मुनिश्री ब्रह्मानन्द महाराज की समाधि
पंचम युग में चतुर्थकालीन चर्या का पालन करने वाले व्योवर्द्ध महातपस्वी परम् पूजनीय मुनिश्री ब्रह्मनन्द जी महामुनिराज ने समस्त आहार जल त्याग कर उत्कृष्ट समाधि पूर्वक देह त्याग दी।
परम् पुज्य मुनिश्री ऐसे महान तपस्वी रहें है जिनकी चर्या का जिक्र अक्सर आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर जी महामुनिराज संघस्थ साधुगण एवं आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज प्रवचन के दौरान करते थे।
पिड़ावा के श्रावकजनो ने मुनिश्री की संलेखना के समय अभूतपुर्व सेवा एवं वैयावर्ती की है।
ऐसे समाधिस्थ पुज्य मुनिराज के पावन चरणों में कोटि कोटि नमन।
मुनिराज का समाधिमरण अभी दोपहर 1:35 पर हुआ उनकी उत्क्रष्ट भावना अनुसार 48 मिनट के भीतर ही देह की अंतेष्टि की जाएगी।
(20,अप्रैल,2018)
कर्नाटक प्रांत के हारुवेरी कस्बे में जन्मे महान साधक छुल्लक श्री मणिभद्र सागर जी 80 के दशक आत्मकल्याण और जिनधर्म की प्रभावना करते हुऐ मध्यप्रदेश में प्रवेश किया । छुल्लक अवस्था मे चतुर्थकालीन मुनियों सी चर्या । कठिन तप ,त्याग के कारण छुल्लक जी ने जँहा भी प्रवास किया वँहा अनूठी छाप छोड़ी।
पीड़ित मानवता के लिए महाराज श्री के मन मे असीम वात्सल्य था। महाराज श्री की प्रेरणा से तेंदूखेड़ा(नरसिंहपुर)मप्र में
समाज सेवी संस्था का गठन किया गया। लगभग बीस वर्षों तक इस संस्था द्वारा हजारों नेत्ररोगियों को निःशुल्क नेत्र शिवरों के माध्यम से नेत्र ज्योति प्रदान की गई। जरूरतमंद समाज के गरीब असहाय लोगों को आर्थिक सहयोग संस्था द्वारा किया जाता था। आज भी लगभग बीस वर्षों तक महाराज श्री की प्रेणना से संचालित इस संस्था ने समाज सेवा के अनेक कार्य किये ।
छुल्लक मणिभद्र सागर जी ने मप्र के सिलवानी नगर में आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य मुनि श्री सरल सागर जी से मुनि दीक्षा धारण की और नाम मिला मुनि श्री ब्रम्हांन्द सागर जी। इस अवसर पर अन्य दो दीक्षाएं और हुईं जिनमे मुनि आत्मा नन्द सागर, छुल्लक स्वरूपानन्द सागर,। महाराज श्री का बरेली,सिलवानी, तेंदूखेड़ा,महाराजपुर,केसली,सहजपुर,टडा, वीना आदि विभिन्न स्थानों पर सन 1985 से से लगातार सानिध्य ,बर्षायोग, ग्रीष्मकालीन,शीतकालीन सानिध्य प्राप्त होते रहे।। महाराज श्री को आहार देने वाले पात्र का रात्रि भोजन,होटल,गड़न्त्र, का आजीवन त्याग, होना आवश्यक था। और बहुत सारे नियम आहार देने वाले पात्र के लिए आवश्यक थे। महाराज श्री को निमित्य ज्ञान था। जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण मेरे स्वयं के पास है। उनके द्वारा कही बात मैने सत्य होते देखी है।
आज 20 अप्रेल मध्यान 1:45 पर
पंचम युग में चतुर्थकालीन चर्या' का पालन करने वाले व्योवर्द्ध महातपस्वी परम् पूजनीय मुनिश्री ब्रह्मनन्द जी महामुनिराज ने समस्त आहार जल त्याग कर उत्कृष्ट समाधि पूर्वक देह त्याग दी।
परम् पुज्य मुनिश्री ऐसे महान तपस्वी रहें है जिनकी चर्या का जिक्र अक्सर आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर जी महामुनिराज संघस्थ साधुगण एवं आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज प्रवचन के दौरान करते थे।
पिड़ावा के श्रावकजनो ने मुनिश्री की संलेखना के समय अभूतपुर्व सेवा एवं वैयावर्ती की है।
ऐसे समाधिस्थ पुज्य मुनिराज के पावन चरणों में कोटि कोटि नमन। महाराज श्री की भावना अनुसार 48 मिनिट के भीतर ही उनकी अंतिम क्रियाएं की जाएंगी।
मुनि श्री को बारम्बार नमोस्तु ?
जय जिनेन्द्र
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आदरणीय श्री राजकुमार जैन अजमेरा जी, हजारीबाग को शास्वत तीर्थराज के महामंत्री पद पर मनोनीत होने पर बहुत बहुत बधाई एवम अशेष शुभकामनाएं। आदरणीय अजमेरा जी अत्यंत ऊर्जावान, कर्मठ, समर्पित व्यक्तित्व हैं। पूर्व में भी अनेक पदों पर सुशोभित होकर धर्म प्रभावना और धर्मायतन सेवा में हमेशा अग्रणी रहे हैं।
⚫ धर्म बचाओ आंदोलन ⚫ 24 अगस्त, सोमवार ************************** सभी स्थानों पर मीटिंग का दौर शुरू हुआ । प्रायः सभी स्थानों पर निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया गया है~
1 २४ अगस्त को सकल जैन समाज अपने ऑफिस, प्रतिष्ठान, स्कूल, कॉलेज की छुट्टी/ बन्द रखेंगे। 2 २४ अगस्त को माननीय प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, कलेक्टर, SDM, तहसीलदार के नाम का विरोध रूपी ज्ञापन सौपेंगे। 3 २४ अगस्त को समाज का प्रत्येक व्यक्ति महिला पुरुष बच्चे सभी एक साथ विरोध प्रदर्शन जुलूस मे सम्मलित होंगे। 4 २४ अगस्त को बन्द करने के लिए व्यापारी वर्ग, राजनेताओं, और विभिन्न संगठनों से अपील करेंगे कि वह जैन धर्म के विपत्ति के समय उनका सहयोग करें एवं बंद मे साथ दें। उसके लिए १८ अगस्त मंगलवार को अन्य समाज, व्यापारी वर्ग, संगठन के साथ समाज के वरिष्ट व्यक्तियों की मीटिंग रखी गयी है। 5 प्रदर्शन जुलूस/आंदोलन .....से प्रारम्भ होकर तहसील/कलेक्ट्रेट मे ज्ञापन देकर समाप्त होगा। 6 ज्ञापन "धर्म बचाओ आंदोलन" के बेनर तले सौंपा जाएगा। 7 जैन बंधुओं के प्रतिष्ठानों मे कल से ही ""२४ अगस्त धर्म बचाओ आंदोलन , राजस्थान उच्च न्यायालय का संथारा/ संलेखना के विरोध मे दुकान बंद रहेगी ""के बेनर/ फ्लेक्स लगा दिए जाएंगे। 8 शहर के मुख्य चौराहों ,बिल्डिंगों मे " धर्म बचाओ आंदोलन" के बेनर लगाये जाएंगे। 9 संथारा/ संलेखना का जैन धर्म मे क्या महत्व है, के पोस्टर/ पम्पलेट शहर के लोगों मे जागरूकता फैलाने के लिए बाटें जाएंगे। 10 २४ अगस्त के बन्द का सोशल मीडिया/ प्रिंट मीडिया/ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मे जम कर प्रचार प्रसार किया जायेगा। 11 24 अगस्त को कोई भी जैन समाज का बंधु शहर से बाहर नही जाएगा, सभी एक साथ ज्ञापन सौपने जाएंगे। 12 स्कूल/ कॉलेज के विद्यार्थी 22 अगस्त या उससे पहले ही छुट्टी के लिए आवेदन देकर आएंगे जिसमे नही आने का कारण जैन धर्म पर संकट स्पष्ट रूप से लिखा जाएगा। 13 सरकारी कर्मचारी भी अपने ऑफिस मे पहले ही आवेदन देंगे जिसमे न जाने का कारण स्पष्ट रूप से अंकित होगा।
हम सभी यही चाहते है कि हमारा विरोध दमदार असरदार हो। प्रदर्शन शालीन हो । शांत हो । भाषा मर्यादित हो । कानून का उल्लंघन न हो । जय जिनेन्द्र
देवो द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर दूसरे चक्रवर्ती सगर का चरित लिखा जाता है ॥१॥
जम्बूद्वीप के प्रसिद्ध और सुन्दर विदेह क्षेत्र की पूरब दिशा में सीता नदी के पश्चिम की ओर वत्सकावती नाम का एक देश है । वत्सकावती की बहुत पुरानी राजधानी पृथ्वीनगर के राजा का नाम जयसेन था। जयसेन की रानी जयसेना थी । इसके दो लड़के हुए। इनके नाम थे रतिषेण और धृतिषेण। दोनों भाई बड़े सुन्दर और गुणवान् थे । काल की कराल गति से रतिषेण अचानक मर गया। जयसेन को इसके मरने का बड़ा दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वे धृतिषेण को राज्य देकर मारुत और मिथुन नाम के राजाओं के साथ यशोधर मुनि के पास दीक्षा ले साधु हो गए। बहुत दिनों तक इन्होंने तपस्या की। फिर संन्यास सहित शरीर छोड़ स्वर्ग में वह महाबल नाम का देव हुआ इनके साथ दीक्षा लेने वाला मारुत भी इसी स्वर्ग में मणिकेतु नामक देव हुआ, जो कि भगवान् के चरण कमलों का भौंरा था, अत्यन्त भक्त था । वे दोनों देव स्वर्ग की सम्पत्ति प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। एक दिन उन दोनों ने विनोद करते-करते धर्म- प्रेम से एक प्रतिज्ञा की कि जो हम दोनों में पहले मनुष्य-जन्म धारण करे, तब स्वर्ग में रहने वाले देव का कर्तव्य होना चाहिए कि वह मनुष्य- लोक में जाकर उसे समझाये और संसार से उदासीनता उत्पन्न करा कर जिनदीक्षा के सम्मुख करे ॥२-११॥
महाबल की आयु बाईस सागर की थी । तब तक उसने खूब मनमाना स्वर्ग का सुख भोगा। अन्त में आयु पूरी कर बचे हुए पुण्य प्रभाव से वह अयोध्या के राजा समुद्रविजय की रानी सुबला के सगर नाम का पुत्र हुआ । इसकी उम्र सत्तर लाख पूर्व वर्षों की । उसके सोने के समान चमकते हुए शरीर की ऊँचाई साढ़े चार सौ धनुष अर्थात् १५७५ हाथों की थी । संसार की सुन्दरता ने इसी में आकर अपना डेरा दिया था, वह बड़ा ही सुन्दर था । जो इसे देखता उसके नेत्र बड़े आनन्दित होते । सगर ने राज्य प्राप्त कर छहों खण्ड पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। अपनी भुजाओं के बल उसने दूसरे चक्रवर्ती का मान प्राप्त किया । सगर चक्रवर्ती हुआ, पर इसके साथ वह अपना धर्म-कर्म भूल गया था। उसके आठ हजार पुत्र हुए। इसे कुटुम्ब, धन-दौलत, शरीर, सम्पत्ति आदि सभी सुख प्राप्त थे । उसका समय खूब ही सुख के साथ बीतता था । सच है, पुण्य से जीवों को सभी उत्तम - उत्तम सम्पदायें प्राप्त होती है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे जिनभगवान् के उपदेश किए गए पुण्यमार्ग का पालन करें ॥१२- १८॥
इसी अवसर में सिद्धवन में चतुर्मुख महामुनि को केवलज्ञान हुआ । स्वर्ग के देव, विद्याधर राजा-महाराजा उनकी पूजा के लिए आए। सगर भी भगवान् के दर्शन करने को आया था। सगर को आया देख मणिकेतु ने उससे कहा- क्यों राजराजेश्वर, क्या अच्युत स्वर्ग की बात याद है? जहाँ कि तुमने और मैंने प्रेम के वश हो प्रतिज्ञा की थी । कि जो हम दोनों में से पहले मनुष्य जन्म ले उसे स्वर्ग का देव जाकर समझावें और संसार से उदासीन कर तपस्या के सम्मुख करें अब तो आपने बहुत समय तक राज्य-सुख भोग लिया । अब तो इसके छोड़ने का यत्न कीजिए। क्या आप नहीं जानते कि ये विषय-भोग दुःख के कारण और संसार में घुमाने वाले हैं? राजन्, आप तो स्वयं बुद्धिमान् हैं। आपको मैं क्या अधिक समझा सकता हूँ। मैंने तो सिर्फ अपनी प्रतिज्ञा-पालन के लिए आपसे इतना निवेदन किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन क्षण-भंगुर विषयों से अपनी लालसा को कम करके जिन भगवान् का परम पवित्र तपोमार्ग ग्रहण करेंगे और बड़ी सावधानी के साथ मुक्ति कामिनी के साथ ब्याह की तैयारी करेंगे । मणिकेतु ने उसे बहुत कुछ समझाया पर पुत्रमोही सगर को संसार से नाममात्र के लिए उदासीनता न हुई । मणिकेतु ने जब देखा कि अभी यह पुत्र, स्त्री, धन- दौलत के मोह में खूब फँस रहा है। अभी इसे संसार से, विषयभोगों से उदासीन बना देना कठिन ही नहीं किन्तु एक प्रकार असंभव को संभव करने का यत्न है । अस्तु, फिर देखा जायेगा। यह विचार कर मणिकेतु अपने स्थान चला गया। सच है, काललब्धि के बिना कल्याण हो भी नहीं सकता ॥१९-२६॥
कुछ समय के बाद मणिकेतु के मन में फिर एक बार तरंग उठी कि अब किसी दूसरे यत्न द्वारा सगर को तपस्या के सम्मुख करना चाहिए । तब वह चारण मुनि का वेष लेकर, जो कि स्वर्ग- मोक्ष के सुख का देने वाला है, सगर के जिन मन्दिर में आया और भगवान् के दर्शन कर वहीं ठहर गया। उसकी नई उमर और सुन्दरता को देखकर सगर को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने मुनिरूप धारण करने वाले देव से पूछा, मुनिराज, आपकी इस नई उमर ने, जिसने कि संसार का अभी कुछ सुख नहीं देखा, ऐसे कठिन योग को किसलिए धारण किया? मुझे तो आपको योगी हुए देखकर बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है तब देव ने कहा- राजन् ! तुम कहते हो, वह ठीक है । पर मेरा विश्वास है कि संसार में सुख है ही नहीं। जिधर मैं आँखें खोलकर देखता हूँ मुझे दुःख या अशान्ति ही देख पड़ती है। यह जवानी बिजली की तरह चमक कर पलभर में नाश होने वाली है । यह शरीर, जिसे कि तुम भोगों में लगाने को कहते हो, महा अपवित्र है । ये विषय-भोग, जिन्हें तुम सुखरूप समझते हो, सर्प के समान भयंकर हैं और यह संसाररूपी समुद्र अथाह है, नाना तरह के दुःखरूपी भयंकर जलजीवों से भरा हुआ है और मोह जाल में फँसे हुए जीवों के लिए अत्यन्त दुस्तर है । तब जो पुण्य से यह मनुष्य देह मिली है, इसे इस अथाह समुद्र में बहने देना या जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बतलाये इस अथाह समुद्र के पार होने के साधन तपरूपी जहाज द्वारा उसके पार पहुँचा देना। मैं तो इसके लिए यही उचित समझता हूँ कि, जब संसार असार है और उसमें सुख नहीं है, तब संसार से पार होने का उपाय करना ही कर्तव्य और दुर्लभ मनुष्य देह के प्राप्त करने का फल है। मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूँगा कि तुम इस नाशवान् माया-ममता को छोड़कर कभी नाश न होने वाली लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए यत्न करो । मणिकेतु ने इसके सिवा और भी बहुत कहने सुनने या समझाने में कोई कसर न की। पर सगर सब कुछ जानता हुआ भी पुत्र - प्रेम के वश हो संसार को न छोड़ सका । मणिकेतु को इससे बड़ा दुःख हुआ कि सगर की दृष्टि में अभी संसार की तुच्छता नजर न आई और वह उल्टा उसी में फँसता जाता है । लाचार हो वह स्वर्ग चला गया ॥२७-३४॥
एक दिन सगर राज सभा में सिंहासन पर बैठे हुए थे इतने में उनके पुत्रों ने आकर उनसे सविनय प्रार्थना की-पूज्य पिताजी, उन वीर क्षत्रिय - पुत्रों का जन्म किसी काम का नहीं, व्यर्थ है, जो कुछ काम न कर पड़े-पड़े खाते-पीते और ऐशोआराम उड़ाया करते हैं। इसलिए आप कृपाकर हमें कोई काम बतलाइए। फिर वह कितना ही कठिन या असाध्य ही क्यों न हो, उसे हम करेंगे। सगर ने उन्हें जवाब दिया- पुत्रों, तुमने कहा- वह ठीक है और तुमसे वीरों को यही उचित भी है पर अभी मुझे कोई कठिन या सीधा ऐसा काम नहीं दीख पड़ता जिसके लिए मैं तुम्हें कष्ट दूँ और न छहों खण्ड पृथ्वी में मेरे लिए कुछ असाध्य ही है। इसलिए मेरी तो तुमसे यही आज्ञा है कि पुण्य से जो धन-सम्पत्ति प्राप्त है, इसे तुम भोगो। उस दिन तो वे सब लड़के पिता की बात का कुछ जवाब न देकर चुपचाप इसलिए चले गए कि पिता की आज्ञा तोड़ना ठीक नहीं परन्तु उनका मन इससे अप्रसन्न ही रहा ||३५-४०॥
कुछ दिन बीतने पर एक दिन वे सब फिर सगर के पास गए और उन्हें नमस्कार कर बोले- पिताजी, आपने जो आज्ञा दी थी, उसे हमने इतने दिनों उठाई, पर अब हम अत्यन्त लाचार हैं । हमारा मन यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। इसलिए आप अवश्य कुछ काम में हमें लगाइये। नहीं तो हमें भोजन न करने को भी बाध्य होना पड़ेगा। सगर ने जब इनका अत्यन्त ही आग्रह देखा तो उसने उनसे कहा-मेरी इच्छा नहीं कि तुम किसी कष्ट के उठाने को तैयार हो । पर जब तुम किसी तरह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो, तो अस्तु, मैं तुम्हें यह काम बताता हूँ कि श्रीमान् भरत सम्राट् ने कैलाश पर्वत पर चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस मन्दिर बनवाएँ हैं। वे सब सोने के हैं। उनमें बे-शुमार धन खर्च किया है। उनमें जो अर्हन्त भगवान् की पवित्र प्रतिमाएँ हैं वे रत्नमयी हैं । उनकी रक्षा करना बहुत जरूरी है। इसलिए तुम जाओ कैलाश के चारों ओर एक गहरी खाई खोदकर उसमें गंगा का प्रवाह लाकर भर दो। जिससे कि फिर दुष्ट लोग मन्दिरों को कुछ हानि न पहुँचा सकें । सगर के सब पुत्र पिताजी की इस आज्ञा से बहुत खुश हुए। वे उन्हें नमस्कार कर आनन्द और उत्साह के साथ अपने काम के लिए चल पड़े। कैलाश पर पहुँच कर कई वर्षों के कठिन परिश्रम द्वारा उन्होंने चक्रवर्ती के दण्डरत्न की सहायता से अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर ली ॥४१-४६॥
अच्छा, अब उस मणिकेतु की बात सुनिए - उसने सगर को संसार से उदासीन कर योगी बनाने के लिए दोबार यत्न किया, पर दोनों बार उसे निराश हो जाना पड़ा। अबकी बार उसने एक बड़ा भयंकर कांड रचा। जिस समय सगर के ये साठ हजार लड़के खाई खोदकर गंगा का प्रवाह लाने को हिमवान् पर्वत पर गए और इन्होंने दण्ड-रत्न द्वारा पर्वत फोड़ने के लिए उस पर एक चोट मारी उस समय मणिकेतु ने एक बड़े भारी और महाविषधर सर्प का रूप धर, जिसकी फुंकार मात्र से कोसों के जीव-जन्तु भस्म हो सकते थे, अपनी विषैली हवा छोड़ी। उससे देखते-देखते वे सब ही जलकर खाक हो गए। सच है, अच्छे पुरुष दूसरे का हित करने के लिए कभी-कभी तो उसका अहित कर उसे हित की ओर लगाते हैं। मंत्रियों को उनके मरने की बात मालूम हो गई पर उन्होंने राजा से इसलिए नहीं कहा कि वे ऐसे महान् दुःख को न सह सकेंगे। तब मणिकेतु ब्राह्मण का रूप लेकर सगर के पास पहुँचा और बड़े दुःख के साथ रोता-रोता बोला- राजाधिराज, आप सरीखे न्यायी और प्रजाप्रिय राजा के रहते मुझे अनाथ हो जाना पड़े, मेरी आँखों के एक मात्र तारे को पापी लोग जबरदस्ती मुझसे छुड़ा ले जाए, मेरी सब आशाओं पर पानी फेर कर मुझे द्वार-द्वार का भिखारी बना जाए और मुझे रोता छोड़ जाए तो इससे बढ़कर दुःख की और क्या बात होगी? प्रभो, मुझे आज पापियों ने बे-मौत मार डाला है । मेरी आप रक्षा कीजिए-अशरण-शरण, मुझे बचाइए ॥४७-५२॥
सगर ने उसे इस प्रकार दुःखी देखकर धीरज दिया और कहा - ब्राह्मण देव, घबराइए मत वास्तव में बात क्या है उसे कहिए । मैं तुम्हारे दुःख दूर करने का यत्न करूँगा। ब्राह्मण ने कहा– महाराज क्या कहूँ? कहते छाती फटी जाती है, मुँह से शब्द नहीं निकलता। यह कहकर वह फिर रोने लगा। चक्रवर्ती को इससे बड़ा दुःख हुआ । उसके अत्यन्त आग्रह करने पर मणिकेतु बोला- अच्छा तो महाराज, मेरी दुःख कथा सुनिए - मेरे एक मात्र लड़का था । मेरी सब आशा उसी पर थी। वही मुझे खिलाता-पिलाता था । पर मेरे भाग्य आज फूट गए। उसे एक काल नाम का एक लुटेरा मेरे हाथों से जबरदस्ती छीन भागा। मैं बहुत रोया व कलपा, दया की मैंने उससे भीख माँगी, बहुत आरजू-मिन्नत की, पर पापी चाण्डाल ने मेरी ओर आँख उठाकर भी न देखा। राजराजेश्वर, आपसे, मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि आप मेरे पुत्र को उस पापी से छुड़ा ला दीजिए। नहीं तो मेरी जान न बचेगी। सगर को काल- लुटेरे का नाम सुनकर कुछ हँसी आ गई उसने कहा- महाराज, आप बड़े भोले हैं। भला, जिसे काल ले जाता है, जो मर जाता है वह फिर कभी जीता हुआ है क्या ? ब्राह्मण देव, काल किसी से नहीं रुक सकता । वह तो अपना काम किए ही चला जाता है । फिर चाहे कोई बूढ़ा हो, या जवान हो, या बालक, सबके प्रति उसके समान भाव हैं। आप तो अभी अपने लड़के के लिए रोते हैं, पर मैं कहता हूँ कि वह तुम पर भी बहुत जल्दी सवारी करने वाला है। इसलिए यदि आप यह चाहते हों कि मैं उससे रक्षा पा सकूँ, तो इसके लिए ऐसा उपाय कीजिए कि आप दीक्षा लेकर मुनि हो जाएँ और अपना आत्महित करें। इसके सिवा काल पर विजय पाने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। सब कुछ सुन - सुनाकर ब्राह्मण ने कुछ लाचारी बतलाते हुए कहा कि यदि यह बात सच है और वास्तव में काल से कोई मनुष्य विजय नहीं पा सकता तो लाचारी है। अस्तु, हाँ एक बात तो राजाधिराज, मैं आपसे कहना ही भूल गया और वह बड़ी ही जरूरी बात थी । महाराज, इस भूल की मुझ गरीब पर क्षमा कीजिए । बात यह है कि मैं रास्ते में आता - आता सुनता आ रहा हूँ, लोग परस्पर में बातें करते हैं कि हाय ! बड़ा बुरा हुआ जो अपने महाराज के लड़के कैलाश पर्वत की रक्षा के लिए खाई खोदने को गए थे, वे सबके सब एक साथ मर गए ॥५३-५७॥
ब्राह्मण का कहना पूरा भी न हुआ था कि सगर एकदम गश खाकर गिर पड़े। सच है, ऐसे भयंकर दुःख समाचार से किसे गश न आयेगा, कौन मूच्छित न होगा? उसी समय उपचारों द्वारा सगर होश में लाये गए। इसके बाद मौका पाकर मणिकेतु ने उन्हें संसार की दशा बतलाकर खूब उपदेश किया। अब की बार वह सफल प्रयत्न हो गया । सगर को संसार की इस क्षण-भंगुर दशा पर बड़ा ही वैराग्य हुआ। उन्होंने भागीरथ को राज देकर और सब माया-ममता छुड़ाकर दृढ़धर्म केवली द्वारा दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार का भटकना मिटाने वाली है ॥५८-६१॥
सगर की दीक्षा लेने के बाद ही मणिकेतु कैलाश पर्वत पर पहुँचा और उन लड़कों को माया- मौत से सचेत कर बोला- सगर सुतो सुनो, जब आपकी मृत्यु का हाल आपके पिता ने सुना तो उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वे संसार की विनाशीक लक्ष्मी को छोड़कर साधु हो गए। मैं आपके कुल का ब्राह्मण हूँ । महाराज को दीक्षा ले जाने की खबर पाकर आपको ढूँढ़ने को निकला था। अच्छा हुआ जो आप मुझे मिल गए। अब आप राजधानी में जल्दी चलें । ब्राह्मणरूपधारी मणिकेतु द्वारा पिता का अपने लिए दीक्षित हो जाना सुनकर सगरसुतों ने कहा महाराज, आप जायें । हम लोग अब घर नहीं जाएँगे । जिस लिए पिताजी सब राज्यपाठ छोड़कर साधु हो गए तब हम किस मुँह से उस राज को भोग सकते हैं? हमसे इतनी कृतघ्नता न होगी, जो पिताजी के प्रेम का बदला हम ऐशो आराम भोग कर दें । जिस मार्ग को हमारे पूज्य पिताजी ने उत्तम समझकर ग्रहण किया है वही हमारे लिए भी शरण है । इसलिए कृपा कर आप हमारे इस समाचार को भैया भागीरथ से जाकर कह दीजिए कि वह हमारे लिए कोई चिन्ता न करें । ब्राह्मण से इस प्रकार कहकर वे सब भाई भगवान् के समवसरण में आए और पिता की तरह दीक्षा लेकर साधु बन गए ॥६२-६५॥
भागीरथ को भाइयों का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ । उसकी इच्छा भी योग ले लेने की हुई, पर राज्य-प्रबन्ध उसी पर निर्भर रहने से वह दीक्षा न ले सका परन्तु उसने उन मुनियों द्वारा जिनधर्म का उपदेश सुनकर श्रावकों के व्रत ग्रहण किए। मणिकेतु का सब काम जब अच्छी तरह सफल हो गया तब वह प्रकट हुआ और उन सब मुनियों को नमस्कार कर बोला- भगवन् आपका मैंने बड़ा भारी अपराध जरूर किया है। पर आप जैनधर्म में तत्त्व को यथार्थ जानने वाले हैं। इसलिए सेवक को क्षमा करें। इसके बाद मणिकेतु ने आदि से इति पर्यन्त सब घटना कह सुनाई मणिकेतु के द्वारा सब हाल सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई वे उससे बोले - देवराज, इसमें तुम्हारा अपराध क्या हुआ, जिसके लिए क्षमा की जाए? तुमने तो उल्टा हमारा उपकार किया है। इसलिए हमें तुम्हारा कृतज्ञ होना चाहिए। मित्रपने के नाते से तुमने जो कार्य किया है वैसा करने के लिए तुम्हारे बिना और समर्थ ही कौन था? इसलिए देवराज, तुम ही सच्चे धर्म-प्रेमी हो, जिन भगवान् के भक्त हो और मोक्ष - लक्ष्मी की प्राप्ति के कारण हो । सगर - - सुतों को इस प्रकार सन्तोष जनक उत्तर पर मणिकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। वह फिर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर स्वर्ग चला गया । यह मुनिसंघ विहार करता हुआ सम्मेदशिखर पर आया और यहीं कठिन तपस्या कर शुक्लध्यान के प्रभाव से इसने निर्वाण लाभ किया ॥६६-७३॥
उधर भागीरथ ने जब अपने भाइयों का मोक्ष प्राप्त करना सुना तो उसे भी संसार से बड़ा वैराग्य हुआ। वह फिर अपने वरदत्त पुत्र को राज्य सौंप आप कैलाश पर शिवगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहण कर मुनि हो गया । भगीरथ ने मुनि होकर गंगा के सुन्दर किनारों पर कभी प्रतिमायोग से, कभी आतापन योग से और कभी और किसी आसन से खूब तपस्या की । देवता लोग उसकी तपस्या से बहुत खुश हुए और इसीलिए उन्होंने भक्ति के वश हो भगीरथ के चरणों को क्षीर-समुद्र के जल से अभिषेक किया, जो कि अनेक प्रकार के सुखों का देने वाला है। उस अभिषेक के जल का प्रवाह बहता हुआ गंगा में गया। तभी से गंगा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुई और लोग उसके स्नान को पुण्य का कारण समझने लगे। भगीरथ ने फिर कहीं अन्यत्र विहार न किया । वह वहीं तपस्या करता रहा और अन्त में कर्मों का नाशकर उसने जन्म, जरा, मरणादि रहित मोक्ष का सुख भी यहीं से प्राप्त किया ॥७४-८०॥
केवलज्ञानरूपी नेत्र द्वारा संसार के पदार्थों को जानने और देखने वाले, देवों द्वारा पूजा किए गए और मुक्तिरूप रमणीरत्न के स्वामी श्रीसगर मुनि तथा जैनतत्त्व के परम विद्वान् वे सगरसुत मुनिराज मुझे वह लक्ष्मी दें, जो कभी नाश होने वाली नहीं है और सर्वोच्च सुख की देने वाली है ॥८१॥