विचारपूर्ण प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ९४
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९४ ?
"विचारपूर्ण प्रवृत्ति"
बात उस समय की है जब आचार्य महाराज का कवलाना में दूसरी बार चातुर्मास हो रहा था। अन्य परित्याग के कारण उनका शरीर बहुत आशक्त हो गया था। उस समय उनकी देहस्थिति चिन्ताप्रद होती जा रही थी। एक दिन महाराज आहार के लिए नहीं निकल रहे थे। मै उनके चरणों में पहुँचा।
महाराज बोले- "आज हमारा इरादा आहार लेने का नहीं हो रहा है।"
मैंने प्रार्थना की- "महाराज ! ऐसा न कीजिए। शरीर कमजोर है। चर्या को अवश्य निकलिए। यदि शरीर को थोडा जल भी मिल जायेगा, तो ठीक रहेगा। यह शरीर रत्नत्रय साधन में सहायता देता है, इसलिए इसके रक्षण का उचित ध्यान आवश्यक है।"
मेरे आग्रह करने पर महाराज ने विचार बदल दिया और क्षण भर में वे चर्या को निकल गये थे। कुंद-कुंद स्वामी ने रयणसार में कहा है:
शरीर अनेक दुखों का भण्डार है। कर्मबंध का कारण है, आत्मा से भिन्न है। उस शरीर का साधु धर्मानुष्ठान का निमित्त कारण होने से इसे आहार ग्रहण द्वारा पोषण प्रदान करते है।
इस आगम के प्रकाश में क्षीण शरीर आचार्य महाराज का आहार हेतु जाना पूर्णतया उपयुक्त था।
? छठवाँ दिन - १९ अगस्त १९५५ ?
आचार्यश्री ने आज भी जल ग्रहण नहीं किया व् सारा समय आत्म चिंतन, मनन एवं ध्यान में व्यतीत किया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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