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अपभ्रंश भाषा क्यों पढ़ें?


Saransh Jain

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अपभ्रंश क्यों पढ़ें ?

 

  • भाषा संस्कृति की रीढ़ होती है | किसी भी देश की संस्कृति को जानने के लिए उसकी भाषा में उपलब्ध साहित्य पढ़ना अत्यंत आवश्यक है | भाषा ही संस्कृति के लिए रक्षा सूत्र का काम करती है | एक भाषा के विलुप्त होने से उससे जुडी संस्कृति का ही नाश हो जाता है |
  • अपभ्रंश भाषा मध्य कालीन भारत की लोक भाषा थी जिस में तत्कालीन समय का जीवंत चित्रण है| इतना ही नहीं अपभ्रंश ही आधुनिक हिंदी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं का आधार है तो आधुनिक संस्कृति का सुदृढ़ आधार क्या था और आज हम किस दिशा में जा रहे हैं – कितना सही? कितना गलत? इस प्रकार का विवेक देने वाली भाषा है अपभ्रंश |
  • मध्यकालीन युग को विविध इतिहासकारों व साहित्यकारों ने अंधकार युग कहा था पर जीवन की सभी विधाओं में अपभ्रंश का विपुल साहित्य इस बात का प्रमाण है कि मध्य युग अंधकार युग नहीं था | अपभ्रंश भाषा में रचे गए मुक्तक,चरिउ, पुराण आदि जीवन निर्माण एवं निर्वाह  को एक दिशा देने  में मील के पत्थर का कार्य करते हैं।

" हित से जो युक्त – समन्वित होता है
वह सहित माना है
और सहित का भाव ही साहित्य बाना है, 
अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से 
सुख का समुद्भव– सम्पादन हो
सही साहित्य वही है
अन्यथा,
सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह
सार-शून्य शब्द झुंड....!"


मूकमाटी से उद्धृत आचार्य विद्यासागर जी की यह पंक्तियाँ अपभ्रंश के विपुल साहित्य पर सटीक हैं क्योंकि अपभ्रंश साहित्य प्राणी मात्र के हित के लिए, जीवन में साम्य रस का आनंद पाने के लिए, अवश्य पठनीय है | 

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार– "हिंदी साहित्य में (अपभ्रन्श की) प्रायः पूरी परंपरा ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।"
अतः अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, हिंदी आदि आधुनिक भाषाओं के ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है।

  • अपभ्रंश भाषा एक कड़ी है जो प्राकृत को हिंदी से जोडती है और इसीलिए प्राकृत ज्ञान का भी पोषण करती है | 
  • भाषाओं के परिवार को मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है –

“प्राकृत हमारी दादी माँ है, संस्कृत हमारा पितामह,  हिंदी हमारी माँ है, अपभ्रंश हमारा पिता है, अंग्रेजी हमारी पत्नी है |”

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