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?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन २ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३२


Abhishek Jain

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☀☀
जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            पिछले दो प्रसंगों से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र का हम सभी अवलोकन कर रहें हैं। इन प्रसंगों को आप अवश्य पढ़ें और दूसरों को भी प्रेरणा दें यह जानने की। क्योंकि यह प्रसंग कई लोगों का जीवन ही बदल सकते हैं।

             यह पूरी जैन समाज और मानव समाज के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है कि हमें बुराई के रास्ता तय करने वाले लोगों को सर्वतः हेय नहीं समझना चाहिए। योग्य निमित्त पाकर उनमें भी अपना जीवन बहुत स्वच्छ बनाने की संभावना अवश्य होती है।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३२   ?


मुनि पायसागरजी का अद्भुत जीवन चरित्र-२

     
 "महराज के प्रथम दर्शन का अपूर्व प्रभाव"


           पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागर के पूर्व जीवन के बारे में उन्होंने आगे बताया कि-

           सुयोग की बात है। उग्र तपस्वी दिगम्बर श्रमणराज आचार्य शान्तिसागर महराज का कोन्नूर आना हुआ। उस समय मै साइकिल हाथ में लिए उनके पास से बना ठना निकला। सैकड़ों जैनी उन मुनिराज को प्रणाम कर रहे थे। मैं वहाँ एक कौने में खड़ा हो गया। मेरी दृष्टि उन पर पड़ी। मैंने उनको ह्रदय से प्रणाम नहीं किया, नाम मात्र के दोनो हाथ जोड़ लिए थे।

            उस समय कुछ बंधुओं ने महराज से मेरे विषय में कहा, "महराज ये जैन कुलोत्पन्न है। महान व्यसनी है। इसे धर्म कर्म कुछ नहीं सुहाता है।"

       ?बलवान आकर्षण शक्ति?

     
            मेरी निंदा महराज के कानों में पहुँची, किन्तु उनके मुख मंडल पर पूर्ण शांति थी। नेत्रों में मेरे प्रति करुणा थी और बलवान आकर्षण शक्ति थी। महराज ने लोगों को शांत किया उनके मुख से ये शब्द निकले, "इसने आज हमारे दर्शन किये हैं, इसलिए इसे कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा।"

             मैं उनका मुखमंडल को ध्यान से टक टकी लगाकर देख रहा था। मुझे वे सचमुच शांति के सागर दिखे।

            मैंने भारतभर घूम-२ कर बड़े-२ नामधारी साधु देखे थे। मुझे ऐसा लगा कि आज सचमुच में साधु के रूप में अपूर्व निधि मिली। मैंने उन्हें आध्यात्मिक जादूगर के रूप में देखा। मेरे मन में आंतरिक वैराग्य का बीज पहले से ही था। उनके संपर्क ने उसमें प्राण डाल दिए।

क्रमशः.............

? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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