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सेठ लक्ष्मीचंद जी - ३२


Abhishek Jain

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?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

             *"सेठ लक्ष्मीचंद जी"*

                    क्रमांक - ३२

               उन्होंने मुझसे कहा- 'आपका शुभागमन कैसे हुआ?' मैंने कहा- 'क्या कहूँ? मेरी दशा अत्यंत करुणामयी है। उसका दिग्दर्शन कराने से आपके चित्त में खिन्नता ही बढ़ेगी।

      प्राणियों ने जो अर्जन किया है उसका फल कौन भोगे? मेरी कथा सुनने की इच्छा छोड़ दीजिए। कुछ जैनधर्म का वर्णन कीजिए, जिससे शांति का लाभ हो।'

        आपने एक घण्टा आत्मधर्म का समीचीन रीति से विवेचन कर मेरे खिन्न चित्त को संतोष लाभ कराया। अनन्तर पूंछा- अब तो अपनी आत्मकथा सुना दो। 

         मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था, अतः सारी बातें न बता सका। केवल जाने की इच्छा जाहिर की। यह सुन श्री सेठ लक्ष्मीचंदजी ने बिना माँगे ही दस रुपया मुझे दिये और कहा आनंद से जाइये। साथ ही आश्वासन भी दिया कि कुछ व्यापार करने की इच्छा हो तो सौ या दो सौ की पूँजी लगा देंगे।

         पाठकगण, इतनी छोटी सी रकम से क्या व्यापार होगा, ऐसी आशंका न करें, क्योंकि उन दिनों दो-सौ में बारह मन घी और पाँच मन कपढ़ा आता था। तथा एक रुपये का एक मन गेहूँ, सवा मन चना, ढ़ेड़ मन जुवारी और दो मन कोदों बिकते थे। उस समय अन्नादि की व्यग्रता किसी को न थी। घर-२ दूध और घी का भरपूर संग्रह रहता था।

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?  ? आजकी तिथी- ज्येष्ठ कृष्ण १२ ?

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