?मुनि भक्ति व निष्पृह जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १८४
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग के माध्यम से आप पूज्य शान्तिसागरजी महराज की गृहस्थ जीवन से ही अद्भुत निस्पृहता को जानकर, निश्चित ही सोचेंगे कि यह लक्षण किसी सामान्य आत्मा के नहीं अपितु जन्म-जन्मान्तर से आत्म कल्याण हेतु साधना करने वाली भव्य आत्मा के ही हैं।
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८४ ?
"मुनिभक्ति व निस्प्रह जीवन"
मुनियों पर सातगौड़ा की बड़ी भक्ति रहती थी। एक मुनिराज को वे अपने कंधे पर बैठाकर वेदगंगा तथा दूधगंगा के संगम के पार ले जाया करते थे।
वे रात्री दिवस शास्त्र पढ़ने में तत्पर रहते थे। एक बार बांच लेने पर अमुक ग्रंथ में अमुक बात लिखी है, ऐसा वे अपनी स्मृति के बल पर बोलते थे।
लेन-देन, व्यापार आदि में वे पूर्ण विरक्त थे। छोटा भाई कुमगोड़ा कपड़े की दुकान पर बैठता था। जब वह बाहर चला जाता था, तब वह तकिया छोड़कर बैठे रहते थे। लोग आकर पूँछते, कुमगौड़ा कुठे गेला सातगौड़ा?
तब वे कहते थे कि वह बाहर गया है। यदि कपड़ा लेना है तो अपने मन से चुन लो, अपने हाँथ से नापकर कपड़ा फाड़ लो और बही में अपने हाँथ से लिख दो। इस प्रकार की उनकी निस्पृहता थी। वे कुटुम्ब के झंझटों में नहीं पढ़ते थे।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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