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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. admin
    पूर्व दिशा सम माँ कहलाती, जीवन अपना धन्य बनाती।
    माँ का दूजा नाम बताओ, त्रिशला वीर प्रभु को ध्याओ॥
  2. admin
    समवशरण में प्रभु को पाया, शीश नवाया संयम पाया।
    आयां व्रत वे कोन हैं धारे, वर्धमान से रिश्ता पाले। 
  3. admin
    वीर प्रभु को गर्भ में आना, इन्द्र ने अपने ज्ञान से जाना। 
    रत्न कहाँ पर है बरसाना, कुबेर को है ज्ञात कराना॥ 
  4. admin
    वीर प्रभु ने जन्म है पाया, भव्यों का है भाग्य जगाया। ।
    दादा-दादी का नाम बताओ, महावीर सम सब बन जाओ॥
  5. admin
    देव-देवियाँ स्वर्ग से आते, क्षीर सिन्धु का जल हैं लाते।।
    प्रभु अभिषेक कहाँ वे करायें, वीर प्रभु जी खुशी मनायें। 11.
  6. admin
    वर्द्धमान ने जन्म है पाया, देवों ने जयकार लगाया।
    महल कौन-सा कौन बताए, कुण्डलगिरी में दर्शन पाए।
  7. admin
    23. सोलह सपने माता देखे, उन्नत गज है हर्ष विशेखे। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    24. बैल स्वप्न में माँ के आया, शभ लक्षण है गर्भ कहाया। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    25.  सिंह स्वप्न में माँ के आया, शुभ लक्षण है गर्भ कहाया।
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    26.  लक्ष्मी का अभिषेक कराएं, हस्ति देखो स्वप्न में आएं। 
    फल है इसका कौन बताएं, वीर प्रभु को शीश नवाएं।
     
    27. पुष्प सुगंधित दो मालाएं, स्वप्न में माता के है आएं। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।।
     
    28 पूर्ण चन्द्रमा मन को भाता, अंधकार को दूर भगाता। 
    स्वप्न में देखे त्रिशलारानी,स्वज के फल की कहो कहानी।।
     
    29. उदयाचल पर्वत पर भारी, सूर्य दिखा जो संकटहारी। 
    स्वप्न में देखे त्रिशलारानी, कहे कौन शुभ फल की वाणी।।
     
    30. स्वर्ण कलश दो स्वप्न में आए, जल से भरे सदा मन भाए।
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
     31.मत्स्य युगल तालाब में भाई, स्वप्न में देखे प्रभ सखदाई। 
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    32. जल से भरा सरोवर भाई , स्वप्न में देखे माँ सहाई।
    फल है इसका कौन बताए, वीर प्रभु को शीश नवाए।
     
    33. जोरदार गर्जन है करता, सागर जल जो तरंग धरता।
    स्वप्न में देखे त्रिशला माई, कौन-सा फल है बताओ भाई ।।
     
    34. सिंहासन सपने में आया, माँ त्रिशला का मन हर्षाया।
    स्वप्न का फल है कौन बताये, सही बताकर इनाम पाये।
     
    35. स्वर्ग लोक का विमान भाई, स्वप्न में देखे माँ सुखदाई।
    फल है इसका कौन बताए, सही बताकर इनाम पाए।
  8. admin
    दिव्यध्वनि जो दुख को हरती, वीर प्रभु के मुख से खिरती।
    प्रथम देशना सबने पाई, तिथी कौन-सी बताओ भाई ।।
  9. admin
    वीर प्रभु ने कर्म नशाया, श्री अरिहन्त का पद है पाया।
    यक्ष-यक्षिणी कौन बताए, जिनशासन की शान बढ़ाए।
  10. admin
    घोर-घोर उपसर्ग है कीना, प्रभु डिगे न ध्यान में लीना।
    बैरी कौन वो नाम बताएं, वीर प्रभु सम हम बन जाएं।
  11. admin
    केवलज्ञान प्रभु ने पाया, समवशरण भी इन्द्र रचाया।
    मौन रहे प्रभु वीर न बोले, कितने दिन तक मुख न खोले।
     
  12. admin
    14. नाम 'सन्मति' प्रभु ने पाया, सच्चा पथ है हमें बताया।
    मुनिवर कौन वे ऋद्धिधारी, कर्म सैन्य भी जिनसे हारी।।
     
  13. admin
    जय जिनेन्द्र 
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  14. admin

    आराधना कथाकोश प्रथम खंड
    पात्रकेसरी आचार्य ने सम्यग्दर्शन का उद्योत किया था । उनका चरित मैं कहता हूँ, वह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कारण है ॥१६॥
    भगवान् के पंचकल्याणकों से पवित्र और सब जीवों को सुख के देने वाले इस भारतवर्ष में एक मगध नाम का देश है । वह संसार के श्रेष्ठ वैभव का स्थान है। उसके अन्तर्गत एक अहिछत्र नाम का सुन्दर शहर है। उसकी सुन्दरता संसार को चकित करने वाली है ॥१७-१८॥
    नगरवासियों के पुण्य से उसका अवनिपाल नाम का राजा बड़ा गुणी था, सब राजविद्याओं का पण्डित था। अपने राज्य का पालन वह अच्छी नीति के साथ करता था । उनके पास पाँच सौ अच्छे विद्वान् ब्राह्मण थे । वे वेद और वेदांग के जानकार थे । राजकार्य में वे अवनिपाल को अच्छी सहायता देते थे। उनमें एक अवगुण था, वह यह कि उन्हें अपने कुल का बड़ा घमण्ड था। उससे वे सबको नीची दृष्टि से देखा करते थे । वे प्रातःकाल और सायंकाल नियमपूर्वक अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करते थे। उनमें एक विशेष बात थी, वह यह कि वे जब राजकार्य करने को राजसभा में जाते, तब उसके पहले कौतूहल से पार्श्वनाथ जिनालय में श्रीपार्श्वनाथ की पवित्र प्रतिमा का दर्शन कर जाया करते थे ॥१९-२१॥ 
    एक दिन की बात है कि वे जब अपना सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म करके जिनमन्दिर में आए तब उन्होंने एक चारित्रभूषण नाम के मुनिराज को भगवान् के सम्मुख देवागम नाम का स्तोत्र का पाठ करते देखा। उन सबमें प्रधान पात्रकेसरी ने मुनि से पूछा- क्या आप इस स्तोत्र का अर्थ भी जानते हैं? सुनकर मुनि बोले-मैं इसका अर्थ नहीं जानता। पात्रकेसरी फिर बोले- साधुराज, इस स्तोत्र को फिर तो एक बार पढ़ जाइए। मुनिराज ने पात्रकेसरी के कहे अनुसार धीरे-धीरे और पदान्त में विश्रामपूर्वक फिर देवागम को पढ़ा, उसे सुनकर लोगों का चित्त बड़ा प्रसन्न होता था ॥२२-२६॥
    पात्रकेसरी की धारणाशक्ति बड़ी विलक्षण थी । उन्हें एक बार के सुनने से ही सबका सब याद हो जाता था। देवागम को भी सुनते ही उन्होंने याद कर लिया। जब वे उसका अर्थ विचारने लगे, उस समय दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें यह निश्चय हो गया कि जिन भगवान् ने जो जीवादिक पदार्थों का स्वरूप कहा है, वही सत्य है और अतिरिक्त सत्य नहीं है । इसके बाद वे घर पर जाकर वस्तु का स्वरूप विचारने लगे। सब दिन उनका उसी तत्त्वविचार में बीता । रात को भी उनका यही हाल रहा। उन्होंने विचार किया - जैनधर्म में जीवादिक पदार्थों को प्रमेय - जानने योग्य माना है और तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना है। पर क्या आश्चर्य है कि अनुमान प्रमाण का लक्षण कहा ही नहीं गया, यह क्यों? जैनधर्म के पदार्थों में उन्हें कुछ सन्देह हुआ, उससे उनका चित्त व्यग्र हो उठा।
    इतने ही में पद्मावती देवी का आसन कम्पायमान हुआ। वह उसी समय वहाँ आई और पात्रकेसरी से उसने कहा-आपको जैनधर्म के पदार्थों में कुछ सन्देह हुआ है, पर इसकी आप चिन्ता न करें। आप प्रातःकाल जब जिन भगवान् के दर्शन करने को जायेंगे तब आपका सब सन्देह मिटकर आपको अनुमान प्रमाण का निश्चय हो जायेगा। पात्रकेसरी से इस प्रकार कहकर पद्मावती जिनमन्दिर गई और वहाँ पार्श्वजिन की प्रतिमा के फण पर एक श्लोक लिखकर वह अपने स्थान पर चली गई, वह श्लोक यह था ॥२७-३६॥
    'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्॥" 
    अर्थात्-जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ हेतु के दूसरे तीन रूप मानने से क्या प्रयोजन है? तथा जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ हेतु के तीन रूप मानने से भी क्या फल है? भावार्थ-साध्य के अभाव में न मिलने वाले को ही अन्यथानुपपन्न कहते हैं। इसलिए अन्यथानुपपत्ति हेतु का असाधारण रूप है किन्तु बौद्ध इसको न मानकर हेतु के १ . पक्षेसत्त्व, २. सपक्षेसत्त्व, ३. विपक्षाद्व्यावृत्ति ये तीन रूप मानता है, सो ठीक नहीं है क्योंकि कहीं-कहीं पर त्रैरूप्य के न होने पर अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु होता है और कहीं-कहीं पर एक त्रैरूप्य के होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता। जैसे मुहूर्त के अनन्तर शकट का उदय होगा क्योंकि अभी कृतिका का उदय है। यहाँ पर पक्षेसत्त्व न होने पर भी अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु सद्धेतु है और ‘गर्भस्थ पुत्र श्याम होगा' क्योंकि यह मित्र का पुत्र है। यहाँ पर त्रैरूप्य के रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सद्धेतु नहीं होता।
    पात्रकेसरी ने जब पद्मावती को देखा तब ही उनकी श्रद्धा जैनधर्म में खूब दृढ़ हो गई थी, जो कि सुख देने वाली और संसार के परिवर्तन का नाश करने वाली है। पश्चात् जब वे प्रातःकाल जिनमन्दिर गए और श्रीपार्श्वनाथ की प्रतिमा पर उन्हें अनुमान प्रमाण का लक्षण लिखा हुआ मिला तब तो उनके आनन्द का कुछ पार नहीं रहा। उसे देखकर उनका सब सन्देह दूर हो गया। जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥ ३७-३९॥
    इसके बाद ब्राह्मण-प्रधान, पुण्यात्मा और जिनधर्म के परम श्रद्धालु पात्रकेसरी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने हृदय में निश्चय कर लिया कि भगवान् ही निर्दोष और संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाले देव हो सकते हैं और जिनधर्म ही दोनों लोक में सुख देने वाला धर्म हो सकता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें सम्यक्त्वरूपी परम रत्न की प्राप्ति हो गई, उससे उनका मन बहुत प्रसन्न रहने लगा ॥४०-४२॥
    अब उन्हें निरंतर जिनधर्म के तत्त्वों की मीमांसा के सिवा कुछ न सूझने लगा-वे उनके विचार में मग्न रहने लगे। उनकी यह हालत देखकर उनसे ब्राह्मणों ने पूछा- आज कल हम देखते हैं कि आपने मीमांसा, गौतमन्याय, वेदान्त आदि का पठन-पाठन बिल्कुल ही छोड़ दिया है और उनकी जगह जिनधर्म के तत्त्वों का ही आप विचार किया करते हैं, यह क्यों? सुनकर पात्रकेसरी ने उत्तर दिया-आप लोगों को अपने वेदों का अभिमान है, उस पर ही आपका विश्वास है, इसलिए आपकी दृष्टि सत्य बात की ओर नहीं जाती पर मेरा विश्वास आपसे उल्टा है, मुझे वेदों पर विश्वास न होकर जैनधर्म पर विश्वास है, वही मुझे संसार में सर्वोत्तम धर्म दिखता है । मैं आप लोगों से भी आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि आप विद्वान् हैं, सच झूठ की परीक्षा कर सकते हैं, इसलिए जो मिथ्या हो, झूठा हो, उसे छोड़कर सत्य को ग्रहण कीजिए और ऐसा सत्यधर्म एक जिनधर्म ही हैं; इसलिए वह ग्रहण करने योग्य है ॥४३-४६॥
    पात्रकेसरी के इस उत्तर से उन ब्राह्मणों को सन्तोष नहीं हुआ। वे इसके विपरीत उनसे शास्त्रार्थ करने को तैयार हो गए। राजा के पास जाकर उन्होंने पात्रकेसरी के साथ शास्त्रार्थ करने की प्रार्थना की। राजाज्ञा के अनुसार पात्रकेसरी राजसभा में बुलवाए गए। उनका शास्त्रार्थ हुआ। उन्होंने वहाँ सब ब्राह्मणों को पराजित कर संसार पूज्य और प्राणियों को सुख देने वाले जिनधर्म का खूब प्रभाव प्रकट किया और सम्यग्दर्शन की महिमा प्रकाशित की ॥४७-४८॥
    उन्होंने एक जिनस्तोत्र बनाया, उसमें जिनधर्म के तत्त्वों का विवेचन और अन्यमतों के तत्त्वों का बड़े पाण्डित्य के साथ खण्डन किया गया है। उसका पठन-पाठन सबके लिए सुख का कारण है। पात्रकेसरी के श्रेष्ठ गुणों और अच्छे विद्वानों द्वारा उनका आदर सम्मान देखकर अवनिपाल राजा ने तथा उन ब्राह्मणों ने मिथ्यामत को छोड़कर शुभ भावों के साथ जैनमत को ग्रहण कर लिया ॥४९-५१॥
    इस प्रकार पात्रकेसरी के उपदेश से संसार समुद्र से पार करने वाले सम्यग्दर्शन को और स्वर्ग तथा मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म को स्वीकार कर अवनिपाल आदि ने पात्रकेसरी की बड़ी श्रद्धा के साथ प्रशंसा की, कि द्विजोत्तम, तुमने जैनधर्म को बड़े पाण्डित्य के साथ खोज निकाला है, तुम्हीं ने जिन भगवान् के उपदेशित तत्त्वों के मर्म को अच्छी तरह समझा है, तुम ही जिन भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने वाले सच्चे भ्रमर हो, तुम्हारी जितनी स्तुति की जाये थोड़ी है । इस प्रकार पात्रकेसरी के गुणों और पाण्डित्य की हृदय से प्रशंसा करके उन सबने उनका बड़ा आदर सम्मान किया ॥५२-५४॥
    जिस प्रकार पात्रकेसरी ने सुख के कारण, परम पवित्र सम्यग्दर्शन का उद्योतकर उसका संसार में प्रकाशकर राजाओं के द्वारा सम्मान प्राप्त किया, उसी प्रकार और भी जो जिनधर्म का श्रद्धानी होकर भक्तिपूर्वक सम्यग्दर्शन का उद्योत करेगा, वह भी यशस्वी बनकर अंत में स्वर्ग या मोक्ष का पात्र होगा ॥५५॥
    कुन्दपुष्प, चन्द्र आदि के समान निर्मल और कीर्ति युक्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की आम्नाय में श्री मल्लिभूषण भट्टारक हुए। श्रुतसागर उनके गुरुभाई हैं । उन्हीं की आज्ञा से मैंने यह कथा श्री सिंहनन्दी मुनि के पास रहकर बनाई है। वह इसलिए कि इसके द्वारा मुझे सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो ॥५६॥
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