?वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव - अमृत माँ जिनवाणी से - २२७
? अमृत माँ जिनवाणी से - २२७ ?
"वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव"
एक बार की बात है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज वृत्ति परिसंख्यान तप की बड़ी कठिन प्रतिज्ञाएँ लेते थे, और पुण्योदय से उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति होती थी।
एक दिन महराज ने प्रतिज्ञा की थी कि आहार के लिए जाते समय यदि तत्काल प्रसूत बछड़े के साथ गाय मिलेगी तो आहार लेंगे। यह प्रतिज्ञा उन्होंने मन के भीतर ही की थी और किसी को इसका पता नहीं था। अंतराय का योग नहीं होने से ऐसा योग तत्काल मिल गया और महराज का आहार निरंतराय हो गया।
लगभग सन् १९३० के शीतकाल में आचार्यश्री ग्वालियर पहुँचे। जोरदार ठंड पड़ रही थी। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि गीले वस्त्र पहनकर कोई पड़गाहेगा तो आहार लेंगे, अन्यथा नहीं। लश्कर में अनेक गुरुभक्त द्वारापेक्षण को खड़े थे। कहीं भी योग न मिला।
महराज ने घरों के सामने दो बार गमन किया। लोगों ने निराश होकर सोचा, आज योग नहीं है। लोगों के वस्त्र अन्यों के स्पर्श से अशुद्ध हो गए। एकदम महराज तीसरी बार लौट पड़े। एक श्रावक ने तत्काल पानी डालकर वस्त्र गीले किये और पड़गाहा। विधि मिल जाने से उनका आहार हो गया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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