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रेशन्दीगिरी व कुण्डलपुर - ३३


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

          जिनधर्म में अनुरक्त अंतःकरण वाले गणेश प्रसाद अपनी माँ व पत्नी के पास वापिस तो आ गए लेकिन उनका मन धर्म-ध्यान की क्रियाओं की ओर ही आकर्षित था। 

       पिछले प्रसंग से स्पष्ट होता है कि पूज्य वर्णी जी की स्थिति बहुत दीनता पूर्ण थी।

     उनकी आत्मा का धर्म-ध्यान के प्रति आकर्षण ही उनकी तीर्थवंदना आदि को प्रेरित कर रहा था जबकि गणेश प्रसाद को स्वयं ही मालूम नहीं था कि तीर्थवंदना आदि क्रियाओं का उनका उद्देश्य क्या है।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


          *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*


                     *क्रमांक - ३३*


               मैं दस रुपये लेकर बमराना से मड़ावरा आ गया। पाँच दिन रहकर माँ तथा स्त्री की अनुमती के बिना ही कुण्डलपुर की यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। मेरी यात्रा निरुद्देश्य थी। क्या करना, कुछ भी नहीं समझता था।

        'हे प्रभो ! आप ही संरक्षक हैं' ऐसा विचरता हुआ मड़ावरा से चौदह मील बरायठा नगर में आया। यहाँ जैनियों के साथ घर हैं। सुंदर उच्च स्थान पर जिनेन्द्र देव का मंदिर है। मंदिर के चारों ओर कोट है। कोट के बीच में ही छोटी सी धर्मशाला है। उसी में रात्रि में ठहर गया।

          यहाँ सेठ कमलापति जी बहुत ही प्रखर बुद्धि के मनुष्य हैं। आपका शास्त्र ज्ञान बहुत अच्छा है। उन्होंने मुझे बहुत आश्वासन दिया और समझाया कि तुम यहाँ ही रहो। मैं सब तरह से सहायता करूँगा।

        आजीविका की चिंता मत करो। अपनी माँ और पत्नी को बुला लो। साथ ही यह भी कहा कि मेरे सहवास से आपको शीघ्र ही जैनधर्म का बोध हो जाएगा। 

       मैंने कहा- 'अभी श्री कुण्डलपुर की यात्रा को जाता हूँ। यात्रा करके आ जाऊँगा।' सेठजी साहब ने कहा - 'आपकी इच्छा, परंतु निरूद्देश्य भ्रमण करना अच्छा नहीं है।'


? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
  ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ कृ. १३/१४?

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