1. गुणवाचक विशेषण -
जो शब्द किसी संज्ञा या सर्वनाम के गुण, दोष, दशा, रंग, आकार, स्थिति आदि का बोध कराते हैं, वे गुणवाचक विशेषण होते हैं। पुल्लिंग गुणवाचक विशेषण में 'आ' और 'ई' प्रत्यय जोडकर स्त्रीलिंग गुणवाचक विशेषण बना लिए जाते हैं। पुल्लिंग गुणवाचक विशेषण और नपुंसकलिंग गुणवाचक विशेषण समान होते हैं। जैसे -
विशेषण शब्द
पुल्लिंग
स्त्रीलिंग
सुन्दर
सुन्दर
सुन्दरा, सुन्दरी
थिर
प्रथमा विभक्ति : कर्ता कारक
कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है।
कर्मवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।
द्वितीया विभक्ति : कर्म कारक
कर्तृवाच्य के कर्म में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है तथा गौण कर्म में अपादान, अधिकरण, सम्प्रदान, सम्बन्ध आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है।
सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
क्रिया के अन्त में प्रत्यय लगने पर जो शब्द बनता है, वह कृदन्त कहलाता है। अपभ्रंश भाषा में प्रयुक्त होनेवाले आवश्यक कृदन्त निम्न हैं।
1. अनियमित भूतकालिक कृदन्त
‘अ' या 'य' प्रत्यय के संयोग से बने भूतकालिक कृदन्तों के नियमित रूपों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य में कुछ बने बनाये तैयार रूप में भूतकाल वाचक अनियमित भूतकालिक कृदन्त भी मिलते हैं। इनमें भूतकालिक कृदन्त का ‘अ’ या ‘य' प्रत्यय नहीं होता और न ही इसमें मूल क्रिया को प्रत्यय से अलग किया जा सकता है। नियमित भूतकालिक कृदन्त के समान इनके
अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में '0' और 'आवि' प्रत्यय लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के पश्चात् इन प्रेरणार्थक क्रियाओं का कर्मवाच्य में प्रयोग किया जाता है। '0' प्रत्यय लगाने पर क्रिया के उपान्त्य 'अ' का आ हो जाता है। जैसे -
0
हस - 0 = हास
हँसाना
कर - 0 = कार
कराना
पढ - 0 = पाढ
पढाना
भिड - 0 = भिड
भिडाना
रूस - 0 = रूस
रुसाना
कर्मवाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है तथा जो कर्म द्वितीया में रहता है, वह प्रथमा में परिवर्तित हो जाता है। तत्पश्चात् सकर्मक क्रिया में कर्मवाच्य के इज्ज और इय प्रत्यय लगाकर प्रथमा में परिवर्तित कर्म के पुरुष व वचन के अनुसार ही सम्बन्धित काल के प्रत्यय और जोड दिए जाते हैं। क्रिया से कर्मवाच्य वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा तथा भविष्यत्काल में बनाया जाता है। भविष्यकाल में क्रिया का रूप भविष्यत्काल कर्तृवाच्य जैसा ही रहता है।
भूतकाल मे भूतकालिक कृदन्त से कर्मवाच्य बनाने
भाववाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है तथा अकर्मक क्रिया में 'इज्ज' ‘इय' प्रत्यय जोड़े जाते हैं। इसके पश्चात् सम्बन्धित काल के ‘अन्यपुरुष एकवचन' के प्रत्यय भी लगा दिये जाते हैं। क्रिया से भाववाच्य वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा तथा भविष्यकाल में बनाया जाता है। भविष्यकाल में क्रिया का भविष्यत्काल कर्तृवाच्य का रूप ही रहता है।
भूतकाल में भूतकालिक कृदन्त से भाववाच्य बनाने पर कर्त्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है; किन्तु कृदन्त सदैव नपुंसकलिंग प्रथमा एकवचन में ही रहता है।
अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में ‘अ’ और ‘आव' प्रत्यय लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के पश्चात् इन प्रेरणार्थक क्रियाओं का कर्तृवाच्य में प्रयोग किया जाता है। 'अ' प्रत्यय लगाने पर क्रिया के उपान्त्य ‘अ’ का आ, उपान्त्य 'इ' का ए तथा उपान्त्य 'उ' का ओ हो जाता है। उपान्त्य दीर्घ 'ई' तथा दीर्घ 'ऊ' होने पर कोई परिवर्तन नहीं होता। संयुक्ताक्षर आगे रहने पर उपान्त्य 'अ' का आ होने पर भी ‘अ’ ही रहता है। जैसे -
अ
हस - अ = हास
हँसाना
सय - अ = साय
जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्त्ता' हो वहाँ कर्तृवाच्य होता है। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्त्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और क्रिया के पुरुष और वचन कर्त्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होते हैं। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग प्रायः भूतकाल में नहीं होता, बाकी तीनों कालों में होता है।
वाक्य रचना : वर्तमानकाल
मैं पुस्तक पढता हूँ
हउं गंथु पढउं।
हम पुस्तकें पढ़ते हैं
1. कर्तृवाच्य -
जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्ता' हो, वहाँ कर्तृवाच्य होता है। कर्तृवाच्य का प्रयोग अकर्मक व सकर्मक दोनों क्रियाओं के साथ होता है। अकर्मक क्रिया से कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता सदैव प्रथमा विभक्ति में होता है तथा कर्ता के वचन व पुरुष के अनुसार क्रियाओं के वचन व पुरुष होते हैं। अकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग चारों काल - वर्तमानकाल, विधि एवं आज्ञा, भविष्यत्काल तथा भूतकाल में होता है।
वर्तमानकाल
(क) उत्तमपुरुष एक वचन में 'उं' और ‘मि' प्रत्यय क्रिया में
1. शब्द
पुल्लिंग संज्ञा शब्द
(क) अकारान्त -
अक्ख
प्राण
अक्खय
अखंड अक्षत
अग्घ
अर्घ
अणंग
कामदेव
अणुबन्ध
सम्बन्ध
अपय
मुक्त आत्मा
अमर
देव
अमरिस
क्रोध
अवमाण
अपमान
अवराह
अपराध
अहिसेअ
किसी भी भाषा को सीखने व समझने के लिए उस भाषा के मूल तथ्यों की जानकारी होना आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा को सीखने व समझने के लिए भी इस भाषा के मूल तथ्यों को समझना होगा जो निम्न रूप में हैं -
1. ध्वनि - फेफड़ों से श्वासनली में होकर मुख तथा नासिका के मार्ग से बाहर निकलने वाली प्रश्वास वायु ही ध्वनियों को उत्पन्न करती है। प्रत्येक ध्वनि के लिए एक भिन्न वर्ण का प्रयोग होता है। प्रश्वास को मुख में जीभ द्वारा नहीं रोकने तथा रोकने के आधार पर ध्वनियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं - (1) स्वर ध्वनि और (
किसी भी कृति को उसकी मूल भाषा में पढ़ने का एक अलग ही मजा होता है। जो भाव का हृदयंगम मूल भाषा से पढ़ने में होता है, वह उसका अनुवाद, टीका या व्याख्या पढने में नहीं हो सकता। यह तो सर्व विदित ही है कि जैन आगम ग्रन्थों की मूल भाषा प्राकृत रही है। प्राकृत का साहित्यिक रूप लेने पर प्रादेशिक भाषारूप बोलियाँ ही अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई। प्राचीन काल में अपभ्रंश भाषा में भी विपुल जैन साहित्य का सृजन हुआ है।
यद्यपि उनमें से बहुत से ग्रन्थों का अनुवाद भी हुआ है, किन्तु फिर भी हजारों ग्रन्थ आज भी प
भाषा जीवन की व्याख्या है और जीवन का निर्माण समाज से होता है। वैयक्तिक व्यवहार को अभिव्यक्ति देने के साथ-साथ भाषा का प्रयोग सामाजिक सहयोग के लिए होता है। जिस तरह भाषा का उद्भव समाज से माना गया है, उसी प्रकार भाषा के विकास में ही मानव समाज का विकास देखा गया है। जिस देश की भाषा जितनी विकसित होगी, वह देश और उसका समाज भी उतना ही विकसित होगा; अत: यह कहा जा सकता है कि भाषा व्यक्ति, समाज व देश से पूर्ण रूप से जुड़ी हुई है। भारतदेश की भाषा के विकास को भी तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।
प्रथम स्तर (ईस