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?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन ५ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३४


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

        प्रतिदिन प्रसंग भेजने का उद्देश्य सभी के मन में अपने आचार्यों के जीवन चरित्र को जानने के हेतु रूची जाग्रत करना है। प्रस्तुत प्रसंग पूज्य शान्तिसागरजी महराज की जीवनी "चारित्र चक्रवर्ती" ग्रंथ से लिए जाते हैं। आप उस ग्रंथ का अध्यन करके क्रमबद्ध तरीके से शान्तिसागरजी महराज के उज्ज्वल चरित्र को जानने का लाभ ले सकते हैं।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३४   ?


 "मुनिश्री पायसागरजी का जीवन- प्रसंग- ५"


             आज का प्रसंग पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य मुनिश्री पायसागरजी महराज प्रतिदिन चल रहे जीवन वृत्तांत का संबंधित आगे का भाग है। उन्होंने बताया-

              उस समय मैंने कहा, "महराज ! मैं शेडवाल की पाठशाला में जाकर पढ़ना चाहता हूँ।" 

              उस समय सब को यह भय था कि यहाँ से जाकर यह फिर कभी अपनी सूरत नहीं दिखाएगा। उस समय मेरी जमानत बालगौड़ा ने ली। वहाँ से चलकर शेरोल ग्राम में रहा और रत्नकरण्डश्रावकाचार पढ़ना प्रारम्भ किया।

              मेरा अन्य शास्त्रों का पूरा-२ अभ्यास था ही। इससे तुलना करते हुए पढ़ने से शास्त्र के भावों को समझने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। मैं रात्रि को अभ्यास करता था और दिन में व्याख्यान देता था। मेरे उपदेश में बहुत लोग आने लगे।

             कुछ समय के बाद रुड़की के पंचकल्याणक महोत्सव में आचार्य महराज पहुँचे व मैं भी वहाँ आ गया। मुझे देखकर महराज ने पूंछा, "क्या सब कुछ पढ़कर आ गए? मैंने नम्रता पूर्वक कहा, "हाँ पढ़ आया।

               साथ के सभी त्यागी लोग हँस पड़े। मेरा जीवन सबके लिए पहले सरीखा था। जो मेरे पूर्व जीवन से परिचित था वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि मेरे जैसे विषयान्ध का जीवन भी इसी आध्यात्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा।

             उस समय महोत्सव में चंदसागरजी भाषण हुआ। इसके बाद मैंने उपदेश दिया, जिससे जनता मेरी ओर आकर्षित हुई।


     ?नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता?


                उस समय आचार्य महराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया कि तुम्हीं बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छः वर्ष बाद मैंने सन १९२९ में सोनागिरि में दिगम्बर मुनि की दीक्षा ली।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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