँचाने के लिए अपनी स्त्री से पूछकर उनके पीछे-पीछे चल दिया। वह दूर तक जाने की इच्छा न रहते हुए भी मुनि के साथ-साथ चलता गया क्योंकि उसे विश्वास था कि थोड़ी दूर जाने के बाद ये मुझे लौट जाने के लिए कहेंगे ही। पर मुनि ने उसे कुछ नहीं कहा, तब उसकी चिन्ता बढ़ गई उसने मुनि को यह समझाने के लिए, कि मैं शहर से बहुत दूर निकल आया हूँ, मुझे घर पर जल्दी लौट जाना है, कहा-कुमार, देखते हैं यह वी सरोवर है, जहाँ हम आप खेला करते थे; यह वही छायादार और उन्नत आम का वृक्ष है, जिसके नीचे आप हम बाललीला का सुख लेते थे और देखो, यह वही विशाल भूभाग है, जहाँ मैंने और आपने बालपन में अनेक खेल खेले थे इत्यादि अपने पूर्व परिचित चिह्नों को बार-बार दिखलाकर पुष्पडाल ने मुनि का ध्यान अपने दूर निकल आने की ओर आकर्षित करना चाहा, पर मुनि उसके हृदय की बात जानकर भी उसे लौट जाने को न कह सके । कारण, वैसा करना उनका मार्ग नहीं था । इसके विपरीत उन्होंने पुष्पडाल के कल्याण की इच्छा से उसे खूब वैराग्य का उपदेश देकर मुनिदीक्षा दे दी । पुष्पडाल मुनि हो गया, संयम का पालन करने लगा और खूब शास्त्रों का अभ्यास करने लगा; पर तब भी उसकी विषयवासना न मिटी, उसे अपनी स्त्री की बार-बार याद आने लगी। आचार्य कहते हैं कि - ॥४०-५२॥
    उस काम को, उस मोह को, उन भोगों को धिक्कार है, जिनके वश होकर उत्तम मार्ग से चलने वाले भी अपना हित नहीं कर पाते। यही हाल पुष्पडाल का हुआ, जो मुनि होकर भी वह अपनी स्त्री को हृदय न भुला सका ॥५३॥
    इसी तरह पुष्पडाल को बारह वर्ष बीत गए। उसकी तपश्चर्या सार्थक होने के लिए गुरु ने उसे तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी और उसके साथ वे भी चले । यात्रा करते-करते एक दिन वे भगवान् वर्धमान के समवसरण में पहुँच गए। भगवान् को उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उस समय वहाँ गंधर्वदेव भगवान् की भक्ति कर रहे थे । उन्होंने काम की निन्दा में एक पद्य पढ़ा। वह सब यह था- ॥५४-५६॥
    'स्त्री चाहे मैली हो, कुचैली हो, हृदय की मलिन हो, पर वह भी अपने पति के प्रवासी होने पर, विदेश में रहने पर, पतिवियोग से वन-वन, पर्वतों - पर्वतों में मारी-मारी फिरती है अर्थात् काम के वश होकर नहीं करने के काम भी कर डालती है । "
    उक्त पद्य को सुनते ही पुष्पडाल मुनि भी काम से पीड़ित होकर अपनी स्त्री की प्राप्ति के लिए अधीर हो उठे। वे व्रत से उदासीन होकर अपने शहर की ओर रवाना हुए। उनके हृदय की बात जानकर वारिषेण मुनि भी उन्हें धर्म में दृढ़ करने के लिए उनके साथ-साथ चल दिये ॥५७-५८॥
    गुरु और शिष्य अपने शहर में पहुँचे। उन्हें देखकर सती चेलना ने सोचा-कि जान पड़ता है, पुत्र चारित्र से चलायमान हुआ है। नहीं तो ऐसे समय इसके यहाँ आने की क्या आवश्यकता थी? वह विचार कर उसने उसकी परीक्षा के लिए उसके बैठने को दो आसन दिये। उनमें एक काष्ठ का था और दूसरा रत्नजड़ित । वारिषेण मुनि रत्नजड़ित आसन पर न बैठकर काष्ठ के आसन पर बैठे। सच है - जो सच्चे मुनि होते हैं वे कभी ऐसा तप नहीं करते जिससे उनके आचरण में किसी को सन्देह हो । इसके बाद वारिषेण मुनि ने अपनी माता के सन्देह को दूर करके उनसे कहा-माता, कुछ समय के लिए मेरी सब स्त्रियों को यहाँ बुलवा लीजिये । महारानी ने वैसा ही किया । वारिषेण की सब स्त्रियाँ खूब वस्त्राभूषणों से सजकर उनके सामने आ उपस्थित हुई वे बड़ी सुन्दरी थीं । देवकन्यायें भी उनके रूप को देखकर लज्जित होती थीं। मुनि को नमस्कार कर वे सब उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा के लिए खड़ी रहीं ॥५९-६५॥
    वारिषेण ने तब अपने शिष्य पुष्पडाल से कहा- क्यों देखते हो न? ये मेरी स्त्रियाँ हैं, यह राज्य है, यह सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये अच्छी जान पड़ती हैं, तुम्हारा संसार से प्रेम है, तो इन्हें तुम स्वीकार करो । वारिषेण मुनिराज का यह आश्चर्य में डालने वाला कर्तव्य देखकर पुष्पडाल बड़ा लज्जित हुआ। उसे अपनी मूर्खता पर बहुत खेद हुआ। वह मुनि के चरणों को नमस्कार कर बोला-प्रभो, आप धन्य हैं, आपने लोभरूपी पिशाच को नष्ट कर दिया है, आप ही ने जिनधर्म का सच्चा सार समझा है। संसार में वे ही बड़े पुरुष हैं, महात्मा हैं, जो आपके समान संसार की सब सम्पत्ति को लात मारकर वैरागी बनते हैं। उन महात्माओं के लिए फिर कौन वस्तु संसार में दुर्लभ रह जाती हैं? दयासागर, मैं तो सचमुच जन्मान्ध हूँ, इसीलिए तो मौलिक तपरत्न को प्राप्त कर भी अपनी स्त्री को चित्त से अलग नहीं कर सका। प्रभो, जहाँ आपने बारह वर्ष पर्यन्त खूब तपश्चर्या की वहाँ मुझ पापी ने इतने दिन व्यर्थ गँवा दिये-सिवा आत्मा को कष्ट पहुँचाने के कुछ नहीं किया । स्वामी, मैं बहुत अपराधी हूँ इसलिए दया करके मुझे अपने पाप का प्रायश्चित्त देकर पवित्र कीजिए । पुष्पडाल के भावों का परिवर्तन और कृतकर्मddे पश्चाताप से उनके परिणामों की कोमलता तथा पवित्रता देखकर वारिषेण मुनिराज बोले-धीर! इतने दुःखी न बनिये। पापकर्मों के उदय से कभी-कभी अच्छे-अच्छे विद्वान् भी हतबुद्धि हो जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । यही अच्छा हुआ जो तुम पीछे अपने मार्ग परआ गए। इसके बाद उन्होंने पुष्पडाल मुनि को उचित प्रायश्चित्त देकर धर्म में स्थिर किया, अज्ञान के कारण सम्यग्दर्शन से विचलित देखकर उनका धर्म में स्थितिकरण किया ॥६६-७५॥
    पुष्पडाल मुनि गुरु महाराज की कृपा से अपने हृदय को शुद्ध बनाकर बड़े वैराग्य भावों से कठिन-कठिन तपश्चर्या करने लगे, भूख-प्यास की कुछ परवाह न कर परीषह सहने लगे।
    इसी प्रकार अज्ञान व मोह से कोई धर्मात्मा पुरुष धर्मरूपी पर्वत से गिरता हो, तो उसे सहारा देकर न गिरने देना चाहिए । जो धर्मज्ञ पुरुष इस पवित्र स्थितिकरण अंग का पालन करते हैं, समझो कि वे स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले धर्मरूपी वृक्ष को सींचते हैं । शरीर, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि अस्थिर हैं, विनाशक हैं इनकी रक्षा भी जब कभी - कभी सुख देने वाली हो जाती है तब अनन्तसुख देने वाली धर्म की रक्षा का कितना महत्त्व होगा, यह सहज में जाना जा सकता है। इसलिए धर्मात्माओं को दुःख देने वाले प्रमाद को छोड़कर संसार - समुद्र से पार करने वाले पवित्र धर्म का सेवन करना चाहिए ॥७६-८०॥
    श्रीवारिषेण मुनि, जो कि सदा जिनभगवान् की भक्ति में लीन रहते थे, तप पर्वत से गिरते हुए पुष्पडाल मुनि को हाथ का सहारा देकर तपश्चर्या और ध्यानाध्ययन करने के लिए वन में चले गए, वे प्रसिद्ध महात्मा आत्मसुख प्रदान कर मुझे भी संसार - समुद्र से पार करें ॥८१॥
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  19. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जगत्पवित्र जिनेन्द्र भगवान् जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर सुकौशल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    अयोध्या में प्रजापाल राजा के समय में एक सिद्धार्थ नाम के सेठ हुए हैं। उनके बत्तीस अच्छी- अच्छी सुन्दर स्त्रियाँ थीं। पर खोटे भाग्य से उनकी कोई सन्तान न थी । स्त्री कितनी भी सुन्दर हो, गुणवती हो, पर बिना सन्तान के उसकी शोभा नहीं होती। जैसे बिना फल-फूल के लताओं की शोभा नहीं होती। इन स्त्रियों में जो सेठ की खास प्राणप्रिया थी, जिस पर कि सेठ महाशय का अत्यन्त प्रेम था, वह पुत्र प्राप्ति के लिए सदा कुदेवों की पूजा - मानता किया करती थी। एक दिन उसे कुदेवों की पूजा करते एक मुनिराज ने देख लिया। उन्होंने तब उससे कहा-बहिन, जिस आशा से तू इन कुदेवों की पूजा करती है वह आशा ऐसा करने से सफल न होगी। कारण सुख-सम्पत्ति, सन्तान प्राप्ति, नीरोगता, मान-मर्यादा, सद्बुद्धि आदि जितनी अच्छी बातें हैं, उन सबका कारण पुण्य है। इसलिए यदि तू पुण्य - प्राप्ति के लिए कोई उपाय करे तो अच्छा हो । मैं तुझे तेरे हित की बात कहता हूँ कि इन यक्षादिक कुदेवों की पूजा - मानता छोड़कर, जो कि पुण्य-बन्ध का कारण नहीं है, जिनधर्म का विश्वास कर। इससे तू सत्पथ पर आ जायेगी और फिर तेरी आशा भी पूरी होने लगेगी। जयावती को मुनि का उपदेश रुचा और वह अब से जिनधर्म पर श्रद्धा करने लगी। चलते समय उसे ज्ञानी मुनि ने यह भी कह दिया था कि जिसकी तुझे चाह है वह चीज तुझे सात वर्ष के भीतर-भीतर अवश्य प्राप्त होगी । तू चिन्ता छोड़कर धर्म का पालन कर । मुनि का यह अंतिम वाक्य सुनकर जयावती को बड़ी भारी खुशी हुई और क्यों न हो? जिसकी कि वर्षों से उसके हृदय में भावना थी वही भावना तो अब सफल होने को है न! अस्तु ! मुनि का कथन सत्य हुआ। जयावती ने धर्म के प्रसाद से पुत्र - रत्न का मुँह देख पाया। उसका नाम रखा गया सुकौशल। सुकौशल खूबसूरत और तेजस्वी था ॥२-९॥
    सिद्धार्थ सेठ विषय-भोगों को भोगते - भोगते कंटाल गए थे। उनके हृदय की ज्ञानमयी आँखों ने उन्हें अब संसार का सच्चा स्वरूप बतला कर बहुत डरा दिया था । वे चाहते तो नहीं थे कि एक मिनट भी संसार में रहे, पर अपनी सम्पत्ति को सम्हाल लेने वाला कोई न होने से पुत्र - दर्शन तक, उन्हें लाचारी से घर में रहना पड़ा अब सुकौशल हो गया, इसका उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। वे पुत्र का मुखचन्द्र देखकर और अपने सेठ पद का उसके ललाट पर तिलक कर आप श्री नयंधर मुनिराज के पास दीक्षा ले गए। अभी बालक को जन्मते ही तो देर न हुई कि सिद्धार्थ सेठ घर-बार छोड़कर योगी हो गए। उनकी इस कठोरता पर जयावती को बड़ा गुस्सा आया । न केवल सिद्धार्थ पर ही उसे गुस्सा आया किन्तु नयंधर मुनि पर भी । इसलिए कि उन्हें इस समय सिद्धार्थ को दीक्षा देना उचित न था और इसी कारण मुनि मात्र पर उसकी अश्रद्धा हो गई। उसने अपने घर में मुनियों का आना-जाना तक बन्द कर दिया। बड़े दुःख की बात है कि यह जीव मोह के वश हो धर्म को भी छोड़ बैठता है । जैसे जन्म का अन्धा हाथ में आए चिन्तामणि को खो बैठता है ॥१० - १३॥
    वयः प्राप्त होने पर सुकौशल का अच्छे-अच्छे घराने की कोई बत्तीस कन्या-रत्नों से ब्याह हुआ। सुकौशल के दिन अब बड़े ऐशो आराम के साथ बीतने लगे। माता का उस पर अत्यन्त प्यार होने से नित नई वस्तुएँ उसे प्राप्त होती थीं। सैकड़ों दास-दासियाँ उसकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करती थी। वह जो कुछ चाहता वह कार्य उसकी आँखों के इशारे मात्र से होता था। सुकौशल को कभी कोई बात के लिए चिन्ता न करनी पड़ती थी। सच है, जिनके पुण्य का उदय होता है उन्हें सब सुख- सम्पत्ति सहज में प्राप्त हो जाती हैं ॥ १४-१५॥
    एक दिन सुकौशल, अपनी माँ, अपनी स्त्री और अपनी धाय के साथ महल पर बैठा अयोध्या की शोभा तथा मन को लुभाने वाले प्रकृति की नई-नई सुन्दर छटाओं को देख-देखकर बड़ा खुश हो रहा था। उसकी दृष्टि कुछ दूर तक गई उसने एक मुनिराज को देखा। ये मुनि इसके पिता सिद्धार्थ ही थे। इस समय कई अन्य नगरों और गाँवों में विहार करते हुए ये आ रहे थे। इनके वंदन पर नाममात्र के लिए भी वस्त्र न देखकर सुकौशल बड़ा चकित हुआ । इसलिए कि पहले कभी उसने मुनि को देखा नहीं था। उनका अजीब वेष देखकर सुकौशल ने माँ से पूछा- माँ, यह कौन है? सिद्धार्थ को देखते ही जयावती की आँखों में खून बरस गया। वह कुछ घृणा और कुछ उपेक्षा कर बोली-बेटा, होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब परन्तु अपनी माँ के इस उत्तर से सुकौशल को सन्तोष नहीं हुआ। उसने फिर पूछा- माँ, यह तो बड़ा खूबसूरत और तेजस्वी देख पड़ता है। तुम इसे भिखारी कैसे बताती हो? जयावती को अपने स्वामी पर ऐसी घृणा करते देख सुकौशल की धाय सुनन्दा से न रहा गया। वह बोल उठी-अरी ओ, तू इन्हें जानती है कि ये हमारे मालिक है । फिर भी तू इनके सम्बन्ध में ऐसा उल्टा सुझा रही है? तुझे यह योग्य नहीं। क्या हो गया यदि ये मुनि हो गए तो? इसके लिए क्या तुझे इनकी निन्दा करनी चाहिए? इसकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि सुकौशल की माँ ने उसे आँख के इशारे से रोककर कह दिया कि चुप क्यों नहीं रह जाती । तुझसे कौन पूछता है, जो बीच में ही बोल उठी! सच है, दुष्ट स्त्रियों के मन में धर्म- प्रेम कभी नहीं होता। जैसे जलती हुई आग का बीच का भाग ठंडा नहीं होता ॥ १६-२२॥
    सुकौशल ठीक तो न समझ पाया, पर उसे इतना ज्ञान हो गया कि माँ ने मुझे सच्ची बात नहीं बतलाई। इतने में रसोइया सुकौशल को भोजन कर आने के लिए बुलाने आया। उसने कहा-प्रभो, चलिए। बहुत समय हो गया । सब भोजन ठंडा हुआ जाता है । सुकौशल ने तब भोजन के लिए इंकार कर दिया। माता और स्त्रियों ने भी बहुत आग्रह किया, पर वह भोजन करने को नहीं गया । उसने साफ-साफ कह दिया कि जब तक मैं उस महापुरुष का सच्चा - सच्चा हाल न सुन लूँगा तब तक भोजन नहीं करूँगा। जयावती को सुकौशल के इस आग्रह से कुछ गुस्सा आ गया, सो वह तो वहाँ से चल दी। पीछे सुनन्दा ने सिद्धार्थ मुनि की सब बातें सुकौशल से कह दीं। सुनकर सुकौशल को कुछ दुःख भी हुआ, पर साथ ही वैराग्य ने उसे सावधान कर दिया । वह उसी समय सिद्धार्थ मुनिराज के पास गया और उन्हें नमस्कार कर धर्म का स्वरूप सुनने की उसने इच्छा प्रकट की। सिद्धार्थ ने उसे मुनिधर्म और गृहस्थ-धर्म का खुलासा स्वरूप समझा दिया । सुकौशल को मुनिधर्म बहुत पसन्द पड़ा। वह मुनिधर्म की भावना भाता हुआ घर आया और सुभद्रा की गर्भस्थ सन्तान को अपने सेठ पद का तिलक कर तथा सब माया-ममता, धन-दौलत और स्वजन - परिजन को छोड़कर श्री सिद्धार्थ मुनि के पास ही दीक्षा लेकर योगी बन गया । सच है - जिसे पुण्योदय से धर्म पर प्रेम है और जो अपना हित करने के लिए सदा तैयार रहता है, उस महापुरुष को कौन झूठी - सच्ची सुझाकर अपने कैद में रख सकता है, उसे धोखा दे ठग सकता है? ॥२३-३०॥
    एक मात्र पुत्र और वह भी योगी बन गया । इस दुःख की जयावती के हृदय पर बड़ी गहरी चोट लगी। वह पुत्र दुःख से पगली - सी बन गई । खाना-पीना उसके लिए जहर हो गया। उसकी सारी जिन्दगी ही धूलधानी हो गई वह दुःख और चिन्ता के मारे दिनोंदिन सूखने लगी। जब देखो तब ही उसकी आँखें आँसुओं से भरी रहती । मरते दम तक वह पुत्रशोक को न भूल सकी। इसी चिन्ता, दुःख, आर्त्तध्यान से उसके प्राण निकले । इस प्रकार बुरे भावों से मरकर मगध देश के मौद्गल नाम के पर्वत पर उसने व्याघ्री का जन्म लिया। इसके तीन बच्चे हुए। यह अपने बच्चों के साथ पर्वत पर ही रहती थी | सच हैं, जो जिनेन्द्र भगवान् के पवित्र धर्म को छोड़ बैठते हैं, उनकी ऐसी ही दुर्गति होती है। विहार करते हुए सिद्धार्थ और सुकौशल मुनि ने भाग्य से इसी पर्वत पर आकर योग धारण कर लिया। योग पूरा हुए बाद जब ये भिक्षा के लिए शहर में जाने के लिए पर्वत पर से नीचे उतर रहे थे उसी समय वह व्याघ्री, जो कि पूर्वजन्म में सिद्धार्थ की स्त्री और सुकौशल की माता थी, इन्हें खाने को दौड़ी और जब तक कि ये संन्यास लेकर बैठते हैं, उसने इन्हें खा लिया। ये पिता-पुत्र समाधि से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर देव हुए। वहाँ से आकर अब वे निर्वाण लाभ करेंगे। ये दोनों मुनिराज आप भव्यजनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥३१-३६॥
    जिस समय व्याघ्री ने सुकौशल को खाते-खाते उनका हाथ खाना शुरू किया, उस समय उसकी दृष्टि सुकौशल के हाथों के लाञ्छनों (चिह्नों) पर जा पड़ी। उन्हें देखते ही इसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हो गया। जिसे वह खा रही है, वह उसी का पुत्र है, जिस पर उसका बेहद प्यार था, उसे ही वह खा रही है यह ज्ञान होते ही उसे जो दुःख, जो आत्म-ग्लानि हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वह सोचती है, हाय! मुझसी पापिनी कौन होगी जो अपने ही प्यारे पुत्र को मैं खा रही हूँ ! धिक्कार है मुझसी मूर्खिनी को जो पवित्र धर्म को छोड़कर अनन्त संसार को अपना वास बनाती है। उस मोह को, उस संसार को धिक्कार है जिसके वश हो यह जीव अपने हित-अहित को भूल जाता है और फिर कुमार्ग में फँसकर दुर्गतियों में दुःख उठाता है । इस प्रकार अपने किए कर्मों की बहुत कुछ आलोचना कर उस व्याघ्री ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अन्त में शुद्ध भावों से मरकर व सौधर्मस्वर्ग में देव हुई। सच है - जीवों की शक्ति अद्भुत ही हुआ करती है और जैनधर्म का प्रभाव भी संसार में बड़ा ही उत्तम है। नहीं तो कहाँ तो पापिनी व्याघ्री और कहाँ उसे स्वर्ग की प्राप्ति इसलिए जो आत्मसिद्धि ने चाहने वाले हैं, उन भव्य जनों को स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले पवित्र जैनधर्म का पालन करना चाहिए ॥ ३७-४२॥
    श्री मूलसंघरूपी अत्यन्त ऊँचे उदयाचल से उदय होने वाले मेरे गुरु श्रीमल्लिभूषणरूपी सूर्य संसार में सदा प्रकाश करते रहें ॥४३॥
    वे प्रभाचन्द्राचार्य विजयलाभ करें जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिए, समुद्र में रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी तरंगों से युक्त हैं, स्याद्वाद विद्या के बड़े ही विद्वान् हैं । समुद्र की तरंगें जैसे कूड़ा-करकट निकाल बाहर फेंक देती हैं, इसी तरह ये अपनी सप्तभंगवाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मतों के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजयलाभ करते थे। समुद्र में मगरमच्छ घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिनेन्द्र भगवान् का वचनमयी निर्मल अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक तरह की बिकने योग्य वस्तुएँ रहती हैं ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रेय-वस्तु को धारण किए थे ॥४४॥
  20. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    संसार के द्वारा पूज्य और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान का उद्योत करने वाले श्री जिन भगवान् को नमस्कार कर श्री समन्तभद्राचार्य की पवित्र कथा लिखता हूँ, जो कि सम्यक्चारित्र की प्रकाशक है ॥१॥
    भगवान् समन्तभद्र का पवित्र जन्म दक्षिणप्रान्त के अन्तर्गत कांची नाम की नगरी में हुआ था। वे बड़े तत्त्वज्ञानी और न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयों के भी बड़े भारी विद्वान् थे। संसार में उनकी बहुत ख्याति थी। वे कठिन से कठिन चारित्र का पालन करते, दुस्सह तप तपते और बड़े आनन्द से अपना समय आत्मानुभव, पठन-पाठन, ग्रन्थरचना आदि में व्यतीत करते ॥२-४॥
    कर्मों का प्रभाव दुर्निवार है। उसके लिए राजा हो या रंक हो, धनी हो या निर्धन हो, विद्वान् हो या मूर्ख हो, साधु हो या गृहस्थ हो सब समान हैं, सबको अपने-अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। भगवान् समन्तभद्र के लिए भी एक ऐसा ही कष्ट का समय आया । वे बड़े भारी तपस्वी थे, विद्वान् थे, पर कर्मों ने इन बातों की कुछ परवाह न कर उन्हें अपने चक्र में फँसाया । असातावेदनीय के तीव्र उदय से भस्मक व्याधि नाम का एक भयंकर रोग उन्हें हो गया। उससे वे जो कुछ खाते वह उसी समय भस्म हो जाता और भूख वैसी की वैसी बनी रहती। उन्हें इस बात का बड़ा कष्ट हुआ कि हम विद्वान् हुए और पवित्र जिनशासन का संसार भर में प्रचार करने के लिए समर्थ भी हुए तब भी उसका कुछ उपकार नहीं कर पाते। इस रोग ने असमय में बड़ा कष्ट पहुँचाया। अस्तु । अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे इसकी शान्ति हो । अच्छे-अच्छे स्निग्ध, सच्चिकण और पौष्टिक पकवान का आहार करने से इसकी शान्ति हो सकेगी, इसलिए ऐसे भोजन का योग मिलाना चाहिए, पर यहाँ तो इसका कोई साधन नहीं दीख पड़ता। इसलिए जिस जगह, जिस तरह ऐसे भोजन की प्राप्ति हो सकेगी मैं वहीं जाऊँगा और वैसा ही उपाय करूँगा ॥५- १०॥
    यह विचार कर वे कांची से निकले और उत्तर की ओर रवाना हुए। कुछ दिनों तक चलकर वे पुण्द्र नगर में आए। वहाँ बौद्धों की एक बड़ी भारी दानशाला थी । उसे देखकर आचार्य ने सोचा, यह स्थान अच्छा है। यहाँ अपना रोग नष्ट हो सकेगा ॥११- १२॥
    इस विचार के साथ ही उन्होंने बौद्ध साधु का वेष बनाकर वहाँ रहे, परन्तु योग्य भोजन नहीं मिला। इसलिए वे फिर उत्तर की ओर आगे बढ़े और अनेक शहरों में घूमते हुए कुछ दिनों के बाद दशपुर-मन्दोसोर में आए। वहाँ उन्होंने भागवत - वैष्णवों का एक बड़ा भारी मठ देखा । उसमें बहुत से भागवत सम्प्रदाय के साधु रहते थे । उनके भक्त लोग उन्हें खूब अच्छा-अच्छा भोजन देते थे । यह देखकर उन्होंने बौद्धवेष को छोड़कर भागवत साधु का वेष ग्रहण कर लिया । वहाँ वे कुछ दिनों तक रहे, फिर उनकी व्याधि के योग्य उन्हें वहाँ भी भोजन नहीं मिला । तब वे वहाँ से भी निकलकर और अनेक देशों और पर्वतों में घूमते हुए बनारस आए। उन्होंने यद्यपि बाह्य में जैनमुनियों के वेष को छोड़कर कुलिंग धारण कर रखा था, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनके हृदय में सम्यग्दर्शन की पवित्र ज्योति जगमगा रही थी। इस वेष में वे ठीक ऐसे जान पड़ते थे, मानों कीचड़ से भरा हुआ कान्तिमान् रत्न हो। इसके बाद आचार्य योगलिंग धारण कर शहर में घूमने लगे ॥१३-१९॥
    उस समय बनारस के राजा थे शिवकोटि । वे शिव के बड़े भक्त थे। उन्होंने शिव का एक विशाल मन्दिर बनवाया था। वह बहुत सुन्दर था । उसमें प्रतिदिन अनेक प्रकार के व्यंजन शिव को भेंट चढ़ा करते थे। आचार्य ने देखकर सोचा कि यदि किसी तरह अपनी इस मन्दिर में कुछ दिनों के लिए स्थिति हो जाये, तो निस्सन्देह अपना रोग शान्त हो सकता है। यह विचार वे कर ही रहे कि इतने में पुजारी लोग महादेव की पूजा करके बाहर आए और उन्होंने एक बड़ी भारी व्यंजनों की राशि, जो कि शिव को भेंट चढ़ाई गई थी, लाकर बाहर रख दी। उसे देखकर आचार्य ने कहा, क्या आप लोगों में ऐसी किसी की शक्ति नहीं जो महाराज के भेजे हुए इस दिव्य भोजन को शिव की पूजा के बाद शिव को ही खिला सकें? तब उन ब्राह्मणों ने कहा, तो क्या आप अपने में इस भोजन को शिव को खिलाने की शक्ति रखते हैं? आचार्य ने कहा- हाँ मुझमें ऐसी शक्ति है । सुनकर उन बेचारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उसी समय जाकर यह हाल राजा से कहा-प्रभो! आज एक योगी आया है। उसकी बातें बड़ी विलक्षण हैं। हमने महादेव की पूजा करके उनके लिए चढ़ाया हुआ नैवेद्य बाहर लाकर रखा, उसे देखकर वह योगी बोला कि - " आश्चर्य है, आप लोग इस महादिव्य भोजन को पूजन के बाद महादेव को न खिलाकर पीछे उठा ले आते हो ! भला ऐसी पूजा से कैसा लाभ? उसने साथ ही यह भी कहा कि मुझमें ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा यह सब भोजन मैं महादेव को खिला सकता हूँ। यह कितने खेद की बात है कि जिसके लिए इतना आयोजन किया जाता है, इतना खर्च उठाया जाता है, वह यों ही रह जाये और दूसरे ही उससे लाभ उठावें? यह ठीक नहीं। इसके लिए कुछ प्रबन्ध होना चाहिए, जो जिसके लिए इतना परिश्रम और खर्च उठाया जाता है वही उसका उपयोग भी कर सके।” महाराज को भी इस अभूतपूर्व बात के सुनने से बड़ा अचंभा हुआ। वे इस विनोद को देखने के लिए उसी समय अनेक प्रकार के सुन्दर और सुस्वादु पकवान अपने साथ लेकर शिव मन्दिर गए और आचार्य से बोले- योगिराज! सुना है कि आपमें कोई ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा शिवमूर्ति को भी आप खिला सकते हैं, तो क्या यह बात सत्य है? और सत्य है तो लीजिये यह भोजन उपस्थित है, इसे महादेव को खिलाइए ॥२०-३१॥
    उत्तर में आचार्य ने ‘अच्छी बात है' यह कहकर राजा के लाये हुए, सब पकवानों को मन्दिर के भीतर रखवा दिया और सब पुजारी पंडों को मन्दिर से बाहर निकालकर भीतर से आपने मन्दिर के किवाड़ बन्द कर लिए। इसके बाद लगे उसे आप उदरस्थ करने। आप भूखे तो खूब थे ही इसलिए थोड़ी ही देर में सब आहार को हजमकर आपने झट से मन्दिर का दरवाजा खोल दिया और निकलते ही नौकरों को आज्ञा की कि सब बरतन बाहर निकाल लो। महाराज इस आश्चर्य को देखकर भौचक्के से रह गए । वे राजमहल लौट गए। उन्होंने बहुत तर्क-वितर्क उठाये पर उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया कि वास्तव में बात क्या है? ॥३२-३४॥
    अब प्रतिदिन एक से एक बढ़कर पकवान आने लगे और आचार्य महाराज भी उनके द्वारा अपनी व्याधि नाश करने लगे । इस तरह पूरे छह महीना बीत गए । आचार्य का रोग भी नष्ट हो गया ॥ ३५॥
    एक दिन आहार राशि को ज्यों की त्यों बची हुई देखकर पुजारी-पण्डों ने उनसे पूछा, योगिराज ! यह क्या बात है? क्यों आज यह सब आहार यों ही पड़ा रहा? आचार्य ने उत्तर दिया- राजा की परम भक्ति से भगवान् बहुत खुश हुए, वे अब तृप्त हो गए हैं। पर इस उत्तर से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने जाकर आहार के बाकी बचे रहने का हाल राजा से कहा । सुनकर राजा ने कहा-अच्छा इस बात का पता लगाना चाहिए कि वह योगी मन्दिर के किवाड़ बंदकर भीतर क्या करता है? जब इस बात का  ठीक-ठीक पता लग जाये तब उससे भोजन के बचे रहने का कारण पूछा जा सकता है और फिर उस पर विचार भी किया जा सकता है। बिना ठीक हाल जाने उससे कुछ पूछना ठीक नहीं जान पड़ता ॥३६-३८॥
    एक दिन की बात है कि आचार्य कहीं गए हुए थे और पीछे से उन सब ने मिलकर एक चालाक लड़के को महादेव के अभिषेक जल के निकलने की नाली में छुपा दिया और उसे खूब फूल पत्तों से ढक दिया। वह वहाँ छिपकर आचार्य की गुप्त क्रिया देखने लगा ॥३९॥
    सदा के माफिक आज भी खूब अच्छे-अच्छे पकवान आए । योगिराज ने उन्हें भीतर रखवाकर भीतर से मन्दिर का दरवाजा बन्द कर दिया और आप लगे भोजन करने। जब आपका पेट भर गया, तब किवाड़ खोलकर आप नौकरों से उस बचे सामान को उठा लेने के लिए कहना ही चाहते थे कि उनकी दृष्टि सामने ही खड़े हुए राजा और ब्राह्मणों पर पड़ी। आज एकाएक उन्हें वहाँ उपस्थित देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। ये झट से समझ गए कि आज अवश्य कुछ न कुछ दाल में काला है। इतने में ही वे ब्राह्मण उनसे पूछ बैठे कि योगिराज ! क्या बात है, जो कई दिनों से बराबर आहार बचा रहता है? क्या शिवजी अब कुछ नहीं खाते? जान पड़ता है, वे अब खूब तृप्त हो गए हैं। इस पर आचार्य कुछ कहना ही चाहते थे कि वह धूर्त लड़का उन फूल पत्तों के नीचे से निकलकर महाराज के सामने आ खड़ा हुआ और बोला- राजा राजेश्वर ! वे योगी तो यह कहते थे कि मैं शिवजी को भोजन कराता हूँ, पर इनका यह कहना बिल्कुल झूठा है। असल में ये शिवजी को भोजन न कराकर स्वयं ही खाते हैं। इन्हें खाते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है। योगिराज ! सब की आँखों में आपने तो बड़ी बुद्धिमानी से धूल झोंकी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप योगी नहीं, किन्तु एक बड़े भारी धूर्त हैं और महाराज ! इनकी धूर्तता तो देखिये, जो शिवजी को हाथ जोड़ना तो दूर रहा उल्टा ये उनका अविनय करते हैं । इतने में वे ब्राह्मण भी बोल उठे, महाराज! जान पड़ता है यह शिवभक्त भी नहीं है । इसलिए इससे शिवजी को हाथ जोड़ने के लिए कहा जाये, तब सब पोल स्वयं खुल जायेगी। सब कुछ सुनकर महाराज ने आचार्य से कहा-अच्छा जो कुछ हुआ उस पर ध्यान न देकर हम यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारा असल धर्म क्या है? इसलिए तुम शिवजी को नमस्कार करो। सुनकर भगवान् समन्तभद्र बोले- राजन्! मैं नमस्कार कर सकता हूँ, पर मेरा नमस्कार स्वीकार कर लेने को शिवजी समर्थ नहीं हैं।
    कारण-वे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि विकारों से दूषित हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के पालन का भार एक सामान्य मनुष्य नहीं उठा सकता, उसी प्रकार मेरी पवित्र और निर्दोष नमस्कृति को एक रागद्वेषादि विकारों से अपवित्र देव नहीं सह सकता, किन्तु जो क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अठारह दोषों से रहित हैं, केवलज्ञानरूपी प्रचण्ड तेज का धारक है और लोकालोक का प्रकाशक है, वही जिनसूर्य मेरे नमस्कार के योग्य है और वही उसे सह भी सकता है। इसलिए मैं शिवजी को नमस्कार नहीं करूँगा इसके सिवा भी यदि आप आग्रह करेंगे तो आपको समझ लेना चाहिए कि इस शिवमूर्ति की कुशल नहीं है, यह तुरंत ही फट पड़ेगी। आचार्य की इस बात से राजा का विनोद और भी बढ़ गया । उन्होंने कहा- योगिराज ! आप इसकी चिन्ता न करें, यह मूर्ति यदि फट पड़ेगी तो इसे फट जाने दीजिये, पर आपको तो नमस्कार करना ही पड़ेगा । राजा का बहुत ही आग्रह देख आचार्य ने ‘तथास्तु' कहकर कहा, अच्छा तो कल प्रातःकाल ही मैं अपनी शक्ति का आपको परिचय कराऊँगा।‘अच्छी बात है, यह कहकर राजा ने आचार्य को मन्दिर में बन्द करवा दिया और मन्दिर के चारों ओर नंगी तलवार लिए सिपाहियों का पहरा लगवा दिया। इसके बाद “ आचार्य की सावधानी के साथ देख-रेख की जाये, वे कहीं निकल न भागें" इस प्रकार पहरेदारों को खूब सावधान कर आप राजमहल लौट गए ॥४०-५२॥
    आचार्य ने कहते समय तो कह डाला, पर अब उन्हें ख्याल आया कि मैंने यह ठीक नहीं किया । क्यों मैंने बिना कुछ सोचे - विचारे जल्दी से ऐसा कह डाला । यदि मेरे कहने के अनुसार शिवजी की मूर्ति न फटी तब मुझे कितना नीचा देखना पड़ेगा और उस समय राजा क्रोध में आकर न जाने क्या कर बैठे। खैर, उसकी भी कुछ परवाह नहीं, पर इससे धर्म की कितनी हँसी होगी। जिस परमात्मा की राजा के सामने मैं इतनी प्रशंसा कर चुका हूँ, उसे और मेरी झूठ को देखकर सर्व साधारण क्या विश्वास करेंगे आदि एक पर एक चिन्ता उनके हृदय में उठने लगी। पर अब हो भी क्या सकता था । आखिर उन्होंने यह सोचकर कि जो होना था वह तो हो चुका और जो कुछ बाकी है वह कल सबेरे हो जायेगा, अब व्यर्थ चिन्ता से ही लाभ क्या? जिनभगवान् की आराधना में अपने ध्यान को लगाया और बड़े पवित्र भावों से उनकी स्तुति करने लगे ॥५३॥
    आचार्य की पवित्र भक्ति और श्रद्धा के प्रभाव से शासनदेवी का आसन कम्पित हुआ। वह उसी समय आचार्य के पास आई और उनसे बोली- हे जिन चरण कमलों के भ्रमर! हे प्रभो! आप किसी बात की चिन्ता न कीजिए । विश्वास रखिये कि जैसा आपने कहा है वह अवश्य ही होगा । आप स्वयंभुवाभूतहितेन भूतले इस पद्यांश को लेकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों का एक स्तवन रचियेगा। उसके प्रभाव से आपका कहा हुआ सत्य होगा और शिवमूर्ति भी फट पड़ेगी । इतना कहकर अम्बिका देवी अपने स्थान पर चली गई ॥५४-५८ ॥
    आचार्य को देवी के दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई उनके हृदय की चिन्ता मिटी, आनन्द ने अब उस पर अपना अधिकार किया। उन्होंने उसी समय देवी के कहे अनुसार एक बहुत सुन्दर जिनस्तवन बनाया। वह उसी समय से स्वयंभूस्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है ॥५९॥
    रात सुखपूर्वक बीती। प्रातःकाल हुआ। राजा भी इसी समय वहाँ आ उपस्थित हुआ। उस साथ और भी बहुत से अच्छे-अच्छे विद्वान् आए । अन्य साधारण जनसमूह भी बहुत इकट्ठा हो गया। राजा ने आचार्य को बाहर ले आने की आज्ञा दी । वे बाहर लाये गए। अपने सामने आते हुए आचार्य को खूब प्रसन्न और उनके मुँह को सूर्य के समान तेजस्वी देखकर राजा ने सोचा इनके मुँह पर तो चिन्ता के बदले स्वर्गीय तेज की छटायें छूट रही हैं, इससे जान पड़ता हैं ये अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अस्तु । तब भी देखना चाहिए कि ये क्या करते हैं । इसके साथ ही उसने आचार्य से कहा - योगिराज ! कीजिए नमस्कार, जिससे हम भी आपकी अद्भुत शक्ति का परिचय पा सकें ॥६०-६४॥
    राजा की आज्ञा होते ही आचार्य ने संस्कृत भाषा में एक बहुत ही सुन्दर और अर्थपूर्ण जिनस्तवन आरम्भ किया। स्तवन रचते-रचते जहाँ उन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान् की स्तुति का चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीचिगौरम्  यह पद्यांश रचना शुरू किया कि उसी समय शिवमूर्ति फटी और उसमें से श्रीचन्द्रप्रभ भगवान् की चतुर्मुख प्रतिमा प्रकट हुई इस आश्चर्य के साथ ही जयध्वनि के मारे आकाश गूँज उठा। आचार्य के इस अप्रतिम प्रभाव को देखकर उपस्थित जनसमूह को दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ी। सबके सब आचार्य की ओर देखते के देखते ही रह गए। इसके बाद राजा ने आचार्य महाराज से कहा - योगिराज ! आपकी शक्ति, आपका प्रभाव, आपका तेज देखकर हमारे आश्चर्य का कुछ ठिकाना नहीं रहता। बतलाइए तो आप हैं कौन? और आपने वेष तो शिवभक्त का धारण कर रखा है, पर आप शिवभक्त हैं नहीं। सुनकर आचार्य ने नीचे लिखे दो श्लोक पढ़े- ॥६५-७०॥
    ‘“मैं कांची में नग्न दिगम्बर साधु होकर रहा । इसके बाद शरीर में रोग हो जाने से पुंद्र नगर में बुद्धभिक्षुक, दशपुर (मंदसौर) में मिष्टान्नभोजी परिव्राजक और बनारस में शैवसाधु बनकर रहा। राजन्, मैं जैन निर्ग्रन्थवादी स्याद्वादी हूँ । जिसकी शक्ति वाद करने की हो, वह मेरे सामने आकर वाद करे।” पहले मैंने पाटलीपुत्र (पटना) में वादभेरी बजाई। इसके बाद मालवा, सिन्धुदेश, ढक्क (ढाका- बंगाल) कांचीपुर और विदिश नामक देश में भेरी बजाई। अब वहाँ से चलकर मैं बड़े-बड़े विद्वानों से भरे हुए इस करहाटक (कराड़जिला सतारा) में आया हूँ । राजन् शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं सिंह के समान निर्भय होकर इधर-उधर घूमता ही रहता हूँ । यह कहकर ही समन्तभद्रस्वामी ने शैव वेष छोड़कर जिनमुनि का वेष धारण कर लिया, जिसमें साधु लोग जीवों की रक्षा के लिए हाथ में मोर की पिच्छिका रखते हैं ॥७१॥
    इसके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ कर बड़े-बड़े विद्वानों को, जिन्हें अपने पाण्डित्य का अभिमान था, अनेकान्त-स्याद्वाद के बल से पराजित किया और जैन शासन की खूब प्रभावना की, जो स्वर्ग और 
    मोक्ष की देने वाली है। भगवान् समन्तभद्र भावी तीर्थंकर हैं । उन्होंने कुदेव को नमस्कार न कर सम्यग्दर्शन का खूब प्रकाश किया, सबके हृदय पर उसकी श्रेष्ठता अंकित कर दी। उन्होंने अनेक एकान्तवादियों को जीतकर सम्यग्ज्ञान का भी उद्योत किया ॥७२-७५॥
    आश्चर्य में डालने वाली इस घटना को देखकर राजा की जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा हुई। विवेकबुद्धि ने उसके मन को खूब ऊँचा बना दिया और चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो जाने से उसके हृदय में वैराग्य का प्रवाह बह निकला। उसने उसे सब राज्यभार छोड़ देने के लिए बाध्य किया। शिवकोटि ने क्षणभर में सब मायामोह के जाल को तोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। साधु बनकर उन्होंने गुरु के पास खूब शास्त्रों का अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने श्रीलोहाचार्य के बनाये हुए चौरासी हजार श्लोक प्रमाण आराधना ग्रन्थ को संक्षेप में लिखा । वह इसलिए कि अब दिन पर दिन मनुष्यों की आयु और बुद्धि घटती जाती है और वह ग्रन्थ बड़ा और गंभीर था, सर्व साधारण उससे लाभ नहीं उठा सकते थे । शिवकोटि मुनि के बनाये हुए ग्रन्थ के चवालीस अध्याय हैं और उसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार है। उससे संसार का बहुत उपकार हुआ ॥७६-८१॥
    वह आराधना ग्रन्थ और समन्तभद्राचार्य तथा शिवकोटि मुनिराज मुझे सुख के देने वाले हों तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप परम रत्नों के समुद्र और कामरूपी प्रचंड बलवान् हाथी के नष्ट करने को सिंह समान विद्यानन्दि गुरु और छहों शास्त्रों के अपूर्व विद्वान् तथा श्रुतज्ञान के समुद्र श्रीमल्लिभूषण मुनि मुझे मोक्षश्री प्रदान करें ॥८२-८३॥
  21. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    जिन्होंने अपने गुणों से संसार में प्रसिद्ध हुए और सब कामों को करके सिद्धि, कृत्यकृत्यता लाभ की है, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर गजकुमार मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र हुई प्रसिद्ध द्वारका के अर्धचक्री वासुदेव की रानी गन्धर्वसेना से गजकुमार का जन्म हुआ था । गजकुमार बड़ा वीर था । उसके प्रताप को सुनकर ही शत्रुओं की विस्तृत मानरूपी बेल भस्म हो जाती थी ॥२-३॥
    पोदनपुर के राजा अपराजित ने तब बड़ा सिर उठा रखा था। वासुदेव ने उसे अपने काबू में लाने के लिए अनेक यत्न किए, पर वह किसी तरह इनके हाथ न पड़ा। तब इन्होंने शहर में यह डौंडी पिटवाई कि जो मेरे शत्रु अपराजित को पकड़ लाकर मेरे सामने उपस्थित करेगा, उसे उसका, चाहा वर मिलेगा। गजकुमार डौंडी सुनकर पिता के पास गया और हाथ जोड़कर उसने स्वयं अपराजित पर चढ़ाई करने की प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना मंजूर हुई वह सेना लेकर अपराजित पर जा चढ़ा। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ । अन्त में विजयलक्ष्मी ने गजकुमार का साथ दिया। अपराजित को पकड़ लाकर उसने पिता के सामने उपस्थित कर दिया । गजकुमार की इस वीरता को देखकर वासुदेव बहुत खुश हुए उन्होंने उसकी इच्छानुसार वर देकर उसे संतुष्ट किया ॥४-९॥
    ऐसे बहुत कम अच्छे पुरुष निकलते हैं जो मनचाहा वर लाभकर सदाचारी और सन्तोषी बने रहें। परन्तु गजकुमार की उल्टी दशा हुई उसने मनचाहा वर पिताजी से लाभ कर अन्याय की ओर कदम बढ़ाया। वह पापी जबरदस्ती अच्छे-अच्छे घरों की सती स्त्रियों की इज्जत लेने लगा । वह ठहरा राजकुमार, उसे कौन रोक सकता था और जो रोकने की कुछ हिम्मत करता तो वह उसकी आँखों को काँटा खटकने लगता और फिर गजकुमार उसे जड़मूल से उखाड़कर फेंकने का यत्न करता । उस काम को, उस दुराचार को धिक्कार है, जिसके वश हो मूर्ख - जनों को लज्जा और भय भी नहीं रहता है॥१०-११॥
    इसी तरह गजकुमार ने अनेक अच्छी-अच्छी कुलीन स्त्रियों की इज्जत ले डाली। पर इसके दबदबे से किसी ने चूँ तक न किया। एक दिन पांसुल सेठ की सुरति नाम की स्त्री पर इसकी नजर पड़ी और उसने उसे खराब भी कर दिया। यह देख पांसुल का हृदय क्रोधाग्नि से जलने लगा। पर वह बेचारा उसका कुछ कर नहीं सकता था। इसलिए उसे भी चुपचाप घर में बैठा रह जाना पड़ा ॥१२–१३॥
    एक दिन भगवान् नेमिनाथ भव्य-जनों के पुण्योदय से द्वारका में आए बलभद्र, वासुदेव तथा और बहुत से राजा-महाराजा बड़े आनन्द के साथ भगवान् की पूजा करने को गए। खूब भक्तिभावों से उन्होंने स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले भगवान् की पूजा-स्तुति की, उनका ध्यान - स्मरण किया। बाद में मुनि और गृहस्थ धर्म का भगवान् के द्वारा उन्होंने उपदेश सुना, जो कि अनेक सुखों का देने वाला है। उपदेश सुनकर सभी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने बार-बार भगवान् की स्तुति की। सच है, साक्षात् सर्वज्ञ भगवान् का दिया सर्वोपदेश सुनकर किसे आनन्द या खुशी न होगी । भगवान् के उपदेश का गजकुमार के हृदय पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा। वह अपने किए पापकर्मों पर बहुत पछताया। संसार से उसे बड़ी घृणा हुई। उसने उसी समय भगवान् के पास ही दीक्षा ले ली, जो संसार के भटकने को मिटाने वाली है। दीक्षा लेकर गजकुमार मुनि विहार कर गए। अनेक देशों और नगरों में विहार करते और भव्य - जनों को धर्मोपदेश द्वारा शान्तिलाभ कराते । अन्त में वे गिरनार पर्वत के जंगल में आए। उन्हें अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी । इसलिए वे प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्म-चिंतन करने लगे। तब उनकी ध्यान - मुद्रा बड़ी निश्चल और देखने योग्य थी ॥१४-२२॥
    उनके संन्यास का हाल पांसुल सेठ को जान पड़ा, जिसकी स्त्री को गजकुमार ने अपने दुराचारीपने की दशा में खराब किया था । सेठ को अपना बदला चुकाने को बड़ा अच्छा मौका हाथ लग गया। वह क्रोध से भर्राता हुआ गजकुमार मुनि के पास पहुँचा और उनके सब सन्धिस्थानों में लोहे के बड़े-बड़े कीले ठोककर चलता बना। गजकुमार मुनि पर उपद्रव तो बड़ा ही दुःसह हुआ, पर वे जैनतत्त्व के अच्छे अभ्यासी थे, अनुभवी थे, इसलिए उन्होंने इस घोर कष्ट को एक तिनके के चुभने की बराबर भी न गिन बड़ी शान्ति और धीरता के साथ शरीर छोड़ा । यहाँ से ये स्वर्ग में गए। वहाँ अब चिरकाल तक वे सुख भोगेंगे । अहा ! महापुरुषों का चरित बड़ा ही अचंभा पैदा करने वाला होता है। देखिये, कहाँ तो गजकुमार मुनि का ऐसा दुःसह कष्ट और कहाँ सुख देने वाली पुण्य-समाधि! इसका कारण सच्चा तत्त्वज्ञान है। इसलिए इस महत्ता को प्राप्त करने के लिए तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना सबके लिए आवश्यक है ॥२३-२७॥
    सारे संसार के प्रभु कहलाने वाले जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा सुख के कारण धर्म का उपदेश सुनकर जो गजकुमार अपनी दुर्बुद्धि को छोड़कर पवित्र बुद्धि के धारक और बड़े भारी सहनशील योगी हो गए, वे हमें भी सुबुद्धि और शान्ति प्रदान करें, जिससे हम भी कर्तव्य के लिए कष्ट सहने में समर्थ हो सकें ॥२८॥
  22. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    सुख के देने वाले श्री जिन भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर श्रीसंजयन्त मुनिराज की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यक् तप का उद्योत किया था । सुमेरु के पश्चिम की ओर विदेह के अन्तर्गत गन्धमालिनी नाम का देश है। उसकी प्रधान राजधानी वीतशोकपुर है। जिस समय की बात हम लिख रहे हैं, उस समय उसके राजा वैजयन्त थे । उनकी महारानी का नाम भव्य श्री था । उनके दो पुत्र थे। उनके नाम थे संजयन्त और जयन्त ॥१-५॥पीठ
    एक दिन की बात है कि बिजली के गिरने से महाराज वैजयन्त का प्रधान हाथी मर गया। यह देख उन्हें संसार से बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने राज्य छोड़ने का निश्चय कर अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और उन्हें राज्य भार सौंपना चाहा; तब दोनों भाईयों ने उनसे कहा - पिताजी, राज्य तो संसार के बढ़ाने का कारण है, इससे तो उल्टा हमें सुख की जगह दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिए हम तो इसे नहीं लेते । आप भी तो इसीलिए छोड़ते हैं न ? कि यह बुरा है, पाप का कारण है । इसीलिए हमारा तो विश्वास है कि बुद्धिमानों को, आत्म हित के चाहने वालों को, राज्य सरीखी झंझटों को शिर पर उठाकर अपनी स्वाभाविक शान्ति को नष्ट नहीं करना चाहिए । यही विचार कर हम राज्य लेना उचित नहीं समझते । बल्कि हम तो आपके साथ ही साधु बनकर अपना आत्महित करेंगे ॥६॥
    वैजयन्त ने पुत्रों पर अधिक दबाव न डालकर उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें साधु बनने की आज्ञा दे दी और राज्य का भार संजयन्त के पुत्र वैजयन्त को देकर स्वयं भी तपस्वी बन गये। साथ ही वे दोनों भाई भी साधु हो गये ॥७॥
    तपस्वी बनकर वैजयन्त मुनिराज खूब तपश्चर्या करने लगे, कठिन से कठिन परीषह सहन करके अन्त में ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया। उस समय उनके ज्ञानकल्याणक की पूजा करने को स्वर्ग से देव आये। उनके स्वर्गीय ऐश्वर्य और उनकी दिव्य सुन्दरता को देखकर संजयन्त के छोटे भाई जयन्त ने निदान किया- मैंने जो इतना तपश्चरण किया है, मैं चाहता हूँ कि उसके प्रभाव से मुझे दूसरे जन्म में ऐसी ही सुन्दरता और ऐसी ही विभूति प्राप्त हो। वही हुआ । उसका किया निदान उसे फला। वह आयु के अन्त में मरकर धरणेन्द्र हुआ ॥८-११॥
    इधर संजयन्त मुनि पन्द्रह-पन्द्रह दिन के, एक-एक महीना के उपवास करने लगे, भूख-प्यास की कुछ परवाह न कर बड़ी घोरता के साथ परीषह सहने लगे। शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया, तब भी भयंकर वनों में सुमेरु के समान निश्चल रहकर सूर्य की ओर मुँह किये वे तपश्चर्या करने लगे। गर्मी के दिनों में अत्यन्त गर्मी पड़ती, शीत के दिनों में ठंडी खूब सताती, वर्षा के समय मूसलाधार पानी वर्षा करता और आप वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान करते । वन के जीव-जन्तु सताते, पर इन सब कष्टों को कुछ परवाह न कर आप सदा आत्मध्यान में लीन रहते ॥१२- १३॥
    एक दिन की बात है संजयन्त मुनिराज तो अपने ध्यान में डूबे हुए थे कि उसी समय एक विद्युवंष्ट्र नाम का विद्याधर आकाश मार्ग से उधर होकर निकला, पर मुनि के प्रभाव से उसका विमान आगे नहीं बढ़ पाया। एकाएक विमान को रुका हुआ देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने नीचे की ओर दृष्टि डालकर देखा तो उसे संजयन्त मुनि दीख पड़े। उन्हें देखते ही उसका आश्चर्य क्रोध के रूप में परिणत हो गया। उसने मुनिराज को अपने विमान को रोकने वाले समझकर उन पर नाना प्रकार के भयंकर उपद्रव करना शुरू किया, उससे जहाँ तक बना उसने उन्हें बहुत कष्ट पहुँचाया। पर मुनिराज उसके उपद्रवों से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। वे जैसे निश्चल थे वैसे ही खड़े रहे। सच है वायु का कितना ही भयंकर वेग क्यों न चले पर सुमेरु हिलता तक भी नहीं ॥१४-१५॥
    इन सब भयंकर उपद्रवों से भी जब उसने मुनिराज को पर्वत जैसा अचल देखा तब उसका क्रोध और भी बहुत बढ़ गया। वह अपने विद्याबल से मुनिराज को वहाँ से उठा ले चला और भारतवर्ष में पूर्व दिशा की ओर बहने वाली सिंहवती नाम की एक बड़ी भारी नदी में, जिसमें कि पाँच बड़ी- बड़ी नदियाँ और मिली थीं, डाल दिया । भाग्य से उस प्रान्त के लोग भी बड़े पापी थे । सो उन्होंने मुनि को एक राक्षस समझकर और सर्वसाधारण में यह प्रचार कर, कि यह हमें खाने के लिए आया है, पत्थरों से खूब मारा। मुनिराज ने सब उपद्रव बड़ी शान्ति के साथ सहा। उन्होंने अपने पूर्ण आत्मबल के प्रभाव से हृदय को लेशमात्र भी अधीर नहीं बनने दिया क्योंकि सच्चे साधु वे ही हैं-
    तृणं रत्नं वा रिपुरिव परममित्रमथवा स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ ।
    सुख वा दुःखं वा पितृवनमहोत्सौधमथवा स्फुटं निर्ग्रन्थानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम्॥
    जिनके पास रागद्वेष का बढ़ाने वाला परिग्रह नहीं है, जो निर्ग्रन्थ हैं और सदा शान्तचित्त रहते हैं, उन साधुओं के लिए तृण हो या रत्न, शत्रु हो या मित्र, उनकी कोई प्रशंसा करो या बुराई, वे जीवें अथवा मर जायें, उन्हें सुख हो या दुःख और उनके रहने को श्मशान हो या महल, पर उनकी दृष्टि सब पर समान रहेगी। वे किसी से प्रेम या द्वेष न कर सब पर समभाव रखेंगे । यही कारण था कि संजयन्त मुनि ने विद्याधरकृत सब कष्ट समभाव से सहकर अपने अलौकिक धैर्य का परिचय दिया। इस अपूर्व ध्यान के बल से संजयन्त मुनि ने चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और इसके बाद अघातिया कर्मों का भी नाश कर वे मोक्ष चले गये । उनके निर्वाण कल्याणक की पूजन करने को देव आये । वह धरणेन्द्र भी इनके साथ था, जो संजयन्त मुनि का छोटा भाई था और निदान करके धरणेन्द्र हुआ था। धरणेन्द्र को अपने भाई के शरीर की दुर्दशा देखकर बड़ा क्रोध आया। उसने भाई को कष्ट पहुँचाने का कारण वहाँ के नगरवासियों की समझकर उन सबको अपने नागपाश से बाँध लिया और लगा उन्हें वह दुःख देने । नगरवासियों ने हाथ जोड़कर उससे कहा - प्रभो ! हम तो इस अपराध से सर्वथा निर्दोष हैं। आप हमें व्यर्थ ही कष्ट दे रहे हो। यह सब कर्म तो पापी विद्युवंष्ट्र विद्याधर का है। आप उसे ही पकड़िये न ? सुनते ही धरणेन्द्र विद्याधर को पकड़ने के लिए दौड़ा और उसके पास पहुँचकर उसे उसने नागपाश से बाँध लिया। इसके बाद उसे खूब मार पीटकर धरणेन्द्र ने समुद्र में डालना चाहा ॥१६-२५॥
    धरणेन्द्र का इस प्रकार निर्दय व्यवहार देखकर एक दिवाकर नाम के दयालु देव ने उससे कहा- तुम इसे व्यर्थ ही क्यों कष्ट दे रहे हो? इसकी तो संजयन्त मुनि के साथ कोई चार भव से शत्रुता चली आती है। इसी से उसने मुनि पर उपसर्ग किया था।॥२६-२७॥
    धरणेन्द्र बोला-यदि ऐसा है तो उसका कारण मुझे बतलाइये ? ॥२८॥
    दिवाकर देव ने तब यों कहना आरंभ किया-पहले समय में भारतवर्ष में एक सिंहपुर नाम का शहर था । उसके राजा सिंहसेन थे । वे बड़े बुद्धिमान् और राजनीति के अच्छे जानकार थे। उनकी रानी का नाम रामदत्ता था। वह बुद्धिमती और बड़ी सरल स्वभाव की थी । राजमंत्री का नाम श्रीभूति था । वह बड़ा कुटिल था। दूसरों को धोखा देना, उन्हें ठगना यह उसका प्रधान कर्म था । ॥२९-३०॥ 
    एक दिन पद्मखंडपुर के रहने वाले सुमित्र सेठ का पुत्र समुद्रदत्त श्रीभूति के पास आया और उससे बोला-‘“महाशय, मैं व्यापार के लिए विदेश जा रहा हूँ । देवकी विचित्र लीला से न जाने कौन समय कैसा आवे ? इसलिए मेरे पास ये पाँच रत्न हैं, इन्हें आप अपनी सुरक्षा में रखें तो अच्छा होगा और मुझपर भी आपकी बड़ी दया होगी। मैं पीछा आकर अपने रत्न ले लूंगा।” यह कहकर और श्रीभूति को रत्न सौंपकर समुद्रदत्त चल दिया ॥३१-३३॥
    कई वर्ष बाद समुद्रदत्त पीछे लौटा। वह बहुत धन कमाकर लाया था। जाते समय जैसा उसने सोचा दैव की प्रतिकूलता से वही घटना उसके भाग्य में घटी । किनारे लगते-लगते जहाज फट पड़ा। सब माल असबाब समुद्र के विशाल उदर में समा गया । पुण्योदय से समुद्रदत्त को कुछ ऐसा सहारा मिल गया, जिससे उसकी जान बच गई। वह कुशलपूर्वक अपना जीवन लेकर घर लौट आया ॥३४॥
    दूसरे दिन वह श्रीभूति के पास गया और अपने पर जैसी विपत्ति आई थी उसे उसने आदि से अन्त तक कहकर श्रीभूति से अपने अमानत रखे हुए रत्न पीछे मांगे। श्रीभूति ने आँखें चढ़ाकर कहा— कैसे रत्न तू मुझसे माँगता है? जान पड़ता है जहाज डूब जाने से तेरा मस्तक बिगड़ गया है। श्रीभूति ने बेचारे समुद्रदत्त को मनमानी फटकार बताकर और अपने पास बैठे हुए लोगों से कहा-देखिये न साहब, मैंने आपसे अभी ही कहा था न ? कि कोई निर्धन मनुष्य पागल बनकर मेरे पास आवेगा और झूठा ही बखेड़ाकर झगड़ा करेगा । वही सत्य निकला । कहिये तो ऐसे दरिद्री के पास रत्न आ कहाँ से सकते हैं? भला, किसी ने भी इसके पास कभी रत्न देखे हैं। यों ही व्यर्थ गले पड़ता है। ऐसा कहकर उसने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को निकलवा दिया। बेचारा समुद्रदत्त एक तो वैसे ही विपत्ति का मारा हुआ था; इसके सिवा उसे जो एक बड़ी भारी आशा थी, उसे भी पापी श्रीभूति ने नष्ट कर दिया। वह सब ओर से अनाथ हो गया । निराशा के अथाह समुद्र में गोते खाने लगा। पहले उसे अच्छा होने पर भी श्रीभूति ने पागल बना डाला था, पर अब वह सचमुच ही पागल हो गया । वह शहर में घूम-घूमकर चिल्लाने लगा कि पापी श्रीभूति ने मेरे पाँच रत्न ले लिए और अब वह उन्हें देता नहीं है। राजमहल के पास भी उसने बहुत पुकार मचाई, पर उसकी कहीं सुनाई नहीं हुई। सब उसे पागल समझकर दुतकार देते थे । अन्त में निरुपाय हो उसने एक वृक्ष पर चढ़कर, जो कि रानी के महल के पीछे ही था, पिछली रात को बड़े जोर से चिल्लाना आरंभ किया। रानी ने बहुत दिनों तक तो उस पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। उसने भी समझ लिया कि कोई पागल चिल्लाता होगा। पर एक दिन उसे ख्याल हुआ कि वह पागल होता तो प्रतिदिन इसी समय आकर क्यों चिल्लाता ? सारे दिन ही इसी तरह आकर क्यों न चिल्लाता फिरता ? इसमें कुछ रहस्य अवश्य है । यह विचार कर उसने एक दिन राजा से कहा- प्राणनाथ! आप इस चिल्लाने वाले को पागल बताते हैं, पर मेरी समझ में यह बात नहीं आती क्योंकि यदि वह पागल होता तो न तो बराबर इसी समय चिल्लाता और न सदा एक ही वाक्य बोलता । इसलिए इसका ठीक-ठीक पता लगाना चाहिए कि बात क्या है ? ऐसा न हो कि अन्याय से बेचारा एक गरीब बिना मौत मारा जाय । रानी के कहने के अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुलाकर सब बातें पूछीं। समुद्रदत्त ने जैसी अपने पर बीती थी, वह ज्यों को त्यों महाराज से कह सुनाई। तब रत्न कैसे प्राप्त किये जाँय, इसके लिए राजा को चिन्ता हुई। रानी बड़ी बुद्धिमती थी इसलिए रत्नों के मंगा लेने का भार उसने अपने पर लिया ॥३५-४२॥
    रानी ने एक दिन श्रीभूति को बुलाया और उससे कहा- मैं आपकी शतरंज खेलने में बड़ी तारीफ सुना करती हूँ। मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि मैं एक दिन आपके साथ खेलूँ। आज बड़ा अच्छा सुयोग मिला जो आप यहीं पर उपस्थित हैं। यह कहकर उसने दासों को शतरंज ले आने की आज्ञा दी ॥४३॥
    श्रीभूति रानी की बात सुनते ही घबरा गया। उसके मुँह से एक शब्द तक निकलना मुश्किल पड़ गया। उसने बड़ी घबराहट के साथ काँपते - काँपते कहा- महारानीजी, आज आप यह क्या कह रही हैं। मैं एक क्षुद्र कर्मचारी और आपके साथ खेलूँ ? यह मुझसे न होगा। भला, राजा साहब सुन पावें तो मेरा क्या हाल हो ?
    रानी ने कुछ मुस्कराते हुए कहा- वाह, आप तो बड़े ही डरते हैं । आप घबराइये मत। मैंने खुद राजा साहब से पूछ लिया है और फिर आप तो हमारे बुजुर्ग हैं। इसमें डर की बात ही क्या है। मैं तो केवल विनोदवश होकर खेल रही हूँ । 
    " राजा की मैंने स्वयं आज्ञा ले ली " जब रानी के मुँह से यह वाक्य सुना तब श्रीभूति के जी में जी आया और वह रानी के साथ खेलने के लिए तैयार हुआ।
    दोनों का खेल आरम्भ हुआ । पाठक जानते हैं कि रानी के लिए खेल का तो केवल बहाना था। असल में तो उसे अपना मतलब गाँठना था इसीलिए उसने यह चाल चली थी। रानी खेलते-खेलते श्रीभूति की अपनी बातों में लुभाकर उसके घर की सब बातें जान ली और इशारे से अपनी दासी को कुछ बातें बतलाकर उसे श्रीभूति के यहाँ भेजा । दासी ने जाकर श्रीभूति की पत्नी से कहा-तुम्हारे पति बड़े कष्ट में फँसे हैं, इसलिए तुम्हारे पास उन्होंने जो पाँच रत्न रखे हैं, उनके लेने को मुझे भेजा है। कृपा करके वे रत्न जल्दी दे दो जिससे उनका छुटकारा हो जाये।
    श्रीभूति की स्त्री ने उसे फटकार दिखला कर कहा चल, मेरे पास रत्न नहीं हैं और न मुझे कुछ मालूम है। जाकर उन्हीं से कह दे कि जहाँ रत्न रखे हों, वहाँ से तुम्हीं जाकर ले आओ। दासी ने पीछे लौट आकर सब हाल अपनी मालकिन से कह दिया। रानी ने अपनी चाल का कुछ उपयोग नहीं हुआ देखकर दूसरी युक्ति निकाली। अबकी बार वह हारजीत का खेल खेलने लगी। मंत्री ने पहले तो कुछ आनाकानी की, पर फिर “रानी के पास धन का तो कुछ पार नहीं है और मेरी जीत होगी तो मैं मालामाल हो जाऊँगा" यह सोचकर वह खेलने को तैयार हो गया।
    रानी बड़ी चतुर थी। उसने पहले ही पासे में श्रीभूति की एक कीमती अंगूठी जीत ली। उस अंगूठी को चुपके से दासी के हाथ देकर और कुछ समझाकर उसने श्रीभूति के घर फिर भेजा और आप उसके साथ खेलने लगी ॥४४॥
    अबकी बार रानी का प्रयत्न व्यर्थ नहीं गया। दासी ने पहुँचते ही बड़ी घबराहट के साथ कहा- देखो, पहले तुमने रत्न नहीं दिये, उससे उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ा। अब उन्होंने यह अंगूठी देकर मुझे भेजा है और यह कहलाया है कि यदि तुम्हें मेरी जान प्यारी हो, तो इस अंगूठी को देखते ही रत्नों को दे देना और रत्न प्यारे हों तो न देना । इससे अधिक में और कुछ नहीं कहता ॥४५॥
    अब तो वह एक साथ घबरा गई। उसने उससे कुछ विशेष पूछताछ न करके केवल अँगूठी के भरोसे पर रत्न निकालकर दासी के हाथ सौंप दिये। दासी ने रत्नों को लाकर रानी को दे दिये और रानी ने उन्हें महाराज के पास पहुँचा दिये।
    राजा को रत्न देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने रानी की बुद्धिमानी को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। इसके बाद उन्होंने समुद्रदत्त को बुलाया और उन रत्नों को और बहुत से रत्नों में मिलाकर उससे कहा–देखो, इन रत्नों में तुम्हारे रत्न हैं क्या? और हों तो उन्हें निकाल लो। समुद्रदत्त ने अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया । सच है बहुत समय बीत जाने पर भी अपनी वस्तु को कोई नहीं भूलता ॥४६-४७॥
    इसके बाद राजा ने श्रीभूति को राजसभा में बुलाया और रत्नों को उसके सामने रखकर कहा- कहिये आप तो इस बेचारे के रत्नों को हड़पकर भी उल्टा इसे ही पागल बनाते थे न ? यदि महारानी मुझसे आग्रह न करती और अपनी बुद्धिमानी से इन रत्नों को प्राप्त नहीं करती, तब यह बेचारा गरीब तो व्यर्थ मारा जाता और मेरे सिर पर कलंक का टीका लगता। क्या इतने उच्च अधिकारी बनकर मेरी प्रजा का इसी तरह तुमने सर्वस्व हरण किया है? ॥४८॥
    राजा को बड़ा क्रोध आया। उसने अपने राज्य के कर्मचारियों से पूछा- कहो, इस महापापी को इसके पाप का क्या प्रायश्चित दिया जाय, जिससे आगे के लिए सब सावधान हो जायें और इस दुरात्मा का जैसा भयंकर कर्म है, उसी के उपयुक्त इसे उसका प्रायश्चित भी मिल जाय ? राज्य कर्मचारियों ने विचार कर और सबकी सम्मति मिलाकर कहा - महाराज, जैसा इन महाशय का नीच कर्म है, उसके योग्य हम तीन दण्ड उपयुक्त समझते हैं और उनमें से जो इन्हें पसन्द हो, वही ये स्वीकार करें । १. एक सेर पक्का गोमय खिलाया जाये; २. मल्ल के द्वारा बत्तीस घूँसे लगवाये जाये; या ३. सर्वस्व हरण पूर्वक देश निकाला दे दिया जाये ॥४९-५०॥
    राजा ने अधिकारियों के कहे माफिक दण्ड की योजना कर श्रीभूति से कहा कि-तुम्हें जो दण्ड पसन्द हो, उसे बतलाओ । पहले श्रीभूत ने गोमय खाना स्वीकार किया, पर उसका उससे एक ग्रास भी नहीं खाया गया । तब उसने मल्ल के घूँसे खाना स्वीकार किया। मल्ल बुलवाया गया। घूँसे लगना आरम्भ हुआ। कुछ घूँसों की मार पड़ी होगी कि उसका आत्मा शरीर छोड़कर चल बसा। उसकी मृत्यु बड़े आर्तध्यान से हुई। वह मरकर राजा के खजाने पर ही एक विकराल सर्प हुआ ॥५१-५२॥
    इधर समुद्रदत्त को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ। उसने संसार की दशा देखकर उसमें अपने को फँसाना उचित नहीं समझा। वह उसी समय अपना सब धन परोपकार के कामों में लगाकर वन की ओर चल दिया और धर्माचार्य नाम के महामुनि से पवित्र धर्म का उपदेश सुनकर साधु बन गया। बहुत दिनों तक उसने तपश्चर्या की । इसके बाद आयु के अन्त में मृत्यु प्राप्त कर वह इन्हीं सिंहसेन राजा के सिंहचन्द्र नामक पुत्र हुआ ॥५३-५४॥
    एक दिन राजा अपने खजाने को देखने के लिए गये थे, उन्हें देखकर श्रीभूति के जीव को, जो कि खजाने पर सर्प हुआ था, बड़ा क्रोध आया । क्रोध के वश ही उसने महाराज को काट खाया। महाराज आर्त्तध्यान से मरकर सल्लकी नामक वन में हाथी हुए । राजा की सर्प द्वारा मृत्यु देखकर सुघोष मंत्री को बड़ा क्रोध आया। उसने अपने मन्त्र बल से बहुत से सर्पों को बुलाकर कहा-यदि तुम निर्दोष हो, तो इस अग्निकुण्ड में प्रवेश करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले जाओ। तुम्हें ऐसा करने से कुछ भी कष्ट न होगा। जितने बाहर के सर्प आये थे, वे सब तो चले गये। अब श्रीभूति का जीव बाकी रह गया। उससे कहा गया कि या तो तू विष खींचकर महाराज को छोड़ दे या इस अग्निकुण्ड में प्रवेश कर। पर वह महाक्रोधी था उसने अग्निकुण्ड में प्रवेश करना अच्छा समझा, पर विष खींच लेना उचित नहीं समझा। वह क्रोध के वश हो अग्नि में प्रवेश कर गया। प्रवेश करते ही वह देखते-देखते जलकर खाक हो गया। जिस सल्लकी वन में महाराज का जीव हाथी हुआ था, वह सर्प भी मरकर उसी वन में मुर्गा हुआ। सच है पापियों का कुयोनियों में उत्पन्न होना, कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इधर तो ये सब अपने-अपने कर्मों के अनुसार दूसरे भवों में उत्पन्न हुए और उधर सिंहसेन की रानी पति- वियोग से बहुत दुःखी हुई । उसे संसार की क्षणभंगुर लीला देखकर वैराग्य हुआ। वह उसी समय संसार का मायाजाल तोड़ताड़ कर वनश्री आर्यिका के पास साध्वी बन गई। सिंहसेन का पुत्र सिंहचन्द्र भी वैराग्य के वश हो, अपने छोटे भाई पूर्णचन्द्र की राज्यभार सौंपकर सुव्रत नामक मुनिराज के पास दीक्षित हो गया। साधु होकर सिंहचन्द्र मुनि ने खूब तपश्चर्या की, शान्ति और धीरता के साथ परीषहों पर विजय प्राप्त किया, इन्द्रियों को वश किया और चंचल मन को दूसरी ओर से रोककर ध्यान की ओर लगाया। अन्त में ध्यान के बल से उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हुआ । उन्हें मन:पर्ययज्ञान से युक्त देखकर उनकी माता ने, जो कि इन्हीं के पहले आर्यिका हुई थी, नमस्कार कर पूछा- साधुराज ! मेरी कोख धन्य है, वह आज कृतार्थ हुई, जिसने आपसे पुरुषोत्तम को धारण किया । पर अब यह तो कहिये कि आपके छोटे भाई पूर्णचन्द्र आत्महित के लिए कब उद्यत होंगे ? ॥५५-६६॥
    उत्तर में सिहचंद्र मुनि बोले- ' माता, सुनो तो मैं तुम्हें संसार की विचित्र लीला सुनाता हूँ, जिसे सुनकर तुम भी आश्चर्य करोगी। तुम जानती हो कि पिताजी को सर्प ने काटा था और उसी से उनकी मृत्यु हो गई थी। वे मरकर सल्लकी वन में हाथी हुए । वे ही पिता एक दिन मुझे मारने के लिए मेरे पर झपटे, तब मैंने उस हाथी को समझाया और कहा- गजेन्द्रराज ! जानते हो, तुम पूर्व जन्म में राजा सिंहसेन थे और मैं प्राणों से भी प्यारा सिंहचन्द्र नाम का तुम्हारा पुत्र था । कैसा आश्चर्य है कि आज पिता ही पुत्र को मारना चाहता है । मेरे इन शब्दों को सुनते ही गजेन्द्र को जातिस्मरण हो आया, पूर्व जन्म की उसे स्मृति हो गई । वह रोने लगा, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली । वह मेरे सामने चित्र लिखा सा खड़ा रह गया। उसकी यह अवस्था देखकर मैंने उसे जिनधर्म का उपदेश दिया और पंचाणुव्रत का स्वरूप समझाकर उसे अणुव्रत ग्रहण करने को कहा । उसने अणुव्रत ग्रहण किये और पश्चात् वह प्रासुक भोजन और प्रासुक जल से अपना निर्वाह कर व्रत का दृढ़ता के साथ पालन करने लगा। एक दिन वह जल पीने के लिए नदी पर पहुँचा । जल के भीतर प्रवेश करते समय वह कीचड़ में फँस गया। उसने निकलने की बहुत चेष्टा की, पर वह प्रयत्न सफल नहीं हुआ । अपना निकलना असंभव समझकर उसने समाधिमरण की प्रतिज्ञा ले ली। उस समय वह श्रीभूति का जीव, जो मुर्गा हुआ था, हाथी के सिर पर बैठकर उसका मांस खाने लगा। हाथी पर बड़ा उपसर्ग आया, पर उसने उसकी कुछ परवाह न कर बड़ी धीरता के साथ पंचनमस्कार मंत्र की आराधना करना शुरू कर दिया, जो कि सब पापों का नाश करने वाला है। आयु के अन्त में शान्ति के साथ मृत्यु प्राप्त कर वह सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ। सच है धर्म के सिवा और कल्याण का कारण हो ही क्या सकता है ? ॥६७–७६॥
    वह सर्प भी बहुत कष्टों को सहन कर मरा और तीव्र पापकर्म के उदय से चौथे नरक में जाकर उत्पन्न हुआ, जहाँ अनन्त दुःख हैं और जब तक आयु पूर्ण नहीं होती तब तक पलक गिराने मात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता ॥७७॥
    सिंहसेन का जीव जो हाथी मरा था, उसके दाँत और कपोलों में से निकले हुए मोती, एक के हाथ लगे। भील ने उन्हें एक धनमित्र नामक साहूकार के हाथ बेच दिये और धनमित्र ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ और कीमती समझकर राजा पूर्णचंद्र को भेंट कर दिये । राजा देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उनके बदले में धनमित्र को खूब धन दिया। इसके बाद राजा ने दाँतों के तो अपने पलंग के पाये बनवाये  और मोतियों का रानी के लिए हार बनवा दिया। इस समय वे विषय सुख में खूब मग्न होकर अपना काल बिता रहे हैं। यह संसार की विचित्र दशा है। क्षण-क्षण में क्या होता है सो सिवा ज्ञानी के कोई नहीं जान पाता और इसी से जीवों को संसार के दुःख भोगना पड़ते हैं। माता, पूर्णचन्द्र के कल्याण का एक मार्ग है, यदि तुम जाकर उपदेश दो और यह सब घटना उसे सुनाओ तो वह अवश्य अपने कल्याण की ओर दृष्टि देगा ॥७८-८१॥
    सुनते ही वह उठी और पूर्णचन्द्र के महल पहुँची । अपनी माता को देखते ही पूर्णचंद्र उठे और बड़े विनय से उसका सत्कार कर उन्होंने उसके लिए पवित्र आसन दिया और हाथ जोड़कर वे बोले- ‘माताजी, आपने अपने पवित्र चरणों से इस समय भी इस घर को पवित्र किया, उससे मुझे जो प्रसन्नता हुई वह वचनों द्वारा नहीं कही जा सकती। मैं अपने जीवन को सफल समझँगा यदि मुझे आप अपनी आज्ञा का पात्र बनावेंगी। वह बोली- मुझे एक आवश्यक बात की ओर तुम्हारा ध्यान आकर्षित करना है। इसीलिए मैं यहाँ आई हूँ और वह बड़ी विलक्षण बात है, सुनते हो न ? इसके बाद आर्यिका ने यों कहना आरंभ किया - ॥८२-८३॥
    “पुत्र, जानते हो, तुम्हारे पिता को सर्प ने काटा था, उसकी वेदना से मरकर वे सल्लकी वन में हाथी हुए और वह सर्प मरकर उसी वन में मुर्गा हुआ। एक दिन हाथी जल पीने गया । वह नदी के किनारे पर खूब गहरे कीचड़ में फँस गया । वह उसमें से किसी तरह निकल नहीं सका। अन्त में निरुपाय होकर वह मर गया। उसके दाँत और मोती एक भील के हाथ लगे। भील ने उन्हें एक सेठ के हाथ बेच दिये। सेठ के द्वारा वे ही दाँत और मोती तुम्हारे पास आये । तुमने दाँतों के तो पलंग के पाये बनवाये और मोतियों का अपनी पत्नी के लिए हार बनवाया । यह संसार की विचित्र लीला है। इसके बाद तुम्हें उचित जान पड़े सो करो” । आर्यिका इतना कहकर चुप हो रही । पूर्णचन्द्र अपने पिता की कथा सुनकर एक साथ रो पड़ा। उनका हृदय पिता के शोक से सन्तप्त हो उठा। जैसे दावाग्नि से पर्वत सन्तप्त हो उठता है । उनके रोने के साथ ही सारे अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। उन्होंने पितृप्रेम के वश हो उन पलंग के पायों को छाती से लगाया। इसके बाद उन्होंने पलंग के पायों और मोतियों को चन्दनादि से पूजा कर उन्हें जला दिया । ठीक है मोह के वश होकर यह जीव क्या नहीं करता? ॥८४-९१॥
    इसमें कोई सन्देह नहीं कि मोह का चक्र जब अच्छे-अच्छे महात्माओं पर भी चल जाता है, तब पूर्णचन्द्र पर उसका प्रभाव पड़ना कोई आश्चर्य का कारण नहीं है । पर पूर्णचन्द्र बुद्धिमान् थे, उन्होंने झटसे अपने को सम्हाल लिया और पवित्र श्रावक धर्म को ग्रहण कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ उनका पालन करने लगे। फिर आयु के अन्त में वे पवित्र भावों से मृत्यु लाभकर महाशुक्र नामक स्वर्ग में देव हुए। उनकी माता भी अपनी शक्ति के अनुसार तपश्चर्या कर उसी स्वर्ग में देव हुई। सच है संसार में जन्म लेकर कौन-कौन काल के ग्रास नहीं बने ? मन:पर्ययज्ञान के धारक सिंहचन्द्र मुनि भी तपश्चर्या और निर्मल चारित्र के प्रभाव से मृत्यु प्राप्त कर ग्रैवेयक में जाकर देव हुए ॥९२-९४॥
    भारतवर्ष के अन्तर्गत सूर्याभपुर नामक एक शहर है। उसके राजा का नाम सुरावर्त्त है। वे बड़े बुद्धिमान् और तेजस्वी हैं। उनकी महारानी का नाम था यशोधरा । वह बड़ी सुन्दरी थी, बुद्धिमती थी, सती थी, सरल स्वभाव वाली थी और विदुषी थी। वह सदा दान देती, जिन भगवान् की पूजा करती और बड़ी श्रद्धा के साथ उपवासादि करती ॥९५-९६॥
    सिंहसेन राजा का जीव, जो हाथी की पर्याय से मरकर स्वर्ग गया था, यशोधरा रानी का पुत्र हुआ। उसका नाम था रश्मिवेग । कुछ दिनों बाद महाराज सुरावर्त्त तो राज्यभार रश्मिवेग के लिए सौंपकर साधु बन गये और राज्यकार्य रश्मिवेग चलाने लगा ॥९७-९८॥
    एक दिन की बात है कि धर्मात्मा रश्मिवेग सिद्धकूट जिनालय की वन्दना के लिए गया। वहाँ उसने एक हरिचन्द्र नाम के मुनिराज को देखा, उनसे धर्मोपदेश सुना। धर्मोपदेश का उसके चित्त पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसे बहुत वैराग्य हुआ। संसार, शरीर, भोगादिकों से उसे बड़ी घृणा हुई। उसने उसी समय मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर ली ॥९९-१००॥
    एक दिन रश्मिवेग महामुनि एक पर्वत की गुफा में कायोत्सर्ग धारण किये हुए थे कि एक भयानक अजगर ने, जो कि श्रीभूति का जीव सर्प पर्याय से मरकर चौथे नरक गया था और वहाँ से आकर यह अजगर हुआ, उन्हें काट खाया। मुनिराज तब भी ध्यान में निश्चल खड़े रहे, जरा भी विचलित नहीं हुए। अन्त में मृत्यु प्राप्त कर समाधिमरण के प्रभाव से वे कापिष्ठ स्वर्ग में जाकर आदित्यप्रभ नामक महर्द्धिक देव हुए, जो कि सदा जिनभगवान् के चरणकमलों की भक्ति में लीन रहते थे और वह अजगर मरकर पाप के उदय से फिर चौथे नरक गया । वहाँ उसे नारकियों ने कभी तलवार से काटा और कभी करौती से, कभी उसे अग्नि में जलाया और कभी घानी में पेला, कभी अतिशय गरम तेल की कढ़ाई में डाला और कभी लोहे के गरम खंभों से आलिंगन कराया। मतलब यह कि नरक में उसे घोर दुःख भोगना पड़े ॥ १०१ - १०६॥
    चक्रपुर नाम का एक सुन्दर शहर है। उसके राजा हैं चक्रायुध और उनकी महारानी का नाम चित्रादेवी है। पूर्वजन्म के पुण्य से सिंहसेन राजा का जीव स्वर्ग से आकर इनका पुत्र हुआ। उसका नाम था वज्रायुध । जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी । जब वह राज्य करने को समर्थ हो गया, तब महाराज चक्रायुध ने राज्य का भार उसे सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । वज्रायुध सुख और नीति के साथ राज्य का पालन करने लगे। उन्होंने बहुत दिनों तक राज्य सुख भोगा । पश्चात् एक दिन किसी कारण से उन्हें भी वैराग्य हो गया। वे अपने पिता के पास दीक्षा लेकर साधु बन गये । वज्रायुध मुनि एक दिन प्रियंगु नामक पर्वत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे कि इतने में एक दुष्ट भील ने, जो कि सर्प का जीव चौथे नरक गया था और वहाँ से अब यही भील हुआ, उन्हें बाण से मार दिया। मुनिराज तो समभावों से प्राण त्याग कर सर्वार्थसिद्धि गये और वह भील रौद्रभाव से मरकर सातवें नरक गया ॥१०७-११३॥
    सर्वार्थसिद्धि से आकर वज्रायुध का जीव तो संजयन्त हुआ, जो संसार में प्रसिद्ध है और पूर्णचंद्र का जीव उनका छोटा भाई जयन्त हुआ। वे दोनों भाई छोटी ही अवस्था में कामभोगों से विरक्त होकर पिता के साथ मुनि हो गये और वह भील का जीव सातवें नरक से निकल कर अनेक कुगतियों में भटका। उनमें उसने बहुत कष्ट सहा । अन्त में वह मरकर ऐरावत क्षेत्रान्तर्गत भूतरमण नामक वन में बहने वाली वेगवती नाम की नदी के किनारे पर गोश्रृंग तापस की शंखिनी नाम की स्त्री के हरिणश्रृंग नामक पुत्र हुआ। वही पंचाग्नि तप तपकर यह विद्युवंष्ट्र विद्याधर हुआ है, जिसने कि संजयन्त मुनि पर पूर्वजन्म के बैर से घोर उपसर्ग किया और उनके छोटे भाई जयन्त मुनि निदान करके जो धरणेन्द्र हुए, वे तुम हो ॥११४-११९॥
    संजयन्त मुनि पर पापी विद्युवंष्ट्र ने घोर उपसर्ग किया, तब भी वे पवित्रात्मा रंचमात्र विचलित नहीं हुए और सुमेरु के समान निश्चल रहकर उन्होंने सब परीषहों को सहा और सम्यक्त्व तप का उद्योत कर अन्त में मोक्ष प्राप्त किया । वहाँ उनके अनन्तज्ञानादि स्वाभाविक गुण प्रकट हुए। वे अनन्त काल तक मोक्ष में ही रहेंगे। अब वे संसार में नहीं आवेंगे ॥१२०-१२१॥”
    दिवाकर ने कहा-नागेन्द्रराज ! यह संसार की स्थिति है। इसे देखकर इस बेचारे पर तुम्हें क्रोध करना उचित नहीं । इसे दया करके छोड़ दीजिये । सुनकर धरणेन्द्र बोला, मैं आपके कहने से इसे छोड़ देता है; परन्तु इसे अपने अभिमान का फल मिले, इसलिए मैं शाप देता हूँ कि -‘“मनुष्य पर्याय में इसे कभी विद्या की सिद्धि न हो ।” इसके बाद धरणेन्द्र अपने भाई संजयन्त मुनि के मृत शरीर की बड़ी भक्ति के साथ पूजा कर अपने स्थान पर चला गया ॥१२२-१२६॥
    इस प्रकार उत्कृष्ट तपश्चर्या करके श्री संजयन्त मुनि ने अविनाशी मोक्ष श्री को प्राप्त किया। वे हमें भी उत्तम सुख प्रदान करें ॥१२७॥
    श्रीमल्लिभूषण गुरु कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में हुए । जिनभगवान् के चरण कमलों के भ्रमर थे, उनकी भक्ति में सदा लीन रहते थे, सम्यग्ज्ञान के समुद्र थे, पवित्र चारित्र के धारक थे और संसार समुद्र से भव्य जीवों को पार करने वाले थे । वे ही मल्लिभूषण गुरु मुझे भी सुख-सम्पत्ति प्रदान करें ॥१२८॥
  23. admin

    आराधना कथाकोष तृतीय खण्ड
    संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को, सर्वश्रेष्ठ गिनी जाने वाली जिनवाणी को और राग, द्वेष, मोह, माया आदि दोषों से रहित परम वीतरागी साधुओं को नमस्कार कर जिनपूजा द्वारा फल प्राप्त करने वाले एक मेंढक की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    शास्त्रों में उल्लेख किए उदाहरणों द्वारा यह बात खुलासा देखने में आती है कि जिन भगवान् की पूजा पापों की नाश करने वाली और स्वर्ग - मोक्ष के सुखों की देने वाली है। इसलिए जो भव्यजन पवित्र भावों द्वारा धर्मवृद्धि के अर्थ जिनपूजा करते हैं वे ही सच्चे सम्यग्दृष्टि हैं और मोक्ष जाने के अधिकारी हैं। इसके विपरीत पूजा की जो निन्दा करते हैं वे पापी हैं और संसार में निन्दा के पात्र हैं। ऐसे लोग सदा दुःख, दरिद्रता, रोग, शोक आदि कष्टों को भोगते हैं और अन्त में दुर्गति में जाते हैं। अतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिनभगवान् का अभिषेक, पूजन, स्तुति, ध्यान आदि सत्कर्मों को सदा किया करें। इसके सिवा तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार आदि द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए। इन पूजा प्रभावना आदि कारणों से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जिनभगवान् इंद्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा पूज्य हैं। इसलिए उनकी पूजा तो करनी ही चाहिए। जिनपूजा के द्वारा सभी उत्तम - उत्तम सुख मिलते हैं। जिनपूजा करना महापुण्य का कारण है, ऐसा शास्त्रों में जगह-जगह लिखा मिलता है। इसलिए जिनपूजा समान दूसरा पुण्य का कारण संसार में न तो हुआ और न होगा। प्राचीन काल में भरत जैसे अनेक बड़े-बड़े पुरुषों ने जिनपूजा द्वारा जो फल प्राप्त किया है, किसकी शक्ति है जो उसे लिख सके । आठ द्रव्यों से पूजा करने वाले जिनपूजा द्वारा जो फल लाभ करते हैं, उनके सम्बन्ध में हम क्या लिखें, जब कि केवल फूल से पूजा कर एक मेंढक ने स्वर्ग सुख प्राप्त किया ॥२-११॥
    समन्तभद्र स्वामी ने भी इस विषय में लिखा है - राजगृह में हर्ष से उन्मत्त हुए एक मेंढक ने सत्पुरुषों को यह स्पष्ट बतला दिया कि केवल एक फूल द्वारा भी जिन भगवान् की पूजा करने से उत्तम फल प्राप्त होता है जैसा कि मैंने प्राप्त किया।
    अब मेंढक की कथा सुनिए
    यह भारतवर्ष जम्बूद्वीप के मेरु की दक्षिण दिशा में है। इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्म हुआ है। इसलिए यह महान् पवित्र है । मगध भारतवर्ष एक प्रसिद्ध और धनशाली देश है। सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं आकर इकट्ठी हो गई हो। यहाँ के निवासी प्रायः धनी है, धर्मात्मा है, उदार है और परोपकारी हैं॥१२-१३॥
    जिस समय की यह कथा है उस समय मगध की राजधानी राजगृह एक बहुत सुन्दर शहर था । सब प्रकार की उत्तम से उत्तम भोगोपभोग की वस्तुएँ वहाँ बड़ी सुलभता से प्राप्त थीं । विद्वानों का उसमें निवास था। वहाँ के पुरुष देवों से और स्त्रियाँ देवबालाओं से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं। स्त्री- पुरुष प्रायः सब ही सम्यक्त्वरूपी भूषण से अपने को सिंगारे हुए थे और इसलिए राजगृह उस समय मध्यलोक का स्वर्ग कहा जाता था । वहाँ जैनधर्म का ही अधिक प्रचार था । उसे प्राप्त कर सब सुख-शान्ति लाभ करते थे ॥१४-१६॥
    राजगृह के राजा तब श्रेणिक थे । श्रेणिक धर्मज्ञ थे । जैनधर्म और जैनतत्त्व पर उनका पूर्ण विश्वास था। भगवान् की भक्ति उन्हें उतनी ही प्रिय थी, जितनी कि भौरे को कमलिनी । उनका प्रताप शत्रुओं के लिए मानों धधकती आग थी । सत्पुरुषों के लिए वे शीतल चन्द्रमा थे। पिता अपनी सन्तान को जिस प्यार से पालता है श्रेणिक का प्यार भी प्रजा पर वैसा ही था । श्रेणिक की कई रानियाँ थी। चेलना उन सबमें उन्हें अधिक प्रिय थी । सुन्दरता में, गुणों में, चतुरता में चेलना का आसन सबसे ऊँचा था। उसे जैनधर्म से, भगवान् की पूजा - प्रभावना से बहुत ही प्रेम था । कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने को महत्त्व न देकर उसने अपने आत्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से भूषित किया था । जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञानविज्ञान से परिपूर्ण है और अतएव वह सुन्दर है, चेलना में किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी । इसलिए उसकी रूपसुन्दरता ने और अधिक सौन्दर्य प्राप्त कर लिया था । ' सोने में सुगन्ध' की उक्ति उस पर चरितार्थ थी ॥१७–२०॥
    राजगृह में एक नागदत्त नाम का सेठ रहता था । वह जैनी न था । इसकी स्त्री का नाम भवदत्ता था। नागदत्त बड़ा मायाचारी था। सदा माया के जाल में वह फँसा हुआ रहता था। इस मायाचार के पाप से मरकर यह अपने घर के आँगन की बावड़ी में मेंढक हुआ । नागदत्त यदि चाहता तो कर्मों का नाश कर मोक्ष जाता, पर पाप कर वह मनुष्य पर्याय से पशुजन्म में आया, एक मेंढक हुआ । इसलिए भव्य-जनों को उचित है कि वे संकट समय भी पाप न करें ॥२१-२३॥
    एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आई उसे देखकर मेंढक को जातिस्मरण हो गया। वह उछल कर भवदत्ता के वस्त्रों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने डरकर उसे कपड़ों पर से झिड़क दिया। मेंढक फिर भी उछल-उछलकर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा। उसे बार-बार अपने पास आता देखकर भवदत्ता बड़ी चकित हुई और डरी भी । पर इतना उसे भी विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्वजन्म का कुछ न कुछ सम्बन्ध होना ही चाहिए। अन्यथा बार-बार मेरे झिड़क देने पर भी यह मेरे पास आने का साहस न करता । जो हो, मौका पाकर कभी किसी साधु-सन्त से इसका यथार्थ कारण पूछूंगी ॥२४-२७॥
    भाग्य से एक दिन अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिराज राजगृह में आकर ठहरे। भवदत्ता को मेंढक का हाल जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी । इसलिए वह तुरन्त उनके पास गई उनसे प्रार्थना कर उसने मेंढक का हाल जानने की इच्छा प्रकट की । सुव्रत मुनिराज ने तब उससे कहा-जिसका तू हाल पूछने को आई है, वह दूसरा कोई न होकर तेरा पति नागदत्त है। वह बड़ा मायाचारी था, इसलिए मर कर माया के पाप से यह मेंढक हुआ है। उन मुनि के संसार - पार करने वाले वचनों को सुनकर भवदत्ता को सन्तोष हुआ। वह मुनि को नमस्कार कर घर पर आ गई उसने फिर मोहवश हो उस मेंढक को भी अपने यहाँ ला रखा। मेंढक वहाँ आकर बहुत प्रसन्न रहा ॥२८-३०॥
    इसी अवसर में वैभार पर्वत पर महावीर भगवान् का समवसरण आया। वनमाली ने आकर श्रेणिक को खबर दी कि राजराजेश्वर, जिनके चरणों को इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि प्रायः सभी महापुरुष पूजा-स्तुति करते हैं, वे महावीर भगवान् वैभार पर्वत पर पधारे हैं। भगवान् के आने के आनन्द-समाचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । भक्तिवश हो सिंहासन से उठकर उन्होंने भगवान् को परोक्ष नमस्कार किया। इसके बाद इन शुभ समाचारों की सारे शहर में सबको खबर हो जाए, इसके लिए उन्होंने आनन्द घोषणा दिलवा दी। बड़े भारी लाव-लश्कर और वैभव के साथ भव्यजनों को संग लिए वे भगवान के दर्शनों को गए। वे दूर से उन संसार का हित करने वाले भगवान के समवसरण को देखकर उतने ही खुश हुए, जितने खुश मोर मेघों को देखकर होते हैं । रासायनिक लोग अपना मन चाहा रस लाभ कर होते हैं। समवसरण में पहुँचे। भगवान के उन्होंने दर्शन किए और उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी की । अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का गान किया ॥३१-३७॥
    हे भगवान्! हे दया के सागर ! ऋषि- महात्मा आपको 'अग्नि' कहते हैं, इसलिए कि आप कर्मरूपी ईंधन को जला कर खाककर देने वाले हैं। आपको वे 'मेघ' भी कहते हैं, इसलिए कि आप प्राणियों को जलाने वाली दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दावाग्नि को क्षणभर में अपने उपदेश रूपी जल से बुझा डालते हैं । आप 'सूरज' भी हैं, इसलिए कि अपने उपदेशरूपी किरणों से भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित कर लोक और अलोक के प्रकाशक हैं। नाथ, आप एक सर्वोत्तम वैद्य हैं, इसलिए कि धन्वन्तरी से वैद्यों की दवा से भी नष्ट न होने वाली ऐसी जन्म, जरा, मरण रूपी महान् व्याधियों को जड़ मूल से खो देते हैं । प्रभो, आप उत्तमोत्तम गुणरूपी जवाहरात के उत्पन्न करने वाले पर्वत हो, संसार के पालक हो, तीनों लोक के अनमोल भूषण हो, प्राणी मात्र के निःस्वार्थ बन्धु हो, दुःखों के नाश करने वाले हो और सब प्रकार के सुखों के देने वाले हो । जगदीश! जो सुख आपके पवित्र चरणों की सेवा से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार के कठिन से कठिन परिश्रम द्वारा भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए हे दयासागर ! मुझ गरीब को अपने चरणों को पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिए। जब तक कि मैं संसार से पार न हो जाऊँ । इस प्रकार बड़ी देर तक श्रेणिक ने भगवान् का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया। बाद वे गौतम गणधर आदि महर्षियों को भक्ति से नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गए ॥३८-४४॥
    भगवान् के दर्शनों के लिए भवदत्ता सेठानी भी गई, आकाश में देवों का जय-जयकार और दुन्दुभी बाजों की मधुर - मनोहर आवाज सुनकर उस मेंढक को जातिस्मरण हो गया । वह भी तब बावड़ी में एक कमल की कली को अपने मुँह में दबाये बड़े आनन्द और उल्लास के साथ भगवान् की पूजा के लिए चला । रास्ते में आता हुआ वह हाथी के पैर नीचे कुचला जाकर मर गया। पर उसके परिणाम त्रैलोक्य पूज्य महावीर भगवान् की पूजा में लगे हुए थे, इसलिए वह उस पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सौधर्म स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । देखिये, कहाँ तो वह मेंढक और कहाँ अब स्वर्ग का देव पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । कारण जिनभगवान् की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है ॥४५-५०॥
    एक अंतर्मुहूर्त में वह मेंढक का जीव आँखों में चकाचौंध लाने वाला तेजस्वी और सुन्दर युवा देव बन गया। नाना तरह के दिव्य रत्नमयी अलंकारों की कान्ति से उसका शरीर ढक रहा था, बड़ी सुन्दर शोभा थी। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों रत्नों की एक बहुत बड़ी राशि रखी हो या रत्नों का पर्वत बनाया गया हो। उसके बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा देखते ही बनती थी । गले में उसके स्वर्गीय कल्पवृक्षों के फूलों की सुन्दर मालाएँ शोभा दे रही थी। उनकी सुन्दर सुगन्ध ने सब दिशाओं को सुगन्धित बना दिया था। उसे अवधिज्ञान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सब सम्पत्ति मिली है और मैं देव हुआ हूँ, यह सब भगवान् की पूजा की पवित्र भावना का फल है। इसलिए सबसे पहले मुझे जाकर पतित-पावन भगवान् की पूजा करनी चाहिए। इस विचार के साथ ही वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिह्न बनाकर महावीर भगवान् के समवसरण में आया । भगवान् की पूजन करते हुए इस देव के मुकुट पर मेंढक के चिह्न को देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने गौतम भगवान् को हाथ जोड़ कर पूछा-हे संदेहरूपी अँधेरे को नाश करने वाले सूरज ! कृपाकर कहिए कि इस देव के मुकुट पर मेंढक का चिह्न क्यों है? मैंने तो आज तक देव के मुकुट पर ऐसा चिह्न नहीं देखा । ज्ञान की प्रकाशमान ज्योतिरूप गौतम भगवान् ने तब श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर जब तक की सब कथा कह सुनाई उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भव्यजनों को बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवान की पूजा करने में उनकी बड़ी श्रद्धा हो गई। जिनपूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे सुख देने वाली इस जिन पूजन को सदा करते रहें। जिन पूजा के फल से भव्यजन धन- दौलत, रूप-सौभाग्य,राज्य - वैभव, बाल-बच्चे और उत्तम कुछ जाति आदि सभी श्रेष्ठ सुख-चैन की मनचाही सामग्री लाभ करते हैं, वे चिरकाल तक जीते हैं, दुर्गति में नहीं जाते और उनके जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जिनपूजा सम्यग्दर्शन और मोक्ष का बीज है, संसार का भ्रमण मिटाने वाली है और सदाचार, सद्विद्या तथा स्वर्ग - मोक्ष के सुख की कारण है । इसलिए आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को चाहिए कि वे आलस छोड़कर निरन्तर जिनपूजा किया करें। इससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा ॥५१-६४॥
    यही जिन-पूजा सम्यग्दर्शनरूपी वृक्ष के सींचने को वर्षा सरीखी है, भव्यजनों को ज्ञान देने वाली मानों सरस्वती हैं, स्वर्ग की सम्पदा प्राप्त कराने वाली दूती है, मोक्षरूपी अत्यन्त ऊँचे मन्दिर तक पहुँचाने को मानो सीढ़ियों की श्रेणी है और समस्त सुखों को देने वाली है। यह आप भव्यजनों की पाप कर्मों से सदा रक्षा करें । जिनके जन्मोत्सव के समय स्वर्ग के इन्द्रों ने जिन्हें स्नान कराया, जिनके स्नान का स्थान सुमेरु पर्वत नियम किया गया और समुद्र जिनके स्नानजल के लिए बावड़ी नियत की गई, देवता लोगों ने बड़े आदर के साथ जिनकी सेवा बजाई, देवांगनाएँ जिनके इस मंगलमय समय में नाची और गन्धर्व देवों ने जिनके गुणों को गाया, जिनका यश बखान किया ऐसे जिन भगवान् आप भव्य-जनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥६५-६६॥
    वह भगवान् की पवित्र वाणी जय लाभ करे, संसार में चिर समय तक रहकर प्राणियों को ज्ञान के पवित्र मार्ग पर लगाये, जो अपने सुन्दर वाहन मोर पर बैठी हुई अपूर्व शोभा को धारण किए हैं, मिथ्यात्वरूपी गाढ़े अँधेरे को नष्ट करने के लिए जो सूरज के समान तेजस्विनी है, भव्यजनरूपी कमलों के वन को विकसित कर आनन्द की बढ़ाने वाली है, जो सच्चे मार्ग को दिखाने वाली है और स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुष जिसे बहुत मान देते हैं ॥६७॥
    मूलसंघ के सबसे प्रधान सारस्वत नाम के गच्छ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में प्रभाचन्द एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। वे जैनागमरूपी समुद्र के बढ़ाने के लिए चन्द्रमा की शोभा को धारण किए थे। बड़े-बड़े विद्वान् उनका आदर सत्कार करते थे। वे गुणों के मानों जैसे खजाने थे, बड़े गुणी थे ॥६८॥
    इसी गच्छ में कुछ समय बाद मल्लिभूषण भट्टारक हुए। वे मेरे गुरु थे । वे जिनभगवान् के चरण-कमलों के मानों जैसे भौरे थे - सदा भगवान् की पवित्र भक्ति में लगे रहते थे। मूलसंघ में इनके समय में यही प्रधान आचार्य गिने जाते थे । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के ये धारक थे। विद्यानन्दि गुरु के पट्टरूपी कमल को प्रफुल्लित करने को ये जैसे सूर्य थे। इनसे उनके पट्ट की बड़ी शोभा थी। ये आप सत्पुरुषों को सुखी करें ॥६९॥
    वे सिंहनन्दी गुरु भी आपको सुखी करें, जो जिन भगवान् की निर्दोष भक्ति में सदा लगे रहते थे। अपने पवित्र उपदेश से भव्यजनों को सदा हितमार्ग दिखाते रहते थे। जो कामरूपी निर्दयी हाथी का दुर्मद नष्ट करने को सिंह सरीखे थे, काम को जिन्होंने वश कर लिया था । वे बड़े ज्ञानी ध्यानी थे, रत्नत्रय के धारक थे और उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी ॥७०॥
    वे प्रभाचन्द्राचार्य विजय लाभ करें, जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिये, समुद्र में रत्न होते हैं आचार्य महाराज सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं वे भी सप्तभंगीरूपी तरंगों से युक्त हैं-स्याद्वादविद्या के बड़े ही विद्वान् हैं। समुद्र की तरंगें जैसे कूड़े-करकट को निकाल बाहर फेंक देती हैं उसी तरह ये अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मत के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय लाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ, घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेषरूपी भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिन भगवान् का वचनमयी अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक बिकने योग्य वस्तुएँ रहती है ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रय वस्तु को धारण किए थे। अतएव वे समुद्र की उपमा दिये गए ॥७१॥
    इन्हीं के पवित्र चरणकमलों की कृपा से जैनशास्त्रों के अनुसार मुझ नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप को प्राप्त करने वालों की इन पवित्र पुण्यमय कथाओं को लिखा है । कल्याण करने वाली ये कथाएँ भव्यजनों की धन-दौलत, सुख-चैन, शान्ति-सुयश और आमोद-प्रमोद आदि सभी सुख सामग्री प्राप्त कराने में सहायक हो । यह मेरी पवित्र कामना है ॥७२॥
  24. admin

    आराधना कथाकोश द्वितीय खंड
    देवों द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर चारुदत्त सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥
    जिस समय की यह कथा है, तब चम्पापुरी का राजा शूरसेन था । राजा बड़ा बुद्धिमान् और प्रजाहितैषी था। उसके नीतिमय शासन की सारी प्रजा एक स्वर से प्रशंसा करती थी। यही एक इज्जतदार भानुदत्त सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा के कोई सन्तान नहीं हुई, इसलिए वह सन्तान प्राप्ति की इच्छा से नाना प्रकार के देवी-देवताओं की पूजा किया करती थी, अनेक प्रकार की मान्यताएँ लिया करती थी परन्तु तब भी उसका मनोरथ नहीं फला। सच तो है, कहीं कुदेवों की पूजा-स्तुति से कभी कार्य सिद्ध हुआ है क्या ? एक दिन जब वह भगवान् के दर्शन करने को मन्दिर गई तब वहाँ उसने एक चारण मुनि देखे। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा- प्रभो, क्या मेरा मनोरथ भी कभी पूर्ण होगा? मुनिराज उसके हृदय के भावों को जानकर बोले- पुत्री, इस समय तू जिस इच्छा से दिन- -रात कुदेवों की पूजा-मानता किया करती है, वह ठीक नहीं है। उससे लाभ की जगह उल्टी हानि हो रही है। तू इस प्रकार की पूजा मानता द्वारा अपने सम्यक्त्व को नष्ट मत कर। तू विश्वास कर कि संसार में अपने पुण्य-पाप के सिवा और कोई देवी-देवता किसी को कुछ देने-लेने में समर्थ नहीं। अब तक तेरे पाप का उदय था, इसलिए तेरी इच्छा पूरी न हो सकी। पर अब तेरे महान् पुण्यकर्म का उदय आयेगा, जिससे तुझे एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । तू इसके लिए पुण्य के कारण पवित्र धर्म पर विश्वास कर ॥२-७॥
    मुनिराज द्वारा अपना भविष्य सुनकर सुभद्रा को बहुत खुशी हुई वह उन्हें नमस्कार कर घर चली गई। अब से उसने सब कुदेवों की पूजा - मानता करना छोड़ दिया । वह अब जिन भगवान् के पवित्र धर्म पर विश्वास कर दान, पूजा, व्रत वगैरह करने लगी। इस दशा में दिन बड़े सुख के साथ कटने लगे। इसी तरह कुछ दिन बीतने पर मुनिराज के कहे अनुसार उसके पुत्र हुआ । उसका नाम चारुदत्त रखा गया। वह जैसा-जैसा बड़ा होता गया, साथ में उत्तम - उत्तम गुण भी उसमें अपना स्थान बनाते गए। सच है, पुण्यवानों को अच्छी-अच्छी सब बातें अपने आप प्राप्त होती चली आती हैं ॥८-९ ॥
    चारुदत्त बचपन ही से पढ़ने-लिखने में अधिक योग्य दिखा करता था । यही कारण था कि उसे चौबीस-पच्चीस वर्ष का होने पर भी किसी प्रकार की विषय-वासना छू तक न गई थी। उसे तो दिन- -रात अपनी पुस्तकों से प्रेम था। उन्हीं के अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तन में वह सदा मग्न रहा करता था और इसी से बालपन से ही वह बहुधा करके विरक्त रहता था। उसकी इच्छा नहीं थी। कि वह ब्याह कर संसार के माया - जाल में अपने को फँसावे, पर उसके माता-पिता ने उससे ब्याह करने का बहुत आग्रह किया । उनकी आज्ञा के अनुरोध से उसे अपने मामा की गुणवती पुत्री मित्रवती के साथ ब्याह करना पड़ा ॥१०॥
    ब्याह हो गया सही, पर तब भी चारुदत्त उसका रहस्य नहीं समझ पाया और इसीलिए उसने कभी अपनी प्रिया का मुँह तक नहीं देखा । पुत्र की युवावस्था में यह दशा देखकर उसकी माँ को बड़ी चिन्ता हुई चारुदत्त की विषयों की ओर प्रवृत्ति हो, इसके लिए उसने चारुदत्त को ऐसे लोगों की संगति में डाल दिया, जो व्यभिचारी थे । इससे उसकी माँ का अभिप्राय सफल अवश्य हुआ । चारुदत्त विषयों में फँस गया और खूब फँस गया । पर अब वह वेश्या का ही प्रेमी बन गया। उसने तब से घर का मुँह तक नहीं देखा। उसे कोई लगभग बारह वर्ष वेश्या के यहाँ रहते हुए बीत गए। इस अरसे में उसने अपने घर का सब धन भी गवा दिया । चम्पा में चारुदत्त का घर अच्छे धनिकों की गिनती में था, पर अब वह एक साधारण स्थिति का आदमी रह गया। अभी तक चारुदत्त के खर्च के लिए उसके घर से नगद रुपया आया करता था। पर अब रुपया लुट जाने से उसकी स्त्री का गहना आने लगा। जिस वेश्या के साथ चारुदत्त का प्रेम था उसकी कुट्टनी माँ ने चारुदत्त को अब दरिद्र हुआ समझकर एक दिन अपनी लड़की से कहा- बेटी, अब इसके पास धन नहीं रहा, यह भिखारी हो चुका, इसलिए अब तुझे इसका साथ जल्दी छोड़ देना चाहिए। अपने लिए दरिद्र मनुष्य किस काम का। वही हुआ भी । वसन्त सेना ने उसे अपने घर से निकाल बाहर किया । सच है, वेश्याओं की प्रीति धन के साथ ही रहती है। जिसके पास जब तक पैसा रहता है उससे तभी तक प्रेम करती है। जहाँ धन नहीं वहाँ वेश्या का प्रेम भी नहीं । यह देख चारुदत्त को बहुत दुःख हुआ । अब उसे जान पड़ा कि विषय-भोगों में अत्यन्त आसक्ति का कैसा भयंकर परिणाम होता है। वह अब एक पलभर के लिए भी वहाँ पर नहीं ठहरा और अपनी प्रिया के भूषण ले-लिवाकर विदेश चलता बना। उसे इस हालत में माता को अपना कलंकित मुँह दिखलाना उचित नहीं जान पड़ा ॥११-१८॥
    यहाँ से चलकर चारुदत्त धीरे-धीरे उलूख देश के उशिरावर्त नाम के शहर में पहुँचा। चम्पा से जब वह रवाना हुआ तब साथ में इसका मामा भी हो गया था । उशिरावर्त में इन्होंने कपास की खरीद की। यहाँ से कपास लेकर ये दोनों ताम्रलिप्ता नामक पुरी की ओर रवाना हुए। रास्ते में ये एक भयंकर वनों में जा पहुँचे। कुछ विश्राम के लिए इन्होंने यहीं डेरा डाल दिया। इतने में एक महा आँधी आई उससे परस्पर की रगड़ से बाँसों में आग लग उठी। हवा चल ही रही थी, सो आग की चिनगारियाँ उड़कर इनके कपास पर जा पड़ीं। देखते-देखते वह सब कपास भस्मीभूत हो गया। सच है, बिना पुण्य के कोई काम सिद्ध नहीं हो पाता है। इसलिए पुण्य कमाने के लिए भगवान् के उपदेश किए मार्ग पर चलना सबका कर्तव्य है । इस हानि से चारुदत्त बहुत ही दुःखी हो गया। वह यहाँ से किसी दूसरे देश की ओर जाने के लिए अपने मामा से सलाहकर समुद्रदत्त सेठ के जहाज द्वारा पवनद्वीप में पहुँचा। यहाँ इसके भाग्य का सितारा चमका। कुछ वर्ष यहाँ रहकर इसने बहुत धन कमाया। इसकी इच्छा अब देश लौट आने की हुई । अपनी माता के दर्शनों के लिए इसका मन बड़ा अधीर हो उठा। इसने चलने की तैयारी कर जहाज में अपना जब धन - असबाब लाद दिया ॥१९-२३॥
    जहाज अनुकूल समय देख रवाना हुआ। जैसे-जैसे वह अपनी " स्वर्गादपि गरीयसी" जन्मभूमि की ओर शीघ्र गति से बढ़ा हुआ जा रहा था, चारुदत्त को उतनी ही अधिक प्रसन्नता होती जाती थी। पर यह कोई नहीं जानता कि मनुष्य का चाहा कुछ नहीं होता । होता वही है जो दैव को मंजूर होता है। यही कारण हुआ कि चारुदत्त की इच्छा पूरी न हो पाई और अचानक जहाज किसी से टकराकर फट पड़ा। चारुदत्त का सब माल - असबाब समुद्र के विशाल उदर की भेंट चढ़ा। वह पहले सा ही दरिद्र हो गया । पर चारुदत्त को दुःख उठाते - उठाते बड़ी सहन-शक्ति प्राप्त हो गई थी। एक पर एक आने वाले दुःखों ने उसे निराशा के गहरे गढ़े से निकाल कर पूर्ण आशावादी और कर्तव्यशील बना दिया था । इसलिए अब की बार उसे अपनी हानि का कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ। वह फिर कमाने के लिए विदेश चल पड़ा। उसने अब की बार भी बहुत धन कमाया। घर लाते समय फिर भी उसकी पहले सी दशा हुई। इतने में ही उसके बुरे कर्मों का अन्त न हो गया किन्तु ऐसी-ऐसी भयंकर घटनाओं का कोई सात बार उसे सामना करना पड़ा। इसने कष्ट पर कष्ट सहा, पर अपने कर्तव्य से यह कभी विमुख नहीं हुआ। अब की बार जहाज के फट जाने से यह समुद्र में गिर पड़ा। इसे अपने जीवन का भी सन्देह हो गया था । इतने में भाग्य से बहकर आता हुआ एक लकड़े का तख्ता इसके हाथ पड़ गया। उसे पाकर इसके जी में जी आया । किसी तरह यह उसकी सहायता से समुद्र किनारे आ लगा। यहाँ से चलकर यह राजगृह में पहुँचा। यहाँ इसे एक विष्णुमित्र नाम का संन्यासी मिला । संन्यासी ने इसके द्वारा कोई अपना काम निकलता देखकर पहले बड़ी सज्जनता का इसके साथ बरताव किया । चारुदत्त ने यह समझकर कि यह कोई भला आदमी है, अपनी सब हालत उससे कह दी । चारुदत्त को धनार्थी समझकर विष्णुमित्र उससे बोला- मैं समझा, तुम धन कमाने को घर बाहर हुए हो। अच्छा हुआ तुमने अपना हाल सुना दिया। पर सिर्फ धन के लिए अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। आओ, मेरे साथ आओ, यहाँ से कुछ दूर पर जंगल में एक पर्वत है। उसकी तलहटी में एक कुँआ है। वह रसायन से भरा हुआ है। उससे सोना बनाया जाता है। सो तुम उसमें से कुछ थोड़ा सा रस ले आओ। उससे तुम्हारी सब दरिद्रता नष्ट हो जायेंगी । चारुदत्त संन्यासी के पीछे-पीछे हो लिया। सच है, दुर्जनों द्वारा धन के लोभी कौन-कौन नहीं ठगे गए ॥२४-२९॥
    संन्यासी और उसके पीछे-पीछे चारुदत्त ये दोनों एक पर्वत के पास पहुँचे। संन्यासी ने रस लाने की सब बातें समझाकर चारुदत्त के हाथ में एक तूंबी दी और एक सीके पर उसे बैठाकर कुँए में उतार दिया। चारुदत्त तूंबी में रस भरने लगा । इतने में वहाँ बैठे हुए एक मनुष्य ने उसे रस भरने से रोका। चारुदत्त पहले तो डरा, पर जब उस मनुष्य ने कहा तुम डरो मत, तब कुछ सम्हल कर वह बोला-तुम कौन हो और इस कुँए में कैसे आये? कुँए में बैठा हुआ मनुष्य बोला, सुनिए, मैं उज्जयिनी में रहता हूँ। मेरा नाम धनदत्त है। मैं किसी कारण से सिंहलद्वीप गया था । वहाँ से लौटते समय तूफान पड़कर मेरा जहाज फट गया । धन-जन की बहुत हानि हुई मेरे हाथ एक लक्कड़ का पटिया लग जाने से अथवा यों कहिए कि दैव की दया से मैं बच गया। समुद्र से निकलकर मैं अपने शहर की ओर जा रहा था कि रास्ते में मुझे यही संन्यासी मिला। यह दुष्ट मुझे धोखा देकर यहाँ लाया। मैंने कुँए में से इसे रस भरकर ला दिया। इस पापी ने पहले तूंबी मेरे हाथ से ली और फिर आप रस्सी काटकर भाग गया। मैं आकर कुँए में गिरा। भाग्य से चोट तो अधिक न आई, पर दो- तीन दिन इसमें पड़े रहने से मेरी तबियत बहुत बिगड़ गई और अब मेरे प्राण घुट रहे हैं। उसकी हालत सुनकर चारुदत्त को बड़ी दया आई पर वह ऐसी जगह में फँस चुका था, जिससे उसके जिलाने का कुछ यत्न नहीं कर सकता था । चारुदत्त ने उससे पूछा- तो मैं इस संन्यासी को रस भरकर न दूँ? धनदत्त ने कहा- नहीं, ऐसा मत करो; रस तो भरकर दे ही दो, अन्यथा यह ऊपर से पत्थर वगैरह मारकर बड़ा कष्ट पहुँचायेगा । तब चारुदत्त ने एक बार तो तूंबी को रस से भरकर सीके में रख दिया। संन्यासी ने उसे निकाल लिया। जब चारुदत्त को निकालने के लिए उसने फिर सीका कुँए में डाला। अब की बार चारुदत्त ने स्वयं सीके पर न बैठकर बड़े-बड़े वजनदार पत्थरों को उसमें रख दिया। संन्यासी उस पत्थर भरे सीके पर चारुदत्त को बैठा समझकर, जब सीका आधी दूर आया तब उसे काटकर आप चलता बना। चारुदत्त की जान बच गई। उसने धनदत्त से कहा तुमने मुझे जीवनदान दिया और इसके लिए मैं तुम्हारा जन्म-जन्म में ऋणी रहूँगा । हाँ और यह तो कहिए कि इससे निकलने का भी कोई उपाय हैं क्या? धनदत्त बोला- यहाँ रस पीने को प्रतिदिन एक गो आया करती है। तब आज तो वह चली गई कल सबेरे वह फिर आवेगी तुम उसकी पूँछ पकड़कर निकल जाना। इतना कहकर वह बोला- अब मुझसे बोला नहीं जाता। मेरे प्राण बड़े संकट में हैं । चारुदत्त को यह देख बड़ा दुःख हुआ कि वह अपने उपकारी की कुछ सेवा नहीं कर पाया। उससे और तो कुछ नहीं बना, पर इतना तो उसने तब भी किया कि धनदत्त को पवित्र जिनधर्म का उपदेश देकर, जो कि उत्तम गति का साधन है, पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास भी लिवा दिया ॥३०-४२॥
    सबेरा हुआ। सदा की भाँति आज भी गो रस पीने के लिए आई रस पीकर जैसे ही वह जाने लगी, चारुदत्त ने उसकी पूँछ पकड़ ली। उसके सहारे वह बाहर निकल आया । यहाँ से इस जंगल को लांघकर यह एक ओर जाने लगा। रास्ते में इसकी अपने मामा रुद्रदत्त से भेंट हो गई। रुद्रदत्त ने चारुदत्त का सब हाल जानकर कहा- तो चलिए अब हम रत्नद्वीप में चलें । वहाँ अपना मनोरथ अवश्य पूरा होगा। धन की आशा से ये दोनों अब रत्नद्वीप जाने को तैयार हुए। रत्नद्वीप जाने के लिए पहले एक पर्वत पर जाना पड़ता था और पर्वत पर जाने का जो रास्ता था, वह बहुत सँकरा था । इसलिए पर्वत पर जाने के लिए इन्होंने दो बकरे खरीद लिए और उन पर सवार होकर ये रवाना हो गए। जब ये पर्वत पर कुशलपूर्वक पहुँच गये तब पापी रुद्रदत्त ने चारुदत्त से कहा- देखो, अब अपने को यहाँ पर इन दोनों बकरों को मारकर दो चमड़े की थैलियाँ बनानी चाहिए और उन्हें उलटकर उनके भीतर घुस दोनों का मुँह सी लेना चाहिए। मांस के लोभ से यहाँ सदा ही भेरुण्ड - पक्षी आया करते हैं । सो वे अपने को उठा ले जाकर उस पार रत्नद्वीप ले जाएँगे। वहाँ जब वे हमें खाने लगें तब इन थैलियों को चीरकर हम बाहर हो जायेंगे। मनुष्य को देखकर पक्षी उड़ जाएँगे और ऐसा करने से बहुत सीधी तरह अपना काम बन जायेगा ॥४३-५१॥
    चारुदत्त ने रुद्रदत्त की पापमयी बात सुनकर उसे बहुत फटकारा और वह साफ इनकार कर गया कि मुझे ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किए धन की जरूरत नहीं। सच है-दयावान् कभी ऐसा अनर्थ नहीं करते। रात को ये दोनों सो गए । चारुदत्त को स्वप्न में भी ख्याल न था कि रुद्रदत्त सचमुच इतना नीच होगा और इसीलिए वह निःशंक होकर सो गया था। जब चारुदत्त को खूब गाढ़ी नींद आ गई तब पापी रुद्रदत्त चुपके से उठा और जहाँ बकरें बँधे थे वहाँ गया। उसने पहले अपने बकरे को मार डाला और चारुदत्त के बकरे का भी उसने आधा गला काट दिया होगा कि अचानक चारुदत्त की नींद खुल गई। रुद्रदत्त को अपने पास सोया न पाकर उसका सिर ठनका। वह उठकर दौड़ा और बकरों के पास पहुँचा। जाकर देखता है तो पापी रुद्रदत्त बकरे का गला काट रहा है। चारुदत्त को काटो तो खून नहीं। वह क्रोध के मारे भर्रा गया। उसने रुद्रदत्त के हाथ से छुरी तो छुड़ाकर फेंकी और उसे खूब ही सुनाई सच है, कौन ऐसा पाप है, जिसे निर्दयी पुरुष नहीं करते?
    उस अधमरे बकरे को टगर-टगर करते देखकर दया से चारुदत्त का हृदय भर आया। उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं। पर वह उसके बचाने का प्रयत्न करने के लिए लाचार था। इसलिए कि वह प्रायः काटा जा चुका था । उसकी शांति के साथ मृत्यु होकर वह सुगति लाभ करे, इसके लिए चारुदत्त ने इतना अवश्य किया कि उसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाकर संन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश का रहस्य समझने वाले हैं, उनका जीवन सच पूछो तो केवल परोपकार के लिए ही होता है ॥५२-५५॥
    चारुदत्त ने बहुतेरा चाहा कि मैं पीछे लौट जाऊँ, पर वापस लौटने का उसके पास कोई उपाय न था। इसलिए अत्यन्त लाचारी की दशा में उसे भी रुद्रदत्त की तरह उस थैली की शरण लेनी पड़ी। उड़ते हुए भेरुण्ड पक्षी पर्वत पर दो मांस- पिण्ड पड़े देखकर आए और उन दोनों को चोंचों से उठा चलते बने। रास्ते में उनमें परस्पर लड़ाई होने लगी। परिणाम यह निकला कि जिस थैली में रुद्रदत्त था, वह पक्षी की चोंच से छूट पड़ी । रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया । मरकर वह पाप के फल से कुगति में गया । ठीक भी है, पापियों की कभी अच्छी गति नहीं होती । चारुदत्त की थैली को जो पक्षी लिए था, उसने उसे रत्नद्वीप के एक सुन्दर पर्वत पर ले जाकर रख दिया। इसके बाद पक्षी ने उसे चोंच से चीरना शुरू किया। उसका कुछ भाग चीरते ही उसे चारुदत्त देख पड़ा। पक्षी उसी समय डरकर उड़ भागा। सच है, पुण्यवानों का कभी-कभी तो दुष्ट भी हित करने वाले हो जाते हैं। जैसे ही चारुदत्त थैली के बाहर निकला कि धूप में मेरु की तरह निश्चल खड़े मुनिराज को देखकर चारुदत्त की उन पर बहुत श्रद्धा हो गई । चारुदत्त उनके पास गया और बड़ी भक्ति से उसने उनके चरणों में अपना सिर नवाया । मुनिराज का ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारुदत्त से कहा-चारुदत्त, क्यों तुम अच्छी तरह तो हो । न? मुनि द्वारा अपना नाम सुनकर चारुदत्त को कुछ सन्तोष तो इसलिए अवश्य हुआ कि एक अत्यन्त अपरिचित देश में उसे कोई पहचानता भी है, पर इसके साथ ही उसके आश्चर्य का भी कुछ ठिकाना न रहा । वह बड़े विचार में पड़ गया कि मैंने तो कभी इन्हें कहीं देखा नहीं, फिर इन्होंने ही मुझे कहाँ देखा था ! अस्तु, जो हो, इन्हीं से पूछता हूँ कि ये मुझे कहाँ से जानते हैं। वह मुनिराज से बोला- प्रभो, मालूम होता है आपने मुझे कहीं देखा है, बतलाइए तो आपको मैं कहाँ मिला था? मुनि बोले- सुनो, मैं एक विद्याधर हूँ ! मेरा नाम अमितगति है । एक दिन मैं चम्पापुरी के बगीचे से अपनी प्रिया के साथ सैर करने को गया हुआ था । उसी समय एक धूमसिंह नाम का विद्याधर वहाँ आ गया । मेरी सुन्दरी स्त्री को देखकर उस पापी की नियत डगमगी। काम से अन्धे हुए उस पापी ने अपनी विद्या के बल से मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी प्यारी को विमान में बैठाकर मेरे देखते-देखते आकाश मार्ग से चल दिया। उस समय मेरे कोई ऐसा पुण्यकर्म का उदय आया तो तुम उधर आ निकले। तुम्हें दयावान् समझकर मैंने तुमसे इशारा करके कहा-वे औषधियाँ रखी हैं, उन्हें पीसकर मेरे शरीर पर लेप दीजिए। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर वैसा ही किया। उससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और मैं उन विद्याओं के पंजे से छूट गया। जैसे गुरु के उपदेश से जीव, माया, मिथ्या की कील से छूट जाता है। मैं उसी समय दौड़ा हुआ कैलाश पर्वत पर पहुँचा और धूमसिंह को उसके कर्म का उचित प्रायश्चित्त देकर उससे अपनी प्रिया को छुड़ा लाया। फिर मैंने आप से कुछ प्रार्थना की कि आप जो इच्छा हो वह मुझसे माँगे, पर आप मुझ से कुछ भी लेने के लिए तैयार नहीं हुए । सच तो यह है कि महात्मा लोग दूसरों का भला किसी प्रकार की आशा से करते ही नहीं इसके बाद मैं आपसे विदा होकर अपने नगर में आ गया। मैंने इसके पश्चात् कुछ वर्षों तक और राज्य किया, राज्य श्री का खूब आनन्द लूटा। बाद आत्मकल्याण की इच्छा से पुत्रों को राज्य सौंपकर स्वयं दीक्षा ले गया, जो कि संसार का भ्रमण मिटाने वाली है। चारणऋद्धि के प्रभाव से मैं यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूँ । मेरा तुम्हारे साथ पुराना परिचय है, इसलिए मैं तुम्हें पहचानता हूँ । सुनकर चारुदत्त बहुत खुश हुआ। वह जब तक वहाँ बैठा रहा, इसी बीच में इन मुनिराज के दो पुत्र इनकी पूजा करने को वहाँ आए । मुनिराज ने चारुदत्त का कुछ हाल उन्हें सुनाकर उसका उनसे परिचय कराया। परस्पर में मिलकर इन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े ही समय के परिचय से इनमें अत्यन्त प्रेम बढ़ गया ॥५६-७९॥
    इसी समय एक बहुत खूबसूरत युवा यहाँ आया। सबकी दृष्टि उसके दिव्य तेज की ओर जा लगी। उस युवा ने सबसे पहले चारुदत्त को प्रणाम किया । यह देख चारुदत्त ने उसे ऐसा करने से रोककर कहा-तुम्हें पहले गुरु महाराज को नमस्कार करना उचित है । आगत युवा ने अपना परिचय देते हुए कहा-मैं बकरा था । पापी रुद्रदत्त जब मेरा आधा गला काट चुका होगा कि उसी समय मेरे भाग्य से आपकी नींद खुल गई आपने आकर मुझे नमस्कार मंत्र सुनाया और साथ ही संन्यास दे दिया। मैं शान्त भावों से मरकर मंत्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । इसलिए मेरे गुरु तो आप ही हैं - आप ही ने मुझे सन्मार्ग बतलाया है। इसके बाद सौधर्म - देव धर्म - प्रेम से बहुत सुन्दर-सुन्दर और मूल्यवान् दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्त को भेंटकर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। सच है, जो परोपकारी हैं उनका सब ही बड़ी भक्ति के साथ आदर सत्कार करते हैं ॥८०-८६॥
    इधर ये विद्याधर सिंहयश और वारहग्रीव मुनिराज को नमस्कार कर चारुदत्त से बोले चलिए हम आपको आपकी जन्मभूमि चम्पापुरी में पहुँचा आवें। इससे चारुदत्त को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह जाने को सहमत हो गया । चारुदत्त ने इसके लिए उनसे बड़ी कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने चारुदत्त को उसके सब माल-असबाब सहित बहुत जल्दी विमान द्वारा चम्पापुरी में ला रखा। इसके बाद वे उसे नमस्कार कर और आज्ञा लेकर अपने स्थान लौट गए। सच हैं, पुण्य से संसार में क्या नहीं होता! और पुण्य प्राप्ति के लिए जिनभगवान् के द्वारा उपदेश किए दान, पूजा, व्रत शीलरूप चार प्रकार पवित्र धर्म का सदा पालन करते रहना चाहिए ॥८७-९०॥
    अचानक अपने प्रिय पुत्र के आ जाने से चारुदत्त के माता-पिता को बड़ी खुशी हुई उन्होंने बारबार उसे छाती से लगाकर वर्षो से वियोगाग्नि से जलते हुए अपने हृदय को ठंडा किया। चारुदत्त की प्रिया मित्रवती के नेत्रों से दिन-रात बहती हुई वियोग-दुःखाश्रुओं की धारा और आज प्रिय को देखकर बहने वाली आनन्दाश्रुओं की धारा अपूर्व समागम हुआ। उसे जो सुख आज मिला, उसकी समानता में स्वर्ग का दिव्य सुख तुच्छ है । बात ही बात में चारुदत्त के आने के समाचार सारी पुरी में पहुँच गया और उससे सभी को आनन्द हुआ ॥९१॥
    चारुदत्त एक समय बड़ा धनी था । अपने कुकर्मों से वह पथ-पथ का भिखारी बना। पर जब से उसे अपनी दशा का ज्ञान हुआ तब से उसने केवल कर्तव्य को ही अपना लक्ष्य बनाया और फिर कर्मशील बनकर उसने कठिन से कठिन काम किया। उसमें कई बार उसे असफलता भी प्राप्त हुई,पर वह निराश नहीं हुआ और काम करता ही चला गया। अपने उद्योग से उसके भाग्य का सितारा फिर चमक उठा और वह आज पूर्ण तेज प्रकाश कर रहा है। इसके बाद चारुदत्त ने बहुत वर्षों तक खूब सुख भोगा और जिनधर्म की भी भक्ति के साथ उपासना की । अन्त में उदासीन होकर वह अपनी जगह पर अपने सुन्दर नाम के पुत्र को नियुक्त कर आप दीक्षा ले ली। मुनि होकर उसने खूब तप किया और आयु के अन्त में संन्यास सहित मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग लाभ किया। स्वर्ग में वह सुख के साथ रहता है, अनेक प्रकार के उत्तम से उत्तम भोगों को भोगता है, सुमेरु और कैलाश पर्वत आदि स्थानों के जिनमन्दिरों की यात्रा करता है, विदेहक्षेत्र में जाकर साक्षात् तीर्थंकर केवली भगवान् की स्तुति-पूजा करता है और उनका सुख देने वाला पवित्र धर्मोपदेश सुनता है। मतलब यह कि उसका प्रायः समय धर्म साधन में बीतता है और इसी जिनभगवान् के उपदेश किए निर्मल धर्म की इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी सदा भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, यही धर्म स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला है। इसलिए यदि तुम्हें श्रेष्ठ सुख की चाह है तो तुम भी इसी धर्म का आश्रय लो॥९२-९८॥
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