कविश्री दौलत आसेरी
स्थापना
(दोहा)
चौबिस जिनपद प्रथम नमि, दुतिय सु गणधर पाय |
त्रितिय पंच-परमेष्ठि को, चौथे शारद माय ||
मन वच तन ये चरन युग, करहुँ सदा परनाम |
ऋषिमंडल-पूजा रचूं, बुधि बल द्यो अभिराम ||
(अडिल्ल छन्द)
चौबीस जिन वसु वर्ग पंच गुरु जे कहे |
रत्नत्रय चव-देव चार अवधी लहे ||
अष्ट ऋद्धि चव दोय सुरि ह्रीं तीन जू |
अरिहंत दश दिग्पाल यंत्र में लीन जू ||
(दोहा)
यह सब ऋषिमंडल-विषै, देवी-देव अपार |
तिष्ठ-तिष्ठ रक्षा करो, पूजूँ वसु-विधि सार ||
ओं ह्रीं श्री वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अरिहंतादि पंचपद, दर्शनज्ञानचारित्र रूपरत्नत्रय, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धिधारी ऋषि, चौबीस देव, तीन ह्रीं, अरिहन्त-बिम्ब, दश दिग्पाल इति यंत्रसम्बन्धी परमदेव समूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अरिहंतादि पंचपद, दर्शनज्ञानचारित्र रूपरत्नत्रय, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धिधारी ऋषि, चौबीस देव, तीन ह्रीं, अरिहन्त-बिम्ब, दश दिग्पाल इति यंत्रसम्बन्धी .परमदेव समूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्री वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अरिहंतादि पंचपद, दर्शनज्ञानचारित्र रूपरत्नत्रय, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धिधारी ऋषि, चौबीस देव, तीन ह्रीं, अरिहन्त-बिम्ब, दश दिग्पाल इति यंत्रसम्बन्धी परमदेव समूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (हरिगीता छन्द)
क्षीर-उदधि-समान निर्मल, तथा मुनि-चित-सारसो |
भर भृंग-मणिमय नीर सुन्दर, तृष तुरति निवारसो ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
मलय चंदन लाय सुन्दर, गंधसों अलि झंकरे |
सो लेहु भविजन कुंभ भरिके, तप्त-दाह सबै हरे ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
इन्दु-किरण समान सुन्दर, ज्योति मुक्ता की हरें |
हाटक रकेबी धारि भविजन, अखय-पद प्राप्ती करें ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि -परमदेवाय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
पाटल गुलाब जुही चमेली, मालती बेला घने |
जिस सुरभि तें कलहंस नाचत, फूल गुंथि माला बने ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि -परमदेवाय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
अर्द्धचंद्र-समान फेनी मोदकादिक ले घने |
घृत पक्व मिश्रित रस सु पूरे लख क्षुधा डायनि हने ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
मणिदीप-ज्योति जगाय सुन्दर, वा कपूर अनूपकं |
हाटक सुथाली-माँहि धरिके, वारि जिनपद-भूपकं ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
चंदन सु कृष्णागरु कपूर, मँगाय अग्नि जराइये |
सो धूप-धूम अकाश लागी, मनहुँ कर्म उड़ाइये ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति.स्वाहा ।७।
दाड़िम सु श्रीफल आम्र कमरख, और केला लाइये |
मोक्षफल के पायवे की, आश धरि करि आइये ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यंत्र-सम्बन्धि-परमदेवाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति. स्वाहा ।८।
जल-फलादिक द्रव्य लेकर, अर्घ्य सुन्दर कर लिया |
संसार-रोग निवार भगवन्, वारि तुम पद में दिया ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे, पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब सुख, स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ओं ह्रीं श्री यन्त्र-सम्बन्धि-परमदेवाय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
अर्घ्यावली (अडिल्ल छन्द)
वृषभ जिनेश्वर आदि अंत महावीर जी |
ये चौबिस जिनराज हनें भवपीर जी ||
ऋषि मंडल बिच ह्रीं विषै राजें सदा |
पूजूँ अर्घ्य बनाय होय नहिं दु:ख कदा ||
ओं ह्रीं श्री वृषभादि-चतुर्विन्शति तीर्थंकर-परमदेवाय अर्यंṁप निर्वपामिति स्वाहा ।
आदि अवर्ग सु अन्तजानि श-ष-स-हा |
ये वसुवर्ग महान यंत्र में शुभ कहा ||
जल शुभ गंधादिक वर द्रव्य मँगायके |
पूजहुँ दोऊ कर जोड़ि शीश निज नायके ||
ओं ह्रीं श्री अवर्गादि-श-ष-स-हान्त अष्टवर्गाय अर्यं|r निर्वपामीति स्वाहा ।।
(कामिनी-मोहिनी छन्द)
परम उत्कृष्ट परमेष्ठी पद पाँच को |
नमत शत-इन्द्र खगवृंद पद साँच को ||
तिमिर अघ नाश करण को तुम अर्क हो |
अर्घ लेय पूज्य पद देत बुद्धि तर्क हो ||
ओं ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठि-परमदेवाय अर्यंतर निर्वपामीति स्वाहा ।
(सुन्दरी छन्द)
सुभग सम्यग् दर्शन-ज्ञान जू, कह चरित्र सुधारक मान जू |
अर्घ्य सुन्दर द्रव्य सु आठ ले, चरण पूजहूँ साज सु ठाठले ||
ओं ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप रत्नत्रयाय अर्यं t निर्वपामीति स्वाहा ।
भवनवासी देव व्यन्तर ज्योतिषी कल्पेन्द्र जू |
जिनगृह जिनेश्वरदेव राजें रत्न के प्रतिबिम्ब जू ||
तोरण ध्वजा घंटा विराजें चंवर ढुरत नवीन जू |
वर अर्घ्य ले तिन चरण पूजूं हर्ष हिय अति लीन जू ||
ओं ह्रीं श्री भवनेन्द्र-व्यंतरेन्द्र-ज्योतिषीन्द्र-कल्पेन्द्र-चतु:प्रकार-देवगृहेषु श्रीजिनचैत्यालयेभ्य: अर्यं त निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
अवधि चार प्रकार मुनि, धारत जे ऋषिराय |
अर्घ्य लेय तिन चर्ण जजि, विघन सघन मिट जाय ||
ओं ह्रीं श्री चतु:प्रकार-अवधिधारक-मुनिभ्य: अर्यं a निर्वपामीति स्वाहा ।
(भुजंगप्रयात छन्द)
कही आठ ऋद्धि धरे जे मुनीशं, महाकार्यकारी बखानी गनीशं |
जल गंध आदि दे जजूं चर्न तेरे, लहूं सुख सबै रे हरूं दु:ख फेरे |
ओं ह्रीं श्री अष्टऋद्धि-सहित-मुनिभ्य: अर्यं,र निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री देवी प्रथम बखानी, इन आदिक चौबीसों मानी |
तत्पर जिन भक्ति विषैं हैं, पूजत सब रोग नशें हैं ||
ओं ह्रीं श्री ‘श्री’आदि सर्वदेवि-सेवितेभ्य: चतुर्विन्शति-जिनेन्द्रेभ्य: अर्यंदु निर्वपामीति स्वाहा ।
(हंसा छन्द)
यंत्र विषैं वरन्यो तिरकोन, ह्रीं तहँ तीन युक्त सुखभोन ||
जल-फलादि वसु द्रव्य मिलाय, अर्घ सहित पूजूँ सिरनाय ||
ओं ह्रीं श्री त्रिकोणमध्ये तीन ह्रीं संयुक्ताय अर्यंाय निर्वपामीति स्वाहा ।
(तोमर छन्द)
दस आठ दोष निरवारि, छियालीस महागुण धारि |
वसु द्रव्य अनूप मिलाय, तिन चर्न जजूं सुखदाय ||
ओं ह्रीं श्रीअष्टादशदोष-रहिताय छियालीस-महागुणयुक्ताय अरिहंत- परमेष्ठिने अर्यंहा निर्वपामीति स्वाहा ।
(सोरठा)
दश दिश दश दिग्पाल, दिशा नाम सो नामवर |
तिन गृह श्री जिन आल, पूजूं वंदूं मैं सदा ||
ओं ह्रीं श्री दशदिग्पालेभवनेषु जिनबिम्बेभ्य: अर्यंदू निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
ऋषिमंडल शुभ यंत्र के, देवी देव चितारि |
अर्घसहित प्रभु पूजहूँ, दु:ख दारिद्र निवारि ||
ओं ह्रीं श्री ऋषिमंडल-सम्बन्धि-देवीदेवसेवितेभ्य: जिनेन्द्रेभ्य: अर्यं a निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(दोहा)
चौबीसों जिन चरन नमि, गणधर नाऊँ भाल |
शारद पद पंकज नमूँ, गाऊँ शुभ जयमाल ||
जय ‘आदीश्वर जिन’ आदिदेव, शत इन्द्र जजें मैं करहुँ सेव |
जय ‘अजित जिनेश्वर’ जे अजीत, जे जीत भये भव तें अतीत ||१||
जय ‘संभव जिन’ भवकूप माँहि, डूबत राखहु तुम शर्ण आंहि |
जय ‘अभिनंदन’ आनंद देत, ज्यों कमलों पर रवि करत हेत ||२||
जय ‘सुमति’ सुमति दाता जिनंद, जय कुमति तिमिर नाशन दिनंद |
जय पद्मालंकृत ‘पद्मदेव’ दिन रयन करहुँ तव चरन सेव ||३||
जय ‘श्री सुपार्श्व’ भवपाश नाश, भवि जीवन कूँ दियो मुक्तिवास |
जय ‘चंद’ जिनेश दयानिधान, गुणसागर नागरसुख प्रमान ||४||
जय ‘पुष्पदंत जिनवर’ जगीश, शत इन्द्र नमत नित आत्मशीश |
जय शीतल वच ‘शीतल जिनंद’, भवताप नशावन जगत् चंद ||५||
जय जय ‘श्रेयांस जिन’ अति उदार, भवि कंठ माँहि मुक्ता सुहार |
जय ‘वासुपूज्य’ वासव खगेश, तुम स्तुति करि नमिहें हमेश ||६||
जय ‘विमल जिनेश्वर’ विमलदेव, मल रहित विराजत करहुँ सेव |
जय ‘जिन अनंत’ के गुण अनंत, कथनी कथ गणधर लहे न अंत ||७||
जय ‘धर्मधुरंधर’ धर्मधीर, जय धर्मचक्र शुचि ल्याय वीर |
जय ’शांतिजिनेश्वर’ शांतभाव, भव वन भटकत शुभ मग लखाव ||८||
जय ‘कुंथु’ कुंथुवा जीव पाल, सेवक पर रक्षा करि कृपाल |
जय ‘अरहनाथ’ अरि कर्म शैल, तपवज्र खंड लहि मुक्ति गैल ||९||
जय ‘मल्लि जिनेश्वर’ कर्म आठ, मल डारे पायो मुक्ति ठाठ |
जय ‘मुनिसुव्रत’ सुव्रत धरंत, तुम सुव्रत व्रत पालन महंत ||१०||
जय ‘नमि’ नमत सुर वृंद पाय, पद पंकज निरखत शीश नाय |
जय ‘नेमि जिनेन्द्र’ दयानिधान, फैलायो जग में तत्त्वज्ञान ||११||
जय ‘पारस जिन’ आलस निवारि, उपसर्ग रुद्रकृत जीत धारि |
जय ‘महावीर’ महा धीरधार, भवकूप थकी जग तें निकार ||१२||
जय ‘वर्ग आठ’ सुन्दर अपार, तिन भेद लखत बुध करत सार |
जय पाँच पूज्य ‘परमेष्ठि सार, सुमिरत बरसे आनंदधार ||१३||
जय ‘दर्शन ज्ञान चारित्र‘ तीन, ये रत्न महा उज्ज्वल प्रवीन |
जय ‘चार प्रकार सुदेव’ सार, तिनके गृह जिन मंदिर अपार ||१४||
वे पूजें वसुविधि द्रव्य ल्याय, मैं इत जजि तुम पद शीश नाय |
जो ‘मुनिवर धारत अवधि चार’, तिन पूजै भवि भवसिंधु पार ||१५||
जो ‘आठ ऋद्धि मुनिवर’ धरंत, ते मौपे करुणा करि महंत |
‘चौबीस देवि’ जिनभक्ति लीन, वंदन ताको सु परोक्ष कीन ||१६||
जे ‘ह्रीं’ तीन त्रैकोण माँहि, तिन नमत सदा आनंद पाहिं |
जय जय जय ‘श्री अरिहंत बिम्ब’, तिन पद पूजूँ मैं खोर्इ डिंब ||१७||
जो ‘दस दिग्पाल’ कहे महान्, जे दिशा नाम सो नाम जान |
जे तिनि के गृह जिनराज धाम, जे रत्नमर्इ प्रतिमा भिराम ||१८||
ध्वज तोरण घंटा युक्त सार, मोतिन माला लटके अपार |
जे ता मधि वेदी हैं अनूप, तहाँ राजत हैं जिनराज भूप ||१९||
जय मुद्रा शांति विराजमान, जा लखि वैराग्य बढ़े महान् |
जे देवी देव सु आय आय, पूजें तिन पद मन वचन काय ||२०||
जल मिष्ट सु उज्ज्वल पय समान, चंदन मलयागिरि को महान् |
जे अक्षत अनियारे सु लाय, जे पुष्पन की माला बनाय ||२१||
चरु मधुर विविध ताजी अपार, दीपक मणिमय उद्योतकार |
जे धूप सु कृष्णागरु सुखेय, फल विविध भाँति के मिष्ट लेय ||२२||
वर अर्घ अनूपम करत देव, जिनराज चरण आगे चढ़ेव |
फिर मुख तें स्तुति करते उचार, हो करुणानिधि संसार तार ||२३||
मैं दु:ख सहे संसार र्इश, तुम तें छानी नाह्रीं जगीश |
जे इहविध मौखिक स्तुति उचार, तिन नशत शीघ्र संसार भार ||२४||
इहविधि जो जन पूजन कराय, ऋषिमंडल-यंत्र सु चित्त लाय |
जे ऋषिमंडल पूजन करंत, ते रोग-शोक संकट हरंत ||२५||
जे राजा-रण कुल वृद्धि हान, जल दुर्ग सु गज केहरि बखान |
जे विपत घोर अरु अहि मसान, भय दूर करे यह सकल जान ||२६||
जे राजभ्रष्ट ते राज पाय, पदभ्रष्ट थकी पद शुद्ध थाय |
धन अर्थी धन पावे महान, या में संशय कछु नाहिं जान ||२७||
भार्यार्थी अरु भार्या लहंत, सुत-अर्थी सुत पावे तुरंत |
जे रूपा सोना ताम्रपत्र, लिख तापर यंत्र महापवित्र ||२८||
ता पूजे भागे सकल-रोग, जे वात-पित्त-ज्वर नाशि शोग।
तिन गृह तें भूत-पिशाच जान, ते भाग जाहिं संशय न आन।।२९।।
जे ऋषिमंडल पूजा करंत, ते सुख पावत कहिं लहे न अंत |
जब ऐसी मैं मनमाँहिं जान, तब भावसहित पूजा सुठान ||३०||
वसुविधि के सुन्दर द्रव्य ल्याय, जिनराज चरण आगे चढ़ाय |
फिर करत आरती शुद्धभाव, जिनराज सभी लख हर्ष आव ||३१||
तुम देवन के हो देव देव! इक अरज चित्त में धारि लेव |
हे दीनदयाल दया कराय, जो मैं दु:खिया इह-जग भ्रमाय ||३२||
जे इस भव-वन में वास लीन, जे काल अनादि गमाय दीन |
मैं भ्रमत चतुर्गति-विपिन माँहि, दु:ख सहे सुक्ख को लेश नाहिं ||३३||
ये कर्म महारिपु जोर कीन, जे मनमाने ते दु:ख दीन |
ये काहू को नहिं डर धराय, इन तें भयभीत भयो अघाय ||३४||
यह एक जन्म की बात जान, मैं कह न सकत हूँ देव मान |
जब तुम अनंत परजाय जान, दरशायो संसृति पथ विधान ||३५||
उपकारी तुम बिन और नाहिं, दीखत मोकों इस जगत माँहि |
तुम सबलायक ज्ञायक जिनंद, रत्नत्रय सम्पति द्यो अमंद ||३६ ||
यह अरज करूँ मैं श्री जिनेश, भव-भव सेवा तुम पद हमेश |
भव-भव में श्रावककुल महान, भव-भव में प्रकटित तत्त्वज्ञान ||३७||
भव-भव में व्रत हो अनागार, तिस पालन तें हों भवाब्धि पार |
ये योग सदा मुझको लहान, हे दीनबन्धु करुणानिधान! ||३८||
‘दौलत आसेरी’ मित्र होय, तुम शरण गही हरषित सु होय |
(छन्द घत्तानन्दा)
जो पूजे ध्यावे, भक्ति बढावे, ऋषिमंडल शुभयंत्र तनी |
या भव सुख पावे सुजस लहावे, परभव स्वर्ग सुलक्ष धनी ||
ओं ह्रीं श्री सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय रोग-शोक-सर्वसंकट-हराय सर्वशांति-पुष्टिकराय, श्रीवृषभादि-चौबीस-तीर्थंकर, अष्ट-वर्ग, अरिहंतादि -पंचपद, दर्शन-ज्ञान-चारित्र, चतुर्णिकाय-देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्टऋद्धि- संयुक्त-ऋषिमंडल, चतुर्विंशति सुरी,तीन ह्रीं, अरिहंतबिम्ब, दश दिग्पाल,यन्त्र सम्बन्धि –देव-देवी सेविताय परमदेवाय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
ऋषिमंडल शुभयंत्र को, जो पूजे मन लाय |
ऋद्धि-सिद्धि ता घर बसे, विघन सघन मिट जाय ||
विघन सघन मिट जाय, सदा सुख सो नर पावे |
ऋषिमंडल शुभयंत्र-तनी, जो पूज रचाववे ||
भाव-भक्ति युत होय, सदा जो प्राणी ध्यावे |
या भव में सुख भोग, स्वर्ग की सम्पत्ति पावे ||
या पूजा परभाव मिटे, भव भ्रमण निरंतर |
या तें निश्चय मानि करो, नित भाव भक्तिधर ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।