खुरई में तीन दिन - ३०
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आत्मकथा की आज की प्रस्तुती से ज्ञात होगा कि वर्णी जी ने विद्धवान के अनुचित कथन के प्रतिउत्तर में ज्ञानार्जन की प्रतिज्ञा अवश्य की लेकिन उनके पास ज्ञानार्जन हेतु कोई साधन नहीं था।
पूज्य वर्णीजी की आत्मकथा को जैसे जैसे हम पढ़ते जाएँगे वैसे वैसे ज्ञात होता रहेगा कि कैसी कठिन परिस्थितयों में आगे बढ़ते हुए उन्होंने ज्ञानार्जन किया और अन्य लोगों को भी ज्ञानार्जन का मार्ग प्रशस्त किया।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"खुरई में तीन दिन"*
क्रमांक - ३०
मैं इस तरह पण्डितजी के ऊपर बहुत ही खिन्न हुआ। साथ ही प्रतिज्ञा की कि किसी तरह ज्ञानार्जन करना आवश्यक है।
प्रतिज्ञा तो कर ली, परंतु ज्ञानार्जन करने का कोई भी साधन न था। पास में न तो द्रव्य ही था और न किसी विद्धवान का समागम ही था।
कुछ उपाय नहीं सूझता था, रेवा के तट पर स्थित मृग जैसी दशा थी। रेवा नदी के तट पर एक बड़ा भारी पर्वत है, वहाँ पर असहाय एक मृग का बच्चा खड़ा हुआ है, उसके सामने रेवा नदी है और पर्वत भी।
दाएँ-बाएँ दावानल की ज्वाला धधक रही है, पीछे शिकारी हाथ में धनुष वाण लिए मारने को दौड़ रहा है। ऐसी हालात में वह हरिण का शावक विचार करता है कि कहाँ जावें और क्या करें।
उसी समय हमारी भी ठीक यही अवस्था थी। क्या करें, कुछ भी निर्णय नहीं कर सके। दो या तीन दिन खुरई में रहकर बनपुरया और वैद्य नंदकिशोरजी की इच्छानुसार मैं मड़ावरा अपनी माँ के पास चला गया। रास्ते में तीन दिन लगे। लज्जावश रात्रि को घर पहुँचा।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*? ? आजकी तिथी- ज्येष्ठ कृष्ण १० ?
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