?लौकिक जीवन भी प्रमाणिक जीवन था - अमृत माँ जिनवाणी से - २०४
? अमृत माँ जिनवाणी से - २०४ ?
"लौकिक जीवन भी प्रामाणिक जीवन था"
पूज्य शांतिसागरजी महराज का गृहस्थ अवस्था में लौकिक जीवन वास्तव में अलौकिक था। लोग लेन-देन के व्यवहार में इनके वचनों को अत्यधिक प्रामाणिक मानते थे। इनकी वाणी रजिस्ट्री किए गए सरकारी कागजातों के समान विश्वसनीय मानी जाती थी। इनके सच्चे व्यवहार पर वहाँ के तथा दूर-दूर के लोग अत्यंत मुग्ध थे।
?खेती के विषय में चर्चा?
मैंने पूंछा "महराज ! हिन्दी भाषा के प्राचीन पंडितों ने लिखा है कि श्रावक को खेती नहीं करनी चाहिए, उसे सोना, चाँदी, माणिक, मोती आदि का व्यापार करना चाहिए। क्या जैन धर्म में गरीबों का कोई ठिकाना नहीं? खेती आदि का व्यवसाय तो राष्ट्र का जीवन है।
पूज्य शान्तिसागरजी महराज बोले "खेती का हमें स्वयं अनुभव है, उसमें परिणाम जितने सरल रहते हैं, उतने अन्य व्यवसाह में नहीं रहते हैं। अन्य धंधों में बगुले की तरह ध्यान रहता है, दुकानदार चुप बैठा रहता है, किन्तु उसका ध्यान सदा ग्राहक की ओर लगा रहता है। ग्राहक दिखा कि वह उसके पीछे लगा।
इन धंधों में हजारों प्रकार का मायाचार होता है। गृहस्थ गद्दी पर चुपचाप बैठे हुए ग्राहक का ध्यान करता है। बड़ी बड़ी गद्दी वाले हजारों लोग मायाचार पूर्वक धन को लेते हैं। सोना चाँदी के व्यापार में भी ऐसे ही भाव रहते हैं।"
खेती के विषय में कुंदकुंद स्वामी रचित कुरल काव्य का कथन बड़ा महत्वपूर्ण है, उसमें कृषि के महत्व पर बड़ी मार्मिक बात कही गई है-
उनका जीवन सत्य जो,
करते कृषि उद्योग।
और कमाई अन्य की,
खाते बाकि लोग।।
निज कर को यदि खीच ले,
कृषि से कृषक समाज।
गृह त्यागी अरु साधु के,
टूटे सिर पर गाज।।
जोतो नान्दो खेत को,
खाद बड़ा परतत्व।
सींचे से रक्षा उचित,
रखती अधिक महत्व।।
पाप का कारण मनोवृत्ति है, न कि द्रव्य हिंसा। आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलक महाकाव्य में लिखा है-
"परिणाम विशेष वश जीव का घात न करता हुआ धीवर पाप का बंध करता है, किन्तु किसान कृषि में जीव घात होते हुए भी प्राणघाती मनोंवृत्ति न धारण करने के कारण धीवर के समान पाप को नहीं प्राप्त करता है।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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