स्थापना-चौबोल छंद
हे इस युग के आदि विधाता, वृषभदेव पुरुदेव प्रभो |
हे युग स्त्रष्टा तुम्हे बुलाऊं आवो आवो यहाँ विभो ||
आदिनाथ सूत हैं भरतेश्वर ! हे बाहुबली ! आज यहाँ |
आवो तिष्ठो ह्रदय विराजो जग में मंगल करो यहाँ ||१||
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव-भरत-बाहुबली-स्वामिन: ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आव्हानं |
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव-भरत-बाहुबली-स्वामिन: ! अत्र तिष्ठत ठ: ठ: स्थापनं |
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव-भरत-बाहुबली-स्वामिन: ! अत्र मम सन्निहितो भवत वषट् सन्निधीकरणं |
अष्टक-चौबोल छंद
कमलरेणु से सुरभित निर्मल, कनक पात्र जल पूर्ण भरें |
उभय लोक के ताप हरण को, त्रिभुवन गुरु पद धार करें ||
श्रीवृषभेष भरत बाहुबली, तीनों के पद कमल जजुं |
निज के तीन रत्न को पाकर भव भव दुःख से शीघ्र बचूं ||
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो जलं निर्वपामि ति स्वाहा |
कंचन रस सम पीत सुघंधित चन्दन तन की ताप हरे |
यम संताप हरण हेतु प्रभु, तुम पद चर्चुं भक्ति भरें || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो चन्दनं निर्वपामि ति स्वाहा |
देवजीर शाली भर थाली, उदधि फेन सम पुंज करें |
कर्म पुंज के खंडखंड कर निज अखंड पद शीघ्र वरें || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो अक्षतं निर्वपामि ति स्वाहा |
मधुकर चुम्बित कुंद कमल ले, काम जयी तुम चरण जजें |
तुम निष्काम कामना पूरक, जजत कामभट तुरत भजे || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो पुष्पं निर्वपामि ति स्वाहा |
घृतबाटी सोहाल समोसे कुंडलनी, ले थाल भरें |
क्षुधा नागिनी विष अपहरने, तुम सम्मुख चरु भेट करें || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामि ति स्वाहा |
कनक दीप कपुर जलाकर, जिन मंदिर उद्योत करें |
मोह निशाचर दूर भगाकर, निज आतम उद्योत करें || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो दीपं निर्वपामि ति स्वाहा |
धुप सुगंधित धुपायन में खेते दश दिश धूम उड़े |
तुम पद सम्मुख तुरत भस्म हो, निज की सुख सम्पति बढ़ें || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो धूपं निर्वपामि ति स्वाहा |
श्रीफल पूग अनार आमला सेव आम्र अंगूर भले |
सरस मधुर निज आतम रसमय सत्फल पूजन करत फले || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो फल निर्वपामि ति स्वाहा |
वारि गंध अक्षत कुसुमादिक, उसमें बहु रत्नादि मिले |
अर्घ चढ़ाकर तुम गुण गाऊं, सम्यक ज्ञान प्रसून खिले || श्रीवृषभेष
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-चरणेभ्यो अर्घं निर्वपामि ति स्वाहा |
दोहा
त्रिभुवन पति त्रिभुवनधनी, त्रिभुवन के गुरु आप |
त्रयधारा चरणों करूँ, मिटें जगत त्रय ताप ||
शान्तये शांतिधारा |
ज्ञानदरश सुख वीर्यमय, गुण अनन्त विलसंत |
पुष्पांजलि से पुजहूँ, हरू सकल जग फंद ||
दिव्य पुष्पांजलि: |
जयमाला
दोहा
ज्ञान ज्योति में तव दिखे, लोक अलोक समस्त |
मैं गाऊं गुणमालिका, मम पथ करो प्रशस्त ||१
शंभू छंद
जय जय आदीश्वर तीर्थंकर, तुम ब्रम्हा विष्णु महेश्वर हो |
जय जय कर्मरिजयी जिनवर तुम परमपिता परमेश्वर हो ||
जय युगस्त्रष्टा असि मषि आदिक किरिया उपदेशी जनता को |
त्रय वर्ण व्यवस्था राजनीति ग्रहीधर्म बताया परजा को ||२||
निज पुत्र पुत्रियों को विद्या अध्ययन करा निष्पन्न किया |
भरतेश्वर को साम्राज्य सौप शिवपाठ मुनि धर्म प्रशस्त किया ||
इक सहस वर्ष तप करके प्रभु कैवल्यज्ञान को प्रकट किया |
अठरह कोड़ाकोड़ी सागर के बाद, मुक्ति पथ प्रकट किया ||३||
तुम प्रथम पुत्र भरतेश प्रथम चक्रेश हो षट्खंडजयी |
जिन भक्तो में थे प्रथम तथा अध्यात्म शिरोमणि गुणमणि ही ||
सब जन मन प्रिय थे सार्वभौम यह भारतवर्ष सनाथ किया |
दीक्षा लेते ही क्षणभर में निज केवल ज्ञान प्रकाशित किया ||४||
हे ऋषभदेव सुत बाहुबली तुम कामदेव होकर प्रगटे |
सुत थे द्वितीय पर अद्वितीय चक्रेश्वर को भी जीत सकें ||
तुमने दीक्षा ले एक वर्ष का योग लिया ध्यानस्थ हुए |
वन लता भुजाओं तक फैली सर्पो ने वामी बना लिये ||५||
इक वर्ष पूर्ण होते ही तो भरतेश्वर ने आ पूजा की |
उसी क्षण तुम हुए निर्विकल्प तब केवलज्ञान की प्राप्ति की ||
कैलाशगिरी से मुक्ति वरी ऋषभेश भरत बाहुबली ने |
उस मुक्ति थान को मैं प्रणमु मेरे मनवंछित कार्य बने ||६||
जय जय हे आदिनाथ स्वामिन ! जय जय भरतेश्वर मुक्तिनाथ |
जय जय योगेश्वर बाहुबली ! मुझ को भी निज सम करो नाथ ||
तुम भक्ति भववारिधि नौका जो भव्य इसे पा लेते हैं |
वे ज्ञानमती के साथ साथ अरहंत श्री वर लेते हैं ||७||
दोहा
परम चिदम्बर चित्पुरुष चिच्चिंतामणि देव |
नमूं नमूं अंजलि किये , करूँ सतत तुम सेव ||८||
ॐ ह्रीं तीर्थंकर वृषभदेव तत्सुत-भरत-बाहुबली-स्वामीभ्यो जयमाला अर्घ्यं निर्वपामि ति स्वाहा |
शान्तये शांतिधारा | दिव्य पुष्पांजलि: |
सोरठा
नित्य निरंजनदेव परमहंस परमातमा |
तुम पद युग की सेव करते ही सुख सम्पदा ||
इत्याशिर्वाद:|