पाठ - 1 -अपभ्रंश का इतिहास
मंगलाचरण
जे जाया झाणग्गियएँ कम्म कलंक डहेवि।
णिच्च णिरंजण णाणमय ते परमप्प णवेवि।।1।।
केवल दंसण णाणमय केवल सुक्ख सहाव
जिणवर वंदउं भत्तियए जेहिं पयासिय भाव ।।2।।
जे परमप्पु णियंति मुणि परम समाहि धरेवि।
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि।।3।
- अवभंस विज्जा पट्ठकम्म पढेमि
भारतीय भाषाएँ एवं अपभ्रंश
पं. नेमिचन्द्रजी शास्त्री के अनुसार भारतदेश की भाषा के विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।
प्रथम स्तर (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक- लोकभाषा प्राकृत, छान्दस, संस्कृत)
साहित्य की दृष्टि से सर्वप्रथम रचना वेदों के रूप में ही देखी जाती है किन्तु वैदिक साहित्य से पूर्व जन साधारण में प्राकृत अपने अनेक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में कथ्य रूप से प्रचलित थी। इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई तथा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस' कहा गया। यह छान्दस उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। यह वैदिक संस्कृत ही आगे पाणिनी के व्याकरण से स्थिर होकर संस्कृत कहलायी। यही भारतीय भाषा का प्रथम स्तर है।
द्वितीय स्तर- (ई.पूर्व 600से 1200 ई. तक) इस स्तर की भाषा को तीन युगों में विभक्त किया गया है।
प्रथमयुगीनः- (ई.पूर्व 600से ई. 200 तक) तीर्थंकर महावीर के उपदेश, शिलालेखी प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत, आर्ष-पालि, प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, जातकों की भाषा।
मध्य युगीनः-(200 ई. से 600 ई. तक) भास और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैन काव्य साहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृतें एवं वृहत्कथा की पैशाची प्राकृत।
जब साहित्य का निर्माण इन प्राकृतों में होने लगा और वैयाकरणों ने इन्हें व्याकरण के कठिन नियमों में बांधना प्रारम्भ कर दिया तभी प्रादेशिक भाषा रूप बोलियां ही अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई।
तृतीय युगीन:-(600 से 1200 ई. तक) भिन्न भिन्न प्रदेशों की परवर्तीकाल की अपभ्रंश भाषाएँ।
पुनः अपभ्रंश का साहित्यिक उपयोग होने लगा और बहुत से मुक्तक और चरिउ काव्य लिखे गए | जैसे जम्बूसामि चरिउ, करकंडु चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, पउम चरिउ आदि। इसके साथ ही रचे गए कईं दोहे। जैसे – मूँज के दोहे, सावय धम्म दोहे आदि।
अपभ्रंश मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की अन्तिम अवस्था तथा प्राचीन और नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के बीच का सेतु है। इसका आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के साथ एक जननी का सम्बन्ध है। उपरोक्त सभी आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं के विकास में अपभ्रंश की महत्वपूर्ण भूमिका है।
तृतीय स्तर(1200 ई. से आगे तक) - अपभ्रंश और परवर्ती आधुनिक कथ्य भाषाएं
अपभ्रंश का वैशिष्ट्य
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की जननी अपभ्रंश भाषा भी देश की एक सुसमृद्ध लोक-भाषा रही है। दसवीं शताब्दी में मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा तथा बंगाल के पाल राजा लोक भाषा अपभ्रंश के संरक्षक थे। सरह, काण्ह आदि चौरासी सिद्ध का पालों के शासन काल था | स्वयंभू और पुष्पदन्त कवि राष्ट्रकूट राजाओं के काल में हुए । इन सभी को तत्कालीन बोलियों को अपभ्रंश के रूप में केन्द्रित कर विकसित करने के लिए इन राजाओं का भरपूर उत्साह एवं सहयोग प्राप्त हुआ। दसवी शताब्दी के अंत में मान्यखेट राष्ट्रकूटों के स्थान पर गुजरात में सोलंकी और चालुक्यों की शक्ति प्रबल हो उठी। इनमें सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल अपभ्रंश साहित्य के संरक्षक रहे। अपभ्रंश के प्रसिद्ध विद्वान हेमचन्द्र सूरि को संरक्षण देने का श्रेय सिद्धराज को ही है। साहित्य-सृजन के लिए हेमचन्द्र को राज्य की ओर से सम्पूर्ण सुविधाएँ दी गई। कुमारपाल ने भी अपभ्रंश को पर्याप्त संरक्षण दिया। सोलंकियों के शासनकाल में गुजरात का वैभव पराकाष्ठा पर था। अतः अपभ्रंश भाषा उस समय की राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई और अपने काल की बोलचाल, विचार, भावाभिव्यक्ति और जीवन के विकास की सशक्त माध्यम बनी।
ई. सन् की छठी शती से लेकर 1300 ई.तक के भारतीय विचार, भावना, साहित्य, धर्म, दर्शन तथा समाज की धड़कनों को अपभ्रंश के विभिन्न काव्य रूपों - महाकाव्य, पुराणकाव्य, चरितकाव्य, कथाकाव्य, धार्मिक तथा लौकिक खंडकाव्य, रहस्य-भक्ति-नीति-उपदेश मूलक मुक्तक काव्यों में में देखा जा सकता है। छठी से पन्द्रहवीं शताब्दी का समय अपभ्रंश का स्वर्णयुग कहा जाता है। हिन्दी साहित्य की विपुल धाराओं का मूल अपभ्रंश ही है। अपभ्रंश कवि हिन्दी काव्यधारा के प्रथम सृष्टा थे।
आपको आश्चर्य होगा कि जब तक इस भाषा का साहित्य उपलब्ध नहीं था तब तक का यह काल अंधकार युग के नाम से संबोधित कर दिया गया था। इस भाषा के काव्य ग्रंथों को प्राप्त करने की विद्वानों में तीव्र उत्कंठा थी। जर्मन विद्वान डॉ. रिचार्ड पीशेल (अपभ्रंश का पाणिनी) ने बड़े दु:ख के साथ कहा कि 'अपभ्रंश का विपुल साहित्य खो गया है क्योंकि जिस भाषा में हेमचन्द्राचार्य द्वारा संकलित अप्रतिम दोहे हों, उस साहित्य में विरलता नहीं हो सकती। उसका भरा-पूरा भंडार होना चाहिए। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- इस अंधकार युग को प्रकाशित करने योग्य जो भी मिल जाये उसे सावधानी से जिलाये रखना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि उसमें उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भाषित करने की क्षमता है। इस काल की कोई भी रचना अवज्ञा और उपेक्षा का पात्र नहीं हो सकती। दूसरे जर्मन विद्वान डॉ. हरमन याकोबी ने 1913 ई. में अहमदाबाद में एक जैन साधु के पास रखी एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ की प्रति देखी । उनको बताया गया कि यह कोई प्राकृत की रचना है। जैसे ही उन्होंने उसे ध्यान से पढ़ा वे हर्ष से उछलते हुए बोले यह तो अपभ्रंश रचना है। साधु के द्वारा उनको यह ग्रंथ नहीं दिया जाने पर याकोबी ने वही बैठकर उसके कुछ पत्रों की फोटो कॉपी तैयार करवाई। यह काव्यग्रंथ अपभ्रंश भाषा के महाकवि धनपाल का लिखा हुआ "भविष्यत्त कहा" था। अपभ्रंश साहित्य का यह महत्वपूर्ण काव्य डॉ. याकोबी को सबसे पहले प्राप्त हुआ। अपभ्रंश की सर्वप्रथम प्रकाशित होनेवाली यही साहित्यिक रचना थी। इसके प्रकाशित होने के 3 वर्षों के पश्चात् सन् 1921 में याकोबी ने आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित 'नेमिनाथचरित' के अन्तर्गत 'सनत्कुमारचरित' का सुसम्पादित संस्करण प्रस्तुत किया।
अपभ्रंश साहित्य की खोज के बाद अपभ्रंश साहित्य का सम्पादन काल प्रारम्भ हुआ। डॉ. पी. एल.वैद्य, श्री राहुल सांकृत्यायन, मुनिजिनविजय, डॉ.हीरालाल जैन, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये आदि विद्वानों ने अपभ्रंश ग्रंथों के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। भारतीय विद्वान जिन ग्रंथों को प्राकृत का समझते थे उनमें से कईं ग्रंथ अपभ्रंश के निकले। अपभ्रंश के अध्यात्मकी रहस्यवादी धारा के प्रथम कवि आचार्य योगीन्दु देव तथा प्रथम चरिउ काव्यकार स्वयंभू हैं। हिन्दी जगत के जाने-माने विद्वान राहुल सांकृत्यायन के अनुसार स्वयंभू भारत के एक दर्जन कवियों में से एक हैं।आज अपभ्रंश की इस परम्परा को जिलाए रखने के लिए भारत में एक मात्र अकादमी है अपभ्रंश साहित्य अकादमी जो जयपुर में स्थित है, संस्थान के संयोजक डॉ. कमलचंदजी सोगाणी हैं, जिन्होंने अनेक अपभ्रंश - प्राकृत पुस्तकों का अनुवाद एवं सम्पादन किया है साथ ही साथ व्याकरण में गणितीय प्रणाली लागू कर,अपभ्रंश भाषा को सहज और सुगम बना दिया |
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