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JainSamaj.World
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कर्मचक्र - ४६


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


          इस अंश का शीर्षक है कर्मचक्र। बिल्कुल सही शीर्षक है। जैनधर्म की महती प्रभावना करने वाले महापुरुष के जीवन में प्रारंभिक समय में कर्मों की स्थिति देखिए। कितनी दयनीय स्थिति।

      कपढ़े विवर्ण हो गए, शरीर में खाज हो गया, एक दिन छोड़कर ज्वर आने लगा। कोई सहायता को नहीं, कोई पूंछने वाला नहीं। कोई सुनने वाला नहीं।

      जिनधर्म में विशेष श्रद्धावान गणेश प्रसाद का वह प्रारंभिक समय बड़ा ही विषम था। वह गिरिनार जी की वंदना के लोभ स्वरूप जुएँ में पैसे भी लगा कर हार गए।

       बड़ा ही रोचक है वर्णीजी की गणेशप्रसाद से वर्णी बनने तक की यात्रा।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


                      *"कर्मचक्र"*

                     *क्रमांक - ४८*


                पास में पचास रुपये मात्र रह गये। कपड़े विवर्ण हो गये। शरीर में खाज हो गई। एक दिन बाद ज्वर आने लगा। सहायी कोई नहीं। केवल दैव ही सहायी था। क्या करूँ?

      कुछ समझ नहीं आता था - कर्तव्य विमूढ़ हो गया। कहाँ जाऊँ? यह भी निश्चय नहीं कर सका। किससे अपनी व्यथा कहूँ? यह भी समझ नहीं आया। कहता भी तो सुनने वाला कौन था? खिन्न होकर पड़ गया। 

      रात्रि को स्वप्न आया- 'दुख करने से क्या लाभ?' कोई कहता है- 'गिरिनार को चले जाओ।' 'कैसे जावें?' साधन तो कुछ है नहीं' मैंने कहा। वही उत्तर मिला- 'नरकी जीवों की अपेक्षा अच्छे हो।'

        प्रातःकाल हुआ। श्री सिद्धक्षेत्र वंदना कर बैतूल नगर के लिए चल दिया। तीन कोश चलकर एक हाट मिली। वहाँ एक स्थान पर पत्ते का जुआ ही रहा था। १) के ५) मिलते थे।

        हमने विचार किया- 'चलो ५) लगा दो २५) मिल जावेंगे, फिर आनंद से रेल में बैठकर श्री गिरिनार की यात्रा सहज में हो जावेगी। इत्यादि।' १) में ५) मिलेगा इस लोभ से ३) लगा दिए। पत्ता हमारा नहीं आया। ३) चले गए। 

      अब बचे दो रुपया सो विचार किया कि अब गलती न करो, अन्यथा आपत्ति में फस जाओगे। मन संतोष कर वहाँ से चल दिए। किसी तरह कष्टों को सहते हुए बैतूल पहुँचे।

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
   ?आजकी तिथी- आषाढ़ कृष्ण ८?

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