?जन्मभूमि में भी वंदित - अमृत माँ जिनवाणी से - २०७
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०७ ?
"जन्मभूमि में भी वंदित"
कल के प्रसंग में हमने देखा की गृहस्थ जीवन से ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज की विशेष सत्यनिष्ठा के कारण कितनी मान्यता थी।
इस सत्यनिष्ठा, पुण्य-जीवन आदि के कारण भोजवासी इनको अपने अंतःकरण का देवता सा समझा करते थे। इनके प्रति जनता का अपार अनुराग तब ज्ञात हुआ, जब इस मनस्वी सत्पुरुष ने मुनि बनने की भावना से भोज भूमि की जनता को छोड़ा था।
आज भी भोज के पुराने लोग इनकी गौरव गाथा को कहते हुए बताते हैं, "हमारे यहाँ का सूर्य चला गया।" जगत पूज्य व्यक्ति भी अपने स्थान में वंदित नहीं होता, ऐसीसूक्ति है। किन्तु सर्वत्र यह नियम नहीं देखा जाता। ये प्रकृति सिद्ध महात्मा उस लोकोक्ति के बंधन से विमुक्त थे, कारण इनकी जन्मभूमि की जनता इनको देवता तुल्य, पूज्य तथा वंदनीय मानती थी।
अंग्रेजी की प्रसिद्ध कहावत है कि "अपनी जन्मभूमि तथा अपने घर को छोड़कर सर्वत्र पैगम्बर पूजा जाता है।" आचार्यश्री के जीवन में यह बात नहीं थी। वे छोटे से कुटुम्ब तथा स्नेहीजनों का साथ छोड़कर जगत भर के प्रति मैत्री की भावना धारण कर, जब विश्वबंधु बनने गए, उस समय भोजग्राम तथा आसपास के हजारों व्यक्ति इस प्रकार रोये थे, मानो उनका सगा बंधु ही जा रहा हो।
यह इस बात का द्योतक कि पूज्यश्री का जीवन प्रारम्भ से ही असाधारण तथा सद्गुणों का निकेतन रहा है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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