?कांजी चर्चा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२६
? अमृत माँ जिनवाणी से - २२६ ?
"कानजी चर्चा"
एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया- "गिरिनारजी की यात्रा से लौटते समय कानजी हमको दूर तक लेने गए। सोनगढ़ में आकर हमने कानजी से एक प्रश्न किया- "इस दिगम्बर धर्म में तुमने क्या देखा? और तुम्हारे धर्म में क्या बुरा था?"
इस प्रश्न के उत्तर में कानजी ने कुछ नहीं कहा। बहुत देर तक मुख से एक शब्द तक नहीं कहा। इस पर आचार्यश्री ने कानजी से कहा- "हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं। हमे तुम्हारा भाव जानना है।"
इसके पश्चात क्या हुआ, उसे महराज ने इस प्रकार बताया- "कांजी ने पूंछा "महराज समयसार की एक गाथा में कहा है कि नव पदार्थ भूतार्थ हैं, यह गाथा प्रक्षिप्त मालूम पड़ती है; क्योंकि जीव पदार्थ ही भूतार्थ हो सकता है?"
इसके बाद सामायिक का समय आ जाने से महराज उठ गए। प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ। महराज ने कहा "सामायिक के समय मन स्थिर रहता है। उस समय हम विचार करते हैं। सामायिक के बाद महराज ने पूर्वापर प्रसंग की गाथाएँ देखी, फिर कहा-
"अज्ञानी किसान को भी सम्यक्त्व खोजना है उसे सम्यक्त्व कहाँ मिलेगा? जीव में मिलेगा, यही उत्तर होगा।
पुनः प्रश्न होगा, जीव कहाँ मिलेगा? इसका उत्तर होगा कि जीव नव पदार्थों में मिलेगा। जीव का संबंध आश्रव, बंध, संवर आदि के साथ है। जीव इकाई के समान है शेष सब उसके साथ शून्य के समान हैं। इससे समयसार की गाथा प्रतिक्षिप्त नहीं हो सकती है।"
महराज ने एक उदाहरण दिया था- "ज्वारी के ढेर में किसी का मोती गिर गया। वह ज्वार के समस्त दानों को देखता है। उसमें से मोती प्राप्त हो जाने पर वह उन ज्वार के दानों को फिर नहीं देखता है।
इसी प्रकार जीव का आत्मा आश्रवादि में खो गया है। वह गुणस्थान, मार्गणा स्थानों में खोजता फिरता है। वह आत्मरत्न के प्राप्त होते ही वह खोज को बंद करके स्वरूप का रसपान करता है।"
महराज के इस विवेचन को सुनकर कानजी चुप हो गए। इस प्रबल तर्क के विरुद्ध क्या कहा जा सकता था? उस समय स्व. आचार्य धर्मसागर जी भी विद्यमान थे। ब्र. जिनदासजी समडोलीकर भी थे। महराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रथ का ?
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