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?आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य - अमृत माँ जिनवाणी से - २३३


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सुयोग्य शिष्य मुनि श्री पायसागर जी महराज के अद्भुत जीवन प्रसंग के वर्णन की श्रृंखला में आज चौथा दिन है। प्रतिदिन प्रसंग के  आकार का निर्धारण मुख्य रूप से मेरे द्वारा प्रसंग टाइप करने की सुविधा तथा गौड़रूप से प्रसंग प्रस्तुती हेतु मनोविज्ञान पर आधारित होता है। प्रसंग अक्षरशः चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ से प्रस्तुत किए जा रहे हैं। 

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३३   ?


       "आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य"


        मैंने शान्तिसागरजी महराज का जीवन बड़ी सूक्ष्मता के साथ अध्यन किया। उठते-बैठते, बोलते-चलते, उनकी सारी प्रवृत्तियों की बारीकी से जाँच की। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मुझ आध्यात्मिक अंधे को सचमुच में नेत्रों की उपलब्धि हो गई हो।

          मेरा मन उनके चरण-कमलों की सुवास छोड़कर अन्यत्र निवास करना नहीं चाहता था। मैंने उनसे मद्य, मांस तथा मधु के सेवन के त्याग का नियम लिया। हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्री सेवन व अतिलोभ का त्याग किया तथा जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की प्रतिज्ञा की।


?एक माह में सप्तम प्रतिमा और दूसरे 
                 में ऐलक दीक्षा ली?


           मेरी आत्मा पर इतना प्रभाव पड़ा कि मुझ जैसे स्वछन्द तथा उद्दण्ड व्यक्ति ने आजीवन ब्रम्हचर्य का नियम ले लिया। अब मै सप्तमप्रतिमा धारी ब्रम्हचारी बन गया। 

          सभी लोग मेरा तीव्र विरोध करते थे और महराज से कहते थे, "यह बड़ा व्यसनी तथा उदण्ड रहा है। यह फौजदार तक को मार देता है। यह अवगुणों का भंडार है। इसमें एक ही विशेषता है कि जिस बात को पकड़ लेता है उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ता।"

      आचार्य महराज महान मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से मेरे प्रसुप्त समर्थ को देख लिया, इसलिए मुझे व्रत देने में लोगों के विरोध की और ध्यान नहीं दिया।

          दूसरे माह में मैंने ऐलक दीक्षा माँगी और महराज ने मुझे कृतार्थ कर दिया। उस समय मैंने केशलौंच जंगल में किये थे। मेरी स्थिरता देखकर महराज को निश्चय हो गया कि यह व्रतों का पूर्णतः पालन कर सकेगा। 

         उस समय चंद्रसागरजी ने मुझ पर आक्षेप किया और महराज से कहा कि, "इसे प्रतिमाओं का स्वरूप भी नहीं मालूम है, यह ऐलक पद का निर्वाह करेगा?"


क्रमशः...........

? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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