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?शिथिलाचारी साधुओं के प्रति आचार्यश्री का अभिमत - अमृत माँ जिनवाणी से - २१७


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१७   ?


   "शिथिलाचारी साधु के प्रति आचार्यश्री 
                    का अभिमत"

    
         मैंने एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूंछा- "शिथिलाचरण करने वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार रखना चाहिए?"

       महराज ने कहा- "ऐसे साधु को एकांत में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना चाहिए।"

      मैंने पूंछा- "समझाने पर भी यदि उस व्यक्ति की प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्तव्य है? पत्रों में उसके संबंध में समाचार छपना चाहिए की नहीं?

        महराज ने कहा- "समझाने से भी काम न चले, तो उसकी अपेक्षा करो, उपगूहन अंग का पालन करो, पत्रों में चर्चा करने से धर्म की हँसी होने के साथ-साथ मार्गस्त साधुओं के लिए भी अज्ञानी लोगों द्वारा बाधा उपस्थित की जाती है।"

       महराज ने कहा कि "मुनि अत्यंत निरपराधी है। मुनि के विरुद्ध दोष लगने का भयंकर दुष्परिणाम होता है, श्रेणिक की नरकायु का कारण निरपराध मुनि के गले में सर्प डाला जाना था। अतः सम्यकदृष्टि श्रावक विवेक पूर्वक स्थितिकरण, उपगूहन वात्सल्य अंग का विशेष ध्यान कर सार्वजनिक पत्रों में चर्चा नहीं चलाएगा।"


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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