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JainSamaj.World

Rajkumaar jain

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About Rajkumaar jain

  • Birthday 07/05/1997

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  • स्थान / शहर / जिला / गाँव
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  1. 1 प्रतिग्रहण (पड़गाहन) 2 - उच्चासन 3 - पाद प्रक्षालन 4 - पूजन 5 - नमस्कार 6 - तथा मनश्ुद्धि 7 - काय शुद्धि 8 - और आहार जल की शुद्धि बोलना।
  2. यह एक जैन मंत्र है, जिसका अर्थ है: "चलते फिरते तीर्थ हैं दिगम्बर (नंगे पैर चलने वाले), जो पैसा और आडम्बर नहीं रखते। मैं नमन करता हूँ सभी श्रेष्ठ आत्माओं को (णमो लोए श्री सव्वसाहूणं)। अब मैं अपनी कुल मात्रा (जीवन का उद्देश्य) को बताता हूँ।" यह मंत्र जैन धर्म के सिद्धांतों को दर्शाता है, जिसमें सादगी, त्याग और आत्म-साक्षात्कार पर जोर दिया जाता है।
  3. राजगृही नगरी में एक सेठ रहता था।उसका नाम नागदत्त था और उसकी सेठानी का नाम भवदत्ता था।सेठ नागदत्त के स्वभाव में मायाचारी अधिक था।वह कहता कुछ था करता कुछ था और मन में कुछ और ही विचारा करता था।सेठ जी ने अपनी आयु पूर्ण होने पर शरीर छोड़ा और मर कर अपने ही आंॅगन की बावड़ी में मेंढ़क हुआ।ठीक है कि मायाचारी मनुष्य को प्शु होना पड़ता है।इसलिये श्री गुरु ने शिक्षा दी है कि - मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तनसों करिये । जब मेंढ़क ने अपने पूर्व भव की स्त्री भवदत्ता को बावड़ी पर देखा तो उसे पूर्व भव की याद आ गई।वह मेंढ़क उछल कर भवदत्ता के कपड़ों पर गिरा।भवदत्ता ने कपड़े फटकार कर मेंढ़क को हटा दिया।वह फिर भी भवदत्ता के ऊपर कूद आया और भवदत्ता ने फिर हटा दिया।ऐसा कई बार होने से भवदत्ता ने सोचा कि मेंढ़क के जीव और मुझसे पूर्व जन्म का कुछ सम्बंध होगा, इसी कारण वह मुझसे प्रेम प्रगट करता है। भाग्य से भवदत्ता सेठानी को सुव्रतमुनि के दर्शन हुये।सेठानी ने मुनिराज को नमस्कार कर अपने साथ मेंढ़क के सम्बंध के बारे मंे पूंछा।उन अवधिज्ञानी मुनिराज ने उत्तर दिया कि यह मेंढ़क तेरे ही पति का जीव है।जब भवदत्ता को यह मालूम हुआ कि यह मेंढ़क मेरे पति का जीव है ,तब वह उसको बड़े आराम से रखने लगी और मेंढ़क भी आनन्द से रहने लगा।एक दिन राजगृही नगरी में विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण आया।वहां राजा रेणिक और बस्ती की सभी स्त्रियां और पुरुष अष्टद्रव्य आदि पूजा की सामग्री लेकर भगवान की वन्दना को गये और भक्तिभाव सहित पूजन, वन्दना करके अपने योग्य स्थान पर उपदेश सुनने बैठ गये।भवदत्ता भी भगवान की पूजा के लिये आई। मेढ़क ने भी आकाश में देवों को जाते हुये देखा।जिससे उसे पूर्व भव की याद आ गई और भगवान की पूजा करने की इच्छा हुई।वह बावड़ी में से कमल की कली तोड़कर उसे मुॅह में दबा कर भगवान की पूजा को चला।मेंढ़क ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था त्यों-त्यों उसकी रुचि जिन पूजा में बढ़ती ही जाती थी। उस दिन भीड़ बहुत थी।लाखों देव आकाश मार्ग से आ रहे थे और स्त्री-पुरुष पशु आदि सड़कों पर से जा रहे थे।उत्साह से प्रेरित मेंढ़क भी बड़े मौज से चला जा रहा था।इतने में एक हाथी का पांव मेंढ़क के ऊपर पड़ गया और उसका जीवन समाप्त हो गया। मेढ़क का भाव जिन पूजा में उत्कंठित था, इससे पूजा में प्रेम से जीवों की जो गति होती है, वही गति मेंढ़क की हुई।वह मर कर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों का धारक देव हुआ । वहां थोड़ी ही देर में युवा हो गया।उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म की बात विचारी और तुरन्त ही विमान में बैठकर भगवान के समवसरण में गया।भगवान की पूजा में उसका बहुत प्रेम बढ़ रहा था इसलिये स्वर्ग में एक पल भर भी नहीं ठहरा तुरन्त समवसरण में चला गया। उसने मेंढ़क की पर्याय से ज्ञान पाया था इसलिये उसके मुकुट में मेंढ़क का आकार था।जब वह देव भगवान की पूजन वन्दना करके देवों की सभा में गया तो राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी से पूंछा कि हे प्रभो - मैनें देवों के मुकुट में मेंढ़क का आकार कभी नहीं देखा।इस देव के मुकुट में मेंढ़क का चिन्ह क्यों है ? राजा श्रेणिक का यह प्रश्न सुनकर गौतमस्वामी ने नागदत्त के भव से लगाकर सब हाल सुनाया।उसे सुनकर राजा श्रेणिक और सब लोगों को जिनपूजा में बड़ी रुचि हुई और सबका सन्देह दूर हो गया। सारांश - देखो, मेंढ़क ने कमल की कली से पूजा करने की केवल इच्छा ही की थी।उसका ऐसा उत्तम फल हुआ।फिर जो मनुष्य अष्टद्रव्य से भक्तिभाव सहित पूजा करेगें वे अपनी आत्मा की भलाई क्यों नहीं करेगें?ऐसा जानकर जिननेन्द्र भगवान की पूजा प्रतिदिन कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाना चाहिये।
  4. एक समय सुगुप्त नाम के मुनिराज कृश शरीर दिगम्बर मुद्रायुक्त आहार के निमित्त बस्ती में आये, उन्हें देखकर रानी ने अत्यंत घृणापूर्वक उनकी निंदा की और पान की पीक मुनि पर थूंक दी। सो मुनि तो अन्तराय होने के कारण बिना आहार लिए ही पीछे वन में चले गये और कर्मों की विचित्रता पर विचार कर समभाव धारण कर ध्यान में निमग्न हो गये। परन्तु थोड़े दिन पश्चात् रानी मरकर गधी हुई, फिर सूकरी हुई, फिर कुकरी हुई, फिर वहाँ से मरकर मगध देश के बसंततिलका नगर में विजयसेन राजा की रानी चित्रलेखा की दुर्गन्धा नाम की कन्या हुई। सो इसके शरीर से अत्यन्त दुर्गन्ध निकला करती थी। एक समय राजा अपनी सभा में बैठा था कि धनपाल ने आकर समाचार दिया कि हे राजन्! आपके नगर के वन में सागरसेन नाम के मुनिराज चतुर्विध संघ सहित पधारे हैं। यह समाचार सुनकर राजा प्रजा सहित वन्दना को गया और भक्तिपूर्वक नतमस्तक हो राजा ने स्तुति, वंदना की। पश्चात् मुनि तथा श्रावक के धर्मों के उपदेश सुनकर सबने यथाशक्ति व्रतादिक लिये। किसी ने सम्यक्त्व ही अंगीकार किया। इस प्रकार उपदेश सुनने के अनन्तर राजा ने नम्रतापूर्वक पूछा- हे मुनिराज! यह मेरी कन्या दुर्गन्धा किसी पाप के उदय से ऐसी हुई है सो कृपाकर कहिए। तब श्री गुरु ने उसके पूर्व भवों का समस्त वृत्तांत मुनि की निंदादिक कह सुनाया, जिसको सुनकर राजा और कन्या सभी को पश्चाताप हुआ। निदान राजा ने पूछा-प्रभो! इस पाप से छूटने का कौन सा उपाय है? तब श्री गुरु ने कहा-समस्त धर्मों का मूल सम्यग्दर्शन है, सो अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिनभाषित धर्म में श्रद्धा करके उनके सिवाय अन्य रागी-द्वेषी देव-भेषी गुरु, हिंसामय धर्म का परित्याग, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण इन पाँच व्रतों को अंगीकार करे और सुगंध दशमी का व्रत पालन करे जिससे अशुभ कर्म का क्षय होवे
  5. एक गाँव में एक किसान रहता था उसके परिवार में उसकी पत्नी और एक लड़का था। कुछ सालों के बाद पत्नी मृत्यु हो गई उस समय लड़के की उम्र दस साल थी किसान ने दुसरी शादी कर ली। उस दुसरी पत्नी से भी किसान को एक पुत्र प्राप्त हुआ। किसान की दुसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। किसान का बड़ा बेटा जो पहली पत्नी से प्राप्त हुआ था जब शादी के योग्य हुआ तब किसान ने बड़े बेटे की शादी कर दी। फिर किसान की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। किसान का छोटा बेटा जो दुसरी पत्नी से प्राप्त हुआ था और पहली पत्नी से प्राप्त बड़ा बेटा दोनो साथ साथ रहते थे। कुछ टाईम बाद किसान के छोटे लड़के की तबीयत खराब रहने लगी। बड़े भाई ने कुछ आस पास के वैद्यों से ईलाज करवाया पर कोई राहत ना मिली। छोटे भाई की दिन पर दिन तबीयत बिगड़ी जा रही थी और बहुत खर्च भी हो रहा था। एक दिन बड़े भाई ने अपनी पत्नी से सलाह की, यदि ये छोटा भाई मर जाऐ तो हमें इसके ईलाज के लिऐ पैसा खर्च ना करना पड़ेगा। तब उसकी पत्नी ने कहा: कि क्यों न किसी वैद्य से बात करके इसे जहर दे दिया जाऐ किसी को पता भी ना चलेगा कोई रिश्तेदारी में भी कोई शक ना करेगा कि बिमार था बिमारी से मृत्यु हो गई। बड़े भाई ने ऐसे ही किया एक वैद्य से बात की आप अपनी फीस बताओ और ऐसा करना मेरे छोटे भाई को जहर देना है। वैद्य ने बात मान ली और लड़के को जहर दे दिया और लड़के की मृत्यु हो गई। उसके भाई भाभी ने खुशी मनाई की रास्ते का काँटा निकल गया अब सारी सम्पति अपनी हो गई । उसका अतिँम संस्कार कर दिया कुछ महीनो पश्चात उस किसान के बड़े लड़के की पत्नी को लड़का हुआ। उन पति पत्नी ने खुब खुशी मनाई, बड़े ही लाड प्यार से लड़के की परवरिश की थोड़े दिनो में लड़का जवान हो गया। उन्होंने अपने लड़के की शादी कर दी। शादी के कुछ समय बाद अचानक लड़का बीमार रहने लगा। माँ बाप ने उसके ईलाज के लिऐ बहुत वैद्यों से ईलाज करवाया। जिसने जितना पैसा माँगा दिया सब दिया कि लड़का ठीक हो जाऐ। अपने लड़के के ईलाज में अपनी आधी सम्पति तक बेच दी पर लड़का बिमारी के कारण मरने की कगार पर आ गया। शरीर इतना ज्यादा कमजोर हो गया कि अस्थि पिजंर शेष रह गया था। एक दिन लड़के को चारपाई पर लेटा रखा था और उसका पिता साथ में बैठा अपने पुत्र की ये दयनीय हालत देख कर दुःखी होकर उसकी और देख रहा था। तभी लड़का अपने पिता से बोला: “कि भाई! अपना सब हिसाब हो गया बस अब कफन और लकड़ी का हिसाब बाकी है उसकी तैयारी कर लो।” ये सुनकर उसके पिता ने सोचा कि लड़के का दिमाग भी काम ना कर रहा बीमारी के कारण और बोला बेटा मैं तेरा बाप हुँ, भाई नहीं। तब लड़का बोला मै आपका वही भाई हुँ जिसे आप ने जहर खिलाकर मरवाया था जिस सम्पति के लिऐ आप ने मरवाया था मुझे अब वो मेरे ईलाज के लिऐ आधी बिक चुकी है आपकी की शेष है हमारा हिसाब हो गया। तब उसका पिता फूट-फूट कर रोते हुवे बोला, कि मेरा तो कुल नाश हो गया जो किया मेरे आगे आ गया पर तेरी पत्नी का क्या दोष है जो इस बेचारी को जिन्दा जलाया जायेगा। (उस समय सतीप्रथा थी, जिसमें पति के मरने के बाद पत्नी को पति की चिता के साथ जला दिया जाता था) तब वो लड़का बोला: कि वो वैद्य कहाँ, जिसने मुझे जहर खिलाया था पिता ने कहा: कि आपकी मृत्यु के तीन साल बाद वो मर गया था। तब लड़के ने कहा: कि ये वही दुष्ट वैद्य आज मेरी पत्नी रुप में है मेरे मरने पर इसे जिन्दा जलाया जायेगा।
  6. पर्दुम कुमार से अच्छा उदाहरण है उनके पिछले भब का जब बह मथुरा के राजा मघु के नाम से जाने जाते थे कही युद्ध जीते ओर सुंदर राजकुमारी से बिबाह हुआ उसी समय एक राज्य ओर था जहाँ हेमराज राज्य करते थे राजा मघु उनकी पत्नी ( हेमराज राजा ) मोहीम हो गया मंत्री की कुपित चाल से रानी को पटरानी बना दिया हेमराज राजा यह सहन नहीं हुआ बह पागल सा हो गया पूर्व पति की हालत देखकर बहुत बुरा लगा राजा मघु को समझने से वेराग़्य हुआ मुनि दीक्षा ली 🙏
  7. *आज का धर्म - उत्तम आर्जव धर्म* *उत्तम आर्जव धर्म की जय* सीधा, सादा और सरल होना ही सहजता है और सहजता का जीवन में आ जाना ही ऋजुता है, यानी जिसके जीवन में सीधापन, सरलता, सहजता और ऋजुता है वही उत्तम आर्जव धर्म का सही उपासक है। *ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्माङ्गाय नमः*
  8. मैं उस समय बस इतना कहना है सचचाई गुरु से समाधन ले चाहिए 🙏🙏
  9. *आज का धर्म - उत्तम आर्जव धर्म* *उत्तम आर्जव धर्म की जय* सीधा, सादा और सरल होना ही सहजता है और सहजता का जीवन में आ जाना ही ऋजुता है, यानी जिसके जीवन में सीधापन, सरलता, सहजता और ऋजुता है वही उत्तम आर्जव धर्म का सही उपासक है। *ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्माङ्गाय नमः*
  10. *उत्तम क्षमा धर्म* अन्तरंग जिनका पवित्र, मन जिनका निर्मल जल सा, चेहरे पे नहीं जिनके क्लेश, वही है उत्तम क्षमा धर्म का परिवेश और वही है अपनी आत्मा का देश।। क्रोध आग है तो क्षमा शीतल निर्मल नीर। शीतल छांव में सब बैठो, आग से दूर रह 🙏 🙏🙏
  11. कार्यस्थल पर दूसरों की प्रशंसा पाने की लालसा (लोकेषणा) को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, ताकि यह हमारी उत्पादकता और मानसिक शांति पर नकारात्मक प्रभाव न डाले?
  12. *उत्तम मार्दव धर्म की जय* मार्दव अर्थात मान (घमंड) तथा दीनता-हीनता का अभाव। और वह नाश जब आत्मा के ज्ञान/श्रद्धान सहित होता है, तब ‘उत्तम मार्दव धर्म’ नाम पाता है। 🙏🙏🙏 *ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नम:*
  13. *उत्तम मार्दव धर्म की जय* मार्दव अर्थात मान (घमंड) तथा दीनता-हीनता का अभाव। और वह नाश जब आत्मा के ज्ञान/श्रद्धान सहित होता है, तब ‘उत्तम मार्दव धर्म’ नाम पाता है। 🙏🙏🙏 *ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नम:*
  14. हम जैन हैं हमारे यहाँ नमस्ते नहीं जय जिनेन्द्र बोला जाता है, हम जैन हैं हमारे यहाँ बिना प्याज-लहसून के भी स्वादिष्ट भोजन बनता है, हम जैन हैं हमारे यहाँ पानी फिल्टर करके नहीं छानकर पिया जाता है, हम जैन हैं हमारे यहाँ सब्जी और फलों को काटा नहीं सुधारा या बनाया जाता है, हम जैन हैं हमारे यहाँ सॉरी नहीं उत्तम क्षमा बोला जाता है, हाँ हम जैन हैं हमारी हर समस्या का समाधान णमोकार मंत्र और उत्तम क्षमा है, हम जैन हैं हमारे यहाँ वात्सल्य और भाईचारे का भाव होता है ना कि हिंसा और द्वेष का, तो सोचिए विचारिये क्यूँ आजकल हम आधुनिकीकरण, पाश्चात्य संस्कृति, अभिमान, अकड़ और झूठी शान-शौकत में अपना धर्म और धर्म के नैतिक मूल्यों को भूल रहे हैं? जय जिनेन्द्र 🙏 🙏
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