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?नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता - अमृत माँ जिनवाणी से - २३५


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            पूज्य पायसागरजी महराज के जीवन वृत्तांत के क्रम आज के प्रसंग में कल के प्रसंग के कुछ अंशों का पुनः समावेश प्रसंग को स्पष्ट बनाने हेतु किया गया है।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३५   ?


        "नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता"


             उस समय आचार्य महराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया कि तुम्हीं बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छः वर्ष बाद मैंने सन १९२९ में सोनागिरि में दिगम्बर मुनि की दीक्षा ली।

             उन्होंने कहा, "आचार्यश्री महान योगी थे। उनकी पावन दृष्टि से मुझ जैसे पतित आत्मा का जीवन पवन बन गया। उनकी अद्भुत शांत परणति, मृदुल एवं प्रिय वाणी से मेरे जीवन में आध्यात्मिक क्रांति हुई।

           मैंने कभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज में उग्रता या तीव्रकषाय का दर्शन नहीं किया। उनकी वाणी बड़ी मार्मिक होती थी। जिज्ञासु की विविध प्रश्नमलिकाओं का समाधान उनके एक ही उत्तर से हो जाता था।

            जीवन की उलझनों को सुलझाने की अपूर्व कला उनमें थी। लगभग २२ वर्ष से मैं गुरुदेव के चरणों के प्रत्यक्ष सानिध्य में नहीं हूँ। यधपि मैं उनके पाद-पद्मों की सर्वदा वंदना करता हुआ अंतर्दृष्टि द्वारा दर्शन करता रहता हूँ।

               जब मैं उनके संग में था,उस समय उनका शास्त्र-वाचन इतना अधिक नहीं हुआ था, किन्तु अपने निर्मल अनुभव के आधार पर वे जो बात कहते थे, उसकी समर्थक सामग्री शास्त्रों में मिल जाती थी। 

         इस प्रकार उनका अनुभव सत्य के स्वरूप का प्रतिपादन करता था। उनकी मुद्रा पर वैराग्य का भाव सर्वदा अंकित पाया जाता था। वे साम्यवाद के भंडार रहे हैं। उनमें भक्त पर तोष और शत्रु पर रोष नहीं पाया जाता था।

? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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