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?मंगलमय भाषण की विशेष बात - अमृत माँ जिनवाणी से - १५७


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            प्रस्तुत प्रसंग में लेखक द्वारा सल्लेखनारत पूज्य शान्तिसागर महराज के साधना के अंतिम दिनों में उपदेशों को चिरकाल के लिए संरक्षित किए जाने के लिए, किए जाने वाले प्रयासों का मार्मिक उल्लेख किया है।

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १५७   ?


         "मंगलमय भाषण की विशेष बात"


              ८ सितम्बर सन् १९५५ को सल्लेखनारत पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महराज का २६ वें दिन जो मंगलमय भाषण रिकार्ड हो सका, इसकी भी अद्भुत कथा है। नेता बनने वाले लोग कहते थे, अब समय चला गया। महराज इतने अशक्त हो गए हैं कि उनकी वाणी का रिकार्ड तैयार करना असंभव है।

    मैंने कहा- "सचमुच में उपदेश नहीं मिलेगा, ऐसा ९९ प्रतिशत समझकर भी यंत्र को लाना चाहिए। शायद एक प्रतिशत भी संभावना सत्य हो जाए।"

    कुछ भाइयों के प्रयत्न से रिकार्ड की मशीन लेकर इंजीनियर आ गया। उस समय महराज के पास पं. मख्खनलालजी मुरैना और मै पहुँचे। उनसे कुछ थोड़े से शब्दों से सारपूर्ण बात कहने की प्रार्थना की।

     उस समय महराज के थके शरीर से ये शब्द निकले- "अरे ! पहले लाये होते, तो दसों उपदेश दे देते।" इन शब्दों का क्या उत्तर था? मस्तक लज्जा से नत था। सचमुच में ऐसी भूल का क्या इलाज हो सकता है। धर्म प्रभावना के महत्वपूर्ण कार्यों में ऐसी अज्ञानतापूर्ण चेष्टाएँ हुआ करती हैं।

        मन में आया- 'देखो ! पूज्यश्री की जयंती मनाने में, उनके लिए गजट का विशेषांक निकालने में धार्मिक संस्था जैन महासभा ने पैसे को पानी मानकर खर्च किया, किन्तु इस दिशा में जगाए जाने पर भी समर्थ भक्तों के नेत्र न खुले। यथार्थ में देखा जाए तो इसमें दोष किसी किसी का नहीं है। जब दुर्भाग्य का उदय आता है, तब हितकारी और आवश्यक बातों की तरफ ध्यान नहीं जाता है।'


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  

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