रेशन्दीगिरी व कुण्डलपुर - ३४
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आत्मकथा की आज की प्रस्तुती में पूज्य वर्णीजी द्वारा रेशन्दीगिरी सिद्ध क्षेत्र की वंदना के समय अपनी अनुभूति का वर्णन है।
रुचिवान पाठक अवश्य ही वर्णीजी की अनुभूति के वर्णन को पढ़कर अपने अंदर भी आनंदानुभूति कर रहे होंगे।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*
*क्रमांक - ३४*
पूज्य वर्णी जी अपनी आत्मकथा में रेशन्दीगिरी तीर्थ की वंदना के समय अपने अनुभूति को व्यक्त करते हुए लिखते हैं।
रेशन्दीगिरी पर एक अत्यन्त मनोहर देवी का प्रतिबिम्ब देखा, जिसे देखकर प्राचीन सीलावटों की कर-कुशलता का अनुमान सहज में ही हो जाता था। ऐसी अनुपम मूर्ति इस समय के शिल्पकार निर्माण करने में समर्थ नहीं।
पश्चात मंदिरों के बिम्बों की भक्तिपूर्वक पूजा की। यह वही पर्वतराज है जहाँ श्री १००८ देवाधिदेव पार्श्वनाथ प्रभु का समवशरण आया था और वरदत्तादि पाँच ऋषिराजों ने निर्वाण प्राप्त किया था। रेशन्दीगिरि इसी का नाम है।
यहाँ पर चार या पाँच मंदिरों को छोड़ शेष सब मंदिर छोटे हैं। जिन्होंने निर्माण कराये वे अत्यंत रुचिमान थे, जो मंदिर तो मामूली बनवाये, पर प्रतिष्ठा कराने में पचासों हजार रुपये खर्च कर दिए।
यहाँ अगहन सुदी ग्यारस से पूर्णिमा तक मेला भरता है। जिसमें भारत भर के जैनियों का समारोह होता है। दस हजार तक जैनसमुदाय हो जाता है। यह साधारण मेला की बात है। रथ के समय तो पचास हजार तक की संख्या एकत्रित हो जाती है।
एक नाला भी है जिसमें सदा स्वच्छ जल बहता रहता है। चारों तरह सघन वन है। एक धर्मशाला है, जिसमें पाँचसौ आदमी ठहर सकते हैं। यह प्रान्त धर्मशाला बनाने में द्रव्य नहीं लगाता।
प्रतिष्ठा में लाखों रुपये रुपये व्यय हो जाते हैं। जो कराता है उसके पच्चीस हजार रुपये से कम खर्च नहीं होते। आगन्तुक महाशयों के आठ रुपया प्रति आदमीं के हिसाब से चार लाख हो जाते हैं। परंतु इन लोगों की दृष्टि धर्मशाला के निर्माण कराने की ओर नहीं जाती।
मेला या प्रतिष्ठा के समय यात्री अपने-अपने घर से डेरा या। झुंगी आदि लाते हैं और उन्ही में निवासकर पुण्य का संचय करते हैं। यहाँ पर अगहन मास मास में इतनी सरदी पड़ती है कि पानी जम जाता है। प्रातःकाल कँपकँपी लगने लगती है। ये कष्ट सहकर भी हजारों नर-नारी धर्मसाधन करने में कायरता नहीं करते। ऐसा निर्मल स्थान प्रायः भाग्य से ही मिलता है।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल ३ ?
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