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"Das Lakshan Parv: Why Do We Celebrate? Explore Its Significance and Share Your Insights!"


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CAPriyanka Jain

दसलक्षण वर्ष में 3 बार आता है, हालांकि हम भाद्र माह में आने वाले पर्व को उत्साह से मनाते हैं।  दस दिनों का उत्सव है जहाँ जैन भक्त किसी आत्मा के दस गुणों का जश्न मनाते हैं न कि किसी विशिष्ट देवता

Maina Jain Chhabra Mumbai

Maina Jain Chhabra (Mira Road, Mumbai) जिन चरणों में जीवन जीने का नया प्रकाश मिलता है परमात्मा के प्रति प्रेम प्रीति का भाव जनमता  है। नया आनंद उत्सव का वातावरण बनता है ।पुरानी दिनचर्या बदलती है

Divyani jain

दशलक्षण पर्व जैनों का सबसे महत्वपूर्ण एवं महान पर्व है। दशलक्षण पर्व हम लोक युगारंभ के उद्देश्य से मनाते है  यह वह पर्व है जिसके माध्यम से विचार, वाणी और कर्म से सभी दोषों, वासनाओं  को समाप्त करने क

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जय जिनेन्द् दशलकक्षड पर्व  हम  अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने तप त्याग नियम सैयम का पालन करने धर्म विशुद्धि बढ़ाने छमा आदि भाव धारढ  करने के लिये मनाते है यह पर्व हमे सिखलाता है की जीवन मे तप त्याग नियम का क्या महत्व है और हम अपना जीवन  कैसै सफल बना सकते  है आत्म शुद्धि के पर्व की सुभकामनाय.... आलोक कुमार जैन सिहोरा जबलपुर (म. प्र )

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पर्यूषण जैन धर्म का मुख्य पर्व है। जैन धर्म के श्वेतांबर इस पर्व को 8 दिन और दिगंबर संप्रदाय में 10 दिन तक मनाया जाता है। जिन्हें प्रचलित भाषा में दसलक्षण पर्व के नाम से भी संबोधित किया जाता है। जैन धर्म के दस लक्षण निम्न प्रकार हैं:
१) उत्तम क्षमा, २) उत्तम मार्दव, ३) उत्तम आर्जव, ४) उत्तम शौच, ५) उत्तम सत्य, ६) उत्तम संयम, ७) उत्तम तप,८) उत्तम त्याग, ९) उत्तम अकिंचन्य, १०) उत्तम ब्रहमचर्य

पर्यूषण पर्व का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करके आवश्यक विधाओं पर ध्यान केंद्रित करना, पर्यावरण का शोधन करना तथा संत और विद्वानों की वाणी का अनुसरण करते हैं 

यह भी जानें

दिगम्बर जैन धर्म में सुगंध दशमी का बहुत महत्‍व है। दसलक्षण पर्व के अंतर्गत भाद्रपद शुक्ल पक्ष में आने वाली दशमी के दिन जैन समाज के सभी लोग सुगंध दशमी पर्व मनाते है। इस व्रत को विधिपूर्वक करने से हमारे अशुभ कर्मों का क्षय होकर हमें पुण्‍यबंध, मोक्ष तथा उत्‍तम शरीर प्राप्ति होगी। सुगंध दशमी के दिन पांच पापों यानी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्‍याग करें।

सुगंध दशमी के दिन जैन समाज के भक्त जैन मंदिरों में जाकर चौबीस तीर्थंकरों को धूप अर्पित करते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं, हे भगवान! मैं आपके नाम का ध्यान धरकर मोक्ष प्राप्ति की कामना करता हूं। इससे वायुमंडल अत्यधिक सुगंधमय व स्‍वच्‍छ हो जाता है।

क्षमा वाणी दिवस - 
पर्युषण के अंतिम दिन अनंत चतुर्दशी का त्यौहार मनाया जाता है। और उसके अगले दिन सभी व्यक्ति एक दूसरे से क्षमा माँगते हैं, यह दिन क्षमा दिवस के नाम से जाना जाता हैं। इसमें सभी जाने अनजाने होने वाली गलतियों के लिए सभी मनुष्य, जीव-जन्तुओ, पशु-पक्षियों से क्षमा मांगता हैं। क्षमा मांगना एवम करना यह दोनों ही धर्मो में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

क्षमावाणी सन्देश:
करबद्ध हैं नमन
मित्र सखा सभी जीवंत
हो अगर भूल कोई मुझसे
तो क्षमाप्रार्थी हूँ मैं सबसे
यह अनमोल भेंट देकर मुझे
कृतज्ञ करे इस जीवन मैं
उत्तम क्षमा
दसलक्षण पर्व का महत्व और उसका आचरण
यह दस दिन जैन धर्म के अनुयायियों के लिए बेहद ही पावन होते हैं, इसलिए लोग इन दिनों में व्रत रखते हैं। वह एक टाइम भोजन करते हैं या जो लोग व्रत नहीं भी रखते हैं, वह भी सूर्यास्त से पहले भोजन अवश्य करते हैं

Teena jain

Khandwa (Madhya pradesh)

9407582422

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जैन धर्म में दशलक्षण पर्व का बहुत महत्व है। इस पर्व में जिनालयों में धर्म की प्रभावना की जाती है। यह पर्व आध्यात्मिक पर्व है l इस पर्व में उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग आकिंचनरूप और ब्रहचर्य आदि जीवन मूल्यों की आराधना की जाती है। यह पर्व तीर्थकरों की पूजा का नहीं या अन्य आराधना की पूजा की नहीं बल्कि गुणों की आराधना, उपासना का पर्व है। इस पर्व में व्यक्ति शक्ति अनुसार व्रत व उपवास करते है। यह पर्व जीवन में सुख एवं शांति के लिए मनाया जाता है। इस समय ज्यादा से ज्यादा समय धर्म में लगाया जाता है। यह पर्व भाद्रपद की शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। दशलक्षण धर्मो का महत्व।

1. उत्तम क्षमा- क्रोध छोड़‌कर सबको क्षमा करूँ तथा सबसे क्षमा मांग सकूँ

2. उत्तम मार्दव - मान नहीं करना, अहं छोड़ना

3. उत्तम आर्जव - कपर नहीं करना, सरलता लाना

4. उत्तम शौच - लोभ का त्याग करना

5. उत्तम सत्य- सत्य वचन बोलना

6. उत्तम संयम - इंडियों व मन को वश में करना 

7. उत्तम तप- इच्छायें छोड़ना तथा तपों को धारण करना

8. उत्तम त्याग- चारों प्रकार के दान आदि को देना

9. उत्तम आकिंचन- ममत्व का त्याग करना

10. उत्तम ब्रहचर्य -विषय सेवन को छोड़कर अपनी आत्मा मै लीन होना 

 इन दिनों इस पर्व में तत्वार्थ सूत के 1-1 अध्याय

का भी व्याख्यान किया जाता है तथा दसवीं के दिन सुगंध दशमी या धूप दशमी को मनाया जाता है जिनमें सभी लोग धूप खेने मंदिर जाते हैं तथा अंतिम दिन अनंत चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है।

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जय जिनेन्द्र,

दसलक्षण महापर्व मनाने का उद्देश्य है—मानव जीवन का वास्तविक धर्म से परिचय कराना

त्तमक्षमा,मार्दव,आर्जव,सत्य,शौच,संयम,तप,त्याग,

अकिंचन,ब्रम्हचर्य। ये दसधर्म हमे सिखलाते है कि मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होने के लिए सत्य के साथ अहंकार को त्याग कर,क्षमा भाव को अपनाकर इस जीवन को सार्थक बना सकते है।इन दस दिनों में हम अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने की कला सीखते है। ये धर्म मात्र १०दिन ही नही बल्कि हरदिन और जीवन पर्यन्त तक हमे अपनाने चाहिए।बात आती है जब ये धर्म जीवन पर्यन्त के लिए है तो सिर्फ १०दिन ही विशेष क्यों हैं? इसे हम १उदाहरण से समझ सकते है—हवा तो हर जगह है,किंतु उसे महसूस करने के लिए हमे पंखे का सहारा लेना पड़ता है।

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। दस लक्षण धर्म, जो कि आत्मा को परमात्मा बनाने की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं, हमें आत्म-संयम, शुद्धि, और सही आचरण की ओर ले जाते हैं। 

 

ये दस धर्म हमें सिखाते हैं कि कैसे अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करें और अपने विचारों को शुद्ध रखें:

 

1. **उत्तम क्षमा**: सभी प्राणियों के प्रति क्षमा का भाव रखना, चाहे कोई भी परिस्थिति हो। क्षमा से मन की शांति और अहिंसा की भावना को बल मिलता है।

  

2. **उत्तम आर्जव**: सरलता और सच्चाई का पालन करना, जिससे मन और शरीर में संतुलन बना रहे। 

 

3. **उत्तम मार्दव**: कोमलता और विनम्रता का भाव रखना, जिससे अहंकार का नाश हो। जब मान कसाय (अहंकार) की तीव्रता हो, उसे त्यागकर, मार्दव धर्म का पालन करना आवश्यक है।

 

4. **उत्तम संयम**: इंद्रियों पर नियंत्रण रखना, ताकि मन और शरीर अनुशासित रहें और सही मार्ग पर चलें।

 

5. **उत्तम तप**: तपस्या और आत्म-संयम का पालन करना, जिससे आत्मा शुद्ध होती है और कर्मों का क्षय होता है।

 

6. **उत्तम सत्य**: सत्य का पालन करना, जिससे व्यक्ति सच्चाई की राह पर चलता है और अपनी आत्मा को शुद्ध रखता है।

 

7. **उत्तम शौच**: शुद्धता और स्वच्छता का पालन करना, जिससे विचार और आचरण पवित्र रहते हैं।

 

8. **उत्तम त्याग**: त्याग की भावना का विकास करना, जिससे आत्मा में मोह का नाश हो और मुक्ति की राह प्रशस्त हो।

 

9. **उत्तम आकिंचन**: किसी भी वस्तु के प्रति मोह न रखना, जिससे आत्मा स्वतंत्र रहती है।

 

10. **उत्तम ब्रह्मचर्य**: ब्रह्मचर्य का पालन करना, जिससे आत्मा की शक्ति और शुद्धता बनी रहती है।

 

इन दस धर्मों का पालन कर हम अपने विचारों और भावनाओं को शुद्ध कर सकते हैं, जिससे आत्मा परमात्मा के निकट पहुँच सकती है। जैन धर्म में यह विधि आत्मा की उन्नति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।

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The exact reason for the celebration of Paryushana is not known with various scholars claiming various reasons, with one being that gods (devas) celebrate this festival in heavens and thus we humans follow suite here on earth.

 

But what can be said with absolute surety is that its the festival where Jains celebrate the greatest of their virtues, fast, meditate, read their scriptures, atone for their sins, apologize for any excesses done by them to other sentient beings and thus comes out fresh & new, and with renewed energy for the next year.

 

But what makes this festival really interesting is the difference in the way it's celebrated by the two sects that make up Jainism. While 1st, the Shwetambara sect starts 7 days prior to Digambar (the 2nd sect), the latter picks up the celebration on 8th and takes it forward for another 9 days. What could be the probable reasons for the same? Let's explore this mystery and then try and formulate a hypothesis on what could be the probable reason behind this uniqueness of celebrations.

 

The specialty of common 50th day of celebration

 

The 50th day of the start of the rainy season is very auspicious to Jains. Its because as per Jain theology, as our current time-cycle (Kala-Chakra) started, the earth was a literal hell with humans living in caves and hunting for food. Then gradually, as this time cycle moved into its 2nd epoch, heavy rains started, and continuous 49 days of raining turned our planet green and fertile. It was then, on the 50th Day of the start of rains, when man first moved out of caves and formed civilized societies.

 

Thus, the 50th day of the rainy season is considered by Jains as the start of human civilization and has since maintained this tradition, by apologizing with each other for any accesses done on their part to others due to tough times of past.

 

So, the 1st conclusion that we can draw from here is that Paryushana is essentially related to ‘apologizing’.

 

Now, let's explore at why would 1st sect of Jains celebrate it from 7 days earlier, and why would the 2nd carry it forward from the 8th till another 9 days?

 

If we look at Jain annals we find that before Mahavira there was fully established Church of 23rd Tirthankara - The Parshava. During the days of Mahavira, the head of this Church was ‘Acharya Keshi’. Thus, there existed a small period of time where the Church of the 23rd Tirthankara and that of Mahavira, operated independently and though the two preached similar philosophy, were visibly extremely distinct. Its because the monks and nuns of the Church of 23rd Tirthankara wore extremely rich and expensive clothes, while the monks of Church of Mahavira roamed naked.

 

Jain annals then describe a meeting between Achraya Keshi and Gandhara Gautama - the primary disciple of Mahavira where the former cross-questions the latter on their philosophy and ultimately acknowledges Mahavira as the destined 24th Tirthankara and merges their Church with that of Mahavira thus creating a unified Jain community.

 

This was indeed a great event. We can better understand the gravity and importance of the same by comparing the fate of prophets world over and the treatment they receive in balance religions. When Socrates preached His message, He was killed by the Greeks. When Christ came up with a message, Jews simply crucified Him. When Mohammed came up with a message, the Jews and Christians jointly denounced Him. But look at what happened here. When the light of ‘Supreme Knowledge’ called ‘Keval Gyan’ lit up in Mahavira, the once in charge of religion before Him - The Church of 23rd Tirthankara scummed to His feet. An event, unlike the normal human psyche which certainly would have sent heavens into gaga making them celebrate the same.

 

But there is a catch here. This means that the Church of 23rd Tirthankara were not the original followers of Mahavira and as there were numerous claimants of being the destined 24th Tirthankara those days, (with Buddha being one of them), naturally doubted Him - an act of extreme blasphemy indeed. An act that required atonement of the same degree. And what better time to atone for one's sins then the 50th - the most auspicious day of the rainy season I marked above.

 

Thus, the Church of 23rd Tirthankara headed by Acharya Keshi would have thought of apologizing for their doubting the 24th Tirthankara in a special way, and had probably started preparing for the same 7 days in advance by performing fasts and pratikarman (a prayer of apology) and would have collectively apologized on 8th day - the 50th day of the start of the rainy season.

 

The Church of Mahavira would have welcomed Keshi and His set of monks and nuns, and thus started the 2nd phase of celebrations with celebrating one Jain virtue each day for next nine days, and then would have collectively apologized on 10th to the Church of Keshi for any ill feelings or ill-thoughts they might have harbored at their end towards any of their monks and nuns in the pre-merger days.

 

Thus, Paryushna Parva should represent coming together of the Churches of 23rd and 24th Tirthankara.

 

The fact that the word Paryushana itself literally means ‘coming together’ also points towards the fact that something special happened in those days which probably got forgotten over thousands of years of the schism of the two communities a couple of hundred years after Mahavira.

 

The above is just my hypothesis, and I may be wrong and sincerely apologize for any mistakes. I further welcome scholars of the subject for feedback and any mistakes in my thesis. Lets all ‘come together’ once again, and solve the riddle of our greatest festivities which probably is also one of the greatest events to ever happen in the history of mankind.

 

Happy Paryushana.

 

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दशलक्षण पर्व किन्ही भगवान या महापुरुष के जन्मोत्सव या उनकी याद में उत्सव मनाने का त्यौहार ना होकर  10 गुणों को उत्सव के रूप में मनाने का त्यौहार हैं। यह पर्व हमें उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप त्याग आकिंचन और ब्रह्मचर्य धर्म के माध्यम से जीवन जीने की कला के साथ-साथ मोक्ष प्राप्ति की राह आसान बनाता हैं। दशलक्षण पर्व के 10 धर्मों के महत्व/अर्मेंअर्थ को अपने शब्द में व्यक्त करने की कोशिश करना चाहूगी—:

पर्वों का राजा यह दशलक्षण महान
कहता है यह करो सभी
आतम का तुम ध्यान
1)क्षमा धर्म सिखलाता हमको
रखो क्षमा का भाव
भुल हुई तो मांगो माफी
कर दो सब को माफ
2)मार्दव धर्म सिखाता हमको
करो ना तुम अभिमान
मैं से हम की ओर बढ़ो
करो विनम्र व्यवहार
3)आर्जव धर्म बताता हमको
करो सहज व्यवहार
मायाचारी करो कभी ना
करो प्रेम से बात
4)शौच धर्म बतलाता हमको
राग‐द्वेष को तजकर के तुम
मन में शुचिता को है पालो
समता से तुम रिश्ता जोड़ो
5)सत्य धर्म सिखलाता हमको
झूठ वचनों से नाता तोड़ो
कटु सत्य ना मुख से बोलो
वाणी में तुम मिश्री घोलों
6)संयम धर्म है कहता हमको
इन्द्रियों को वश में कर लो
हिंसा से तुम मुख को फेरो
7)तप धर्म बतलाता हमको
इच्छा का तुम करोविनाश
आत्म सुख को पाओ आज
8)त्याग धर्म सिखाए सबको
मान कषाय को तजकर के
मन में समता धारण करके
दान करो तुम शुद्ध भाव से
9)आकिंचन धर्म कहता है हमको
आत्म गुणों को अपना जानो
परिग्रह को मन से छोड़ो
10)ब्रह्मचर्य धर्म सिखलाता हमको
मात- पिता सुत तुम जानो
पर पुरुष को भ्राता मानो
शील स्वभाव को अपना मानो

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जय जिनेन्द्र 

दशलक्षण पर्व साल में तीन बार आते हैं , लेकिन हम गृहस्थ श्रावक भादों मास में आने वाले पर्यूषण पर्व को मनाते हैं, क्योंकि इस माह से पूर्व ही उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होता है इसलिए भादों मास के दशलक्षण पर्व का बहुत महत्व है, भादों माह में सभी श्रावक मंदिर जी दर्शन करने जाते हैं।हरी पत्तेदार सब्जियों का महीने भर त्याग करते हैं, रात्रि भोजन का त्याग करते हैं,इस पर्व का बहुत महत्व है।यह हम अपनी आत्मा के कल्याण के लिए मनाते हैं, धर्म ध्यान, पूजा पाठ,दान और त्याग द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा करने का प्रयास करते हैं।इस समय सभी कषायो और पापों से बचने का यह पर्व है।व्रत, उपवास,जाप माला, सामायिक, प्रायश्चित, प्रवचन द्वारा आपने ज्ञान का क्षयोपशम करते हैं,पाप कर्म से अपने को बचाते हैं, अपने समय का सही सदुपयोग करते हैं, अपने आप को सांसारिक झंझटों से कुछ देर दूर करने का प्रयास करते हैं। दशलक्षण पर्व आत्मा साधना करने का, अपने को पाप कर्मों से बचाने का पर्व है।

 

नमिता पाटनी ग्वालियर 

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"पर्युषण पर्व" क्यों मनाते हैं ?

* पर्युषण शब्द संस्कृत भाषा के प्राकृत शब्द पजजुसना और पज्जोसवना से जुड़ा है।

*पर्युषण का मतलब है आत्म के समीप रहना या आध्यात्मिक जगत से स्वयं को जोड़ना।

* पर्युषण पर्व को दसलक्षण पर्व भी कहा जाता है।

     • धर्म के दस लक्षण का पालन करने की शिक्षा देने वाला पर्व यानी दसलक्षण कहलाता है।

* दस्लक्षण धर्म के दसों धर्म जैसे _

•उत्तम क्षमा

•उत्तम मार्दव 

• उत्तम आर्जव 

•उत्तम सत्य

• उत्तम शौच 

• उत्तम संयम 

• उत्तम तप 

• उत्तम त्याग 

• उत्तम आंकिमचन 

•  उत्तम ब्रह्मचर्य 

* इन दसों धर्म का पालन करके जीवन में आगे बढ़ने को ही दसलक्षण पर्व कहते हैं।

" अशुद्ध चेतन को शुद्ध बनाने के लिऐ,

   अंतर क्रोध, मान,माया एवं लोभ से परे हट 

   क्षमा के भाव को पाने के लिए,

    मैं (अहम) को जीतकर हम को पाने के लिए,

   असत्य के स्थान पर सत्य को अपनाने के लिऐ,

   परिग्रह से अपरिग्रही बनने के लिए,

   अहिंसा के पथ पर चलने के लिए,

    शील व्रत का पालन कर

  "जियो और जीने दो " की भावना रखते हुए

     आत्मा से परमात्मा बनने के लिए , 

     हमें दसलक्षण  पर्व  मानना चाहिए"।

      ##अहिंसा परमो धर्म की जय ##hq720 (1).jpg

जैन दृष्टि मनोज कुमार

9737266100

गुजरात अहमदाबाद

   

 

 

Edited by drashti Manojkumar Jain
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हम 10 लक्षण पर्व क्यों मनाते हैं –

हमारे भारतीय समाज में जैसे रक्षाबंधन, दिवाली, होली इत्यादि पर्व मनाए जाते हैं इसमें लोग राखी बांधने, दीपक जलाने, लड्डू खाने, खीर खाने, इत्यादि कार्य करते हैं किंतु जैन पर्वों में 10 लक्षण धर्म का संबंध खाने और खेलने से न होकर त्याग और संयम की आराधना करना है। यह महापर्व जीव के त्रैकालिक और शाश्वत महापर्व कहे जाते हैं जो आत्मा के क्रोध आदि विकारों के अभाव के फल स्वरुप प्रकट होने वाले उत्तम क्षमा आदि भावों से संबंध रखते हैं। 10 लक्षण महापर्व संप्रदाय विशेष का नहीं इसे प्रत्येक व्यक्ति मना सकता है क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य अपने विकारी भावों का परित्याग कर उदात्त भावों को ग्रहण करना है। यह पर्व प्राणी मात्र का है इसका कारण है कि जगत के सभी प्राणी जो दुखों से डरते हैं और सुखी होना चाहते हैं उनके लिए है यह पर्व उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्मचर्य इन धर्म के 10 लक्षणों के रूप में मनाया जाता है। क्रोध आदि भाव दुख के कारण है और स्वयं दुख रूप है अतः दुख से डरने वाले सभी जीवो को क्रोध आदि के त्याग रूप उत्तम क्षमादि भाव जो सुख का कारण है और स्वयं सुख रूप है परम आराध्य हैं।

यह पर्व वर्ष में तीन बार आता है भादो सुदी पंचमी से चौदस तक, माघ सुदी पंचमी से चौदस तक, चैत सुदी पंचमी से चौदस तक।

धर्म के इन लक्षणों को जीवन में उतरने से अपने मनुष्य जीवन को सार्थक किया जा सकता है।

ममता जैन जिला फिरोजाबाद उत्तर प्रदेश

Edited by ममता जैन महक ममता
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दसलक्षण पर्व को हम पर्वाधिराज भी कहते है |जहां बाकी सारे पर्व हमें रागों में लिप्त होना सीखते हैं यह एक अकेला पर्व ऐसा है जो हमे अपनी कषाय को कम करके अपनी आत्मा को निखारना सिखाता है|अगर हम इन दस धर्म अर्थात आत्मा के लक्षणों को अपना लें तो हम निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं|

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10 lakshan parv ka Arth hai ki 10 lakshanon ke sath manaya jaane wala पर्व। यह 10 लक्षण इस प्रकार है उत्तम क्षमा उत्तम मार्दव उत्तम आर्जव  उत्तम शौच उत्तम सत्य उत्तम संयम उत्तम तप उत्तम त्याग उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य। इन 10 धर्म का पालन करते हुए हम मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं और एक दिन मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर लेते हैं इसलिए 10 लक्षण पर्व का जैन धर्म में बहुत महत्व है

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जैन धर्म में अहिंसात्मक शाश्वत पर्व दशलक्षण धर्म को मनाने का सबसे महत्वपूर्ण हमारे जीवन में वर्तमान में व जीवन काल में व पूर्व  में हुए अपराधों से क्षमा मांगने का मन वचन काय से ,दशधर्म , पंचमेरु जिनालय की भावपूर्वक वंदना,अष्ट कर्म की निर्जरा ,रत्नत्रय की आराधना से अपने को शुद्ध और  जिनालय, जिनवाणी ,गुरु सभी के प्रति समर्पित होने का उनकी रक्षा करने का उनका मन- वचन- काय से त्याग व संयम से पालन करने का पर्व है।
व्रतौं के पालन व कुछ समय के परिग्रह त्याग, सामायिक से कर्मों की निर्जरा होती है पुण्य बंध होता है। 
स्वयं से आत्मसात करने के लिए भवभ्रमण से छुटकारा पा कर मैं भी मोक्षपद पाऊं इसी भावना से 
हम दशलक्षण पर्व मनाते हैं।

Edited by Sangita_Jain
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जैन धर्मानुयायियों द्वारा प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पंचमी से  भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी  तक मनाया जाने वाला पर्यूषण पर्व ऐसा ही पर्व है जिसे पर्वों का राजा कहा जाता है। यह हमें आत्मानुशासन सीखाता है। यह क्रोध के स्थान पर उत्तम क्षमा धर्म, अहंकार के विरुद्ध विनम्रता उत्तम मार्दव धर्म ,कुटिलता के विरुद्ध सरलता उत्तम आर्र्जव धर्म, लोभ जन्य अशुचिता के स्थान पर शुचिता उत्तम शौच धर्म, असद् व्यवहारके विरुद्ध सत्य उत्तम सत्य धर्म, स्वेच्छाचारिणी दुष्परवृत्तियों के विरुद् संयमित जीवन उत्तम संयम धर्म,लक्ष्यात्मक चेतना जगाने के लिए तपस्या उत्तम तप धर्म, स्व और पर  की भलाई या उपकार के लिए धनादिक का दान तथा राग देव्ष के विमोचन रूप त्याग उत्तम त्याग धर्म सब सुखी हो कोई दुखी न रहे की भावना वश परिग्रह के प्रति आसक्ती का विसर्जन उत्तम आकिंचन्य धर्म एवं आत्म नियंत्रण रूप उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म होने से प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है।

   आज सब कुछ संपन्नता है किंतु अनुशासन, संस्कृति, नैतिकता और प्रकृति प्रदत सुख की विपन्नता है। हम समर्पण में भी अहंकार का विसर्जन नहीं कर पा रहे हैं जबकि यह स्पष्टहै कि हमारा अहंकार हमें अनुशासन का सम्मान नहीं करने देता,वह  तो नियम तोड़ने को स्वतंत्रता मानता है। यह संस्कारहीनता हमें उच्चता के  शिखरों का स्पर्श ही नहीं करने देती। मनुष्य होने के नाते हमारा लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। आज का मनुष्य अपने होने की दुर्लभता को भूल गया है। उसने धन की निकटता में दिलों की दूरियां बढ़ा ली है। प्रकृति मैं विकृति भले ही नहीं आई हो पर हमारी सोच में विकृति आई है।

अतः आज 10 धर्म की आवश्यकता बहुत जरूरी है

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दशलक्षण पर्व क्यों मनाना चाहिए इस संबंध में इक कथा आती है चार कन्याएं थी उनमें घनिस्ट मित्रता थी एक दिन चारों वन में घूमने को गई वहा उन्होंने इक मुनि महाराज को देखा। वह ध्यान में थे। वह वहीं जाकर मुनि जी के निकट बैठ गईं। जब मुनि जी का ध्यान टूटा तब उन्होंने कहा हे नाथ! संसार में बहुत दुख है हमने अनेक जन्मों में अनेक दुखों को भोगा है अब आप कृपा करके हमें इन दुखों से बचने का मार्ग बताइए। तब मुनि जी ने कहा दशलक्षण पर्व के दस उपवास विधि पूर्वक दस वर्ष तक करें। तब उन कन्याओं ने व्रत किया और मरण कर स्वर्गों में देव हुईं और वहां से आकर मानुष होकर दीक्षा लेकर परम निर्वाण को प्राप्त किया।

जैन धर्म का सार त्याग और तपस्या है और जैन धर्म के त्यौहार भी इससे अलग नहीं हैं। जैन धर्म के सबसे बड़े त्यौहारों में से एक हैं दसलक्षण महापर्व । इस त्यौहार के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे जैन धर्म में सभी त्यौहारों का राजा माना जाता है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि दस का मतलब है दस, लक्षण का मतलब है विशेषताएँ, महा का मतलब है सर्वोच्च या सबसे बड़ा और पर्व का मतलब है त्यौहार। तो संक्षेप में यह दस दिनों का उत्सव है जहाँ जैन भक्त आत्मा में दस गुणों को आत्मसात करते हैं।

दसलक्षण महापर्व वर्ष में तीन बार भाद्र, माघ और चैत्र मास में आता है। वैसे तो इसका महत्व हर महीने में समान है, लेकिन मुख्य रूप से भाद्र माह में भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तिथि तक यह पर्व अधिक श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। 

आज पर्युषण और दसलक्षण दोनों शब्दों का परस्पर उपयोग किया जाता है, हालाँकि पर्युषण आठ दिनों का त्यौहार है जिसे श्वेतांबर जैन मनाते हैं और दसलक्षण दस दिनों का त्यौहार है जिसे दिगंबर जैन समुदाय मनाता है। जब श्वेतांबर जैन समुदाय पर्युषण का अंतिम दिन मनाता है, तो दिगंबर जैन दसलक्षण के पहले दिन का स्वागत करते हैं। यह दोनों समुदायों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार है और भाद्रपद का पूरा महीना सभी जैनियों के लिए सबसे पवित्र महीना माना जाता है।

दसलक्षण पर्व यह संदेश देता है कि प्रत्येक जीव में भगवान बनने की शक्ति है। यह संयम और आत्मशुद्धि के दिन हैं जो यह बताते हैं कि आत्मा के दस गुणों का पालन करके इस संसार से मुक्ति पाई जा सकती है। ये गुण हैं - क्षमा, शील, सरलता, संतोष, सत्य, संयम, तप, त्याग, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 

इसका अपना इक महत्व है जो सभी को आत्मसात करना चाहिए -

1) उत्तम क्षमा - हम सभी में भावनाएँ होती हैं, प्रेम, घृणा, पसंद, नापसंद, क्रोध आदि। इसके कारण हम दुश्मन और दोस्त बनाते हैं। हम दुख या खुशी को आकर्षित करते हैं जो हमारी आत्मा को बांधता है और हम अपने पुनर्जन्म चक्र को बढ़ाते हैं। उत्तम क्षमा धर्म हमें सिखाता है कि हमें उन लोगों को क्षमा कर देना चाहिए जिन्होंने हमारे साथ गलत किया है और उनसे क्षमा मांगनी चाहिए जिनके साथ हमने गलत किया है। प्राथमिक रूप से कोई इसे त्योहार कैसे कह सकता है क्योंकि यह नैतिकता की तरह लगता है लेकिन अगर विश्लेषण करें तो हमारी भावनाओं के कारण विभिन्न कर्म आत्मा से चिपक जाते हैं और जब तक सभी कर्म आत्मा से अलग नहीं होते तब तक व्यक्ति मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। यदि हमारी आत्मा हमारे कर्मों से अलग नहीं होगी तो हम अनंत जन्म लेते रहेंगे। इस प्रकार दसलक्षण महापर्व का पहला दिन हमें दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए क्षमा का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित करता है। 

2) उत्तम मार्दव - अच्छा दिखना, धन, बुद्धिमत्ता, समाज में स्थान, पारिवारिक स्थिति अक्सर अभिमान की ओर ले जाती है जहाँ व्यक्ति दूसरों से श्रेष्ठ होने का विश्वास करता है और दूसरों को नीचा देखता है। मार्दव धर्म हमें सिखाता है किसी की भी आत्माएँ समान हैं और कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। जिन वस्तुओं पर आपको गर्व है वे सभी आपको छोड़ देंगी या मरने पर आपको उन्हें छोड़ने के लिए मजबूर किया जाएगा। अस्थायी वस्तुओं पर आधारित अभिमान हमारी आत्मा को बांधता है ।इस प्रकार मार्दव धर्म हमें कोमलता या सौम्यता सिखाता है जो हमारी आत्मा का वास्तविक स्वभाव है न कि यह झूठा अभिमान।

3) उत्तम आर्जव धर्म- धोखा देना, गुमराह करना, गुमराह करना, ठगना ये सब तब होता है जब हम सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते कुछ हैं। आर्जव का अर्थ है अपने और दूसरों के प्रति अपने विचार, वचन और कर्म में सामंजस्य हो।उत्तमआर्जव धर्म हमें यही सिखाता है जो मन में आए उसे कहना चाहिए और जो कहा जाए उसे करना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम जो चाहें सोचें चाहे वह बुरा हो या असभ्य और फिर उसे सीधा-सादा कह दें। अगर हम दूसरों को चोट पहुँचाने वाले शब्द कहते हैं और अपने कामों से दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो हम दुश्मनी की गाँठ बाँध लेते हैं और यह हमारी आत्मा को अनंत बार जन्म-मृत्यु के चक्र में बाँध देती है। उत्तम आर्जव धर्म हमें सिखाता है कि हमें अपने विचारों, शब्दों और कर्मों में सामंजस्य बनाए रखना चाहिए लेकिन केवल अच्छी बातें ही सोचनी चाहिए, बोलनी चाहिए और उन्हें अपने काम में लाना चाहिए। इस गुण के बिना हमारी आत्मा विकास को प्राप्त नहीं कर सकती क्योंकि इस गुण के बिना आत्मा अनेक कर्मों को आकर्षित करेगी।

4) उत्तम शौच - इच्छाएँ अनंत हैं, अगर एक पूरी हो जाती है, तो दूसरी बढ़ती है और इस तरह हम संतुष्ट नहीं हो पाते। अगर हम संतुष्ट होना नहीं सीखते हैं तो अंततः हमारी आत्मा को कष्ट होता है। अगर हम अपने पास मौजूद चीज़ों से संतुष्ट नहीं हैं और देखते हैं कि दूसरों के पास क्या है, तो हम उनसे ईर्ष्या महसूस करते हैं और किसी भी तरह से वही पाने की तीव्र इच्छा रखते हैं। यह लालच का पहला संकेत है।

यह इच्छा लालच में बदल जाती है और लालची आत्मा चोरी, झूठ और हिंसा करने लगती है। अगर इन सभी प्रयासों के बाद भी हमें वह मिल जाता है जिसकी हमें इच्छा है, तो हम खुश होते हैं और अपनी अगली इच्छा को पूरा करने की योजना बनाते हैं। उत्तम शौच धर्म हमें सिखाता है कि वस्तुओं का संग्रह करना, केवल इच्छा की आग को बढ़ाता है और यह लालच हमारी आत्मा को दुखों से बांधता है।

 

5) उत्तम सत्य- सत्य सामान्य से तथ्यों को वैसा ही कहना जैसा कि वे हैं, लेकिन जैन धर्म के अनुसार सत्य का अर्थ यहीं तक सीमित नहीं है। अक्सर हम दूसरों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करते हैं, हम कड़वे और चोट पहुँचाने वाले शब्द कहते हैं। हालाँकि उनके बारे में हमारी राय सच हो सकती है लेकिन दूसरों की ऐसी निंदा करना जिससे अंततः उन्हें ठेस पहुँचे, जैन धर्म के अनुसार सत्य में नहीं आता है।

यदि हमारे सत्य से किसी जीव को हानि पहुँचती है तो ऐसे वचन सत्य होते हुए भी असत्य हैं। कहा जाता है कि शब्द किसी हथियार से भी अधिक चोट पहुँचा सकते हैं। उत्तम सत्य धर्म हमें सिखाता है कि कम बोलें या अनावश्यक न बोलें या बोलने से पहले सोचें। 

इसके अलावा झूठ बोलना भी उतना ही वर्जित है। झूठ बोलने वाला असंख्य जन्म लेता है और चौरासी लाख योनियों में भटकता है। 

6)उत्तम संयम- हम सभी में पाँच इंद्रियाँ होती हैं जिन्हें हम इंद्रियाँ कहते हैं। हम स्पर्श कर सकते हैं, सूंघ सकते हैं, स्वाद ले सकते हैं, देख सकते हैं और सुन सकते हैं। ये सभी इंद्रियाँ आत्मा के लिए महत्वपूर्ण और लाभदायक हैं क्योंकि हम इंद्रियों के बिना चीजों को नहीं जान सकते हैं लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम अपनी इंद्रियों के गुलाम बन जाते हैं। हमारी हर इंद्रिय हमें अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित करती है और हम अपना सारा समय इन इंद्रियों के सुख को संतुष्ट करने में व्यतीत करते हैं।

प्रत्येक इन्द्रिय हमारी आत्मा को अन्य सांसारिक सुखों में डुबोती है, मोहित करती है और विवेक को शून्य बनाती है। हम अपना अधिकांश समय इन्द्रियों की तृप्ति में लगाते हैं जो अंततः हमारी आत्मा को पीड़ा पहुँचाती है। उत्तम संयम हमें अपनी इन्द्रियों का दमन करना सिखाता है ताकि हम उनके गुलाम न बन जाएँ। यह एक ऐसा अभ्यास है जहाँ हम अपनी इच्छा शक्ति का विश्लेषण करते हैं और इन्द्रियों पर नियंत्रण करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका मतलब यह नहीं है कि हमें सभी इन्द्रियों को मार देना चाहिए या उन्हें निष्क्रिय कर देना चाहिए। यह हमें केवल यह सिखाता है कि अपनी इन्द्रियों को सही दिशा कैसे दी जाए। 

7) उत्तम तप- जैन धर्म के अनुसार आत्मा अमूर्त है अर्थात रूप, गंध, स्वाद और रंग से रहित है। यह स्वभाव से ही रोग, भूख, क्रोध, प्यास, भय, मोह, निद्रा से मुक्त है और अजन्मा है। ये सभी दोष हमारी आत्मा में कर्म पुद्गल के कारण उत्पन्न होते हैं 

जैसे ही हमारी आत्मा इस पुद्गल को अपनाती है, वैसे ही वह हानि, लाभ, सुख, दुःख को अपनी ही हानि, लाभ, सुख या दुःख समझती है। इस प्रकार नये कर्मों का बंध करना तथा पूर्व में अर्जित शुभ-अशुभ कर्मों को छोड़ना आत्मा का मुख्य कार्य बन जाता है। इसप्रकार कर्म चक्र में फंसकर उसे कभी अपने स्वरूप का ध्यान नहीं आता। इस प्रकार हमारी आत्मा इस संसार में भ्रमण करती रहती है और दुःख भोगती रहती है। उत्तम तप हमें सिखाता है कि किस प्रकार हम अपने द्वारा प्राचीन अनन्त जन्मों में अर्जित किये गये कर्मों का उपभोग या नाश कर सकते हैं तथा नये कर्म भी नहीं बंधते और हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। जो लोग क्रोध, द्वेष तथा अन्य भावनाओं से रहित होकर शत्रु और मित्र में समान भाव रखते हैं, उनके पास वह परम तप है जो अंततः जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने की कुंजी है।

😎 उत्तम त्याग- दसलक्षण पर्व के दौरान ज़्यादातर लोग उपवास करते हैं, कुछ लोग दिन में सिर्फ़ एक बार खाते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग दस दिनों तक सिर्फ़ पानी पीते हैं। हरकोई आत्म-साक्षात्कार के लिए कठोर अभ्यास का पालन करने की कोशिश करता है। ये सभी अभ्यास तप (तपस्या) के अंतर्गत आते हैं। 

अब समस्या तब आती है जब दस दिन के बाद हम इसे भूल जाते हैं और फिर से सांसारिक सुखों में खो जाते हैं। इन दस दिनों में हमने जो भी अभ्यास या नियम, संयम किया है, उसे इन दस दिनों के बाद भी जारी रखना है। उत्तम त्याग हमें सिखाता है कि मोक्ष पाने के लिए केवल तप ही काफी नहीं है। तप हमारे कर्मों को जलाकर या नष्ट करके शरीर से अलग कर देता है, लेकिन त्याग के बिना वे वापस आत्मा से चिपक जाते हैं। 

9) उत्तम अकिंचन- उत्तम अकिंचन धर्म हमें सिखाता है कि चाहे कितने भी कारण क्यों न हों, हमें अन्य पदार्थों के प्रति आसक्ति या मोह नहीं रखना चाहिए। 

10) उत्तम ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य का अर्थ है अपनी आत्मा में निवास करना या अपनी आत्मा के प्रति सच्चे रहना। अपनी आत्मा से बाहर रहना इच्छाओं का गुलाम बनाता है। केवल अपनी आत्मा में निवास करके हम ब्रह्मांड के स्वामी बन जाते हैं 

अब बात आती है की दसलक्षण का हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है तो दसलक्षण से हमारी आत्मा पवित्र होती है, आत्मा के गुणों की प्राप्ति होती है, हमारे जीवन में साम्यता आती है , मानवता का विकास होता है, समाज में भी शांति बनी रहती है।

अतः दसलक्षण धर्म ही मानव धर्म है।

जय जिनेन्द्र 

धन्यवाद 

 

 

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SIGNIFICANCE & IMPORTANCE OF   Daslakshan Parva - दसलक्षण पर्व    
                                                                                                         
Every religion in the world has its own significance and importance for the individual, for the family and for the community as well. Parva or festivals strengthen our relations with our family members, friends, and neighbors and with our community. In fact celebrating festivals is to share happiness with each other by forgetting our problems or differences.
                 Daslakshan parva-- दसलक्षण पर्व  is celebrated  every year by the Jain Community for self –purification, is meant to adhere to the ten universal virtues in practical life and leads us on the right path, far from the mad strife for material prosperity, which ultimately leads us to our destination i.e. salvation . This is the festival through which an attempt is made to put an end to all vices, passions and lustful desires in thought, speech and action. This is the festival in which ten universal virtues like forgiveness, contentment and self-restraint are venerated and worshipped for self -purification.
           In this festival one mediates upon the inherent virtues of the soul in thought, speech and action or one attains peace of soul i.e. celestial peace. Besides this, in this festival an attempt is made to obtain peace discarding passions and lustful desires through various means and observe harmony in the soul through the study of scriptures.   It gives us an expression to the perfectly purified trait of the soul, through which one gets rid of worldly disorders and allurements and one gets fully absorbed in the eternal truth on experiencing and realizing the true nature of soul. In other words, we can say the natural realization of the trio ' सत्यम ,शिवम् , सुंदरम ' is fully possible only through Das lakshan parva. This festival puts an end to all evils gives us realization of the eternal bliss, and spiritualism becomes alive by the celebration of this festival.                                                                                      
            This parva purifies our soul and deeds. It has a great significance and importance in our life. The family members of the Jain community celebrate this parva for ten days. During these ten days from Bhadrapada Shukla Panchami to अनंत चतुर्दशी   , Jains observe fast in various forms and give alms (Daan  दान   ).   They leave certain things –Tyag- त्याग  ) and observe strictly the principles of the parva. Each day of the parva has its own importance.    Dash Lakshan Parva  is a festival of ten virtues observed by  the Jains  for  10 days. During these 10 days they strictly observe the ten dharma ( दस धर्म  ).                                                                    
     
                                                                   
•  उत्तम क्षमा धर्मं      (Supreme Forgiveness) - To observe tolerance whole- heartedly,   shunning anger.  
•   उत्तम मार्दव  धर्म    (Tenderness or Humility) - To observe the virtue of humility subduing vanity and passions.
•   उत्तम आर्जव  धर्म    (Straight-forwardness or Honesty) - To practice a deceit-free conduct in life by vanquishing the passion of deception.
• उत्तम शौच  धर्म    (Contentment or Purity) - To keep the body, mind and speech pure by discarding greed.
• उत्तम सत्य  धर्म     (Truthfulness) - To speak affectionate and just words with a holy intention causing no injury to any living being.
• उत्तम संयम  धर्म    (Self-restraint) - To defend all living beings with utmost power in a cosmopolitan spirit abstaining from all the pleasures provided by the five senses - touch, taste, smell, sight, and hearing; and the sixth - mind.
• उत्तम तप  धर्म    (Penance or Austerities) - To practice austerities putting a check on all worldly allurements.
• उत्तम त्याग   धर्म     (Renunciation) - To give fourfold charities - Ahara (food), Abhaya (fearlessness), Aushadha (medicine), and Shastra Dana (distribution of Holy Scriptures), and to patronize social and religious institutions for self and other uplifts.
• उत्तम  अकिंचन  धर्म   (Non-attachment) - To enhance faith in the real self as against non-self i.e., material objects; and to discard internal परिग्रह
viz. anger and pride; and external  परिग्रह  viz. accumulation of gold, diamonds, and royal treasures.
• उत्तम  ब्रहमचर्य  धर्म     --  (Chastity or celibacy) - To observe the great vow of celibacy; to have devotion for the inner soul and the omniscient Lord; to discard the carnal desires, vulgar fashions, child and old-age marriages, dowry dominated.
                Jains salute and pray for these virtues. By saluting the virtues, we only receive inspiration for right path, true happiness and total freedom from worldly miseries of life.
                  The Jain community celebrates this festival with great zeal and joy and austerities viz.self-meditaion, doing penance, fasting and study of Holy Scriptures are performed during the parva. The house holders purged their soul by keeping fast on the last day on the parva and celebrate the closing ceremony with great pump and show.
                    This is one of the most important festivals of Jain which is celebrated every year throughout the world with great pump and show and with immense devotion.
                                                                                Mrs. Chaman Jain
                                                                C-303 Vinayak Apartments, Plot No 36
                                                               Sector 10   Dwarka, New Delhi-110075
                                                              

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भादों माह की शुक्ल पक्ष में ऋषि पंचमी से प्रारंभ होकर अनंत चतुर्दशीको समापन होता है 10 लक्षण पर्व का आराधनाका यह पर्व 10 दिनों तक मनाया जाता है

प्रथम दिन हैउत्तम क्षमा का क्षमा धारण करनेसे मैत्री भावजागृत होताहै

द्वितीय दिनहै उत्तम मार्दव का मर्दव को धारण करने से अहंकार का नाश होता है विश्वास व नम्रता आती है

तृतीय दिन आता है उत्तम आर्जवधर्म का आरजव धर्म से मन एवं जीवन राग द्वेष से मुक्त होकर निष्कपट्ट हो जाता है

चतुर्थ दिवस है उत्तम सत्य धर्मका मन वचन और कर्म से सत्य को अपनाना और संसार सागर सेमुक्ति पाना

पांचवा दिन आताहै उत्तमशौच धर्म का यह धर्म संतोष धारण कर लोभ व लालच काज्ञान करता है लोभ नहीं करना चाहिए

छठ वा दिन आता है उत्तम संयम का संयम धारण करने वाले मानव का जीवन सार्थक तथा सफल होता है

सातवां दिन उत्तम तप 12 प्रकार के ताप होते हैं जन्म जन्मांतर के पाप वकर्म की निर्जरा होती है

आठवां दिन होताहै उत्तम त्याग का शांति और संतोष का भाव ही  त्याग 

नवा दिन होता है उत्तम आकिंचन्य का 24 प्रकार के परिग्रह का त्यागही उत्तम आकिंचन केद्वारा परम समाधि मोक्ष काद्वार खुला जाता है

सबसे महत्वपूर्ण दिन अंतिम दिन उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का रिद्धि सिद्धि और मोक्षका खजाना हैउत्तम ब्रह्मचर्य धर्म

10 लक्षण महापर्व महावीर स्वामी के मूलसिद्धांत अहिंसा परमो धर्म जियो और जीनेदो की राह पर चलना सिखाता है एवं मोक्ष प्राप्ति का द्वारखोलता है आत्मा केद्वारा आत्मा को देखो 10 लक्षण पर्व हमारे विभिन्न धार्मिक क्रिया द्वारा आत्म शुद्धि और जन्म मरण के चक्रसे मुक्ति पाने की आराधना है

🙏🏻जय जिनेन्द्र उत्तम क्षमा🙏🏻

🙏🏻🙏🏻10 लक्षण महापर्व की जय हो🙏🏻🙏🏻

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दशलक्षण पर्व जैनों का सबसे महत्वपूर्ण एवं महान पर्व है। दशलक्षण पर्व हम लोक युगारंभ के उद्देश्य से मनाते है
 यह वह पर्व है जिसके माध्यम से विचार, वाणी और कर्म से सभी दोषों, वासनाओं  को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। यह वह त्योहार है जिसमें क्षमा, संतोष और आत्म-संयम जैसे दस सार्वभौमिक गुणों की पूजा और आत्म-शुद्धि के लिए पूजा की जाती है।
हम कह सकते हैं कि '  सत्यम, शिवम्, सुंदरम  ' त्रिदेवों का स्वाभाविक बोध केवल दस लक्षणपर्व के माध्यम से ही पूरी तरह से संभव है। यह पर्व सभी बुराइयों को समाप्त कर हमें शाश्वत आनंद की अनुभूति कराता है 
भाद्रपद शुक्ल पंचमी से अनंत चतुर्दशी तक इन दस दिनों के दौरान, जैन विभिन्न रूपों में उपवास रखते हैं और दान देते हैं। वे कुछ चीजों का त्याग करते हैं और पर्व के सिद्धांतों का सख्ती से पालन करते हैं। पर्व के प्रत्येक दिन का अपना महत्व है। 
दशलक्षण पर्व के दस धर्म

 उत्तम क्षमा धर्म -  क्रोध का त्याग करते हुए पूरे दिल से सहनशीलता का पालन करना।

 उत्तम मार्दव धर्म    - घमंड और जुनून को वश में करके विनम्रता के गुण का पालन करना।

उत्तम आर्जव धर्म   - छल-कपट की भावना को परास्त कर जीवन में छल-कपट रहित आचरण करना।

उत्तम शौच धर्म    - लोभ का त्याग कर शरीर, मन और वाणी को शुद्ध रखना।

 उत्तम सत्य धर्म     - पवित्र भाव से, किसी भी प्राणी को हानि न पहुँचाते हुए, स्नेहपूर्ण तथा न्यायपूर्ण वचन बोलना।

उत्तम संयम धर्म   - पांच इंद्रियों - स्पर्श, स्वाद, गंध, दृष्टि और श्रवण; और छठी - मन द्वारा प्रदान किए गए सभी सुखों से परहेज करते हुए, विश्वव्यापी भावना से सभी जीवित प्राणियों की अत्यधिक शक्ति के साथ रक्षा करना।

उत्तम तप धर्म   - सभी सांसारिक प्रलोभनों पर रोक लगाते हुए तपस्या करना।

 उत्तम त्याग धर्म    - चार गुना दान देना - आहार (भोजन), अभय (निर्भयता), औषधि (दवा), और शस्त्र दान (पवित्र ग्रंथों का वितरण), और स्वयं और अन्य उत्थान के लिए सामाजिक और धार्मिक संस्थानों को संरक्षण देना।

 उत्तम अकिंचन धर्म     - अनासक्ति - अनासक्ति अर्थात भौतिक वस्तुओं के विपरीत वास्तविक आत्मा में विश्वास बढ़ाना, क्रोध और अहंकार जैसे आंतरिक परिग्रहों का तथा सोना, हीरे और राजसी खजाने के संग्रह जैसे बाह्य परिग्रहों का त्याग करना।

 उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म   - ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, अंतरात्मा और सर्वज्ञ भगवान के प्रति भक्ति रखना, भोग-विलास, अश्लील फैशन, बाल-वृद्ध विवाह, दहेज-प्रधान विवाह का त्याग करना।



दस धर्म के उदात्त जीवन मूल्य हैं, जो हर व्यक्ति के व्यक्तित्व के लिए जरूरी है।इसलिए 10 दिनों में विशेष रूप से दस धर्मों की आराधना करके हम अपने अंदर इन गुणों के संस्कारों को भरते हैं। इन 10 दिनों में हम अपने आपको रिचार्ज करते है ताकि आने वाले 355 दिनों तक उसका असर हम पर रह सके ।

पर्युषण को केवल त्यौहार की तरह न मनाकर अपने जीवन व्यवहार का आधार बना करके मनाए, तो हमारे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन होगा और हमारे मन के प्रदूषण को दूर करेगा तथा हमारे अंदर शांति एवं सद्भावना भरेगा।अपने बच्चों को पर्युषण का महत्व जरूर समझाये ताकि वे भी भविष्य मैं इसी उत्साह से पर्युषण पर्व को मनाए।

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*10 लक्षण पर्व आत्म शुद्धि का पर्व है ____
जैन धर्म में सबसे बड़ा महान धार्मिक पर्व पर्यूषण पर्व है ,इसके महान महत्व के कारण ही इस पर्व को पर्वधिराज कहा जाता है ,जैन धर्म के 10 लक्षण या विशेषताएं इन 10 दिनों में अनुसरण करने के कारण इस पर्व को 10 लक्षण पर्व भी कहते हैं l
यह पर्व यों तो वर्ष में तीन बार चैत्र,माघ, भादो में आता है किंतु भाद्रपद माह के 10 लक्षण पर्व को लोग विशेष उत्साह व उमंग से मनाते हैं !
यह पर्व आत्मा को बुराई से दूर करके अपनी आत्मा के निकट आने का पर्व है यदि इस पर्व को पूरे सही अर्थ में मनाया जाए तो मोक्ष की संजीवनी स्वरूप यह पर्व है l
पर्यूषण पर्व शुक्ल पक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक 10 दिन तक मनाया जाता है इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि धर्म के10 लक्षण में से पहला लक्षण उत्तम क्षमा से प्रारंभ होकर चतुर्दशी के बाद प्रतिपदा के दिन उत्तम क्षमा भाव से ही समाप्त होता है l
कहने का तात्पर्य यह है कि जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है "अहिंसा परमो धर्म:" और हिंसा द्रव हिंसा और भाव हिंसा के भेद से दो प्रकार की होती है द्रव हिंसा में तो एक इंद्रिय से पांच इंद्रियों तक के जीवों का प्राणों का घात होता है जो कि नेत्रों से दृष्टिगोचर होता है लेकिन भाव हिंसा तो जीव द्वारा प्रतिपल होती है यह कषाय प्रधान है तो इस प्रकार हम सब अपने जीवन में भाव हिंसा को त्याग कर ही अहिंसक बन सकते हैं यह भाव हिंसा का त्याग 10 लक्षण धर्म को अपनाकर ही किया जा सकता है पहला लक्षण है ___
उत्तम क्षमा धर्म__अर्थात क्रोध का कारण उत्पन्न होने पर भी क्रोध को ना करना क्योंकि क्रोधी व्यक्ति अपने वचनों द्वारा दूसरों को कष्ट पहुंचlकर महान हिंसा का बंध कर लेता है l
उत्तम मार्दव ____अर्थात मान कषाय ना करना मानी व्यक्ति अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझ कर दूसरों को हेय समझता है और इस प्रकार कषाय करके दूसरे का तिरस्कार करता है और महान पाप का बंध कर लेता है l
उत्तम आर्जव___अर्थात मायाचारी ना करना सरल परिणामी व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है l
उत्तम शौच___लोभ का परित्याग करने वाला व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है लोभ के परिणाम होने पर तो वह बुरे भावों द्वारा हिंसक ही हो जाएगा l
उत्तम सत्य __झूठ बोलकर व्यक्ति किसी के प्राण तक को हर सकता है l
उत्तम संयम___अहिंसक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि इंद्रियों व मन पर संयम रखें l
उत्तम तप__तप के द्वारा भी अपनी आत्मा की कलुश्ता को दूर करके अपने कर्मों की निर्जरा की जा सकती है l
उत्तम त्याग__अर्थात अपनी शक्ति के अनुसार दान देना ,दान द्वारा महान पापों की निर्जरा की जा सकती है दान बिना मनुष्य का जीवन ही निरर्थक है 
उत्तम अकिंचन्य__अर्थात आवश्यकता से अधिक परिग्रह का त्याग करना जो व्यक्ति ज्यादा परिग्रही  होगा उसके भाव पाप करने के होंगे और जो व्यक्ति कम   परिग्रहि होगा उसके भाव पाप करने के नहीं होंगे l
उत्तम ब्रह्मचर्य___अंत में ब्रह्मचर्य धर्म का स्थान आता है अर्थात यदि हम उपरोक्त 9 धर्म को अपने जीवन में उतार लेते हैं तो अपनी आत्मा के निकट पहुंचकर ध्यान लगाकर मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं l           इस प्रकार हमने देखा कि पर्यूषण पर्व कितना वैज्ञानिक है आज के युग में यदि दशधर्म को विश्व अपना ले तो विश्व शांति का साम्राज्य हो जाएl सबसे अच्छी बात यह है कि पर्यूषण पर्व के इन 10 दिनों तक अपनी आत्मा को बुराइयों से दूर करके पवित्र बनाने का जो उपक्रम किया जाता है ,अंत में क्षमावाणी पर्व के माध्यम से पूरे वर्ष में अपने द्वारा किए हुए पापों की निर्जरा करके अपने द्वारा जाने अनजाने में जो दूसरों को कष्ट पहुंचा हो उनसे क्षमा मांग करके अपने पापों का प्रक्षालन किया जाता है "क्षमा वीरस्य भूषणम "।          इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यूषण पर्व हमारे पापों  की निर्जरा करने का और अपनी आत्मा को पवित्र बनाने का पर्व हैll
      जय जिनेन्द्र 
        सीमा जैन 
       गणेशपुर उत्तर प्रदेश

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                सलक्षण पर्व

                    मेरे अनुभव

संसार का प्रत्येक जीव अपने जीवन में क्या चाहता है?   दुख को दूर करना सुख को प्राप्त करना। अब ऐसाा तो है नहीं ,जैन धर्म में जन्म लेने वाले जीव ही सुख चाहते हो , किसी भी जाति का जीव हो, चारोंं गति केेेे जीव हो अर्थात तीनों लोकों के सभी जीव  सिर्फ सुख ही चाहते हैं।

सुख 
परमार्थिक सुख (नित्य)
संसार सुख (अनित्य)

यह एक बहुत बड़ा भ्रम है कि जैन धर्म से सिर्फ परमार्थिक सुख मिलता है परंतु ऐसा बिल्कुल भी नहीं है जैन धर्म से संसार का सुख भी मिलता है लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है की सुख को प्राप्त करने के लिए किसी सही रास्ते पर तो चलना पड़ेगा बस दसलक्षण वह सही पथ है जो हमें सुख की प्राप्ति कराता है। संसार में सही तरीके से जीवन जीने की कला सिखाता है।

संसार सुख की प्राप्ति
 सुख के लिए व्यक्ति क्या सोचता है ?
१ मेरा शरीर मेरा मन स्वस्थ हो।
२ आस-पास का वातावरण अच्छा हो।
३ मेरा पारिवारिक सामाजिक जीवन अच्छा हो।
४ मेरी अच्छी प्रसिद्ध हो। 
५ व्यापारिक जीवन मेरा अच्छा हो। 
६ विपरीत वातावरण का विपरीत लोगों का मेरे ऊपर कोई प्रभाव ना हो।
 इसी तरह की तो इच्छाएं होती है सांसारिक लोगों की।

दसलक्षण से इनकी प्राप्ति

ध्यान से गौर कीजिएगा की दसलक्षण में क्या सिखाया जा रहा है?
१ हमें उग्र स्वभाव नहीं रखना चाहिए।
२ गलती हो तो सॉरी बोल देना चाहिए।

दूसरा कोई हमसे माफी मांगे तो हमें उसे माफ कर देना चाहिए।

सबकी विनय करनी चाहिए।

५ सरल स्वभावी होना चाहिए।
६ झूठ नहीं बोले चोरी नहीं करें।
७ कम खाएं अच्छा भोजन घर का बना हुआ खाएं।
८ हमारे पास जो पांच इंद्रिया हैं उनका हम सही उपयोग करें।
९ अपना काम निकालने के लिए दूसरे को बेवकूफ ना बनाएं।
१० किसी के प्रति भी अपने गलत भावना न रखें आदि अनेकों इसी तरह की बातें हमें यह दसलक्षण सिखाते हैं।

अब गौर कीजिएगा की बचपन से हमारे आसपास के वातावरण मे हमारे माता-पिता ,समाज ,परिवार के लोग कोई भी व्यक्ति क्या हमें यही बातें सिखा रहा है। यही सब बातें सिखाने के लिए आजकल लाखों रुपए के बड़ी-बड़ी क्लास लोग ले रहे हैं मोटिवेशनल स्पीकर के नाम से, पर्सनालिटी डेवलपमेंट के नाम से और अनेकों इवेंट इस तरह के आजकल देखने में आते हैं। सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्ट भरी हुई है जिसे रात दिन हम पढ़ते हैं हम खुशी-खुशी इन सबको स्वीकार कर रहे हैं और आगे शेयर भी करते हैं लेकिन बस धर्म में इन सब बातों को एक अलग नाम दे दिया गया है और जब लोगों को यह लगता है कि यह धर्म है तो हमें उनसे चिड होने लगती है बिना यह जाने समझे कि धर्म हमें वही सिखा रहा है जिसे पढ़कर आम आदमी इनको हमारे हिसाब से डेवलप करके एक नई तरीके से हमारे सामने थाली परोस रहा है। 

समस्या
जेनी भाई सालों से दसलक्षण मनाता आ रहा है और अजैन लोग भी इन सब बातों को सीखने का एक नया-नया तरीका अपनाते ही है सवाल यह है कि क्या हम अब तक इतने सालों में हम अपने अंदर परिवर्तन ला पाए अगर नहीं तो सोचाना होगा क्यों?
सबसे बड़ी समस्या है कि हम ज्ञान का अर्जन करने में लगे रहते हैं उसको कभी प्रैक्टिकल रूप से अपने जीवन में प्रयास नहीं करते अपनाने का।

समाधान

अभी कुछ दिन पहले 13 तारीख से 18 तारीख तक 2024 में ही महाराज श्री प्रणम्य सागर जी का आत्म साधना शिविर मैंने किया था उसमें मैंने सीखा कि हम किस तरह से अपनी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं
महाराज जी ने सबसे पहले हमारी वेशभूषा पर नियंत्रण कराया दूसरा हमारे खाने पर संयम लगाया शुद्ध और पवित्र भोजन ही हमें खाने में उपलब्ध कराया। हमें उसे योग्य बनाया कि हम अपनी साधना को पूरा कर सकें और  जिन चीजों से अपना ध्यान भटकता हैं उन सब चीजों को हमारे सामने से हटा दिया गया और हमें एकांत दे दिया गया यह सोचने के लिए जो हम उद्देश्य पूरा करने आए हैं सिर्फ उसी पर फोकस करें।
एक दिन उन्होंने हमको एक टास्क दिया और कहा कि आज पूरे दिन भर हम किस-किस बातों पर अहम करते हैं कि यह काम मैंने किया है पूरी जिंदगी में हमने जितनी बार भी छोटी-छोटी बातों पर अहम किया उसको लिखे जैसे कि मैं बहुत सुंदर हूं,मैं समझदार हूं, मैं अपने बच्चों को पाल रही हूं मतलब जहां-जहां पर भी हमारा करता भाव आ रहा है वह सब हमारा अहम है और यह प्रयोग हमने पूरे दिन भर किया क्योंकि हमारे पास कुछ करने के लिए नहीं था मोबाइल भी नहीं था किसी से हम बोल नहीं सकते थे तो आपका पूरा फोकस उसे समस्या पर लगा रहता है और हमने यह किया तो हमने इसका समाधान भी पाया
यकीन मानिएगा इस तरह करने से अपने अंदर एक गहरा एहसास होता है कि हम छोटी-छोटी बातों पर कितना अहम करते हैं और अहम टूटा,अश्रु बहे ऐसा लगा कि जैसे हमारी आत्मा से एक मेल निकल रहा है भाव पवित्र हुए मन में संकल्प आया कि अहम का भाव नहीं रखेंगे
दृष्टि बदलते ही वही सृष्टि सब बदली हुई सी नजर आने लगी

मुझे अब ऐसा लगता है की इन दसदिनों को भी हमें अपनी समस्याओं के समाधान के लिए एक प्रयोगशाला के रूप में इसका प्रयोग करना चाहिए जो ज्ञान हम लेते हैं उसे इस तरह से प्रयोग में लाना चाहिए ताकि हमारा जीवन परिवर्तन हो सके यह हमारा दृष्टिकोण है कि हम सांसारिक सुख के लिए इसको प्रयोग में लाए या हम परमार्थिक दृष्टिकोण को रखते हुए इस प्रयोग को अपने काम में लाएं। 

मुझे महसूस होता है की जिंदगी के इतने सालों के बाद मुझे समझ आया की दसलक्षण पर्व , अठाई पर्व क्यों आते हैं और इनका क्या महत्व है।

मेरा सबसे बड़ा अनुभव
मैं हूं वह नहीं जो तुम्हें दिख रहा हूं
मैं हूं जो नजर से परे ही रहा हूं

धन्यवाद
             🙏🙏🙏
 

                   

 

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