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Saransh Jain

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  1. प्रथमा विभक्ति : कर्ता कारक १. कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। २. कर्मवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। द्वितीया विभक्ति : कर्म कारक १. कर्तृवाच्य के कर्म में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। । २. द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। तथा गौण कर्म में अपादान, अधिकरण, सम्प्रदान, सम्बन्ध आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है। ३. सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। ४. सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। ५. वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो तो क्रिया के आधार में द्वितीया विभक्ति होती है; अन्यथा कारक के अनुरूप विभक्ति का प्रयोग होता है। ६. उभओ (दोनों ओर), सव्वओ (सब ओर), धि ( धिक्कार), समया (समीप) के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। | ७. अन्तरेण (बिना) और अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। । ८. पडि (की ओर, की तरफ) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। तृतीया विभक्ति : करण कारक कर्ता के लिए अपने कार्य की सिद्धि में जो अत्यन्त सहायक होता है, वह करण कारक कहा जाता है। करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है। १. भाववाच्य व कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। । २. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। ३. फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक ओर मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। ४. सह, सद्धिं, समं (साथ) अर्थवाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। ५. विणा शब्द के साथ तृतीया विभक्ति होती है। ६. तुल्य ( समान, बराबर ) का अर्थ बतानेवाले शब्दों के साथ तृतीया विभक्ति होती है। (षष्ठी विभक्ति भी होती है) ७. शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। ८. क्रिया विशेषण शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। ९. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। १०. प्रयोजन प्रकट करनेवाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। चतुर्थी विभक्ति : सम्प्रदान कारक | दान आदि कार्य या कोई क्रिया जिसके लिए की जाती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। १. किसी प्रयोजन के लिए जो वस्तु या क्रिया होती है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। २. रुच (अच्छा लगना) अर्थ की धातुओं के साथ चतुर्थी विभक्ति होती है। ३. कुज्झ (क्रोध करना), दोह (द्रोह करना), ईस (ईष्या करना), असूय (घृणा करना) क्रिया के योग में तथा इसके समानार्थक क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। ४. णमो (नमस्कार) क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। ५. कह (कहना) अर्थ की क्रियाओं के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। पंचमी विभक्ति : अपादान कारक जिससे कोई वस्तु आदि अलग हो, उसे अपादान कहते हैं। अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। १. भय अर्थवाली धातुओं के साथ अथवा भय के कारण में पंचमी विभक्ति होती है। २. जिससे छिपना चाहता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। ३. जिस वस्तु से किसी को हटाया जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। ४. जिससे विद्या पढ़ी जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। ५. दुगुच्छ ( घृणा), विरम ( हटना), पमाय (भूल, असावधानी) तथा इनके समानार्थक शब्दों व धातुओं के साथ पंचमी विभक्ति होती है। ६. उपज्ज, पभव (उत्पन्न होना) क्रिया के योग में पंचमी विभक्ति होती है। ७. जिससे किसी वस्तु की तुलना की जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। ८. विणा के योग में पंचमी विभक्ति होती है। षष्ठी विभक्ति : सम्बन्ध कारक एक समुदाय में से जब एक वस्तु विशिष्टता के आधार से छाँटी जाती है, तब जिसमें से छाँटी जाती है, उसमें षष्ठी व सप्तमी विभक्ति होती है। १. सम्बन्ध का बोध कराने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है। २. स्मरण करना, दया करना अर्थवाली क्रिया के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है। सप्तमी विभक्ति : अधिकरण कारक किसी क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं। जहाँ पर या जिसमें कोई कार्य किया जाता है, उस आधार या अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। १. जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है, तब हो चुके कार्य में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। २. द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में सप्तमी विभक्ति का भी प्रयोग हो जाता है। ३. फेंकने के अर्थ की क्रियाओं के साथ सप्तमी विभक्ति होती है। वाक्य रचना – सो गावि (२/१) दुद्ध (२/१) दुहइ- वह गाय से (अपादान) दूध दुहता है। सो नरिंदु (२/१) धणु (२/१) मग्गइ - वह राजा से (अपादान) धन मांगता है। सो रुक्खु (२/१) फलाइं (२/२) चुणइ - वह वृक्ष के (सम्बन्ध) फलों को इकट्ठा करता है सो पुत्तु (२/१) गामु (२/१) णेइ - वह पुत्र को गाँव में (अधिकरण) ले जाता है। सो घरु (२/१) गच्छइ (गत्यार्थक) - वह धर जाता है। सूर पयासो दिणु (२/१) पसरइ - सूर्य का प्रकाश दिन में (सप्तमी अर्थ) फैलता है। हरि सग्गु (२/१) उववसइ, अनुवसइ, अहिवसइ- हरि स्वर्ग में रहता है। णयरजणा अरिंदु (२/१) उभओ, सव्वओ चिट्ठहिं - नागरिक राजा के दोनों ओर, सब ओर बैठते हैं। माया (२/१) विणा सिक्खा ण हवइ - माता के बिना शिक्षा नहीं होती। जलु (२/१) विणा णरु ण जीवइ - जल के बिना मनुष्य नहीं जीता। णाणु (२/१) अन्तरेण ण सुहु - ज्ञान के बिना सुख नहीं है। गंगा (२/१) जउणा (२/१) य अन्तरा पयागु अत्थि- गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है। माया ( २/१) पडि तुहं सणेह करहि – माया के प्रति तुम स्नेह करो।। महिला सलिलेण (३/१) वत्थाइं धोवइ - महिला पानी से वस्त्र धोती है। सो भये (३/१) लुक्कइ - वह डर के कारण छिपता है। तेण दसहिं ( ३/२) दिणेहिं (३/२) गंथो पढिओ - उसके द्वारा दस दिनों में ग्रंथ पढ़ा गया। सो मित्तेण (३/१) सह, समं गच्छइ – वह मित्र के साथ जाता है। जलें (३/१) विणा णरु ण जीवइ - जल के बिना मनुष्य नहीं जीता है। सो देवें (३/१) तुल्लो अत्थि - वह देव के बराबर है। सो कण्णेणं (३/१) बहिरु अत्थि - वह कान से बहरा है। नरिंदु सुहेण (३/१) जीवइ - राजा सुख पूर्वक जीता है। तेणं (३/१) कालेणं (३/१) पइं काइं किउ - उस समय में (सप्तमी) तुम्हारे द्वारा क्या किया गया? मूढे (३/१) मित्ते (३/१) किं - मूर्ख मित्र से क्या लाभ है? को अत्थो तेण (३/१) पुत्तेण (३/१) जो ण विउसो ण धम्मिओ - उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान है, न धार्मिक। राओ णिद्धणहो (४/१) धण देइ - राजा निर्धन के लिए धन देता है। सो धणस्सु ( ४/१) चेट्ठइ - वह धन के लिए प्रयत्न करता है। बालहो (४/१) खीरु आवडइ - बालक को दूध अच्छा लगता है। लक्खणु रावणहो (४/१) कुज्झइ - लक्ष्मण रावण पर क्रोध करता है। महिला हिंसाहे (४/१) असूसइ - महिला हिंसा से घृणा करती है। दुज्जणु सज्जणहो (४/१) दोहइ - दुर्जन सज्जन से द्रोह करता है। अरिहंताहं (४/२) णमो - अरिहंतों को नमस्कार। हउं तुज्झ (४/१) कहा कहउँ - मैं तुम्हारे लिए कथा कहता हूँ। बालओ सप्पहे (५/१) डरइ - बालक सर्प से डरता है। बालओ गुरुहे (५/१) लुक्कइ - बालक गुरु से छिपता है। गुरु सिस्सु पावहे (५/१) रोक्कइ - गुरु शिष्य को पाप से रोकता है। सो गुरुहे (५/१) गंथु पढइ - वह गुरु से ग्रंथ पढता हैं। सज्जन पावहे (५/१) दुगुच्छइ - सज्जन पाप से घृणा करता है। मुक्खु अज्झयणहे (५/१) विरमइ - मूर्ख अध्ययन से हटता है। तुहुं भत्तिहे (५/१) मं पमायहि - तुम भक्ति में असावधानी मत करो। खेत्तहु (५/१) धन्नु उपज्जइ - खेत से धान उत्पन्न होता है। लोभहे (५/१) कुज्झु पभवइ - लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है। धणहे (५/१) णाणु गुरुतर अत्थि - धन से ज्ञान बड़ा है। रहुणन्दणहे ( ५/१) विणा सीया ण सोहइ - राम के बिना सीता सुशोभित नहीं होती। पुप्फहं (६/२) कमलु अईव सोहइ - फूलों में कमल का फूल अत्यन्त शोभता है। सो मायाहे (६/१) सुमरइ- वह माता का स्मरण करता है। सो बालअहो (६/१) दयइ - वह बालक पर दया करता है। पइं भोयणे (७/१) खाए (७/१) सो हरिसइ- तुम्हारे द्वारा भोजन खा लेने पर वह प्रसन्न होता है। हउँ णयरे ( ७/१) (द्वितीया के अर्थ में) जाउं - मैं नगर जाता हूँ। तहिं तीसु (७/२) (तृतीया के अर्थ में) पुहइ अंलकिया - वहाँ उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई। साभार - अपभ्रंश अनुवाद कला उपसंहार •इस प्रकार अपभ्रंश विद्या ऑनलाइन पाठ्यक्रम यहाँ पूर्ण हुआ। मैं भी आप सभी के समान अध्ययनरत हूँ, और इस पाठ्यक्रम में जहाँ भी चूक हुई हो, वे सब आप लोगों के द्वारा क्षम्य हो। •हाल हे में एक विडियो बहुत विरल हुआ जिसमे एक बहन के द्वारा णमोकार मंत्र का मतलब बताया जा रहा है, वो भी गलत और वो जैनियों में बहुत फैलाया जा रहा है। बंधुओं मैं आप से कहना चाहूँगा कृपया अपनी भाषाओं को ignore मत करें अन्यथा हमें भविष्य में बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड सकती है। •आप सब से अनुरोध है, प्राकृत - अपभ्रंश भाषा का पठन करें, पाठशालाओं में पढ़ाएँ। अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा अपभ्रंश में डिप्लोमा कोर्स होता है, वहाँ से आप इस भाषा में डिप्लोमा कर सकते हैं। इसी के साथ आप इन modules का भी प्रयोग कर सकते हैं। •यह भाषात्मक ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज की वत्सल छाँव में , जो प्राकृत को जन – जन तक पहुंचाने का दुष्कर कार्य सहजता से कर रहे हैं। मुनि श्री ने प्राकृत की अद्भुत अलख जगायी, लोगों का रुझान प्राकृत की ओर बढ़ा, कईं लोगों ने मंदिर में प्राकृत कक्षा शुरू की, कई महिलाओं ने प्राकृत अध्ययन अपनी किट्टी में शुरू किया। आप लोग भी पाठशाला में इन भाषाओं को पढ़ाएँ। •मित्रों एक विशेष बात यह कि यहाँ प्रशिक्षक के रूप में भले ही नाम मेरा हो पर सत्य तो यह है कि यह दुष्कर कार्य मेरे जैसे लघु-धी के द्वारा तो नहीं किया जा सकता। यह सब पूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज और पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के ही आशीर्वाद का प्रभाव है। •इस प्रकार जिनका नाम स्मरण ही बोधि लाभ का कारण है, ऐसे पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में नमस्कार करके मैं आप सब से विदा लेता हूँ। खम्मामि - खम्मंतु जय जिनेन्द्र
  2. स्वार्थिक प्रत्यय वे होते हैं, जो भावों की सटीक - सफल अभिव्यक्ति करने हेतु संज्ञा शब्दों में जोड़े जाते हैं। अपनी बात को छन्द में (गेयपूर्ण रूप में) कहने हेतु इन स्वार्थिक प्रत्ययों का लोक जीवन में सामान्यत: बहुलता से प्रयोग होता दिखाई देता है। जिन स्वार्थिक प्रत्ययों का काव्य में प्रयोग होता देखा गया है, वे इसप्रकार हैं - अ, अड, उल्ल, इय, क्क, एं, उ, इल्ल। इनमें अ, अड तथा उल्ल अधिकतर प्रयोग में आनेवाले स्वार्थिक प्रत्यय हैं। इय, क्क, एं, उ तथा इल्ल स्वार्थिक प्रत्ययों का प्रयोग काव्य में कहीं-कहीं देखा जाता है। कभी-कभी दो तीन स्वार्थिक प्रत्ययों का प्रयोग एक साथ होता भी देखा गया है। जैसे - बाहुबलुल्लडअ = बाहुबल - उल्ल - अड - अ ( भुजा का बल)। स्वार्थिक प्रत्यय लगाने के पश्चात् सम्बन्धित विभक्ति जोड़ दी जाती है। स्त्रीलिंग में संज्ञा शब्दों के स्वार्थिक प्रत्यय के अन्त में 'ई' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। वाक्य रचना – जीव तु क्यों नहीं समझता है? – जीवडा तुहूं कि ण बुज्झइ? जब तक पति नहीं आयेंगे तब तक मैं भोजन नहीं करूँगा - जाव कंतुल्लो ण आएसहिं ताम हउँ भोयणु ण करेसमि। तुम्हारे द्वारा अत्याधिक प्रेम नहीं किया जाना चाहिए - पई अइ णेहडो ण करिअव्वु। तुम अभी वैराग्य मत धारो - तुहूं एवहिं वैरग्गअ मा धारि। विमान उडा - विमाणडु उड्डिउ
  3. अकर्मक क्रिया से बने भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य व भाववाच्य के अन्तर्गत होता है तथा सकर्मक क्रिया से बने भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्मवाच्य के अन्तर्गत होता है। गत्यार्थक अनियमित भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य व कर्मवाच्य दोनों में किया जाता है। अपभ्रंश साहित्य से प्राप्त अनियमित भूतकालिक कृदन्त (क) अकर्मक क्रिया से बने अनियमित भूतकालिक कृदन्त - मुअ मरा थिअ ठहरा संतुट्ठ प्रसन्न हुआ नट्ठ नष्ट हुआ संपत्त प्राप्त हुआ रुण्ण रोया सुत्त सोया बद्ध बंधा भीय डरा विउद्ध जा (ख) गत्यार्थक क्रिया से बने अनियमित भूतकालिक कृदन्त - गअ/गय गया पत्त पहुँचा (ग) सकर्मक क्रिया से बने अनियमित भूतकालिक कृदन्त - दिट्ट देखा गया खद्ध खा लिया गया णिहिय रक्खा गया छुद्ध डाल दिया गया वुत्त कहा गया किय किया गया हय मारा गया उक्खित्तु क्षेपण किया गया संपुण्ण पूर्ण कर दिया गया दिण्ण दिया गया पवन्न प्राप्त किया गया दड्ढ जलाया गया दुम्मिय कष्ट पहुँचाया गया लुअ काट दिया गया णीय ले जाया गया विण्णत्तु निवेदन किया गया सित्तु सींचा गया 1. वाक्य रचना : कर्तृवाच्य - इसी प्रकार अन्य भूतकालिक कृदन्त के साथ कर्तृवाच्य में प्रयोग किया जाता है। पुत्र प्रसन्न हुआ पुत्तो संतुट्ठो पुत्र प्रसन्न हुए पुत्ता संतुट्ठा माता प्रसन्न हुई माया संतुट्ठा माताएँ प्रसन्न हुईं मायाओ संतुट्ठाओ पुत्र घर गया पुत्तो घरु गओ पोते घर गये पोत्ता घर गआ 2. वाक्य रचना : भाववाच्य पुत्र के द्वारा प्रसन्न हुआ गया पुत्तेण संतुट्ठु। पुत्रों के द्वारा प्रसन्न हुआ गया पुत्तेहिं संतुट्ठु। माता के द्वारा प्रसन्न हुआ गया मायाए संतुट्ठु माताओं के द्वारा प्रसन्न हुआ गया मायाहिं संतुट्ठु। इसी प्रकार अन्य भूतकालिक कृदन्त के साथ भाववाच्य में प्रयोग किया जाता है। 3. वाक्य रचना : कर्मवाच्य राजा द्वारा सेनापति के लिए हाथी दिया गया। नरिंदेण सेणावइ हत्थि दिण्णो। मुनि द्वारा पिता के लिए आगम दिये गए। मुणिएं जणेरहो आगम दिण्णा। माता द्वारा पुत्री के लिए धन दिया गया। मायाए पुत्तीहे धणु दिण्णु। माता द्वारा पुत्री के लिए वस्त्र दिये गए। मायाए पुत्तीहे वत्थाइं दिण्णाइं। राजा द्वारा सेनापति के लिए मणि दी गई। नरिंदेण सेणावइ मणि दिण्णा। मालिक द्वारा भाई के लिए गायें दी गई। सामिएं भाइ धेणुओ दिण्णाओ। इसी प्रकार अन्य भूतकालिक कृदन्त के साथ कर्म वाच्य में प्रयोग किया जाता है। 2. सम्बन्धक भूत कृदन्त ( पूर्वकालिक क्रिया ) कर्त्ता जब एक क्रिया समाप्त करके दूसरी क्रिया करता है, तब पहले की गई क्रिया को प्रकट करने हेतु सम्बन्धक भूत कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। इसमें पहले की गई एवं बाद में की गई दोनों क्रियाओं का सम्बन्ध कर्त्ता से होता है। सम्बन्धक भूत कृदन्त को अव्यय भी कहा जा सकता है। अव्यय के समान इनका भी लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार रूप परिवर्तन नहीं होता। सम्बन्धक भूत कृदन्त के प्रत्यय उदाहरण इ हसि इउ हसिउ इवि हसिवि अवि हसवि एवि हसेवि एविणु हसेविणु एप्पि हसेप्पि एप्पिणु हसेप्पिणु वाक्य रचना - कर्तृवाच्य, भाववाच्य, कर्मवाच्य के साथ विभिन्न कालों में मैं हँसकर जीता हूँ। हउं हसि जीवउं वह हँसकर पानी पीता है। सो हसिउ सलिलु पिबइ। वे परमेश्वर की पूजा कर प्रसन्न होंगे। ते परमेसरु अच्चिवि उल्लसेसहिं। राजा शत्रु को मारकर प्रसन्न होता है। णरिंदो सत्तु हणेप्पि हरिसइ। सेनापति राजा की रक्षा कर प्रसन्न होवे। सेणावइ गरिंदु रक्खेविणु उल्लसउ। पुत्रियाँ डरकर भागी। पुत्तीउ डरेविणु पलाआउ। माता पुत्र को सुलाकर सोती है। माया पुत्तु सयावेवि सयइ। पुत्र माँ की सेवा कर प्रसन्न होता है। पुत्तो माया सेवेविणु हरिसइ। साँप बालक को डसकर मारता है। सप्पो बालउ डंकिवि मारइ। विमान ठहरकर उडेगा। विमाणु ठाइउ उड्डेसइ। बालक गिरकर मुर्छित हुआ। बालओ पडेवि मुच्छिओ। मेरे द्वारा हँसकर जीया जाता है। मइं हसवि जीविज्जइ। उसके द्वारा थककर सोया जाएगा। तेणं थक्किवि सयिज्जइ। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होकर नाचा जाए। पइं उल्लसिवि णच्चिज्जउ। बालकों द्वारा डरकर रोया गया। बालएहिं डरिउ रुविउ। ससुर के द्वारा थककर बैठा गया। ससुरें थक्किवि अच्छिउ। मामा के द्वारा झगडकर अफसोस किया जाता है। माउलें जगडेप्पि खिज्जिज्जइ। बालक के द्वारा गिरकर रोया जाता है। बालएण पडेवि रुविज्जइ। बालक के द्वारा छटपटाकर मूर्छित हुआ गया। बालएणं तडफडिउ मुच्छिउ। पुत्रियों द्वारा डरकर भागा गया। पुत्तिहिं डरिउ पलाआ। माता द्वारा पुत्र को सुलाकर सोया जाता है। मायाए पुत्तु सयाविवि सयिज्जइ। पुत्र द्वारा माँ की सेवा कर प्रसन्न हुआ जाता है। पुत्तेण माया सेवेप्पिणु हरिसियइ। पुत्र द्वारा प्रसन्न होकर माँ की सेवा की जाती है। पुत्तेण उल्लसिवि माया सेविज्जइ। साँप के द्वारा बालक को डसकर मारा जाता है। सप्पें बालउ डंकिउ हणिज्जइ। मौसी बालक को बहिन से दूध पिलवाकर सुलवाती है। माउसी बालउ ससाए खीरु पिबावेप्पिणु सायइ। 3. हेत्वर्थक कृदन्त प्रथम क्रिया के प्रयोजनार्थ जब दूसरी क्रिया की जाती है, तब उस प्रथम क्रिया में हेत्वर्थक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। सम्बन्धक कृदन्त के समान इन दोनों क्रियाओं का सम्बन्ध कर्त्ता से होता है। इन्हें अव्यय भी कहा जा सकता है। अव्यय के समान इनका भी लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार रूप परिवर्तन नहीं होता। हेत्वर्थक कृदन्त के चार प्रत्यय एवि, एविणु, एप्पि, एप्पिणु सम्बन्धक कृदन्त के समान हेत्वर्थक कृदन्त के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। अतः यहाँ प्रसंगानुसार अर्थ ग्रहण करना चाहिए। । हेत्वर्थक कृदन्त के प्रत्यय उदाहरण एवं हसेवं अण हसण अणहं हसणहं अणहिं हसणहिं एवि हसेवि एविणु हसेविणु एप्पि हसेप्पि एप्पिणु हसेप्पिणु वाक्य रचना - मैं हँसने के लिए जीता हूँ। हउं हसेवं जीवउं। तुम पानी पीने के लिए घर जावो। तुहुं सलिलु पिबण घरु गच्छि। वह प्रसन्न होने के लिए परमेश्वर की पूजा करेगा। सो उल्लसणहं परमेसरु अच्चेसइ। राजा शत्रु को मारने के लिए लडेगा। नरिंदो सत्तु हणेवं जुज्झेसइ। सेनापति राजा की रक्षा करवाने के लिए प्रयास करेगा। सेणावइ णरिंदु रक्खावणहं उज्जमेसइ। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होने के लिए नाचा जाए। पइं हरिसणहिं णच्चिज्जउ। दादा के द्वारा सोने के लिए प्रयास किया गया। पिआमहेण सयेप्पि उज्जमिउ। पुत्रियाँ खेलने के लिए खुश होवेंगी। सुयाउ खेलेवं उल्लसेसहिं। माता द्वारा सोने के लिए पुत्र को सुलाया जाता है। मायाए सयेवं पुत्तो सयाविज्जइ। पुत्र द्वारा प्रसन्न होने के लिए माँ की सेवा की गई। पुत्तेण उल्लसेवं माया सेविआ। तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होने के लिए जीया जाना चाहिए। पइं हरिसेवं जीविअव्वु। मौसी द्वारा बालक को सुलवाने के लिए बहिन से दूध पिलवाया जाता है। माउसीए बालउ सयावणहिं ससाए खीरु पिबाविज्जइ। 4. वर्तमान कृदन्त कर्त्ता एक क्रिया को करता हुआ जब दूसरी क्रिया करता है, तब प्रथम क्रिया में (जो करते हुए अर्थ से युक्त है) वर्तमान कृदन्त का प्रयोग होता है। क्रिया में न्त और माण प्रत्यय लगाकर वर्तमान कृदन्त बनाये जाते हैं। ये वर्तमान कृदन्त विशेषण होते हैं। अतः इनके रूप भी कर्त्ता (विशेष्य) के अनुसार चलते हैं। कर्त्ता पुल्लिंग, नपुंसक लिंग अथवा स्त्रीलिंग में से जो भी होगा उसी के अनुरूप वर्तमान कृदन्त के रूप चलेंगे। इन कृदन्तों के रूप पुल्लिंग में देव के समान, नपुंसक लिंग में कमल के समान तथा स्त्रीलिंग में कहा के अनुरूप चलेंगे। कृदन्त में ‘आ' प्रत्यय जोडकर आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द भी बनाया जाता है। वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय उदाहरण न्त / माण हसन्त/हसमाण जग्गन्त/जग्गमाण सयन्त/सयमाण लुक्कन्त/लुक्कमाण जीवन्त/जीवमाण णच्चन्त/ णच्चमाण वाक्य रचना - मैं हँसता हुआ जीता हूँ। हउं हसन्तो जीवउं। हम सब हँसते हुए जीते हैं। अम्हे हसमाणा जीवहुं। माता सोते हुए पुत्र को जगाती है। माया सयन्तु पुत्तु जग्गावइ । क्रीड़ा करते हुए बालक के द्वारा वस्तुएँ नष्ट की गईं। कीलन्तेण बालएण वत्थूइं नस्सिआइं। प्रवेश करते हुए बालक के लिए गीत गाया जाता है। पइसन्तहो बालहो गाणु गाइज्जइ। आते हुए मुझसे तुमको नहीं डरना चाहिए। आगच्छन्तहो मज्झु पइं ण डरिअव्व। क्या मैं जलती हुई आग में प्रवेश करूँ। किं हउं वलन्ते हुआसणे पइसरमु । पृथ्वी का पालन करते हुए सगर के साठ हजार पुत्र हुए। पिहिमिहे पालन्तहो सायरहो सट्ठिसहास पुत्ता हुआ। अभ्यास करें – वे सब हंसकर जीएँ बहिनें प्रसन्न होकर घूमेंगी बच्चे सोने के लिए रोते हैं तुम प्रयत्न कर उठो वह वहाँ मनोहर महल(भवण) में प्रवेश करता हुआ(पइसर), हर्षित हुआ। वे उसे देखने के लिए घर आए। माता पुत्र को देखकर प्रसन्न होती हैं राजा युद्ध के लिए गया।
  4. (क) स्थानवाची अव्यय वहाँ, उस तरफ तेत्यु, तहिं, तेत्तहे, तउ, तेत्तहि जहाँ, जिस तरफ जेत्थु, जहिं, जेत्तहे, जउ यहाँ, इस तरफ एत्यु, एत्थ, एत्तहे कहाँ केत्थु, केत्तहे, कहिं सब स्थानों पर सव्वेत्तहे दूसरे स्थान पर अण्णेत्तहे कहाँ से कहन्तिउ, कउ, केत्यु, कहिं वहाँ से तहिंतिउ, तत्थहो एक ओर/दूसरी ओर एत्तहे कहीं पर (किसी जगह) कहिं चि, कहिं जि, कहिं वि, कत्थई, कत्थवि, कहिमि पास (समीप) पासु, पासे पास से, समीप से पासहो पास में पासेहिं दूर से, दूरवर्ती स्थान पर दूरहो, दूरें पीछे पच्छए, पच्छले, अणुपच्छए आगे पुरे, अग्गले, अग्गए ऊपर उप्परि नीचे हेट्टि चारों ओर, चारों ओर से चउपासे, चउपासेहिं, चउपासिउ (ख) कालवाची अव्यय तब तइयहुं, तं, ताम, तामहिं, तावेहिं, तो जब जइयहुं, जं, जाम, जामहिं, जावेहिं कब कइयतुं अब, अभी, इस समय एवहिं इसी बीच एत्थन्तरि उस समय तावेहिं जिस समय जावेहिं जब तक जाम, जाउँ, जाम्व, जाव, जावन्न तब तक ताम, ताउं, ताव आज अज्ज, अज्जु कल कल्ले, कल्लए, परए आज तक अज्ज वि आज कल में अज्जु कल्ले प्रतिदिन अणुदिणु, दिवे-दिवे रात-दिन रतिन्दिउ, रत्तिदिणु किसी दिन के दिवसु, कन्दिवसु आज से अज्जहो शीघ्र झत्ति, छुडु, अइरेण, लहु, सज्ज तुरन्त तुरन्तउ, तुरन्त, अवारें जल्दी से तुरन्तएण, तुरन्त पलभर में णिविसेण, णिविसें तत्काल तक्खणेण, तक्खणे हर क्षण खणे खणे क्षण क्षण में खणं खणं कुछ देर के बाद ही खणन्तरेण कभी नहीं ण कयाइ दीर्घकाल तक चिरु बाद में पच्छए, पच्छइ, पच्छा फिर, वापस पडीवउ, पडीवा जेम परम्परानुसार (ग) प्रकारवाची अव्यय इस प्रकार एम, एम्व, इय किस प्रकार, क्यों केम, केवं, किह, काई जिस प्रकार, जैसे जेम, जिम, जिह, जह, जहा उसी प्रकार, वैसे तेम, तिम, ण, तह, तहा जितना अधिक....उतना ही जिह जिह .....तिह तिह जैसे जैसे .... वैसे वैसे जिह जिह .....तिह तिह की भाँति, जैसे जिह किसी प्रकार कह वि (घ) विविध अव्यय नहीं णाहिं, णहि, णउ, ण, णवि, मं, णत्थि मत मं क्यों नहीं किण्ण साथ सहुं, समउ, समाणु बिना विणु, विणा वि भी नामक, नामधारी, नाम से णाम, णामु, णामें, णामेण मानो णं, णावई, णाई जउ जो की तरह, की भाँति णाई, इव, जिह, जेम, ब्व, व सदृश सन्निह परन्तु णवर केवल णवरि, णवर किन्तु पर आपस में, एक दूसरे के विरुद्ध परोप्परु क्या किं क्यों काई इसलिए तेण, तम्हा चूंकि जम्हा कब कइयहूं यदि......तो जइ.....तो बल्कि पच्चेल्लिउ स्वयं सई एकाएक, शीघ्र अथक्कए अथवा अहवा या...या जिम..जिम हे भो, हा, अहो अरे भो, अरे लो लई बार-बार पुणु-पुणु, मुहु–मुहु, वार–वार एक बार फिर एक्कसि, एक्कवार सौ बार सयवारउ तीन बार तिवार, तिवारउ बहुत बार बहुवारउ इसके पश्चात्, इसी बीच, इसी समय एत्थन्तरे उसके बाद ताणन्तरे थोड़ी देर बाद थोवन्तरे अत्यन्त सुट्ठ, अइ अत्याधिक अहिय अवश्य ही अवसें अच्छा वरि अधिक अच्छा वरु सद्भाव पूर्वक सब्भावें अविकार भाव से अवियारें स्नेह पूर्वक सणेहें लीला पूर्वक लीलए पूर्ण आदर पूर्वक सव्वायरेण पूर्ण रूप से णिरारिउ बड़ी कठिनाई पूर्वक दुक्खु दुक्खु एकदम, सहसा सहसत्ति दक्षिण की और दाहिजेण उत्तर की और उत्तरेण वाक्य प्रयोग – हम सब कहाँ खेलें? - अम्हे केत्थु खेलमो? वह यहाँ सोया - सो एत्थु सयिओ तुम फल वहाँ से प्राप्त करो - तुहुं फलाइं तत्थहो लभहि जब मैं सोता हूँ, तब तुम जागते हो - जाम हउँ सयउं ताम तुहूं जग्गहि आज तक तुम भागी नहीं - अज्जवि तुहं णउ पलाआ वे आज कल में रत्न खरीदेंगे - ते अज्जु कल्ले मणि कीणसहिं मुनि हिंसा कभी नहीं करते - मुणि हिंसा ण कयाइ करहिं विशेषण मधुर महुर महुरा उज्जवल उज्जल उज्जला तीखा तिक्ख तिक्खा प्रिय वल्लह वल्लहा सफेद पण्डुर पण्डुरा शून्य सुण्ण सुण्णा कंजूस किविण किविणा, किविणी निर्मल णिम्मल णिम्मला विमल विमल विमला दुर्बल किस किसा मूर्ख मुक्ख मुक्खा काला कसिण कसिणा मोटा थूल्ल थूल्ला पूर्वी पुव्व पुव्वा पश्चिमी पच्छिम पच्छिमा उत्तरी उत्तर, उत्तरीय उत्तरा, उत्तरीया दक्षिणी दाहिण, दक्खिण दाहिणी, दक्खिणी, दाहिणा, दक्खिणा वाक्य रचना – विशेषण के रूप हमेशा विशेष्य (जिसकी विशेषता बताई जाती है) के अनुसार चलेंगे, विशेष्य में यदि सप्तमी विभक्ति है तो विशेषण में भी सप्तमी विभक्ति होगी, इसी प्रकार विशेष्य का वचन और विशेषण का वचन भी समान होता है। जैसे – सुंदरे रुक्खे मयूरा णिवसन्ति – सुंदर वृक्ष पर मयूर रहते हैं मउडधारीहिं अमरेहिं गुरु पणमिज्जइ – मुकुटधारी देवों के द्वारा गुरु प्रणाम किए जाते हैं । सार्वनामिक विशेषण पुल्लिंग और नपुंसकलिंग सर्वनाम वाचक विशेषण समान होते हैं। सर्वनाम एत, आय, इम, त, अमु, ज, क, कवण, सव्व के पुल्लिंग, नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग सर्वनाम शब्दों की रूपावली पहले बताई जा चुकी है। शेष सर्वनामों में अकारान्त पुल्लिंग सर्वनामों के रूप 'देव', नपुंसकलिंग सर्वनामों के रूप 'कमल' तथा स्त्रीलिंग सर्वनामों के रूप 'कहा' एवं ईकारान्त सर्वनामों के रूप ‘लच्छी' के समान चलेंगे। सार्वनामिक विशेषण शब्द - यह (पु.)- एत, एअ, आय, इम यह (स्त्री.)- एता, एआ, आया, इमा वह (पु.)- त, अमु वह (स्त्री.)- ता, अमु जो (पु.)- जो जो (स्त्री) – जा . क्या, कौन, कौनसा (पु.) - क, कवण, काइं (किं-नपुं.) __ क्या, कौनसी (स्त्री.) - का, कवणा ऐसा (पु.)- एह, अइस, एरिस, एआरिस, आरिस ऐसी (स्त्री.)- एही, अइसी, एरिसी, एआरिसी, आरिसी वैसा (पु.)- तेह, तइस, तारिस वैसी (स्त्री.)- तेही, तइसी, तारिसी कैसा (पु.) - केह, कइस, केरिस कैसी (स्त्री.) - केही, कइसी, केरिसी जैसा (पु.)- जेह, जइस, जारिस जैसी (स्त्री.)- जेही, जइसी, जारिसी अन्य के समान (पु.) - अन्नाइस, अवराइस, अन्नारिस अन्य के समान (स्त्री.) - अन्नाइसी, अवराइसी, अन्नारिसी हमारे जैसा (पु.)- अम्हारिस हमारे जैसी (स्त्री.) - अम्हारिसी मेरे जैसा (पु.)- - मारिस मेरे जैसी (स्त्री.) - मारिसी तुम्हारे जैसा (पु.)- - तुम्हारिस तुम्हारे जैसी (स्त्री.) - तुम्हारिसी आप जैसा (पु.) - भवारिस आप जैसी (स्त्री.) - भवारिसी समान (पु.) - सरिस समान (स्त्री.)- सरिसी हमारा (पु.)- -अम्हार हमारी (स्त्री.) - अम्हारी मेरा (पु.)- महार मेरी (स्त्री.) - महारी तुम्हारा (पु.) - तुम्हार तुम्हारी (स्त्री.) - तुम्हारी तेरा (पु.) तुहार तेरी (स्त्री.) -- तुहारी मेरा (पु.)- मेर मेरी (स्त्री.) -मेरी इतना (पु.)- एत्तिअ, एत्तुल्ल, एत्तड, इतनी (स्त्री.) -एत्तिआ, एत्तुला, एत्तडिया उतना (पु.) - तेत्तिअ, तेत्तिल, तेत्तडअ उतनी (स्त्री.) - तेत्तिआ, तेत्तिला जितना (पु)- जेत्तिअ, जेत्तुल, जेवड जितनी (स्त्री.)- जेत्तिआ, जेत्तुला 3. संख्यावाची विशेषण - जो विशेषण वस्तु की संख्या बताएं, वे संख्यावाची विशेषण होते हैं। एक से बीस तक की संख्या इस प्रकार है - एक्क – एक दो, दु, वे, वि, दुइ – दो ति – तीन चार - चउ पंच - पाँच छह, छ - छह सत्त - सात अट्ठ - आठ णव – नौ दस, दह – दस एयारह - ग्यारह बारह, वारह –बारह तेरस, तेरह - तेरह चउदस - चौदह पण्णारह - पन्द्रह सोलह - सोलह सत्तारह - सतरह अट्ठारह - अट्ठारह एक्कुणवीस – उन्नीस बीस/ वीस – बीस (साभार – अपभ्रंश अनुवाद कला) करें गाथा स्वाध्याय – जीविउ कासु ण वल्लहउं , धणु पुणु कासु ण इट्ठु दोण्णि वि अवसर निवडिअइं तिण सम गणइ विसट्ठु ॥ अभ्यास अपभ्रंश अनुवाद करें – गुरु के द्वारा मुझे प्रकट किया गया, दीपक दिया गया । मनोहर वन में, सुंदर वृक्ष पर फल हैं । धैर्यवान मनुष्य देवताओं के द्वारा पूजे जाते हैं उज्ज्वल ज्ञान से साधु हमें उपदेश देते हैं । मैंने काला साँप देखा । यहाँ आओ! जब तक तुम पढ़ते हो तब तक मैं खाना खा लूँगा। जैसे सूरज के द्वारा अंधकार भगाया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान से अज्ञान भगाया जाता है । वहाँ गुफा में सिंह है। पानी अत्यंत शीतल है ।
  5. कल के अभ्यास के उत्तर देखें वीडियो में जिस क्रिया से किसी अन्य से कार्य कराया जाये अथवा प्रेरणा दी जाये वह प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। जैसे – सुलाना, पढ़ाना, जगाना, दिखाना इत्यादि । प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के लिए – क्रिया में आव प्रत्यय जोड़ा जाता है, अथवा उपांत्य में ‘अ’ प्रत्यय लगाया जाता है। ‘अ’ प्रत्यय के साथ नियम – यथा - सोना क्रिया का प्रेरणार्थक हुआ सुलाना – जो इस प्रकार बनेगा – सय – स+अ+य = साय · उपांत्य ‘अ’ हो तो प्रत्यय लगाने के बाद आ हो जाएगा। - पढ -अ =प+अ +ढ = पाढ हस – अ = हास · इसी प्रकार - उपांत्य-इ का ए, उ का ओ हो जाता है। भिड – अ = भेड लुक्क – अ = लोक्क · उपांत्य दीर्घ ‘ई’ तथा दीर्घ ‘ऊ’ होने पर कोई परिवर्तन नहीं होता। कीण – अ = कीण · अंत में संयुक्त अक्षर होने पर उपांत्य ‘अ’ का ‘अ’ ही रहता है, आ नहीं होता। णच्च = ण+अ +च्च = णच्च रक्ख – अ = रक्ख ‘आव’ प्रत्यय के साथ प्रेरणार्थक क्रिया का निर्माण करना – हस + आव = हसाव णच्च + आव = णच्चाव रक्ख + आव = रक्खाव पढ + आव = पढाव कीण + आव = कीणाव लुक्क + आव = लुक्काव भिड + आव – भिड़ाव इस प्रकार प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के बाद उनमे संबन्धित काल के प्रत्यय लगाए जाते हैं – जैसे – 1.माँ पुत्र को सुलाती है – माया पुत्तु सायइ/ सयावइ। 2.तुम उन्हे जगाओ – तुहुं- ता/ते/ताओ/ताउ -जग्गावहि/ जग्गावि /जग्गाव/ जग्गावु/ जग्गावसु/ जग्गहि 3.गुरु ने ग्रंथ पढ़ाया – गुरुए गन्थो पाढियो। 4.राजा शत्रु को भगाएगा – णरिंदो रिऊ पलाविहिइ । कर्मवाच्य में प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग – उदाहरण – · मेरे द्वारा तुम सब को खुश किया जाता है – मइं तुम्हे उल्लसाव+इज्ज/इय +इ = उल्लसाविज्जइ / उल्लसावियइ · पुष्पदंत द्वारा महापुराण पढ़ाया जाता है – पुप्फदंतेण महापुराण पाढिज्जइ · गुरु के द्वारा शिष्य को ग्रंथ पढाया जाएगा – गुरुए सीसु गन्थो पढाविहिइ · लक्ष्मण के द्वारा राक्षस सेना भगायी गयी – लक्खणेण रक्खसचमू पलावियो । विधि कृदंत में प्रेरणार्थक क्रियाओं का प्रयोग – · हमारे द्वारा धर्म फैलाया जाना चाहिए – अम्हेहिं धम्मो पसराविअव्वो। · तुम्हारे द्वारा उसको हंसाया जाना चाहिए – पइं तं हसाविएव्वं । · राजा के द्वारा नागरिक डराए जाने चाहिए- नरिंदेण णयरजणाइं डराविअव्वाइं । आइये करें गाथा स्वाध्याय – जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु तसु हउं कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउं* सुअणस्सु। जो – जो / अप्पणा – स्वयं के / गुण – गुणों को / गोवइ – छिपाता है/ पयडा – प्रकट/ करइ- करता है / परस्सु – दूसरे के / कलि–जुगि – कलियुग में /तसु – उसकी / दुल्लहहो – दुर्लभ की / सुअणस्सु – सज्जन की/ हउं – मैं / बलि – पूजा / किज्जउ – करता हूँ। अभ्यास – अनुवाद करें मध्यम मंगलाचरण – पूज्य आचार्यों ने 3 मंगलाचरण बताए हैं। आइये उन्ही की आज्ञा अनुसार हम करें आज मध्यम मंगलाचरण, जिसका आप करें आज स्वयं अनुवाद – समोसरणि - जईहिं पुज्जियो , देवेहिं वंदियो, चक्कहरेहिं अच्चियो हे जिणो! भत्तिए वंदउं तुहुं णियसहाव – उवलद्धिहे कारणेण। हे गुरु ! पइं मुणिसंघ संचालिज्जइ , तउ उएसेण णरेहिं धम्मो गिण्हिज्जइ । हे पुज्जपाय –आइरिय- विज्जासायरु! तुहुं अम्हेहिं णमिज्जहि, परमट्ठह। हे तवस्सी! रत्तीए भूसयण- आइ पइं तविज्जइ। अम्हे तुहुं सद्धाए पणमहुं। हे मुणिरायो! सिरि-णाणसायरस्सु सीसो! अज्झप्प-लच्छीहे सामी ! सिद्धन्त- दिवायर! तउ गुणलद्धि कारणेण पणमहुं तुहुं।
  6. वाच्य कल के अभ्यास के उत्तर देखें विडियो में - वाच्य -3- प्रकार के होते हैं – 1)कर्तृ वाच्य – जहां क्रिया के विधान का विषय करता हो, उसे कर्तृ वाच्य कहते हैं। इस प्रकार के वाक्यों में क्रिया की विभक्ति कर्ता के अनुसार चलेगी । जैसे – · राम पुस्तक पढ़ता है – रामो गंथु पढइ । · तुम भागे(धाव) – तुहुं धाविउ · वह भोजन(असण) करेगा - सो असणु खाहिइ · हम सब नगर से गाँव जाएँ - अम्हे णयराहु गामु गच्छामो। 2)भाव वाच्य - जहां भाव की प्रधानता होती है। यह अकर्मक क्रिया से ही बनाए जाते हैं । भाव वाच्य बनाने के लिए कर्ता में सदैव तृतीया विभक्ति होती है तथा क्रिया में इज्ज एवं इय प्रत्यय जोड़े जाते हैं। इसके पश्चात संबन्धित काल के अन्यपुरुष के एक वचन के प्रत्यय भी लगा दिये जाते हैं । भविष्यत काल में क्रिया का भविष्य काल का एकवचन अन्यपुरुष का ही रूप रहेगा, इज्ज/इय प्रत्यय नहीं जुडते । भूतकाल में भूतकालिक कृदंत का प्रयोग होता है । जैसे - माता के द्वारा हंसा जाता है – मायाए - हस+इज्ज +इ/ए = हसिज्जइ अथवा हस + इय + इ/ए = हसियए/ हसियइ तुम्हारे द्वारा रोया जाये – पइं रुविज्जउ दादा द्वारा हंसा गया – पियामहें हसिउ मौसी द्वारा खुश होया जायेगा - माउसिए उल्लसेसइ 3)कर्म वाच्य - जिसमे कर्म की प्रधानता हो उसे कर्म वाच्य कहते हों। v कर्म वाच्य में कर्ता की तृतीया विभक्ति होती है तथा कर्म की प्रथमा विभक्ति होती है। v भूतकाल में कर्ता की तृतीय विभक्ति एवं क्रिया में भूतकालिक कृद्न्त का रूप चलता है तथा उसके रूप कर्म के लिंग, वचन, पुरुष के अनुसार होते हैं। v वर्तमान काल और विधि एवं आज्ञा काल में 'इज्ज' और 'इय' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, उसके पश्चात कर्म के पुरुष और वचन के अनुसार ही संबन्धित काल के प्रत्यय जोड़े जाते हैं । v भविष्यतकाल में क्रिया के रूप कर्तृवाच्य के समान ही चलते हैं। जैसे- · राम के द्वारा पुस्तक पढी जाती है – रामेण गन्थो – पढ + इज्ज/इय + इ = पढिज्जइ । · तुम्हारे द्वारा अरिहंत नमस्कार किए जाते हैं – पइं अरिहंता पणमिज्जइ । · मेरे द्वारा अपभ्रंश सीखी गयी - मइं अवभंसु सिक्खियु · तुम सब के द्वारा प्रद्युम्न चरित पढ़ा जाये – तुम्हेहिं पज्जुण्ण चरिउ पढिज्जउ । · गणधर के द्वारा धर्म कहा(भण)जाएगा – गणहरें धम्मो भणेसइ । विधि कृदंत – ऐसा होना चाहिए – इस भाव को व्यक्त करने के लिए विधिकृदन्त का प्रयोग होता है । विधि कृदंत का प्रयोग मात्र भाव वाच्य अथवा कर्म वाच्य में होगा, कर्तृवाच्य में नहीं । विधि कृदन्त में क्रिया में दो प्रकार के प्रत्यय लगाए जाते हैं – 1. अव्व (परिवर्तनीय) 2. इएव्वउं, एव्वउं, एवा (अपरिवर्तनीय) परिवर्तनीय – ‘अव्व’ प्रत्यय का प्रयोग होने पर ‘अव्व’ के रूप में परिवर्तन होता है और उसके रूप भाव वाच्य में सदा नपुंसकलिंग के अनुसार चलेंगे, जबकि कर्म वाच्य में कर्म के लिंग एवं वचन के हिसाब से ‘अव्व’ के रूप चलेंगे। जैसे – भाव वाच्य- मेरे द्वारा हंसा जाना चाहिए = मइं हसिअव्व/ हसिअव्वा/ हसिअव्वु / हसेअव्व / हसेअव्वा / हसेअव्वु/ हसिएव्वउं/ हसेव्वउं/हसेवा तुम सब के द्वारा नाचा जाना चाहिए – पइं णच्चिअव्व / णच्चिअव्वा/ णच्चिअव्वु/ णच्चिएव्वउं/ णच्चेव्वउं/ णच्चेवा । कर्म वाच्य में विधि कृदन्त का प्रयोग – उन सबके द्वारा सेना देखी जानी चाहिए – तेहिं चमू पेच्छिअव्वा/ पेच्छिअव्व तुम सब के द्वारा ग्रंथ पढ़ा जाना चाहिए – तुम्हहिं गन्थो पढिअव्वो (च) अनियमित कर्मवाच्य क्रिया में ‘इज्ज’ और ‘इय' प्रत्यय के संयोग से बने कर्मवाच्य के नियमित क्रिया रूपों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य में कुछ बने बनाये कर्मवाच्य के अनियमित क्रिया रूप भी मिलते हैं। इनमें कर्मवाच्य के ‘इज्ज’ और ‘इय’ प्रत्यय लगे हुए नहीं होते और न ही इसमें मूल क्रिया को प्रत्यय से अलग करके देखा जा सकता है। मात्र इनमें काल, पुरुष और वचन के प्रत्यय लगे होते हैं। अपभ्रंश साहित्य से प्राप्त अनियमित कर्मवाच्य के क्रिया रूप वर्तमानकाल अन्यपुरुष एकवचन आढप्पइ आरम्भ किया जाता है। घेप्पइ ग्रहण किया जाता है। गम्मइ जाया जाता है। चिव्वइ इकट्ठा किया जाता है। जिव्वइ जीता जाता है। णज्जइ जाना जाता है। थुव्वइ स्तुति की जाती है। बज्झइ बांधा जाता है। पुव्वइ पवित्र किया जाता है। भुज्जइ भोगा जाता है। रुव्वइ रोया जाता है। लुच्चइ काटा जाता है। लिब्भइ चाटा जाता है। विलिप्पइ लीपा जाता है। सीसइ कहा जाता है। सुव्वइ सुना जाता है। हम्मइ मारा जाता है। खम्मइ खोदा जाता है। कीरइ किया जाता है। चिम्मइ इकट्ठा किया जाता है। छिप्पइ छुआ जाता है। डज्झइ जलाया जाता है। णव्वइ जाना जाता है। दीसइ देखा जाता है। दुब्भइ दूहा जाता है। भण्णइ कहा जाता है। रुब्भइ रोका जाता है। लब्भइ प्राप्त किया जाता है। लुव्वइ काटा जाता है। वुच्चइ कहा जाता है। विढप्पइ अर्जित किया जाता है। संप्पज्जइ प्राप्त किया जाता है। सिप्पइ सींचा जाता है। हीरइ हरण किया जाता है। वर्तमानकाल मध्यमपुरुष एकवचन थुव्वहि स्तुति किए जाते हो धुव्वहि पंखा किए जाते हो सुव्वहि सुने जाते हो। दीसहि दिखाई देते हो। वाक्य रचना मेरे द्वारा स्तुति प्रारम्भ की जाती है। मइं थुइ आढप्पइ। सेनापति के द्वारा शत्रु मारा जाता है। सेणावइएं सत्तु हम्मइ। महिला के द्वारा व्रत किया जाता है। महिलाए वयो कीरइ। साधु द्वारा कथा कही जाती है। साहुएं कहा सीसइ। पुत्री के द्वारा वृक्ष सींचा जाता है। पुत्तीए तरु सिप्पइ। माता के द्वारा घर पवित्र किया जाता है। मायाए घरु पुव्वइ। राजा के द्वारा तुम सुने जाते हो। नरिंदेण तुहुं सुव्वहि। बालक के द्वारा मधु चाटा जाता है। बालएण महु लिब्भइ। उसके द्वारा गाय बांधी जाती है। तेण धेणु बज्झइ। बालक द्वारा शिक्षा ग्रहण की जाती है। बालएणं सिक्खा घेप्पइ। अभ्यास करें – 1)तुम्हारे द्वारा कथा सुनी गयी (णिसुण)। 2)शुभम (सुहम) के द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है । 3)हे जिनेन्द्र! आपकी भक्ति के द्वारा(भत्ति) कर्मों(कम्म) का क्षय(खय) होगा। 4)उनके द्वारा ग्रंथ पढे जाते हैं । 5)कन्या के द्वारा साड़ी(साडी) ओढ़ी (ओढ) जाएगी । 6)तुम्हारे द्वारा कलश(कुम्भ) में पानी लाया(ला) जाये । 7)अर्जुन (अज्जुण) के द्वारा युद्ध(जुज्झ) किया जाये 8)विद्यार्थी (विज्जट्ठि) के द्वारा अभ्यास (अब्भास) किया(कर) जाना चाहिए । 9)तुम सबके द्वारा उछला (उच्छ) जाना चाहिए 10)भीम (भीम) के द्वारा कुरुक्षेत्र(कुरुक्खेत्त) में युद्ध लडा जाना चाहिए ।
  7. *अपभ्रंश में संप्रदान कारक और संबंध कारक में समान विभक्तियाँ हैं, अर्थात – चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति समान होती हैं देव शब्द के रूप- कारक एकवचन बहुवचन प्रथमा देव, देवा, देवु, देवो देव, देवा द्वितीया देव, देवा, देवु देव, देवा तृतीया देवेण, देवेणं, देवें देवहिं, देवाहिं, देवेहिं चतुर्थी देव, देवा, देवसु, देवासु, देवहो, देवाहो, देवस्सु देवहं, देवाहं षष्ठी पंचमी देवाहे, देवहे, देवाहु, देवहु देवहुं, देवाहुं सप्तमी देवि, देवे देवहिं, देवाहिं सम्बोधन देव, देवा, देवु, देवो देव, देवा, देवहो, देवाहो हरि शब्द के रूप कारक एकवचन बहुवचन कर्ता हरी, हरि हरी, हरि कर्म हरी, हरि हरी, हरि करण हरिएं , हरीएं, हरीं, हरिं, हरिण, हरीण, हरीणं, हरिणं हरिहिं, हरीहिं संप्रदान (चतुर्थी) हरी, हरि हरी, हरि, हरिहुं, हरीहुं, हरिहं, हरीहं संबंध (षष्ठी) अपादान हरीहे, हरिहे हरिहुं, हरीहुं अधिकरण हरिहि, हरीहि हरिहिं, हरीहिं, हरिहुं, हरीहुं सम्बोधन हरी, हरि हरी, हरि, हरीहो, हरिहो ईकरांत पुल्लिंग -गामणी कारक एकवचन बहुवचन प्रथमा गामणी, गामणि गामणी, गामणि द्वितीया गामणी, गामणि गामणी, गामणि तृतीया गामणीएं,गामणिएं,गामणीं,गामणिं गामणीण, गामणिण गामणीणं, गामणिणं गामणीहिं, गामणिहिं चतुर्थी गामणि, गामणी गामणी, गामणि, गामणीहुं,गामणिहुं, गामणीहं, गामणिहं षष्ठी पंचमी गामणीहे, गामणिहे गामणीहुँ, गामणिहुं सप्तमी गामणीहि, गामणिहि गामणीहिं, गामणिहिं गामणीहुँ, गामणिहुं सम्बोधन गामणी. गामणि गामणी, गामणि गामणीहो, गामणिहो साहु (उकारांत पुल्लिंग) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता साहु, साहू साहु, साहू कर्म साहु, साहू साहु, साहू करण साहुएं, साहूएं, साहुं, साहूं, साहुण, साहूण, साहुणं, साहूणं साहुहिं, साहूहिं संप्रदान (चतुर्थी) साहु, साहू साहु, साहू, साहुहुं, साहूहूं साहुहं, साहूहं संबंध (षष्ठी) अपादान साहुहे, साहूहे साहुहुं , साहूहूं अधिकरण साहुहि, साहूहि साहुहिं, साहूहिं, साहुहूं, साहूहूं सम्बोधन साहु, साहू साहु, साहू, साहुहो, साहूहो सयंभू (ऊकारांत पु.) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता सयंभू, सयंभु सयंभू सयंभु कर्म सयंभू, सयंभु सयंभू, सयंभु करण सयंभूएं, सयंभुएं, सयंभूं, सयंभुं, सयंभूण, सयंभुण सयंभूणं, सयंभुणं सयंभूहिं, सयंभुहिं संप्रदान (चतुर्थी) सयंभू, सयंभु संयभू, सयंभु, सयंभूहुं, सयंभुहुं, सयंभूहं, सयंभुहं संबंध (षष्ठी) अपादान सयंभूहे, सयंभुहे सयंभूहुं, सयंभुहुं अधिकरण सयंभूहि, सयंभुहि सयंभूहिं, सयंभुहिं, सयंभूहुं, सयंभुहुं सम्बोधन सयंभू, सयंभु सयंभू, सयंभु, सयंभूहो, सयंभुहो। कमल के रूप कारक एकवचन बहुवचन कर्ता कमल, कमला, कमलु कमल, कमला, कमलइं, कमलाइं कर्म कमल, कमला, कमलु कमल, कमला, कमलइं, कमलाइं करण कमलें, कमलेण, कमलेणं कमलहिं, कमलाहिं, कमलेहिं संप्रदान (चतुर्थी) कमल, कमला, कमलहो, कमलाहो , कमलसु, कमलासु, कमलस्सु कमल, कमला, कमलहं, कमलाहं संबंध (षष्ठी) अपादान कमलहे, कमलाहे, कमलहु, कमलाहु कमलहुं, कमलाहुं अधिकरण कमलि, कमले कमलहिं, कमलाहिं सम्बोधन कमल, कमला, कमलु कमल, कमला, कमलहो, कमलाहो वारि के रूप कारक एकवचन बहुवचन कर्ता वारी, वारि वारी, वारि, वारिइं, वारीइं कर्म वारी, वारि वारी, वारि, वारिइं, वारीइं करण वारीं, वारिं, वारीएं, वारिएं, वारिण, वारीण, वारीणं, वारिणं वारिहिं, वारीहिं संप्रदान (चतुर्थी) वारि, वारी वारि, वारी, वारीहुं, वारिहुं, वारिहं, वारीहं संबंध (षष्ठी) अपादान वारिहे, वारीहे वारीहुं, वारिहुं अधिकरण वारिहि, वारीहि वारिहिं, वारीहिं, वारीहुं, वारिहुं सम्बोधन वारी, वारि वारी, वारि, वारिइं, वारीइं, वारिहो, वारीहो महु के रूप (उकारांत नपुंसकलिंग ) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता महु, महू महु, महू, महुइं, महूइं कर्म महु, महू महु, महू, महुइं, महूइं करण महुं, महूं, महुएं, महूएं, महुण, महूण, महुणं, महूणं महुहिं, महूहिं संप्रदान (चतुर्थी) महु, महू महु, महू महुहुं, महूहुं, महुहं, महूहं संबंध (षष्ठी) अपादान महुहे, महूहे महुहुं, महूहूं अधिकरण महुहि, महूहि महुहिं, महूहिं, महुहुं, महूहूं सम्बोधन महु, महू महु, महू, महुहो, महूहो कहा के रूप कारक एकवचन बहुवचन प्रथमा कहा, कह कहा, कह,कहाउ,कहउ,कहाओ, कहओ द्वितीया कहा, कह कहा, कह,कहाउ,कहउ,कहाओ, कहओ तृतीया कहाए ,कहए कहहिं, कहाहिं चतुर्थी कहा, कह, कहहे, कहाहे कहहु, कहाहु षष्ठी पंचमी कहहे, कहाहे कहहु, कहाहु सप्तमी कहहिं, कहाहिं कहहिं, कहाहिं सम्बोधन कहा, कह कहा, कह, कहाउ, कहउ, कहाओ, कहओ, कहहो, कहाहो जुवइ के रूप कारक एकवचन बहुवचन कर्ता जुवई, जुवइ जुवई, जुवइ, जुवइउ, जुवईउ, जुवईओ, जुवइओ कर्म जुवई, जुवइ जुवई, जुवइ, जुवइउ, जुवईउ, जुवईओ, जुवइओ करण जुवईए, जुवइए जुवईहिं, जुवइहिं संप्रदान (चतुर्थी) जुवई, जुवइ, जुवईहे, जुवइहे जुवई, जुवइ ,जुवईहु, जुवइहु संबंध (षष्ठी) अपादान जुवईहे, जुवइहे जुवईहु, जुवइहु अधिकरण जुवईहिं, जुवइहिं जुवईहिं, जुवइहिं सम्बोधन जुवई, जुवइ जुवईहो, जुवइहो लच्छी कारक एकवचन बहुवचन कर्ता लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छि, लच्छीउ, लच्छिउ, लच्छीओ, लच्छिओ कर्म लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छि, लच्छीउ, लच्छिउ, लच्छीओ, लच्छिओ करण लच्छीए, लच्छिए लच्छीहिं, लच्छिहिं संप्रदान (चतुर्थी) लच्छी, लच्छि, लच्छीहे, लच्छिहे लच्छी, लच्छि, लच्छीहु, लच्छिहु संबंध (षष्ठी) अपादान लच्छीहे, लच्छिहे लच्छीहु, लच्छिहु अधिकरण लच्छीहिं, लच्छिहिं लच्छीहिं, लच्छिहिं सम्बोधन लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छि, लच्छीउ, लच्छिउ लच्छीओ, लच्छिओ, लच्छीहो, लच्छिहो धेणु (उकारांत स्त्रीलिंग) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता धेणु, धेणू धेणु, धेणू, धेणुउ, धेणूउ धेणुओ, धेणूओ। कर्म धेणु, धेणू धेणु, धेणू, धेणुउ, धेणूउ धेणुओ, धेणूओ। करण धेणुए, धेणूए धेणुहिं, धेणूहिं संप्रदान (चतुर्थी) धेणु, धेणू, धेणुहे, धेणूहे धेणु, धेणू धेणुहु, धेणूहु संबंध (षष्ठी) अपादान धेणुहे, धेणूहे धेणुहु, धेणूहु अधिकरण धेणुहिं, धेणूहिं धेणुहिं, धेणूहिं सम्बोधन धेणु, धेणू धेणु, धेणु, धेणुउ, धेणूउ धेणुओ, धेणूओ, धेणुहो, धेणूहो बहू(उकारांत स्त्रीलिंग) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता बहू, बहु बहू, बहु, बहूउ, बहुउ बहूओ, बहुओ कर्म बहू, बहु बहू, बहु, बहूउ, बहुउ बहूओ, बहुओ करण बहूए, बहुए बहूहिं, बहुहिं संप्रदान (चतुर्थी) बहू, बहु, बहूहे, बहुहे बहू, बहु, बहूहु, बहुहु संबंध (षष्ठी) अपादान बहूहे, बहुहे बहूहु, बहुहु अधिकरण बहूहिं, बहुहिं बहूहिं, बहुहिं सम्बोधन बहू, बहु बहू, बहु, बहूउ, बहुउ, बहूओ, बहुओ, बहूहो, बहुहो त(वह) - पुल्लिंग कारक एकवचन बहुवचन कर्ता स, सा, सु, सो, त्रं, तं त, ता कर्म त्र, तं त, ता करण ते, तेण, तेणं तहिं, ताहिं, तेहिं संप्रदान (चतुर्थी) त, ता, तसु, तासु तहो, ताहो, तस्सु त, ता, तहं, ताहं संबंध (षष्ठी) अपादान तहां, ताहां तहुं, ताहुं अधिकरण तहिं, ताहिं तहिं, ताहिं ज - जो(पुल्लिंग), क - कौन(पुल्लिंग) के रूप त के समान चलेंगे । त(वह) नपुंसकलिंग के रूप कारक एकवचन बहुवचन कर्ता त्रं, तं त, ता, तइं, ताइं कर्म त्रं, तं त, ता, तइं, ताइं करण तें, तेण, तेणं तहिं, ताहिं, तेहिं संप्रदान (चतुर्थी) त, ता, तसु, तासु, तहो, ताहो, तस्सु त, ता , तहं, ताहं संबंध (षष्ठी) अपादान तहां, ताहां तहुं, ताहुँ अधिकरण तहिं, ताहिं तहिं, ताहिं ज - जो(नपुंसकलिंग), क - कौन(नपुंसकलिंग) के रूप त(नपुंसकलिंग) के समान चलेंगे । ता (स्त्रीलिंग) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता त्रं, तं, सा, स ता, त, ताउ, तउ, ताओ, तओ कर्म त्रं, तं ता, त, ताउ, तउ, ताओ, तओ करण ताए, तए ताहिं, तहिं संप्रदान (चतुर्थी) ता, त, ताहे, तहे ता, त, ताहु, तहु संबंध (षष्ठी) अपादान ताहे, तहे ताहु, तहु अधिकरण ताहिं, तहिं ताहिं, तहिं ज - जो(स्त्रीलिंग), क - कौन(स्त्रीलिंग) के रूप त(स्त्रीलिंग) के समान चलेंगे । संप्रदान कारक – किसी प्रयोजन से जब कोई कार्य किया जाये उसमें संप्रदान कारक का प्रयोग होता है। जैसे – 1. मैं ज्ञान के लिए अपभ्रंश पढ़ता हूँ – हउं णाणहो अवभंसु पढउं। 2. कुमार राज्य के लिए युद्ध करता है – कुमारु रज्ज्जासु जुज्झइ। अपादान कारक – जिससे कोई वस्तु अलग हो उसे अपादान कहते हैं। जैसे- 3. वृक्ष से पत्ता गिरता है – रुक्खहे पत्तु पडई । 4. विद्याधर नगर से जाते हैं – विज्जाहर णयरहु गच्छन्ति। संबंध कारक – जिसमे संबंध बताया जाये। जैसे – 1. तुम राजा के पुत्र हो – तुहुं नरिंदहो पुत्तो अत्थि। 2. हम जिनेन्द्र के भक्त हैं – अम्हइं जिणेंदहो भत्ता अत्थि अधिकरण कारक – जहां या जिसमे कोई कार्य किया जाता है, उस आधार में अधिकरण कारक होता है। जैसे – 1. लोक में द्रव्य हैं – लोइ दव्वा सन्ति। 2. गुफा में तपस्वी हैं – कफाडे तवस्सी सन्ति। सम्बोधन – किसी को संबोधित करने के लिए, सम्बोधन का प्रयोग होता है। जैसे – हे कमला ! पानी लाओ – हे कमला! वारी लाहि । करेंगे अभ्यास – 1.कृष्ण (किण्ह) के द्वारा जरासंध (जरासंध) मारा (हण) गया । 2.देवों द्वारा समोशरण (समोसरण) में ऋषभनाथ (उसहणाह) को प्रणाम किया गया। 3.माता पुत्र के लिए पुस्तक लाती हैं 4.मैं ज्ञान (णाण) के लिए अपभ्रंश(अवभंस) पढ़ता हूँ 5.देव नंदीश्वर द्वीप (णंदीसरदीव) जाते हैं। 6.हम सब अरिहंतों के भक्त (भत्त) हैं। 7.खारवेल मगध(मगह) से जिनबिम्ब (जिणबिम्ब) लाया 8.माता स्नेह से पुत्र को देखती (पेच्छ) है । 9.यति आहार के लिए जंगल से नगर आते हैं । 10.हे शिष्य! धर्म करो । 11.मुनिराज(मुणिराय) ने उपसर्ग (उवसग्ग) सहे (सह) ।
  8. पाठ – 7 वाक्य रचना भूतकाल – प्रथमा- द्वितीया- तृतीया विभक्ति कल के अभ्यास के उत्तरों के लिए देखें विडियो त (वह) पुल्लिंग का द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति में प्रयोग एकवचन बहुवचन कर्म तं ता करण तेण/ तें / तेणं तहिं/ ताहिं/ तेहिं त (वह) नपुंसकलिंग का द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति में प्रयोग एकवचन बहुवचन कर्म तं ता/ त/ तइं/ ताइं करण तेण/ तें / तेणं तहिं/ ताहिं/ तेहिं त (वह) स्त्रीलिंग का द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति में प्रयोग एकवचन बहुवचन कर्म तं त/ता/ ताउ/ तउ/ ताओ/ तओ करण ता/ ताए ताहिं/ तहिं अम्ह (मैं) का द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति में प्रयोग एकवचन बहुवचन कर्म मइं अम्हे/ अम्हइं करण मइं अम्हेहिं तुम्ह (तुम) का द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति में प्रयोग एकवचन बहुवचन कर्म पइं, तइं तुम्हे/ तुम्हइं करण पइं, तइं तुम्हेहिं भूतकाल – क्रिया का वह रूप जिससे ज्ञात हो कि कार्य पहले हुआ है। वह भूतकाल कहलाता है। अपभ्रंश में भूतकाल का भाव प्रकट करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। क्रिया में अ/य प्रत्यय लगाकर भूतकालिक कृदन्त बनाये जाते हैं। क्रिया में अ/य प्रत्यय लगाने पर क्रिया के अन्त्य 'अ' का 'इ' हो जाता है। जैसे - इन भूतकालिक कृदन्त के रूप कर्ता (विशेष्य) के अनुसार चलते हैं। कर्ता पुल्लिंग, नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग में से जो भी होगा, इन्हीं के अनुसार भूतकालिक कृदन्त के रूप बनेंगे। इन कृदन्तों के रूप पुल्लिंग में 'देव' के समान, नपुसंकलिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में 'कहा' के अनुसार चलेंगे। कृदन्त में 'आ' प्रत्यय जोड़कर आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द भी बनाया जा सकता है। हस + अ/य हसिअ/ हसिय जग्ग +अ/य जग्गिअ/जग्गिय सय + अ/य सयिअ/सयिय ठा+ अ/य ठाअ / ठाय हो +अ/य होअ/ होय अकर्मक क्रिया में भूतकालिक कृदंत मैं सोया = हउं सयिउ/ सयियु। वह नाचा = सो णच्चिउ/ णच्चियु तुम हँसे= तुहुं हसियु। वे सब खुश हुईं =ता/ ताओ/ ताउ- उल्लसिया/ उल्लसियाओ/ उल्लासियाउ कमल खिले = कमला/कमल विअसिया/ विअसिय सकर्मक क्रिया में भूतकालिक कृदंत सकर्मक क्रिया में भूतकालिक कृदंत का प्रयोग कर्ता कि प्रथमा विभक्ति के साथ नहीं होता। इसमें कर्ता के लिए तृतीया विभक्ति प्रयुक्त होती है और कर्म में प्रथमा विभक्ति और कर्म के लिंग, वचन अनुसार ही भूतकालिक कृदंत का रूप होगा । यथा- राम ने पुस्तक पढ़ी यह सकर्मक क्रिया है इसका अपभ्रंश में अनुवाद के लिए हमें वाक्य में थोड़ा परिवर्तन करना होगा। कर्ता की तृतीया विभक्ति होगी तो वाक्य कुछ इस प्रकार होगा- राम के द्वारा पुस्तक पढ़ी गई, इस वाक्य का अपभ्रंश अनुवाद – रामेण गन्थो पढियो। इसी प्रकार – तुमने राम कथा सुनी (णिसुण) - पइं/तइं रामकह णिसुणिअ अभ्यास करें 1. फूल (पुप्फ) खिले। 2. तुम सोये 3. वह खुश हुई 4. मैं ठहरा 5. हम सब रोके (णिवार) गए। 6. मैंने खाना खाया। 7.मैंने कथा लिखी। 8. तुमने उसको पुकारा (कोक्क)। 9. वह कांपा (कंप) 10. मैंने जिन(जिण) को नमस्कार(पणम) किया । 11.उसने पद्मचरित (पउम चरिउ) पढ़ा
  9. 0 क्रिया क्रिया के दो भेद होते हैं – सकर्मक क्रिया और अकर्मक क्रिया अकर्मक क्रिया = वह क्रिया जिसमे कर्म नहीं होता, व क्रिया का प्रभाव कर्ता पर पड़ता है उसे अकर्मक क्रिया कहते हैं। जैसे – वह सोता है , मैं जाग रहा हूँ। इत्यादि। सकर्मक क्रिया = वह क्रिया जिसमे कर्म होता है , व क्रिया का प्रभाव कर्म पर पड़ता है उसे सकर्मक क्रिया कहते हैं। यथा- मैंने भोजन किया , राम पुस्तक पढ़ता है, श्याम गाँव जाता है । अस् धातु से बनी क्रिया – अस् धातु से बनी क्रिया का प्रयोग ‘है’ के लिए होता है। यह धातु 'अत्थि' के रूप में चलती है । जैसे= पुस्तक है= गंथ अत्थि। पुल्लिंग एकवचन बहुवचन कर्म देव, देवा, देवु देव, देवा करण देवेण, देवें, देवेणं देवहिं, देवाहिं, देवेहिं एकवचन बहुवचन कर्म हरी, हरि हरी, हरि करण हरिएं, हरीएं, हरीं, हरिं, हरिण, हरीण, हरीणं, हरिणं हरिहिं, हरीहिं एकवचन बहुवचन कर्म साहू, साहु साहू, साहु करण साहूएं, साहुएं, साहुं, साहूं, साहुण, साहूण, साहूणं, साहुणं साहूहिं, साहुहिं स्त्रीलिंग एकवचन बहुवचन कर्म कहा, कह कहा, कह, कहाउ, कहउ, कहाओ, कहओ करण कहाए, कहए कहाहिं, कहहिं एकवचन बहुवचन कर्म मई, मइ मई,मइ, मईउ, मइउ, मईओ, मइओ करण मईए, मइए मईहिं, मइहिं एकवचन बहुवचन कर्म धेणु, धेणू धेणु, धेणू, धेणुउ, धेणूउ, धेणुओ, धेणूओ करण धेणुए, धेणूए धेणूहिं, धेणुहिं नपुंसकलिंग एकवचन बहुवचन कर्म कमल, कमला,कमलु कमल, कमला, कमलाइं, कमलइं करण कमलें, कमलेण, कमलेणं कमलहिं, कमलाहिं, कमलेहिं एकवचन बहुवचन कर्म वारी, वारि वारि, वारी, वारिइं, वारीइं करण वारीं, वारि, वारीण,, वारीएं, वारिएं, वारिण, वारीणं, वारिणं वारिहिं, वारीहिं एकवचन बहुवचन कर्म महू, महु महू, महु, महुइं, महूइं करण महुं, महूं, महुएं, महूएं, महूण, महुण, महूणं, महुणं महुहिं, महूहिं द्वितीया विभक्ति = कर्म कारक 1. सकर्मक क्रिया में कर्तृवाच्य में कर्म के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे= राम पुस्तक पढ़ता है – रामु गंथु पढइ। तृतीया विभक्ति = करण कारक कर्ता के लिए अपने कार्य में जो अत्यंत सहायक होता है उसे- करण कारक कहते हैं। जैसे = बीज से वृक्ष उगता है = बीएण रुक्ख उग्गइ। तुम पुस्तक पढ़ो। तुम भोजन (भोयण) खाओ (खा)। वह आँखों (अच्छि) से देखता (अवलोय) है। कृष्ण(किण्ह) हाथी (हत्थि) से नगर(णयर) को जाएँ। आत्मा सिद्धालय (सिद्धालअ) जाता है। महावीर केवलज्ञान(केवलणाण) से जानेंगे। मैं पुस्तक से पाठ पढ़ूँ। हम गुरु जी को नमस्कार(पणम) करें। वे सब यशोधर चरित( जसहर चरिउ) पढ़ें। तुम सब उद्यान(उज्जाण) जाओ।
  10. कल के अभ्यास के उत्तर के लिए देखें विडियो विधि एवं आज्ञा काल में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय एकवचन बहुवचन उत्तम पुरुष मु मो मध्यम पुरुष इ, ए, 0 , उ, हि, सु ह अन्य पुरुष उ न्तु जैसे- मैं पढ़ूँ – हउं पढमु / पढेमु मै ठहरूँ – हउं ठामु हम पढ़ें – अम्हे/ अम्हइं पढमो/ पढेमो/ पढामो हम ठहरें - अम्हे/अम्हइं - ठामो तुम पढ़ो – तुहुं - पढि/ पढे/पढ/पढु/ पढहि/ पढसु/ पढेहि/ पढेसु तुम ठहरो – तुहुं - ठाइ/ ठाए/ ठा/ ठाउ/ ठाहि/ ठासु तुम सब पढ़ो - तुम्हे / तुम्हइं - पढह /पढेह तुम सब ठहरो- तुम्हे / तुम्हइं - ठाह वह ठहरे - सो/ सा - ठाउ वह पढे- सो / सा - पढउ/पढेउ वे सब पढ़ें - ते / ता/ ताओ/ताउ - पढन्तु/ पढेन्तु वे सब ठहरें - ते/ ता/ ताओ/ताउ - ठन्तु भविष्यत्काल के मुख्य प्रत्यय ‘स’ एवं ‘हि’ हैं। ‘स’ एवं ‘हि’ प्रत्यय क्रिया में जोड़ने के बाद वर्तमान काल के भी प्रत्यय जोड़े जाते हैं| जैसे - मैं हँसूँगा हउँ हसेसउँ, हसेसमि, हसिहिउँ, हसिहिमि। मैं ठहरूँगा हउँ ठासउँ, ठासमि, ठाहिउँ, ठाहिमि। हम सब हँसेंगे अम्हे/अम्हइं हसेसहुं, हसेसमो, हसेसमु, हसेसम, हसिहिहुं, हसिहिमो, हसिहिमु, हसिहिम। हम सब ठहरेंगे अम्हे/अम्हइं ठासहूं, ठासमो, ठासमु, ठासम, ठाहिहुं, ठाहिमो, ठाहिमु, ठाहिम। तुम हसोगे तुहं हसेसहि, हसेससि, हसेससे, हसिहिहि, हसिहिसि, हसिहिसे। तुम ठहरोगे तुहं ठासहि, ठाससि, ठाहिहि, ठाहिसि। तुम सब हँसोगे तुम्हे/तुम्हइं हसेसहु, हसेसह, हसेसइत्था, हसिहिहु, हसिहिह, हसिहित्था। तुम सब ठहरोगे तुम्हे/तुम्हइं ठासहूं, ठासह, ठासइत्था, ठाहिहु, ठाहिह, ठाहित्था। वह हँसेगा सो हसेसइ, हसेसए, हसिहिइ, हसिहिए। वह ठहरेगा सो ठासइ, ठाहिइ। वे सब हँसेंगे ते/ता हसेसहिं, हसेसन्ति, हसेसन्ते, हसेसइरे, हसिहिहिं, हसिहिन्ति, हसिहिन्ते, हसिहिइरे। वे सब ठहरेंगे ते/ता ठासहिं, ठासन्ते, ठासन्ते, ठाण्डरे, ठाहिहिं, ठाहिन्ति, ठाहिन्ते, ठाहिइरे। राजा हँसेगा नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो हसेसइ, हसेसए, हसिहिइ, हसिहिए। राजा हँसेंगे नरिंद/नरिंदा हसेसहिं, हसेसन्ति, हसेसन्ते, हसेसइरे, हसिहिहिं, हसिहिन्ति, हसिहिन्ते, हसिहिइरे। माता हँसेगी माया/माय हसेसई, हसेसए, हसिहिइ, हसिहिए। माताएँ हँसेंगी माया/माय/मायाउ/मायउ/मायाओ/मायओ हसेसहिं, हसेसन्ति, हसेसन्ते, हसेसइरे, हसिहिहिं, हसिहिन्ति, हसिहिन्ते, हसिहिइरे। कमल खिलेगा कमल/कमला/कमलु विअसइ, विअसेइ, विअसए कमल खिलेंगे कमल/कमला/कमलइं/कमलाई विअसेसहिं, विअसेसन्ति, विअसेसन्ते, विअसेसइरे, विअसिहिहिं, विअसिहिन्ति, विअसिहिन्ते, विअसिहिरे। अभ्यास करें वाक्य बनाएँ 1.मैं सोउंगा 2.तुम सब पढो 3.वो जाएगा 4.मैं पढ़ूँ 5.तुम सब खेलो 6.हम सब नाचें 7.वे सब नहाएँ 8.कमल खिलें (विअस) 9.राम आएँ 10.युवती नमस्कार (पणम) करे इन रचनाओं में से वर्तमान काल – विधि एवं आज्ञा काल और भविष्यतकाल की क्रियाएँ पहचानिए। •जो णिय भाउ ण परिहरइ जो पर भाउ ण लेइ जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ॥ उदाहरण= परिहरइ= अन्य पुरुष- एक वचन -वर्तमान काल •मूढ़ा सयलु वि कारिमउ मं फुडु तुहुं तुस कंडि सिवपइ णिम्मलि करहि रइ धरु परियण लहु छंडि॥
  11. वाक्य रचना- वर्तमान काल- कर्ता कारक सर्वनाम (मैं) हउं ,(हम सब) अम्हे / अम्हइं, (तुम) तुहुं ,(तुम सब) तुम्हइं/ तुम्हे , वह - सो (पुल्लिंग), सा (स्त्रीलिंग), वे सब- ते (पुल्लिंग), ता (स्त्रीलिंग) संज्ञा (पुल्लिंग) - नरिंद = राजा, पुत्त = पुत्र, बालअ = बालक, देव = देव , मेह = मेघ, बादल, (स्त्रीलिंग) ससा = बहिन, माया = माता, कमला = लक्ष्मी, जुवइ = युवती (नपुंसकलिङ्ग) णाण = ज्ञान, वेरग्ग = वैराग्य, सालि = चावल, कमल = कमल क्रिया सोह = शोभना, ठा - ठहरना , हो = होना, उज्जम = प्रयास करना, विअस = खिलना, कोक्क = बुलाना, जुज्झ = लड़ना, सय = सोना, खेल = खेलना, गज्ज = गर्जना, गच्छ = जाना, आगच्छ = आना, उग = उगना, उल्लस=खुश होना, पणम= प्रणाम करना, ण्हा= नहाना वर्तमान काल में प्रयुक्त होने वाले क्रिया के प्रत्यय एकवचन बहुवचन उत्तमपुरुष उं, मि हुं, मो, मु, म मध्यमपुरुष हि, ,से हु, हे, इत्था अन्यपुरुष पु./स्त्री./ नपु. इ.ए हिं, न्ति,न्ते, इरे कर्ता कारक - जो कारक संज्ञा शब्द का कर्ता के रूप में क्रिया से सम्बन्ध दर्शाये वह कर्ता कारक है | अकारांत पुल्लिंग के प्रथमा विभक्ति के रूप एकवचन बहुवचन प्रथमा देव, देवा, देवु, देवो देव, देवा अकारान्त नपुंसकलिंग 'कमल' शब्द एकवचन बहुवचन प्रथमा कमल, कमला, कमलु कमल,कमला,कमलइं, कमलाइं इकारान्त पुल्लिंग ‘हरि ' शब्द एकवचन बहुवचन प्रथमा हरि, हरी हरि, हरी इकारान्त नपुंसकलिंग 'वारि' शब्द एकवचन बहुवचन प्रथमा वारि, वारी वारि, वारी, वारीइं, वारिइं आकारान्त कहा ' शब्द एकवचन बहुवचन प्रथमा कहा,कह कहा, कह, कहाउ, कहउ, कहाओ, कहओ आइये सीखें वाक्य रचना :- उत्तम पुरुष एकवचन में मि प्रत्यय जोड़ने से पहले क्रिया के आखरी वर्ण में आ अथवा ए जोड़ने अ विकल्प भी होता है| कर्ता के पुरुष,एवं वचन के अनुसार ही क्रिया का पुरुष व वचन होता है | जैसे- मैं (हउं) सोता हूँ –सयउं / सयमि / सयामि / सयेमि ­ मैं ठहरता हूँ - हउं ठाउं/ठामि हम सब (अम्हे / अम्हइं) सोते हैं – सयमु/ सयमो/ सयहुं / सयम हम सब ठहरते हैं - अम्हे / अम्हइं - ठाहुं, ठामो,ठामु, ठाम तुम सब सोते हो- तुम्हे / तुम्हइं - सयहु/सयह/ सयित्था तुम सब ठहरते हो - तुम्हे / तुम्हइं - ठाहु,ठाह, ठाइत्था संज्ञा शब्द सदैव अन्य पुरुष माने जाते हैं |यथा- कमल खिलेगा – कमलु/कमल/कमला- विअसइ, विअसेइ, विअसए वह ठहरता है - सो ठाइ। संयुक्ताक्षर से पहले दीर्घ स्वर होता है तो वह हृस्व हो जाता है यथा- वे सब ठहरती हैं - ता ठाहिं, ठन्ति, ठन्ते, ठाइरे अभ्यास प्रश्न राम नहाता है। माता बुलाती है। बच्चे खेलते हैं मैं प्रयास करता हूँ तुम हँसते हो हम सब नाचते हैं राजा लड़ते हैं तुम सब खुश होते हो लक्ष्मी प्रणाम करती है देव ठहरते हैं
  12. अपभ्रंश अनुवाद कला के पाठ - 2 से सीखें अपभ्रंश शब्द, तदोपरांत करें अभ्यास। वर्ण विकार के कुछ सामान्य नियम (ये प्राकृत अपभ्रंश दोनों में मान्य हैं) प्रायः जिन शब्दों में रेफ किसी अक्षर के ऊपर होती है उसमें र का लोप होकर जिस अक्षर पर रेफ लगी है उसका द्वित्व हो जाता है। जैसे - धर्म = ध+र्+म = धम्म इसी प्रकार, कर्ण = कण्ण , चर्म = चम्म, मार्ग = मग्ग इसी तरह रेफ के अक्षर के नीचे होने पर होता है । जैसे – शक्र = श + क् + र = शक्क इसी प्रकार , वक्र = वक्क, तक्र= तक्क भिन्न वर्ग वाले संयुक्त व्यंजनों में प्रायः पूर्ववर्ती व्यंजनों का लोप हो कर शेष का द्वित्व हो जाता है। जैसे – उत्कंठा =त् का लोप क् का द्वित्व = उक्कंठा इसी प्रकार, उल्का = उक्का, उत्सव = उस्सव, गुप्त = गुत्त, निश्चल = णिच्चल प्रारम्भ में आया हुआ आधा ‘स’ का लोप हो जाता है – स्नेह =नेह = णेह स्थिति = थिति ‘स्त’ का थ में परिवर्तन हो जाता है – स्तुति – थुति, थुइ स्तव = थव ‘स्प’ का ‘फ’ में परिवर्तन होता है स्पंद = फंद स्पर्श = स्पस्स = फस्स आदि यकार का प्रायः जकार हो जाता है योग्य = जोग्ग याचना = जाचणा युग = जुग ष्ट का ट्ठ हो जाता है इष्ट = इट्ठ मिष्ट = मिट्ठ वरिष्ठ = वरिट्ठ तकार का लोप होकर यकार हो जाता है और डकार भी होता है। अजित = अजिय ऋतु = उडु प्राभृत = पाहुड ख, घ,ध,थ, भ अक्षरों का प्रायः ह हो जाता है सुख = सुह शुभ = सुह बोधि = बोहि लाभ = लाह तथा = तहा शब्द के आदि में ऋकार का अकार होता है – जैसे – कृतं =कतं = कदं तृणं = तणं घृतं = घदं वृषभ = वसह शब्द के आदि में ऋकार का इकार भी होता है। जैसे – दृष्टि = दिट्ठी ऋद्धि = इद्धि = इड्ढि ऋषि = इसि सृष्टि – सिट्ठी कृति = किदि कृपण= किवण घृणा= घिणा अपभ्रंश की विशेषताएँ (जो प्राकृत से कुछ भिन्न हैं) उकार बहुलता की प्रवृत्ति अपभ्रंश की मुख्य विशेषताओं में से एक है। जैसे वअणु , सअलु आदि। संयुक्तव्यंजनों का प्रयोग कम हुआ। दीर्घीकरण से संयुक्ताक्षरों को सरल बना लेने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी। यथा- कर्म – कम्म > काम धर्म - धम्म > धाम अक्षर – अक्खर > आखर चर्म – चम्म > चाम
  13. पाठ- 2 अपभ्रंश भाषा की व्याकरणिक इकाइयाँ वर्ण (Alphabets) :- 1. स्वर (vowels) - जिन अक्षरों के उच्चारण के लिए अन्य वर्णों की सहायता नहीं चाहिए होती | अपभ्रंश में स्वर 8 होते हैं - अ , आ , इ , ई , उ , ऊ, ए , ओ | 2. व्यंजन (consonants)- जिनके उच्चारण में की सहायता लेनी पड़ती है | क, ख, ग, घ च , छ, ज, झ ट , ठ , ड , ढ , ण त , थ , द , ध , न प , फ, ब , भ , म य , र, ल , व स , ह अनुस्वार- बिंदी लगाईं जाती है वो अनुस्वार होता है - ां | जैसे - अंग अनुनासिक- चंद्र बिंदु अनुनासिक है - ाँ | जैसे - चाँद शब्द - संज्ञा (Nouns) सर्वनाम (Pronouns) विशेषण (Adjectives) क्रिया (verbs) अव्यय कारक संज्ञा- किसी वस्तु, व्यक्ति, जाति,भाव, स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं | जैसे राम, रुक्ख (वृक्ष) आदि | संज्ञा शब्दों के अपभ्रंश में तीन लिंग ( Gender) होते हैं- 1.पुल्लिंग 2.नपुंसकलिंग 3.स्त्रीलिंग सर्वनाम- संज्ञा के स्थान पर जिन शब्दों का प्रयोग होता है वे सर्वनाम होते हैं | जैसे- मैं, तुम, यह, वह आदि | पुरुष एकवचन बहुवचन उत्तम पुरुष ( मैं ) हउं (हम सब) अम्हे मध्यम पुरुष (तुम) तुहुं (तुम सब) तुम्हइं अन्य पुरुष वह - सो ( पुल्लिंग) , सा (स्त्रीलिंग) आदि | वे सब ते ( पुल्लिंग) ता ( स्त्रीलिंग) आदि | विशेषण - जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताते हैं | जैसे- सुंदर ,थिर (स्थिर) आदि | क्रिया - जिन शब्दों से किसी कार्य का होना या करना प्रकट हो | जैसे - हस ( हँसना ), सय ( सोना), ठा (ठहरना) | अव्यय - जो शब्द सभी लिंग, वचन, कारक में सामान रहें परिवर्तन नहीं होता | जैसे- सया ( सदा, हमेशा), णहि ( नहीं), वि (भी )| काल - क्रिया के जिस रूप में क्रिया के होने का पता चले उसे काल कहते हैं | अपभ्रंश में 4 काल हैं - वर्तमान काल- क्रिया का वह रूप जिससे पता चले कि कार्य अभी हुआ है | जैसे- सोता है, जागता है आदि | विधि एवं आज्ञा काल - जब किसी कार्य के लिए प्रार्थना की जाती है, तथा आदेश एवं उपदेश दिया जाता है तो इन भावों को प्रकट करने के लिए विधि एवं आज्ञा काल की क्रिया का रूप प्रयोग में लाया जाता है | भविष्य काल- क्रिया का वह रूप जिससे पता चले कि कार्य भविष्य में होगा| जैसे- जाऊँगा, खायेगा आदि | भूत काल - क्रिया का वह रूप जिससे पता चले कि कार्य पहले हुआ था | जैसे- नाचता था , जाता था आदि | कारक - जो शब्द संज्ञा एवं सर्वनाम का अन्य शब्दों से सम्बन्ध बताएं वो कारक कहलाते हैं | अपभ्रंश में 8 कारक होते हैं- 1. कर्ता 2. कर्म 3. करण 4. सम्प्रदान 5.अपादान 6. सम्बन्ध 7. अधिकरण 8.सम्बोधन | कारक को विभक्तियों के माध्यम से पहचाना जाता है - कारक एकवचन बहुवचन कर्ता राजा ने राजाओं ने कर्म राजा को राजाओं को करण राजा से / के द्वारा राजाओं से / के द्वारा सम्प्रदान राजा के लिए राजाओं के लिए अपादान राजा से (अलग) राजाओं से (अलग) सम्बन्ध राजा का/ के/ की राजाओं का / के/ की अधिकरण राजा में,पर राजाओं में,पर सम्बोधन हे राजा हे राजाओं अपभ्रंश में सम्प्रदान कारक (चौथी विभक्ति),सम्बन्ध कारक ( छठी विभक्ति) के सामान रूप होते हैं |
  14. मंगलाचरण जे जाया झाणग्गियएँ कम्म कलंक डहेवि। णिच्च णिरंजण णाणमय ते परमप्प णवेवि।।1।। केवल दंसण णाणमय केवल सुक्ख सहाव जिणवर वंदउं भत्तियए जेहिं पयासिय भाव ।।2।। जे परमप्पु णियंति मुणि परम समाहि धरेवि। परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि।।3। - अवभंस विज्जा पट्ठकम्म पढेमि भारतीय भाषाएँ एवं अपभ्रंश पं. नेमिचन्द्रजी शास्त्री के अनुसार भारतदेश की भाषा के विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है। प्रथम स्तर (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक- लोकभाषा प्राकृत, छान्दस, संस्कृत) साहित्य की दृष्टि से सर्वप्रथम रचना वेदों के रूप में ही देखी जाती है किन्तु वैदिक साहित्य से पूर्व जन साधारण में प्राकृत अपने अनेक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में कथ्य रूप से प्रचलित थी। इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई तथा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस' कहा गया। यह छान्दस उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। यह वैदिक संस्कृत ही आगे पाणिनी के व्याकरण से स्थिर होकर संस्कृत कहलायी। यही भारतीय भाषा का प्रथम स्तर है। द्वितीय स्तर- (ई.पूर्व 600से 1200 ई. तक) इस स्तर की भाषा को तीन युगों में विभक्त किया गया है। प्रथमयुगीनः- (ई.पूर्व 600से ई. 200 तक) तीर्थंकर महावीर के उपदेश, शिलालेखी प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत, आर्ष-पालि, प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, जातकों की भाषा। मध्य युगीनः-(200 ई. से 600 ई. तक) भास और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैन काव्य साहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृतें एवं वृहत्कथा की पैशाची प्राकृत। जब साहित्य का निर्माण इन प्राकृतों में होने लगा और वैयाकरणों ने इन्हें व्याकरण के कठिन नियमों में बांधना प्रारम्भ कर दिया तभी प्रादेशिक भाषा रूप बोलियां ही अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई। तृतीय युगीन:-(600 से 1200 ई. तक) भिन्न भिन्न प्रदेशों की परवर्तीकाल की अपभ्रंश भाषाएँ। पुनः अपभ्रंश का साहित्यिक उपयोग होने लगा और बहुत से मुक्तक और चरिउ काव्य लिखे गए | जैसे जम्बूसामि चरिउ, करकंडु चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, पउम चरिउ आदि। इसके साथ ही रचे गए कईं दोहे। जैसे – मूँज के दोहे, सावय धम्म दोहे आदि। अपभ्रंश मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की अन्तिम अवस्था तथा प्राचीन और नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के बीच का सेतु है। इसका आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के साथ एक जननी का सम्बन्ध है। उपरोक्त सभी आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं के विकास में अपभ्रंश की महत्वपूर्ण भूमिका है। तृतीय स्तर(1200 ई. से आगे तक) - अपभ्रंश और परवर्ती आधुनिक कथ्य भाषाएं अपभ्रंश का वैशिष्ट्य आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की जननी अपभ्रंश भाषा भी देश की एक सुसमृद्ध लोक-भाषा रही है। दसवीं शताब्दी में मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा तथा बंगाल के पाल राजा लोक भाषा अपभ्रंश के संरक्षक थे। सरह, काण्ह आदि चौरासी सिद्ध का पालों के शासन काल था | स्वयंभू और पुष्पदन्त कवि राष्ट्रकूट राजाओं के काल में हुए । इन सभी को तत्कालीन बोलियों को अपभ्रंश के रूप में केन्द्रित कर विकसित करने के लिए इन राजाओं का भरपूर उत्साह एवं सहयोग प्राप्त हुआ। दसवी शताब्दी के अंत में मान्यखेट राष्ट्रकूटों के स्थान पर गुजरात में सोलंकी और चालुक्यों की शक्ति प्रबल हो उठी। इनमें सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल अपभ्रंश साहित्य के संरक्षक रहे। अपभ्रंश के प्रसिद्ध विद्वान हेमचन्द्र सूरि को संरक्षण देने का श्रेय सिद्धराज को ही है। साहित्य-सृजन के लिए हेमचन्द्र को राज्य की ओर से सम्पूर्ण सुविधाएँ दी गई। कुमारपाल ने भी अपभ्रंश को पर्याप्त संरक्षण दिया। सोलंकियों के शासनकाल में गुजरात का वैभव पराकाष्ठा पर था। अतः अपभ्रंश भाषा उस समय की राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई और अपने काल की बोलचाल, विचार, भावाभिव्यक्ति और जीवन के विकास की सशक्त माध्यम बनी। ई. सन् की छठी शती से लेकर 1300 ई.तक के भारतीय विचार, भावना, साहित्य, धर्म, दर्शन तथा समाज की धड़कनों को अपभ्रंश के विभिन्न काव्य रूपों - महाकाव्य, पुराणकाव्य, चरितकाव्य, कथाकाव्य, धार्मिक तथा लौकिक खंडकाव्य, रहस्य-भक्ति-नीति-उपदेश मूलक मुक्तक काव्यों में में देखा जा सकता है। छठी से पन्द्रहवीं शताब्दी का समय अपभ्रंश का स्वर्णयुग कहा जाता है। हिन्दी साहित्य की विपुल धाराओं का मूल अपभ्रंश ही है। अपभ्रंश कवि हिन्दी काव्यधारा के प्रथम सृष्टा थे। आपको आश्चर्य होगा कि जब तक इस भाषा का साहित्य उपलब्ध नहीं था तब तक का यह काल अंधकार युग के नाम से संबोधित कर दिया गया था। इस भाषा के काव्य ग्रंथों को प्राप्त करने की विद्वानों में तीव्र उत्कंठा थी। जर्मन विद्वान डॉ. रिचार्ड पीशेल (अपभ्रंश का पाणिनी) ने बड़े दु:ख के साथ कहा कि 'अपभ्रंश का विपुल साहित्य खो गया है क्योंकि जिस भाषा में हेमचन्द्राचार्य द्वारा संकलित अप्रतिम दोहे हों, उस साहित्य में विरलता नहीं हो सकती। उसका भरा-पूरा भंडार होना चाहिए। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- इस अंधकार युग को प्रकाशित करने योग्य जो भी मिल जाये उसे सावधानी से जिलाये रखना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि उसमें उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भाषित करने की क्षमता है। इस काल की कोई भी रचना अवज्ञा और उपेक्षा का पात्र नहीं हो सकती। दूसरे जर्मन विद्वान डॉ. हरमन याकोबी ने 1913 ई. में अहमदाबाद में एक जैन साधु के पास रखी एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ की प्रति देखी । उनको बताया गया कि यह कोई प्राकृत की रचना है। जैसे ही उन्होंने उसे ध्यान से पढ़ा वे हर्ष से उछलते हुए बोले यह तो अपभ्रंश रचना है। साधु के द्वारा उनको यह ग्रंथ नहीं दिया जाने पर याकोबी ने वही बैठकर उसके कुछ पत्रों की फोटो कॉपी तैयार करवाई। यह काव्यग्रंथ अपभ्रंश भाषा के महाकवि धनपाल का लिखा हुआ "भविष्यत्त कहा" था। अपभ्रंश साहित्य का यह महत्वपूर्ण काव्य डॉ. याकोबी को सबसे पहले प्राप्त हुआ। अपभ्रंश की सर्वप्रथम प्रकाशित होनेवाली यही साहित्यिक रचना थी। इसके प्रकाशित होने के 3 वर्षों के पश्चात् सन् 1921 में याकोबी ने आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित 'नेमिनाथचरित' के अन्तर्गत 'सनत्कुमारचरित' का सुसम्पादित संस्करण प्रस्तुत किया। अपभ्रंश साहित्य की खोज के बाद अपभ्रंश साहित्य का सम्पादन काल प्रारम्भ हुआ। डॉ. पी. एल.वैद्य, श्री राहुल सांकृत्यायन, मुनिजिनविजय, डॉ.हीरालाल जैन, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये आदि विद्वानों ने अपभ्रंश ग्रंथों के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। भारतीय विद्वान जिन ग्रंथों को प्राकृत का समझते थे उनमें से कईं ग्रंथ अपभ्रंश के निकले। अपभ्रंश के अध्यात्मकी रहस्यवादी धारा के प्रथम कवि आचार्य योगीन्दु देव तथा प्रथम चरिउ काव्यकार स्वयंभू हैं। हिन्दी जगत के जाने-माने विद्वान राहुल सांकृत्यायन के अनुसार स्वयंभू भारत के एक दर्जन कवियों में से एक हैं।आज अपभ्रंश की इस परम्परा को जिलाए रखने के लिए भारत में एक मात्र अकादमी है अपभ्रंश साहित्य अकादमी जो जयपुर में स्थित है, संस्थान के संयोजक डॉ. कमलचंदजी सोगाणी हैं, जिन्होंने अनेक अपभ्रंश - प्राकृत पुस्तकों का अनुवाद एवं सम्पादन किया है साथ ही साथ व्याकरण में गणितीय प्रणाली लागू कर,अपभ्रंश भाषा को सहज और सुगम बना दिया | Quiz से कीजिये अपनी परीक्षा Quiz section में है, आज के पहले पाठ का अभ्यास ।
  15. अपभ्रंश क्यों पढ़ें ? भाषा संस्कृति की रीढ़ होती है | किसी भी देश की संस्कृति को जानने के लिए उसकी भाषा में उपलब्ध साहित्य पढ़ना अत्यंत आवश्यक है | भाषा ही संस्कृति के लिए रक्षा सूत्र का काम करती है | एक भाषा के विलुप्त होने से उससे जुडी संस्कृति का ही नाश हो जाता है | अपभ्रंश भाषा मध्य कालीन भारत की लोक भाषा थी जिस में तत्कालीन समय का जीवंत चित्रण है| इतना ही नहीं अपभ्रंश ही आधुनिक हिंदी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं का आधार है तो आधुनिक संस्कृति का सुदृढ़ आधार क्या था और आज हम किस दिशा में जा रहे हैं – कितना सही? कितना गलत? इस प्रकार का विवेक देने वाली भाषा है अपभ्रंश | मध्यकालीन युग को विविध इतिहासकारों व साहित्यकारों ने अंधकार युग कहा था पर जीवन की सभी विधाओं में अपभ्रंश का विपुल साहित्य इस बात का प्रमाण है कि मध्य युग अंधकार युग नहीं था | अपभ्रंश भाषा में रचे गए मुक्तक,चरिउ, पुराण आदि जीवन निर्माण एवं निर्वाह को एक दिशा देने में मील के पत्थर का कार्य करते हैं। " हित से जो युक्त – समन्वित होता है वह सहित माना है और सहित का भाव ही साहित्य बाना है, अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से सुख का समुद्भव– सम्पादन हो सही साहित्य वही है अन्यथा, सुरभि से विरहित पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह सार-शून्य शब्द झुंड....!" मूकमाटी से उद्धृत आचार्य विद्यासागर जी की यह पंक्तियाँ अपभ्रंश के विपुल साहित्य पर सटीक हैं क्योंकि अपभ्रंश साहित्य प्राणी मात्र के हित के लिए, जीवन में साम्य रस का आनंद पाने के लिए, अवश्य पठनीय है | डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार– "हिंदी साहित्य में (अपभ्रन्श की) प्रायः पूरी परंपरा ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।" अतः अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, हिंदी आदि आधुनिक भाषाओं के ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है। अपभ्रंश भाषा एक कड़ी है जो प्राकृत को हिंदी से जोडती है और इसीलिए प्राकृत ज्ञान का भी पोषण करती है | भाषाओं के परिवार को मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है – “प्राकृत हमारी दादी माँ है, संस्कृत हमारा पितामह, हिंदी हमारी माँ है, अपभ्रंश हमारा पिता है, अंग्रेजी हमारी पत्नी है |”
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