?जनकल्याण - अमृत माँ जिनवाणी से - २१३
? अमृत माँ जिनवाणी से - २१३ ?
"जनकल्याण"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपना लोककल्याण का उदार दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए एक बार कहा, "हमें अपनी तनिक भी चिंता नहीं है। जगत के जीवों का कैसे हित हो, यह विचार बार-बार मन में आया करता है। जगत के कल्याण का चिंतन करने से तीर्थंकर का पद प्राप्त होता है।"
यदि करुणा का भाव नहीं तो क्षायिक सम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। उपशम, क्षयोपशम सम्यक्त्व में भी वह नहीं होगा।
अंत में व्रत प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए आचार्य महराज ने अपनी प्राणपूर्ण मंगलवाणी को विराम देते हुए कहा, "केलं पाहिजे, व्रत बरोबर टिकणार (व्रताचरण करना चाहिए, व्रत अवश्य बने रहेंगे)।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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