?अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २५३
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जय जिनेन्द्र भाइयों,
परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागरजी महराज का सन् १९२७ में शिखरजी के लिए विहार का वर्णन किया जा रहा है। यदि आप इन प्रसंगों को रुचि पूर्वक पूर्ण रूप से पढ़ते है तो पूज्यश्री के प्रति श्रद्धा भाव के कारण आपको उनके संघ के साथ शिखरजी यात्रा में चलने का सुखद अनुभव होगा।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५३ ?
"अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति"
संघ में रहने वाले कहते थे, ऐसा आनंद, ऐसी सात्विक शांति, ऐसी भावों की विशुध्दता जीवन में कभी नहीं मिली, जैसे आचार्यश्री के संघ में सम्मलित होकर जाने में प्राप्त हुई।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान की सामग्री का दर्शन भी नहीं होता था। निरंतर धर्मध्यान ही होता था। शुभोपयोग की इससे बढ़िया सामग्री आज के युग में कहा मिल सकती है? वह रत्नत्रयधारियों तथा उपासकों का संघ रत्नत्रय की ज्योति को फैलता हुआ आगे बढता जाता था। संघ में सर्व प्रकार की प्रभावक उज्ज्वल सामग्री थी।
मनोज्ञ जिनबिम्ब, बहुमूल्य नयानभिराम रजत निर्मित तथा स्वर्णशिल्प सज्जित देदिप्तमान समवशरण आदि के दर्शनार्थ सर्वत्र ग्रामीण तथा इतर लोगों की बहुत भीड़ हो जाती थी।
हजारों व्यक्ति महराज को देखकर ही मस्तक को भूतल पर लगा प्रणाम करते थे। वे जानते थे- "ये नागाबाबा साधु परमहंस हैं। पूर्व जन्म की बड़ी कमाई के बिना इनका दर्शन नहीं होता है।" उन हजारों लाखों लोगों ने महराज के दर्शन द्वारा असीम पुण्य का बंध किया। बंध का कारण जीव का परिणाम होता है। पुण्य परिणामों से पुण्य का संचय होना जहाँ स्वाभाविक है, वहाँ पाप का संवर होता है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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