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रेशन्दीगिरी व कुण्डलपुर - ३६


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

       रुचिवान पाठक यह विचार कर रहे होंगे कि गणेश प्रसाद ने नैनागिरि से श्री कुण्डलपुर जाते समय रास्ते में जहाँ रात्रि विश्राम किया था वहाँ लोगों के भोजन के आग्रह के निवेदन में क्या किया। आज आप वह जानेगें।

       श्री कुण्डलपुर जी की वंदना तो अधिकांश पाठकों ने की होगी। लेकिन वर्णी जी का वंदना संबंधी अनुभूति परक वर्णन का यह उल्लेख आपकी वंदना की स्मृति को ताजा करेगा ही साथ ही उस समय वर्णीजी द्वारा की गई आनन्दनुभीति का भी अनुभव करायेगा।

          कभी कभी प्रस्तुती में कुछ अंशों की पुनरावृत्ति रहती है। पुनरावृत्ति का उद्देश्य मात्र कथन का योग्य स्पष्टीकरण रहता है।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


          *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*


                     *क्रमांक - ३६*

            
      सायंकाल होते-होते एक गाँव में पहुँच गया। थकावट के कारण एक अहीर के घर ठहर गया। उसने रात्रि में आग जलाई और कहा 'भोजन बना लो। मेरे यहाँ भूखे पड़े रहना अच्छा नहीं। आप तो भूखे रहो और हम लोग भोजन कर लें, यह अच्छा नहीं लगता।'

       मैंने कहा- 'भैया ! मैं रात्रि को भोजन नहीं करता।' उसने कहा- 'अच्छा, भैस का दूध ही पी लो, जिससे मुझे तसल्ली हो जाय।'

      मैंने कहा- 'मैं पानी के सिवा और कुछ नहीं लेता।' वह बहुत दुखी हुआ। स्त्री ने यहाँ तक कहा- 'भला, जिसके दरवाजे पर मेहमान भूखा पड़ा रहे उसको कहाँ तक संतोष होगा।'

       मैंने कहा- 'माँ जी ! लाचार हूँ।' तब उस गृहणी ने कहा- 'प्रातःकाल भोजन करके जाना, अन्यथा आप दूसरे स्थान पर जाकर सोवें।'
           मैंने कहा- 'अब आपका सुंदर घर पाकर कहाँ जाऊँ? प्रातः काल होने पर आपकी आज्ञा का पालन होगा।'

        किसी प्रकार उन्हें संतोष कराके सो गया। बाहर दालान में सोया था, अतः प्रातःकाल मालिक के बिना पूछे ही ५ बजे चल दिया और १० मील चलकर एक ग्राम में ठहर गया।

       वहीं पर श्री जिनालय के दर्शन कर पश्चात भोजन किया और सायंकाल फिर १० मील चलकर एक ग्राम में रात्रि को सो गया, पश्चात प्रातःकाल वहाँ से चल दिया। इसी प्रकार मार्ग को तय करता हुआ कुण्डलपुर पहुँच गया।

        अवर्णनीय क्षेत्र है। यहाँ पर कई सरोवर तथा आम के बगीचे हैं। एक सरोवर अत्यंत सुंदर है। उसके तट पर अनेक जैनमंदिर गगनचुम्बी शिखरों से सुशोभित एवं चारों तरफ आम वृक्षों से वेष्टित भव्य पुरुषों के मन को विशुद्ध परिणाम के कारण बन रहे हैं।

        उनके दर्शन कर चित्त अत्यंत प्रसन्न हुआ। प्रतिमाओं के दर्शन कर जो आनंद होता है उसे प्रायः सब ही आस्तिक जन लोग जानते हैं और नित्य प्रति उसका अनुभव भी करते हैं।

        अनंतर पर्वत के ऊपर श्री महावीर स्वामी के पद्मासन प्रतिबिम्ब को देखकर तो साक्षात श्रीवीरदर्शन का ही आनंद आ गया। ऐसी सुभग पद्मासन प्रतिमा मैंने तो आज तक नहीं देखी!

          तीन दिन तक इस क्षेत्र पर रहा और तीनों दिन श्री वीर प्रभु के दर्शन किए। मैंने वीर प्रभु से जो प्रार्थना की थी उसे आज के शब्दों में निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल ५ ?

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