?सच्चा आध्यात्मवाद - अमृत माँ जिनवाणी से - १५८
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
प्रस्तुत प्रसंग, हम सभी श्रावकों अपने जीवन के सार्थकता हेतु आत्मध्यान के बारे में बताता है।
एक लंबे समय से प्रसंगों की श्रृंखला के माध्यम से हम सभी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र का दर्शन इस अनुभिति के साथ कर रहे हैं कि उनके जीवन को हम नजदीक से ही देख रहे हों।
आज के आत्मध्यान के पूज्यश्री के उपदेश के प्रसंग को इन्ही भावों के साथ हम सभी आत्मसात करें जैसे पूज्य शान्तिसागरजी महराज प्रत्यक्ष में हमारे कल्याण के लिए ही यह उपदेश दे रहे हों।
? अमृत माँ जिनवाणी से - १५८ ?
"सच्चा आध्यात्मवाद"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने उपदेश के दौरान इस प्रश्न "गृहस्थ क्या करें?" के उत्तर में बताया कि-
प्रतिदिन आत्मा का चिंतन करो। कम से कम दो घड़ी मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से सवद्य दोष का परित्याग करो। इस शरीर में तिल में तेलवत सर्वत्र आत्मा है। कोन-सा भाग ख़ाली है?
राजपुत्रों द्वारा विद्या प्राप्ति के लिए किए गए उद्योग सदृश पहले आत्मा का ध्यान करो। इसमे मुनि की मुद्रा अंतिम वेश है। आरम्भ, मोह, कषाय के क्षयार्थ यह वेष आवश्यक है।
जो इस मुद्रा को धारण नहीं कर सकते, वे गृहस्थ होते हुए आत्मा का ध्यान कर निर्जरा कर सकते हैं।
चोबीस घंटे में कम से कम पन्द्रह मिनिट पर्यन्त आत्मा का ध्यान करो। इससे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। पूज्यश्री ने कहा इस आत्मा का ध्यान ना करने से तुम अनंत संसार में फिरते रहे। इसके सिवाय मोक्ष का दूसरा उपाय नहीं है, ऐसा भगवान ने कहा है। इससे अविनाशी, सुखपूर्ण, मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मा का ध्यान अवश्य करना चाहिए।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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